PROBATION OF OFFENDERS ACT, 1958 : A Detail Analysis

Probation of Offenders Act 1958

THE PROBATION OF OFFENDERS ACT, 1958

दोषियों की परिवीक्षा अधिनियम, 1958

Act No. 20/1958

President Assent: 16 May 1958

Effective in Rajasthan: 01 Jan 1962

धारा 1 – नाम, क्षेत्र और शुरू होने की तारीख

(1) इस कानून का नाम दोषियों की परिवीक्षा अधिनियम, 1958 है।

(2) यह कानून पूरे भारत में लागू होता है।

(3) यह कानून किसी भी राज्य में तब लागू होगा जब उस राज्य की सरकार सरकारी अख़बार (राजपत्र) में घोषणा (अधिसूचना) करके तारीख तय करेगी। एक ही राज्य के अलग-अलग हिस्सों के लिए अलग-अलग तारीखें भी तय की जा सकती हैं।

धारा 2 – परिभाषाएँ

इस अधिनियम में, जब तक संदर्भ से कुछ और न समझा जाए—

(a) “संहिता” का मतलब है दंड प्रक्रिया संहिता, 1898

(b) “परिवीक्षा अधिकारी” का मतलब है ऐसा अधिकारी जिसे धारा 13 के तहत परिवीक्षा अधिकारी नियुक्त किया गया हो या ऐसा स्वीकृत किया गया हो।

(c) “निर्धारित” का मतलब है इस अधिनियम के तहत बनाए गए नियमों द्वारा तय किया गया

(d) इस अधिनियम में जो शब्द और अभिव्यक्तियाँ उपयोग की गई हैं लेकिन यहाँ परिभाषित नहीं हैं, और जो दंड प्रक्रिया संहिता, 1898 में परिभाषित हैं, उनका वही अर्थ होगा जो उस संहिता में दिया गया है।

धारा 3 – कुछ दोषियों को समझाकर (चेतावनी देकर) छोड़ने की अदालत की ताकत

अगर कोई व्यक्ति ऐसा अपराध करता है जो इन धाराओं के तहत आता है –
धारा 379 (चोरी),
धारा 380 (घर में चोरी),
धारा 381 (नौकर द्वारा मालिक की चोरी),
धारा 404 (मरे हुए व्यक्ति की संपत्ति का गलत इस्तेमाल),
धारा 420 (धोखाधड़ी से ठगी) –
जो कि भारतीय दंड संहिता, 1860 के अंतर्गत आते हैं,

या फिर ऐसा कोई दूसरा अपराध करता है जिसमें दो साल से ज़्यादा की सजा नहीं है, या केवल जुर्माना, या दोनों (सजा और जुर्माना) हो सकते हैं —
चाहे वह अपराध भारतीय दंड संहिता में हो या किसी और कानून में,

और अगर उस व्यक्ति के खिलाफ पहले कोई सजा (conviction) साबित नहीं हुई हो,

और अगर अदालत यह माने कि मामले की स्थिति, अपराध का स्वभाव, और उस व्यक्ति का व्यक्तित्व या चाल-चलन देखकर उसे सजा देना जरूरी नहीं है,

तो ऐसे में, भले ही कोई और कानून कुछ और कहता हो, अदालत उसे सजा देने या धारा 4 के तहत अच्छे आचरण पर छोड़ने की बजाय, समझा-बुझाकर, यानी उचित चेतावनी देकर, रिहा कर सकती है

स्पष्टीकरण:
इस धारा के हिसाब से, अगर किसी व्यक्ति को पहले इस धारा या धारा 4 के तहत छोड़ा गया हो, तो वह भी पहली सजा (पहले की दोषसिद्धि) मानी जाएगी।

धारा 4 – कुछ दोषियों को अच्छे आचरण पर रिहा करने की अदालत की शक्ति

(1) अगर अपराध फांसी या उम्रकैद वाला न हो और अदालत माने कि मामले की स्थिति, अपराध की प्रकृति, और दोषी के स्वभाव को देखकर उसे अच्छे आचरण पर रिहा करना ठीक है, तो अदालत उसे तुरंत सजा देने की जगह कह सकती है कि वह एक बॉन्ड भरे, जिसमें जमानतदार हो सकता है या नहीं, और वह व्यक्ति 3 साल से ज़्यादा नहीं की तय अवधि में जब बुलाया जाए तब हाज़िर हो, और तब तक शांति रखे और अच्छा व्यवहार करेबशर्ते अदालत को लगे कि दोषी या जमानतदार का स्थायी पता या रोजगार उस जगह पर है जहाँ अदालत का अधिकार है या जहाँ दोषी उस अवधि में रहेगा।

(2) ऐसा आदेश देने से पहले, अदालत को परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट (अगर हो) देखनी होगी।

(3) अदालत चाहें तो साथ में एक निगरानी (पर्यवेक्षण) आदेश भी दे सकती है, जिससे दोषी कम से कम 1 साल तक एक परिवीक्षा अधिकारी की निगरानी में रहेगा, और उसमें ज़रूरी शर्तें लगाई जा सकती हैं।

(4) निगरानी आदेश से पहले अदालत दोषी से कहेगी कि वह एक बॉन्ड भरे और यह माने कि वह सभी शर्तों का पालन करेगा, जैसे – कहाँ रहेगा, नशे से बचेगा, और दोबारा अपराध नहीं करेगा।

(5) अदालत दोषी को आदेश की सारी शर्तें समझाएगी, और उसकी एक-एक प्रति दोषी, जमानतदार (अगर हो) और परिवीक्षा अधिकारी को देगी।

धारा 5 – रिहा किए गए दोषी से हर्जाना और खर्च वसूलने की अदालत की शक्ति

(1) अगर किसी दोषी को धारा 3 या 4 के तहत रिहा किया गया है, तो अदालत चाहे तो उसी समय यह भी आदेश दे सकती है कि वह दोषी—
(a) जिस किसी व्यक्ति को अपराध के कारण नुकसान या चोट पहुँची है, उसे उचित हर्जाना (compensation) दे; और
(b) मुकदमे में आए उचित खर्चे (costs) को भी अदा करे, जितना अदालत ठीक समझे।
(2) उप-धारा (1) के तहत जो भी राशि देने का आदेश दिया गया है, उसे जुर्माने की तरह वसूला जा सकता है, जैसा कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 386 और 387 में बताया गया है।
(3) अगर कोई दीवानी अदालत (civil court) उसी मामले से जुड़े किसी विवाद की सुनवाई कर रही हो, तो वह अदालत, उप-धारा (1) के तहत जो हर्जाना पहले ही दिया गया हो या वसूला गया हो, उसे ध्यान में रखेगी जब वह अंतिम हर्जाना (damages) तय करेगी।

धारा 6 – इक्कीस वर्ष से कम आयु के दोषियों को कारावास देने पर प्रतिबंध

(1) जब कोई व्यक्ति जिसकी आयु इक्कीस वर्ष से कम हो, ऐसा अपराध करता है जो कारावास से दंडनीय हो (परंतु आजीवन कारावास से नहीं), और वह व्यक्ति दोषी पाया जाता है, तो वह अदालत उसे कारावास की सजा नहीं दे सकती, जब तक कि वह यह संतुष्ट न हो जाए कि मामले की परिस्थितियों, अपराध की प्रकृति, और दोषी के चरित्र को देखते हुए उसे धारा 3 या 4 के अंतर्गत नहीं छोड़ा जाना चाहिए। और यदि अदालत दोषी को कारावास की सजा देती है, तो उसे इसके कारणों को अभिलेख (record) में दर्ज करना होगा

(2) यह संतुष्ट होने के लिए कि धारा 3 या 4 के अंतर्गत दोषी को छोड़ना उपयुक्त नहीं है, अदालत को परिवीक्षा अधिकारी से रिपोर्ट मंगानी होगी, और यदि कोई रिपोर्ट हो तो उसे तथा दोषी के चरित्र, तथा उसकी शारीरिक और मानसिक अवस्था से संबंधित उपलब्ध अन्य जानकारी को ध्यान में रखना होगा।

धारा 7 – परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट गोपनीय होगी

धारा 4 की उप-धारा (2) या धारा 6 की उप-धारा (2) में उल्लिखित परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट को गोपनीय (confidential) माना जाएगा।
बशर्ते, अदालत यदि उपयुक्त समझे, तो वह उस रिपोर्ट का सार (मुख्य अंश) दोषी को बता सकती है और उसे यह अवसर दे सकती है कि वह ऐसा साक्ष्य (evidence) प्रस्तुत करे जो रिपोर्ट में लिखी गई बातों से संबंधित हो

धारा 8 – परिवीक्षा की शर्तों में परिवर्तन

(1) यदि परिवीक्षा अधिकारी के आवेदन पर, वह अदालत जिसने धारा 4 के अंतर्गत दोषी के संबंध में आदेश पारित किया था, यह माने कि दोषी और जनहित में ऐसा करना उचित या आवश्यक है, तो वह अदालत, जिस अवधि तक बांड प्रभावी है, उस दौरान बांड की शर्तों में परिवर्तन कर सकती है :- जैसे कि अवधि को बढ़ाना या घटाना (परंतु मूल आदेश की तारीख से तीन वर्ष से अधिक नहीं), या उसकी शर्तों को बदलना, या उसमें नई शर्तें जोड़ना
बशर्ते कि ऐसा कोई परिवर्तन करने से पहले दोषी और उसके जमानती/जमानतियों को सुनने का अवसर दिया जाएगा।

(2) यदि कोई जमानती उप-धारा (1) के अंतर्गत प्रस्तावित किसी परिवर्तन के लिए सहमति नहीं देता, तो अदालत दोषी से नया बांड भरवाने का आदेश दे सकती है, और यदि दोषी ऐसा करने से इनकार करे या विफल हो, तो अदालत उसे उस अपराध की सजा दे सकती है, जिसमें वह दोषी पाया गया था

(3) ऊपर कही किसी भी बात के बावजूद, यदि अदालत – जिसने धारा 4 के अंतर्गत आदेश दिया था – परिवीक्षा अधिकारी के आवेदन पर यह संतुष्ट हो जाए कि दोषी का आचरण ऐसा रहा है कि अब उसे आगे पर्यवेक्षण (supervision) में रखने की आवश्यकता नहीं है, तो अदालत दोषी द्वारा भरे गए बांड को समाप्त (discharge) कर सकती है।

धारा 9 – जब दोषी बांड की शर्तों का पालन नहीं करता, तब की प्रक्रिया

(1) अगर वह अदालत, जिसने धारा 4 के तहत दोषी को छोड़ा था, या कोई और अदालत जो उस दोषी को मूल अपराध में सजा दे सकती थी, को परिवीक्षा अधिकारी की रिपोर्ट या किसी और तरीके से यह विश्वास करने का कारण मिले कि दोषी ने अपने बांड की किसी भी शर्त का उल्लंघन किया है, तो अदालत –

  • दोषी के लिए गिरफ्तारी वारंट जारी कर सकती है, या
  • चाहे तो उसे और उसके जमानतियों को समन भेज सकती है, जिसमें उन्हें अदालत में एक निश्चित समय पर हाज़िर होने को कहा जाएगा।

(2) जिस अदालत में दोषी को लाया जाए या वह खुद हाज़िर हो जाए, वह अदालत —

  • दोषी को मामला खत्म होने तक हिरासत में भेज सकती है, या
  • उसे जमानत पर छोड़ सकती है, चाहे जमानती के साथ या बिना, और एक तारीख तय कर सकती है, जिस दिन दोषी को फिर हाज़िर होना होगा

(3) अगर अदालत मामला सुनने के बाद इस नतीजे पर पहुँचती है कि दोषी ने बांड की किसी भी शर्त का पालन नहीं किया, तो अदालत तुरंत निम्न में से कोई एक काम कर सकती है—

(a) दोषी को मूल अपराध की सजा दे सकती है, या
(b) अगर यह पहली बार बांड की शर्त तोड़ी गई है, तो बांड को जारी रखते हुए, दोषी पर अधिकतम 50 रुपये का जुर्माना लगा सकती है।

(4) अगर उप-धारा (3)(b) के तहत जो जुर्माना लगाया गया है, वह दोषी निश्चित समय में नहीं भरता, तो अदालत उसे मूल अपराध की सजा दे सकती है

धारा 10 – जमानतदारों के संबंध में प्रावधान

इस अधिनियम के अंतर्गत जो बांड (Bond) और जमानती (Sureties) दिए जाते हैं, उनके मामले में, दंड प्रक्रिया संहिता (Code of Criminal Procedure) की निम्नलिखित धाराएँ —
धारा 122, 126, 126A, 406A, 514, 514A, 514B और 515 जहाँ तक संभव हो, लागू होंगी।

धारा 11 – इस अधिनियम के तहत आदेश देने की सक्षम अदालतें, अपील व पुनरावलोकन और अपीलीय अदालतों की शक्तियाँ

(1) भले ही दंड प्रक्रिया संहिता (Code) या किसी अन्य कानून में कुछ भी लिखा हो, इस अधिनियम के तहत कोई भी अदालत जो दोषी को सजा देने की अधिकार रखती है, और साथ ही उच्च न्यायालय (High Court) या कोई और अदालत जहाँ मामला अपील या पुनरावलोकन में आया हो — ऐसा आदेश पारित कर सकती है।

(2) भले ही संहिता (Code) में कुछ भी लिखा हो, अगर धारा 3 या धारा 4 के तहत कोई आदेश किसी भी निचली अदालत द्वारा पारित किया गया है (High Court को छोड़कर), तो ऐसे आदेश के खिलाफ अपील उस अदालत में की जा सकती है, जहाँ उस निचली अदालत की सजा के खिलाफ सामान्य रूप से अपील जाती है।

(3) अगर किसी व्यक्ति की उम्र 21 साल से कम है, और उसे किसी अपराध में दोषी पाया गया है, लेकिन अदालत धारा 3 या 4 के अंतर्गत उसे नहीं छोड़ती और उसे सजा देती है (चाहे जुर्माने के साथ या बिना), और उस सजा के खिलाफ कोई अपील नहीं हो सकती या नहीं की जाती, तब —
भले ही संहिता (Code) या किसी कानून में कुछ भी लिखा हो — वह अदालत, जहाँ सामान्यतः उस निचली अदालत की सजा के खिलाफ अपील जाती है, वह:

  • स्वतः (अपने आप) या
  • दोषी व्यक्ति या परिवीक्षा अधिकारी के आवेदन पर,
    मामले की पूरी फाइल मंगवा सकती है और उचित आदेश पारित कर सकती है।

(4) अगर किसी दोषी के संबंध में धारा 3 या 4 के तहत आदेश पारित किया गया हो, तो अपील अदालत या उच्च न्यायालय, अगर वह पुनरावलोकन (revision) की शक्ति का उपयोग कर रही हो, तो:

  • ऐसा आदेश रद्द कर सकती है, और
  • उसकी जगह दोषी को कानून के अनुसार सजा दे सकती है।

बशर्ते, अपील अदालत या हाई कोर्ट, ऐसी सजा नहीं दे सकती जो उस निचली अदालत से ज्यादा कठोर हो, जिसने पहले दोषी ठहराया था।

धारा 12 – दोषसिद्धि से जुड़ी अयोग्यता (Disqualification) को हटाना

भले ही किसी अन्य कानून में कुछ भी लिखा हो,अगर कोई व्यक्ति किसी अपराध में दोषी पाया गया है और उसे धारा 3 या धारा 4 के तहत छोड़ा गया है, तो उसे किसी भी अयोग्यता (disqualification) का सामना नहीं करना पड़ेगा, जो कि उस अपराध में दोषसिद्धि (conviction) के कारण किसी कानून में हो सकती थी।

बशर्ते कि यह धारा उस व्यक्ति पर लागू नहीं होगी जिसे धारा 4 के तहत रिहा करने के बाद, फिर से उसी अपराध के लिए सजा दी जाती है।

धारा 13 – प्रोबेशन अधिकारी (Probation Officer)

(1) इस अधिनियम के तहत प्रोबेशन अधिकारी निम्न में से कोई हो सकता है—

(a) ऐसा व्यक्ति जिसे राज्य सरकार द्वारा प्रोबेशन अधिकारी नियुक्त किया गया हो या मान्यता दी गई हो

(b) ऐसा व्यक्ति जिसे इस उद्देश्य के लिए किसी संस्था द्वारा उपलब्ध कराया गया हो, और वह संस्था राज्य सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हो

(c) किसी विशेष मामले में, यदि न्यायालय को लगे कि कोई अन्य व्यक्ति विशेष परिस्थिति में प्रोबेशन अधिकारी बनने के योग्य है, तो न्यायालय उसे नियुक्त कर सकता है।

(2) कोई न्यायालय जो धारा 4 के तहत आदेश पारित करता है या वह ज़िला दंडाधिकारी (District Magistrate) जिस ज़िले में अपराधी उस समय रह रहा हो, वह किसी भी समय निगरानी आदेश (supervision order) में दिए गए व्यक्ति के स्थान पर किसी अन्य प्रोबेशन अधिकारी को नियुक्त कर सकता है

स्पष्टीकरण: इस धारा के लिए, प्रेसिडेंसी टाउन (Presidency Town) को एक ज़िला माना जाएगा, और मुख्य प्रेसिडेंसी मजिस्ट्रेट (Chief Presidency Magistrate) को उस ज़िले का जिला दंडाधिकारी माना जाएगा।

(3) प्रोबेशन अधिकारी, अपने कर्तव्यों का पालन करते समय, उस ज़िले के जिला दंडाधिकारी के अधीन रहेगा, जिसमें उस समय अपराधी निवास कर रहा हो।

धारा 14 –परिवीक्षा अधिकारियों के कर्तव्य

प्रोबेशन अधिकारी, ऐसे नियमों और शर्तों के अधीन रहते हुए, जो निर्धारित किए गए हों, निम्नलिखित कर्तव्य निभाएगा—

(a) न्यायालय के निर्देश अनुसार, अपराध के आरोपी व्यक्ति की परिस्थितियों या पारिवारिक पृष्ठभूमि की जांच करेगा, ताकि न्यायालय यह तय कर सके कि उसे किस तरीके से सबसे उपयुक्त ढंग से संभाला जाए, और इसके लिए रिपोर्ट न्यायालय को देगा

(b) प्रोबेशन पर रखे गए व्यक्तियों और अन्य जिनकी निगरानी उस पर सौंपी गई हो, उनकी देखरेख करेगा, और यदि आवश्यक हो तो उन्हें उपयुक्त रोजगार दिलाने का प्रयास करेगा

(c) जिन अपराधियों को न्यायालय द्वारा मुआवज़ा (compensation) या लागत (costs) देने का आदेश दिया गया है, उन्हें भुगतान करने में सलाह और सहायता देगा

(d) धारा 4 के तहत छोड़े गए व्यक्तियों को, निर्धारित मामलों और तरीकों में, सलाह और सहायता देगा

(e) ऐसे अन्य कार्य करेगा, जो नियमों द्वारा निर्धारित किए गए हों

धारा 15 – प्रोबेशन अधिकारी लोक सेवक माने जाएंगे

हर प्रोबेशन अधिकारी और इस अधिनियम के तहत नियुक्त किया गया हर अन्य अधिकारी, भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 21 के अर्थ में, लोक सेवक (public servant) माना जाएगा।

धारा 16 – अच्छे इरादे से किए गए काम का बचाव

अगर कोई काम इस अधिनियम या इसके तहत बनाए गए नियमों या आदेशों के अनुसार ईमानदारी (सद्भावना/good faith) से किया गया है या करने का इरादा था, तो उसके लिए राज्य सरकार, प्रोबेशन अधिकारी, या इस अधिनियम के तहत नियुक्त किसी भी अधिकारी के खिलाफ कोई मुकदमा या अन्य कानूनी कार्यवाही नहीं की जा सकती।

धारा 17 – नियम बनाने की शक्ति

(1) राज्य सरकार, केंद्र सरकार की स्वीकृति से, राजपत्र (Official Gazette) में सूचना (notification) द्वारा,
इस अधिनियम को लागू करने के लिए नियम बना सकती है।

(2) विशेष रूप से (ऊपर दी गई सामान्य शक्ति को घटाए बिना), नियम निम्नलिखित बातों के लिए बनाए जा सकते हैं:

(a) प्रोबेशन अधिकारियों की नियुक्ति, उनके सेवा की शर्तें, और उनका कार्य क्षेत्र

(b) इस अधिनियम के अंतर्गत प्रोबेशन अधिकारियों के कर्तव्य, और उनके द्वारा रिपोर्ट जमा करने की प्रक्रिया

(c) ऐसी संस्थाओं को मान्यता देने की शर्तें, जो धारा 13 की उपधारा (1) के खंड (b) के उद्देश्य से प्रोबेशन अधिकारी उपलब्ध कराती हैं।

(d) प्रोबेशन अधिकारियों को वेतन और खर्चों का भुगतान, या ऐसी संस्था को सब्सिडी देना जो प्रोबेशन अधिकारी उपलब्ध कराती है।

(e) कोई भी अन्य विषय जिसे नियत (prescribed) किया जाना है या किया जा सकता है।

(3) इस धारा के तहत बनाए गए सभी नियमों को प्रकाशन से पहले प्रकाशित करने की शर्त के अधीन रखा जाएगा और जैसे ही बनाए जाएं, उन्हें राज्य विधानसभा (State Legislature) के समक्ष प्रस्तुत (lay) किया जाएगा

धारा 18 – कुछ अधिनियमों की प्रभावशीलता की सुरक्षा

इस अधिनियम में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे निम्नलिखित की प्रभावशीलता पर कोई असर पड़े:

  • सुधार गृह अधिनियम, 1897 (अधिनियम संख्या 8 का धारा 31)
  • भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 (अधिनियम संख्या 2) की धारा 5 की उपधारा (2)
  • या किसी राज्य में किशोर अपराधियों (juvenile offenders) या बोर्स्टल स्कूलों (Borstal Schools) से संबंधित किसी भी प्रचलित कानून पर।

धारा 19 – कुछ क्षेत्रों में संहिता की धारा 562 का लागू न होना

धारा 18 के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता (Code) की धारा 562 उन राज्यों या उनके भागों (भागों का मतलब राज्य का कोई क्षेत्र) में लागू नहीं रहेगी, जहाँ यह अधिनियम लागू कर दिया गया है।

The section 562 of Code, 1898 was replaced with section 360 of CrPC, 1973 and now replaced with 401 of BNSS, 2023.