Constitution of India

Indian Constitution

Effective from 26 Jan 1950

उद्घोषणा – Preamble

हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न (SOVEREIGN), समाजवादी (SOCIALIST), पंथनिरपेक्ष (SECULAR), लोकतांत्रिक (DEMOCRATIC), गणराज्य (REPUBLIC) बनाने का संकल्पपूर्वक निश्चय करते हैं और अपने सभी नागरिकों को:

न्याय (JUSTICE) – सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक;
स्वतंत्रता (LIBERTY) – विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, श्रद्धा और उपासना की;
समानता (EQUALITY) – प्रतिष्ठा और अवसरों में;
और इन सबके बीच
बंधुत्व (FRATERNITY) – जिससे व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता व अखंडता सुनिश्चित हो;
को प्राप्त कराने के लिए,

हम, भारत की संविधान सभा में, आज दिनांक 26 नवम्बर 1949 को, यह संविधान स्वीकार करते हैं, अधिनियमित करते हैं और आत्मार्पित करते हैं।

[संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा “SOVEREIGN DEMOCRATIC REPUBLIC” को बदलकर “SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC” किया गया और “unity of the Nation” को बदलकर “unity and integrity of the Nation” किया गया।]

भाग I – संघ और उसका क्षेत्रफल – Part I: The Union and its Territory

धारा 1 : संघ का नाम और राज्य क्षेत्र – Name and Territory of the Union

(1) भारत (India), अर्थात् भारतवर्ष, राज्यों का संघ होगा।
(2) राज्यों और उनके क्षेत्रों का उल्लेख प्रथम अनुसूची में किया गया है।
(3) भारत का क्षेत्रफल निम्नलिखित से मिलकर बना होगा–
(a) राज्यों के क्षेत्रफल से,
(b) प्रथम अनुसूची में बताए गए केंद्र शासित प्रदेशों से,
(c) तथा वे अन्य क्षेत्र जो भारत द्वारा अर्जित किए जाएं।

[संविधान (सातवां संशोधन) अधिनियम, 1956 द्वारा राज्य पुनर्गठन किया गया और भाग A, B, C, D को हटाकर केवल “राज्य” और “केंद्र शासित प्रदेश” नामों का प्रयोग किया गया।]

धारा 2 : नए राज्यों को संघ में सम्मिलन या स्थापना – Admission or Establishment of New States

संसद कानून बनाकर किसी नए राज्य को भारत में शामिल कर सकती है या नया राज्य स्थापित कर सकती है, और इसके लिए वह उपयुक्त शर्तें और नियम तय कर सकती है।

धारा 2A : सिक्किम का संघ के साथ संबंध – Sikkim to be Associated with the Union

[यह धारा संविधान (35वां संशोधन) अधिनियम, 1974 द्वारा जोड़ी गई थी और 36वें संशोधन अधिनियम, 1975 द्वारा हटाई गई।]
सिक्किम, जैसा कि दसवीं अनुसूची में वर्णित क्षेत्र है, को संघ के साथ विशेष शर्तों के अधीन जोड़ा गया था।

[यह संशोधन सिक्किम को एक विशेष दर्जा देकर भारत के साथ जोड़ने के लिए किया गया था, जिससे उन्हें विधानमंडल में प्रतिनिधित्व और राजनीतिक अधिकार मिले। बाद में 36वें संशोधन द्वारा सिक्किम भारत का पूर्ण राज्य बन गया।]

धारा 3 : नए राज्यों का निर्माण और राज्यों के क्षेत्र, सीमाओं या नामों में परिवर्तन – Formation of New States and Alteration of Areas, Boundaries or Names of Existing States

संसद कानून बनाकर निम्न कर सकती है:
(a) किसी राज्य से क्षेत्र अलग करके नया राज्य बना सकती है या दो या अधिक राज्यों/भागों को मिलाकर नया राज्य बना सकती है,
(b) किसी राज्य के क्षेत्र को बढ़ा सकती है,
(c) किसी राज्य का क्षेत्र घटा सकती है,
(d) किसी राज्य की सीमाओं में परिवर्तन कर सकती है,
(e) किसी राज्य का नाम बदल सकती है।

परंतु, ऐसा कोई विधेयक संसद के किसी सदन में राष्ट्रपति की अनुशंसा के बिना प्रस्तुत नहीं किया जाएगा, और यदि प्रस्ताव किसी राज्य के क्षेत्र, सीमाएं या नाम को प्रभावित करता है, तो राष्ट्रपति उसे उस राज्य की विधायिका को विचार के लिए भेजेगा, और निश्चित या बढ़ाई गई अवधि में उसका उत्तर न मिलने पर भी संसद उसे पारित कर सकती है।

[संविधान (पाँचवां संशोधन) अधिनियम, 1955 द्वारा इस धारा में समय-सीमा निर्धारित की गई ताकि राज्य विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लंबित न रखें।]

स्पष्टीकरण 1: उपधाराओं (a) से (e) में “राज्य” में केंद्र शासित प्रदेश भी शामिल हैं, परंतु उपबंध (proviso) में “राज्य” का अर्थ केवल राज्य है।
स्पष्टीकरण 2: उपधारा (a) में संसद को यह अधिकार है कि वह किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के किसी भाग को दूसरे राज्य या केंद्र शासित प्रदेश से मिलाकर नया राज्य या केंद्र शासित प्रदेश बना सकती है।

[संविधान (18वां संशोधन) अधिनियम, 1966 द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि “राज्य” में केंद्र शासित प्रदेश भी शामिल होते हैं, लेकिन उपबंध में नहीं।]

धारा 4 : धारा 2 और 3 के अंतर्गत बनाए गए कानूनों से अनुसूचियों में संशोधन और अन्य संबंधित प्रावधान – Laws made under Articles 2 and 3

(1) धारा 2 और 3 के अंतर्गत बनाए गए किसी भी कानून में प्रथम और चतुर्थ अनुसूची में आवश्यक संशोधन का प्रावधान होगा, तथा उसमें ऐसे पूरक, सहायक और परिणामस्वरूप प्रावधान भी शामिल हो सकते हैं, जैसे कि संसद में और संबंधित राज्यों की विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व का निर्धारण।

(2) ऐसा कोई भी कानून संविधान संशोधन नहीं माना जाएगा जैसा कि धारा 368 में कहा गया है।

भाग II – नागरिकता – Part II: Citizenship

धारा 5 : संविधान प्रारंभ होते समय नागरिकता – Citizenship at the Commencement of the Constitution

संविधान लागू होने के समय हर व्यक्ति जिसे भारत में निवास स्थान (domicile) प्राप्त है, और–
(a) जो भारत की भूमि पर जन्मा है; या
(b) जिसके माता या पिता में से कोई भारत की भूमि पर जन्मा है; या
(c) जो संविधान लागू होने से पहले कम से कम पिछले पाँच वर्षों से सामान्य रूप से भारत में रह रहा है,
भारत का नागरिक माना जाएगा।

धारा 6 : पाकिस्तान से भारत आए कुछ व्यक्तियों की नागरिकता का अधिकार – Citizenship of Persons Migrated from Pakistan

धारा 5 के बावजूद, जो व्यक्ति पाकिस्तान से भारत में आए हैं, वे भारत के नागरिक माने जाएंगे यदि–
(a) वह या उसके माता-पिता या दादा-दादी में से कोई Government of India Act, 1935 के अनुसार भारत में जन्मा हो; और
(b)
(i) यदि वह व्यक्ति 19 जुलाई 1948 से पहले आया, तो वह भारत में लगातार रह रहा हो; या
(ii) यदि वह 19 जुलाई 1948 या उसके बाद आया हो, तो उसने संविधान लागू होने से पहले भारत सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी से आवेदन करके पंजीकरण करवाया हो।

परंतु, ऐसा व्यक्ति तभी पंजीकृत किया जाएगा जब वह अपने आवेदन से पूर्व कम से कम छह महीने से भारत में रह रहा हो।

धारा 7 : पाकिस्तान गए कुछ व्यक्तियों की नागरिकता का अधिकार – Citizenship of Migrants to Pakistan

धाराओं 5 और 6 के बावजूद, जो व्यक्ति 1 मार्च 1947 के बाद भारत से पाकिस्तान चला गया, वह भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा।

परंतु, यदि वह व्यक्ति कानून द्वारा जारी पुनःस्थापन या स्थायी वापसी के परमिट के तहत भारत वापस आया है, तो वह धारा 6(b) के लिए ऐसा माना जाएगा कि वह 19 जुलाई 1948 के बाद भारत में आया है।

धारा 8 : विदेशों में रहने वाले भारतीय मूल के कुछ व्यक्तियों की नागरिकता – Citizenship of Indian Origin Persons Residing Outside India

धारा 5 के बावजूद, कोई व्यक्ति (या उसके माता, या दादा-दादी) जो Government of India Act, 1935 के अनुसार भारत में जन्मा है और जो विदेश में सामान्य रूप से रह रहा है, वह भारत का नागरिक माना जाएगा, यदि–
उसने भारत के राजनयिक या वाणिज्य दूतावास अधिकारी के पास आवेदन कर अपने को नागरिक के रूप में पंजीकृत कराया हो, चाहे वह आवेदन संविधान लागू होने से पहले किया गया हो या बाद में।

धारा 9 : स्वेच्छा से विदेशी नागरिकता लेने वाले भारतीय नागरिक नहीं माने जाएंगे – Persons Voluntarily Acquiring Foreign Citizenship Not to be Citizens

कोई भी व्यक्ति, जो धारा 5, 6 या 8 के तहत भारत का नागरिक है, यदि वह स्वेच्छा से किसी अन्य देश की नागरिकता लेता है, तो वह भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा।

धारा 10 : नागरिकता के अधिकार का निरंतर प्रभाव – Continuance of the Rights of Citizenship

जो व्यक्ति इस भाग की किसी भी धारा के तहत भारत का नागरिक है या माना गया है, वह, संसद द्वारा बनाए गए किसी भी कानून के अधीन, भारत का नागरिक बना रहेगा।

धारा 11 : संसद को नागरिकता संबंधी कानून बनाने का अधिकार – Parliament’s Power to Regulate Citizenship

इस भाग की पूर्ववर्ती धाराओं में कुछ भी ऐसा नहीं है जो संसद को नागरिकता के प्राप्त करने, समाप्त करने और अन्य सभी मामलों पर कानून बनाने से रोके

भाग III – मूल अधिकार – Part III: Fundamental Rights

सामान्य – General

धारा 12 : परिभाषा – Definition

इस भाग में “राज्य” का अर्थ है – भारत सरकार और संसद, राज्य सरकारें और विधानमंडल, तथा भारत की सीमाओं के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण में आने वाली सभी स्थानीय या अन्य प्राधिकृत संस्थाएं

धारा 13 : मूल अधिकारों के विरुद्ध कानूनों की अमान्यता – Laws Inconsistent with Fundamental Rights

(1) संविधान लागू होने से पहले भारत में लागू वे सभी कानून, जो इस भाग के किसी प्रावधान से असंगत हैं, उस सीमा तक अमान्य होंगे।
(2) राज्य कोई ऐसा कानून नहीं बना सकता, जो इस भाग द्वारा दिए गए अधिकारों को छीनता या घटाता है, और ऐसा कोई कानून, उस सीमा तक अमान्य होगा।
(3) “कानून” में अध्यादेश, आदेश, नियम, उपविधि, अधिसूचना, प्रथा या रीतियाँ भी शामिल हैं जिनका कानूनी प्रभाव हो
“लागू कानून” में वे कानून शामिल हैं जो संविधान लागू होने से पहले बनाए गए और निरस्त नहीं किए गए हैं, भले ही वे उस समय किसी क्षेत्र में लागू न हों।
(4) यह धारा संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत किए गए संशोधन पर लागू नहीं होगी।

समानता का अधिकार – Right to Equality

धारा 14 : कानून के समक्ष समानता – Equality before Law

राज्य किसी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या कानूनों की समान सुरक्षा से वंचित नहीं करेगा।

धारा 15 : धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर भेदभाव का निषेध – Prohibition of Discrimination

(1) राज्य नागरिकों के साथ केवल धर्म, जाति, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।
(2) कोई नागरिक केवल इन आधारों पर सार्वजनिक स्थानों जैसे दुकानों, होटल, रेस्टोरेंट, जलस्रोतों, सड़क आदि पर प्रतिबंधित नहीं होगा।
(3) राज्य महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान बना सकता है।
(4) राज्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों व जनजातियों के उत्थान हेतु विशेष प्रावधान बना सकता है।
(5) राज्य उपर्युक्त वर्गों को शैक्षणिक संस्थाओं में प्रवेश हेतु विशेष प्रावधान बना सकता है (अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को छोड़कर)।
(6) राज्य आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों (EWS) के लिए 10% तक आरक्षण सहित विशेष प्रावधान बना सकता है।

धारा 16 : सरकारी रोजगार में अवसर की समानता – Equality in Public Employment

(1) सभी नागरिकों को सरकारी नौकरी में समान अवसर मिलेगा।
(2) केवल धर्म, जाति, लिंग, वंश, जन्म स्थान या निवास के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा।
(3) संसद कुछ नौकरियों हेतु राज्य या केंद्रशासित क्षेत्र में निवास की शर्त तय कर सकती है।
(4) राज्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान कर सकता है, यदि वे पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व नहीं कर रहे हों।
(4A) अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए पदोन्नति में आरक्षण संभव है।
(4B) आरक्षित रिक्तियों को अगले वर्षों में अलग श्रेणी मानकर भरा जा सकता है, यह 50% की सीमा के विरुद्ध नहीं होगा।
(5) धर्म आधारित संस्थाओं में धार्मिक शर्त लागू हो सकती है।
(6) आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% तक आरक्षण संभव है (पिछड़े वर्गों को छोड़कर)।

धारा 17 : अस्पृश्यता का अंत – Abolition of Untouchability

अस्पृश्यता समाप्त की जाती है और उसका कोई भी व्यवहार निषिद्ध और दंडनीय अपराध होगा।

धारा 18 : उपाधियों का अंत – Abolition of Titles

(1) राज्य कोई गैर-सैन्य/गैर-शैक्षिक उपाधि नहीं देगा।
(2) भारतीय नागरिक किसी विदेशी उपाधि को स्वीकार नहीं कर सकता।
(3)(4) राज्य के अधीन कोई व्यक्ति राष्ट्रपति की अनुमति के बिना कोई विदेशी उपाधि, उपहार या पद स्वीकार नहीं कर सकता।

स्वतंत्रता का अधिकार – Right to Freedom

धारा 19 : भाषण आदि की स्वतंत्रता – Protection of Certain Freedoms

(1) सभी नागरिकों को ये अधिकार प्राप्त हैं–
(a) अभिव्यक्ति और भाषण की स्वतंत्रता,
(b) शांतिपूर्ण और नि:शस्त्र रूप से सभा करने का अधिकार,
(c) संघ या सहकारी समिति बनाने का अधिकार,
(d) भारत में कहीं भी आने-जाने का अधिकार,
(e) भारत में कहीं भी बसने और रहने का अधिकार,
(g) किसी व्यवसाय, व्यापार, पेशा अपनाने का अधिकार।

(2)-(6) ये अधिकार सीमित किए जा सकते हैं, यदि –

भारत की संप्रभुता, एकता, सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता, या अदालत की अवमानना, मानहानि, अपराध के उकसावे आदि के कारण राज्य द्वारा उचित प्रतिबंध लगाए जाएं।

विशेष रूप से, व्यवसाय/व्यवसाय संबंधी स्वतंत्रता पर –
(i) व्यवसाय के लिए तकनीकी योग्यता,
(ii) राज्य या सरकारी उपक्रम द्वारा व्यवसाय का संचालन, के संबंध में कानून बनाया जा सकता है।

धारा 20 : अपराधों से संबंधित संरक्षण – Protection in Respect of Conviction

(1) कोई व्यक्ति केवल उसी कृत्य के लिए दंडित होगा जो कानून के अनुसार अपराध था और उतने ही दंड तक जिसे उस समय कानून ने अनुमति दी हो।
(2) किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार दंडित नहीं किया जाएगा।
(3) किसी अभियुक्त को अपने विरुद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।

धारा 21 : जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण – Protection of Life and Personal Liberty

किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा, सिवाय कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार।

धारा 21A : शिक्षा का अधिकार – Right to Education

राज्य 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगा, जैसा कि वह कानून द्वारा निर्धारित करेगा।

अनुच्छेद 22 : गिरफ्तारी और नजरबंदी के मामलों में संरक्षण – Protection against arrest and detention in certain cases

(1) कोई भी व्यक्ति जिसे गिरफ़्तार किया गया है, उसे हिरासत में रखने से पहले जितनी जल्दी हो सके, गिरफ़्तारी के कारण बताए जाने चाहिए और उसे अपनी पसंद के किसी विधि-विशारद (वकील) से परामर्श करने और अपनी रक्षा करवाने का अधिकार होगा।

(2) हर व्यक्ति जिसे गिरफ़्तार करके हिरासत में लिया गया है, उसे 24 घंटे के भीतर (गिरफ़्तारी से लेकर मजिस्ट्रेट की अदालत तक पहुँचने में लगने वाले समय को छोड़कर) नजदीकी मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए, और मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना उसे उस अवधि से अधिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता।

(3) उपर्युक्त दो उपबंध (1) और (2) इन लोगों पर लागू नहीं होते:

(a) जो व्यक्ति शत्रु राष्ट्र का नागरिक है (शत्रु विदेशी), या
(b) जिसे किसी निवारक नजरबंदी (preventive detention) कानून के तहत गिरफ़्तार या हिरासत में लिया गया है।

(4) कोई भी निवारक नजरबंदी कानून किसी व्यक्ति को 3 महीने से अधिक अवधि के लिए हिरासत में रखने की अनुमति तब तक नहीं देगा, जब तक कि:

(a) एक सलाहकार बोर्ड (Advisory Board) — जिसमें उच्च न्यायालय के योग्य या पूर्व न्यायाधीश शामिल हों — यह रिपोर्ट न दे दे कि हिरासत में रखने का पर्याप्त कारण है;
(Proviso) लेकिन कोई भी व्यक्ति इस प्रावधान के अधीन संसद द्वारा बनाए गए कानून की अधिकतम सीमा से अधिक हिरासत में नहीं रखा जा सकता, या

(b) ऐसा व्यक्ति संसद द्वारा बनाए गए ऐसे कानून के अनुसार हिरासत में हो, जो उप-खंड (a) और (b) खंड (7) में निर्दिष्ट हो।

(5) यदि किसी व्यक्ति को निवारक नजरबंदी कानून के अंतर्गत हिरासत में लिया गया है, तो जितनी जल्दी हो सके, हिरासत के आदेश देने वाली प्राधिकरण को उसे हिरासत में लेने के कारण बताने होंगे, और उसे उस आदेश के विरुद्ध अभ्यावेदन (representation) प्रस्तुत करने का जल्द से जल्द अवसर देना होगा।

(6) लेकिन उपखंड (5) के अनुसार प्राधिकरण को कोई भी तथ्य बताने की आवश्यकता नहीं है, यदि वह माने कि ऐसे तथ्य को बताना सार्वजनिक हित के प्रतिकूल है।

(7) संसद एक कानून द्वारा यह निर्धारित कर सकती है:

(a) किन परिस्थितियों और किन वर्गों के मामलों में किसी व्यक्ति को 3 महीने से अधिक हिरासत में रखा जा सकता है बिना सलाहकार बोर्ड की राय लिए;
(b) किसी व्यक्ति को निवारक नजरबंदी कानून के अंतर्गत कितनी अधिकतम अवधि तक हिरासत में रखा जा सकता है;
(c) सलाहकार बोर्ड द्वारा जाँच के लिए कौन-सी प्रक्रिया अपनाई जाएगी।

अनुच्छेद 23 : मानव तस्करी और बंधुआ मज़दूरी का निषेध – Prohibition of traffic in human beings and forced labour

(1) मानव तस्करी, बंधुआ मज़दूरी (begar) और ऐसी अन्य सभी जबरन कराई जाने वाली मज़दूरी की मनाही है, और इस प्रावधान का कोई भी उल्लंघन कानून के अनुसार दंडनीय अपराध होगा।

(2) इस अनुच्छेद में राज्य को यह अधिकार प्राप्त है कि वह सार्वजनिक प्रयोजन के लिए अनिवार्य सेवा लगा सके, लेकिन इस सेवा के लिए धर्म, जाति, वर्ग या इनमें से किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 24 : बच्चों का खतरनाक कार्यों में नियोजन का निषेध – Prohibition of employment of children in factories, etc.

14 वर्ष से कम आयु का कोई भी बच्चा न तो किसी कारखाने या खदान में काम पर लगाया जाएगा, और न ही उसे किसी अन्य खतरनाक कार्य में नियोजित किया जाएगा।

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार – Right to Freedom of Religion

अनुच्छेद 25 : अंतःकरण की स्वतंत्रता और धर्म का स्वतंत्र रूप से पालन, प्रचार और प्रचार करने का अधिकार – Freedom of conscience and free profession, practice and propagation of religion

(1) सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य प्रावधानों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता और अपने धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार है।

(2) यह अनुच्छेद राज्य को यह अधिकार देता है कि वह:

(a) किसी भी धर्म से जुड़ी आर्थिक, वित्तीय, राजनीतिक या अन्य सांसारिक गतिविधियों को विनियमित या प्रतिबंधित कर सकता है;
(b) सामाजिक सुधार या जनकल्याण के लिए और सार्वजनिक हिंदू धार्मिक संस्थानों को सभी जातियों और वर्गों के लिए खोलने हेतु कानून बना सकता है।

स्पष्टीकरण 1: किरपान धारण करना और रखना सिख धर्म का हिस्सा माना जाएगा।

स्पष्टीकरण 2: उप-खंड (b) में “हिंदू” में सिख, जैन और बौद्ध धर्म के अनुयायी भी शामिल माने जाएंगे।

अनुच्छेद 26 : धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता – Freedom to manage religious affairs

सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए, हर धार्मिक संप्रदाय या उसके किसी भाग को ये अधिकार हैं:

(a) धार्मिक और परोपकारी उद्देश्य से संस्थाएं स्थापित करना और उन्हें बनाए रखना,
(b) धार्मिक मामलों में अपने तरीके से प्रबंधन करना,
(c) चल और अचल संपत्ति रखना और प्राप्त करना,
(d) उस संपत्ति को कानून के अनुसार प्रबंधित करना।

अनुच्छेद 27 : किसी विशेष धर्म के प्रचार हेतु कर न लगाए जाने की स्वतंत्रता – Freedom as to payment of taxes for promotion of any particular religion

किसी व्यक्ति को किसी ऐसे कर का भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा, जिसका उपयोग किसी विशेष धर्म या धार्मिक संप्रदाय के प्रचार या रखरखाव में किया जाता हो।

अनुच्छेद 28 : कुछ शैक्षणिक संस्थानों में धार्मिक शिक्षा या पूजा में भाग लेने की स्वतंत्रता – Freedom as to attendance at religious instruction or religious worship in certain educational institutions

(1) कोई धार्मिक शिक्षा किसी ऐसे **शैक्षणिक संस्थान में नहीं दी जाएगी जो पूरी तरह से राज्य के खर्च से चलता हो।
(2) यह प्रतिबंध उन संस्थानों पर लागू नहीं होगा, जो राज्य द्वारा प्रशासित हैं लेकिन किसी दान या न्यास के तहत स्थापित हुए हैं, जिसमें धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक हो।
(3) कोई भी व्यक्ति, जो किसी राज्य मान्यता प्राप्त या राज्य सहायता प्राप्त संस्थान में पढ़ता है, उसे बिना उसकी सहमति (या यदि नाबालिग हो तो अभिभावक की सहमति) के धार्मिक शिक्षा या पूजा में भाग लेने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

सांस्कृतिक और शैक्षणिक अधिकार – Cultural and Educational Rights

अनुच्छेद 29 : अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा – Protection of interests of minorities

(1) भारत के किसी भाग में निवास करने वाले ऐसे नागरिकों का कोई भी वर्ग, जिसकी अपनी विशिष्ट भाषा, लिपि या संस्कृति है, को उसे संरक्षित रखने का अधिकार है।
(2) कोई भी नागरिक को केवल धर्म, जाति, भाषा या इनमें से किसी आधार पर किसी राज्य द्वारा पोषित या राज्य सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थान में प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 30 : अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और चलाने का अधिकार – Right of minorities to establish and administer educational institutions

(1) सभी अल्पसंख्यकों (धर्म या भाषा के आधार पर) को यह अधिकार है कि वे अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करें और उनका प्रबंधन करें।
(1A) यदि किसी अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित शैक्षणिक संस्थान की संपत्ति अधिग्रहित की जाती है, तो ऐसी अधिग्रहण प्रक्रिया इतनी बाधक नहीं होनी चाहिए कि अनुच्छेद 30(1) के तहत प्रदत्त अधिकार समाप्त हो जाए।

(2) राज्य जब शैक्षणिक संस्थानों को सहायता देता है, तो वह केवल इस आधार पर किसी संस्थान के साथ भेदभाव नहीं करेगा कि वह किसी अल्पसंख्यक द्वारा संचालित है।

मूल अधिकार के रूप में संपत्ति का अधिकार (अब हटाया गया)

अनुच्छेद 31 : संपत्ति का अनिवार्य अधिग्रहण – Compulsory acquisition of property
👉 यह अनुच्छेद अब निरस्त (Repealed) किया जा चुका है। (संविधान के 44वें संशोधन द्वारा)

विशेष कानूनों को संरक्षण – Saving of Certain Laws

अनुच्छेद 31A : सम्पत्तियों के अधिग्रहण संबंधी कानूनों की वैधता – Saving of laws providing for acquisition of estates, etc.

(1) अनुच्छेद 13 के बावजूद, कोई कानून जो निम्नलिखित उद्देश्यों से बनाया गया है, उसे अनुच्छेद 14 या 19 के उल्लंघन के आधार पर शून्य नहीं माना जाएगा:

(a) किसी संपत्ति या जमींदारी अधिकार का राज्य द्वारा अधिग्रहण या उनमें संशोधन या समाप्ति,
(b) संपत्ति के बेहतर प्रबंधन के लिए उसका राज्य द्वारा सीमित अवधि के लिए अधिग्रहण,
(c) दो या अधिक कंपनियों का विलय (जनहित या प्रबंधन सुधार हेतु),
(d) कंपनियों के प्रबंधकों, निदेशकों या शेयरधारकों के अधिकारों को खत्म या सीमित करना,
(e) खनिज या खनिज तेल संबंधी अनुबंधों को समाप्त करना या उनमें संशोधन करना।

प्रथम प्रावधान: यदि ऐसा कानून राज्य द्वारा बनाया गया है, तो राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक है।

द्वितीय प्रावधान: व्यक्तिगत खेती की भूमि और उससे संबंधित इमारतें (सीलिंग सीमा के अंतर्गत), बिना उचित बाजार मूल्य दिए अधिग्रहित नहीं की जा सकतीं।

(2) “जमींदारी” शब्द का अर्थ:

  • ज़मीन का परंपरागत स्वामित्व, इनाम, माफी,
  • रैयतवारी ज़मीनें,
  • खेती योग्य या सहायक प्रयोजन की ज़मीनें, वन, चरागाह आदि।

अनुच्छेद 31B : नवम अनुसूची में सूचीबद्ध कानूनों की वैधता – Validation of certain Acts and Regulations

नवम अनुसूची में दिए गए कानून और विनियम, भले ही वे अनुच्छेद 14 या 19 का उल्लंघन करते हों, फिर भी वैध माने जाएंगे, और किसी न्यायालय में उनकी वैधता को चुनौती नहीं दी जा सकती।

अनुच्छेद 31C : नीति निदेशक तत्वों को लागू करने हेतु बनाए गए कानूनों की वैधता – Saving of laws giving effect to certain directive principles

अनुच्छेद 13 के बावजूद, यदि कोई कानून राज्य नीति (भाग IV) को लागू करने के लिए बनाया गया है, तो उसे अनुच्छेद 14 या 19 के उल्लंघन के आधार पर शून्य नहीं माना जाएगा।

यदि उसमें यह घोषित किया गया हो कि वह ऐसा नीति तत्व लागू कर रहा है, तो उसकी न्यायिक समीक्षा भी नहीं होगी।

प्रावधान: यदि यह कानून राज्य विधायिका द्वारा बनाया गया है, तो राष्ट्रपति की स्वीकृति आवश्यक है।

अनुच्छेद 31D : देशविरोधी गतिविधियों से संबंधित कानूनों को संरक्षण – Saving of laws in respect of anti-national activities यह अनुच्छेद अब निरस्त किया जा चुका है। (संविधान के 43वें संशोधन द्वारा)

अनुच्छेद 32 : इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन हेतु उपचार – Remedies for enforcement of rights conferred by this Part

(1) इस भाग (मूल अधिकारों) के अंतर्गत दिए गए अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उचित प्रक्रिया के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय में जाने का अधिकार सुनिश्चित किया गया है।

(2) सर्वोच्च न्यायालय को यह शक्ति प्राप्त है कि वह इन अधिकारों के प्रवर्तन हेतु निर्देश, आदेश या रिट्स (writs) जारी कर सके, जिनमें विशेष रूप से हैबियस कॉर्पस, मैंडमस, प्रोहिबिशन, क्वो वारंटो और सर्टिओरारी जैसे रिट्स भी शामिल हैं, जैसा कि जिस स्थिति में उपयुक्त हो।

(3) उपरोक्त (1) और (2) में वर्णित सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों से हटकर भी, संसद कानून द्वारा किसी अन्य न्यायालय को यह शक्ति दे सकती है कि वह अपने स्थानीय क्षेत्राधिकार के भीतर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अनुच्छेद (2) के अंतर्गत प्रयोग की जाने वाली सभी या कुछ शक्तियों का प्रयोग कर सके।

(4) इस अनुच्छेद के अंतर्गत दिया गया अधिकार निलंबित नहीं किया जाएगा, सिवाय इसके कि संविधान में अन्यथा कुछ प्रावधान किया गया हो।

अनुच्छेद 36 : परिभाषा – Definition

इस भाग (Part IV) में “राज्य” शब्द का वही अर्थ होगा जो भाग III (मौलिक अधिकार) में है, अर्थात केंद्र और राज्य सरकार, संसद, राज्य विधानमंडल, और स्थानीय अथवा अन्य प्राधिकारी जिन्हें कानून द्वारा शासन करने की शक्ति दी गई है।

अनुच्छेद 37 : इस भाग के सिद्धांतों का अनुप्रयोग – Application of the principles

इस भाग में दिए गए सिद्धांतों को अदालत में लागू नहीं किया जा सकता, लेकिन ये सिद्धांत देश के शासन के लिए बुनियादी हैं और राज्य का यह कर्तव्य है कि वह कानून बनाते समय इन सिद्धांतों को लागू करे।

अनुच्छेद 38 : लोगों के कल्याण के लिए सामाजिक व्यवस्था का सुरक्षित किया जाना – Social order for welfare

(1) राज्य जनता के कल्याण के लिए ऐसी सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित और संरक्षित करने की कोशिश करेगा जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय जीवन के सभी संस्थानों में हो।

(2) राज्य विशेष रूप से आय में असमानता को कम करने और अलग-अलग क्षेत्रों और व्यवसायों में लगे समूहों के बीच असमानता को हटाने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 39 : राज्य द्वारा पालन किए जाने वाले नीति सिद्धांत – Principles to be followed

राज्य निम्नलिखित बातों को सुनिश्चित करने के लिए अपनी नीति बनाएगा:

(a) सभी नागरिकों को आजीविका के पर्याप्त साधन समान रूप से मिलें।

(b) संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार हो जिससे समाज के हित की पूर्ति हो।

(c) आर्थिक व्यवस्था ऐसी न हो कि संपत्ति और उत्पादन के साधन कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित हो जाएँ।

(d) स्त्री और पुरुष को समान कार्य के लिए समान वेतन मिले।

(e) मजदूरों और बच्चों का स्वास्थ्य और ताकत का दुरुपयोग न हो।

(f) बच्चों को स्वस्थ विकास और गरिमा के वातावरण में बढ़ने के अवसर मिलें और उनका शोषण न हो।

अनुच्छेद 39A : समान न्याय और मुफ्त कानूनी सहायता – Equal justice and legal aid

राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि न्याय प्रणाली समान अवसर पर आधारित हो और कोई भी नागरिक आर्थिक कारणों से न्याय से वंचित न रह जाए। इसके लिए मुफ्त कानूनी सहायता दी जाएगी।

अनुच्छेद 40 : ग्राम पंचायतों का संगठन – Organisation of village panchayats

राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा और उन्हें स्वयं-शासन के रूप में कार्य करने के लिए आवश्यक अधिकार और शक्तियाँ देगा।

अनुच्छेद 41 : कार्य, शिक्षा और सहायता का अधिकार – Right to work, education and assistance

राज्य अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी, विकलांगता आदि की स्थिति में लोगों को कार्य, शिक्षा और सार्वजनिक सहायता देने की व्यवस्था करेगा।

अनुच्छेद 42 : न्यायोचित कार्य स्थितियाँ और मातृत्व सहायता – Humane conditions and maternity relief

राज्य कार्य करने की न्यायोचित और मानवीय स्थितियाँ सुनिश्चित करेगा और मातृत्व सहायता देगा।

अनुच्छेद 43 : श्रमिकों के लिए जीविकोपार्जन योग्य वेतन – Living wage for workers

राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि सभी श्रमिकों को ऐसा काम, वेतन और परिस्थितियाँ मिलें जिससे वे गरिमामय जीवन जी सकें, और ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित किया जाए।

अनुच्छेद 43A : उद्योगों के प्रबंधन में श्रमिकों की भागीदारी – Workers’ participation

राज्य कानून बनाकर यह सुनिश्चित करेगा कि उद्योगों में श्रमिकों को प्रबंधन में भागीदारी मिले।

अनुच्छेद 43B : सहकारी समितियों का संवर्धन – Promotion of cooperative societies

राज्य सहकारी समितियों के गठन, उनके स्वायत्त कामकाज, लोकतांत्रिक नियंत्रण और व्यावसायिक प्रबंधन को बढ़ावा देगा।

अनुच्छेद 44 : समान नागरिक संहिता – Uniform Civil Code

राज्य भारत के सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 45 : छह वर्ष से कम उम्र के बच्चों की देखभाल और शिक्षा – Early childhood care

राज्य यह प्रयास करेगा कि सभी बच्चों को छह वर्ष की आयु तक प्रारंभिक बाल देखभाल और शिक्षा मिले।

अनुच्छेद 46 : अनुसूचित जाति, जनजाति और कमजोर वर्गों का हित – Promotion of weaker sections

राज्य अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य कमजोर वर्गों की शिक्षा और आर्थिक उन्नति को बढ़ावा देगा और उन्हें शोषण व अन्याय से बचाएगा।

अनुच्छेद 47 : पोषण स्तर और जन स्वास्थ्य में सुधार – Nutrition and public health

राज्य पोषण स्तर, जीवन स्तर और जन स्वास्थ्य में सुधार को अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी मानेगा और नशीले पदार्थों के सेवन को रोकने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 48 : कृषि और पशुपालन का संगठन – Agriculture and animal husbandry

राज्य आधुनिक और वैज्ञानिक तरीके से कृषि और पशुपालन का संगठन करेगा और गोवंश तथा अन्य उपयोगी पशुओं की हत्या को रोकेगा।

अनुच्छेद 48A : पर्यावरण और वन्य जीवन की रक्षा – Environment protection

राज्य पर्यावरण, वन और वन्य जीवों की रक्षा और सुधार का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 49 : राष्ट्रीय महत्त्व के स्मारकों की रक्षा – Protection of monuments

राज्य उन स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं की रक्षा करेगा जिन्हें संसद द्वारा राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित किया गया हो।

अनुच्छेद 50 : कार्यपालिका से न्यायपालिका को अलग करना – Separation of judiciary

राज्य लोक सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने के लिए कदम उठाएगा।

अनुच्छेद 51 : अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देना – International peace

राज्य निम्न प्रयास करेगा:

(a) अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देना,
(b) देशों के बीच न्यायपूर्ण संबंध बनाए रखना,
(c) अंतरराष्ट्रीय कानूनों का सम्मान करना,
(d) विवादों का समाधान मध्यस्थता से करना।

भाग IV-A : मूल कर्तव्य (Fundamental Duties)

अनुच्छेद 51A : प्रत्येक नागरिक के कर्तव्य – Duties of every citizen

हर भारतीय नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह:

(a) संविधान, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रगान का सम्मान करे।
(b) स्वतंत्रता संग्राम की महान आदर्शों को माने और अपनाए।
(c) भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे।
(d) देश की रक्षा करे और जरूरत पड़ने पर राष्ट्रीय सेवा दे।
(e) सभी नागरिकों के बीच सौहार्द और भाईचारा बढ़ाए, तथा महिलाओं की गरिमा के विरुद्ध कोई कार्य न करे।
(f) भारत की समन्वित सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखे।
(g) पर्यावरण की रक्षा करे और जीवों के प्रति दया रखे।
(h) वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवता और सुधार की भावना को बढ़ावा दे।
(i) सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करे और हिंसा का त्याग करे।
(j) हर क्षेत्र में श्रेष्ठता की ओर प्रयास करे।
(k) माता-पिता या अभिभावक के रूप में 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को शिक्षा के अवसर दे।

अनुच्छेद 52 : भारत का राष्ट्रपति – The President of India

भारत का एक राष्ट्रपति होगा।

इसका अर्थ है कि भारत में संघ (Union) का एक सर्वोच्च संवैधानिक पद होगा जिसे “राष्ट्रपति” कहा जाएगा। यह पद हमेशा बना रहेगा।

अनुच्छेद 53 : संघ की कार्यपालिका शक्ति – Executive Power of the Union

(1) भारत की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी और वह इसे या तो सीधे स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से संविधान के अनुसार प्रयोग करेगा।

मतलब, केंद्र सरकार की सभी कार्यपालिका शक्तियाँ राष्ट्रपति को दी गई हैं। वे इन शक्तियों का प्रयोग स्वयं या मंत्रियों/सरकारी अधिकारियों के माध्यम से करते हैं, परंतु संविधान के दायरे में रहकर।

(2) इस अनुच्छेद के पहले खंड की सामान्यता को सीमित किए बिना यह भी स्पष्ट किया जाता है कि संघ की रक्षा सेनाओं का सर्वोच्च नेतृत्व (Supreme Command) राष्ट्रपति के पास होगा, और इसका प्रयोग कानून द्वारा नियंत्रित होगा।

इसका अर्थ है कि राष्ट्रपति भारतीय थल सेना, जल सेना और वायु सेना के सुप्रीम कमांडर होंगे, लेकिन उनके अधिकारों का प्रयोग संसद द्वारा बनाए गए कानूनों के अनुसार किया जाएगा।

(3) इस अनुच्छेद में कुछ बातों को स्पष्ट रूप से अपवाद के रूप में रखा गया है:

(a) इस अनुच्छेद की कोई बात ऐसी नहीं मानी जाएगी जिससे किसी वर्तमान कानून द्वारा किसी राज्य सरकार या किसी अन्य प्राधिकारी को दिए गए कार्यों का अधिकार राष्ट्रपति को हस्तांतरित हो जाता हो।

(b) संसद को यह रोकने वाली कोई बात नहीं मानी जाएगी कि वह किसी कानून द्वारा राष्ट्रपति के अलावा किसी अन्य प्राधिकारी को कार्य देने का अधिकार न दे सके।

मतलब यह है कि:

राज्य सरकार के कार्य राष्ट्रपति को नहीं दिए जा सकते सिर्फ इस अनुच्छेद के आधार पर।

संसद चाहे तो राष्ट्रपति के अलावा किसी अन्य प्राधिकारी (जैसे आयोग, विभाग, अधिकारी) को भी कानूनी रूप से कोई कार्य सौंप सकती है।

धारा 61 : राष्ट्रपति के महाभियोग की प्रक्रिया – Procedure for Impeachment of the President

(1) यदि राष्ट्रपति पर संविधान के उल्लंघन (violation of the Constitution) का आरोप लगाया जाए, तो यह आरोप संसद के किसी भी सदन (लोकसभा या राज्यसभा) द्वारा लगाया जा सकता है।

(2) कोई भी ऐसा आरोप तब तक नहीं लगाया जा सकता जब तक कि:

(a) उस आरोप का प्रस्ताव एक प्रस्तावना (resolution) के रूप में प्रस्तुत न किया गया हो, जिसके लिए कम से कम 14 दिन पहले लिखित सूचना दी गई हो और वह सूचना सदन के कुल सदस्यों के कम से कम एक-चौथाई (1/4) द्वारा हस्ताक्षरित हो, और

(b) वह प्रस्ताव सदन के कुल सदस्यों के दो-तिहाई (2/3) बहुमत से पारित न हो गया हो।

(3) जब एक सदन द्वारा ऐसा आरोप लगाया गया हो, तो दूसरे सदन को उस आरोप की जांच करनी होगी या जांच करानी होगी। इस जांच के दौरान राष्ट्रपति को स्वयं उपस्थित होने और अपने पक्ष में वकील रखने का अधिकार होगा।

(4)
यदि जांच के बाद, वह दूसरा सदन, जिसने जांच की या करवाई, अपने कुल सदस्यों के दो-तिहाई (2/3) बहुमत से प्रस्ताव पारित करता है, जिसमें यह घोषित किया जाता है कि राष्ट्रपति पर लगाया गया आरोप सिद्ध हो गया है, तो वह प्रस्ताव राष्ट्रपति को पद से हटाने का प्रभाव रखेगा, और राष्ट्रपति उसी दिन से पद से हट जाएगा जिस दिन वह प्रस्ताव पारित किया गया।

धारा 72 : राष्ट्रपति की क्षमा देने तथा दंड को स्थगित, कम या बदलने की शक्ति – Power of President to grant pardons, etc.

(1) राष्ट्रपति को निम्नलिखित मामलों में किसी व्यक्ति द्वारा किए गए अपराध के लिए दी गई सजा को क्षमा (pardon) देने, स्थगित (reprieve) करने, थोड़े समय के लिए राहत (respite) देने, माफ (remission) करने, या निलंबित (suspend) करने, कम (remit) करने, या बदल (commute) देने का अधिकार होगा:

(a) सभी मामलों में जहाँ सजा कोर्ट मार्शल (Court Martial) द्वारा दी गई हो।

(b) सभी मामलों में जहाँ सजा ऐसे कानून के अंतर्गत दी गई हो जो उन विषयों से संबंधित हो जिन पर संघ की कार्यकारी शक्ति लागू होती है

(c) उन सभी मामलों में जहाँ सजा मृत्यु-दंड (death sentence) हो।

(2) उपरोक्त (1)(a) में कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो सशस्त्र बलों के किसी अधिकारी को कानून द्वारा दी गई उस शक्ति को प्रभावित करे, जिसके अंतर्गत वह कोर्ट मार्शल द्वारा दी गई सजा को निलंबित, माफ या परिवर्तित कर सकता है

(3) उपरोक्त (1)(c) में कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो राज्यपाल को वर्तमान कानून के तहत दी गई मृत्यु-दंड की सजा को निलंबित, माफ या परिवर्तित करने की शक्ति को प्रभावित करे।

इस अनुच्छेद के अंतर्गत राष्ट्रपति के पास विशेषाधिकार होता है कि वह न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध व्यक्ति की सजा को पूरी तरह खत्म या कम कर सकता है, विशेषकर कोर्ट मार्शल और मृत्यु-दंड जैसे मामलों में। यह शक्ति संविधान द्वारा राष्ट्रपति को दी गई दया याचिका की विशेष शक्ति है।

धारा 74 : राष्ट्रपति को सहायता और परामर्श देने के लिए मंत्रिपरिषद – Council of Ministers to aid and advise President

(1) एक मंत्रिपरिषद (Council of Ministers) होगी, जिसकी अध्यक्षता प्रधानमंत्री (Prime Minister) करेगा और जो राष्ट्रपति को उसकी शक्तियों के प्रयोग में सहायता और परामर्श (aid and advise) देगी।
राष्ट्रपति को अपने कार्यों के निर्वहन में मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार कार्य करना होगायह अनिवार्य है।

परंतु, राष्ट्रपति यह अधिकार रखता है कि वह मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई किसी भी सलाह को, सामान्य रूप से या किसी विशेष रूप से, पुनर्विचार (reconsideration) के लिए वापस भेज सकता है।

पुनर्विचार के बाद जो भी सलाह दी जाएगी, राष्ट्रपति को उसी के अनुसार कार्य करना अनिवार्य होगा।

(2) कोई भी न्यायालय यह जांच नहीं कर सकता कि मंत्रियों ने राष्ट्रपति को कोई सलाह दी थी या नहीं, और अगर दी थी तो उसका स्वरूप क्या था

इस अनुच्छेद के अनुसार, राष्ट्रपति एक संवैधानिक प्रधान (constitutional head) होता है और उसे कार्यपालिका के निर्णयों में मंत्रिपरिषद की सलाह माननी अनिवार्य होती है, भले वह किसी निर्णय पर पुनर्विचार के लिए अनुरोध कर सकता है। यह भारत में संसदीय प्रणाली का आधार है।

अनुच्छेद 76 : भारत के महान्यायवादी – Attorney-General for India

(1) राष्ट्रपति उस व्यक्ति को भारत का महान्यायवादी (Attorney-General for India) नियुक्त करेगा, जो सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के योग्य हो

(2) महान्यायवादी का कार्य यह होगा कि वह भारत सरकार को कानूनी मामलों में सलाह दे और ऐसे अन्य कार्य करे जो कानूनी प्रकृति के हों, और जो समय-समय पर राष्ट्रपति द्वारा सौंपे या निर्देशित किए जाएं।

महान्यायवादी को इस संविधान या किसी अन्य वर्तमान कानून के अंतर्गत दिए गए सभी कार्य भी निभाने होंगे।

(3) महाधिवक्ता को भारत के सभी न्यायालयों में उपस्थित होने का अधिकार होगा यानी वह किसी भी न्यायालय में पक्ष रख सकता है।

(4) महाधिवक्ता राष्ट्रपति की इच्छा पर पद धारण करेगा, यानी वह जब तक राष्ट्रपति चाहें, पद पर बना रहेगा।

उसे जो वेतन (remuneration) दिया जाएगा, वह राष्ट्रपति द्वारा तय किया जाएगा।

नोट: महान्यायवादी, भारत सरकार का मुख्य कानूनी सलाहकार होता है, लेकिन यह एक सरकारी कर्मचारी नहीं होता, और उसे वकालत करने की अनुमति रहती है, बशर्ते वह भारत सरकार के खिलाफ कोई मामला न लड़े।

अनुच्छेद 123 : संसद के सत्रावकाश के दौरान अध्यादेश जारी करने की राष्ट्रपति की शक्ति

(1) जब संसद के दोनों सदन सत्र में न हों, और राष्ट्रपति यह संतुष्ट हों कि ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनके कारण तत्काल कार्रवाई आवश्यक है, तो वे अध्यादेश (Ordinance) जारी कर सकते हैं, जो स्थिति के अनुसार आवश्यक हो।

(2) जो अध्यादेश इस अनुच्छेद के तहत जारी किया जाएगा, वह संसद के एक अधिनियम के समान प्रभाव और बल रखेगा, लेकिन—

(a) ऐसे हर अध्यादेश को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखा जाएगा, और यदि वह अध्यादेश संसद के पुनः सत्र शुरू होने के छह सप्ताह के भीतर स्वीकृत नहीं होता, तो वह स्वतः समाप्त हो जाएगा।
यदि इस अवधि से पहले ही दोनों सदनों द्वारा उसे अस्वीकृत करने का प्रस्ताव पारित हो जाता है, तो वह प्रस्ताव पारित होने के साथ ही अध्यादेश निष्प्रभावी हो जाएगा।

(b) राष्ट्रपति किसी भी समय अध्यादेश वापस ले सकते हैं

स्पष्टीकरण: अगर लोकसभा और राज्यसभा को अलग-अलग तिथियों को बुलाया गया है, तो छह सप्ताह की गणना उस तिथि से की जाएगी जो बाद में पड़ती है

(3) अगर अध्यादेश ऐसा कोई प्रावधान करता है, जिसे संविधान के तहत संसद पारित करने के लिए अधिकृत नहीं है, तो वह अध्यादेश उतने हिस्से तक अमान्य (void) होगा।

इस प्रकार, अनुच्छेद 123 राष्ट्रपति को तत्काल आवश्यकता की स्थिति में कानून जैसी शक्ति देता है, लेकिन यह सिर्फ अस्थायी उपाय होता है और संसद की सहमति अनिवार्य होती है।

अनुच्छेद 124 : भारत के सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना और गठन

भारत में एक सर्वोच्च न्यायालय होगा, जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश (Chief Justice of India) और संसद द्वारा निर्धारित अधिकतम संख्या तक अन्य न्यायाधीश होंगे (पहले 7, अब 34 तक बढ़ाया जा चुका है)।
हर न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी, और वह 65 वर्ष की आयु तक पद पर रहेगा।
न्यायाधीश इस्तीफा दे सकता है या अनुच्छेद 124(4) के अनुसार हटाया जा सकता है।
न्यायाधीश बनने के लिए व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए और:
(a) कम से कम 5 वर्ष किसी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रहा हो, या
(b) कम से कम 10 वर्ष तक उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहा हो, या
(c) राष्ट्रपति की दृष्टि में कोई विशिष्ट विधिवेत्ता हो।
न्यायाधीश को राष्ट्रपति के सामने शपथ लेनी होगी।
पद छोड़ने के बाद वह भारत में किसी भी न्यायालय में वकालत नहीं कर सकता।

अनुच्छेद 124A : राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC)

एक आयोग बनाया जाएगा जिसे राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कहा जाएगा। इसमें शामिल होंगे:

(a) भारत के मुख्य न्यायाधीश (अध्यक्ष),
(b) सर्वोच्च न्यायालय के दो वरिष्ठतम न्यायाधीश,
(c) विधि और न्याय मंत्री,
(d) दो प्रतिष्ठित व्यक्ति, जिन्हें प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश और लोकसभा में विपक्ष के नेता की समिति द्वारा नामित किया जाएगा।
इनमें से एक व्यक्ति अनुसूचित जाति/जनजाति/ओबीसी/अल्पसंख्यक/महिला वर्ग से होगा।
इनका कार्यकाल 3 साल का होगा और दोबारा नामांकन नहीं होगा।

(टिप्पणी: यह प्रावधान NJAC अधिनियम के रद्द हो जाने के बाद अब अमान्य है।)

अनुच्छेद 124B : आयोग के कार्य

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग निम्नलिखित कार्य करेगा:
(1) मुख्य न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति की सिफारिश करना,
(2) उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों और न्यायाधीशों का स्थानांतरण करना,
(3) नियुक्त किए जाने वाले व्यक्ति की योग्यता और ईमानदारी सुनिश्चित करना।

अनुच्छेद 124C : संसद को कानून बनाने की शक्ति

संसद आयोग की कार्यप्रणाली, चयन प्रक्रिया तथा अन्य आवश्यक पहलुओं को निर्धारित करने के लिए कानून बना सकती है।

अनुच्छेद 125 : न्यायाधीशों का वेतन आदि

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को संसद द्वारा निर्धारित वेतन मिलेगा।
जब तक संसद अन्य प्रावधान न करे, दूसरा अनुसूची लागू होगी।
उनके विशेषाधिकार, भत्ते, अवकाश और पेंशन संसद द्वारा निर्धारित किए जा सकते हैं, परंतु नियुक्ति के बाद इन्हें उनके लिए हानिकारक रूप से बदला नहीं जा सकता।

अनुच्छेद 126 : कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति

जब मुख्य न्यायाधीश का पद खाली हो या वे अनुपस्थित हों, तो राष्ट्रपति किसी अन्य न्यायाधीश को कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है।

अनुच्छेद 127 : ऐड-हॉक न्यायाधीशों की नियुक्ति

यदि कोर्ट में न्यायाधीशों की संख्या पर्याप्त नहीं है, तो मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की सहमति से किसी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को कुछ समय के लिए ऐड-हॉक न्यायाधीश के रूप में आमंत्रित कर सकता है।

अनुच्छेद 128 : सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की उपस्थिति

सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को, यदि वे सहमत हों, तो राष्ट्रपति की अनुमति से सर्वोच्च न्यायालय में बैठने के लिए आमंत्रित किया जा सकता है।

अनुच्छेद 129 : सर्वोच्च न्यायालय एक रिकॉर्ड न्यायालय

सुप्रीम कोर्ट एक “Court of Record” है, और उसे अपने अपमान (contempt) के लिए दंड देने की शक्ति है।

अनुच्छेद 130 : सर्वोच्च न्यायालय की बैठक का स्थान

सुप्रीम कोर्ट दिल्ली में बैठेगा, लेकिन मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की अनुमति से अन्य स्थानों पर भी बैठने की व्यवस्था कर सकता है।

अनुच्छेद 131 : सर्वोच्च न्यायालय की मौलिक अधिकारिता

सुप्रीम कोर्ट को कुछ मामलों में मूल अधिकारिता (Original Jurisdiction) प्राप्त है, जैसे:

  • केंद्र और राज्य के बीच विवाद
  • केंद्र और एक या अधिक राज्यों बनाम अन्य राज्य/राज्य
  • दो या अधिक राज्यों के बीच विवाद
    लेकिन पुराने समझौतों आदि से संबंधित विवाद इससे बाहर हैं।

अनुच्छेद 131A : (अब निरस्त)

(यह अनुच्छेद 1976 में जोड़ा गया और 1977 में रद्द कर दिया गया।)

अनुच्छेद 132 : संविधान की व्याख्या से संबंधित अपील

अगर किसी हाई कोर्ट का फैसला संविधान की व्याख्या से जुड़ा हो और हाई कोर्ट प्रमाणपत्र दे, तो सुप्रीम कोर्ट में अपील की जा सकती है।

अनुच्छेद 133 : सिविल मामलों में अपील

हाई कोर्ट द्वारा दी गई सिविल फैसलों पर सुप्रीम कोर्ट में अपील की जा सकती है, अगर हाई कोर्ट माने कि यह कोई सामान्य महत्व का कानूनी प्रश्न है और सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसका निर्णय आवश्यक है।

अनुच्छेद 134 : आपराधिक मामलों में अपील

कुछ विशेष आपराधिक मामलों में जैसे:

  • मौत की सजा दी गई हो,
  • किसी अधीनस्थ अदालत से केस लेकर हाई कोर्ट ने दोषी ठहराया हो,
  • हाई कोर्ट यह प्रमाणित करे कि मामला सुप्रीम कोर्ट में जाना चाहिए,
    तो सुप्रीम कोर्ट में अपील संभव है।

अनुच्छेद 134A : प्रमाणपत्र के लिए प्रक्रिया

हाई कोर्ट यह तय करेगा कि अनुच्छेद 132, 133 या 134 के तहत प्रमाणपत्र दिया जाना चाहिए या नहीं, और याचिका मिलते ही यथाशीघ्र निर्णय करेगा।

अनुच्छेद 135 : संघीय न्यायालय की शक्तियाँ

संविधान लागू होने से पहले जो शक्तियाँ संघीय न्यायालय के पास थीं, वे सुप्रीम कोर्ट को तब तक मिलती रहेंगी जब तक संसद कुछ और न तय करे।

अनुच्छेद 136 : विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition – SLP)

सुप्रीम कोर्ट को किसी भी कोर्ट या न्यायाधिकरण के निर्णय के विरुद्ध विशेष अनुमति देने का अधिकार है, सिवाय सशस्त्र बलों के मामलों के।

अनुच्छेद 137 : पुनर्विचार (Review)

सुप्रीम कोर्ट अपने द्वारा दिए गए निर्णयों और आदेशों की पुनरावृत्ति (review) कर सकता है।

अनुच्छेद 138 : अधिकार क्षेत्र का विस्तार

संसद या विशेष समझौते द्वारा सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है।

अनुच्छेद 139 : कुछ रिट्स जारी करने की शक्ति

संसद सुप्रीम कोर्ट को ऐसे रिट्स (जैसे habeas corpus, mandamus, certiorari आदि) जारी करने का अधिकार दे सकती है।

अनुच्छेद 139A : मामलों का स्थानांतरण

सुप्रीम कोर्ट, यदि जरूरी समझे तो, विभिन्न हाई कोर्टों में चल रहे एक जैसे कानून प्रश्नों वाले मामलों को अपने पास बुलाकर स्वयं निर्णय कर सकता है या एक हाई कोर्ट से दूसरे हाई कोर्ट में मामला स्थानांतरित कर सकता है।

अनुच्छेद 140 : सहायक शक्तियाँ

संसद सुप्रीम कोर्ट को ऐसे पूरक अधिकार प्रदान कर सकती है जिससे वह अपने अधिकार क्षेत्र का प्रभावी उपयोग कर सके।

अनुच्छेद 141 : सुप्रीम कोर्ट का कानून सभी अदालतों पर बाध्यकारी

सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित कानून पूरे भारत की सभी अदालतों पर लागू होगा।

अनुच्छेद 142 : पूर्ण न्याय के लिए आदेश

सुप्रीम कोर्ट ऐसा कोई आदेश पारित कर सकता है जिससे “पूर्ण न्याय” हो सके।
इसके आदेश भारतभर में लागू होंगे।
सुप्रीम कोर्ट के पास अपने आदेशों के पालन हेतु व्यक्ति को बुलाने, दस्तावेजों की मांग, या अवमानना की सजा देने की भी शक्ति है।

अनुच्छेद 143 : राष्ट्रपति द्वारा परामर्श लेना

राष्ट्रपति किसी महत्वपूर्ण कानूनी या तथ्यात्मक मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट से सलाह ले सकता है। सुप्रीम कोर्ट अपनी राय राष्ट्रपति को देगा।

अनुच्छेद 144 : सर्वोच्च न्यायालय की सहायता

भारत के सभी नागरिक और न्यायिक प्राधिकारी सुप्रीम कोर्ट की सहायता करेंगे।

अनुच्छेद 144A : (अब निरस्त)

(यह अनुच्छेद 1976 में जोड़ा गया और 1977 में रद्द कर दिया गया।)

अनुच्छेद 145 : सुप्रीम कोर्ट के नियम

सुप्रीम कोर्ट अपने कार्य का संचालन करने के लिए नियम बना सकता है, जैसे कि वकीलों की योग्यता, अपील की प्रक्रिया, रिट याचिकाएं, पुनर्विचार प्रक्रिया आदि।
संविधान की व्याख्या जैसे मामलों में कम से कम 5 न्यायाधीशों की पीठ बैठेगी।

अनुच्छेद 146 : अधिकारी, सेवक और व्यय

सुप्रीम कोर्ट के कर्मचारियों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश द्वारा की जाती है।
उनकी सेवा शर्तें नियमों द्वारा निर्धारित की जाती हैं और खर्च भारत की संचित निधि (Consolidated Fund of India) से किया जाएगा।

अनुच्छेद 147 : व्याख्या

इस अध्याय में “संविधान की व्याख्या से संबंधित प्रश्न” में भारत सरकार अधिनियम, 1935, भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 तथा उनके अंतर्गत बनाए गए आदेशों की व्याख्या से जुड़े प्रश्न भी शामिल माने जाएंगे।

यदि आप इनमें से किसी अनुच्छेद का और भी गहरा विवरण या उदाहरण चाहते हैं, तो बताइए।

अनुच्छेद 153 : राज्यों के राज्यपाल – Governors of States

प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा।

स्पष्टीकरण: एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों का राज्यपाल नियुक्त किया जा सकता है।

अनुच्छेद 154 : राज्य की कार्यपालिका शक्ति – Executive Power of State

(1) राज्य की कार्यपालिका शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इसे स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से संविधान के अनुसार प्रयोग करेगा।

(2) इस अनुच्छेद में कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो –
(a) किसी प्रचलित कानून के तहत किसी अन्य प्राधिकरण को दिए गए कार्यों को राज्यपाल को स्थानांतरित करने के रूप में समझा जाए; या
(b) संसद या राज्य की विधायिका को किसी अन्य प्राधिकरण को कार्य सौंपने से रोके।

अनुच्छेद 155 : राज्यपाल की नियुक्ति – Appointment of Governor

राज्य के राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर और मुहर युक्त आदेश द्वारा की जाएगी।

अनुच्छेद 156 : राज्यपाल का कार्यकाल – Term of Office of Governor

(1) राज्यपाल, राष्ट्रपति की इच्छा पर पद धारण करेगा।
(2) राज्यपाल अपने हस्ताक्षर से राष्ट्रपति को पत्र लिखकर त्यागपत्र दे सकता है।
(3) सामान्यतः राज्यपाल का कार्यकाल पाँच वर्ष का होगा, लेकिन यदि उत्तराधिकारी ने कार्यभार ग्रहण नहीं किया है, तो वह तब तक पद पर बना रह सकता है।

अनुच्छेद 157 : राज्यपाल पद के लिए योग्यता – Qualifications for Appointment as Governor

राज्यपाल पद के लिए कोई व्यक्ति तभी योग्य होगा जब वह:

  • भारत का नागरिक हो, और
  • न्यूनतम 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।

अनुच्छेद 158 : राज्यपाल के पद की शर्तें – Conditions of Governor’s Office

(1) राज्यपाल संसद या किसी राज्य विधानसभा का सदस्य नहीं हो सकता। यदि कोई सदस्य राज्यपाल नियुक्त होता है, तो वह सदस्यता उसी दिन समाप्त मानी जाएगी जिस दिन वह राज्यपाल के रूप में कार्यभार संभालेगा।
(2) राज्यपाल किसी अन्य लाभ के पद पर नहीं रह सकता।
(3) राज्यपाल को बिना किराया दिए सरकारी आवास मिलेगा और संसद द्वारा नियत वेतन, भत्ते और विशेषाधिकार प्राप्त होंगे। जब तक संसद कोई व्यवस्था नहीं करती, तब तक वह दूसरी अनुसूची में निर्दिष्ट लाभों का अधिकारी होगा।
(3A) यदि एक ही व्यक्ति दो या अधिक राज्यों का राज्यपाल हो, तो उसका वेतन-भत्ता राष्ट्रपति द्वारा आदेश से राज्यों के बीच बांटा जाएगा।
(4) राज्यपाल के वेतन और भत्ते उसके कार्यकाल के दौरान कम नहीं किए जा सकते।

अनुच्छेद 159 : राज्यपाल की शपथ या प्रतिज्ञा – Oath or Affirmation by the Governor

राज्यपाल अपना कार्यभार ग्रहण करने से पहले उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (या अनुपस्थिति में वरिष्ठतम न्यायाधीश) के समक्ष निम्नलिखित शपथ या प्रतिज्ञा करेगा:

“मैं, A.B., ईश्वर की शपथ लेता हूँ (या सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूँ) कि मैं राज्य…(राज्य का नाम) का राज्यपाल (या राज्यपाल का कार्य करने वाला व्यक्ति) होने के नाते अपने दायित्वों को निष्ठा से निभाऊँगा, संविधान और विधि की रक्षा, सुरक्षा और पालन करूंगा तथा राज्य की जनता की सेवा और कल्याण में स्वयं को समर्पित करूंगा।”

अनुच्छेद 160 : विशेष परिस्थितियों में राज्यपाल के कर्तव्यों का निर्वहन – Discharge of the Functions of the Governor in Certain Contingencies

यदि किसी अप्रत्याशित परिस्थिति में राज्यपाल के कर्तव्यों का निर्वहन कैसे होगा, इस पर कोई प्रावधान नहीं है, तो राष्ट्रपति जो उचित समझे, वह व्यवस्था कर सकता है।

अनुच्छेद 161 : राज्यपाल की क्षमादान, दंड में छूट या दंड बदलने की शक्ति – Power of Governor to Grant Pardons, etc.

राज्यपाल को यह शक्ति प्राप्त है कि वह उन मामलों में, जिनमें राज्य की कार्यपालिका शक्ति लागू होती है, किसी व्यक्ति को दी गई सजा को क्षमा कर सकता है, राहत दे सकता है, कम कर सकता है या निलंबित कर सकता है।

अनुच्छेद 213 : विधानमंडल के सत्रावकाश के दौरान अध्यादेश जारी करने की राज्यपाल की शक्ति – Power of Governor to promulgate Ordinances during recess of Legislature

(1) यदि कभी ऐसा समय हो जब राज्य की विधानसभा का सत्र न चल रहा हो, और जहाँ द्विसदनीय विधानमंडल हो, वहाँ दोनों सदनों का सत्र न चल रहा हो, और राज्यपाल को यह संतोष हो कि ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं जिनमें तुरंत कार्यवाही करना आवश्यक है, तो वह आवश्यकतानुसार अध्यादेश जारी कर सकता है।

परंतु राज्यपाल राष्ट्रपति से निर्देश प्राप्त किए बिना ऐसा अध्यादेश तब नहीं जारी करेगा जब—

(a) उस अध्यादेश के समान प्रावधानों वाला विधेयक संविधान के अनुसार राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति के बिना विधानमंडल में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता;

(b) राज्यपाल को लगता कि ऐसे विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखा जाना चाहिए;

(c) यदि ऐसा विधेयक विधानमंडल द्वारा पारित होता, तो वह तब तक अमान्य होता जब तक उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखकर उनकी स्वीकृति प्राप्त न कर ली जाती।

(2) इस अनुच्छेद के अंतर्गत जारी अध्यादेश को ऐसा माना जाएगा जैसे वह राज्य विधानमंडल द्वारा पारित और राज्यपाल द्वारा स्वीकृत विधेयक हो, लेकिन—

(a) उसे राज्य विधानसभा के समक्ष, और जहाँ विधानपरिषद है वहाँ दोनों सदनों के समक्ष रखा जाएगा, और वह अध्यादेश तब समाप्त हो जाएगा—

  • विधानमंडल के पुनः सत्रारंभ के छह सप्ताह पूरे होने पर;
  • या यदि उससे पहले विधानसभा द्वारा अस्वीकृति का प्रस्ताव पारित किया गया हो और विधानपरिषद (यदि हो) द्वारा भी उसे स्वीकार कर लिया गया हो, तो उस तिथि को जब परिषद ने प्रस्ताव को स्वीकार किया;

(b) राज्यपाल किसी भी समय उसे वापस ले सकता है।

स्पष्टीकरण: जहाँ किसी राज्य के विधानमंडल के दोनों सदनों को अलग-अलग तिथियों पर पुनः सत्रारंभ हेतु बुलाया गया हो, वहाँ छह सप्ताह की गणना बाद की तिथि से की जाएगी।

(3) यदि और जहाँ तक कोई अध्यादेश ऐसा कोई प्रावधान करता है जो यदि वह विधेयक के रूप में विधानमंडल द्वारा पारित होता तो असंवैधानिक या अमान्य होता, तो वह अध्यादेश उसी सीमा तक अमान्य (void) होगा।

परंतु, संविधान के उस प्रावधान के उद्देश्य से जो यह निर्धारित करता है कि यदि राज्य का कानून संसद के कानून या मौजूदा कानून से विरोध करता है (Concurrent List के किसी विषय में), तो यदि ऐसा अध्यादेश राष्ट्रपति के निर्देश पर जारी हुआ हो, तो उसे ऐसा माना जाएगा जैसे वह राज्य विधानमंडल द्वारा पारित किया गया हो, राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखा गया हो और राष्ट्रपति ने उस पर स्वीकृति दे दी हो।

नोट: अनुच्छेद 213(4) को 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा हटाया गया। यह पहले 38वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया था।

यदि आप चाहें तो मैं अनुच्छेद 214 से आगे का भी इसी प्रकार सरल हिंदी में समझा सकता हूँ।

अनुच्छेद 165 : राज्य के लिए महाधिवक्ता – Advocate-General for the State

(1) प्रत्येक राज्य का राज्यपाल ऐसे व्यक्ति को राज्य के लिए महाधिवक्ता (Advocate-General) नियुक्त करेगा जो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किए जाने के लिए योग्य हो।

(2) महाधिवक्ता का कर्तव्य होगा कि वह राज्य सरकार को ऐसे कानूनी विषयों पर सलाह दे, और ऐसे अन्य कानूनी प्रकृति के कार्य करे जो समय-समय पर राज्यपाल द्वारा उसे सौंपे जाएं या संविधान अथवा किसी वर्तमान लागू कानून द्वारा उस पर लगाए जाएं।

(3) महाधिवक्ता तब तक पद पर बने रहेंगे जब तक राज्यपाल को उनकी सेवा स्वीकार्य हो (Governor’s pleasure) और उन्हें ऐसा वेतन प्राप्त होगा जैसा राज्यपाल द्वारा निर्धारित किया जाएगा।

अनुच्छेद 214 : राज्यों के लिए उच्च न्यायालय – High Courts for States

प्रत्येक राज्य के लिए एक उच्च न्यायालय होगा।

अनुच्छेद 215 : उच्च न्यायालय न्यायालय-प्रमाण होंगे – High Courts to be Courts of Record

हर उच्च न्यायालय एक न्यायालय-प्रमाण (Court of Record) होगा, जिसमें न केवल आदेश देने की शक्ति होगी बल्कि अपने अपमान (contempt) के मामलों में सजा देने की भी शक्ति होगी।

अनुच्छेद 216 : उच्च न्यायालयों की संरचना – Constitution of High Courts

हर उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश और ऐसे अन्य न्यायाधीश होंगे जिन्हें राष्ट्रपति समय-समय पर आवश्यक समझे।

अनुच्छेद 217 : उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति और पद की शर्तें – Appointment and Conditions of Judges

  1. प्रत्येक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को राष्ट्रपति उनके हस्ताक्षर और मुहर से नियुक्त करेगा (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की सिफारिश पर)।
    • अतिरिक्त या कार्यवाहक न्यायाधीश को अनुच्छेद 224 के अनुसार नियुक्त किया जाएगा।
    • अन्य मामलों में न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु तक पद पर रहेंगे।

न्यायाधीश का पद रिक्त होगा अगर:
(a) वह राष्ट्रपति को लिखित में इस्तीफा देता है।
(b) राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की तरह हटाया जाता है (अनुच्छेद 124(4) के अनुसार)।
(c) उन्हें सुप्रीम कोर्ट का न्यायाधीश नियुक्त किया जाए या किसी अन्य उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर दिया जाए।

  1. योग्य होने के लिए व्यक्ति को भारत का नागरिक होना चाहिए और
    • कम से कम 10 वर्षों तक न्यायिक पद पर रहा हो, या
    • कम से कम 10 वर्षों तक उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहा हो।

व्याख्या: पूर्व न्यायिक सेवा या कानून संबंधी किसी सरकारी पद का अनुभव भी गिना जाएगा।

  1. किसी न्यायाधीश की उम्र को लेकर विवाद होने पर राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करके निर्णय करेगा, जो अंतिम होगा।

अनुच्छेद 218 : सुप्रीम कोर्ट से संबंधित प्रावधानों का उच्च न्यायालयों पर भी लागू होना

अनुच्छेद 124(4) और 124(5) के प्रावधान उच्च न्यायालयों पर भी उसी प्रकार लागू होंगे जैसे वे सुप्रीम कोर्ट पर होते हैं।

अनुच्छेद 219 : उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की शपथ – Oath by Judges

उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को अपना पद ग्रहण करने से पहले राज्य के राज्यपाल या उनके द्वारा नियुक्त व्यक्ति के सामने शपथ लेनी होगी।

अनुच्छेद 220 : स्थायी न्यायाधीश के बाद प्रैक्टिस पर प्रतिबंध – Restriction on Practice

जो व्यक्ति उच्च न्यायालय में स्थायी न्यायाधीश रहा है, वह भारत में किसी भी अदालत में वकालत नहीं कर सकता, सिवाय सुप्रीम कोर्ट या अन्य उच्च न्यायालयों के।

अनुच्छेद 221 : न्यायाधीशों का वेतन और सुविधाएं – Salaries, etc. of Judges

  1. उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को संसद द्वारा तय किया गया वेतन मिलेगा।
  2. उन्हें छुट्टी, भत्ता और पेंशन के अधिकार मिलेंगे जो संसद द्वारा निर्धारित होंगे।
    नोट: नियुक्ति के बाद इन सुविधाओं में कोई कटौती नहीं की जा सकती।

अनुच्छेद 222 : एक उच्च न्यायालय से दूसरे में न्यायाधीश का स्थानांतरण – Transfer of Judges

  1. राष्ट्रपति राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग की सिफारिश पर एक उच्च न्यायालय से दूसरे में न्यायाधीश को स्थानांतरित कर सकता है।
  2. स्थानांतरण के बाद न्यायाधीश को अतिरिक्त भत्ता मिलेगा जो संसद द्वारा या राष्ट्रपति के आदेश से तय होगा।

अनुच्छेद 223 : कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति – Acting Chief Justice

यदि किसी उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद खाली हो या वे अनुपस्थित हों, तो राष्ट्रपति किसी अन्य न्यायाधीश को कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है।

अनुच्छेद 224 : अतिरिक्त और कार्यवाहक न्यायाधीशों की नियुक्ति – Additional and Acting Judges

  1. अगर उच्च न्यायालय में काम की अधिकता हो तो राष्ट्रपति दो वर्षों तक के लिए अतिरिक्त न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है।
  2. अगर कोई न्यायाधीश अनुपस्थित हो या मुख्य न्यायाधीश के रूप में कार्य कर रहा हो, तो राष्ट्रपति कार्यवाहक न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है।
  3. कोई भी अतिरिक्त या कार्यवाहक न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु से अधिक तक पद पर नहीं रह सकता।

अनुच्छेद 224A : सेवानिवृत्त न्यायाधीश की नियुक्ति – Appointment of Retired Judges

मुख्य न्यायाधीश की सिफारिश और राष्ट्रपति की अनुमति से कोई सेवानिवृत्त न्यायाधीश उच्च न्यायालय में बैठ सकता है, यदि वह सहमत हो।

अनुच्छेद 225 : उच्च न्यायालयों का क्षेत्राधिकार – Jurisdiction of High Courts

संविधान और कानून के तहत, किसी भी उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार वही रहेगा जैसा संविधान लागू होने से पहले था।

(संशोधन से यह जोड़ा गया कि राजस्व मामलों में पूर्व प्रतिबंध अब लागू नहीं होगा।)

अनुच्छेद 226 : उच्च न्यायालयों की रिट जारी करने की शक्ति – Power to Issue Writs

  1. उच्च न्यायालय किसी व्यक्ति, सरकारी संस्था आदि को हैबियस कॉर्पस, मंडमस, प्रोहिबिशन, सर्टियोरारी और क्वो वारंटो जैसी रिट जारी कर सकता है, मूल अधिकारों के प्रवर्तन और अन्य प्रयोजनों के लिए
  2. यह शक्ति उस क्षेत्र तक होगी जहाँ उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र हो।
  3. यदि बिना सूचना के स्थगन या रोक लगाने वाला अंतरिम आदेश दिया गया है, तो उसका निराकरण दो सप्ताह में करना होगा, नहीं तो वह आदेश स्वतः समाप्त माना जाएगा।
  4. यह शक्ति सुप्रीम कोर्ट की अनुच्छेद 32(2) की शक्ति पर प्रभाव नहीं डालेगी।

अनुच्छेद 227 : अधीनस्थ न्यायालयों पर उच्च न्यायालय का पर्यवेक्षण – Superintendence

  1. हर उच्च न्यायालय को अपने क्षेत्र की सभी अदालतों और न्यायाधिकरणों पर पर्यवेक्षण का अधिकार होगा।
  2. वह नियम बना सकता है, प्रपत्र तय कर सकता है, और सूचना मांग सकता है।
  3. कोर्ट के कर्मचारियों और अधिवक्ताओं के शुल्क तय कर सकता है।
    • लेकिन ये नियम राज्यपाल की स्वीकृति से ही लागू होंगे।
  4. सेना से संबंधित न्यायाधिकरणों पर इसका अधिकार नहीं होगा।

अनुच्छेद 228 : विशेष मामलों का उच्च न्यायालय में स्थानांतरण – Transfer of Cases

यदि कोई मामला ऐसा हो जिसमें संविधान की व्याख्या की आवश्यकता हो, तो उच्च न्यायालय उस मामले को निचली अदालत से लेकर या तो खुद निपटा सकता है या उस मुद्दे पर फैसला देकर मामला वापिस भेज सकता है।

अनुच्छेद 229 : उच्च न्यायालयों के कर्मचारी और खर्च – Officers and Expenses

  1. कर्मचारियों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश द्वारा की जाएगी।
    • राज्यपाल नियम बनाकर यह तय कर सकता है कि कुछ पदों पर नियुक्ति सार्वजनिक सेवा आयोग से परामर्श के बाद ही हो।
  2. सेवा शर्तें मुख्य न्यायाधीश द्वारा निर्धारित की जाएंगी।
    • वेतन, भत्ते आदि के लिए राज्यपाल की मंज़ूरी आवश्यक होगी।
  3. इन खर्चों का भुगतान राज्य की समेकित निधि (Consolidated Fund) से होगा।

अनुच्छेद 230 : केंद्रशासित प्रदेशों में उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र – Jurisdiction in Union Territories

  1. संसद कानून बनाकर किसी उच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र केंद्रशासित प्रदेशों तक बढ़ा सकती है या हटा सकती है।
  2. ऐसे मामलों में राज्यपाल के स्थान पर राष्ट्रपति का संदर्भ होगा।

अनुच्छेद 231 : दो या अधिक राज्यों के लिए एक सामान्य उच्च न्यायालय – Common High Court

  1. संसद कानून बनाकर दो या अधिक राज्यों या राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों के लिए एक सामान्य उच्च न्यायालय बना सकती है।
  2. ऐसे मामलों में अनुच्छेद 227, 219 और 229 के संदर्भ संबंधित राज्य या राष्ट्रपति के अनुसार समझे जाएंगे।

अनुच्छेद 233 : जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति – District Judges

  1. जिला न्यायाधीशों की नियुक्ति, पोस्टिंग और पदोन्नति राज्यपाल द्वारा उच्च न्यायालय की सलाह से की जाएगी।
  2. जो व्यक्ति केंद्र या राज्य की सेवा में नहीं है और 7 वर्ष से अधिक समय से अधिवक्ता/वकील है, उसे ही नियुक्त किया जा सकता है (यदि उच्च न्यायालय सिफारिश करे)।

अनुच्छेद 233A : पूर्व नियुक्तियों की वैधता – Validation of Past Appointments

1966 से पहले की गई ऐसी नियुक्तियाँ, पदोन्नति या कार्यवाही, जो अनुच्छेद 233 या 235 के अनुसार नहीं थीं, उन्हें भी वैध माना जाएगा।

अनुच्छेद 234 : अन्य न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति – Judicial Officers Other than District Judges

दूसरे न्यायिक अधिकारियों की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा नियम बनाकर की जाएगी, लेकिन इसमें राज्य लोक सेवा आयोग और उच्च न्यायालय की सलाह लेना आवश्यक होगा।

अनुच्छेद 235 : अधीनस्थ न्यायालयों का नियंत्रण – Control over Subordinate Courts

जिला और अधीनस्थ अदालतों का नियंत्रण उच्च न्यायालय के पास रहेगा। इसमें पोस्टिंग, प्रमोशन और छुट्टी शामिल हैं।

  • लेकिन सेवा शर्तों के तहत अपील का अधिकार बना रहेगा और उच्च न्यायालय उन शर्तों के विरुद्ध कार्य नहीं कर सकता।

Part XI – संघ और राज्यों के बीच संबंध (Relations between the Union and the States)

अध्याय I – विधायी संबंध (Legislative Relations)

अनुच्छेद 245 – संसद और राज्य विधानमंडलों द्वारा बनाए गए कानूनों की सीमा

(1) संविधान के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, संसद भारत के संपूर्ण क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए कानून बना सकती है, और किसी राज्य की विधान सभा उस राज्य के संपूर्ण क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिए कानून बना सकती है।
(2) संसद द्वारा बनाया गया कोई कानून इस आधार पर अमान्य नहीं माना जाएगा कि उसका प्रभाव भारत की सीमाओं से बाहर होगा।

अनुच्छेद 246 – संसद और राज्य विधानमंडलों द्वारा बनाए गए कानूनों के विषय

(1) सूची I (संघ सूची) में उल्लेखित विषयों पर केवल संसद को कानून बनाने का विशेष अधिकार है, भले ही सूची III (समवर्ती सूची) में क्या लिखा हो।
(2) सूची III (समवर्ती सूची) के विषयों पर संसद और राज्य विधानमंडल दोनों को कानून बनाने का अधिकार है, लेकिन यह अनुच्छेद (1) के अधीन रहेगा।
(3) राज्य विधानमंडल को राज्य सूची में दिए विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है, बशर्ते वे (1) और (2) से विरोध में न हों।
(4) संसद भारत के किसी ऐसे क्षेत्र के लिए, जो किसी राज्य में नहीं आता, राज्य सूची में दिए विषयों पर भी कानून बना सकती है।

अनुच्छेद 246A – वस्तु और सेवा कर (GST) से संबंधित विशेष प्रावधान

(1) अनुच्छेद 246 और 254 के बावजूद, संसद और प्रत्येक राज्य की विधानमंडली को GST पर कानून बनाने का अधिकार है।
(2) लेकिन यदि वस्तुओं या सेवाओं की आपूर्ति अंतर-राज्यीय व्यापार या वाणिज्य में होती है, तो केवल संसद को कानून बनाने का अधिकार होगा।

अनुच्छेद 247 – अतिरिक्त न्यायालयों की स्थापना के लिए संसद की शक्ति

संसद संघ सूची से संबंधित कानूनों के बेहतर प्रशासन के लिए अतिरिक्त न्यायालयों की स्थापना के लिए कानून बना सकती है

अनुच्छेद 248 – अवशिष्ट विधायी शक्तियाँ

(1) अनुच्छेद 246A के अधीन रहते हुए, संसद को उन विषयों पर कानून बनाने का विशेष अधिकार है, जो राज्य सूची या समवर्ती सूची में नहीं हैं।
(2) इसमें ऐसे कर लगाने का अधिकार भी शामिल है, जो उन सूचियों में उल्लेखित नहीं हैं।

अनुच्छेद 249 – राष्ट्रीय हित में राज्य सूची के विषयों पर संसद द्वारा कानून बनाना

(1) यदि राज्यसभा दो-तिहाई बहुमत से यह प्रस्ताव पारित करे कि राष्ट्रीय हित में संसद को राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बनाना चाहिए, तो संसद को भारत के किसी भी भाग के लिए उस विषय पर कानून बनाने का अधिकार होगा।
(2) ऐसा प्रस्ताव अधिकतम एक वर्ष तक प्रभावी रहेगा, और उसे हर वर्ष बढ़ाया जा सकता है।
(3) जब प्रस्ताव का प्रभाव समाप्त हो जाता है, तो उस पर बने संसद के कानून की वैधता छह महीने बाद समाप्त हो जाएगी।

अनुच्छेद 250 – आपातकाल की स्थिति में राज्य सूची के विषयों पर संसद की विधायी शक्ति

(1) आपातकाल की स्थिति में, संसद को राज्य सूची के किसी भी विषय पर कानून बनाने का अधिकार होगा।
(2) ऐसा कानून आपातकाल समाप्त होने के छह महीने बाद प्रभावी नहीं रहेगा।

अनुच्छेद 251 – अनुच्छेद 249 और 250 के अंतर्गत बनाए गए कानून और राज्य कानूनों में असंगति

राज्य विधानमंडल को संविधान के अनुसार कानून बनाने का अधिकार बना रहेगा, लेकिन यदि संसद द्वारा अनुच्छेद 249 या 250 के तहत बनाया गया कोई कानून राज्य के कानून से टकराता है, तो संसद का कानून प्रभावी रहेगा और राज्य का कानून उतने अंश तक निष्प्रभावी हो जाएगा

अनुच्छेद 252 – दो या अधिक राज्यों की सहमति से संसद द्वारा कानून बनाना

(1) यदि दो या अधिक राज्यों की विधानसभाएं चाहें कि किसी विशेष विषय पर संसद कानून बनाए, तो वे इस संबंध में प्रस्ताव पारित कर सकती हैं।
(2) ऐसा कानून केवल संसद द्वारा संशोधित या निरस्त किया जा सकता है, राज्य द्वारा नहीं

अनुच्छेद 253 – अंतर्राष्ट्रीय समझौतों को लागू करने के लिए संसद की शक्ति

संसद को यह अधिकार है कि वह किसी अंतर्राष्ट्रीय संधि, समझौते या सम्मेलन को लागू करने के लिए भारत के किसी भी क्षेत्र के लिए कानून बना सके।

अनुच्छेद 254 – संसद और राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानूनों के बीच असंगति

(1) यदि राज्य का कोई कानून संसद के किसी वैध कानून से टकराता है, तो संसद का कानून प्रभावी रहेगा, और राज्य का कानून अमान्य हो जाएगा।
(2) लेकिन यदि ऐसा राज्य कानून राष्ट्रपति की स्वीकृति से बना हो, तो वह राज्य में प्रभावी रहेगा, जब तक संसद कोई नया कानून न बना दे।

अनुच्छेद 255 – सिफारिश और पूर्व स्वीकृति न होने से कानून अमान्य नहीं होगा

यदि किसी कानून के लिए संविधान के तहत कोई सिफारिश या पूर्व स्वीकृति आवश्यक थी, परंतु यदि वह कानून राज्यपाल या राष्ट्रपति की सहमति से पारित हुआ है, तो वह अमान्य नहीं माना जाएगा।

अध्याय II – प्रशासनिक संबंध (Administrative Relations)

अनुच्छेद 256 – राज्यों और संघ का उत्तरदायित्व

हर राज्य को अपने कार्यपालन शक्तियों का प्रयोग संसद द्वारा बनाए गए कानूनों का पालन सुनिश्चित करने के लिए करना होगा, और संघ सरकार को ऐसा निर्देश देने का अधिकार होगा

अनुच्छेद 257 – कुछ मामलों में संघ का राज्यों पर नियंत्रण

(1) राज्य अपनी कार्यपालन शक्ति का प्रयोग ऐसे न करें कि वह संघ की शक्ति में बाधा उत्पन्न करे।
(2) संघ सरकार राज्यों को ऐसे संचार के साधनों के निर्माण और अनुरक्षण के संबंध में निर्देश दे सकती है जो राष्ट्रीय या सैन्य दृष्टि से महत्वपूर्ण हों।
(3) राज्यों को रेल मार्गों की सुरक्षा के लिए निर्देश भी दिए जा सकते हैं।
(4) यदि ऐसे निर्देशों को लागू करने में राज्य को अतिरिक्त खर्च होता है, तो भारत सरकार राज्य को भुगतान करेगी, जैसा कि समझौते या मुख्य न्यायाधीश द्वारा नियुक्त पंच तय करेगा।

अनुच्छेद 257A – संघीय बलों की सहायता से राज्य को मदद (रद्द)

यह अनुच्छेद 1976 में जोड़ा गया था और 1978 में हटा दिया गया।

अनुच्छेद 258 – संघ द्वारा राज्यों को अधिकार सौंपना

(1) राष्ट्रपति राज्यपाल की सहमति से संघ के कार्य राज्यों या उनके अधिकारियों को सौंप सकता है
(2) संसद द्वारा बनाया गया कानून, भले ही वह राज्य के क्षेत्र में लागू हो, राज्य अधिकारियों को अधिकार सौंप सकता है
(3) यदि ऐसा कोई अधिकार राज्य को दिया जाता है, तो केंद्र सरकार को अतिरिक्त खर्च का भुगतान करना होगा।

अनुच्छेद 258A – राज्य द्वारा संघ को कार्य सौंपना

राज्य का राज्यपाल भारत सरकार की सहमति से संघ सरकार या उसके अधिकारियों को राज्य के कार्य सौंप सकता है

अनुच्छेद 259 – भाग B राज्यों में सशस्त्र बल (रद्द)

यह अनुच्छेद 1956 में हटाया गया।

अनुच्छेद 260 – भारत के बाहर के क्षेत्रों से संबंधित संघ की अधिकारिता

भारत सरकार अन्य देशों या क्षेत्रों के साथ समझौता कर सकती है, जिससे वह कार्यपालन, विधायी या न्यायिक कार्य अपने अधीन ले सके।

अनुच्छेद 261 – सार्वजनिक कार्य, अभिलेख और न्यायिक कार्यवाहियों की मान्यता

(1) भारत के सभी भागों में सार्वजनिक कार्यों, अभिलेखों और न्यायिक कार्यवाहियों को पूर्ण मान्यता मिलेगी।
(2) इसका प्रमाण और प्रभाव संसद द्वारा बनाए गए कानून द्वारा तय होगा।
(3) सिविल अदालतों के अंतिम आदेश पूरे भारत में लागू किए जा सकते हैं।

जल विवादों से संबंधित

अनुच्छेद 262 – अंतर-राज्यीय नदियों या घाटियों से संबंधित जल विवादों का निवारण

(1) संसद कानून बना सकती है जिससे जल विवादों का न्यायिक समाधान हो सके।
(2) संसद यह भी तय कर सकती है कि ऐसे विवादों पर सुप्रीम कोर्ट या अन्य किसी न्यायालय का अधिकार क्षेत्र न हो।

राज्यों के बीच समन्वय

अनुच्छेद 263 – अंतर-राज्य परिषद की व्यवस्था

यदि राष्ट्रपति को लगता है कि राज्यों के बीच समन्वय या विवादों को सुलझाने के लिए कोई परिषद जरूरी है, तो वह ऐसा आदेश जारी कर सकता है। यह परिषद निम्नलिखित कार्य करेगी –
(a) राज्यों के बीच विवादों की जांच और सलाह देना,
(b) साझा विषयों पर चर्चा और सुझाव देना,
(c) समन्वित नीति और कार्रवाई हेतु सिफारिश करना।

अनुच्छेद 352 : आपातकाल की उद्घोषणा (Proclamation of Emergency)

(1) यदि राष्ट्रपति को यह संतोष हो जाए कि भारत की सुरक्षा या उसके किसी भाग की सुरक्षा को युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण गंभीर खतरा है, तो वे पूरे भारत या किसी विशेष भाग में आपातकाल घोषित कर सकते हैं
व्याख्या: यह घोषणा युद्ध, आक्रमण या विद्रोह के वास्तविक होने से पहले भी की जा सकती है यदि राष्ट्रपति को ऐसा खतरा निकट प्रतीत हो।

(2) राष्ट्रपति द्वारा जारी की गई किसी भी आपातकाल घोषणा को बाद में बदला या रद्द किया जा सकता है।

(3) राष्ट्रपति, केवल तब ही अनुच्छेद (1) के अंतर्गत घोषणा जारी कर सकते हैं या उसे परिवर्तित कर सकते हैं, जब केंद्रीय मंत्रिमंडल (प्रधानमंत्री और कैबिनेट मंत्री) का निर्णय लिखित रूप में उन्हें संप्रेषित किया गया हो।

(4) आपातकाल की हर घोषणा को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखा जाना अनिवार्य है, और यदि वह किसी पूर्व घोषणा को रद्द करने वाली नहीं है, तो वह एक महीने के भीतर समाप्त हो जाएगी, जब तक कि दोनों सदनों द्वारा उसे स्वीकृति न दे दी जाए।

प्रावधान: यदि घोषणा ऐसे समय में की जाती है जब लोकसभा भंग हो चुकी है, और राज्यसभा ने तो स्वीकृति दे दी लेकिन लोकसभा ने नहीं दी, तो यह घोषणा लोकसभा के पुनर्गठन के बाद पहले सत्र की बैठक की तारीख से 30 दिन में समाप्त हो जाएगी, जब तक कि लोकसभा भी स्वीकृति न दे दे।

(5) यदि संसद द्वारा स्वीकृत कर दी गई हो, तो वह घोषणा 6 महीने तक प्रभावी रहेगी, जब तक रद्द नहीं की जाती।
प्रत्येक 6 महीने के बाद यदि दोनों सदनों द्वारा फिर से स्वीकृति दी जाती है, तो यह आगे 6-6 महीने तक बढ़ती रह सकती है।
प्रावधान: यदि लोकसभा उस अवधि में भंग हो जाती है और केवल राज्यसभा ने स्वीकृति दी है, तो लोकसभा की नई बैठक के 30 दिनों में वह प्रभावी नहीं रहेगी जब तक लोकसभा भी स्वीकृति न दे दे।

(6) अनुच्छेद (4) और (5) के लिए, प्रस्ताव केवल उस सदन के कुल सदस्यों के बहुमत और उपस्थित व मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से ही पारित हो सकता है।

(7) यदि लोकसभा ऐसी घोषणा या उसके विस्तार को अस्वीकृति का प्रस्ताव पारित कर देती है, तो राष्ट्रपति को वह घोषणा या उसका विस्तार रद्द करना अनिवार्य होगा

(8) यदि लोकसभा के कम से कम 1/10 सदस्य लिखित रूप में यह नोटिस देते हैं कि वे उस घोषणा या उसके विस्तार को अस्वीकार करना चाहते हैं, तो —

  • यदि लोकसभा सत्र में है, तो स्पीकर को,
  • यदि सत्र में नहीं है, तो राष्ट्रपति को —
    यह नोटिस दिया जा सकता है।
    ऐसी स्थिति में 14 दिनों के भीतर लोकसभा की विशेष बैठक बुलाई जाएगी, ताकि उस प्रस्ताव पर विचार किया जा सके।

(9) राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वे अलग-अलग कारणों जैसे युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के आधार पर अलग-अलग घोषणाएं जारी कर सकते हैं, चाहे पहले से कोई आपातकाल लागू हो या नहीं

अनुच्छेद 356 : राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता (Failure of Constitutional Machinery in States)

(1) यदि राष्ट्रपति को, राज्य के राज्यपाल से प्राप्त रिपोर्ट के आधार पर या अन्य किसी माध्यम से यह संतोष हो जाए कि राज्य में सरकार संविधान के अनुसार नहीं चलाई जा सकती, तो राष्ट्रपति एक घोषणा (Proclamation) जारी कर सकते हैं, जिसके द्वारा —

(a) वे राज्य सरकार के कुछ या सभी कार्य और राज्यपाल या किसी अन्य प्राधिकरण के कुछ या सभी अधिकार अपने अधीन ले सकते हैं, लेकिन विधानमंडल को छोड़कर।

(b) वे यह घोषित कर सकते हैं कि राज्य विधानमंडल की शक्तियाँ संसद या संसद द्वारा अधिकृत किसी संस्था द्वारा प्रयोग की जाएंगी

(c) वे उद्देश्य की पूर्ति हेतु आवश्यक और उपयुक्त अन्य सहायक और परिणामस्वरूप प्रावधान कर सकते हैं, जिसमें किसी राज्यीय निकाय या प्राधिकरण से संबंधित संविधान के किसी प्रावधान को पूरी तरह या आंशिक रूप से निलंबित करना भी शामिल हो सकता है।
लेकिन: राष्ट्रपति उच्च न्यायालय से संबंधित कोई भी शक्ति अपने अधीन नहीं ले सकते, और न ही संविधान के उच्च न्यायालय से संबंधित किसी भी प्रावधान को निलंबित कर सकते हैं।

(2) इस प्रकार की कोई भी घोषणा, बाद की घोषणा द्वारा बदली या रद्द की जा सकती है।

(3) हर ऐसी घोषणा को दोनों सदनों (लोकसभा व राज्यसभा) के समक्ष रखा जाएगा, और यदि वह किसी पूर्व घोषणा को रद्द नहीं कर रही है, तो दो महीने के भीतर यदि संसद द्वारा स्वीकृति नहीं दी जाती, तो वह निष्प्रभावी हो जाएगी

प्रावधान: यदि यह घोषणा ऐसे समय में की गई जब लोकसभा भंग थी या दो महीने की अवधि में भंग हो गई, और केवल राज्यसभा ने स्वीकृति दी है, तो यह घोषणा लोकसभा के पुनर्गठन के बाद पहली बैठक से 30 दिन बाद समाप्त मानी जाएगी, जब तक कि लोकसभा भी उस अवधि में स्वीकृति न दे दे।

(4) यदि संसद द्वारा स्वीकृत कर दी गई है, तो यह घोषणा, घोषणा की तिथि से 6 महीने तक प्रभावी रहती है, जब तक रद्द न की जाए।
और यदि दोनों सदन प्रत्येक 6 महीने में इसका विस्तार करते रहें, तो यह घोषणा अधिकतम 3 वर्षों तक प्रभावी रह सकती है।

प्रावधान: यदि इस 6 महीने की अवधि के दौरान लोकसभा भंग हो जाती है, और केवल राज्यसभा द्वारा विस्तार की स्वीकृति दी गई है, तो यह घोषणा लोकसभा के पुनर्गठन के बाद 30 दिन में समाप्त हो जाएगी, जब तक कि लोकसभा भी स्वीकृति न दे दे।

विशेष प्रावधान (पंजाब राज्य हेतु): 11 मई 1987 को पंजाब राज्य के संबंध में की गई घोषणा के मामले में, 3 वर्ष की सीमा को 5 वर्ष माना जाएगा।

(5) हालांकि उपर्युक्त में कहा गया है कि यह घोषणा 3 वर्षों तक प्रभावी रह सकती है, लेकिन एक वर्ष के बाद इसे और आगे बढ़ाने के लिए, यह आवश्यक है कि —

(a) उस समय देश या उस राज्य में आपातकाल लागू हो, और
(b) चुनाव आयोग यह प्रमाणित करे कि उस राज्य में चुनाव कराना कठिन है, इसलिए इस घोषणा का आगे बढ़ाया जाना आवश्यक है।

प्रावधान: यह प्रतिबंध 11 मई 1987 को पंजाब के लिए जारी की गई घोषणा पर लागू नहीं होगा।

अनुच्छेद 360 : वित्तीय आपातकाल – Financial Emergency

(1) यदि राष्ट्रपति को यह संतोष हो कि भारत या उसके किसी भाग की वित्तीय स्थिरता या साख (credit) को गंभीर खतरा उत्पन्न हो गया है, तो वह एक घोषणा (Proclamation) द्वारा यह घोषणा कर सकते हैं कि वित्तीय आपातकाल की स्थिति उत्पन्न हो गई है

(2) इस प्रकार की घोषणा के संबंध में —

(a) इसे बाद की किसी घोषणा द्वारा रद्द या संशोधित किया जा सकता है

(b) इस घोषणा को दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) के समक्ष प्रस्तुत करना होगा

(c) यह घोषणा, जब तक कि दोनों सदनों द्वारा दो महीने के भीतर इसे स्वीकृति न मिल जाए, दो महीने बाद निष्प्रभावी हो जाएगी

प्रावधान: यदि यह घोषणा ऐसे समय में की गई हो जब लोकसभा भंग हो या भंग हो रही हो, और केवल राज्यसभा ने इसे स्वीकृत किया हो, तो यह घोषणा लोकसभा के पुनर्गठन के बाद पहली बैठक से 30 दिन के भीतर स्वीकृति न मिलने पर निष्प्रभावी हो जाएगी

(3) जब तक यह वित्तीय आपातकाल लागू रहता है, संघ की कार्यकारी शक्ति राज्य को यह निर्देश देने तक विस्तारित होती है कि वे वित्तीय मर्यादा (financial propriety) के सिद्धांतों का पालन करें। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रपति वह सभी निर्देश दे सकते हैं जो उन्हें आवश्यक और उपयुक्त लगें

(4) इस संविधान में कुछ भी होने के बावजूद:

(a) राष्ट्रपति द्वारा दिए गए निर्देशों में निम्नलिखित शामिल हो सकते हैं:

(i) राज्य के कार्य से जुड़े किसी या सभी वर्गों के कर्मचारियों के वेतन और भत्तों में कटौती का निर्देश।

(ii) ऐसा निर्देश कि राज्य विधानमंडल द्वारा पारित सभी मनी बिल (Money Bills) या अनुच्छेद 207 से संबंधित विधेयकों को राष्ट्रपति की अनुमति के लिए सुरक्षित रखा जाए।

(b) राष्ट्रपति को यह भी अधिकार होगा कि जब तक यह वित्तीय आपातकाल लागू है, वे संघ से संबंधित किसी भी वर्ग के कर्मचारियों, जिनमें सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश भी शामिल हैं, के वेतन और भत्तों में कटौती का निर्देश जारी कर सकें

अनुच्छेद 368 : संविधान का संशोधन – Amendment of the Constitution

(1) इस संविधान में चाहे कुछ भी कहा गया हो, संसद को यह संविधान संशोधन की संविधानिक शक्ति प्राप्त है, जिसके अंतर्गत वह संविधान के किसी भी प्रावधान को जोड़, बदल या हटाकर संशोधित कर सकती है, इस अनुच्छेद में निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार।

(2) संविधान का संशोधन केवल उसी स्थिति में आरंभ किया जा सकता है जब संसद के किसी भी सदन में इसके लिए एक विधेयक (बिल) पेश किया जाए। जब वह विधेयक दोनों सदनों में

  • उस सदन के कुल सदस्यों के बहुमत से, और
  • उस सदन में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित हो जाता है,

तब उस विधेयक को राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा, और राष्ट्रपति उसे अपनी स्वीकृति देंगे। जैसे ही राष्ट्रपति की स्वीकृति मिल जाती है, संविधान उसी विधेयक की शर्तों के अनुसार संशोधित माना जाएगा

परंतु, यदि संशोधन का विधेयक निम्न में से किसी विषय से संबंधित है, तो उसे राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करने से पहले कम-से-कम आधे राज्यों की विधानसभाओं द्वारा अनुमोदित (ratified) किया जाना आवश्यक होगा:

  • (a) अनुच्छेद 54, 55, 73, 162, 241 या 246A से संबंधित संशोधन;
  • (b) भाग V का अध्याय IV, भाग VI का अध्याय V, या भाग XI का अध्याय I से संबंधित संशोधन;
  • (c) सातवीं अनुसूची की किसी सूची से संबंधित संशोधन;
  • (d) संसद में राज्यों के प्रतिनिधित्व से संबंधित संशोधन;
  • (e) अनुच्छेद 368 के स्वयं के प्रावधानों से संबंधित संशोधन।

(3) इस अनुच्छेद के अंतर्गत किया गया कोई भी संशोधन अनुच्छेद 13 की सीमा में नहीं आएगा। यानी, इसे मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कहकर निरस्त नहीं किया जा सकता।

(4) यह स्पष्ट किया गया था कि इस अनुच्छेद के तहत संविधान (यहाँ तक कि भाग III – मौलिक अधिकारों) में किया गया कोई भी संशोधन (चाहे वह संशोधन संविधान के 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 के लागू होने से पहले या बाद में किया गया हो), किसी भी न्यायालय में किसी भी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती
( यह खंड सुप्रीम कोर्ट द्वारा Minerva Mills केस (1980) में असंवैधानिक घोषित किया गया है)।

(5) यह भी स्पष्ट किया गया कि संसद की संविधान संशोधन की शक्ति पर कोई सीमा नहीं है, और वह किसी भी प्रावधान को जोड़ने, संशोधित करने या हटाने के लिए पूरी तरह सक्षम है।

दसवीं अनुसूची : दलबदल विरोधी कानून – Anti-Defection Law

  1. परिभाषाएँ :
  • ‘सदन’ का अर्थ है संसद का कोई भी सदन या राज्य की विधायिका का कोई भी सदन।
  • ‘विधान मंडल दल’ से तात्पर्य है किसी राजनैतिक दल से संबंधित उस सदन के सभी सदस्य।
  • ‘मूल राजनैतिक दल’ वह दल है जिससे कोई सदस्य संबंधित है।
  • ‘पैरा’ से मतलब इस अनुसूची के अनुच्छेदों (paragraphs) से है।
  1. दलबदल के आधार पर अयोग्यता :
  2. यदि कोई सदस्य निम्न में से कोई काम करता है तो वह अयोग्य ठहराया जाएगा :
    • (a) स्वेच्छा से अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ता है, या
    • (b) अपनी पार्टी के निर्देश के विरुद्ध वोट देता है या मतदान से अनुपस्थित रहता है, बिना पूर्व अनुमति के और पार्टी 15 दिनों के भीतर उसे क्षमा नहीं करती।

स्पष्टीकरण:

  • चुना गया सदस्य उसी दल का माना जाएगा जिसने उसे उम्मीदवार के रूप में खड़ा किया था
  • नामित सदस्य को:
    • नामांकन के समय यदि वह किसी दल में था, तो उसी का सदस्य माना जाएगा;
    • नहीं था तो उसे छह महीने के भीतर किसी दल से जुड़ना होगा।
  1. कोई स्वतंत्र (independent) सदस्य यदि चुनाव के बाद किसी दल में शामिल होता है तो वह अयोग्य होगा।
  2. कोई नामित सदस्य अगर नामांकन के छह महीने बाद किसी पार्टी में शामिल होता है तो वह अयोग्य होगा।
  3. 1985 के 52वें संशोधन के समय जो सदस्य थे, उनके लिए विशेष व्यवस्था थी:
    • यदि वे पहले से किसी पार्टी में थे तो उसी के प्रत्याशी माने जाएंगे;
    • यदि नहीं, तो स्वतंत्र या नामित माने जाएंगे।
  1. [हटाया गया]
    (पैरा 3) — पहले दल में “स्प्लिट” होने पर एक-तिहाई सदस्य अलग होकर नई पार्टी बना सकते थे, परंतु यह प्रावधान 2003 के 91वें संशोधन द्वारा हटा दिया गया।
  2. विलय (Merger) के मामलों में अयोग्यता नहीं :
  • यदि मूल पार्टी का दो-तिहाई से अधिक सदस्य किसी अन्य दल में मिल जाएँ, तो वह दलबदल नहीं माना जाएगा
  • ऐसे सदस्य नई पार्टी में शामिल हों या अलग समूह बनाएं, तब भी अयोग्यता लागू नहीं होती
  1. अध्यक्ष/उपाध्यक्ष/सभापति की छूट :
  • यदि कोई सदस्य लोकसभा या राज्य विधानसभा का अध्यक्ष/उपाध्यक्ष या राज्य परिषद का सभापति/उपसभापति चुना जाता है और वह इसके लिए अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है, तो वह अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा
    • बशर्ते वह उस पद पर रहते हुए किसी और दल में शामिल न हो;
    • और पद छोड़ने के बाद यदि वह अपनी पुरानी पार्टी में लौटता है तो भी अयोग्यता लागू नहीं होगी।
  1. निर्णय का अधिकार :
  • यदि यह सवाल उठता है कि कोई सदस्य दलबदल के कारण अयोग्य हुआ है या नहीं, तो इसका निर्णय सदन के अध्यक्ष या सभापति द्वारा किया जाएगा, और उनका निर्णय अंतिम होगा
  • यदि मामला स्वयं अध्यक्ष/सभापति का हो, तो सदन द्वारा चुना गया कोई सदस्य निर्णय करेगा।
  1. न्यायालय के अधिकार क्षेत्र पर रोक :
  • संविधान में कुछ भी हो, कोई न्यायालय दलबदल से जुड़ी अयोग्यता के मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता
  1. नियम बनाने की शक्ति :
  • अध्यक्ष या सभापति दलबदल संबंधित मामलों में नियम बना सकते हैं, जैसे —
    • सदस्यों की पार्टी सदस्यता का रिकॉर्ड रखना,
    • पार्टी से मिली जानकारी की रिपोर्ट देने की प्रक्रिया,
    • अयोग्यता के मामलों की जांच प्रक्रिया आदि।
  • ये नियम सदन के समक्ष 30 दिन तक प्रस्तुत किए जाएंगे और फिर प्रभावी माने जाएंगे।
  • इन नियमों का जानबूझकर उल्लंघन सदन की विशेषाधिकार हनन की तरह माना जा सकता है।

अनुच्छेद 226 – उच्च न्यायालय द्वारा रिट जारी करने की शक्ति

अनुच्छेद 226 के अनुसार, उच्च न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त है कि वह मौलिक अधिकारों के उल्लंघन या किसी अन्य कानूनी अधिकार के हनन की स्थिति में पाँच प्रकार की रिटें जारी कर सकता है। यह अधिकार अनुच्छेद 32 की तुलना में अधिक व्यापक है क्योंकि अनुच्छेद 32 केवल मौलिक अधिकारों तक सीमित है और केवल सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रयोग किया जाता है।

  1. हैबियस कॉर्पस (Habeas Corpus) – “शरीर को प्रस्तुत करो”

अर्थ:

यदि किसी व्यक्ति को ग़ैर-कानूनी रूप से हिरासत में लिया गया है, तो यह रिट उस व्यक्ति को रिहा कराने के लिए जारी की जाती है।

उद्देश्य:

व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की रक्षा करना।

कौन दायर कर सकता है:

  • स्वयं बंदी या
  • कोई भी अन्य व्यक्ति उसकी ओर से (जैसे परिजन, मित्र या वकील)।

उदाहरण:

यदि पुलिस बिना कारण किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार कर लेती है और उसे कोर्ट में पेश नहीं करती, तो अदालत यह रिट जारी कर सकती है और पुलिस को आदेश दे सकती है कि वह उस व्यक्ति को न्यायालय में प्रस्तुत करे।

अपवाद:

यदि व्यक्ति को कानून के अनुसार हिरासत में लिया गया है (जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम या अन्य निवारक हिरासत कानूनों के तहत), तो यह रिट जारी नहीं की जाती; लेकिन अदालत यह जाँच सकती है कि हिरासत वैध है या नहीं।

  1. मैंडेमस (Mandamus) – “हम आदेश देते हैं”

अर्थ:

यह रिट किसी लोक अधिकारी या संस्था को उनके कानूनी कर्तव्य के पालन के लिए बाध्य करने हेतु जारी की जाती है।

उद्देश्य:

यह सुनिश्चित करना कि सरकारी अधिकारी या संस्था अपने कानूनी दायित्वों का पालन करें।

किन्हें जारी की जा सकती है:

  • सरकारी अधिकारी
  • सरकारी विभाग
  • सार्वजनिक निकाय (जैसे नगर निगम, विश्वविद्यालय, आदि)

उदाहरण:

यदि कोई अधिकारी किसी पात्र व्यक्ति को उसका लाइसेंस या प्रमाणपत्र देने से मना करता है जबकि वह क़ानून के अनुसार उसका हकदार है, तो अदालत “Mandamus” रिट जारी कर सकती है।

  1. प्रोहिबिशन (Prohibition) – “निषेध का आदेश”

अर्थ:

यह रिट किसी अधीनस्थ न्यायालय या न्यायिक प्राधिकरण को कोई मामला सुनने या निर्णय देने से रोकने के लिए जारी की जाती है जब वह अपनी अधिकार-सीमा से बाहर जाकर कार्य कर रहा हो।

उद्देश्य:

यह सुनिश्चित करना कि कोई निचली अदालत या ट्रिब्यूनल कानून की सीमा के भीतर ही काम करे

उदाहरण:

यदि कोई ट्रिब्यूनल ऐसा मामला सुन रहा है जो उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता, तो हाईकोर्ट उसे “Prohibition” रिट द्वारा रोक सकता है।

  1. सर्टियोरारी (Certiorari) – “अधिकारी रिकॉर्ड प्रस्तुत करे और आदेश रद्द किया जाए”

अर्थ:

यह रिट भी किसी अधीनस्थ न्यायिक निकाय द्वारा दिए गए अवैध आदेश या निर्णय को रद्द करने के लिए जारी की जाती है।

उद्देश्य:

यह सुनिश्चित करना कि निचली अदालतें या न्यायिक संस्थाएं न्यायसंगत और विधिसम्मत निर्णय लें।

अंतर “Prohibition” से:

  • Prohibition – कार्यवाही शुरू होने से पहले रोकती है।
  • Certiorari – कार्यवाही या आदेश होने के बाद उसे रद्द करती है।

उदाहरण:

यदि कोई ट्रिब्यूनल कानून के विरुद्ध जाकर कोई निर्णय देता है, तो उच्च न्यायालय Certiorari रिट द्वारा उस आदेश को निरस्त कर सकता है।

  1. क्यू-वारंटो (Quo-Warranto) – “किस अधिकार से?”

अर्थ:

यह रिट किसी व्यक्ति से यह पूछने के लिए जारी की जाती है कि वह किसी सार्वजनिक पद पर किस अधिकार से बैठा हुआ है, यदि वह अयोग्य है।

उद्देश्य:

सार्वजनिक पदों पर अनधिकृत या अयोग्य व्यक्ति को हटाना

कौन दायर कर सकता है:

कोई भी सार्वजनिक हित में इस रिट की याचिका दायर कर सकता है।

उदाहरण:

यदि कोई व्यक्ति किसी सरकारी पद पर बैठा है और वह उस पद के लिए आवश्यक योग्यता नहीं रखता, तो यह रिट जारी की जा सकती है कि वह यह सिद्ध करे कि वह उस पद पर किस वैधानिक अधिकार से बैठा है

निष्कर्ष (Conclusion)

रिट का नाम उद्देश्य
हैबियस कॉर्पस ग़ैर-कानूनी हिरासत से मुक्ति
मैंडेमस कानूनी कर्तव्य के पालन का आदेश
प्रोहिबिशन अधिकार क्षेत्र से बाहर जा रही कार्यवाही को रोकना
सर्टियोरारी गलत निर्णय को रद्द करना
क्यू-वारंटो किसी पद पर अवैध रूप से बैठे व्यक्ति को चुनौती देना

धारा 323A : प्रशासनिक न्यायाधिकरण – Administrative Tribunals

  1. प्रशासनिक न्यायाधिकरण की स्थापना (Sub-clause 1)

इस धारा के तहत, संसद को यह अधिकार प्राप्त है कि वह प्रशासनिक न्यायाधिकरणों द्वारा कर्मचारी भर्ती और सेवा शर्तों से संबंधित विवादों का निवारण करने के लिए कानून बना सके। यह विवाद संघ या राज्य सरकारों, स्थानीय प्राधिकरणों और सरकारी कंपनियों के कर्मचारियों से संबंधित हो सकते हैं।

  1. प्रशासनिक न्यायाधिकरणों की स्थापना (Sub-clause 2)

कानून में निम्नलिखित प्रावधान किए जा सकते हैं:

  • संघीय और राज्य स्तर पर न्यायाधिकरण की स्थापना की जा सकती है।
  • न्यायाधिकरणों की कक्षा, शक्तियाँ, और प्राधिकृत अधिकार निर्धारित किए जा सकते हैं।
  • न्यायाधिकरणों द्वारा पालन की जाने वाली प्रक्रिया (समय सीमा, साक्ष्य नियम आदि) तय की जा सकती है।
  • न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र को समाप्त किया जा सकता है, सिवाय सुप्रीम कोर्ट के अनुच्छेद 136 के तहत।
  • उन मामलों को न्यायाधिकरण में स्थानांतरित किया जा सकता है, जो न्यायालयों में लंबित थे और जो न्यायाधिकरण के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
  1. संविधान या अन्य कानूनों की बाध्यता से स्वतंत्रता (Sub-clause 3)

यह धारा किसी अन्य संविधान या कानून के खिलाफ प्रभावी है, यानी इसे लागू करने के लिए किसी अन्य प्रावधान के साथ संघर्ष नहीं किया जाएगा।

धारा 323B : अन्य मामलों के लिए न्यायाधिकरण – Tribunals for Other Matters

  1. न्यायाधिकरण की स्थापना (Sub-clause 1)

यह धारा राज्य विधानमंडल या संसद को अधिकार देती है कि वह विभिन्न विवादों, शिकायतों और अपराधों के निवारण के लिए न्यायाधिकरणों की स्थापना कर सके। यह कानूनी रूप से स्वीकृत विषयों से संबंधित हो सकते हैं।

  1. न्यायाधिकरणों के क्षेत्राधिकार (Sub-clause 2)

इस धारा में उन मामलों की सूची दी गई है, जिनके लिए न्यायाधिकरणों का गठन किया जा सकता है:

  • करों का मूल्यांकन, संग्रहण और उनके निष्पादन से संबंधित विवाद।
  • विदेशी मुद्रा, आयात और निर्यात से संबंधित विवाद।
  • औद्योगिक और श्रमिक विवाद।
  • भूमि सुधार और कृषि भूमि पर छत।
  • शहरी संपत्ति पर छत।
  • संसद या राज्य विधानसभा चुनाव से संबंधित विवाद।
  • आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन, आपूर्ति, वितरण और कीमतों का नियंत्रण।
  • किराया, किरायेदार और मकान मालिक के अधिकारों से संबंधित विवाद।
  1. न्यायाधिकरणों की स्थापना के लिए कानून (Sub-clause 3)

इस कानून के तहत निम्नलिखित प्रावधान किए जा सकते हैं:

  • न्यायाधिकरणों की संरचना और अधिकार
  • न्यायाधिकरणों द्वारा पालन किए जाने वाले प्रक्रियाएँ (समय सीमा, साक्ष्य आदि)।
  • न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र को समाप्त करना, सिवाय सुप्रीम कोर्ट के अनुच्छेद 136 के तहत।
  • लंबित मामलों का न्यायाधिकरण में स्थानांतरण
  • न्यायाधिकरणों के प्रभावी संचालन के लिए आवश्यक प्रावधान।
  1. इस धारा का प्रभाव (Sub-clause 4)

यह धारा किसी अन्य संविधान या कानून के खिलाफ प्रभावी है, यानी यह उस संविधान या कानून के किसी अन्य प्रावधान से बाधित नहीं होगी।

निष्कर्ष

  • धारा 323A प्रशासनिक न्यायाधिकरणों से संबंधित है, जो संघ और राज्य के सरकारी सेवाओं से जुड़े विवादों का निपटारा करने के लिए स्थापित किए जा सकते हैं।
  • धारा 323B अन्य प्रकार के विवादों के लिए न्यायाधिकरणों की स्थापना की अनुमति देती है, जो विभिन्न कानूनी मामलों जैसे करों, चुनाव, औद्योगिक विवाद आदि से संबंधित हो सकते हैं।

इन न्यायाधिकरणों का उद्देश्य कानूनी प्रक्रिया को तेज करना और विवादों का समाधान अधिक प्रभावी तरीके से प्रदान करना है।