Bharatiya Sakshya Adhiniyam, 2023

Bharatiya Sakshya Adhiniyam 2023

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023

ACT NO. 47 OF 2023

लागू होने की तारीख : 01 Jul 2024

धारा 1 – संक्षिप्त शीर्षक, अनुप्रयोग और प्रारंभ (Section 1 – Short title, application and commencement)

इस अधिनियम का नाम “भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023” (The Bharatiya Sakshya Adhiniyam, 2023) है।

यह अधिनियम सभी न्यायिक कार्यवाहियों पर लागू होता है —
चाहे वह किसी न्यायालय के भीतर हो या न्यायालय के समक्ष,
इसमें कोर्ट-मार्शल (सेना से संबंधित अदालतें) भी शामिल हैं।लेकिन यह निम्नलिखित पर लागू नहीं होता:
अफ़िडेविट्स (शपथपत्र) जो किसी न्यायालय या अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किए जाते हैं।
अरबिट्रेटर (पंच-न्यायाधीश) के समक्ष चल रही कार्यवाहियाँ।

यह अधिनियम केंद्र सरकार द्वारा आधिकारिक गजट में अधिसूचना के माध्यम से घोषित किसी तारीख से प्रभाव में आएगा।

मुख्य कानूनी बिंदु (Important Legal Points):

यह अधिनियम सभी न्यायालयों में होने वाली कार्यवाहियों पर लागू होता है, कोर्ट-मार्शल सहित।

यह शपथपत्रों और मध्यस्थ (arbitrator) के समक्ष की कार्यवाहियों पर लागू नहीं होता।

कब लागू होगा, यह केंद्र सरकार तय करेगी अधिसूचना द्वारा।

धारा 2 – परिभाषाएँ (Section 2 – Definitions)

परिचय
इस धारा में उन प्रमुख शब्दों‑वाक्यों की कानूनी परिभाषाएँ दी गई हैं जिनका प्रयोग आगे के सभी प्रावधानों में होगा। सही अर्थ समझना —और याद रखना —महत्वपूर्ण है, क्योंकि इन्हीं पर आगे साक्ष्य‑नियम आधारित होंगे।

(a)“न्यायालय” (Court)
कौन‑कौन शामिल है ? सभी न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट तथा वे व्यक्ति जिन्‍हें विधि द्वारा साक्ष्य लेने का वैधानिक अधिकार दिया गया है।
कौन बाहर है ? मध्यस्थ (arbitrator) इस परिभाषा में नहीं आते।

(b)“निश्चित प्रमाण” (Conclusiveproof)
यदि किसी एक तथ्य को यह अधिनियम किसी दूसरे तथ्य का “निश्चित प्रमाण” घोषित कर देता है, तो—

पहला तथ्य साबित होते ही कोर्ट को दूसरा तथ्य भी साबित ही मानना पड़ेगा।

इसके विपरीत कोई प्रमाण पेश करने की अनुमति नहीं होगी।

(c)“अखण्डित” / “असिद्ध” (Disproved)
कोई तथ्य तब असिद्ध माना जाएगा जब—

कोर्ट को विश्वास हो जाए कि वह तथ्य है ही नहीं, अथवा

उसकी अनुपस्थिति इतनी अधिक सम्भावित लगे कि कोई समझदार व्यक्ति मान ले कि वह तथ्य अस्तित्व‑विहीन है।

(d)“दस्तावेज़” (Document)
किसी भी माध्यम से अक्षर, अंक, चिन्ह इत्यादि द्वारा कही‑लिखी या अंकित वह वस्तु, जिसका उपयोग जानकारी दर्ज करने के लिये किया जा सकता है, दस्तावेज़ है। इलेक्ट्रॉनिक तथा डिजिटल अभिलेख भी इसमें सम्मिलित हैं।

उदाहरण (Illustrations)
लिखित काग़ज़, मुद्रित पुस्तक, फ़ोटो की गई छवि।
नक़्शा या योजना।
धातु‑फलक या पत्थर पर हुई अभिलेख‑उत्कीर्णन।
कैरिकेचर (व्यंग्यचित्र)।
ई‑मेल, सर्वर‑लॉग, कम्प्यूटर/लैपटॉप/स्मार्टफ़ोन में संग्रहीत फ़ाइलें, संदेश, वेबसाइट डेटा, लोकेशन‑डाटा, वॉइस‑मेल इत्यादि।

(e)“साक्ष्य” (Evidence)
मौखिक साक्ष्य (Oral evidence)—कोर्ट के समक्ष गवाही के रूप में दिए गए सभी कथन, चाहे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से हों या प्रत्यक्ष।

दस्तावेज़ी साक्ष्य (Documentary evidence)—कोर्ट के निरीक्षण हेतु प्रस्तुत किये गए सभी दस्तावेज़, जिनमें इलेक्ट्रॉनिक/डिजिटल रिकॉर्ड भी शामिल हैं। (f)“तथ्य” (Fact)
 इन्द्रियों से ज्ञात होने योग्य कोई वस्तु, अवस्था या सम्बन्ध, या
 किसी व्यक्ति की सचेत मानसिक अवस्था।

उदाहरण
 किसी स्थान पर वस्तुओं का विशेष क्रम में होना।
 किसी व्यक्ति का कुछ सुनना या देखना।
 किसी व्यक्ति का विशेष शब्द बोलना।
 किसी का विचार, मंशा, सद्भाव/दुराव, शब्द का विशेष अर्थ में प्रयोग, किसी विशेष संवेदना का अनुभव —सभी तथ्य हैं।

 (g)“विवादित तथ्य” (Factsinissue)
 वे तथ्य जिनसे अकेले या अन्य तथ्यों के साथ मिलकर किसी पक्ष के अधिकार, दायित्व या अक्षमता की पुष्टि अथवा खण्डन आवश्यक रूप से निष्कर्षित होता है।

स्पष्टीकरण
दीवानी प्रक्रिया‑संबंधी विधि के अंतर्गत जब कोर्ट किसी तथ्यगत मुद्दे को दर्ज करता है, तो उत्तर में स्वीकार‑अस्वीकार होने वाला तथ्य ही “विवादित तथ्य” होता है।

उदाहरण (हत्या के मुकदमे में)
 A ने B की मृत्यु कारित की या नहीं।
 A ने जानबूझकर हत्या की नीयत से कार्य किया या नहीं।
 A को B से तत्काल‑गंभीर उकसावा मिला या नहीं।
 घटना के समय A विक्षिप्‍तता के कारण कृत्य की प्रकृति समझने में अक्षम था या नहीं।

 (h)“अनुमान कर सकता है” (Maypresume)
 कोर्ट चाहे तो तथ्य को सिद्ध मान ले, जब तक कि उसे असिद्ध न कर दिया जाए; या
 कोर्ट प्रमाण माँग भी सकता है।

 (i)“असिद्ध‑असत्यापित” (Notproved)
 तथ्य न तो सिद्ध हुआ है, न ही असिद्ध—बीच की स्थिति।

 (j)“सिद्ध” (Proved)
 कोर्ट को तथ्य के अस्तित्व पर विश्वास हो, या
 उसकी संभावना इतनी प्रबल हो कि कोई समझदार व्यक्ति उसे सत्य मानकर कार्य करे।

 (k)“प्रासंगिक” (Relevant)
 जब कोई तथ्य दूसरे तथ्य से इस अधिनियम के प्रासंगिकता‑संबंधी प्रावधानों के किसी भी तरीके से जुड़ा हो।

 (l)“अनिवार्य अनुमान” (Shallpresume)
 कानून निर्देशित करता है कि कोर्ट उसे सिद्ध मानेगा, जब तक कि उसे असिद्ध सिद्ध न कर दिया जाए।

 उप‑धारा (2) – अन्य अधिनियमों की परिभाषाएँ लागू
 यदि कोई शब्द यहाँ परिभाषित नहीं है परंतु—

सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम,2000,

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता,2023, या

भारतीय न्याय संहिता,2023
में परिभाषित है, तो उसी अर्थ को यहाँ भी मान्य किया जाएगा।

महत्व के बिंदु (Key Takeaways)

“न्यायालय” में मध्यस्थ सम्मिलित नहीं हैं।
“निश्चित प्रमाण” पर विपरीत साक्ष्य स्वीकार्य नहीं।
इलेक्ट्रॉनिक व डिजिटल रिकॉर्ड भी “दस्तावेज़” तथा “साक्ष्य” के दायरे में आते हैं।
प्रासंगिकता, सिद्ध‑असिद्ध और अनुमान (may/shall presume) के नियम न्यायालय के निर्णय‑प्रक्रिया के मूल स्तंभ हैं।

धारा 3 – केवल विवादित तथ्यों और प्रासंगिक तथ्यों का साक्ष्य दिया जा सकता है (Section 3 – Evidence may be given of facts in issue and relevant facts)

 मुख्य प्रावधान (Main Provision):
कोई भी व्यक्ति किसी वाद (suit) या कार्यवाही (proceeding) में केवल निम्नलिखित बातों का साक्ष्य दे सकता है:
 विवादित तथ्य (facts in issue)
 वे अन्य तथ्य जो इस अधिनियम के अनुसार प्रासंगिक घोषित किए गए हैं (relevant facts)
 इनके अलावा अन्य किसी तथ्य का साक्ष्य नहीं दिया जा सकता।

 व्याख्या (Explanation):
इस धारा के अंतर्गत, कोई व्यक्ति ऐसा तथ्य साक्ष्य के रूप में नहीं दे सकता,
 जिसे सिविल प्रक्रिया की वर्तमान वैधानिक व्यवस्था (जैसे दीवानी प्रक्रिया संहिता) के अंतर्गत प्रमाणित करने का अधिकार उससे छीन लिया गया हो।

 उदाहरण (Illustrations):

(a)
A पर आरोप है कि उसने B को डंडे से पीट-पीट कर मार डाला।
 इस मुकदमे में जो विवादित तथ्य (facts in issue) होंगे, वे ये हैं:

A ने B को डंडे से मारा या नहीं।

क्या A की उस मार से B की मृत्यु हुई।

क्या A का उद्देश्य B की मृत्यु करना था।

(b)
एक वादी (A), जिस बांड (bond) पर वह भरोसा करता है, उसे पहले ही पेश नहीं करता और वह पहले सुनवाई के समय तैयार भी नहीं रहता।
 ऐसी स्थिति में, यह धारा उसे उस बांड को आगे चलकर पेश करने या उसका साक्ष्य देने की अनुमति नहीं देती,
जब तक कि वह दीवानी प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत निर्धारित शर्तों का पालन न करे।

 मुख्य कानूनी बिंदु (Key Legal Points):

 केवल वही तथ्य साक्ष्य में स्वीकार्य हैं जो विवादित या अधिनियम के अनुसार प्रासंगिक हों।
 कोई तथ्य साक्ष्य में नहीं लाया जा सकता यदि उसे अन्य किसी लागू कानून (जैसे CPC) द्वारा रोक दिया गया हो।
 साक्ष्य देने की स्वतंत्रता अनियंत्रित नहीं है — इसे सीमित किया गया है ताकि न्यायिक प्रक्रिया उद्देश्यपूर्ण और नियंत्रित बनी रहे।

संक्षेप में:
इस धारा का उद्देश्य न्यायालयों में साक्ष्य को सीमित और प्रासंगिक रखना है। यह सुनिश्चित करता है कि मुकदमे में केवल वही बातें उठाई जाएँ जो वास्तव में न्यायनिर्णय के लिए ज़रूरी हैं, और जो वर्तमान क़ानून द्वारा अनुमत हैं।

धारा 4 – एक ही लेन-देन (घटना) का भाग होने वाले तथ्यों की प्रासंगिकता (Section 4 – Relevancy of facts forming part of same transaction)

 मुख्य प्रावधान (Main Provision):
ऐसे तथ्य जो किसी मुकदमे में सीधे विवादित न हों, लेकिन किसी विवादित तथ्य या अन्य प्रासंगिक तथ्य से इतने निकटता से जुड़े हों कि वे उसी लेन-देन (घटना) का भाग माने जाएँ,
 तो वे तथ्य भी प्रासंगिक माने जाएँगे,
चाहे वे तथ्य—

एक ही समय और स्थान पर घटे हों, या

अलग-अलग समय और अलग स्थानों पर घटे हों।

 सरल भाषा में अर्थ:
 अगर कोई घटना चल रही है और उसके दौरान या उसके तुरंत पहले या बाद में जो बातें या कृत्य होते हैं, तो वे सभी उसी घटना का हिस्सा माने जाते हैं,
 और प्रासंगिक साक्ष्य (relevant evidence) के रूप में मान्य होते हैं।

 उदाहरण (Illustrations):

(a)
A पर B की हत्या का आरोप है, जिसमें उसने B को पीट-पीट कर मारा।
 पीटने के दौरान A, B या आसपास मौजूद लोगों ने जो कुछ कहा या किया, या घटना से थोड़ा पहले या बाद में जो हुआ,
 वह एक ही लेन-देन (same transaction) का भाग होने के कारण प्रासंगिक होगा।

(b)
‍ A पर भारत सरकार के विरुद्ध युद्ध छेड़ने का आरोप है, जिसमें हथियारबंद विद्रोह के दौरान सम्पत्ति नष्ट हुई, सैनिकों पर हमला हुआ और जेलें तोड़ी गईं।
 यह सभी घटनाएँ एक ही विद्रोह की श्रृंखला का भाग हैं,
 इसलिए ये प्रासंगिक तथ्यों के रूप में मानी जाएँगी, भले ही A हर घटना के समय मौजूद न रहा हो।

(c)
A ने B पर एक अपमानजनक पत्र (libel) के कारण मानहानि का मुकदमा दायर किया।
 वह पत्र एक लंबी पत्र-व्यवहार श्रृंखला (correspondence) का हिस्सा है।
 इस पत्र-व्यवहार में जो अन्य पत्र हैं (चाहे उनमें अपमानजनक बात न भी हो),
वे उसी लेन-देन का भाग होने के कारण प्रासंगिक होंगे।

(d)
A और B के बीच यह विवाद है कि B से मंगाए गए माल A को मिला या नहीं।
 माल बीच में कई अन्य व्यक्तियों को दिया गया।
 हर एक डिलीवरी इस लेन-देन का हिस्सा होने के कारण प्रासंगिक तथ्य मानी जाएगी।

 मुख्य कानूनी बिंदु (Key Legal Points):
 जो तथ्य किसी विवादित तथ्य से इतने जुड़े हों कि वे उसी लेन-देन का हिस्सा लगें, वे प्रासंगिक माने जाएँगे।
 घटना एक ही स्थान या समय पर हो यह आवश्यक नहीं है।
 इस धारा से घटनाओं की श्रृंखला की पूर्णता और न्याय की गहराई से जाँच संभव होती है।

संक्षेप में:
अगर कोई तथ्य सीधे मुद्दा न भी हो लेकिन वह पूरे घटना-क्रम का हिस्सा हो, तो उसे अदालत में साक्ष्य के रूप में माना जाएगा। इससे अदालत को घटनाओं को उनके पूरे संदर्भ में समझने का अवसर मिलता है।

धारा 5 – वे तथ्य जो विवादित या प्रासंगिक तथ्यों के कारण, प्रभाव या अवसर हों (Section 5 – Facts which are occasion, cause or effect of facts in issue or relevant facts)

 मुख्य प्रावधान (Main Provision):
वे तथ्य प्रासंगिक माने जाते हैं जो—
 किसी विवादित तथ्य या प्रासंगिक तथ्य का:

कारण (cause) हों,

परिणाम (effect) हों (चाहे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से),

या जो उनकी घटना की स्थिति (state of things) को दर्शाते हों,

या जिन्होंने उन घटनाओं को होने का अवसर (opportunity) प्रदान किया हो।

 सरल भाषा में अर्थ:
यदि कोई तथ्य उस परिस्थिति, कारण या प्रभाव को दर्शाता है जिसमें कोई विवादित या प्रासंगिक घटना घटित हुई,
 तो वह तथ्य भी प्रासंगिक माना जाएगा और उसे अदालत में साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाएगा।

 उदाहरण (Illustrations):

(a)
प्रश्न है कि A ने B की डकैती की या नहीं।
 डकैती से पहले B एक मेले में गया था और उसके पास पैसे थे — उसने ये बात कुछ लोगों को दिखाई या बताई भी थी।
 ये तथ्य प्रासंगिक हैं क्योंकि उन्होंने डकैती होने का अवसर बनाया।

(b)
प्रश्न है कि A ने B की हत्या की या नहीं।
 हत्या की जगह या पास के क्षेत्र में हुई हाथापाई के निशान (जैसे जमीन पर खरोंच)
 ये तथ्य घटना का प्रभाव (effect) दर्शाते हैं, अतः प्रासंगिक हैं।

(c)
प्रश्न है कि A ने B को ज़हर दिया या नहीं।
 B की तबीयत ज़हर के लक्षणों से पहले कैसी थी, और उसकी जीवनशैली (habits) क्या थी — जो A को ज़हर देने का मौका दे सकती थी,
 ये सभी तथ्य प्रासंगिक हैं।

 मुख्य कानूनी बिंदु (Key Legal Points):
 जो तथ्य घटना का कारण, प्रभाव, अवसर या घटनास्थल की स्थिति बताते हैं — वे प्रासंगिक माने जाते हैं।
 ये तथ्य न्यायालय को पूरे परिप्रेक्ष्य (context) को समझने में मदद करते हैं।
 चाहे तथ्य घटना से पहले हुए हों या बाद में, अगर वे उससे जुड़ी कड़ी साबित हों, तो वे स्वीकार्य होंगे।

संक्षेप में:
इस धारा के अनुसार, कोई भी ऐसा तथ्य जो घटना को घटित करने में सहायक हो, उससे उत्पन्न हुआ हो, या जिसके कारण वह संभव हुई हो — वह न्यायिक दृष्टि से महत्वपूर्ण (legally relevant) है। न्याय प्रक्रिया में इससे कारण–परिणाम श्रृंखला स्थापित करने में सहायता मिलती है।

धारा 6 – उद्देश्य (motive), तैयारी (preparation) और पूर्ववर्ती या पश्चातवर्ती आचरण (conduct) की प्रासंगिकता
(Section 6 – Motive, preparation and previous or subsequent conduct)

 मुख्य प्रावधान (Main Provisions):

(1)
 कोई भी ऐसा तथ्य जो किसी विवादित तथ्य या प्रासंगिक तथ्य का

उद्देश्य (motive) दर्शाता हो, या

तैयारी (preparation) को सिद्ध करता हो,
 वह प्रासंगिक (relevant) है।

(2)
 मुकदमे या कार्यवाही में शामिल किसी पक्ष (party) या उसके प्रतिनिधि (agent) का ऐसा आचरण
जो उस मुकदमे या किसी विवादित/प्रासंगिक तथ्य से

प्रभावित हुआ हो, या

जिसने उन तथ्यों को प्रभावित किया हो,
 वह प्रासंगिक होता है, चाहे वह घटना से पहले या बाद में हुआ हो।

 इसमें उस व्यक्ति का भी आचरण शामिल है जिसके विरुद्ध अपराध हुआ है।

 स्पष्टीकरण (Explanations):

स्पष्टीकरण 1:

“Conduct” (आचरण) का अर्थ केवल कथनों (statements) से नहीं है,

जब तक कि वे कथन किसी कार्य की व्याख्या के साथ न हों।

लेकिन इससे इस अधिनियम की अन्य धाराओं में कथनों की प्रासंगिकता पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

स्पष्टीकरण 2:

जब किसी व्यक्ति का आचरण प्रासंगिक हो,
 तो जो कथन उसकी उपस्थिति में, उसे सुनकर कहे गए हों और उसके आचरण को प्रभावित करते हों, वे भी प्रासंगिक होते हैं।

 उदाहरण (Illustrations):

(a)
A पर B की हत्या का आरोप है। यह तथ्य कि—

A ने पहले C की हत्या की थी,

B को यह पता था, और

B ने A को यह कहकर ब्लैकमेल किया कि वह यह राज़ उजागर कर देगा —
 प्रासंगिक हैं (मकसद सिद्ध करने हेतु)।

(b)
A ने B पर एक बांड के ज़रिए पैसे मांगने का दावा किया।
B यह कहता है कि उसने ऐसा कोई बांड नहीं बनाया।
 यह तथ्य कि बांड के समय B को विशेष उद्देश्य के लिए पैसों की आवश्यकता थी, प्रासंगिक है।

(c)
A पर आरोप है कि उसने B को ज़हर दिया।
 यह तथ्य कि B की मृत्यु से पहले A ने वैसा ही ज़हर प्राप्त किया था, प्रासंगिक है।

(d)
प्रश्न है कि क्या एक दस्तावेज़ A की वसीयत (will) है।
 यह तथ्य कि A ने वसीयत से संबंधित मामलों की जानकारी ली, वकीलों से सलाह ली, और अन्य ड्राफ्ट बनवाए —
प्रासंगिक हैं।

(e)
A पर किसी अपराध का आरोप है।
 यह तथ्य कि A ने अपने पक्ष में चीज़ों को दिखाने के लिए साक्ष्य गढ़ा, छुपाया, गवाहों को प्रभावित किया, झूठे गवाह खड़े किए —
प्रासंगिक हैं।

(f)
प्रश्न है कि A ने B को लूटा या नहीं।
 यह तथ्य कि जब C ने A के सामने कहा “पुलिस आ रही है जो B को लूटने वाले को ढूंढ रही है” और A तुरंत भाग गया —
प्रासंगिक है।

(g)
प्रश्न है कि A ने B से ₹10,000 उधार लिए या नहीं।
 यह तथ्य कि C से उधार मांगते समय, D ने C से A की उपस्थिति में कहा “A पर भरोसा मत करो, वह B का ₹10,000 का कर्ज़दार है” और A ने कुछ नहीं कहा —
प्रासंगिक है।

(h)
A पर अपराध का आरोप है।
 यह तथ्य कि A को एक पत्र मिला जिसमें लिखा था कि उसकी तलाश हो रही है, और वह तुरंत भाग गया —
प्रासंगिक है।

(i)
A पर अपराध का आरोप है।
 यह तथ्य कि घटना के बाद A ने

फरार होने की कोशिश की,

अपराध से जुड़ी संपत्ति रखी,

सबूत छुपाए,
प्रासंगिक हैं।

(j)
प्रश्न है कि A के साथ बलात्कार हुआ या नहीं।
 यह तथ्य कि घटना के तुरंत बाद A ने विधिवत शिकायत दर्ज कराई, और किस परिस्थिति में व किस भाषा में की,
प्रासंगिक हैं।
 लेकिन अगर A ने केवल किसी से कहा “मेरे साथ बलात्कार हुआ”, बिना कोई शिकायत दर्ज कराए,
 वह इस धारा के तहत प्रासंगिक नहीं,
लेकिन अन्य धाराओं (धारा 26 की dying declaration या धारा 160 की corroboration) के अंतर्गत प्रासंगिक हो सकता है

(k)
प्रश्न है कि क्या A के साथ डकैती हुई।
 घटना के तुरंत बाद A द्वारा की गई शिकायत, उसकी स्थितियाँ और शब्द,
प्रासंगिक हैं।
लेकिन केवल इतना कहना कि “मेरे साथ डकैती हुई” — बिना शिकायत के —
 इस धारा के तहत प्रासंगिक नहीं है,
पर अन्य धाराओं में हो सकता है।

 मुख्य कानूनी बिंदु (Key Legal Points):

 मकसद (motive), तैयारी (preparation) और पूर्व/पश्चात आचरण (conduct) — ये सभी न्याय में सच्चाई सामने लाने के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
 आचरण केवल क्रियाओं तक सीमित होता है, जब तक कि कथन उन क्रियाओं की व्याख्या न करते हों।
 यदि कोई व्यक्ति अपराध के बाद भागता है, सबूत नष्ट करता है, या झूठी कहानी गढ़ता है — तो वह आचरण प्रासंगिक माना जाता है।
 शिकायतें (complaints) तभी प्रासंगिक मानी जाती हैं यदि वे तुरंत की गई हों, और विधिवत हों।

संक्षेप में:
इस धारा में व्यक्ति की नीयत, तैयारी और व्यवहार को उस घटना से जोड़ कर देखा जाता है — जिससे अदालत यह तय कर सके कि अपराध हुआ या नहीं, और किसने किया।

धारा 7 – वे तथ्य जो किसी विवादित या प्रासंगिक तथ्य को स्पष्ट करने या प्रस्तुत करने के लिए आवश्यक हों (Section 7 – Facts necessary to explain or introduce fact in issue or relevant facts)

 मुख्य प्रावधान (Main Provision):

निम्नलिखित प्रकार के तथ्य “प्रासंगिक” माने जाते हैं, यदि वे किसी विवादित तथ्य या प्रासंगिक तथ्य को—

स्पष्ट करने (Explain),

प्रस्तुत करने (Introduce),

उसके समर्थन या खंडन (support or rebut inference),

व्यक्ति या वस्तु की पहचान स्थापित करने (establish identity),

घटना का समय या स्थान निर्धारित करने (fix time/place), या

पक्षकारों के बीच संबंध स्पष्ट करने (show relation between parties)
के लिए आवश्यक हों।

 केवल उन्हीं सीमाओं तक ये तथ्य प्रासंगिक होते हैं, जहाँ तक वे इन उद्देश्यों के लिए आवश्यक हों

 सरल भाषा में समझिए:

यदि कोई ऐसा तथ्य है—

जो किसी अन्य प्रासंगिक/विवादित तथ्य को समझने, शुरू करने, जोड़ने, या व्याख्या करने में मदद करता है,
 तो वह भी प्रासंगिक माना जाएगा, भले ही वह अकेले स्वयं कोई विवादित मुद्दा न हो।

 उदाहरण (Illustrations):

(a)
प्रश्न है कि क्या कोई दस्तावेज़ A की वसीयत (will) है।
 उस समय A की संपत्ति और परिवार की स्थितिप्रासंगिक है, क्योंकि यह वसीयत को समझने में सहायता करता है।

(b)
A ने B पर मानहानि (libel) का मुकदमा किया है। B कहता है कि जो कहा गया वह सत्य था।
 उस समय दोनों के बीच के संबंध और स्थितिप्रासंगिक हैं
 लेकिन, यदि किसी और बात पर उनका विवाद हुआ हो (जिसका उस आरोप से संबंध नहीं),
 तो उसका विवरण प्रासंगिक नहीं है — हाँ, यह कि विवाद था, यह तथ्य यदि संबंधों को प्रभावित करता हो तो प्रासंगिक हो सकता है।

(c)
A पर अपराध का आरोप है और अपराध के तुरंत बाद वह घर से भाग गया।
 A का भाग जाना धारा 6 के तहत प्रासंगिक है।
 यदि यह कहा जाए कि A को अचानक कोई जरूरी काम पड़ गया था,
तो वह भी प्रासंगिक है, क्योंकि वह भागने के व्यवहार की व्याख्या करता है।
 पर उस काम का पूरा विवरण तभी प्रासंगिक होगा, जब वह दिखाए कि काम अचानक और जरूरी था।

(d)
A ने B पर यह आरोप लगाया कि B ने C को A की सेवा छोड़ने के लिए उकसाया।
 यदि C, सेवा छोड़ते समय A से कहे –
“मैं इसलिए जा रहा हूँ क्योंकि B ने मुझे बेहतर प्रस्ताव दिया है”,
 तो यह कथन C के व्यवहार की व्याख्या करता है, इसलिए प्रासंगिक है

(e)
A पर चोरी का आरोप है। वह चोरी की वस्तु B को देता है, और B उसे A की पत्नी को देता है।
 B कहता है – “A कहता है कि इसे छिपा लो।”
 यह कथन उस लेन-देन के हिस्से की व्याख्या करता है, इसलिए प्रासंगिक है

(f)
A पर दंगे (riot) का आरोप है और यह सिद्ध है कि वह भीड़ के आगे-आगे चल रहा था।
 उस भीड़ की नारेबाज़ी (cries) — दंगे की प्रकृति को स्पष्ट करने हेतु प्रासंगिक है

मुख्य कानूनी बिंदु (Key Legal Points):

 केवल सीधे विवादित या मुख्य तथ्य ही नहीं, बल्कि वे सहायक तथ्य भी प्रासंगिक होते हैं—
जो मुख्य तथ्य की पहचान, व्याख्या, शुरुआत, समय, स्थान या संबंध को स्पष्ट करते हैं।

 संदर्भ (context) को समझना कानूनी निर्णय में आवश्यक होता है — यही इस धारा का उद्देश्य है।

 कोई तथ्य तभी तक प्रासंगिक होगा जब तक वह व्याख्या के लिए आवश्यक हो — उससे अधिक नहीं।

 संक्षेप में:

इस धारा के अनुसार, कोई भी ऐसा तथ्य जो मुख्य घटना को समझने, स्पष्ट करने, उससे जोड़ने या संबंधित व्यक्तियों/समय/स्थान को निर्धारित करने में आवश्यक हो, वह प्रासंगिक साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है

 

धारा 8 – षड्यंत्रकर्ताओं द्वारा साझा उद्देश्य से संबंधित कथन, कार्य या लेखन की प्रासंगिकता
(Section 8 – Things said or done by conspirator in reference to common design)

 मुख्य प्रावधान (Main Provision):

यदि दो या अधिक व्यक्तियों द्वारा किसी अपराध या दावे योग्य गलत कार्य (actionable wrong) को मिलकर करने की षड्यंत्र (conspiracy) रचने का उचित कारण (reasonable ground) है,
तो:
 उनमें से किसी एक द्वारा उस साझा उद्देश्य (common design) के संदर्भ में कहा, किया या लिखा गया कोई भी कार्य
प्रासंगिक तथ्य (relevant fact) माना जाएगा:

  1. षड्यंत्र के अस्तित्व (existence of conspiracy) को साबित करने के लिए,
    2. यह दिखाने के लिए कि कोई व्यक्ति षड्यंत्र का भागीदार था

 यह तभी लागू होता है जब वह कार्य उस समय के बाद किया गया हो,
जब षड्यंत्र की योजना पहली बार बनाई गई थी — भले ही किसी एक ने ही बनाई हो।

 सरल शब्दों में समझें:

अगर मानने लायक कारण हो कि कुछ लोग मिलकर कोई ग़लत कार्य करने की योजना बना रहे हैं,
तो योजना बनने के बाद उसमें से कोई भी जो बोले, करे या लिखे,
 वह सब दूसरों के खिलाफ भी प्रासंगिक सबूत माना जाएगा —
भले ही उन्हें उस कार्य के बारे में जानकारी न हो।

 उदाहरण (Illustration):

यह विश्वास करने का उचित कारण है कि A ने राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने की एक साजिश (conspiracy) में भाग लिया।

 इस षड्यंत्र से संबंधित निम्नलिखित कार्य प्रासंगिक माने जाएँगे, भले ही A को इनके बारे में जानकारी न हो या उसने इन्हें खुद न किया हो:

B ने यूरोप में षड्यंत्र के लिए हथियार जुटाए।
C ने कोलकाता में धन इकट्ठा किया।
D ने मुंबई में लोगों को षड्यंत्र से जुड़ने के लिए राज़ी किया।
E ने आगरा में षड्यंत्र के उद्देश्य के समर्थन में लेख प्रकाशित किए।
F ने दिल्ली से G (सिंगापुर) को C द्वारा इकट्ठा किया गया पैसा भेजा।
H ने षड्यंत्र का पूरा ब्यौरा एक पत्र में लिखा।

 ये सभी तथ्य निम्न उद्देश्यों के लिए प्रासंगिक हैं:

  1. यह सिद्ध करने के लिए कि षड्यंत्र वाकई में हुआ,
  2. यह साबित करने के लिए कि A उस षड्यंत्र में भागीदार था,
    भले ही A इन सभी लोगों से अनजान हो,
    या ये घटनाएँ A के शामिल होने से पहले या बाद में हुई हों।

 मुख्य कानूनी बिंदु (Key Legal Points):

 षड्यंत्र का सिद्धांत सामूहिक ज़िम्मेदारी पर आधारित है।
 एक व्यक्ति द्वारा किया गया कोई भी कार्य या कथन सभी षड्यंत्रकारियों के खिलाफ साक्ष्य के रूप में उपयोग किया जा सकता है
 यह तभी मान्य है जब षड्यंत्र का प्रमाणिक प्रारंभ सिद्ध हो जाए।
 कार्य षड्यंत्र की योजना बनने के बाद हुआ होना चाहिए।
 षड्यंत्र में शामिल व्यक्ति को उस कार्य के बारे में पता होना ज़रूरी नहीं

 संक्षेप में:

अगर कुछ लोग किसी अपराध या गलत कार्य के लिए षड्यंत्र करते हैं, तो उनके साझा उद्देश्य से संबंधित किसी भी सदस्य द्वारा किया गया कथन, कार्य या लेखन सभी के खिलाफ साक्ष्य के रूप में प्रासंगिक माना जाएगा — भले ही वे एक-दूसरे को न जानते हों या एक-दूसरे की गतिविधियों से अनजान हों।

आगे की धारा भेजिए, मैं उसे भी इसी तरह पूरी स्पष्टता और सरलता से समझाता रहूँगा।

धारा 9 – जब अन्यथा अप्रासंगिक तथ्य भी प्रासंगिक हो जाते हैं
(Section 9 – When facts not otherwise relevant become relevant)

 मुख्य प्रावधान (Main Provision):

कोई तथ्य जो सामान्यतः प्रासंगिक नहीं होता, वह प्रासंगिक हो जाता है यदि—

(1) वह किसी विवादित तथ्य (fact in issue) या किसी प्रासंगिक तथ्य के विरुद्ध (inconsistent) हो;

(2) वह अपने आप या अन्य तथ्यों के साथ मिलकर किसी विवादित या प्रासंगिक तथ्य के अस्तित्व या अनस्तित्व को अत्यधिक संभव (highly probable) या असंभव (highly improbable) बना देता हो।

 सरल भाषा में समझिए:

 कोई ऐसा तथ्य जो अपने-आप में महत्त्वपूर्ण नहीं है,
 लेकिन अगर वह किसी विवादित तथ्य के खिलाफ जाता हो,
या उस तथ्य के सच्चे या झूठे होने की संभावना को मजबूत करता हो,
तो वह भी अदालत में प्रासंगिक माना जाएगा।

 उदाहरण (Illustrations):

(a)
प्रश्न है कि A ने चेन्नई में एक दिन विशेष पर अपराध किया या नहीं।

यह तथ्य कि उसी दिन A लद्दाख में था,
 प्रासंगिक है, क्योंकि वह यह दिखाता है कि A अपराध स्थल पर मौजूद नहीं था

यदि यह सिद्ध हो कि अपराध के समय A इतनी दूरी पर था कि उसका उस समय चेन्नई पहुंचना बहुत ही असंभव (though not impossible) था,
 तो यह तथ्य भी प्रासंगिक है, क्योंकि यह अपराध करने की संभावना को कम करता है।

(b)
प्रश्न है कि A ने कोई अपराध किया।
परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि यह अपराध सिर्फ A, B, C या D में से किसी एक ने ही किया होगा।

अब यदि ऐसे तथ्य सामने आएँ—
जो यह साबित करें कि B, C और D ने यह अपराध नहीं किया,
 तो ये तथ्य A के खिलाफ प्रासंगिक होंगे,
क्योंकि वे उसकी संलिप्तता की संभावना को बढ़ाते हैं।

 मुख्य कानूनी बिंदु (Key Legal Points):

 यह धारा संभावना (probability) पर आधारित है –
यदि कोई तथ्य किसी विवादित बात को कमज़ोर या मज़बूत करता है, तो वह प्रासंगिक है।

 यह प्रावधान नकारात्मक साक्ष्य (alibi या दूसरे विकल्पों को हटाना) को न्याय में मान्यता देता है।

 इससे न्यायालय को यह देखने में सहायता मिलती है कि क्या कोई तथ्य विरोधाभासी (contradictory) है या किसी अन्य तथ्य के साथ मिलकर मज़बूत संभावना निर्मित करता है।

 संक्षेप में:

अगर कोई तथ्य किसी विवादित या प्रासंगिक तथ्य के विपरीत हो, या उसके सत्य/असत्य होने की संभावना को बहुत अधिक बढ़ा या घटा दे,
 तो वह तथ्य चाहे अपने-आप में महत्वहीन क्यों न हो, अदालत में प्रासंगिक साक्ष्य माना जाएगा।

धारा 11 – जब किसी अधिकार या प्रथा (custom) का प्रश्न हो, तब प्रासंगिक तथ्य
(Section 11 – Facts relevant when right or custom is in question)

मुख्य प्रावधान (Main Provision):

जब किसी मुकदमे में यह प्रश्न हो कि कोई अधिकार (right) या प्रथा (custom) वास्तव में अस्तित्व में है या नहीं,
 तब निम्नलिखित प्रकार के तथ्य प्रासंगिक (relevant) माने जाते हैं:

(a)

कोई भी ऐसा लेन-देन (transaction) जो उस अधिकार या प्रथा को—

  • बनाता है (created),
  • दावा करता है (claimed),
  • बदलता है (modified),
  • मान्यता देता है (recognised),
  • स्वीकृत या अस्वीकार करता है (asserted or denied),
    या
  • जो उस अधिकार या प्रथा के अस्तित्व के विरोध में (inconsistent) हो —
    प्रासंगिक है।

(b)

ऐसे विशिष्ट उदाहरण (particular instances) जहाँ उस अधिकार या प्रथा को—

  • दावा किया गया (claimed),
  • मान्यता दी गई (recognised),
  • अभ्यास किया गया (exercised),
    या
  • उसके अभ्यास पर विवाद हुआ, विरोध हुआ या उस से हटाव किया गया (disputed, asserted or departed from)
    वे भी प्रासंगिक हैं।

सरल भाषा में समझिए:

 जब यह तय करना हो कि कोई अधिकार (जैसे भूमि पर अधिकार, जल उपयोग, मछली पकड़ने का अधिकार) या कोई परंपरागत रिवाज़ (custom) वास्तव में मौजूद है या नहीं,
 तो वह सबूत प्रासंगिक माना जाएगा जो यह दिखाता हो कि—

  • ऐसा अधिकार कभी दिया गया,
  • उस पर दावा किया गया,
  • उसका उल्लंघन हुआ,
  • स्वीकृत या अस्वीकृत किया गया,
  • या उसका उपयोग किया गया या रोका गया

उदाहरण (Illustration):

प्रश्न है कि क्या A को मछली पकड़ने का अधिकार (right to fishery) है।

 निम्न तथ्य प्रासंगिक माने जाएँगे:

  • एक पुराना दस्तावेज़ जिसमें A के पूर्वजों को यह अधिकार दिया गया हो।
  • A के पिता द्वारा मछली पकड़ने के अधिकार पर बंधक (mortgage) रखा गया हो।
  • बाद में उसी अधिकार पर A के पिता ने कोई दूसरा अधिकारपत्र (grant) दे दिया हो जो पहले से मेल न खाता हो।
  • कुछ उदाहरण जहाँ A के पिता ने इस अधिकार का प्रयोग किया हो
  • या ऐसे मौके जब पड़ोसियों ने उस अधिकार के प्रयोग को रोक दिया हो

 ये सभी तथ्य इस बात को सिद्ध या असिद्ध करने में मदद करेंगे कि A के पास यह अधिकार था या नहीं।

मुख्य कानूनी बिंदु (Key Legal Points):

 जब कोई अधिकार या प्रथा विवाद में हो,
तो उसका इतिहास, पूर्व उपयोग, और मान्यता या अस्वीकृति से संबंधित सभी तथ्य प्रासंगिक होते हैं

 यह धारा विशेष रूप से प्राचीन या परंपरागत अधिकारों और कस्टम के मामलों में उपयोगी है — जैसे:
जंगल के उपयोग, जल-स्रोत का हक़, सड़क से गुजरने का रास्ता, जातिगत या धार्मिक परंपराएं आदि।

 व्यवहारिक उदाहरणों (actual instances) से यह स्पष्ट किया जा सकता है कि विवादित अधिकार सचमुच अस्तित्व में था या नहीं

संक्षेप में:

यदि किसी मामले में किसी अधिकार या प्रथा के अस्तित्व का प्रश्न उठता है,
 तो उससे संबंधित पुराने लेन-देन, दस्तावेज, व्यवहार, विरोध, प्रयोग या विरोधाभास वाले उदाहरण
अदालत में साक्ष्य के रूप में प्रासंगिक माने जाएँगे।

 

धारा12– मानसिक या शारीरिक स्थिति दर्शानेवाले तथ्य (Section12– Facts showing existence of state of mind, or of body or bodily feeling)

प्रावधान का सार
यदि मुकदमे में किसी की मंशा, ज्ञान, सद्‌भाव, कदाचार, लापरवाही, पूर्वाग्रह, या किसी शारीरिक स्थिति/अनुभूति का प्रश्न उठता है, तो ऐसा कोई भी तथ्य जो उस विशेष स्थिति को दर्शाए प्रासंगिक होता है।

Explanation1: स्थिति सामान्य रूप से नहीं, बल्कि ठीक उसी विवादित विषय से जुड़ी होनी चाहिए।
Explanation2: अपराध परीक्षण में यदि आरोपी का पहले का वही‑प्रकार का अपराध प्रासंगिक है, तो उसकी पहली सजा (conviction) भी प्रासंगिक होगी।

मुख्य कानूनी बिंदु
 मानसिक या शारीरिक अवस्था स्वयं मुकदमे का मुद्दा हो तो उसे साबित‑खण्डित करने वाले तथ्य स्वीकार्य हैं।
 तथ्य वही मान्य हैं जो विशेष घटना से सीधा संबंध दिखाएँ, महज़ सामान्य प्रवृत्ति नहीं।
 पूर्व अपराध‑सिद्धि तब ही प्रासंगिक है जब वही मानसिक अवस्था साबित करनी हो।

याद रखने योग्य उदाहरण

  1. चोरी का माल जानबूझकर रखना – एक चुराई वस्तु के साथ‑साथ कई चोरी की वस्तुएँ मिलना दिखाता है कि आरोपी को सबके चोरी होने का ज्ञान था।
  2. नकली मुद्रा देना – पकड़े जाने पर आरोपी के पास और नकली नोट होना, व उसकी पूर्व सजा, दोनों उसकी मंशा सिद्ध करते हैं।
  3. खतरनाक कुत्ता – कुत्ते ने पहले भी लोगों को काटा और शिकायतें हुईं; यह मालिक की जानकारी (knowledge) दिखाता है।
  4. पूर्व में उसी व्यक्ति पर गोली चलाई – वर्तमान हत्या‑केस में आरोपी की हत्या की नीयत को दर्शाता है।
  5. बीमा या बीमारी – बीमार पड़ने पर किए गए बयान रोग‑स्थिति साबित करने हेतु स्वीकार्य हैं।

संक्षेप
जब विवाद इरादे, ज्ञान, सद्‌भाव/दुर्‌भाव या शारीरिक स्थिति का हो, उसी संदर्भ से जुड़ा हर तथ्य ‑‑ चाहे पूर्व व्यवहार, कथन या परिस्थितियाँ ‑‑ प्रासंगिक सबूत है। सामान्य आदतें या केवल वर्ग‑विशेष अपराधों की प्रवृत्ति बिना सीधे जुड़ाव के अप्रासंगिक रहती हैं।

धारा 13 – यह प्रश्न कि कार्य आकस्मिक (accidental) था या जानबूझकर (intentional), उससे संबंधित तथ्य
(Section 13 – Facts bearing on question whether act was accidental or intentional)

मुख्य प्रावधान (Main Provision):

जब यह सवाल उठता है कि कोई कार्य अकस्मात (accidental) हुआ या जानबूझकर (intentional) किया गया,
या वह कार्य किसी विशेष ज्ञान या मंशा से किया गया था,
 तब यह प्रासंगिक होता है कि वैसा ही कार्य उसी व्यक्ति द्वारा पहले भी एक जैसे तरीकों से किया गया हो

 यानी यदि वह कार्य एक समान घटनाओं की श्रृंखला का हिस्सा हो,
और हर बार वही व्यक्ति उससे जुड़ा रहा हो,
 तो वह तथ्य यह सिद्ध करने के लिए प्रासंगिक होगा कि यह कार्य संयोग नहीं बल्कि जानबूझकर किया गया।

सरल शब्दों में समझिए:

अगर कोई व्यक्ति कहता है कि उससे कोई गलती से या अकस्मात कोई कार्य हो गया,
लेकिन वह पिछले कई बार भी वैसा ही कार्य कर चुका है,
 तो पिछली घटनाएँ यह दिखाने के लिए प्रासंगिक होती हैं कि यह सिर्फ दुर्घटना नहीं, बल्कि उसकी जानबूझी योजना का हिस्सा था।

उदाहरण (Illustrations):

(a)
A पर आरोप है कि उसने बीमा राशि पाने के लिए अपने घर में आग लगाई।
 तथ्य यह है कि A ने कई घर लिए, हर एक को बीमित किया, हर एक में आग लगी, और हर बार उसे बीमा कंपनी से पैसा मिला।
 यह दिखाता है कि आग लगना संयोग नहीं बल्कि जानबूझकर किया गया कार्य था

(b)
A को B के कर्जदारों से पैसे वसूलने का काम दिया गया था, और वह रसीदों में कम राशि दर्ज करता है।
 यह सवाल उठता है कि गलत प्रविष्टियाँ (entries) उसने गलती से की या जानबूझकर।
 यह तथ्य कि उसी खाते में और भी प्रविष्टियाँ गलत हैं, और हर बार गलती A के पक्ष में है,
 यह दिखाता है कि ये प्रविष्टियाँ जानबूझकर की गईं, अकस्मात नहीं

(c)
A पर आरोप है कि उसने B को नकली नोट दिए और दावा है कि यह अनजाने में हुआ।
 लेकिन तथ्य यह है कि A ने उसी समय के आसपास C, D और E को भी नकली नोट दिए
 यह दर्शाता है कि यह कार्य दुर्घटनावश नहीं, बल्कि जानबूझकर किया गया था।

मुख्य कानूनी बिंदु (Key Legal Points):

 यदि किसी व्यक्ति ने बार‑बार एक जैसी घटनाएँ की हों,
 तो वे घटनाएँ यह सिद्ध करने के लिए प्रासंगिक होंगी कि वह कार्य जानबूझकर किया गया, न कि संयोग से।

 इस धारा में यह सिद्ध करने की श्रृंखलाबद्ध पैटर्न (pattern of conduct) को महत्त्व दिया गया है।

 इसे अक्सर बीमा धोखाधड़ी, आवर्ती धोखाधड़ी, जानबूझी लापरवाही जैसे मामलों में लागू किया जाता है।

   संक्षेप में:

यदि यह प्रश्न उठे कि किसी कार्य को व्यक्ति ने जानबूझकर किया या वह दुर्घटनावश हुआ,
तो यह प्रासंगिक है कि वैसा कार्य उसने पिछले समयों में भी किया हो,
और ऐसे सभी उदाहरण अदालत में प्रमाण के रूप में स्वीकार्य होते हैं,
 ताकि यह साबित हो सके कि कार्य केवल संयोग नहीं था, बल्कि पूर्वनियोजित था

 

धारा 14 – जब किसी कार्य के किए जाने का प्रश्न हो, तब व्यावसायिक प्रवृत्ति (course of business) का अस्तित्व प्रासंगिक होता है
(Section 14 – Existence of course of business when relevant)

मुख्य प्रावधान (Main Provision):

जब यह प्रश्न हो कि कोई विशेष कार्य किया गया था या नहीं,
 तब ऐसा कोई भी तथ्य प्रासंगिक होता है, जो यह दिखाता हो कि वह कार्य सामान्यतः व्यवसाय की प्रक्रिया (regular course of business) के अनुसार स्वाभाविक रूप से किया जाता है।

 यानी यदि किसी संस्था या व्यक्ति का कार्य करने का एक नियत तरीका या व्यवस्था रही है,
और उस प्रक्रिया के अनुसार उस कार्य का किया जाना स्वाभाविक होता,
 तो उस प्रवृत्ति (pattern) का अस्तित्व प्रासंगिक सबूत माना जाएगा।

सरल शब्दों में समझिए:

अगर कोई व्यक्ति कहता है कि उसने कोई पत्र भेजा या दस्तावेज़ सौंपा, लेकिन वह सीधा प्रमाण (direct evidence) नहीं दे पा रहा,
 तो यह दिखाना कि वह कार्य व्यवसायिक प्रक्रिया के अनुसार होता है,
और उस स्थिति में भी हुआ होगा —
 अदालत को उस कार्य को सिद्ध मानने में सहायता करता है

उदाहरण (Illustrations):

(a)
 प्रश्न है कि क्या कोई पत्र भेजा गया था?
 यह तथ्य प्रासंगिक होगा कि—

उस कार्यालय में नियम था कि जो भी पत्र एक निश्चित स्थान पर रखा जाए, वह डाक में भेज दिया जाता था,

और वह विशेष पत्र भी उसी स्थान पर रखा गया था
 इसलिए, पत्र भेजा गया माना जा सकता है

(b)
📬 प्रश्न है कि कोई पत्र A को पहुँचा या नहीं?
 तथ्य यह कि वह पत्र नियमित रूप से पोस्ट किया गया,
और वापसी डाक कार्यालय से लौटाया नहीं गया,
 यह दिखाता है कि वह पत्र A तक पहुंच गया होगा

मुख्य कानूनी बिंदु (Key Legal Points):

 जब कोई कार्य प्रत्यक्ष रूप से सिद्ध न हो सके,
 तब यह देखा जाता है कि वह कार्य क्या सामान्य रूप से किया जाता है या नहीं।

 यदि यह सिद्ध हो जाए कि ऐसी परिस्थितियों में वैसा कार्य प्रक्रिया का हिस्सा होता है,
तो यह प्रक्रिया उस कार्य के होने की संभावना को बल देती है

 इसका प्रयोग अक्सर पत्र व्यवहार, रसीद/भुगतान की स्वीकृति, रोज़मर्रा की प्रशासनिक कार्यवाही आदि में होता है।

संक्षेप में:

जब यह विवाद हो कि कोई कार्य किया गया था या नहीं,
 और यह दिखाया जाए कि सामान्य व्यवसायिक प्रक्रिया में उस कार्य का किया जाना स्वाभाविक होता,
तो उस प्रक्रिया का अस्तित्व प्रासंगिक सबूत माना जाएगा,
भले ही उस विशेष कार्य का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण न हो।

 

धारा 15 – स्वीकृति (Admission) की परिभाषा
(Section 15 – Admission defined)

मुख्य प्रावधान (Main Provision):

“स्वीकृति” (Admission) वह बयान होता है –
जो कि मौखिक (oral), दस्तावेज़ी (documentary), या इलेक्ट्रॉनिक रूप में हो सकता है,
 जो किसी मुख्य विवादित तथ्य (fact in issue) या प्रासंगिक तथ्य (relevant fact) के संबंध में कोई निष्कर्ष (inference) निकालने में सहायता करता है,
 और जो इस अधिनियम में आगे बताई गई परिस्थितियों में,
कुछ विशेष व्यक्तियों द्वारा किया गया हो।

सरल शब्दों में समझिए:

Admission यानी स्वीकृति वह कथन है जो यह दिखाता या संकेत करता है कि
कोई विवादित तथ्य या प्रासंगिक तथ्य सत्य है
और यह कथन उस व्यक्ति ने किया हो जिसके लिए वह बाध्यकारी बनता है

 यह कथन किसी भी रूप में हो सकता है:

मौखिक रूप में (जैसे बोलकर)

दस्तावेज़ में (जैसे चिट्ठी या रसीद में)

इलेक्ट्रॉनिक रूप में (जैसे ईमेल, SMS, रिकॉर्डिंग इत्यादि)

प्रासंगिक क्यों है?

किसी व्यक्ति द्वारा किया गया Admission (स्वीकृति) अदालत में
 प्रमाण (Evidence) के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
यदि कोई व्यक्ति किसी बात को स्वीकार कर ले, तो दूसरे पक्ष को उसे सिद्ध करने की ज़रूरत नहीं रहती।

संक्षेप में:

स्वीकृति (Admission) वह कथन होता है —
जो किसी विवादित या प्रासंगिक तथ्य की ओर संकेत करता है,
और जो मौखिक, लिखित या इलेक्ट्रॉनिक रूप में स्वयं व्यक्ति या उससे संबंधित विधिक व्यक्ति द्वारा किया गया हो।
 ऐसी स्वीकृति अदालत में प्रासंगिक साक्ष्य (relevant evidence) होती है।

धारा 16 – वादकारी पक्ष या उसके अभिकर्ता द्वारा की गई स्वीकृति
(Section 16 – Admission by party to proceeding or his agent)

मुख्य प्रावधान (Main Provision):

(1) वादकारी या उसके अभिकर्ता द्वारा किया गया कथन स्वीकृति होता है

यदि कोई पक्षकार (party) स्वयं या उसका कोई ऐसा अभिकर्ता (agent) जो इस बात के लिए स्पष्ट रूप से या परोक्ष रूप से अधिकृत हो,
 यदि वह कोई बयान करता है,
तो वह स्वीकृति (Admission) मानी जाएगी।

यह न्यायालय द्वारा यह मानने पर निर्भर करता है कि अभिकर्ता को ऐसे कथन करने का अधिकार था या नहीं

(2) निम्नलिखित स्थितियों में भी कथन ‘स्वीकृति’ माने जाएंगे:

(i) यदि कोई व्यक्ति किसी मुकदमे में प्रतिनिधि पात्र (representative character) में पक्षकार है (जैसे न्यासी, अभिभावक आदि),
 तो उसका कथन स्वीकृति नहीं माना जाएगा,
जब तक कि वह उस प्रतिनिधि पात्रता में रहते हुए न किया गया हो।

(ii) निम्न व्यक्तियों के कथन भी स्वीकृति होंगे, यदि वे अपने हित के दौरान किए गए हों:

(a) ऐसे व्यक्ति जिनका उस वाद-विवाद की संपत्ति या विषय में स्वत्व (proprietary) या आर्थिक (pecuniary) हित हो,
और वे कथन उन्होंने उस हितधारी पात्रता में रहते हुए किए हों।

(b) ऐसे व्यक्ति जिनसे वर्तमान पक्षकारों ने विवादित विषय में अपना अधिकार प्राप्त किया हो (जैसे पूर्व स्वामी या स्थानांतरक) —
और उन्होंने वह कथन अपने अधिकार के काल में किया हो।

सरल शब्दों में समझिए:

 अगर कोई व्यक्ति मुकदमे का पक्षकार है, और वह कोई कथन करता है,
 तो वह कथन स्वीकृति (admission) माना जाएगा।

 यदि उसका एजेंट (agent) ऐसा कथन करता है,
और अदालत मानती है कि वह ऐसा करने के लिए अधिकार प्राप्त था,
 तो वह कथन भी प्रासंगिक स्वीकृति मानी जाएगी।

 यदि कोई प्रतिनिधि पात्रता में मुकदमा लड़ रहा है, तो उसकी ओर से किया गया कथन तभी मान्य होगा,
 जब वह उसी पात्रता के दौरान किया गया हो।

 और अगर कोई ऐसा व्यक्ति जिसने बाद में पक्षकार को उसका अधिकार दिया,
उसने पहले कोई कथन किया था,
 और वह कथन उसके हित के दौरान किया गया था,
तो वह भी स्वीकृति मानी जाएगी।

संक्षेप में:

वादकारी पक्ष, उसका अधिकारिक एजेंट, या वह व्यक्ति जिससे वादकारी ने विवादित विषय में अधिकार प्राप्त किया हो,
 यदि वे किसी विवादित या प्रासंगिक तथ्य पर कोई बयान करते हैं,
तो वह बयान अदालत में ‘स्वीकृति’ के रूप में प्रासंगिक माना जाएगा —
बशर्ते वह पात्रता और अधिकार की स्थिति में किया गया हो।

धारा 17 – ऐसे व्यक्तियों द्वारा की गई स्वीकृति जिनकी स्थिति वाद में किसी पक्षकार के विरुद्ध सिद्ध करनी हो
(Section 17 – Admissions by persons whose position must be proved as against party to suit)

मुख्य प्रावधान (Main Provision):

यदि कोई व्यक्ति, जिसकी स्थिति (position) या उत्तरदायित्व (liability) को किसी वाद में किसी पक्षकार के विरुद्ध सिद्ध करना आवश्यक हो,
 और ऐसा व्यक्ति कोई कथन करता है,
 जो यदि उसी के विरुद्ध मुकदमा होता तो प्रासंगिक स्वीकृति मानी जाती,
 और वह कथन उस स्थिति में रहते हुए किया गया हो,
तो वह कथन ‘स्वीकृति’ (admission) मानी जाएगी।

 

सरल शब्दों में समझिए:

अगर कोई व्यक्ति प्रत्यक्ष पक्षकार नहीं है,
लेकिन उसकी स्थिति या उत्तरदायित्व को किसी मुख्य पक्षकार के खिलाफ साबित करना जरूरी है,
और वह व्यक्ति ऐसा कथन करता है,
 तो वह कथन भी स्वीकृति मानी जाती है,
बशर्ते वह कथन उसने उस स्थिति में रहते हुए किया हो।

 इस प्रकार की स्वीकृति अदालत में प्रासंगिक साक्ष्य मानी जाएगी।

उदाहरण (Illustration):

A, B के लिए किराया वसूलने का कार्य करता है।
B, A के खिलाफ मुकदमा करता है कि उसने C से किराया नहीं वसूला।

A का बचाव यह है कि C पर B का कोई किराया बकाया ही नहीं था।

यदि C ने यह बयान दिया हो कि वह B का किराया देता था,
 तो यह कथन A के विरुद्ध प्रासंगिक स्वीकृति मानी जाएगी,
क्योंकि A का दावा है कि C पर कोई किराया बकाया नहीं था।

संक्षेप में:

जब किसी व्यक्ति की स्थिति या उत्तरदायित्व को किसी वाद में मुख्य पक्षकार के विरुद्ध सिद्ध करना आवश्यक हो,
और वह व्यक्ति उस स्थिति में रहते हुए कोई कथन करता है,
जो उसके विरुद्ध मुकदमे में प्रासंगिक होता,
 तो वह कथन ‘स्वीकृति’ (Admission) माना जाएगा, और अदालत में प्रासंगिक साक्ष्य होगा।

 

धारा 19 – स्वीकृति करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध स्वीकृति का प्रमाण और उनके द्वारा या उनके पक्ष में प्रमाण
(Section 19 – Proof of admissions against persons making them, and by or on their behalf)

मुख्य प्रावधान (Main Provision):

स्वीकृति (Admission)
हमेशा उस व्यक्ति के विरुद्ध प्रासंगिक और प्रमाण योग्य होती है,
जिसने वह कथन किया हो, या जिसके उत्तराधिकारी/हिताधिकारी (representative in interest) ने किया हो।

 लेकिन, वही व्यक्ति स्वयं अपनी ही स्वीकृति का उपयोग अपने पक्ष में नहीं कर सकता,
जब तक कि वह नीचे दी गई विशेष स्थितियों में न आता हो:

निम्नलिखित तीन परिस्थितियों में व्यक्ति स्वयं अपनी स्वीकृति को अपने पक्ष में प्रमाणित कर सकता है:

(1) जब स्वीकृति ऐसी हो कि यदि करने वाला व्यक्ति मर जाए,

 तो वह कथन धारा 26 के अंतर्गत तीसरे व्यक्तियों के बीच प्रासंगिक होता

(2) जब स्वीकृति मनःस्थिति (state of mind) या शारीरिक स्थिति (state of body) से संबंधित हो,

 और वह कथन उसी समय के आस-पास किया गया हो,
 तथा उसके साथ किया गया आचरण यह दर्शाता हो कि वह कथन झूठा नहीं हो सकता

(3) जब वह कथन स्वीकृति के अलावा किसी अन्य रूप में भी प्रासंगिक हो

सरल शब्दों में समझिए:

 आप अपनी ही स्वीकृति को अपने पक्ष में नहीं ला सकते,
जब तक वह कोई विशेष परिस्थिति न हो (जैसे मृत्यु के बाद भी प्रासंगिक हो, या अन्य साक्ष्य में स्वीकार्य हो)।
 लेकिन दूसरी पार्टी आपकी स्वीकृति को आपके खिलाफ अवश्य उपयोग कर सकती है।

उदाहरण (Illustrations):

(a) A और B के बीच विवाद है कि एक दस्तावेज असली है या जाली।
A कहता है कि यह असली है, B कहता है यह जाली है।
 A, B के कथन को कि दस्तावेज असली है, साबित कर सकता है।
 B, A के कथन को कि दस्तावेज जाली है, साबित कर सकता है।
लेकिन कोई भी खुद अपने कथन को अपने पक्ष में साबित नहीं कर सकता

(b) A, एक जहाज का कप्तान है, और उस जहाज को जानबूझकर नष्ट करने के आरोप में मुकदमा चल रहा है।
A अपनी डायरी दिखाता है जिसमें रोजाना की टिप्पणियां दर्ज हैं कि जहाज सही रास्ते पर था।
 यह कथन A अपने पक्ष में साबित कर सकता है,
क्योंकि यदि A मर गया होता, तो ये कथन धारा 26 के तहत तीसरे व्यक्तियों के बीच प्रासंगिक होते।

(c) A पर कोलकाता में अपराध करने का आरोप है।
A एक पत्र दिखाता है, जो उसी दिन चेन्नई से लिखा गया और चेन्नई की मुहर लगी है
 यह पत्र का दिनांक A के पक्ष में प्रमाणित किया जा सकता है,
क्योंकि यदि A मर जाता, तो यह कथन तीसरे पक्षों के बीच स्वीकार्य होता।

(d) A पर चोरी की वस्तु रखने का आरोप है।
A यह साबित करना चाहता है कि उसने वे वस्तुएं उनकी असली कीमत से कम बेचने से इनकार कर दिया था।
 यह कथन A अपने पक्ष में उपयोग कर सकता है,
क्योंकि यह उसके आचरण को समझाने वाला कथन है।

(e) A पर नकली नोट रखने का आरोप है।
A यह दिखाता है कि उसने नोटों की जांच करवाने के लिए किसी विशेषज्ञ से कहा था,
और उस विशेषज्ञ ने कहा कि नोट असली हैं।
 यह कथन A के सच्चे इरादे और संदेह को दर्शाते हैं, इसलिए प्रासंगिक हैं

संक्षेप में:

आपकी स्वीकृति आपके खिलाफ साक्ष्य के रूप में हमेशा मान्य है,
लेकिन आप अपनी ही स्वीकृति को अपने पक्ष में तभी उपयोग कर सकते हैं जब वह:

धारा 26 के अनुसार मृत्यु के बाद भी प्रासंगिक हो,

किसी मनःस्थिति या शारीरिक स्थिति को दर्शाता हो,

या स्वीकृति के अलावा किसी अन्य दृष्टिकोण से भी प्रासंगिक हो

 

धारा 20 – जब दस्तावेज़ की विषयवस्तु से संबंधित मौखिक स्वीकृतियाँ प्रासंगिक होती हैं
(Section 20 – When oral admissions as to contents of documents are relevant)

मुख्य प्रावधान (Main Provision):

 किसी दस्तावेज़ की सामग्री (contents) से संबंधित मौखिक स्वीकृति (oral admission)
तब तक प्रासंगिक नहीं मानी जाएगी,
जब तक कि:

वह पक्ष जो उसे साबित करना चाहता है, यह न दिखा दे कि वह
उस दस्तावेज़ की द्वितीयक साक्ष्य (secondary evidence) देने का अधिकारी है,
या

जब दस्तावेज़ की प्रामाणिकता (genuineness) ही विवाद का विषय हो।

सरल शब्दों में समझिए:

 अगर आप किसी दस्तावेज़ के बारे में मौखिक रूप से कोई बात कहते हैं (जैसे – “उसमें ऐसा लिखा था”),
तो अदालत उसे तब तक स्वीकार नहीं करेगी,
जब तक:

या तो आप साबित नहीं कर देते कि वह दस्तावेज़ खो गया है या उपलब्ध नहीं है,
इसलिए आप secondary evidence देने के हकदार हैं,

या फिर वह दस्तावेज़ अदालत में पेश किया गया है, और उसकी सच्चाई पर विवाद है।

संक्षेप में:

किसी दस्तावेज़ के बारे में मौखिक बयान (oral admission)
 तभी स्वीकार किया जाएगा,
जब:

आप secondary evidence देने के योग्य हों,
या

दस्तावेज़ की प्रामाणिकता (genuineness) पर सवाल हो।

 

धारा 21 – दीवानी मामलों में स्वीकृति कब प्रासंगिक होती है
(Section 21 – Admissions in civil cases when relevant)

मुख्य प्रावधान (Main Provision):

यदि कोई स्वीकृति (admission) दीवानी (civil) मामले में इस प्रकार की गई हो कि:

स्पष्ट रूप से यह शर्त रखी गई हो कि उसकी साक्ष्य नहीं दी जाएगी,
या

ऐसे परिस्थितियाँ हों जिनसे न्यायालय यह निष्कर्ष निकाले कि दोनों पक्षों ने सहमति की थी कि उसकी साक्ष्य नहीं दी जाएगी,
 तो ऐसी स्वीकृति प्रासंगिक (relevant) नहीं मानी जाएगी।

 व्याख्या (Explanation):

यह धारा किसी अधिवक्ता (advocate) को उस विषय पर साक्ष्य देने से मुक्त नहीं करती,
जिस विषय पर वह भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 132 की उपधाराओं (1) और (2) के अंतर्गत साक्ष्य देने के लिए बाध्य हो सकता है।

संक्षेप में:

 दीवानी मामलों में, यदि कोई स्वीकृति इस शर्त पर दी गई हो कि उसे अदालत में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाएगा,
या ऐसा प्रतीत हो कि दोनों पक्षों ने आपस में ऐसा तय किया हो,
 तो वह स्वीकृति अदालत में मान्य नहीं होगी।

 परंतु, यह प्रावधान वकील की गवाही देने की बाध्यता को समाप्त नहीं करता,
जहाँ वह कानूनन साक्ष्य देने के लिए बाध्य है।

धारा 22 – प्रलोभन, धमकी, बल प्रयोग या वादे से की गई स्वीकारोक्ति, आपराधिक कार्यवाही में कब अप्रामाणिक होती है
(Section 22 – Confession caused by inducement, threat, coercion or promise, when irrelevant in criminal proceeding)

मुख्य प्रावधान (Main Provision):

 यदि कोई आरोपी व्यक्ति कोई स्वीकारोक्ति (confession) करता है,
और अदालत को यह प्रतीत होता है कि:

वह स्वीकारोक्ति प्रलोभन (inducement),
धमकी (threat),
बलपूर्वक दबाव (coercion), या
किसी वादे (promise) के कारण की गई है,

और वह प्रभाव:

किसी अधिकृत व्यक्ति (person in authority) द्वारा डाला गया है,

जो आरोप से संबंधित है,

और ऐसा है कि आरोपी को यह उचित लग सकता है कि
वह स्वीकारोक्ति करने से उसे कुछ लाभ मिलेगा या कोई नुकसान टलेगा,

 तो ऐसी स्वीकारोक्ति आपराधिक कार्यवाही में अप्रासंगिक (irrelevant) मानी जाएगी।

प्रथम अपवाद (First Proviso):

 अगर अदालत को यह लगता है कि प्रलोभन, धमकी या वादे का प्रभाव पूरी तरह समाप्त हो चुका है,
और उसके बाद स्वीकारोक्ति दी गई है —
तो वह स्वीकारोक्ति प्रासंगिक होगी।

द्वितीय अपवाद (Second Proviso):

 यदि स्वीकारोक्ति अन्यथा प्रासंगिक है,
तो वह निम्नलिखित कारणों से अप्रासंगिक नहीं मानी जाएगी:

वह गोपनीयता के वादे (promise of secrecy) पर की गई हो,

उसे धोखे से प्राप्त किया गया हो,

आरोपी ने नशे में रहते हुए स्वीकार किया हो,

आरोपी ने ऐसे प्रश्नों का उत्तर दिया हो जिन्हें देने की बाध्यता नहीं थी,

आरोपी को चेतावनी नहीं दी गई हो कि वह स्वीकारोक्ति देने को बाध्य नहीं है
और वह उसके खिलाफ साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल हो सकती है।

संक्षेप में:

 प्रलोभन, धमकी, दबाव या वादे के कारण की गई स्वीकारोक्ति
 अपराध से संबंधित हो, और
 किसी सक्षम व्यक्ति द्वारा दिया गया प्रभाव हो,
 तो वह स्वीकारोक्ति आपराधिक मामले में मान्य नहीं होगी।

 लेकिन, यदि वह प्रभाव समाप्त हो गया हो,
या यदि स्वीकारोक्ति गोपनीयता, धोखे, नशे या चेतावनी की कमी के कारण हुई हो,
तो वह स्वीकारोक्ति फिर भी वैध हो सकती है — यदि अन्यथा वह प्रासंगिक हो।

 

धारा 23 – पुलिस अधिकारी के समक्ष की गई स्वीकारोक्ति (Confession to police officer)

मुख्य प्रावधान (Main Provision):

(1) किसी भी पुलिस अधिकारी के समक्ष की गई स्वीकारोक्ति,
 किसी अपराध के आरोपी व्यक्ति के विरुद्ध प्रमाण के रूप में प्रस्तुत नहीं की जा सकती।

(2) किसी भी व्यक्ति द्वारा, जब वह पुलिस हिरासत में हो,
 की गई स्वीकारोक्ति तब तक उसके विरुद्ध प्रमाण के रूप में नहीं दी जा सकती,
जब तक कि वह किसी मजिस्ट्रेट की प्रत्यक्ष उपस्थिति में न की गई हो।

अपवाद (Proviso):

 यदि किसी आरोपी व्यक्ति से पुलिस हिरासत में रहते हुए कोई सूचना प्राप्त होती है,
और उस सूचना के कारण कोई तथ्य (जैसे हथियार, वस्तु, शव आदि) खोजा जाता है,
 तो उस सूचना का केवल वही हिस्सा जो स्पष्ट रूप से उस खोजे गए तथ्य से संबंधित हो,
प्रमाण के रूप में स्वीकार्य (admissible) होगा,
चाहे वह सूचना स्वीकारोक्ति मानी जाए या नहीं।

 उदाहरण (Illustration):

यदि आरोपी ने पुलिस हिरासत में कहा –
“मैंने हत्या कर दी और शव को नदी में फेंका है,”
और शव उस स्थान से मिल जाता है,
 तो केवल यह हिस्सा कि “शव नदी में है”
प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जाएगा,
लेकिन “मैंने हत्या की” — यह भाग स्वीकार्य नहीं होगा, क्योंकि वह पुलिस अधिकारी को दी गई स्वीकारोक्ति है।

संक्षेप में:

 पुलिस अधिकारी के सामने की गई स्वीकारोक्ति,
या पुलिस हिरासत में की गई स्वीकारोक्ति,
 तब तक आरोपी के खिलाफ मान्य नहीं है, जब तक कि वह मजिस्ट्रेट की उपस्थिति में न की गई हो।

 लेकिन अगर उस स्वीकारोक्ति से कोई चीज़ बरामद होती है,
 तो केवल वही हिस्सा जो खोजे गए तथ्य से जुड़ा हो,
प्रमाण के रूप में पेश किया जा सकता है।

 

धारा 24 – अभियुक्त द्वारा की गई स्वीकृत स्वीकारोक्ति का विचार, जब अन्य व्यक्ति भी उसी अपराध के लिए संयुक्त रूप से मुकदमे में हों
(Section 24 – Consideration of proved confession affecting person making it and others jointly under trial for same offence)

मुख्य प्रावधान (Main Provision):

जब एक से अधिक व्यक्ति एक ही अपराध के लिए संयुक्त रूप से मुकदमे का सामना कर रहे हों,
और उन में से किसी एक व्यक्ति द्वारा की गई ऐसी स्वीकारोक्ति सिद्ध (proved) हो
जो स्वयं उस व्यक्ति और अन्य सह-अभियुक्तों को भी प्रभावित करती हो,
 तो न्यायालय उस स्वीकारोक्ति को न केवल उस व्यक्ति के विरुद्ध, बल्कि अन्य सह-अभियुक्तों के विरुद्ध भी विचार में ले सकता है।

 स्पष्टीकरण (Explanations):

स्पष्टीकरण I:
यहाँ “अपराध (Offence)” में उकसावा (abetment) या प्रयास (attempt) भी शामिल है।

स्पष्टीकरण II:
यदि कोई अभियुक्त फरार (absconded) हो गया हो या भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 84 के तहत घोषणा (proclamation) के बावजूद उपस्थित न हुआ हो,
 तो उसकी अनुपस्थिति में भी अन्य अभियुक्तों का मुकदमा “संयुक्त मुकदमा” (joint trial) माना जाएगा, और यह धारा लागू होगी।

 उदाहरण (Illustrations):

(a) A और B, दोनों पर C की हत्या के लिए संयुक्त रूप से मुकदमा चल रहा है।
यदि यह सिद्ध हो जाता है कि A ने कहा – “B और मैंने मिलकर C की हत्या की,”
 तो न्यायालय इस स्वीकारोक्ति को B के विरुद्ध भी विचार में ले सकता है।

(b) A पर C की हत्या के लिए मुकदमा चल रहा है।
यह प्रमाण है कि C की हत्या A और B ने की थी, और B ने कहा – “A और मैंने C की हत्या की”
 परंतु क्योंकि B पर उस समय मुकदमा नहीं चल रहा है,
इसलिए यह स्वीकारोक्ति A के विरुद्ध विचार में नहीं ली जा सकती

संक्षेप में:

 जब एक से अधिक अभियुक्तों पर एक साथ एक ही अपराध के लिए मुकदमा चल रहा हो,
तो उनमें से किसी एक द्वारा की गई स्वीकृत स्वीकारोक्ति, जो अन्य सह-अभियुक्तों को भी प्रभावित करती है,
 न्यायालय उसे सभी पर विचार करने के लिए स्वीकार कर सकता है।

 परंतु यदि कोई अभियुक्त मुकदमे में शामिल नहीं है,
 तो उसकी स्वीकारोक्ति अन्य के विरुद्ध मान्य नहीं होगी।

 

धारा 25 – स्वीकृतियाँ निर्णायक प्रमाण नहीं होतीं, परंतु निषेध (Estoppel) का कारण बन सकती हैं
(Section 25 – Admissions not conclusive proof, but may estop)

मुख्य प्रावधान (Main Provision):

कोई भी स्वीकृति (Admission) उस तथ्य का निर्णायक प्रमाण (conclusive proof) नहीं मानी जाती,
 लेकिन वह स्वीकृति ऐसी स्थिति उत्पन्न कर सकती है कि व्यक्ति को बाद में उस बात से इनकार करने से रोका जा सकता है (Estoppel)।

 सरल शब्दों में समझिए:

 जब कोई व्यक्ति किसी तथ्य को स्वीकार करता है, तो अदालत उसे अंतिम प्रमाण नहीं मानती।
 लेकिन यदि उस स्वीकृति के आधार पर दूसरी पार्टी ने भरोसा करके कोई कार्य किया हो,
 तो स्वीकृति देने वाला व्यक्ति बाद में उस तथ्य से मुकर नहीं सकता – इसे ही Estoppel (निषेध सिद्धांत) कहते हैं।

संक्षेप में:

स्वीकृति अपने आप में अंतिम सबूत नहीं होती।

लेकिन वह व्यक्ति को बाद में विपरीत बात कहने से रोक सकती है,
यदि उसके पहले के कथन पर कोई दूसरा कार्य हुआ हो।

धारा26 – Statements of deceased/missing persons: कब प्रासंगिक हैं (Section26 – Statements of relevant fact by person who is dead or cannot be found, etc.)

मूल सिद्धांत
किसी व्यक्ति के लिखित या मौखिक कथन, जो अब ✝️ मृत, 👤 लापता, 🤕 असक्षम, या जिसकी उपस्थिति अत्यधिक विलम्ब / खर्च के कारण असंगत हो—निम्न परिस्थितियों में स्वयं प्रासंगिक होते हैं:

(a) मृत्यु‑कारण संबंधी कथन (Dying declaration)—कथन में स्वयं मृत्यु‑का कारण या उससे जुड़ी परिस्थितियाँ हों।

(b) व्यवसायिक अभिलेख—रोज़मर्रा के लेन‑देन, बही‑खाता, पेशेगत ड्यूटी, रसीद, कारोबारी दस्तावेज़, पत्र की तारीख आदि।

(c) स्वविरोधी हित—ऐसा कथन जो कथनकर्ता के पैसों/सम्पत्ति या दंड‑जोखिम के खिलाफ जाता हो।

(d) लोक अधिकार/रीति‑रिवाज़ पर राय—किसी सार्वजनिक अधिकार, प्रथा या सामान्य हित के बारे में विवाद उठने से पहले दी गई विशेषज्ञ‑सी राय।

(e) जीवित संबंध‑सिद्धि—रक्त, विवाह या दत्तक सम्बन्ध पर कथन, जब कथनकर्ता के पास विशेष जानकारी के स्रोत हों तथा विवाद से पूर्व दिया गया हो।

(f) मृत व्यक्तियों के पारिवारिक दस्तावेज़—वसीयत, पारिवारिक वंशावली, समाधि‑फलक, पारिवारिक चित्र आदि में संबंध‑संबंधी कथन, यदि विवाद से पहले लिखा गया हो।

(g) पूर्व लेन‑देन से जुड़े दस्तावेज़—धारा 11 (क) में वर्णित किसी लेन‑देन से संबंधित वसीयत/दस्तावेज़।

(h) सामूहिक भाव‑अभिव्यक्ति—कई व्यक्तियों द्वारा किये गये कथन जो किसी मुद्दे पर उनकी सामूहिक भावना या प्रभाव दर्शाते हों।

मुख्य कानूनी बिंदु

इन सभी मामलों में कथन स्वयं साक्ष्य है; बयानकर्त्ता की गवाही आवश्यक नहीं।

डाइंग डिक्लेरेशन (a) के लिए मृत्यु‑अपेक्षा आवश्यक नहीं; कोई भी कार्यवाही हो सकती है।

बिज़नेस रिकॉर्ड (b) व तारीख‑दस्तावेज़ स्वतः विश्वसनीय माने जाते हैं।

स्वविरोधी हित (c) वाले कथन स्वाभाविकतः सच माने जाते हैं, क्योंकि व्यक्ति सामान्यतः अपने खिलाफ झूठ नहीं बोलेगा।

लोक अधिकार/प्रथा (d) व पारिवारिक संबंध (e‑f) में विवाद‑पूर्व समय‑सीमा अनिवार्य है।

सामूहिक भावना (h) भी तथ्य‑स्थिति पर प्रकाश डाल सकती है।

प्रयोगी उदाहरण (उदाहरणों में निहित तथ्य स्वयं प्रासंगिक हैं)
मरने से पहले पीड़ित का “B ने गोली मारी” कहना।
दिवंगत डॉक्टर की डायरी‑एंट्री‑“आज A की माँ की प्रसूति कराई।”
मृत वकील की नोटबुक‑“फलाँ तारीख को नागपुर में A से मुलाक़ात की।”
जहाज‑कप्तान (अनुपस्थित) का प्रोटेस्ट‑नोट हादसे के कारण बताए।
गाँव के दिवंगत मुखिया का कथन‑“यह सड़क सार्वजनिक है।”
पिता का पुराने पत्र में पुत्र‑जन्म की तिथि लिखना।
भीड़ की टिप्पणियाँ—दुकान‑वाले कैरिकेचर की चित्र‑समानता व मानहानि दर्शाना।

महत्त्व: उपर्युक्त आठ परिस्थितियों के तहत किया गया कोई भी प्रामाणिक कथन सीधे स्वीकार्य साक्ष्य बन जाता है; कोर्ट इसे बिना मूल वक्ता की उपस्थिति के भी मान सकती है।

 

धारा 27 – पूर्व न्यायिक कार्यवाही में दिए गए साक्ष्य की पुनः उपयोगिता
Section 27 – Relevancy of Certain Evidence for Proving, in Subsequent Proceeding, Truth of Facts Therein Stated

 सरल रूप में समझिए:

यदि किसी गवाह ने किसी पहले न्यायिक कार्यवाही (मुकदमे या जांच) में साक्ष्य दिया था, तो वही साक्ष्य बाद में किसी अन्य न्यायिक कार्यवाही या उसी केस के अगले चरण में भी इस्तेमाल किया जा सकता है — जब गवाह अब उपलब्ध न हो, जैसे:

गवाह मर गया हो,

गवाह मिल नहीं रहा हो,

गवाह मानसिक या शारीरिक रूप से गवाही देने में अक्षम हो,

विरोधी पक्ष ने उसे छिपा दिया हो,

या उसे बुलाने में इतना खर्च या देर लगे कि वह अनुचित लगे।

पर कुछ शर्तें जरूरी हैं:

पहला मुकदमा और बाद का मुकदमा उसी पक्षों के बीच या उनके उत्तराधिकारी के बीच होना चाहिए।

विरोधी पक्ष को पहले मुकदमे में पूरी तरह से जिरह (cross-examination) का मौका मिला हो।

पहले और अब के मुकदमे में विवाद का विषय (questions in issue) लगभग एक जैसा हो।

स्पष्टीकरण:
अगर मामला क्रिमिनल केस (अपराध) का है, तो माना जाएगा कि वह अभियोजक (सरकार) बनाम अभियुक्त (accused) के बीच है, चाहे सरकार बदली हो या अभियुक्त बदल गया हो।

 मुख्य बात याद रखें:
गवाह का पुराना बयान दोबारा तभी इस्तेमाल किया जा सकता है जब:

गवाह अब गवाही देने में असमर्थ है, और

पहले उसे जिरह करने का अवसर मिला था, और

विवाद वही है।

 याद रखने का तरीका:
“पहले की गवाही, बाद में तभी चलेगी — जब वही पक्ष, वही सवाल और जिरह पहले हो चुकी हो।”

धारा 28 – लेखा-पुस्तकों में प्रविष्टियाँ कब प्रासंगिक होती हैं
Section 28 – Entries in Books of Account When Relevant

 सरल रूप में समझिए:

व्यापार में नियमित रूप से रखी गई लेखा-पुस्तकों में की गई प्रविष्टियाँ (चाहे वे कागज़ पर हों या इलेक्ट्रॉनिक रूप में) प्रासंगिक (relevant) होती हैं अगर वे उस विषय से जुड़ी हों, जिसकी जाँच अदालत को करनी है।

लेकिन ध्यान रहे:
केवल यही प्रविष्टियाँ किसी व्यक्ति पर देनदारी (liability) साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं होतीं।
मतलब यह कि अकेले खाताबही के पन्नों से किसी पर पैसा बकाया साबित नहीं किया जा सकता, कोई और अतिरिक्त साक्ष्य भी जरूरी होगा।

 उदाहरण:
A, B पर ₹1000 का दावा करता है और अपनी बही-खाते में दर्ज दिखाता है कि B उस पर ₹1000 का कर्जदार है।
ये प्रविष्टियाँ प्रासंगिक होंगी, लेकिन केवल इसी आधार पर B से पैसे नहीं वसूले जा सकते, जब तक कि A कोई और सबूत पेश न करे।

 याद रखने का तरीका:
“खाता जरूरी है, पर अकेला काफी नहीं।”
(लेखा-पुस्तक में प्रविष्टि बिना अन्य प्रमाण के व्यक्ति पर देनदारी सिद्ध नहीं करती।)

 

धारा 29 – सार्वजनिक अभिलेख या इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख में किए गए प्रविष्टि की प्रासंगिकता | Section 29 – Relevancy of entry in public record or an electronic record made in performance of duty

यदि कोई प्रविष्टि (entry) किसी सार्वजनिक या अन्य आधिकारिक पुस्तक, रजिस्टर या रिकॉर्ड या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड में की गई हो, और वह प्रविष्टि किसी मुद्दे के तथ्य (fact in issue) या प्रासंगिक तथ्य (relevant fact) से संबंधित हो, तथा वह प्रविष्टि किसी लोक सेवक (public servant) द्वारा अपने सरकारी कर्तव्य का निर्वहन करते हुए की गई हो, या कानून द्वारा विशेष रूप से निर्धारित किसी व्यक्ति द्वारा अपने कर्तव्य का पालन करते हुए की गई हो, तो वह प्रविष्टि स्वयं एक प्रासंगिक तथ्य मानी जाएगी

यह प्रविष्टि इस आधार पर कि इसे कर्तव्य पालन में किया गया है, न्यायालय में प्रमाणिकता रखने वाली होती है।

 उदाहरण: मान लीजिए कि किसी व्यक्ति की मृत्यु की तिथि विवाद में है, और नगरपालिका के जन्म-मृत्यु रजिस्टर में मृत्यु की प्रविष्टि सरकारी अधिकारी द्वारा की गई है, तो वह प्रविष्टि अदालत में मृत्यु के प्रमाण के रूप में प्रासंगिक होगी।

मुख्य बात: यह प्रविष्टि स्वयं में एक प्रासंगिक साक्ष्य होती है, बशर्ते वह उचित कर्तव्य के पालन में की गई हो।

 

धारा 30 – नक्शों, चार्टों और योजनाओं में दिए गए कथनों की प्रासंगिकता | Section 30 – Relevancy of statements in maps, charts and plans

जो कथन किसी विवादित तथ्य (fact in issue) या प्रासंगिक तथ्य (relevant fact) से संबंधित हों और जो प्रकाशित नक्शों या चार्टों में दिए गए हों जो सार्वजनिक बिक्री के लिए उपलब्ध हों, या केंद्र सरकार या राज्य सरकार की प्राधिकृति से बनाए गए नक्शों या योजनाओं में हों, और जो उन नक्शों, चार्टों या योजनाओं में सामान्यतः दर्शाए या बताए जाने वाले विषयों से संबंधित हों — तो ऐसे कथन स्वयं प्रासंगिक तथ्य माने जाएंगे

उदाहरण के लिए, कोई सरकारी सर्वेक्षण विभाग द्वारा बनाया गया मानचित्र, जिसमें नदियों, सीमाओं, पहाड़ों आदि का विवरण हो, वह अपने आप में प्रमाणिक और प्रासंगिक साक्ष्य माना जाएगा।

 महत्वपूर्ण बिंदु: इन दस्तावेजों में दिए गए तथ्य केवल तभी प्रासंगिक होते हैं जब वे सामान्यतः उनमें दिखाए जाने वाले विषयों से संबंधित हों, जैसे कि भौगोलिक स्थिति, मार्ग, सीमाएं आदि।

 

धारा 31 – सार्वजनिक प्रकृति के तथ्य से संबंधित कथनों की प्रासंगिकता | Section 31 – Relevancy of statement as to fact of public nature contained in certain Acts or notifications

जब न्यायालय को किसी सार्वजनिक प्रकृति के तथ्य (fact of public nature) के अस्तित्व के बारे में राय बनानी हो, तो उस तथ्य के बारे में किया गया कोई भी कथन जो निम्नलिखित स्रोतों में हो, प्रासंगिक तथ्य (relevant fact) माना जाएगा:

किसी केंद्रीय अधिनियम (Central Act) या राज्य अधिनियम (State Act) की प्रस्तावना (recital) में किया गया कथन
केंद्र सरकार या राज्य सरकार की अधिसूचना (notification), जो
 संबंधित राजपत्र (Official Gazette) में प्रकाशित हो, या
मुद्रित रूप में या इलेक्ट्रॉनिक/डिजिटल स्वरूप में उपलब्ध हो और जिसे राजपत्र होने का स्वरूप दिया गया हो

 उदाहरण: यदि यह विवाद है कि किसी स्थान को नगरपालिका घोषित किया गया था या नहीं, तो उस संबंध में किसी सरकारी अधिसूचना या अधिनियम में किया गया उल्लेख प्रासंगिक साक्ष्य होगा।

 महत्वपूर्ण बात: यह प्रावधान केवल सार्वजनिक महत्व के तथ्यों पर लागू होता है, जैसे कि कोई क्षेत्र कब अधिसूचित हुआ, कोई योजना कब लागू हुई, आदि।

 

धारा 32 – किसी कानून से संबंधित कथनों की प्रासंगिकता | Section 32 – Relevancy of statements as to any law contained in law books including electronic or digital form

जब न्यायालय को किसी देश के कानून (law of any country) के बारे में राय बनानी हो, तो निम्नलिखित को प्रासंगिक तथ्य (relevant fact) माना जाएगा:

ऐसा कोई पुस्तक रूपी कथन (statement in book), जिसमें यह दिखाया गया हो कि वह उस देश की सरकार के प्राधिकरण से मुद्रित या प्रकाशित (printed or published) है — चाहे वह प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल स्वरूप में हो — और उसमें उस देश का कोई कानून सम्मिलित हो।

उस देश की न्यायपालिका के निर्णयों (rulings) की कोई रिपोर्ट, जो किसी पुस्तक में (प्रिंट या इलेक्ट्रॉनिक/डिजिटल रूप में) इस रूप में हो कि वह उन निर्णयों की प्रामाणिक रिपोर्ट है।

 सरल शब्दों में: यदि किसी विदेशी कानून या विदेशी न्यायिक निर्णय को अदालत में प्रस्तुत करना हो, तो सरकारी स्वीकृत विधि पुस्तकों या निर्णय रिपोर्टों (जैसे लीगल जर्नल्स) में उसका उल्लेख प्रासंगिक साक्ष्य माना जाएगा।

 उदाहरण: अगर यह विवाद है कि इंग्लैंड में किसी विशेष स्थिति पर क्या कानून है, और “Halsbury’s Laws of England” में उस पर जो कुछ लिखा है, वह भारत में अदालत के सामने प्रासंगिक माना जाएगा, बशर्ते वह आधिकारिक रूप से प्रकाशित हो।

धारा 33 – जब कोई कथन किसी वार्तालाप, दस्तावेज़, इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड, पुस्तक या पत्रों की श्रृंखला का हिस्सा हो, तब क्या साक्ष्य दिया जाएगा | Section 33 – What evidence to be given when statement forms part of a conversation, document, electronic record, book or series of letters or papers

यदि कोई कथन, जिसका साक्ष्य दिया जा रहा है, निम्न में से किसी का हिस्सा हो:

किसी लंबे कथन का भाग,
किसी वार्तालाप (conversation) का भाग,
किसी दस्तावेज़ या पुस्तक या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड का हिस्सा,
या पत्रों या कागज़ात की किसी श्रृंखला का भाग,

तो अदालत केवल उतने भाग का साक्ष्य स्वीकार करेगी जो उस विशेष मामले में उस कथन के स्वरूप और प्रभाव को समझने के लिए आवश्यक हो, तथा जिन परिस्थितियों में वह कथन किया गया, उन्हें समझने में सहायक हो।

 मुख्य बात: पूरा दस्तावेज़ या पूरी बातचीत पेश करने की ज़रूरत नहीं, सिर्फ उतना हिस्सा साक्ष्य में दिया जाएगा जो अदालत को उस कथन का सही अर्थ और प्रभाव समझाने के लिए जरूरी हो।

 उदाहरण: अगर किसी व्यक्ति ने किसी ईमेल श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण बात लिखी है, तो केवल उस हिस्से को साक्ष्य में लिया जाएगा जो उस कथन के संदर्भ को स्पष्ट करता हो — पूरी ईमेल श्रृंखला देना ज़रूरी नहीं होगा।

 

धारा 34 – पूर्ववर्ती निर्णय किसी दूसरे मुकदमे या विचारण को रोकने के लिए कब प्रासंगिक होते हैं | Section 34 – Previous judgments relevant to bar a second suit or trial

यदि किसी निर्णय (judgment), आदेश (order) या डिक्री (decree) का अस्तित्व ऐसा है जो कानून के अनुसार किसी न्यायालय को किसी मुकदमे की सुनवाई या विचारण करने से रोकता है, तो यह एक प्रासंगिक तथ्य होता है जब यह प्रश्न उठता है कि क्या वह न्यायालय उस मुकदमे की सुनवाई या विचारण कर सकता है या नहीं।

 मुख्य बिंदु:

यदि पहले कोई मामला निर्णीत हो चुका है, और वही पक्ष, वही विषय और वही विवाद फिर से प्रस्तुत किया जा रहा है, तो पहले का निर्णय दूसरे मुकदमे को रोकने के लिए प्रासंगिक प्रमाण बनता है।

इसे आमतौर पर “res judicata” (पूर्वविचारित वाद) या “double jeopardy” (द्वितीय विचारण वर्जित) सिद्धांत से जोड़ा जाता है।

 उदाहरण:
यदि “A बनाम B” में एक कोर्ट ने पहले से ही निर्णय दे दिया है कि B का भूमि पर कोई अधिकार नहीं है, और B दोबारा उसी मुद्दे को लेकर A के खिलाफ नया मुकदमा दायर करता है, तो पहले का निर्णय न्यायालय को दूसरा मुकदमा स्वीकार करने से रोकने में प्रासंगिक साक्ष्य बनता है।

 

धारा 35 – वसीयत, विवाह, समुद्री या दिवालियापन क्षेत्राधिकार में कुछ न्यायिक निर्णयों की प्रासंगिकता | Section 35 – Relevancy of certain judgments in probate, etc., jurisdiction

(1) यदि कोई सक्षम न्यायालय या न्यायाधिकरण, जो वसीयत (probate), विवाह-संबंधी (matrimonial), समुद्री (admiralty) या दिवालियापन (insolvency) के क्षेत्राधिकार में अंतिम निर्णय, आदेश या डिक्री देता है, जो किसी व्यक्ति को:

कोई कानूनी हैसियत (legal character) प्रदान करता है या उससे वह हैसियत छीनता है, या

उसे किसी चीज पर अधिकार घोषित करता है (किसी विशेष व्यक्ति के विरुद्ध नहीं बल्कि पूर्ण रूप से),

तो ऐसा निर्णय, आदेश या डिक्री तब प्रासंगिक होता है जब उस कानूनी हैसियत या अधिकार का अस्तित्व किसी मामले में महत्वपूर्ण हो।

(2) ऐसा निर्णय, आदेश या डिक्री निम्नलिखित बातों का निर्णायक प्रमाण (conclusive proof) होता है:

(i) जिस कानूनी हैसियत को प्रदान किया गया है, वह उसी समय से लागू मानी जाएगी जब वह आदेश या निर्णय प्रभाव में आया।

(ii) यदि किसी को किसी कानूनी हैसियत के लिए योग्य घोषित किया गया है, तो वह हैसियत उसी समय से मानी जाएगी जैसा निर्णय में घोषित किया गया हो।

(iii) यदि किसी से कोई कानूनी हैसियत छीन ली गई है, तो वह उसी समय से मानी जाएगी जब न्यायालय ने उसे समाप्त किया हुआ बताया।

(iv) यदि किसी व्यक्ति को कोई वस्तु का स्वामी घोषित किया गया है, तो वह वस्तु उसी समय से उसकी मानी जाएगी जैसा कि आदेश में घोषित किया गया हो।

 सारांश: इस धारा के अंतर्गत, यदि कोई विशेष न्यायालय किसी व्यक्ति को किसी कानूनी पहचान (जैसे कि उत्तराधिकारी, विवाहिता, संपत्ति का मालिक, दिवालिया आदि) से जोड़ता या उससे अलग करता है, तो वह निर्णय उस पहचान या अधिकार के अस्तित्व के लिए निर्णायक प्रमाण होता है।

 

धारा 36 – धारा 35 में उल्लिखित नहीं किए गए निर्णयों, आदेशों या डिक्री की प्रासंगिकता और प्रभाव | Section 36 – Relevancy and effect of judgments, orders or decrees, other than those mentioned in section 35

वे निर्णय (judgments), आदेश (orders) या डिक्री (decrees) जो धारा 35 में नहीं आते, वे तब प्रासंगिक होते हैं, जब वे सार्वजनिक प्रकृति (public nature) के किसी ऐसे विषय से संबंधित हों जो न्यायालय की जांच के लिए महत्वपूर्ण हो।

 लेकिन ये निर्णय, आदेश या डिक्री उस बात का निर्णायक प्रमाण (conclusive proof) नहीं होते जिसे वे बताते हैं।

उदाहरण:
A, B पर आरोप लगाता है कि उसने A की ज़मीन पर ज़बरदस्ती प्रवेश (trespass) किया। B कहता है कि वह ज़मीन सार्वजनिक रास्ता (public right of way) है। A इस दावे से इनकार करता है। अब यदि A ने पहले C पर उसी ज़मीन के trespass के लिए मुकदमा किया था और उसमें C ने भी यही सार्वजनिक रास्ते का दावा किया था और कोर्ट ने C के पक्ष में डिक्री दी थी — तो यह डिक्री प्रासंगिक तो है, लेकिन यह निर्णायक प्रमाण नहीं है कि वास्तव में सार्वजनिक रास्ता मौजूद है।

सारांश: केवल इस आधार पर कि पहले कोई फैसला किसी के पक्ष में आया था, वह भविष्य में उसी विषय को लेकर चल रहे मामले में उस तथ्य का अंतिम प्रमाण नहीं बन जाता, भले ही वह एक सार्वजनिक महत्व की बात से जुड़ा हो।

 

धारा 37 – धारा 34, 35 और 36 में वर्णित निर्णयों, आदेशों या डिक्री के अलावा अन्य मामलों में उनकी प्रासंगिकता |
Section 37 – Judgments, etc., other than those mentioned in sections 34, 35 and 36 when relevant

वे निर्णय (judgments), आदेश (orders) या डिक्री (decrees) जो धारा 34, 35 या 36 में नहीं आते, वे तब तक प्रासंगिक नहीं होते, जब तक कि—

उनकी उपस्थिति (existence) स्वयं में कोई विवाद का विषय (fact in issue) न हो,
या
वे इस अधिनियम (Adhiniyam) के किसी अन्य प्रावधान के अंतर्गत प्रासंगिक न ठहराए गए हों।

Illustrations (उदाहरण):

(a) A और B अलग-अलग C पर मानहानि (libel) का केस करते हैं। C दोनों मामलों में यही कहता है कि जो कुछ कहा गया वह सच था। A को C के खिलाफ हर्जाने की डिक्री मिलती है, क्योंकि C अपनी बात साबित नहीं कर सका। यह डिक्री B के मामले में प्रासंगिक नहीं है।

(b) A, B पर अपनी गाय चुराने का केस करता है। B दोषी ठहराया जाता है। बाद में A, C पर मुकदमा करता है, जिसने B से वह गाय खरीदी थी। B के खिलाफ हुआ फैसला A और C के बीच में प्रासंगिक नहीं है।

(c) A को ज़मीन के कब्जे के लिए B के खिलाफ डिक्री मिलती है। इस वजह से B का बेटा C, A की हत्या कर देता है। तो A के पक्ष में मिली डिक्री इस हत्या के पीछे के उद्देश्य (motive) को दिखाने के लिए प्रासंगिक है

(d) A पर चोरी का मुकदमा है और यह भी आरोप है कि वह पहले भी चोरी के लिए दोषी ठहराया जा चुका है। तो उसकी पहली सज़ा एक विवाद का विषय (fact in issue) है और प्रासंगिक है।

(e) A पर B की हत्या का मुकदमा है। यह तथ्य कि B ने A पर पहले मानहानि का मुकदमा किया था और A को दोषी ठहराया गया था, धारा 6 के तहत A के अपराध के पीछे उद्देश्य (motive) दिखाने के लिए प्रासंगिक है

 निष्कर्ष: केवल इसलिए कि कोई निर्णय या आदेश दिया गया था, वह हर मामले में प्रासंगिक नहीं होगा, जब तक कि वह स्वयं विवाद का विषय न हो या अन्य धाराओं के तहत प्रासंगिक न ठहराया गया हो।

 

धारा 38 – निर्णय प्राप्त करने में धोखाधड़ी या मिलीभगत, अथवा न्यायालय की अक्षमता को सिद्ध किया जा सकता है
Section 38 – Fraud or collusion in obtaining judgment, or incompetency of Court, may be proved

यदि किसी पक्ष द्वारा ऐसा निर्णय, आदेश या डिक्री प्रस्तुत किया गया है जो धारा 34, 35 या 36 के अंतर्गत प्रासंगिक (relevant) माना गया है,
तो विपक्षी पक्ष (other party) यह सिद्ध कर सकता है कि—

वह निर्णय ऐसे न्यायालय (Court) द्वारा दिया गया था जो उस पर निर्णय देने के लिए सक्षम नहीं था (not competent), या
वह निर्णय धोखाधड़ी (fraud) या मिलीभगत (collusion) से प्राप्त किया गया था।

 मुख्य बात: भले ही कोई निर्णय कानूनन प्रासंगिक हो, फिर भी यह साबित किया जा सकता है कि वह अमान्य है क्योंकि वह या तो अधिकार क्षेत्र से बाहर था, या धोखे या साजिश से प्राप्त किया गया था।

 

धारा 39 – विशेषज्ञों की राय की प्रासंगिकता
Section 39 – Opinions of Experts

(1) जब किसी मामले में न्यायालय को किसी विदेशी कानून, विज्ञान, कला, या किसी अन्य क्षेत्र, अथवा हस्तलिपि (handwriting) या उंगलियों के निशान (finger impressions) की पहचान से संबंधित कोई राय बनानी होती है,
तो उस विषय में विशेष रूप से निपुण व्यक्ति की राय एक प्रासंगिक तथ्य मानी जाती है। ऐसे व्यक्ति को विशेषज्ञ (Expert) कहा जाता है।

उदाहरण:

(a) यदि यह प्रश्न है कि A की मृत्यु जहर से हुई या नहीं, तो उस जहर के लक्षणों पर विशेषज्ञों की राय प्रासंगिक होगी।

(b) यदि यह सवाल है कि A किसी कार्य को करते समय मानसिक रूप से अस्वस्थ था या नहीं, और क्या उसे उस कार्य की प्रकृति या उसके गलत या गैरकानूनी होने का बोध था — तो मानसिक रोग विशेषज्ञों की राय इस विषय में प्रासंगिक होगी।

(c) यदि यह सवाल है कि कोई दस्तावेज A ने लिखा या नहीं, और A द्वारा लिखा हुआ कोई अन्य दस्तावेज प्रमाणित रूप से उपलब्ध है,
तो दोनों दस्तावेजों की तुलना कर विशेषज्ञों की राय (लिखावट की समानता/भिन्नता पर) प्रासंगिक होगी।

(2) जब किसी न्यायिक कार्यवाही में कोर्ट को यह राय बनानी हो कि कंप्यूटर या अन्य इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल संसाधन में संग्रहित या भेजी गई कोई सूचना क्या है या कैसे है,
तो सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 की धारा 79A में उल्लेखित इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य परीक्षक (Examiner of Electronic Evidence) की राय प्रासंगिक तथ्य मानी जाएगी।

 स्पष्टीकरण: इस उपधारा के अनुसार, इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य परीक्षक को भी विशेषज्ञ माना जाएगा।

 

धारा 40 – विशेषज्ञों की राय से संबंधित तथ्यों की प्रासंगिकता
Section 40 – Facts Bearing Upon Opinions of Experts

ऐसे तथ्य जो सामान्यतः प्रासंगिक नहीं होते, वे तब प्रासंगिक माने जाते हैं, जब वे किसी विशेषज्ञ की राय के समर्थन में हों या उसके विपरीत हों, जब वह राय स्वयं प्रासंगिक हो।

उदाहरण:

(a) प्रश्न है कि क्या A को किसी विशेष ज़हर से विषाक्त किया गया था। यदि अन्य व्यक्तियों को भी उसी ज़हर से विषाक्त किया गया हो और उन्होंने वही लक्षण दिखाए हों,
जिन्हें विशेषज्ञ उस ज़हर के लक्षण मानते या नहीं मानते हैं — तो यह तथ्य प्रासंगिक है।

(b) प्रश्न है कि क्या किसी बंदरगाह (harbour) में रुकावट किसी समुद्र-दीवार (sea-wall) के कारण हुई।
यदि अन्य बंदरगाह, जो बाकी मामलों में समान हैं लेकिन जिनमें ऐसी कोई समुद्र-दीवार नहीं है, वहां भी उसी समय के आसपास रुकावट शुरू हुई — तो यह तथ्य प्रासंगिक है।

 मतलब यह कि विशेषज्ञ की राय की सत्यता या असत्यता सिद्ध करने वाले तथ्य, भले ही अपने आप में प्रासंगिक न हों, लेकिन विशेषज्ञ की राय से जुड़े होने के कारण कानूनन महत्व रखते हैं

 

धारा 41 – हस्तलिपि और इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर के बारे में राय की प्रासंगिकता
Section 41 – Opinion as to Handwriting and Signature, When Relevant

(1) जब न्यायालय को यह तय करना हो कि किसी दस्तावेज को किस व्यक्ति ने लिखा या हस्ताक्षर किया, तो उस व्यक्ति की हस्तलिपि से परिचित किसी व्यक्ति की राय — कि यह दस्तावेज उसी ने लिखा या नहीं — प्रासंगिक होती है।

 स्पष्टीकरण:
कोई व्यक्ति किसी दूसरे की हस्तलिपि से तब परिचित माना जाता है:
जब उसने उसे लिखते हुए देखा हो,
या उसने स्वयं उस व्यक्ति को पत्र लिखा हो और उत्तर में उससे पत्र प्राप्त किए हों,
या अपने व्यवसाय में उस व्यक्ति द्वारा लिखे गए दस्तावेज़ नियमित रूप से उसे दिखाए जाते रहे हों।

 उदाहरण:
प्रश्न है कि क्या एक पत्र A (जो ईटानगर का व्यापारी है) की हस्तलिपि में है।
B (बेंगलुरु का व्यापारी) A को पत्र लिख चुका है और उत्तर में उससे पत्र पाए हैं।
C, B का क्लर्क है जिसका काम B के पत्रों की जांच और फाइलिंग करना है।
D, B का दलाल (ब्रोकर) है जिसे B A के पत्र सलाह के लिए दिखाता रहा है।
 B, C और D तीनों की राय — कि वह पत्र A की हस्तलिपि में है या नहीं — प्रासंगिक है, चाहे उन्होंने A को लिखते हुए कभी न देखा हो।

(2) यदि न्यायालय को यह तय करना हो कि किसी व्यक्ति का इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर है या नहीं, तो उस सर्टिफाइंग अथॉरिटी की राय प्रासंगिक होती है जिसने उस व्यक्ति को Electronic Signature Certificate जारी किया है।

 मतलब:
हस्तलिपि हो या डिजिटल सिग्नेचर — पहचान की पुष्टि करने वाले परिचित व्यक्ति या प्रमाणन प्राधिकरण की राय अदालत में कानूनी रूप से महत्वपूर्ण होती है।

 

धारा 42 – सामान्य प्रथा या अधिकार के अस्तित्व पर राय की प्रासंगिकता
Section 42 – Opinion as to Existence of General Custom or Right, When Relevant

जब न्यायालय को यह तय करना हो कि कोई सामान्य प्रथा (custom) या अधिकार (right) अस्तित्व में है या नहीं, तो ऐसे व्यक्तियों की राय, जो यदि वह प्रथा या अधिकार वास्तव में होता तो उसके बारे में जानते, प्रासंगिक होती है।

 स्पष्टीकरण:
सामान्य प्रथा या अधिकार” में वे प्रथाएं या अधिकार शामिल होते हैं जो किसी विशाल समुदाय या वर्ग में सामान्य रूप से प्रचलित हों।

 उदाहरण:
यदि किसी गांव के सभी निवासियों को किसी विशेष कुएं का पानी उपयोग करने का अधिकार हो, तो यह एक सामान्य अधिकार है, और इस अधिकार के अस्तित्व पर गांववालों की राय प्रासंगिक होगी।

सरल शब्दों में:
यदि किसी समाज, गांव या बड़े वर्ग में कोई प्रथा या अधिकार वर्षों से चलता आया हो, तो उसे प्रमाणित करने के लिए उन लोगों की राय ली जा सकती है जो उस परंपरा से परिचित हैं, और यह राय अदालत में कानूनी रूप से महत्व रखती है

धारा 43 – परंपराओं, सिद्धांतों आदि पर राय की प्रासंगिकता
Section 43 – Opinion as to Usages, Tenets, etc., When Relevant

जब न्यायालय को निम्नलिखित बातों पर राय बनानी हो, तो उन व्यक्तियों की राय प्रासंगिक होती है, जिन्हें उन विषयों का विशेष ज्ञान या अनुभव हो:

(i) किसी समूह या परिवार की परंपराएं (usages) और सिद्धांत (tenets),
(ii) किसी धार्मिक या चैरिटेबल संस्था की संरचना और प्रशासन (governance),
(iii) किसी विशेष क्षेत्र या समुदाय द्वारा उपयोग किए जाने वाले शब्दों या शब्दों के अर्थ

 महत्त्वपूर्ण बात:
ऐसे मामलों में, सिर्फ विशेषज्ञों की राय ही नहीं, बल्कि उन लोगों की राय भी प्रासंगिक होती है, जो उन परंपराओं, संस्थाओं या शब्दों के व्यवहारिक उपयोग से परिचित हैं।

उदाहरण के लिए:
किसी मंदिर के संचालन से संबंधित परंपरा को समझने के लिए उस मंदिर से जुड़े पुरोहितों या ट्रस्टियों की राय अदालत में मान्य हो सकती है।

निष्कर्ष:
जहाँ संस्कृति, भाषा, परंपरा या धार्मिक संस्थाओं की बात हो, वहाँ विशेष जानकारी रखने वाले व्यक्तियों की राय अदालत में कानूनी दृष्टि से प्रासंगिक होती है।

 

धारा 44 – संबंधों पर राय कब प्रासंगिक होती है
Section 44 – Opinion on Relationship, When Relevant

जब न्यायालय को यह तय करना हो कि एक व्यक्ति का दूसरे से क्या संबंध है, तब ऐसे व्यक्ति की राय, जिसने परिवार के सदस्य के रूप में या किसी अन्य विशेष माध्यम से उस संबंध की जानकारी प्राप्त की हो, और जो अपने व्यवहार से उस संबंध को स्वीकार करता हो, प्रासंगिक मानी जाती है

 परंतु – यह राय सिर्फ विवाह को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं होगी यदि मामला निम्नलिखित में से हो:

Divorce Act, 1869 के तहत कोई कार्यवाही हो, या

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 82 या 84 के तहत कोई आपराधिक मामला चल रहा हो।

 उदाहरण:
(a) प्रश्न है कि क्या A और B ने विवाह किया था — यदि उनके मित्रों और समाज ने उन्हें हमेशा पति-पत्नी की तरह माना और व्यवहार किया, तो यह एक प्रासंगिक तथ्य होगा।

(b) प्रश्न है कि क्या A, B का वैध पुत्र था — यदि A को हमेशा परिवार में B का पुत्र माना गया और ऐसा व्यवहार किया गया, तो यह तथ्य भी प्रासंगिक होगा।

सरल शब्दों में:
यदि किसी व्यक्ति को किसी संबंध के बारे में विशेष जानकारी है, और वह अपने व्यवहार या आचरण से उस संबंध को स्वीकार करता है, तो उसकी राय अदालत में कानूनी रूप से महत्वपूर्ण होती है, परंतु विवाह सिद्ध करने के लिए अकेले पर्याप्त नहीं होती

 

धारा 45 – किसी राय का आधार कब प्रासंगिक होता है
Section 45 – Grounds of Opinion, When Relevant

जब किसी जीवित व्यक्ति की राय (opinion) अदालत में प्रासंगिक मानी जाती है, तब उस राय के पीछे का आधार या कारण भी प्रासंगिक होता है

उदाहरण के तौर पर, यदि कोई विशेषज्ञ (Expert) अदालत में कोई राय देता है, तो वह यह भी बता सकता है कि उसने कौन-कौन से परीक्षण या प्रयोग किए जिनके आधार पर उसने वह राय बनाई।

 महत्वपूर्ण बात:
सिर्फ राय देना पर्याप्त नहीं है, बल्कि यह बताना भी आवश्यक होता है कि वह राय किन कारणों, तथ्यों या प्रयोगों पर आधारित है।

 दृष्टांत:
एक विशेषज्ञ यह बता सकता है कि उसने राय बनाने के लिए कौन-से प्रयोग किए और उन प्रयोगों का क्या परिणाम निकला।

निष्कर्ष: अदालत में राय के साथ-साथ उसका तार्किक या वैज्ञानिक आधार भी स्वीकार्य होता है, ताकि न्यायालय उस राय की प्रामाणिकता और उपयुक्तता की जांच कर सके।

 

धारा 46 – दीवानी मामलों में किसी व्यक्ति के चरित्र द्वारा उस पर आरोपित आचरण को सिद्ध करना अप्रासंगिक है
Section 46 – In Civil Cases, Character to Prove Conduct Imputed, Irrelevant

 नियम:
दीवानी मामलों (civil cases) में यदि किसी व्यक्ति पर किसी विशेष आचरण (conduct) का आरोप लगाया गया है, तो केवल यह तथ्य कि उस व्यक्ति का चरित्र ऐसा है जिससे वह आचरण संभावित या असंभावित लगता है, अदालत में प्रासंगिक नहीं माना जाएगा

मतलब यह कि:
आप किसी व्यक्ति के अच्छे या बुरे चरित्र का हवाला देकर यह साबित नहीं कर सकते कि उसने कथित आचरण किया या नहीं — जब तक कि वह चरित्र किसी अन्य रूप से पहले से प्रासंगिक न हो

उदाहरण के रूप में समझें:
यदि A पर किसी अनुबंध का उल्लंघन करने का आरोप है, तो यह तर्क कि A का चरित्र बहुत ईमानदार है और वह ऐसा नहीं कर सकता, प्रासंगिक नहीं होगा, जब तक कि वह ईमानदारी किसी अन्य प्रासंगिक तथ्य से जुड़ी न हो।

निष्कर्ष:
दीवानी मामलों में व्यक्ति के चरित्र का उपयोग यह साबित करने के लिए नहीं किया जा सकता कि उसने कोई कार्य किया या नहीं, जब तक कि वह चरित्र किसी और वैध साक्ष्य से स्पष्ट न हो

धारा 47 – आपराधिक मामलों में आरोपी का पूर्व का अच्छा चरित्र प्रासंगिक है
Section 47 – In Criminal Cases, Previous Good Character Relevant

 नियम:
आपराधिक कार्यवाही में, यह तथ्य कि आरोपी व्यक्ति का चरित्र अच्छा है, प्रासंगिक (relevant) होता है।

मतलब यह कि:
यदि किसी व्यक्ति पर अपराध का आरोप है, तो वह यह सिद्ध कर सकता है कि उसका पूर्व चरित्र अच्छा रहा है, और यह तथ्य अदालत सुनवाई में विचार कर सकती है

इसका उद्देश्य:
किसी पहली बार आरोपी बने व्यक्ति को न्याय में सहायता देना और यह दिखाना कि वह अपराध करने की प्रवृत्ति वाला व्यक्ति नहीं है।

 न्यायिक दृष्टिकोण से:
हालाँकि अच्छे चरित्र का होना अपराध न करने का पूर्ण प्रमाण नहीं होता, लेकिन यह एक सहायक परिस्थिति हो सकती है, जो आरोपी के पक्ष में जाती है।

निष्कर्ष:
आपराधिक मामलों में आरोपी का अच्छा चरित्र एक प्रासंगिक तथ्य होता है, जिससे अदालत को यह अनुमान लगाने में मदद मिलती है कि आरोपी ने अपराध किया होगा या नहीं।

धारा 48 – कुछ मामलों में पीड़िता के चरित्र या पूर्व यौन अनुभव का साक्ष्य अप्रासंगिक है
Section 48 – Evidence of Character or Previous Sexual Experience Not Relevant in Certain Cases

 नियम:
जब किसी व्यक्ति पर भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 64 से 78 (या इन अपराधों के प्रयास) के अंतर्गत मुकदमा चल रहा हो और सहमति (Consent) विवाद का विषय हो, तो:

🔴 पीड़िता के चरित्र या
🔴 उसके किसी भी व्यक्ति के साथ पूर्व यौन अनुभव का साक्ष्य
सहमति या उसकी गुणवत्ता सिद्ध करने के लिए प्रासंगिक नहीं माना जाएगा।

 इसका मतलब:
अगर किसी बलात्कार, यौन उत्पीड़न या संबंधित अपराध के मामले में यह प्रश्न उठता है कि पीड़िता ने सहमति दी थी या नहीं, तो अभियुक्त यह साक्ष्य नहीं दे सकता कि पीड़िता का चरित्र “खराब” था या उसने पहले किसी और के साथ यौन संबंध बनाए थे।

 कानूनी उद्देश्य:

पीड़िता की गरिमा की रक्षा करना

विचारणीय मुद्दे से भटकाव को रोकना

न्याय को सिर्फ घटना विशेष की सहमति या असहमति पर केंद्रित रखना

निष्कर्ष:
पीड़िता का चरित्र या पूर्व यौन अनुभव यह तय करने के लिए महत्वपूर्ण नहीं है कि उसने उस विशेष अवसर पर सहमति दी थी या नहीं। यह साक्ष्य अदालत में स्वीकार नहीं किया जाएगा।

 

धारा 49 – आपराधिक मामलों में पूर्व में खराब चरित्र अप्रासंगिक है, सिवाय प्रतुत्तर में
Section 49 – Previous Bad Character Not Relevant, Except in Reply

 मुख्य नियम:
किसी आपराधिक मुकदमे में यह तथ्य कि अभियुक्त (Accused) का चरित्र खराब है, प्रासंगिक नहीं होता
जब तक कि अभियुक्त स्वयं यह प्रमाण न दे कि उसका चरित्र अच्छा है।

यदि अभियुक्त अपने अच्छे चरित्र का साक्ष्य प्रस्तुत करता है,
तब अभियोजन (Prosecution) यह दिखाने के लिए कि यह दावा झूठा है, उसके खराब चरित्र का साक्ष्य प्रस्तुत कर सकता है।

 स्पष्टीकरण 1:
यह धारा उन मामलों पर लागू नहीं होती, जहां किसी व्यक्ति का खराब चरित्र ही मुख्य मुद्दा (Fact in Issue) हो, जैसे—अगर किसी पर चरित्र आधारित अपराध का आरोप है।

 स्पष्टीकरण 2:
किसी पहले के दोषसिद्धि (Conviction) का तथ्य, अभियुक्त के खराब चरित्र का साक्ष्य माना जा सकता है।

 उदाहरण:

यदि अभियुक्त कहता है कि वह एक प्रतिष्ठित व्यक्ति है और कभी अपराध नहीं किया, तो अभियोजन उसका पिछला दोषसिद्धि रिकॉर्ड दिखाकर यह साबित कर सकता है कि उसका चरित्र अच्छा नहीं है।

 निष्कर्ष:
अभियुक्त के खराब चरित्र का साक्ष्य तब तक अप्रासंगिक है जब तक वह स्वयं अपने अच्छे चरित्र की दलील न दे।
लेकिन यदि उसका चरित्र मुकदमे का मुख्य विषय है, या पहले की सजा का प्रमाण है, तो यह साक्ष्य प्रासंगिक माना जाएगा।

धारा 50 – हर्जाने (Damages) की राशि को प्रभावित करने वाले चरित्र की प्रासंगिकता
Section 50 – Character as Affecting Damages

 नागरिक मामलों (Civil Cases) में, यदि किसी व्यक्ति का चरित्र ऐसा है कि वह उसे मिलने वाले हर्जाने (damages) की राशि को प्रभावित करता है, तो वह चरित्र एक प्रासंगिक तथ्य है।

उदाहरण के रूप में, यदि कोई व्यक्ति अपने अच्छे चरित्र के कारण समाज में प्रतिष्ठित है, तो उसके साथ की गई मानहानि के लिए उसे अधिक हर्जाना मिल सकता है।
यदि उसका चरित्र पहले से ही विवादित या खराब है, तो उसे कम हर्जाना मिल सकता है क्योंकि उसकी प्रतिष्ठा पहले से ही प्रभावित थी।

 स्पष्टीकरण:
इस धारा और धारा 46, 47 व 49 में “चरित्र” शब्द में दोनों शामिल हैं —
Reputation (यानी समाज में प्रतिष्ठा)
Disposition (यानी आचरण या स्वभाव)

लेकिन धारा 49 को छोड़कर, केवल किसी व्यक्ति के सामान्य चरित्र या स्वभाव (General reputation or disposition) का ही साक्ष्य दिया जा सकता है।
किसी विशेष घटना या कार्य (Particular act) द्वारा यह चरित्र कैसे प्रदर्शित हुआ — इसका साक्ष्य नहीं दिया जा सकता।

 निष्कर्ष:
जब किसी व्यक्ति के चरित्र का प्रभाव हर्जाने की राशि पर पड़ता है, तो वह चरित्र प्रासंगिक होता है।
लेकिन केवल सामान्य चरित्र का प्रमाण स्वीकार्य होता है, विशेष घटनाओं का नहीं।

 

धारा 51 – जिन तथ्यों की न्यायालय स्वयं न्यायिक संज्ञान लेता है, उनका प्रमाण देना आवश्यक नहीं
Section 51 – Fact Judicially Noticeable Need Not Be Proved

 यदि कोई ऐसा तथ्य है जिसे न्यायालय (Court) स्वयं न्यायिक संज्ञान (Judicial Notice) के रूप में स्वीकार करता है, तो ऐसे तथ्य का प्रमाण (evidence) देना आवश्यक नहीं होता

मतलब यह कि कुछ सामान्य या सार्वजनिक रूप से ज्ञात बातें, जिनकी सत्यता पर संदेह नहीं किया जा सकता, उन्हें साबित करने की ज़रूरत नहीं होती।

 उदाहरण:

भारत का स्वतंत्र राष्ट्र होना,

दिल्ली भारत की राजधानी है,

संवैधानिक पदों की अधिसूचना,

सूर्य पूर्व से उगता है — इन बातों को साबित करने की आवश्यकता नहीं है।

निष्कर्ष:
ऐसे तथ्य जिनका न्यायालय स्वतः संज्ञान लेता है, उनका कोई साक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं होती, क्योंकि उन्हें पहले से ही ज्ञात और विश्वसनीय माना जाता है।

 

धारा 52 – वे तथ्य जिनका न्यायालय न्यायिक संज्ञान लेगा
Section 52 – Facts of which Court Shall Take Judicial Notice

इस धारा के अनुसार, न्यायालय को कुछ विशेष तथ्यों का स्वयं संज्ञान लेना अनिवार्य है, अर्थात् उन्हें बिना किसी प्रमाण के सत्य मान लिया जाएगा।

(1) न्यायालय निम्नलिखित तथ्यों का न्यायिक संज्ञान लेगा:

 (a) भारत में लागू सभी विधियों का, चाहे उनका क्षेत्राधिकार भारत के बाहर भी क्यों न हो।
 (b) भारत द्वारा किसी देश के साथ किए गए अंतरराष्ट्रीय संधि, समझौते, निर्णय आदि।
 (c) संविधान सभा, संसद और राज्य विधानमंडलों की कार्यवाही की प्रक्रिया।
 (d) सभी न्यायालयों और अधिकरणों की मुहरें (seals)।
 (e) समुद्री क्षेत्राधिकार, नोटरी पब्लिक आदि की आधिकारिक मुहरें, या जिन्हें संविधान, अधिनियम या नियमों द्वारा अधिकृत किया गया हो।
 (f) किसी राज्य में सार्वजनिक पदों पर नियुक्त व्यक्तियों के नाम, पद, हस्ताक्षर, यदि यह जानकारी सरकारी राजपत्र (Official Gazette) में प्रकाशित हो।
 (g) भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हर देश की सत्ता, शीर्षक और राष्ट्रीय ध्वज।
 (h) समय विभाजन, भौगोलिक क्षेत्र, सार्वजनिक त्योहार, उपवास और राजपत्र में घोषित छुट्टियाँ।
 (i) भारत की क्षेत्रीय सीमा।
 (j) भारत सरकार और किसी अन्य देश या समूह के बीच युद्ध की शुरुआत, चलना और समाप्ति।
 (k) न्यायालय के सदस्यों, अधिकारियों, अधिवक्ताओं और उनके सहायकों के नाम व पद।
 (l) सड़क और समुद्र पर प्रचलित यातायात नियम।

(2) अन्य सहायक प्रावधान:

उपर्युक्त तथ्यों के अतिरिक्त, सार्वजनिक इतिहास, साहित्य, विज्ञान या कला जैसे मामलों में भी, न्यायालय उचित पुस्तकों या दस्तावेजों की सहायता ले सकता है।
यदि कोई व्यक्ति न्यायालय से कहे कि वह किसी तथ्य का न्यायिक संज्ञान ले, तो न्यायालय उस व्यक्ति से उचित प्रमाण स्वरूप किताब या दस्तावेज पेश करने को कह सकता है

निष्कर्ष:
यह धारा उन तथ्यों की सूची देती है जिनका न्यायालय को स्वतः संज्ञान लेना होता है। इन तथ्यों को साबित करने की आवश्यकता नहीं होती, परंतु यदि कोई अन्य तथ्य न्यायिक संज्ञान के लिए प्रस्तुत किया जाए, तो न्यायालय उचित प्रमाण मांग सकता है।

धारा 52 – वे तथ्य जिनका न्यायालय न्यायिक संज्ञान लेगा
Section 52 – Facts of which Court Shall Take Judicial Notice

इस धारा के अनुसार, न्यायालय को कुछ विशेष तथ्यों का स्वयं संज्ञान लेना अनिवार्य है, अर्थात् उन्हें बिना किसी प्रमाण के सत्य मान लिया जाएगा।

(1) न्यायालय निम्नलिखित तथ्यों का न्यायिक संज्ञान लेगा:

 (a) भारत में लागू सभी विधियों का, चाहे उनका क्षेत्राधिकार भारत के बाहर भी क्यों न हो।
 (b) भारत द्वारा किसी देश के साथ किए गए अंतरराष्ट्रीय संधि, समझौते, निर्णय आदि।
 (c) संविधान सभा, संसद और राज्य विधानमंडलों की कार्यवाही की प्रक्रिया।
 (d) सभी न्यायालयों और अधिकरणों की मुहरें (seals)।
 (e) समुद्री क्षेत्राधिकार, नोटरी पब्लिक आदि की आधिकारिक मुहरें, या जिन्हें संविधान, अधिनियम या नियमों द्वारा अधिकृत किया गया हो।
 (f) किसी राज्य में सार्वजनिक पदों पर नियुक्त व्यक्तियों के नाम, पद, हस्ताक्षर, यदि यह जानकारी सरकारी राजपत्र (Official Gazette) में प्रकाशित हो।
 (g) भारत सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हर देश की सत्ता, शीर्षक और राष्ट्रीय ध्वज।
 (h) समय विभाजन, भौगोलिक क्षेत्र, सार्वजनिक त्योहार, उपवास और राजपत्र में घोषित छुट्टियाँ।
 (i) भारत की क्षेत्रीय सीमा।
 (j) भारत सरकार और किसी अन्य देश या समूह के बीच युद्ध की शुरुआत, चलना और समाप्ति।
 (k) न्यायालय के सदस्यों, अधिकारियों, अधिवक्ताओं और उनके सहायकों के नाम व पद।
 (l) सड़क और समुद्र पर प्रचलित यातायात नियम।

(2) अन्य सहायक प्रावधान:

उपर्युक्त तथ्यों के अतिरिक्त, सार्वजनिक इतिहास, साहित्य, विज्ञान या कला जैसे मामलों में भी, न्यायालय उचित पुस्तकों या दस्तावेजों की सहायता ले सकता है।
यदि कोई व्यक्ति न्यायालय से कहे कि वह किसी तथ्य का न्यायिक संज्ञान ले, तो न्यायालय उस व्यक्ति से उचित प्रमाण स्वरूप किताब या दस्तावेज पेश करने को कह सकता है

निष्कर्ष:
यह धारा उन तथ्यों की सूची देती है जिनका न्यायालय को स्वतः संज्ञान लेना होता है। इन तथ्यों को साबित करने की आवश्यकता नहीं होती, परंतु यदि कोई अन्य तथ्य न्यायिक संज्ञान के लिए प्रस्तुत किया जाए, तो न्यायालय उचित प्रमाण मांग सकता है।

 

धारा 53 – जिन तथ्यों को स्वीकार कर लिया गया हो, उन्हें सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं होती
Section 53 – Facts Admitted Need Not Be Proved

इस धारा के अनुसार, यदि किसी कार्यवाही में कोई तथ्य पक्षकारों (parties) या उनके अभिकर्ताओं (agents) द्वारा स्वीकार कर लिया गया हो, तो उसे सिद्ध (prove) करने की आवश्यकता नहीं होती।

मुख्य बिंदु:

 यदि पक्षकार या उनके एजेंट सुनवाई के समय किसी तथ्य को स्वीकार कर लें,
या
 सुनवाई से पहले किसी लिखित दस्तावेज़ में हस्ताक्षर करके उस तथ्य को स्वीकार कर लें,
या
 प्रचलित प्लीडिंग नियमों के अनुसार किसी तथ्य को उनकी दलीलों (pleadings) द्वारा माना गया हो —

 तो ऐसे स्वीकृत तथ्य को प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती।

परंतु:

न्यायालय अपने विवेक से यह निर्देश दे सकता है कि कोई भी स्वीकृत तथ्य अन्य किसी रूप में भी प्रमाणित किया जाए।

 निष्कर्ष:
अगर कोई तथ्य अदालत में या अदालत से पहले स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लिया गया है, तो आम तौर पर उसे साबित करने की ज़रूरत नहीं होती, लेकिन न्यायालय चाहें तो उसे प्रमाणित करवाने का आदेश दे सकते हैं

 

धारा 54 – मौखिक साक्ष्य द्वारा तथ्यों का प्रमाण
Section 54 – Proof of Facts by Oral Evidence

इस धारा के अनुसार, दस्तावेज़ों की सामग्री को छोड़कर, सभी तथ्य मौखिक साक्ष्य (oral evidence) के माध्यम से सिद्ध किए जा सकते हैं।

 मुख्य बिंदु:

केवल दस्तावेज़ की विषयवस्तु (contents) को छोड़कर,

बाकी सभी तथ्यों को गवाहों के कथनों, यानी मौखिक रूप से प्रस्तुत साक्ष्य के माध्यम से प्रमाणित किया जा सकता है।

उदाहरण:
अगर यह प्रश्न है कि कोई घटना वास्तव में हुई या नहीं, तो उसे वहाँ उपस्थित व्यक्ति की मौखिक गवाही से साबित किया जा सकता है। लेकिन अगर कोई दस्तावेज़ है, तो उसकी सामग्री मौखिक साक्ष्य से नहीं बल्कि दस्तावेज़ द्वारा ही साबित की जाएगी।

 निष्कर्ष:
मौखिक साक्ष्य सभी प्रकार के तथ्यों को सिद्ध करने के लिए मान्य है, सिवाय दस्तावेज़ों की सामग्री के, जिन्हें दस्तावेज़ के माध्यम से ही सिद्ध करना आवश्यक होता है।

धारा 55 – मौखिक साक्ष्य प्रत्यक्ष होना चाहिए
Section 55 – Oral Evidence to be Direct

इस धारा के अनुसार, मौखिक साक्ष्य हर स्थिति में प्रत्यक्ष (Direct) होना चाहिए। इसका अर्थ है कि जो गवाह साक्ष्य दे रहा है, उसने स्वयं उस तथ्य को देखा, सुना या अनुभव किया हो।

 प्रत्यक्ष मौखिक साक्ष्य के प्रकार:

अगर तथ्य देखने योग्य है, तो गवाह वही होना चाहिए जिसने खुद देखा हो।

अगर तथ्य सुनने योग्य है, तो गवाह वही होना चाहिए जिसने खुद सुना हो।

अगर तथ्य किसी अन्य इंद्रिय (जैसे गंध, स्पर्श आदि) द्वारा अनुभव किया जा सकता है, तो गवाह वही होना चाहिए जिसने उसे वैसे ही अनुभव किया हो।

अगर कोई राय या उसका आधार साक्ष्य में है, तो वही व्यक्ति गवाही दे सकता है जो वह राय रखता है और उसके आधार जानता है।

 विशेष प्रावधान:

यदि कोई विशेषज्ञ (Expert) किसी विषय पर अपने विचार किसी प्रसिद्ध पुस्तक (Treatise) में प्रकट करता है और:

लेखक मर चुका हो, या

उपलब्ध न हो, या

गवाही देने में अक्षम हो, या

उसे बुलाना अत्यधिक समय या खर्च वाला हो,
तो ऐसी पुस्तक के माध्यम से भी उसका मत साक्ष्य रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।

यदि मौखिक साक्ष्य किसी भौतिक वस्तु (material thing, लेकिन दस्तावेज़ नहीं) की स्थिति या अस्तित्व से संबंधित है, तो न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि वह वस्तु न्यायालय में प्रस्तुत की जाए ताकि उसका निरीक्षण किया जा सके।

 निष्कर्ष:
मौखिक साक्ष्य केवल वही व्यक्ति दे सकता है जिसने उस तथ्य को स्वयं अनुभव किया होसुनी-सुनाई बातें (hearsay) इस धारा के अंतर्गत स्वीकार्य नहीं होती। केवल अपवाद के रूप में, विशेषज्ञों की पुस्तकें और भौतिक वस्तु का निरीक्षण अनुमत है।

धारा 56 – दस्तावेज़ की विषयवस्तु का प्रमाण
Section 56 – Proof of Contents of Documents

 इस धारा के अनुसार, किसी दस्तावेज़ (Document) की विषयवस्तु या सामग्री को साबित (Prove) करने के लिए दो प्रकार के साक्ष्य दिए जा सकते हैं:

प्राथमिक साक्ष्य (Primary Evidence)
यह दस्तावेज़ का मूल (Original) रूप होता है, जैसे मूल दस्तावेज़ स्वयं।

द्वितीयक साक्ष्य (Secondary Evidence)
यह दस्तावेज़ की प्रमाणित प्रतिलिपि (Certified Copy), फोटोस्टेट, इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड, या अन्य विधिसम्मत रूप होता है, जो तब स्वीकार्य होता है जब प्राथमिक साक्ष्य उपलब्ध न हो और यह न्यायालय द्वारा अनुमत हो।

निष्कर्ष:
कोई भी दस्तावेज़ कोर्ट में केवल उसकी सामग्री के प्रमाण द्वारा ही स्वीकार किया जाता है, और यह प्रमाण या तो मूल दस्तावेज़ से या विधिसम्मत द्वितीयक साक्ष्य से दिया जा सकता है।

 

धारा 57 – प्राथमिक साक्ष्य
Section 57 – Primary Evidence

 प्राथमिक साक्ष्य का अर्थ है:
ऐसा साक्ष्य जिसमें मूल दस्तावेज़ (Original Document) को न्यायालय में निरीक्षण हेतु प्रस्तुत किया जाए।

स्पष्टीकरण:

एकाधिक भागों में निष्पादित दस्तावेज़:
यदि कोई दस्तावेज़ कई भागों में बनाया गया है, तो प्रत्येक भाग उस दस्तावेज़ का प्राथमिक साक्ष्य माना जाएगा।

कॉउंटरपार्ट (Counterpart) दस्तावेज़:
यदि कोई दस्तावेज़ केवल कुछ पक्षकारों द्वारा अलग-अलग हिस्सों (कॉपी) में निष्पादित किया गया है, तो वह हिस्सा उन पक्षों के विरुद्ध प्राथमिक साक्ष्य होगा।

एक समान प्रक्रिया से बने दस्तावेज़:
जैसे प्रिंटिंग, लिथोग्राफी या फोटोग्राफी से बने दस्तावेज़ – ये सभी एक-दूसरे की विषयवस्तु के प्राथमिक साक्ष्य माने जाएंगे। लेकिन यदि वे सभी एक ही मूल प्रति की प्रतिलिपियाँ हैं, तो वे मूल प्रति के लिए प्राथमिक साक्ष्य नहीं मानी जाएंगी।

इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड की एक से अधिक फाइलों में भंडारण:
यदि कोई रिकॉर्ड एक साथ या क्रमशः कई फाइलों में संग्रहित किया गया है, तो प्रत्येक फाइल प्राथमिक साक्ष्य होगी।

सही हिरासत (Proper Custody) से प्राप्त डिजिटल रिकॉर्ड:
यदि कोई इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड सही हिरासत से लाया गया है और उसे चुनौती नहीं दी गई है, तो वह प्राथमिक साक्ष्य होगा।

वीडियो रिकॉर्डिंग:
यदि कोई वीडियो रिकॉर्डिंग एक साथ संग्रहीत और प्रसारित/स्थानांतरित की गई हो, तो प्रत्येक स्टोर की गई प्रति प्राथमिक साक्ष्य होगी।

कंप्यूटर संसाधन में अलग-अलग स्टोरेज स्थानों पर संग्रहण:
कंप्यूटर में एक ही रिकॉर्ड यदि अलग-अलग स्थानों या टेम्पररी फाइल्स में संग्रहित है, तो वे सभी प्राथमिक साक्ष्य मानी जाएंगी।

 उदाहरण:
यदि एक व्यक्ति के पास कई प्लेकार्ड्स हैं जो एक ही मूल से एक साथ छापे गए थे, तो कोई भी प्लेकार्ड दूसरे के लिए प्राथमिक साक्ष्य होगा। लेकिन ये प्लेकार्ड्स मूल प्रति के लिए प्राथमिक साक्ष्य नहीं होंगे।

निष्कर्ष:
प्राथमिक साक्ष्य का मतलब है मूल या मूल के समान स्तर का साक्ष्य, चाहे वह दस्तावेज़ हो या डिजिटल रिकॉर्ड — जो सीधे न्यायालय के सामने प्रस्तुत किया जा सकता है।

धारा 58 – द्वितीयक साक्ष्य
Section 58 – Secondary Evidence

 द्वितीयक साक्ष्य उन स्थितियों में मान्य होता है जब मूल दस्तावेज़ न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। ऐसे मामलों में निम्नलिखित प्रकार के साक्ष्य को द्वितीयक साक्ष्य माना जाता है:

(i) विधि अनुसार दी गई प्रमाणित प्रतियां (Certified Copies)
(ii) यांत्रिक विधियों (जैसे फोटोकॉपी, स्कैनिंग) से बनाई गई प्रतियां, जो स्वयं में सटीकता सुनिश्चित करती हैं, और उनसे मिलाई गई प्रतियां
(iii) मूल दस्तावेज़ से बनाई गई प्रतियां, या मूल से मिलाई गई प्रतियां
(iv) किसी दस्तावेज़ के कॉउंटरपार्ट्स उन पक्षों के विरुद्ध जिनसे वह निष्पादित नहीं किया गया
(v) उस व्यक्ति द्वारा मौखिक विवरण जो स्वयं ने मूल दस्तावेज़ देखा हो
(vi) मौखिक स्वीकारोक्ति (oral admissions)
(vii) लिखित स्वीकारोक्ति (written admissions)
(viii) जब मूल दस्तावेज़ बहुत अधिक और जटिल हों जिन्हें न्यायालय में देखना कठिन हो, तो किसी विशेषज्ञ व्यक्ति द्वारा उसका परीक्षण कर दी गई गवाही

 

 उदाहरण:
(a) यदि किसी वस्तु की तस्वीर खींची गई और यह सिद्ध हो जाए कि वह वस्तु ही मूल थी, तो वह फ़ोटो उसका द्वितीयक साक्ष्य होगी, भले ही तस्वीर की तुलना मूल से न हुई हो।
(b) किसी पत्र की मशीन से बनाई गई कॉपी से बनाई गई दूसरी कॉपी, यदि वह पहली कॉपी मूल से बनाई गई थी, तो दूसरी कॉपी भी द्वितीयक साक्ष्य होगी।
(c) कोई प्रतिलिपि जो किसी दूसरी कॉपी से बनाई गई और बाद में मूल से मिलाई गई हो, द्वितीयक साक्ष्य मानी जाएगी। लेकिन यदि वह मूल से न मिलाई गई हो, तो वह द्वितीयक साक्ष्य नहीं मानी जाएगी, चाहे जिससे बनाई गई कॉपी मूल से मिलाई गई हो।
(d) किसी कॉपी या फ़ोटो का मौखिक विवरण देना, द्वितीयक साक्ष्य नहीं माना जाएगा।

निष्कर्ष:
द्वितीयक साक्ष्य का प्रयोग तब किया जाता है जब प्राथमिक साक्ष्य (मूल दस्तावेज़) उपलब्ध नहीं होता। लेकिन यह तभी स्वीकार्य होगा जब इसे सही तरीके से सिद्ध किया जाए और उसमें उचित विश्वसनीयता हो।

 

धारा 59 – दस्तावेजों का प्राथमिक साक्ष्य द्वारा प्रमाणन
Section 59 – Proof of Documents by Primary Evidence

 नियम:
हर दस्तावेज़ को सिद्ध (prove) करने के लिए प्राथमिक साक्ष्य (Primary Evidence) का ही उपयोग किया जाएगा,
जब तक कि आगे की धाराओं में कुछ और न कहा गया हो।

इसका मतलब है कि यदि आप किसी दस्तावेज़ की सच्चाई को अदालत में प्रमाणित करना चाहते हैं, तो आपको उस दस्तावेज़ का मूल (original) प्रस्तुत करना होगा।

केवल उन्हीं मामलों में द्वितीयक साक्ष्य (Secondary Evidence) का प्रयोग किया जा सकता है, जहां आगे की धाराओं में उसकी अनुमति दी गई हो, जैसे धारा 58 आदि।

निष्कर्ष:
मूल दस्तावेज़ ही प्रमाण का प्राथमिक साधन होता है, और जब तक कोई विशेष अपवाद न हो, अदालत को वही दिखाना आवश्यक है।

धारा 59 – दस्तावेजों का प्राथमिक साक्ष्य द्वारा प्रमाणन
Section 59 – Proof of Documents by Primary Evidence

 नियम:
हर दस्तावेज़ को सिद्ध (prove) करने के लिए प्राथमिक साक्ष्य (Primary Evidence) का ही उपयोग किया जाएगा,
जब तक कि आगे की धाराओं में कुछ और न कहा गया हो।

इसका मतलब है कि यदि आप किसी दस्तावेज़ की सच्चाई को अदालत में प्रमाणित करना चाहते हैं, तो आपको उस दस्तावेज़ का मूल (original) प्रस्तुत करना होगा।

केवल उन्हीं मामलों में द्वितीयक साक्ष्य (Secondary Evidence) का प्रयोग किया जा सकता है, जहां आगे की धाराओं में उसकी अनुमति दी गई हो, जैसे धारा 58 आदि।

निष्कर्ष:
मूल दस्तावेज़ ही प्रमाण का प्राथमिक साधन होता है, और जब तक कोई विशेष अपवाद न हो, अदालत को वही दिखाना आवश्यक है।

 

धारा 60 – जिन मामलों में दस्तावेज़ से संबंधित द्वितीयक साक्ष्य (Secondary Evidence) दिया जा सकता है
Section 60 – Cases in which Secondary Evidence relating to Documents may be given

 नियम:
किसी दस्तावेज़ के अस्तित्व, स्थिति या सामग्री को साबित करने के लिए द्वितीयक साक्ष्य इन विशेष परिस्थितियों में स्वीकार्य होता है:

(a) जब मूल दस्तावेज़ उन लोगों के पास हो जिनसे प्राप्त करना कठिन है:

(i) जिसके विरुद्ध दस्तावेज़ सिद्ध करना है,

(ii) जो अदालत की पहुँच से बाहर है,

(iii) जो कानूनी रूप से दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के लिए बाध्य है,
और धारा 64 के अंतर्गत नोटिस देने के बाद भी दस्तावेज़ प्रस्तुत न किया गया हो।

(b) जब मूल दस्तावेज़ का लिखित में अस्तित्व, स्थिति या सामग्री स्वीकार कर ली गई हो।

(c) जब मूल दस्तावेज़ नष्ट हो गया हो या गुम हो गया हो, या वैध कारणों से समय पर प्रस्तुत न किया जा सके (बशर्ते कि यह गलती या लापरवाही से न हो)।

(d) जब मूल दस्तावेज़ ऐसा हो जिसे आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाया न जा सके।

(e) जब मूल दस्तावेज़ एक सार्वजनिक दस्तावेज़ हो (धारा 74 के अनुसार)।

(f) जब मूल दस्तावेज़ ऐसा हो जिसकी प्रमाणित प्रति साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य हो, इस अधिनियम या भारत में लागू किसी अन्य कानून के अंतर्गत।

(g) जब मूल दस्तावेज़ों की संख्या बहुत अधिक हो (जैसे कई खाते या कागज़ात) जिन्हें अदालत में जाँचना मुश्किल हो, और सिद्ध करने योग्य तथ्य सभी दस्तावेज़ों का सामूहिक परिणाम हो।

 स्पष्टीकरण:

(i) उपधारा (a), (c), (d): दस्तावेज़ की कोई भी द्वितीयक साक्ष्य स्वीकार्य होगी।

(ii) उपधारा (b): लिखित स्वीकृति ही साक्ष्य मानी जाएगी।

(iii) उपधारा (e), (f): केवल प्रमाणित प्रति (Certified Copy) स्वीकार्य होगी।

(iv) उपधारा (g): जो व्यक्ति दस्तावेज़ों की जांच में कुशल हो, वह उनका सामान्य निष्कर्ष बताकर साक्ष्य दे सकता है।

निष्कर्ष:
कुछ विशेष परिस्थितियों में मूल दस्तावेज़ की अनुपस्थिति में द्वितीयक साक्ष्य मान्य होता है, लेकिन यह तभी संभव है जब कारण वैध हो और वह कानून द्वारा स्वीकृत हो।

धारा 61 – इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल अभिलेख
Section 61 – Electronic or Digital Record

 मुख्य बात:
इस अधिनियम में कोई भी प्रावधान इस आधार पर किसी इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड को साक्ष्य के रूप में अस्वीकार नहीं कर सकता कि वह केवल इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रूप में है।

 स्पष्टीकरण:

ऐसा रिकॉर्ड, धारा 63 के अधीन शर्तों के अधीन रहते हुए, अन्य दस्तावेज़ों की तरह ही वैधानिक प्रभाव, वैधता और प्रवर्तनीयता (enforceability) रखता है।

निष्कर्ष:
इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड को अन्य दस्तावेज़ों की तरह ही अदालत में मान्यता प्राप्त होती है, बशर्ते कि वह धारा 63 के नियमों का पालन करता हो।

 

धारा 62 – इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों से संबंधित साक्ष्य के लिए विशेष प्रावधान
Section 62 – Special Provisions as to Evidence Relating to Electronic Record

 मुख्य बात:
इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की सामग्री को सिद्ध करने (प्रमाणित करने) के लिए, धारा 63 में दिए गए प्रावधानों का पालन किया जाएगा।

निष्कर्ष:
जब किसी इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को अदालत में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तो उसकी वैधता को प्रमाणित करने के लिए केवल धारा 63 के नियमों का पालन करना आवश्यक होता है

धारा 63 – इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों की ग्राह्यता (Admissibility of Electronic Records)

 मुख्य बात:
यदि कोई सूचना इलेक्ट्रॉनिक रूप में (जैसे कंप्यूटर, मोबाइल, नेटवर्क आदि द्वारा) उत्पादित, संग्रहित, रिकॉर्ड या कॉपी की गई हो और यह कुछ शर्तों को पूरा करती हो, तो उसे दस्तावेज (document) माना जाएगा और अदालत में साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, बिना मूल रिकॉर्ड को पेश किए।

प्रमुख बिंदु (Simplified Explanation in Hindi):

(1) इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड से निकला हुआ कंप्यूटर आउटपुट (जैसे प्रिंटआउट, हार्ड डिस्क, पेन ड्राइव, क्लाउड, आदि) भी एक वैध दस्तावेज़ माना जाएगा अगर शर्तें पूरी हों

 (2) जरूरी शर्तें (Conditions):

कंप्यूटर/डिवाइस से निकले डेटा को साक्ष्य के रूप में मानने के लिए ये शर्तें जरूरी हैं:

(a) कंप्यूटर/डिवाइस का नियमित रूप से प्रयोग होता रहा हो।

(b) जानकारी नियमित रूप से उस डिवाइस में डाली जाती रही हो।

(c) कंप्यूटर उस समय तक सही तरीके से काम कर रहा हो, या खराबी ऐसी न हो जो डेटा की सटीकता को प्रभावित करे।

(d) जो जानकारी प्रस्तुत की जा रही है, वो उसी जानकारी से निकली हो जो नियमित रूप से उस कंप्यूटर में डाली गई थी।

(3) कई कंप्यूटरों के प्रयोग की स्थिति में:

यदि जानकारी एक ही समय में कई कंप्यूटरों, नेटवर्क या सर्वर पर बनाई या संग्रहित की गई हो, तो उन्हें एक ही कंप्यूटर/डिवाइस माना जाएगा।

 (4) प्रमाणपत्र की आवश्यकता (Mandatory Certificate):

जब अदालत में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड साक्ष्य के रूप में दिया जाता है, तब एक सर्टिफिकेट देना जरूरी होता है, जिसमें बताया जाए:

रिकॉर्ड की पहचान और निर्माण प्रक्रिया
उपयोग किए गए उपकरणों की जानकारी
उपरोक्त शर्तों के पालन की पुष्टि
यह प्रमाणपत्र संबंधित व्यक्ति या विशेषज्ञ द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए।

 (5) परिभाषाएं (Definitions):

किसी कंप्यूटर को जानकारी देना मतलब – जानकारी सीधे या उपकरणों के माध्यम से, मानव की सहायता से या बिना उसके।

कंप्यूटर आउटपुट – चाहे वह सीधे कंप्यूटर द्वारा उत्पन्न हो या किसी माध्यम से, मान्य होगा।

 निष्कर्ष:
इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड, अगर निश्चित शर्तों और प्रक्रिया का पालन करते हुए प्रस्तुत किया गया हो, तो कानूनी रूप से दस्तावेज के बराबर माना जाएगा और अदालत में प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, बशर्ते उपयुक्त प्रमाणपत्र साथ हो

धारा 64 – दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के लिए नोटिस देने के नियम
Section 64 – Rules as to Notice to Produce

 मुख्य बात:
जब कोई पक्ष किसी दस्तावेज़ की द्वितीयक साक्ष्य (secondary evidence) देना चाहता है (जैसे कि कॉपी या मौखिक विवरण), तो उसे पहले जिसके पास मूल दस्तावेज़ है, उसे उचित नोटिस देना अनिवार्य है, ताकि वह मूल दस्तावेज़ प्रस्तुत कर सके।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

सामान्य नियम:
धारा 60 के क्लॉज (a) में बताए गए मामलों में, द्वितीयक साक्ष्य तभी स्वीकार्य होगा जब संबंधित पक्ष ने उस व्यक्ति को पूर्व में नोटिस दिया हो, जिसके पास मूल दस्तावेज़ है (या उसके वकील/प्रतिनिधि को)।
अगर कानून में कोई विशेष नोटिस का प्रारूप नहीं बताया गया है, तो ऐसा नोटिस देना चाहिए जो अदालत को परिस्थिति अनुसार उचित लगे

 किन मामलों में नोटिस देना आवश्यक नहीं है (Notice नहीं देना पड़ेगा):

(a) जब जो दस्तावेज़ साबित किया जाना है, वही स्वयं एक नोटिस हो।

(b) जब केस की प्रकृति से स्पष्ट हो कि विपक्ष को पता है कि उससे वह दस्तावेज़ मांगा जाएगा।

(c) जब यह साबित हो जाए कि विपक्ष ने धोखे या ज़बरदस्ती से दस्तावेज़ अपने कब्जे में लिया है।

(d) जब मूल दस्तावेज़ पहले से ही अदालत में मौजूद हो।

(e) जब विपक्ष या उसका एजेंट खुद दस्तावेज़ खोने की बात स्वीकार कर ले।

(f) जब दस्तावेज़ रखने वाला व्यक्ति अदालत की प्रक्रिया के अधीन नहीं है या उसकी पहुँच से बाहर है।

 निष्कर्ष:
द्वितीयक साक्ष्य तभी मान्य होगा जब पहले से मूल दस्तावेज़ रखने वाले को उचित नोटिस दिया गया हो, लेकिन कुछ परिस्थितियों में कोर्ट नोटिस की आवश्यकता से छूट भी दे सकती है।

धारा 65 – किसी व्यक्ति द्वारा लिखे या हस्ताक्षरित दस्तावेज़ की लिखावट और हस्ताक्षर का प्रमाण
Section 65 – Proof of Signature and Handwriting of Person Alleged to Have Signed or Written Document Produced

 मुख्य बात:
यदि कोई दस्तावेज़ यह कहकर प्रस्तुत किया जाता है कि वह किसी विशेष व्यक्ति ने हस्ताक्षर किया है या लिखा है (पूरी तरह या कुछ हिस्सा), तो यह साबित करना अनिवार्य है कि उस दस्तावेज़ की लिखावट या हस्ताक्षर उसी व्यक्ति की है।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

जब कोई दस्तावेज़ किसी व्यक्ति से जोड़ा जा रहा हो, यह कहते हुए कि उसने उस पर हस्ताक्षर किया है या लिखा है, तो यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि वह हस्ताक्षर या लिखावट वास्तव में उसी व्यक्ति की है

यह प्रमाण गवाह, विशेषज्ञ की राय, तुलनात्मक विश्लेषण, आदि से दिया जा सकता है।

 निष्कर्ष:
कोर्ट में किसी दस्तावेज़ को मान्यता दिलाने के लिए, अगर वह किसी व्यक्ति से संबंधित हो, तो यह साबित करना अनिवार्य है कि वह दस्तावेज़ वास्तव में उसी व्यक्ति की लिखावट या हस्ताक्षर से जुड़ा है। अन्यथा, दस्तावेज़ को साक्ष्य के रूप में नहीं माना जाएगा।

धारा 66 – इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर का प्रमाण
Section 66 – Proof as to Electronic Signature

 मुख्य बात:
यदि किसी इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख (electronic record) पर यह दावा किया जाए कि वह किसी व्यक्ति (subscriber) के इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर (electronic signature) से प्रमाणित है, तो (सुरक्षित इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर को छोड़कर) यह साबित करना आवश्यक है कि वह हस्ताक्षर वास्तव में उसी व्यक्ति का है

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

जब किसी व्यक्ति के इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर को किसी दस्तावेज़ पर होने का दावा किया जाता है, तो यह प्रमाण देना अनिवार्य है कि वह हस्ताक्षर वास्तव में उसी व्यक्ति का है

यह नियम सिर्फ सुरक्षित इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर (Secure Electronic Signature) के मामलों पर लागू नहीं होता क्योंकि सुरक्षित हस्ताक्षर कानून द्वारा पहले से ही प्रमाणित माने जाते हैं।

 

 निष्कर्ष:
अगर कोई सामान्य (non-secure) इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर किसी रिकॉर्ड पर लगाया गया हो, तो सिर्फ दावा करना पर्याप्त नहीं हैउसे साबित करना पड़ेगा कि वह हस्ताक्षर वास्तव में उस व्यक्ति का है जिससे उसे जोड़ा जा रहा है।

धारा 67 – किसी ऐसे दस्तावेज़ के संपादन (execution) का प्रमाण, जिसे विधि द्वारा साक्षीकरण (attestation) की आवश्यकता हो
Section 67 – Proof of Execution of Document Required by Law to be Attested

 मुख्य बात:
अगर कोई दस्तावेज़ ऐसा है जिसे कानून द्वारा प्रमाणित साक्षियों (attesting witnesses) द्वारा सत्यापित (attested) किया जाना अनिवार्य है, तो उसे साक्ष्य के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता, जब तक कि कम से कम एक साक्षी को उसके संपादन को प्रमाणित करने के लिए पेश न किया जाए, बशर्ते वह साक्षी जीवित हो, कोर्ट की प्रक्रिया के अधीन हो और गवाही देने में सक्षम हो।

 अपवाद (Proviso):
अगर कोई ऐसा दस्तावेज़ (वसीयत को छोड़कर) जो भारतीय रजिस्ट्रेशन अधिनियम, 1908 के अनुसार पंजीकृत (registered) है, तो साक्षी को बुलाना आवश्यक नहीं है, जब तक कि दस्तावेज़ के संपादन का स्पष्ट रूप से इंकार न किया गया हो।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

कुछ दस्तावेज़ जैसे कि वसीयत, समझौते आदि, जिनके लिए कानून कहता है कि उन्हें गवाहों से सत्यापित (attest) किया जाए, तब तक कोर्ट में साक्ष्य के रूप में उपयोग नहीं हो सकते, जब तक कि कम से कम एक गवाह को बुलाकर यह न दिखाया जाए कि दस्तावेज़ वास्तव में संपादित (executed) किया गया था।

लेकिन यदि ऐसा कोई दस्तावेज़ पंजीकृत (registered) है (सिवाय वसीयत के), तो गवाह को बुलाने की ज़रूरत नहीं है, जब तक कोई यह न कहे कि दस्तावेज़ उस व्यक्ति ने नहीं बनाया।

 निष्कर्ष:
सत्यापित दस्तावेज़ को साक्ष्य बनाने के लिए कम से कम एक साक्षी की गवाही आवश्यक होती है, परंतु यदि दस्तावेज़ रजिस्टर्ड है और उस पर आपत्ति नहीं है, तो गवाह को बुलाने की आवश्यकता नहीं है।

 

धारा 68 – जब कोई साक्षी नहीं मिलता तब प्रमाण कैसे दिया जाए
Section 68 – Proof Where No Attesting Witness Found

 मुख्य बात:
यदि किसी ऐसे दस्तावेज़ के लिए जिसे कानून के अनुसार साक्षियों द्वारा सत्यापित (attest) किया जाना जरूरी है, कोई भी साक्षी उपलब्ध नहीं हो, तो यह साबित करना जरूरी होगा कि—
कम से कम एक साक्षी का साक्षीकरण उसके हस्ताक्षर से हुआ है, और
दस्तावेज़ पर जिस व्यक्ति ने हस्ताक्षर किए हैं, वह हस्ताक्षर उसी व्यक्ति के हैं

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

यदि किसी दस्तावेज़ (जैसे वसीयत या अन्य जिसे विधिक रूप से साक्षी की आवश्यकता है) को प्रमाणित करने के लिए कोई भी साक्षी जीवित न हो, या उपलब्ध न हो, तो उस स्थिति में—

कम से कम एक साक्षी का हस्ताक्षर उसके हस्तलेख से प्रमाणित किया जाए,
और यह भी प्रमाणित किया जाए कि दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करने वाले व्यक्ति ने ही दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए थे।

 निष्कर्ष:
जब कोई साक्षी दस्तावेज़ के प्रमाण के लिए उपलब्ध न हो, तो साक्षी और निष्पादक (executant) दोनों के हस्तलेख को प्रमाणित करके दस्तावेज़ को साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।

धारा 69 – साक्ष्यीकृत दस्तावेज़ के निष्पादन की पक्षकार द्वारा स्वीकृति
Section 69 – Admission of Execution by Party to Attested Document

 मुख्य बात:
यदि कोई व्यक्ति स्वयं किसी साक्ष्यीकृत दस्तावेज़ पर अपने हस्ताक्षर (execution) की स्वीकृति करता है, तो यह उसके विरुद्ध उस दस्तावेज़ के निष्पादन का पर्याप्त प्रमाण माना जाएगा, भले ही वह दस्तावेज़ कानूनन साक्षियों द्वारा सत्यापित (attested) किया जाना अनिवार्य हो।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

अगर कोई दस्तावेज़ ऐसा है जिसे कानून के अनुसार साक्षियों की उपस्थिति में निष्पादित किया जाना जरूरी है,
और उस दस्तावेज़ का कोई पक्षकार (party) यह स्वीकार कर लेता है कि उसने उस पर हस्ताक्षर किए हैं,
तो उस व्यक्ति के खिलाफ दस्तावेज़ के निष्पादन का कोई और प्रमाण देना आवश्यक नहीं है

 यह स्वीकृति केवल उसी व्यक्ति के विरुद्ध पर्याप्त होती है जिसने यह स्वीकार किया है।

 निष्कर्ष:
यदि पक्षकार खुद स्वीकार कर ले कि उसने दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए थे, तो उस दस्तावेज़ के निष्पादन को साबित करने के लिए गवाह को बुलाना जरूरी नहीं होता, भले ही दस्तावेज़ कानूनन साक्ष्यीकृत हो।

धारा 70 – जब साक्ष्यीकर्ता निष्पादन से इनकार करे तब प्रमाणन
Section 70 – Proof When Attesting Witness Denies Execution

 मुख्य बात:
यदि दस्तावेज़ का साक्ष्यीकर्ता (attesting witness) यह इनकार करता है कि दस्तावेज़ निष्पादित (executed) हुआ था, या उसे याद नहीं रहता कि वह निष्पादन के समय उपस्थित था, तो उस दस्तावेज़ के निष्पादन को अन्य साक्ष्य द्वारा सिद्ध किया जा सकता है

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

जब किसी दस्तावेज़ को अदालत में पेश किया जाता है और उसे निष्पादित करना (execute) साबित करना होता है,
तब सामान्यतः साक्ष्यीकर्ता गवाह की गवाही आवश्यक होती है।
लेकिन अगर साक्ष्यीकर्ता इनकार कर दे कि उसने निष्पादन होते देखा था, या उसे कुछ याद नहीं रहता,
तो ऐसे में दस्तावेज़ के निष्पादन को अन्य प्रकार के साक्ष्यों से साबित किया जा सकता है, जैसे किसी अन्य व्यक्ति की गवाही, परिस्थितिजन्य साक्ष्य आदि।

 निष्कर्ष:
जब साक्षी दस्तावेज़ के निष्पादन को मानने से इनकार कर दे या याद नहीं रखे, तब निष्पादन को साबित करने के लिए कोर्ट दूसरे वैकल्पिक साक्ष्यों को स्वीकार कर सकती है

 

धारा 71 – ऐसे दस्तावेज़ का प्रमाणन जिसे कानून द्वारा साक्ष्यीकृत किया जाना आवश्यक नहीं है
Section 71 – Proof of Document Not Required by Law to Be Attested

 मुख्य बात:
अगर कोई दस्तावेज़ कानून द्वारा साक्ष्यीकृत (attested) किया जाना अनिवार्य नहीं है, लेकिन फिर भी उस पर गवाहों के हस्ताक्षर (attestation) हैं, तो ऐसे दस्तावेज़ को उसी प्रकार प्रमाणित किया जा सकता है जैसे कि वह साक्ष्यीकृत न हो।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

कुछ दस्तावेज़ ऐसे होते हैं जिन पर कानून के अनुसार गवाहों (witnesses) के हस्ताक्षर जरूरी नहीं होते,
लेकिन फिर भी, यदि किसी दस्तावेज़ को गवाहों ने साक्ष्यीकृत कर दिया हो (attested कर दिया गया हो),
तो भी उस दस्तावेज़ को गवाहों की गवाही के बिना भी प्रमाणित किया जा सकता है, जैसे किसी सामान्य दस्तावेज़ को किया जाता है।
इसे प्रमाणित करने के लिए साक्ष्यीकर्ता गवाह को बुलाना आवश्यक नहीं है।

 निष्कर्ष:
जो दस्तावेज़ कानूनन साक्ष्यीकृत होना जरूरी नहीं है, वह भले ही साक्ष्यीकृत हो, पर उसे अदालत में सामान्य तरीके से बिना साक्ष्यीकर्ता की गवाही के भी प्रमाणित किया जा सकता है।

धारा 72 – हस्ताक्षर, लेखन या मुहर की तुलना अन्य स्वीकार या सिद्ध उदाहरणों से
Section 72 – Comparison of Signature, Writing or Seal with Others Admitted or Proved

 मुख्य बात:
अगर किसी हस्ताक्षर, लेखन या मुहर की सच्चाई पर प्रश्न उठता है, तो अदालत उसे पहले से सिद्ध या स्वीकार की गई चीज़ों से तुलना (comparison) करके उसकी सत्यता तय कर सकती है। यह प्रावधान फिंगरप्रिंट्स (finger impressions) पर भी लागू होता है।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

जब अदालत को यह तय करना हो कि कोई हस्ताक्षर, लेख या मुहर किसी विशेष व्यक्ति द्वारा किया गया है या नहीं,
तो अदालत उस दस्तावेज़ की तुलना किसी अन्य ऐसे हस्ताक्षर, लेख या मुहर से कर सकती है जो उस व्यक्ति द्वारा किया गया माना गया हो —
चाहे वह पहले किसी और उद्देश्य के लिए साबित किया गया हो या नहीं।

इसके अलावा, अगर आवश्यक हो, तो अदालत किसी व्यक्ति को अदालत में ही कुछ शब्द या अंक लिखने का आदेश दे सकती है ताकि उस लेखन की तुलना की जा सके।

यह धारा फिंगरप्रिंट (उंगलियों के निशान) पर भी लागू होती है — यानी अदालत फिंगरप्रिंट्स की भी तुलना कर सकती है।

 निष्कर्ष:
अदालत को किसी भी दस्तावेज़ की सत्यता जांचने के लिए अधिकार है कि वह उसकी तुलना पहले से सिद्ध या स्वीकार किए गए हस्ताक्षर, लेखन, मुहर या फिंगरप्रिंट से करे। साथ ही, अदालत आवश्यक होने पर व्यक्ति को अदालत में लिखवाकर भी तुलना कर सकती है।

धारा 73 – डिजिटल हस्ताक्षर के सत्यापन का प्रमाण
Section 73 – Proof as to Verification of Digital Signature

 मुख्य बात:
अगर अदालत को यह जांचना हो कि कोई डिजिटल हस्ताक्षर (digital signature) वास्तव में उसी व्यक्ति का है जिसने उसे किया हुआ बताया है, तो वह कुछ विशेष निर्देश दे सकती है।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

जब यह मुद्दा उठता है कि डिजिटल सिग्नेचर सही है या नहीं,
तो अदालत निम्नलिखित कार्य करने के लिए निर्देश दे सकती है—

(a) उस व्यक्ति को, या Controller या Certifying Authority को निर्देश दे सकती है कि वे Digital Signature Certificate अदालत में पेश करें।
(b) किसी अन्य व्यक्ति को निर्देश दे सकती है कि वह उस व्यक्ति के पब्लिक की (public key) का उपयोग कर, डिजिटल सिग्नेचर की वैधता (validity) की जांच करे।

 निष्कर्ष:
डिजिटल हस्ताक्षर की प्रमाणिकता की जांच के लिए, अदालत संबंधित व्यक्ति से उसका डिजिटल सिग्नेचर प्रमाणपत्र मंगा सकती है और पब्लिक की के ज़रिये उसका सत्यापन करवाने का आदेश दे सकती है। इससे यह साबित किया जा सकता है कि डिजिटल सिग्नेचर उसी व्यक्ति द्वारा किया गया है या नहीं।

धारा 74 – सार्वजनिक और निजी दस्तावेज़
Section 74 – Public and Private Documents

 मुख्य बात:
कानून के अनुसार दस्तावेज़ दो प्रकार के होते हैं — सार्वजनिक (Public) और निजी (Private)।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

उपधारा (1): निम्नलिखित दस्तावेज़ों को सार्वजनिक दस्तावेज़ (Public Documents) माना जाता है—

(a) वे दस्तावेज़ जो निम्नलिखित के कार्यों या कार्यों के अभिलेख (records) को दर्शाते हैं—
    (i) सर्वोच्च प्राधिकरण (Sovereign Authority) के,
    (ii) किसी आधिकारिक निकाय या न्यायाधिकरण (Tribunal) के,
    (iii) भारत या किसी विदेशी देश के विधायी, न्यायिक या कार्यकारी सार्वजनिक अधिकारियों के।

(b) किसी राज्य या संघ राज्य क्षेत्र में रखे गए, निजी दस्तावेज़ों के सार्वजनिक अभिलेख

उपधारा (2):
इनके अतिरिक्त सभी अन्य दस्तावेज़ निजी दस्तावेज़ (Private Documents) माने जाते हैं।

 निष्कर्ष:
अगर कोई दस्तावेज़ सरकार, न्यायालय या किसी सार्वजनिक अधिकारी द्वारा बनाए गए कार्य या रिकॉर्ड से संबंधित है, तो वह सार्वजनिक दस्तावेज़ है। बाकी सभी दस्तावेज़, जैसे व्यक्तिगत अनुबंध, पत्र, निजी समझौते आदि — निजी दस्तावेज़ कहलाते हैं।

धारा 75 – सार्वजनिक दस्तावेज़ों की प्रमाणित प्रतियाँ
Section 75 – Certified Copies of Public Documents

 मुख्य बात:
किसी भी सार्वजनिक दस्तावेज़ की प्रमाणित प्रति व्यक्ति को कानूनन अधिकार के तहत मिल सकती है, यदि वह दस्तावेज़ उसके निरीक्षण के लिए उपलब्ध है।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

प्रावधान:
यदि किसी सार्वजनिक अधिकारी के पास किसी सार्वजनिक दस्तावेज़ की अभिरक्षा (custody) है और किसी व्यक्ति को उस दस्तावेज़ का निरीक्षण करने का अधिकार है, तो वह अधिकारी उस व्यक्ति को, जब वह मांगे और निर्धारित फीस दे, तो:

उस दस्तावेज़ या उसके किसी भाग की प्रति देगा,

प्रति के नीचे प्रमाणपत्र लिखेगा कि यह उस दस्तावेज़ की सत्य प्रति (true copy) है,

उस प्रमाणपत्र पर दिनांक लिखेगा, अपना नाम व पदनाम लिखेगा,

और यदि वह अधिकारी कानून द्वारा मोहर (seal) लगाने के लिए अधिकृत है, तो उस पर मोह़र लगाएगा

ऐसी प्रतियाँ प्रमाणित प्रतियाँ (Certified Copies) कहलाती हैं।

 व्याख्या (Explanation):
कोई भी अधिकारी, जो अपने सामान्य सरकारी कर्तव्यों के अंतर्गत ऐसी प्रतियाँ देने के लिए अधिकृत है, उसे यह माना जाएगा कि उसके पास उस दस्तावेज़ की अभिरक्षा है, भले ही वह दस्तावेज़ उसके पास स्थायी रूप से न हो।

 निष्कर्ष:
यदि कोई दस्तावेज़ सार्वजनिक है और आप उसे देखने के पात्र हैं, तो आप उसके लिए संबंधित कार्यालय में आवेदन कर सकते हैं और शुल्क देकर उसकी प्रमाणित प्रति प्राप्त कर सकते हैं, जो विधिक साक्ष्य के रूप में उपयोग की जा सकती है।

धारा 76 – प्रमाणित प्रतियों द्वारा दस्तावेज़ों का प्रमाण (Proof of documents by production of certified copies)
Section 76 – Proof of documents by production of certified copies

 मुख्य बात:
सार्वजनिक दस्तावेज़ों या उनके किसी भाग की प्रमाणित प्रतियाँ उनके विषयवस्तु को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य मानी जाती हैं।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

जब किसी सार्वजनिक दस्तावेज़ की प्रमाणित प्रति (Certified Copy) तैयार की जाती है और वह यह दर्शाती है कि वह किस दस्तावेज़ की प्रति है,
तो उस प्रमाणित प्रति को कोर्ट में उस दस्तावेज़ या उसके भाग की सामग्री को प्रमाणित करने के लिए साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है

मतलब यह कि सार्वजनिक दस्तावेज़ का मूल (original) कोर्ट में लाना आवश्यक नहीं है, अगर उसकी प्रमाणित प्रति उपलब्ध है।

 निष्कर्ष:
कोर्ट में यदि किसी सार्वजनिक दस्तावेज़ के विषयवस्तु को सिद्ध करना हो, तो उसकी प्रमाणित प्रति को प्रस्तुत करना वैध और पर्याप्त साक्ष्य माना जाता है।

धारा 77 – अन्य सरकारी दस्तावेज़ों का प्रमाण
Section 77 – Proof of other official documents

 मुख्य बात:
केंद्र सरकार, राज्य सरकार, संसद, विधानमंडल, विदेशी सरकारों, नगरपालिकाओं आदि से संबंधित विभिन्न प्रकार के सरकारी दस्तावेजों को कैसे प्रमाणित किया जा सकता है, इसका प्रावधान इस धारा में किया गया है।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

निम्नलिखित सार्वजनिक दस्तावेजों को निम्नलिखित तरीकों से सिद्ध किया जा सकता है:

(a) केंद्र सरकार या राज्य सरकार (या केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन) के किसी आदेश, अधिनियम या अधिसूचना को प्रमाणित करने के लिए:

संबंधित विभागों के अभिलेखों द्वारा, जिन्हें उस विभाग के अध्यक्ष द्वारा प्रमाणित किया गया हो; या

ऐसा दस्तावेज़ जो यह दर्शाता हो कि वह उस सरकार के आदेश से मुद्रित हुआ है।

(b) संसद या राज्य विधानमंडल की कार्यवाही को प्रमाणित करने के लिए:

संबंधित सदनों की जर्नल पुस्तिकाओं,

या प्रकाशित अधिनियमों/सारांशों,

या सरकार के आदेश से मुद्रित की गई प्रतियों से।

(c) राष्ट्रपति, राज्यपाल या केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासक द्वारा जारी घोषणाएँ, आदेश या विनियम को प्रमाणित करने के लिए:

राजपत्र (Official Gazette) में प्रकाशित प्रतियाँ या अंश।

(d) किसी विदेशी देश की कार्यपालिका या विधायिका की कार्यवाही को प्रमाणित करने के लिए:

उस देश की अधिकृत जर्नलों द्वारा,

या वहाँ आमतौर पर स्वीकार की जाने वाली प्रतियों द्वारा,

या उस देश के सील से प्रमाणित प्रतियों द्वारा,

या भारत के किसी अधिनियम में उस दस्तावेज़ की मान्यता द्वारा।

(e) राज्य की नगरपालिका या स्थानीय निकाय की कार्यवाही को प्रमाणित करने के लिए:

ऐसी कार्यवाही की प्रमाणित प्रति, जिसे वैधानिक संरक्षक द्वारा प्रमाणित किया गया हो,

या उस निकाय की अधिकृत रूप से प्रकाशित पुस्तक द्वारा।

(f) किसी विदेशी देश के अन्य सार्वजनिक दस्तावेज़ों को प्रमाणित करने के लिए:

उसका मूल दस्तावेज़,

या उसकी प्रमाणित प्रति, जिसके साथ नोटरी पब्लिक या भारतीय वाणिज्य दूतावास (consul) या राजनयिक अधिकारी द्वारा यह प्रमाणित किया गया हो कि यह प्रति वैधानिक संरक्षक द्वारा प्रमाणित की गई है,

और यह भी सिद्ध किया जाए कि वह दस्तावेज़ उस देश के कानून के अनुसार सार्वजनिक है।

 निष्कर्ष:
सरकारी या सार्वजनिक दस्तावेज़ों को प्रमाणित करने के अलग-अलग तरीके होते हैं, जो दस्तावेज़ की प्रकृति और उसकी उत्पत्ति पर निर्भर करते हैं। यह धारा बताती है कि किस स्रोत से प्रमाणित प्रतियाँ मान्य साक्ष्य के रूप में स्वीकार की जाएंगी।

धारा 78 – प्रमाणित प्रतियों की प्रामाणिकता के संबंध में अनुमान
Section 78 – Presumption as to genuineness of certified copies

 मुख्य बात:
न्यायालय यह अनुमान लगाएगा कि प्रमाणित प्रतियाँ और सरकारी प्रमाणपत्र वास्तविक हैं, यदि वे कानून द्वारा साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य घोषित किए गए हैं और विधिसम्मत तरीके से तैयार किए गए हैं।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

उपधारा (1):
न्यायालय यह मान लेगा कि हर वह दस्तावेज़ जो प्रमाण-पत्र, प्रमाणित प्रति या अन्य कोई प्रमाण है, और जिसे कानून किसी विशेष तथ्य के साक्ष्य के रूप में मान्य घोषित करता है, तथा जो किसी केंद्र सरकार या राज्य सरकार के अधिकारी द्वारा विधिसम्मत रूप से प्रमाणित प्रतीत होता है, वह असली है।

 शर्त:
ऐसा दस्तावेज़ कानून में निर्धारित रूप और तरीके से तैयार किया गया होना चाहिए।

उपधारा (2):
न्यायालय यह भी मान लेगा कि जिस अधिकारी ने उस प्रमाणित प्रति या प्रमाणपत्र पर हस्ताक्षर किए हैं, वह जब उसने उस पर हस्ताक्षर किए थे, तब वह अपने पद पर कार्यरत था और उसके पास वैधानिक अधिकार था।

 निष्कर्ष:

प्रमाणित प्रतियाँ, प्रमाणपत्र आदि को कोर्ट असली मानकर चलता है, जब तक कि कोई इसका खंडन न कर दे, यदि वे विधिसम्मत रूप से तैयार की गई हैं और सरकारी अधिकारी द्वारा प्रमाणित हैं। इससे दस्तावेज़ों को कोर्ट में प्रमाणित करने की प्रक्रिया आसान होती है।

धारा 79 – साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किए गए दस्तावेज़ों के संबंध में अनुमान
Section 79 – Presumption as to documents produced as record of evidence, etc.

 मुख्य बात:
जब कोई दस्तावेज़ न्यायालय के समक्ष साक्ष्य के रिकॉर्ड या आरोपी के बयान/स्वीकारोक्ति के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, तो न्यायालय कुछ बातों को स्वाभाविक रूप से सत्य मानता है

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

जब कोई दस्तावेज़ न्यायालय में प्रस्तुत किया जाए जो:

किसी न्यायिक कार्यवाही में या किसी विधिक रूप से अधिकृत अधिकारी के समक्ष
किसी गवाह द्वारा दिए गए साक्ष्य का रिकॉर्ड या उसका स्मरण (memorandum) हो,
या किसी कैदी या अभियुक्त व्यक्ति द्वारा दी गई बयान या स्वीकारोक्ति (confession) हो,
और उस पर किसी न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट या अधिकृत अधिकारी का हस्ताक्षर हो,

तो न्यायालय निम्नलिखित बातों को मान लेगा (presume करेगा):

(i) दस्तावेज़ असली (genuine) है।

(ii) दस्तावेज़ पर जो परिस्थितियाँ लिखी गई हैं, जिनमें वह बयान या साक्ष्य लिया गया, और जो उस अधिकारी के हस्ताक्षर से प्रमाणित हैं, वे सत्य हैं

(iii) ऐसा साक्ष्य, बयान या स्वीकारोक्ति विधिसम्मत रूप से लिया गया है

 निष्कर्ष:

यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि यदि कोई जज, मजिस्ट्रेट या विधिक अधिकारी किसी बयान या साक्ष्य को दस्तावेज़ के रूप में प्रस्तुत करता है और उस पर हस्ताक्षर करता है, तो न्यायालय उसे असली और सही प्रक्रिया से लिया गया मानकर चलता है — जब तक कि इसका खंडन न किया जाए। इससे न्यायिक प्रक्रिया में दस्तावेज़ों की वैधता को प्राथमिकता मिलती है।

 

धारा 80 – राजपत्र, समाचार-पत्रों और अन्य दस्तावेजों के संबंध में अनुमान
Section 80 – Presumption as to Gazettes, newspapers, and other documents

 मुख्य बात:
न्यायालय यह मान लेगा कि जो दस्तावेज़ सरकारी राजपत्र (Official Gazette), समाचार-पत्र (Newspaper), पत्रिका (Journal) या किसी कानून के अंतर्गत रखने के लिए अनिवार्य दस्तावेज़ प्रतीत होते हैं, वे असली हैं, यदि वे उचित रूप में रखे गए हों और उचित संरक्षण से प्रस्तुत किए गए हों।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

यदि कोई दस्तावेज़ इस प्रकार का प्रतीत होता है कि:

वह सरकारी राजपत्र (Official Gazette) है,

या समाचार-पत्र (newspaper) या पत्रिका (journal) है,

या ऐसा दस्तावेज़ है जिसे किसी व्यक्ति द्वारा कानून के अनुसार रखना आवश्यक है,

और वह दस्तावेज़:

कानून में निर्धारित रूपरेखा के अनुसार तैयार किया गया हो,

और उचित संरक्षण (proper custody) से न्यायालय में प्रस्तुत किया गया हो,

तो न्यायालय यह मान लेगा कि वह दस्तावेज़ असली (genuine) है।

 स्पष्टीकरण (Explanation):

कोई दस्तावेज़ “उचित संरक्षण (proper custody)” में माना जाएगा जब:

वह उस स्थान पर हो जहाँ उसे रखा जाना चाहिए,

और उस व्यक्ति के पास हो जिसे उसे देखरेख में रखना चाहिए।

 लेकिन, यदि यह साबित कर दिया जाए कि दस्तावेज़ की उत्पत्ति वैध रही है या परिस्थितियाँ यह दिखाती हों कि उसकी उत्पत्ति उचित रूप से हुई है, तो कोई भी संरक्षण अनुचित (improper) नहीं माना जाएगा

 निष्कर्ष:

यह धारा दस्तावेज़ों की वैधता को लेकर न्यायालय को अधिकार देती है कि यदि कोई दस्तावेज़ सरकारी प्रकृति का प्रतीत हो और उचित तरीके से प्रस्तुत किया गया हो, तो उसे असली और विश्वसनीय मान लिया जाए — जब तक उसका खंडन न किया जाए। इससे राजपत्र, समाचार और अन्य रेकॉर्ड की साक्ष्य के रूप में उपयोगिता बढ़ जाती है।

धारा 80 – राजपत्र, समाचार-पत्रों और अन्य दस्तावेजों के संबंध में अनुमान
Section 80 – Presumption as to Gazettes, newspapers, and other documents

 मुख्य बात:
न्यायालय यह मान लेगा कि जो दस्तावेज़ सरकारी राजपत्र (Official Gazette), समाचार-पत्र (Newspaper), पत्रिका (Journal) या किसी कानून के अंतर्गत रखने के लिए अनिवार्य दस्तावेज़ प्रतीत होते हैं, वे असली हैं, यदि वे उचित रूप में रखे गए हों और उचित संरक्षण से प्रस्तुत किए गए हों।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

यदि कोई दस्तावेज़ इस प्रकार का प्रतीत होता है कि:

वह सरकारी राजपत्र (Official Gazette) है,

या समाचार-पत्र (newspaper) या पत्रिका (journal) है,

या ऐसा दस्तावेज़ है जिसे किसी व्यक्ति द्वारा कानून के अनुसार रखना आवश्यक है,

और वह दस्तावेज़:

कानून में निर्धारित रूपरेखा के अनुसार तैयार किया गया हो,

और उचित संरक्षण (proper custody) से न्यायालय में प्रस्तुत किया गया हो,

तो न्यायालय यह मान लेगा कि वह दस्तावेज़ असली (genuine) है।

 स्पष्टीकरण (Explanation):

कोई दस्तावेज़ “उचित संरक्षण (proper custody)” में माना जाएगा जब:

वह उस स्थान पर हो जहाँ उसे रखा जाना चाहिए,

और उस व्यक्ति के पास हो जिसे उसे देखरेख में रखना चाहिए।

 लेकिन, यदि यह साबित कर दिया जाए कि दस्तावेज़ की उत्पत्ति वैध रही है या परिस्थितियाँ यह दिखाती हों कि उसकी उत्पत्ति उचित रूप से हुई है, तो कोई भी संरक्षण अनुचित (improper) नहीं माना जाएगा

 निष्कर्ष:

यह धारा दस्तावेज़ों की वैधता को लेकर न्यायालय को अधिकार देती है कि यदि कोई दस्तावेज़ सरकारी प्रकृति का प्रतीत हो और उचित तरीके से प्रस्तुत किया गया हो, तो उसे असली और विश्वसनीय मान लिया जाए — जब तक उसका खंडन न किया जाए। इससे राजपत्र, समाचार और अन्य रेकॉर्ड की साक्ष्य के रूप में उपयोगिता बढ़ जाती है।

 

धारा 81 – इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड में राजपत्र के संबंध में अनुमान
Section 81 – Presumption as to Gazettes in electronic or digital record

 मुख्य बात:
न्यायालय यह मान लेगा कि जो इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड सरकारी राजपत्र (Official Gazette) या किसी कानून द्वारा रखने के लिए निर्धारित रिकॉर्ड प्रतीत होता है, वह असली है, यदि वह रिकॉर्ड कानून में निर्धारित रूप में रखा गया हो और उचित संरक्षण (proper custody) से प्रस्तुत किया गया हो।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

यदि कोई इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल दस्तावेज़ निम्नलिखित प्रतीत होता है:

वह सरकारी राजपत्र (e-Gazette) है,

या वह ऐसा डिजिटल रिकॉर्ड है जिसे किसी व्यक्ति द्वारा कानून के अनुसार रखना आवश्यक है,

और वह रिकॉर्ड:

कानून में निर्धारित स्वरूप (format) में संग्रहीत हो,

और उचित संरक्षण (proper custody) से न्यायालय में प्रस्तुत किया गया हो,

तो न्यायालय यह मान लेगा कि वह इलेक्ट्रॉनिक या डिजिटल रिकॉर्ड असली (genuine) है।

 स्पष्टीकरण (Explanation):

किसी इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को “उचित संरक्षण में (proper custody)” माना जाएगा, जब:

वह उसी स्थान पर संग्रहीत हो जहाँ उसे रखा जाना चाहिए,

और उस व्यक्ति द्वारा देखरेख की जा रही हो जिसे उसका संरक्षण करना चाहिए।

 लेकिन, यदि यह सिद्ध हो जाए कि रिकॉर्ड की उत्पत्ति वैध (legitimate origin) है या परिस्थितियाँ ऐसी हों कि वैध उत्पत्ति संभव लगे, तो वह संरक्षण अनुचित नहीं माना जाएगा

 निष्कर्ष:

यह धारा डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज़ों की प्रमाणिकता (authenticity) को लेकर न्यायालय को यह अधिकार देती है कि वे उन्हें स्वतः असली मान लें, यदि वे कानूनी रूप में उचित तरीके से संग्रहित और प्रस्तुत किए गए हों। इससे डिजिटल गवर्नेंस और ई-रिकॉर्ड्स की वैधता को बल मिलता है।

 

धारा 82 – सरकार के प्राधिकरण से बनाए गए मानचित्रों या योजनाओं के संबंध में अनुमान
Section 82 – Presumption as to maps or plans made by authority of Government

 मुख्य बात:
न्यायालय यह अनुमान लगाएगा कि जो मानचित्र (maps) या योजनाएं (plans) केंद्रीय सरकार या राज्य सरकार के प्राधिकरण से बनी प्रतीत होती हैं, वे वास्तव में उसी प्राधिकरण से बनाई गई हैं और सही (accurate) हैं।
लेकिन जो मानचित्र या योजनाएं किसी मुकदमे (cause) के लिए विशेष रूप से बनाई गई हैं, उनकी सत्यता (accuracy) को सिद्ध करना आवश्यक होगा।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

यदि कोई मानचित्र या योजना प्रस्तुत की जाती है जो यह दर्शाती है कि वह केंद्रीय सरकार या किसी राज्य सरकार के आदेश से बनाई गई है,
तो न्यायालय यह मान लेगा कि:

वह वास्तव में सरकारी आदेश से बनाई गई है, और

वह सही (accurate) है।

लेकिन यदि मानचित्र या योजना किसी मुकदमे के उद्देश्य से बनाई गई है (जैसे कि किसी संपत्ति विवाद के लिए),
तब उस मानचित्र या योजना की सटीकता (accuracy) को साक्ष्य द्वारा सिद्ध करना आवश्यक होगा।

 निष्कर्ष:

यह धारा सरकारी प्राधिकरण द्वारा तैयार किए गए नक्शों और योजनाओं को न्यायालय में प्रमाणिक और विश्वसनीय मानने की अनुमति देती है, जिससे उनके लिए अलग से साक्ष्य देने की आवश्यकता नहीं होती। लेकिन निजी प्रयोजन या मुकदमे के लिए बनाए गए नक्शों को सही साबित करना ज़रूरी होता है।

धारा 83 – विधियों के संग्रह और न्यायनिर्णयों की रिपोर्टों के संबंध में अनुमान
Section 83 – Presumption as to collections of laws and reports of decisions

 मुख्य बात:
न्यायालय यह मान लेगा कि जो कोई पुस्तक निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत की जाती है, वह असली (genuine) है—

जो यह प्रतीत होती है कि वह किसी देश की सरकार के प्राधिकरण से मुद्रित या प्रकाशित हुई है, और उसमें उस देश के कानूनों (laws) का संग्रह है;

या जो यह प्रतीत होती है कि उसमें उस देश के न्यायालयों के निर्णयों (court decisions) की रिपोर्टें हैं।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

अगर कोई कानूनों की किताब या न्यायालयों के निर्णयों की रिपोर्ट वाली किताब न्यायालय में प्रस्तुत की जाती है:

और वह ऐसा दिखती है कि वह किसी सरकार के आदेश या अधिकार के अंतर्गत प्रकाशित की गई है,

तो न्यायालय यह मान लेगा कि वह किताब असली है, यानी:

वह वास्तव में सरकारी प्राधिकरण से प्रकाशित हुई है, और

उसमें जो कानून या निर्णय हैं, वे सही और आधिकारिक हैं।

 निष्कर्ष:

यह धारा न्यायालय को यह सुविधा देती है कि वे सरकारी प्रकाशन के रूप में प्रस्तुत कानूनों की पुस्तकों और निर्णयों की रिपोर्ट्स को प्रमाणिक मानें, जिससे उनके लिए अलग से प्रमाण देने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
इससे कानूनी प्रकाशनों की उपयोगिता और विश्वसनीयता को बढ़ावा मिलता है।

 

धारा 86 – इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों और इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षरों के संबंध में अनुमान
Section 86 – Presumption as to electronic records and electronic signatures

 मुख्य बिंदु:

(1) यदि कोई मामला “secure electronic record” से संबंधित है, तो न्यायालय यह अनुमान लगाएगा कि वह रिकॉर्ड उस निश्चित समय के बाद से नहीं बदला गया है जबसे उसे secure माना गया है, जब तक कि विपरीत सिद्ध न किया जाए।

(2) यदि कोई मामला “secure electronic signature” से संबंधित है, तो न्यायालय यह अनुमान लगाएगा, जब तक कि विपरीत प्रमाण न दिया जाए, कि:

(a) उक्त सुरक्षित इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर उस व्यक्ति (subscriber) द्वारा इस उद्देश्य से किया गया है कि वह उस रिकॉर्ड पर हस्ताक्षर या अनुमोदन कर रहा है।

(b) लेकिन यदि कोई रिकॉर्ड या हस्ताक्षर “secure” नहीं है, तो इस धारा के अंतर्गत उसके प्रामाणिकता (authenticity) या अखंडता (integrity) के संबंध में कोई अनुमान नहीं लगाया जाएगा।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

जब किसी इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज़ या हस्ताक्षर को “secure” घोषित किया गया हो, तो कोर्ट यह मानकर चलेगा कि:

वह रिकॉर्ड बदला नहीं गया है।

वह हस्ताक्षर सही व्यक्ति ने जानबूझकर किया है।

 लेकिन यदि रिकॉर्ड या हस्ताक्षर secure नहीं है, तो कोर्ट ऐसे किसी भी अनुमान को नहीं मानेगा, और उसे सामान्य प्रमाणों से ही साबित करना होगा।

 निष्कर्ष:

यह धारा secure electronic records और signatures को एक विशेष कानूनी मान्यता देती है, जिससे यह माना जाता है कि वे प्रामाणिक और सुरक्षित हैं, जब तक कि कोई इसके विपरीत प्रमाण न दे। यह डिजिटल प्रमाणों की न्यायिक प्रक्रिया में विश्वसनीयता बढ़ाता है।

 

धारा 86 – इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों और इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षरों के संबंध में अनुमान
Section 86 – Presumption as to electronic records and electronic signatures

 मुख्य बिंदु:

(1) यदि कोई मामला “secure electronic record” से संबंधित है, तो न्यायालय यह अनुमान लगाएगा कि वह रिकॉर्ड उस निश्चित समय के बाद से नहीं बदला गया है जबसे उसे secure माना गया है, जब तक कि विपरीत सिद्ध न किया जाए।

(2) यदि कोई मामला “secure electronic signature” से संबंधित है, तो न्यायालय यह अनुमान लगाएगा, जब तक कि विपरीत प्रमाण न दिया जाए, कि:

(a) उक्त सुरक्षित इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर उस व्यक्ति (subscriber) द्वारा इस उद्देश्य से किया गया है कि वह उस रिकॉर्ड पर हस्ताक्षर या अनुमोदन कर रहा है।

(b) लेकिन यदि कोई रिकॉर्ड या हस्ताक्षर “secure” नहीं है, तो इस धारा के अंतर्गत उसके प्रामाणिकता (authenticity) या अखंडता (integrity) के संबंध में कोई अनुमान नहीं लगाया जाएगा।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

जब किसी इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेज़ या हस्ताक्षर को “secure” घोषित किया गया हो, तो कोर्ट यह मानकर चलेगा कि:

वह रिकॉर्ड बदला नहीं गया है।

वह हस्ताक्षर सही व्यक्ति ने जानबूझकर किया है।

 लेकिन यदि रिकॉर्ड या हस्ताक्षर secure नहीं है, तो कोर्ट ऐसे किसी भी अनुमान को नहीं मानेगा, और उसे सामान्य प्रमाणों से ही साबित करना होगा।

 निष्कर्ष:

यह धारा secure electronic records और signatures को एक विशेष कानूनी मान्यता देती है, जिससे यह माना जाता है कि वे प्रामाणिक और सुरक्षित हैं, जब तक कि कोई इसके विपरीत प्रमाण न दे। यह डिजिटल प्रमाणों की न्यायिक प्रक्रिया में विश्वसनीयता बढ़ाता है।

धारा 87 – इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर प्रमाण-पत्रों के संबंध में अनुमान
Section 87 – Presumption as to Electronic Signature Certificates

 मुख्य बिंदु:
यदि कोर्ट के समक्ष कोई Electronic Signature Certificate प्रस्तुत किया गया है, और वह subscriber द्वारा स्वीकार कर लिया गया है, तो कोर्ट यह अनुमान लगाएगा, जब तक कि इसके विपरीत कुछ सिद्ध न हो:

कि प्रमाण-पत्र में दी गई सारी जानकारी सही है,
सिवाय उस जानकारी के, जो “subscriber information” के रूप में दर्शाई गई हो और जिसे सत्यापित नहीं किया गया हो।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

जब कोई व्यक्ति (subscriber) किसी Electronic Signature Certificate को स्वीकार कर लेता है,
तब कोर्ट यह मान लेगा कि उसमें दी गई सभी जानकारी (information) सत्य और सही है,
केवल वही जानकारी छोड़कर जो:

subscriber से जुड़ी हो, और

जिसे प्रमाण-पत्र जारी करने वाले प्राधिकरण द्वारा सत्यापित नहीं किया गया हो।

 निष्कर्ष:

इस धारा का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि Electronic Signature Certificate को कानूनी रूप से भरोसेमंद माना जाए, जब तक कि कोई उसके विपरीत प्रमाण न प्रस्तुत कर दे। यह प्रावधान डिजिटल दस्तावेजों और इलेक्ट्रॉनिक प्रमाणन प्रणाली को न्यायिक प्रक्रिया में सुविधाजनक और विश्वसनीय बनाता है।

 

धारा 88 – विदेशी न्यायिक अभिलेखों की प्रमाणित प्रतियों के संबंध में अनुमान
Section 88 – Presumption as to certified copies of foreign judicial records

 मुख्य बिंदु:

(1) यदि कोई दस्तावेज़ इस रूप में प्रस्तुत किया जाता है कि वह भारत के बाहर किसी देश के न्यायिक अभिलेख की प्रमाणित प्रति है, और वह दस्तावेज़ ऐसे तरीके से प्रमाणित है, जिसे उस देश में न्यायिक अभिलेखों की प्रमाणित प्रतियां तैयार करने का सामान्य तरीका केंद्रीय सरकार के प्रतिनिधि द्वारा प्रमाणित किया गया है,
तो कोर्ट यह अनुमान लगा सकती है कि:

वह दस्तावेज़ सत्य और सटीक (genuine and accurate) है।

(2) यदि किसी देश या क्षेत्र में Political Agent के रूप में कार्यरत कोई अधिकारी है (जैसा कि सामान्य उपबंध अधिनियम, 1897 की धारा 3 की क्लॉज़ 43 में परिभाषित है),
तो उसे केंद्रीय सरकार का प्रतिनिधि माना जाएगा, और वह इस धारा के प्रयोजन हेतु उपयुक्त प्रमाणन देने के योग्य होगा

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

जब भारत के बाहर के किसी देश के कोर्ट का रिकॉर्ड प्रस्तुत किया जाता है,
और वह प्रमाणित प्रति उस देश की आम प्रक्रिया के अनुसार प्रमाणित हो,
तथा उस प्रक्रिया की पुष्टि भारत सरकार के प्रतिनिधि (Political Agent या दूतावास अधिकारी) ने की हो,
तब कोर्ट यह मान सकती है कि यह प्रमाणित प्रति असली और सही है, जब तक कि इसके विपरीत कुछ साबित न हो।

 निष्कर्ष:

यह धारा विदेशी न्यायिक अभिलेखों को भारतीय न्यायालयों में मान्यता देने और उपयोग करने की प्रक्रिया को आसान बनाती है, बशर्ते कि वे विश्वसनीय रूप से प्रमाणित हों। इससे अंतरराष्ट्रीय मामलों में साक्ष्य की स्वीकार्यता सुनिश्चित होती है।

धारा 89 – पुस्तकों, नक्शों और चार्टों के संबंध में अनुमान
Section 89 – Presumption as to books, maps and charts

 मुख्य बिंदु: –

कोर्ट यह अनुमान लगा सकती है कि:

कोई भी पुस्तक, जिसे कोर्ट सार्वजनिक या सामान्य महत्व के मामलों की जानकारी के लिए संदर्भित करती है,
कोई भी प्रकाशित नक्शा या चार्ट, जिसकी बातें प्रासंगिक तथ्यों के रूप में रखी गई हैं और जो कोर्ट की जांच हेतु प्रस्तुत किया गया हो,

वह उसी व्यक्ति द्वारा, और उसी समय व स्थान पर लिखा और प्रकाशित किया गया, जैसा कि उस पर उल्लेखित है।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

जब कोई पुस्तक, नक्शा या चार्ट किसी सार्वजनिक या सामान्य रुचि की जानकारी के लिए कोर्ट के सामने प्रस्तुत किया जाता है,
और वह प्रकाशित रूप में है,
तब कोर्ट यह मान सकती है (Presume कर सकती है) कि यह पुस्तक, नक्शा या चार्ट वास्तव में उसी व्यक्ति द्वारा, उसी स्थान पर और उसी समय पर तैयार किया गया है, जैसा उसमें लिखा गया है।

 निष्कर्ष:

इस धारा के तहत कोर्ट को प्रकाशित जानकारियों पर भरोसा करने की स्वतंत्रता दी गई है, बशर्ते वे सार्वजनिक महत्व की हों और प्रमाणिक प्रतीत हों। इससे न्यायिक प्रक्रिया में सहजता और भरोसेमंद माध्यमों की मान्यता सुनिश्चित होती है।

धारा 90 – इलेक्ट्रॉनिक संदेशों के संबंध में अनुमान
Section 90 – Presumption as to electronic messages

 मुख्य बिंदु:

कोर्ट यह अनुमान लगा सकती है कि:

कोई इलेक्ट्रॉनिक संदेश (जैसे ईमेल), जो प्रेषक (originator) द्वारा ईमेल सर्वर के माध्यम से उस व्यक्ति को भेजा गया है जिसे वह संबोधित है,
वह उसी संदेश से मेल खाता है जो प्रेषक ने अपने कंप्यूटर में ट्रांसमिट करने के लिए डाला था।

लेकिन — कोर्ट यह अनुमान नहीं लगाएगी कि वह संदेश किस व्यक्ति ने भेजा था।

सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

यदि किसी व्यक्ति को कोई ईमेल या अन्य इलेक्ट्रॉनिक संदेश प्राप्त होता है,
तो कोर्ट यह मान सकती है कि वह संदेश वही है जो भेजने वाले के कंप्यूटर से भेजा गया था,
परंतु, कोर्ट यह अपने आप नहीं मानेगी कि वास्तव में वह संदेश उसी व्यक्ति ने भेजा है, यानी भेजने वाले की पहचान का अनुमान नहीं लगाया जा सकता

 निष्कर्ष:

इस धारा का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि इलेक्ट्रॉनिक संदेश की सामग्री को तो कोर्ट मान सकती है, लेकिन भेजने वाले की पहचान को बिना ठोस प्रमाण के स्वीकार नहीं किया जाएगा। इससे डिजिटल साक्ष्य के उपयोग में सावधानी और निष्पक्षता बनी रहती है।

धारा 91 – विधिपूर्वक संपादन आदि के संबंध में अनुमान, जब दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया गया हो
Section 91 – Presumption as to due execution, etc., of documents not produced

 मुख्य बिंदु:

जब किसी दस्तावेज को कोर्ट में पेश करने का नोटिस दिया गया हो और वह दस्तावेज फिर भी प्रस्तुत नहीं किया गया हो,
तो कोर्ट यह मान लेगी कि वह दस्तावेज—

सही तरीके से गवाहों द्वारा सत्यापित (attested) किया गया था,
उस पर वांछित स्टैम्प लगाया गया था, और
वह दस्तावेज कानून के अनुसार विधिपूर्वक संपादित (executed) किया गया था।

 सरल व्याख्या (Simplified Explanation in Hindi):

यदि किसी पक्ष को कोर्ट कहती है कि वह कोई दस्तावेज लाए, और वह पक्ष उस दस्तावेज को लाने से इनकार कर देता है या पेश नहीं करता,
तो कोर्ट यह मान लेगी कि उस दस्तावेज में जो भी औपचारिकताएं ज़रूरी थीं (जैसे सिग्नेचर, स्टैम्प, गवाही), वे पूरी की गई थीं।

 निष्कर्ष:

यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि कोई भी पक्ष किसी दस्तावेज को जानबूझकर छिपा न सके, और यदि वह ऐसा करता है तो कोर्ट उसके खिलाफ अनुमान लगाएगी, कि दस्तावेज वैध और विधिपूर्वक निष्पादित था

धारा 92 – तीस वर्ष पुराने दस्तावेजों के संबंध में अनुमान
Section 92 – Presumption as to documents thirty years old

 मुख्य प्रावधान:

यदि कोई दस्तावेज—

तीस (30) वर्ष पुराना है, और
उसे ऐसी अभिरक्षा (custody) से प्रस्तुत किया गया है जिसे न्यायालय उस मामले में उचित मानता है,

तो न्यायालय यह अनुमान लगा सकती है कि:

दस्तावेज़ पर किया गया हस्ताक्षर और उसके अन्य सभी भाग उसी व्यक्ति के हस्तलेख में हैं, जिनसे वह संबंधित प्रतीत होता है;

यदि वह दस्तावेज़ अभिप्रमाणित (attested) या निष्पादित (executed) है, तो यह भी माना जा सकता है कि यह उन व्यक्तियों द्वारा विधिपूर्वक निष्पादित और सत्यापित किया गया था।

 स्पष्टीकरण:
धारा 80 में दिया गया “उचित अभिरक्षा” का स्पष्टीकरण यहां भी लागू होगा।

 उदाहरण (Illustrations):

(a) A काफी समय से किसी ज़मीन का मालिक है। वह ज़मीन से जुड़े दस्तावेज़ अपनी अभिरक्षा से प्रस्तुत करता है, जो उसके स्वामित्व को दर्शाते हैं। ➤ यह उचित अभिरक्षा मानी जाएगी।

(b) A एक ज़मीन का बंधककर्ता (mortgagee) है, और वह बंधक दस्तावेज प्रस्तुत करता है, जबकि ज़मीन बंधकदाता (mortgagor) के कब्ज़े में है। ➤ यह भी उचित अभिरक्षा मानी जाएगी।

(c) A, जो B का संबंधी है, ऐसे दस्तावेज प्रस्तुत करता है जो ज़मीन से संबंधित हैं और जो B के कब्जे में है। B ने उन्हें A के पास सुरक्षित रखने के लिए जमा किया था। ➤ यह भी उचित अभिरक्षा है।

सरल निष्कर्ष:

यदि कोई दस्तावेज 30 साल से पुराना है और वह सही व्यक्ति या संस्था की सुरक्षित अभिरक्षा से पेश किया गया है, तो कोर्ट यह मान सकती है कि दस्तावेज़ असली है, उस पर सही हस्ताक्षर हैं, और वह विधिवत निष्पादित किया गया है — बिना अतिरिक्त साक्ष्य के

धारा 93 – पाँच वर्ष पुराने इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों के संबंध में अनुमान
Section 93 – Presumption as to electronic records five years old

 मुख्य प्रावधान:

यदि कोई इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख (electronic record)—

ऐसा प्रतीत होता है या प्रमाणित किया गया है कि वह कम से कम पाँच (5) वर्ष पुराना है; और
वह ऐसी अभिरक्षा (custody) से प्रस्तुत किया गया है जिसे न्यायालय उस विशेष मामले में उचित मानता है,

तो न्यायालय यह अनुमान (presume) कर सकता है कि:

 उस अभिलेख पर जो इलेक्ट्रॉनिक हस्ताक्षर (electronic signature) है, वह उसी व्यक्ति द्वारा या उसके अधिकृत व्यक्ति द्वारा लगाया गया है।

 स्पष्टीकरण:
इस धारा में “उचित अभिरक्षा” का वही अर्थ है जैसा कि धारा 81 के स्पष्टीकरण में बताया गया है।
अर्थात् कोई भी अभिरक्षा तब “उचित” मानी जाएगी जब वह उसी स्थान पर हो और उसी व्यक्ति द्वारा रखी गई हो, जहाँ और जिसके पास उस दस्तावेज को रखा जाना अपेक्षित है,
जब तक कि यह न सिद्ध हो जाए कि उसकी उत्पत्ति वैध नहीं थी।

सरल निष्कर्ष:

यदि कोई पाँच साल पुराना इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड (जैसे: ईमेल, डिजिटल अनुबंध, डेटा फ़ाइल) उचित और सुरक्षित अभिरक्षा से प्रस्तुत किया गया है, तो कोर्ट यह मान सकती है कि उस पर जो डिजिटल हस्ताक्षर है, वह वास्तव में संबंधित व्यक्ति द्वारा ही लगाया गया है या किसी अधिकृत व्यक्ति द्वारा लगाया गया है — बिना और प्रमाण के।

यह प्रावधान डिजिटल साक्ष्य की वैधता को मान्यता देने के लिए बनाया गया है, विशेष रूप से जब वह लंबे समय तक सुरक्षित रखा गया हो।

 

धारा 94 – अनुबंधों, अनुदानों तथा संपत्ति के अन्य हस्‍तांतरणों की शर्तों के लिखित रूप में होने पर साक्ष्य

 मुख्य प्रावधान:
जब किसी अनुबंध (contract), अनुदान (grant) या संपत्ति के अन्य हस्‍तांतरण (disposition of property) की शर्तें लिखित रूप (document) में निर्धारित कर दी गई हों, या जब कानून द्वारा किसी बात को लिखित रूप में करना आवश्यक हो, तो उसकी शर्तों को सिद्ध करने के लिए केवल वही दस्तावेज, या केवल स्वीकृत परिस्थितियों में द्वितीयक साक्ष्य ही प्रस्तुत किया जा सकता है।

🔴 मौखिक साक्ष्य की अनुमति नहीं होती, जब तक कि यह द्वितीयक साक्ष्य की स्वीकार्यता के अंतर्गत न आता हो (जैसे कि दस्तावेज खो गया हो, नष्ट हो गया हो, इत्यादि)।

अपवाद (Exceptions):

Exception 1:
यदि कोई सार्वजनिक अधिकारी कानून द्वारा लिखित रूप में नियुक्त किया जाना आवश्यक हो, और यह दिखा दिया जाए कि वह व्यक्ति उस पद पर कार्य कर रहा है, तो उसकी नियुक्ति का लिखित दस्तावेज सिद्ध करना आवश्यक नहीं है।

Exception 2:
भारत में प्रॉबेट द्वारा स्वीकृत वसीयत (will) को प्रॉबेट (probate) के माध्यम से सिद्ध किया जा सकता है, दस्तावेज़ को अलग से सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है।

 स्पष्टीकरण (Explanations):

Explanation 1:
यह धारा तब भी लागू होती है जब अनुबंध, अनुदान या संपत्ति का हस्‍तांतरण एक या अधिक दस्तावेजों में हो।

Explanation 2:
यदि किसी दस्तावेज़ के एक से अधिक मूल प्रतिलिपियाँ (originals) हों, तो सिर्फ एक मूल को सिद्ध करना पर्याप्त है।

Explanation 3:
किसी दस्तावेज़ में यदि अन्य किसी तथ्य का उल्लेख किया गया है जो इस धारा के अंतर्गत नहीं आता, तो उस तथ्य को मौखिक साक्ष्य से सिद्ध किया जा सकता है।

✍️ उदाहरण (Illustrations):

(a) यदि कोई अनुबंध कई पत्रों (letters) में किया गया है, तो सभी पत्रों को सिद्ध करना होगा।

(b) यदि कोई अनुबंध बिल ऑफ एक्सचेंज (bill of exchange) में है, तो वही बिल सिद्ध किया जाना चाहिए।

(d) A ने B से लिखित रूप में कुछ शर्तों पर इंडिगो (indigo) देने का अनुबंध किया। अनुबंध में उल्लेख है कि B ने पूर्व में मौखिक अनुबंध के तहत कुछ इंडिगो का मूल्य चुका दिया है। अब यदि यह मौखिक साक्ष्य प्रस्तुत किया जाए कि वास्तव में ऐसा कोई भुगतान नहीं हुआ था — तो यह साक्ष्य स्वीकार्य है, क्योंकि यह उस मौखिक लेनदेन से जुड़ा है, न कि वर्तमान लिखित अनुबंध से।

(e) A ने B को भुगतान के लिए रसीद दी। अब यदि B यह साबित करने के लिए मौखिक साक्ष्य देता है कि वास्तव में उसने भुगतान किया था — यह साक्ष्य मान्य है।

 निष्कर्ष:

जब किसी अनुबंध या संपत्ति-हस्‍तांतरण की शर्तें लिखित रूप में हो, तो उन्हीं दस्तावेजों के माध्यम से उन्हें साबित किया जा सकता है। मौखिक साक्ष्य केवल सीमित स्थितियों में ही मान्य होता है। यह सिद्धांत “best evidence rule” पर आधारित है – अर्थात् जो साक्ष्य सबसे श्रेष्ठ है (मूल दस्तावेज़), उसी को पहले प्रस्तुत करना होगा।

धारा 95 – मौखिक समझौते का साक्ष्य निषिद्ध

 मुख्य सिद्धांत:
जब किसी अनुबंध (contract), अनुदान (grant) या संपत्ति के हस्‍तांतरण (disposition of property) की शर्तें या कोई अन्य बात धारा 94 के अनुसार दस्तावेज के रूप में प्रमाणित हो चुकी हो, तब उस अनुबंध या दस्तावेज की पक्षकारों (या उनके उत्तराधिकारियों) के बीच उसकी शर्तों का खंडन करने, उन्हें बदलने, जोड़ने या घटाने के लिए कोई मौखिक साक्ष्य स्वीकार्य नहीं होगा।

प्रावधानों के अपवाद (Provisos):

प्रथम अपवाद:
ऐसा कोई तथ्य सिद्ध किया जा सकता है जिससे यह प्रमाणित हो कि दस्तावेज अमान्य है या कोई व्यक्ति उसके संबंध में कोई डिक्री/आदेश पाने का अधिकारी है, जैसे कि:

धोखाधड़ी (fraud)

धमकी (intimidation)

अवैधता (illegality)

सही ढंग से निष्पादन का अभाव (want of due execution)

क्षमता का अभाव (incapacity)

प्रतिफल की कमी (failure of consideration)

वास्तविक या विधिक भ्रम (mistake of fact or law)

द्वितीय अपवाद:
यदि किसी अलग मौखिक समझौते में ऐसी किसी बात का उल्लेख है, जिस पर दस्तावेज मौन है और वह दस्तावेज की शर्तों से विरोधाभासी नहीं है, तो उसका साक्ष्य दिया जा सकता है।
 लेकिन इसमें दस्तावेज की औपचारिकता की प्रकृति (formality) को ध्यान में रखा जाएगा।

तृतीय अपवाद:
ऐसे मौखिक समझौते का साक्ष्य दिया जा सकता है जो किसी शर्तपूर्व स्थिति (condition precedent) को स्थापित करता हो — अर्थात् कोई अनुबंध तब तक प्रभावी न हो जब तक कोई अन्य मौखिक शर्त पूरी न हो।

चतुर्थ अपवाद:
ऐसे मौखिक समझौते का साक्ष्य दिया जा सकता है जो बाद में (distinct subsequent agreement) किसी लिखित अनुबंध को रद्द (rescind) या संशोधित (modify) करता हो — बशर्ते कि वह अनुबंध कानून द्वारा अनिवार्य रूप से लिखित या पंजीकृत न हो

पंचम अपवाद:
ऐसी प्रचलित प्रथाओं या रिवाजों (usages/customs) का साक्ष्य दिया जा सकता है जो उस प्रकार के अनुबंध में सामान्यतः जुड़ी होती हैं, बशर्ते कि वे अनुबंध की स्पष्ट शर्तों से असंगत न हों।

षष्ठम अपवाद:
ऐसा कोई तथ्य सिद्ध किया जा सकता है जिससे यह स्पष्ट हो कि दस्तावेज की भाषा का संबंध वर्तमान तथ्यों से किस प्रकार है, अर्थात् दस्तावेज की व्याख्या कैसे की जाए।

 उदाहरण (Illustrations):

(a) बीमा पॉलिसी कहती है: “कोलकाता से विशाखापट्टनम तक जहाजों द्वारा माल”। यदि यह मौखिक रूप से कहा गया हो कि एक विशेष जहाज इस पॉलिसी से बाहर रखा गया है — इसका साक्ष्य स्वीकार्य नहीं है।

(b) A लिखित रूप में B को ₹1000 देने की बात करता है, 1 मार्च को। मौखिक रूप से कहा गया कि भुगतान 31 मार्च को होगा — यह साक्ष्य अमान्य है।

(c) एक संपत्ति की बिक्री हुई जिसमें नक्शा संलग्न है। मौखिक रूप से यह कहा जाए कि नक्शे से बाहर की जमीन भी बेची गई थी — यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता

(d) A, B की खानों को चलाने का अनुबंध करता है, पर B ने मूल्य के बारे में झूठी जानकारी दी — धोखाधड़ी का साक्ष्य दिया जा सकता है

(e) अनुबंध की किसी शर्त को गलती से शामिल कर दिया गया — A यह सिद्ध कर सकता है और सुधार (reform) की मांग कर सकता है।

(f) A ने B से सामान मंगाया, भुगतान की शर्त नहीं लिखी गई — A यह सिद्ध कर सकता है कि उधार पर था

(g) घोड़ा बेचा गया, मौखिक वारंटी दी गई कि वह स्वस्थ है — यह मौखिक साक्ष्य स्वीकार्य है

(h) अगर साधारण कार्ड पर किराया लिखा गया हो — मौखिक रूप से यह सिद्ध किया जा सकता है कि भोजन भी शामिल था;
लेकिन यदि स्टाम्प पर, वकील द्वारा तैयार लिखित अनुबंध है, और उसमें भोजन का कोई उल्लेख नहीं है, तो मौखिक साक्ष्य स्वीकार्य नहीं होगा

(i) B ने पैसे नहीं भेजे पर रसीद रख ली — A यह साबित कर सकता है कि भुगतान नहीं हुआ था

(j) कोई अनुबंध भविष्य में किसी स्थिति के घटने पर प्रभाव में आना है — A यह सिद्ध कर सकता है कि वह स्थिति पूरी नहीं हुई थी

 निष्कर्ष:

धारा 95 का मूल उद्देश्य यह है कि जब किसी बात को लिखित रूप में तय कर दिया गया हो, तो मौखिक साक्ष्य के आधार पर उसकी विश्वसनीयता को चुनौती नहीं दी जा सकती, ताकि दस्तावेजों की स्पष्टता, स्थायित्व और प्रमाणिकता बनी रहे। लेकिन इस नियम से कुछ न्यायसंगत अपवाद भी हैं, जो धोखाधड़ी, भूल, या व्यवहारिकता के आधार पर मौखिक साक्ष्य को स्वीकार करने की अनुमति देते हैं।

धारा 96 – अस्पष्ट या दोषपूर्ण दस्तावेज़ को स्पष्ट या संशोधित करने हेतु साक्ष्य वर्जित है

 मुख्य सिद्धांत:
जब किसी दस्तावेज़ की भाषा उसके चेहरे से ही अस्पष्ट (ambiguous) या दोषपूर्ण (defective) हो, तब ऐसे तथ्य का साक्ष्य नहीं दिया जा सकता जो उस दस्तावेज़ का अर्थ स्पष्ट करे या उसकी खामियों को पूरा करे।

 उदाहरण (Illustrations):

(a) A लिखित रूप में B को घोड़ा बेचने पर सहमत होता है, कीमत लिखी है: “₹1,00,000 या ₹1,50,000।”
अब यह स्पष्ट नहीं है कि कौन-सी कीमत तय हुई थी — इस स्थिति में कोई मौखिक साक्ष्य नहीं दिया जा सकता कि वास्तविक कीमत क्या तय हुई थी।

(b) एक विलेख (deed) में रिक्त स्थान (blanks) छोड़े गए हैं।
अब यह साबित करने के लिए कि वे रिक्त स्थान कैसे भरने थे, कोई तथ्य या साक्ष्य नहीं दिया जा सकता

 निष्कर्ष:

यदि कोई दस्तावेज़ अपने आप में अस्पष्ट या अपूर्ण हो, तो उसमें किसी बाहरी तथ्य द्वारा सुधार या व्याख्या नहीं की जा सकती। न्यायालय ऐसे दस्तावेज़ की अस्पष्टता को बाहरी साक्ष्य से स्पष्ट करने की अनुमति नहीं देता, ताकि दस्तावेज़ की विश्वसनीयता और प्रमाणिकता बनी रहे।

धारा 97 – वर्तमान तथ्यों पर दस्तावेज़ के प्रयोग के विरुद्ध साक्ष्य वर्जित है

 मुख्य सिद्धांत:
जब किसी दस्तावेज़ की भाषा स्वतः स्पष्ट (plain) हो और वह भाषा वर्तमान तथ्यों पर सटीक रूप से लागू होती हो, तो यह दिखाने के लिए कोई साक्ष्य नहीं दिया जा सकता कि उस दस्तावेज़ को ऐसे तथ्यों पर लागू करने का इरादा नहीं था।

 उदाहरण (Illustration):

A एक विलेख द्वारा B को “मेरी रामपुर की 100 बीघा ज़मीन” बेचता है।
A के पास वास्तव में रामपुर में 100 बीघा की एक ज़मीन है।
अब यह कहने के लिए कि बेचने का इरादा किसी अन्य स्थान की अलग आकार की ज़मीन का था, कोई साक्ष्य नहीं दिया जा सकता

 निष्कर्ष:

यदि दस्तावेज़ की भाषा स्पष्ट है और वह मौजूदा तथ्य से मेल खाती है, तो यह कहकर उसे चुनौती नहीं दी जा सकती कि इरादा कुछ और था। इससे दस्तावेज़ों की निश्चितता और पारदर्शिता बनी रहती है।

धारा 98 – जब दस्तावेज़ की भाषा वर्तमान तथ्यों के संदर्भ में निरर्थक हो, तब साक्ष्य दिया जा सकता है

 मुख्य सिद्धांत:
यदि किसी दस्तावेज़ की भाषा स्वतः स्पष्ट (plain) तो हो, परंतु वह वर्तमान तथ्यों के संदर्भ में निरर्थक (unmeaning) हो, तो यह दिखाने के लिए साक्ष्य दिया जा सकता है कि उस भाषा का प्रयोग किसी विशेष अर्थ (peculiar sense) में किया गया था।

 उदाहरण (Illustration):

A एक विलेख द्वारा B को “मेरा कोलकाता का मकान” बेचता है।
परंतु A के पास कोलकाता में कोई मकान नहीं था, बल्कि हावड़ा में एक मकान था जिसमें विलेख के निष्पादन के बाद से B रह रहा था
तो यह साबित करने के लिए कि विलेख का आशय हावड़ा के मकान से था, साक्ष्य दिया जा सकता है

 निष्कर्ष:

जब दस्तावेज़ की भाषा स्पष्ट होते हुए भी वास्तविकता से मेल नहीं खाती, तब यह दिखाने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत किया जा सकता है कि उसका प्रयोग अलग, विशिष्ट अर्थ में किया गया था। इससे दस्तावेज़ के पीछे की वास्तविक मंशा सामने लाई जा सकती है।

धारा 99 – जब प्रयुक्त भाषा कई व्यक्तियों/वस्तुओं में से केवल एक पर लागू हो सकती हो, तब साक्ष्य दिया जा सकता है

 मुख्य सिद्धांत:
यदि भाषा ऐसी हो जो कई व्यक्तियों या वस्तुओं में से केवल एक पर लागू हो सकती हो, और यह स्पष्ट न हो कि वह किस विशेष व्यक्ति या वस्तु पर लागू की गई थी, तो यह स्पष्ट करने के लिए साक्ष्य दिया जा सकता है कि वह भाषा किस पर लागू करने का आशय था।

 उदाहरण (Illustrations):

(a) A, B को 1000 रुपये में “मेरा सफेद घोड़ा” बेचने का वचन देता है।
A के पास दो सफेद घोड़े हैं।
 यह दिखाने के लिए साक्ष्य दिया जा सकता है कि कौन-सा घोड़ा बेचा जाने वाला था।

(b) A, B के साथ रामगढ़ जाने का वादा करता है।
 यह दिखाने के लिए साक्ष्य दिया जा सकता है कि राजस्थान वाला रामगढ़ या उत्तराखंड वाला रामगढ़ कौन-सा आशय था।

 निष्कर्ष:

जब एक ही भाषा कई विकल्पों में से किसी एक पर ही लागू हो सकती हो, और यह स्पष्ट न हो कि किस पर, तो उस अस्पष्टता को दूर करने के लिए तथ्यात्मक साक्ष्य दिया जा सकता है।
यह साक्ष्य भाषा की व्याख्या नहीं करता, बल्कि उसके वास्तविक अनुप्रयोग को स्पष्ट करता है।

धारा 100 – जब भाषा दो अलग-अलग तथ्यों के समूहों में से किसी एक पर आंशिक रूप से लागू हो लेकिन पूरी तरह किसी पर भी सही ढंग से लागू न होती हो, तब साक्ष्य दिया जा सकता है

 मुख्य सिद्धांत:
जब किसी दस्तावेज़ में प्रयुक्त भाषा आंशिक रूप से दो अलग-अलग तथ्यों के समूहों पर लागू होती हो, लेकिन पूरा कथन किसी एक समूह पर भी सही ढंग से लागू न होता हो, तो यह स्पष्ट करने के लिए साक्ष्य दिया जा सकता है कि उस भाषा का आशय किस समूह से था।

 उदाहरण (Illustration):

A, B को यह कहकर भूमि बेचने का अनुबंध करता है—
“मेरी भूमि X स्थान पर, जो Y के कब्जे में है।”
▪️ A के पास X स्थान पर भूमि है, लेकिन वह Y के कब्जे में नहीं है।
▪️ और A के पास एक भूमि Y के कब्जे में है, लेकिन वह X में नहीं है।
 इस स्थिति में यह दिखाने के लिए साक्ष्य दिया जा सकता है कि A किस भूमि को बेचने का आशय रखता था।

 निष्कर्ष:

जब भाषा मिश्रित रूप से दो भिन्न तथ्यों से जुड़ती हो, और किसी एक पर भी पूरी तरह लागू न होती हो, तब साक्ष्य के माध्यम से यह स्पष्ट किया जा सकता है कि अभिप्राय किस विकल्प को लेकर था।
यह नियम न्यायालय को गलतफहमी से बचाने और वास्तविक समझ को स्थापित करने में सहायता करता है।

धारा 101 – अस्पष्ट, अपठनीय या विशेष अर्थ वाले शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करने हेतु साक्ष्य

 मुख्य सिद्धांत:
यदि किसी दस्तावेज़ में प्रयुक्त शब्द, संकेत, या चिन्ह स्पष्ट, सामान्य या सर्वसामान्य अर्थ में समझ में नहीं आते, तो उन्हें समझाने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत किया जा सकता है।

 इन शब्दों के प्रकार जिनके अर्थ को स्पष्ट करने के लिए साक्ष्य दिया जा सकता है:

अस्पष्ट या अपठनीय अक्षर (illegible characters)
कम प्रचलित या तकनीकी शब्द
विदेशी, पुरातन, स्थानीय या क्षेत्रीय शब्द या अभिव्यक्तियाँ
संक्षेपाक्षर (abbreviations)
विशेष अर्थों में प्रयुक्त शब्द

 उदाहरण (Illustration):

A, जो एक मूर्तिकार है, B से यह कहकर सौदा करता है —
“मैं तुम्हें अपने सारे ‘mods’ बेचता हूँ।”
▪️ A के पास मॉडल्स (models) भी हैं और मॉडलिंग टूल्स (modelling tools) भी।
 ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट करने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत किया जा सकता है कि “mods” शब्द से क्या बेचने का आशय था

 निष्कर्ष:

जब किसी दस्तावेज़ में प्रयोग किए गए शब्दों का अर्थ सामान्य व्यक्ति की समझ से परे हो या कई अर्थों में प्रयुक्त हो सकते हों, तो ऐसे शब्दों के अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिए साक्ष्य दिया जा सकता है, ताकि न्यायालय सही अर्थ समझ सके और विवाद का समाधान कर सके।

धारा 102 – दस्तावेज़ की शर्तों को परिवर्तित करने वाले समझौते के साक्ष्य कौन दे सकता है

 मुख्य सिद्धांत:
जो व्यक्ति किसी दस्तावेज़ के पक्षकार नहीं हैं, या उनके हितों के प्रतिनिधि हैं, वे ऐसे तथ्यों का साक्ष्य दे सकते हैं, जो यह दर्शाते हैं कि उसी समय कोई मौखिक समझौता (contemporaneous oral agreement) हुआ था जो दस्तावेज़ की शर्तों को परिवर्तित करता है।

 इसका तात्पर्य:

आमतौर पर दस्तावेज़ के पक्षकार (parties) आपसी मौखिक समझौते से लिखित शर्तों को बदलने का साक्ष्य नहीं दे सकते (धारा 95)।
लेकिन तीसरे व्यक्ति (third party), जिनके हित उस दस्तावेज़ से प्रभावित होते हैं, ऐसा साक्ष्य दे सकते हैं

 उदाहरण (Illustration):

A और B एक लिखित अनुबंध करते हैं कि B, A को कुछ कपास बेचेगा और A को डिलीवरी के समय भुगतान करना होगा।
उसी समय, वे एक मौखिक समझौता करते हैं कि A को तीन महीने की क्रेडिट मिलेगी
 A और B के बीच यह मौखिक बात साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत नहीं की जा सकती,
लेकिन यदि C नामक तीसरे व्यक्ति के हित इससे प्रभावित होते हैं, तो C यह मौखिक समझौता सिद्ध कर सकता है

 निष्कर्ष:

जब कोई तीसरा व्यक्ति किसी दस्तावेज़ की शर्तों से प्रभावित होता है, तो वह यह सिद्ध करने के लिए साक्ष्य दे सकता है कि दस्तावेज़ के पक्षकारों के बीच उसी समय कोई मौखिक समझौता हुआ था, जिसने लिखित शर्तों को बदला। यह न्यायसंगत संतुलन बनाए रखता है कि पक्षकारों पर सीमाएं रहें, लेकिन अन्य प्रभावित व्यक्तियों को सच्चाई बताने का अधिकार हो।

धारा 103 – वसीयतों (Wills) की व्याख्या से संबंधित भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम की धाराओं की रक्षा

 मुख्य बात:
इस अध्याय (जो दस्तावेज़ों की व्याख्या और साक्ष्य से संबंधित है) में ऐसा कुछ भी नहीं है जो भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की उन धाराओं को प्रभावित करता हो जो वसीयतों की व्याख्या से संबंधित हैं।

 स्पष्टीकरण:

भारतीय साक्ष्य अधिनियम का यह अध्याय दस्तावेजों (contracts, deeds, आदि) की व्याख्या और उनसे जुड़े मौखिक साक्ष्य की अनुमति या निषेध पर आधारित है।

लेकिन वसीयतों (Wills) की व्याख्या का अपना एक अलग कानून है — Indian Succession Act, 1925

इसलिए यह धारा स्पष्ट करती है कि इस अध्याय की कोई भी बात वसीयत की व्याख्या पर लागू नहीं होगी, और उस विषय पर केवल उत्तराधिकार अधिनियम की धाराएं ही मान्य होंगी

 निष्कर्ष:

धारा 103 यह सुनिश्चित करती है कि “वसीयतों की व्याख्या” के मामलों में साक्ष्य अधिनियम के नियम नहीं, बल्कि “भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925” के विशेष नियम ही लागू होंगे। यह कानूनी टकराव को रोकने और विशिष्ट कानून की प्राथमिकता को बनाए रखने का प्रावधान है।

धारा 104 – प्रमाण का भार (Burden of Proof)

 मूल सिद्धांत:
जो कोई व्यक्ति किसी न्यायालय से यह चाहता है कि वह किसी कानूनी अधिकार या दायित्व के बारे में निर्णय दे, और वह अधिकार/दायित्व कुछ तथ्यों के अस्तित्व पर आधारित है, तो उन तथ्यों का अस्तित्व सिद्ध करना उसी व्यक्ति का दायित्व है

 जब किसी व्यक्ति पर यह ज़िम्मेदारी होती है कि वह किसी तथ्य का अस्तित्व सिद्ध करे, तो कहा जाता है कि प्रमाण का भार (Burden of Proof) उस व्यक्ति पर है।

 उदाहरणों द्वारा स्पष्टता:

उदाहरण (a):
A चाहता है कि न्यायालय यह निर्णय दे कि B ने अपराध किया है और उसे दंडित किया जाए।
 A को यह सिद्ध करना होगा कि B ने वह अपराध किया है।

उदाहरण (b):
A यह चाहता है कि न्यायालय यह निर्णय दे कि वह उस भूमि का मालिक है जो B के कब्जे में है, और A कुछ तथ्य प्रस्तुत करता है जिन्हें B नकारता है।
 A को उन तथ्यों का प्रमाण देना होगा जिन पर उसका दावा आधारित है।

महत्वपूर्ण बिंदु:

यह धारा प्रारंभिक प्रमाण भार (initial burden of proof) के बारे में है।
जिस व्यक्ति का दावा है, पहले उसे ही अपने दावे के समर्थन में तथ्य सिद्ध करने होते हैं।
यह सिद्धांत न्याय का मूल आधार है: “जिसे लाभ चाहिए, उसे ही प्रमाण देना होगा।”

 निष्कर्ष:

धारा 104 यह स्पष्ट करती है कि कोई भी व्यक्ति जब अपने किसी अधिकार की मांग न्यायालय से करता है, तो उस अधिकार से संबंधित तथ्यों का प्रमाण देना उसी का कर्तव्य होता है। इसे ही “प्रमाण का भार” कहा जाता है।

 

धारा 105 – किस पर प्रमाण का भार है (On whom burden of proof lies)

 मुख्य सिद्धांत:
किसी वाद या कार्यवाही में प्रमाण का भार उस व्यक्ति पर होता है जो इस स्थिति में असफल हो जाएगा यदि दोनों पक्षों द्वारा कोई साक्ष्य प्रस्तुत न किया जाए।

 उदाहरणों से समझिए:

उदाहरण (a):
A, B के खिलाफ उस भूमि के लिए वाद दायर करता है जो B के कब्जे में है और A का दावा है कि वह भूमि C (जो B का पिता है) की वसीयत द्वारा A को मिली है।
यदि दोनों पक्ष कोई भी साक्ष्य न दें, तो B भूमि का कब्जा बनाए रखेगा।
इसलिए, प्रमाण का भार A पर है।

उदाहरण (b):
A, B से एक बॉन्ड के आधार पर धन की वसूली चाहता है। B यह मानता है कि बॉन्ड बना है, लेकिन कहता है कि वह धोखाधड़ी से प्राप्त किया गया था, जिसे A नकारता है।
 यदि दोनों पक्ष कोई साक्ष्य न दें, तो बॉन्ड की वैधता बनी रहेगी और A सफल होगा।
इसलिए, प्रमाण का भार B पर है, क्योंकि उसे धोखाधड़ी सिद्ध करनी है।

मुख्य बिंदु:

यह धारा बताती है कि प्रारंभिक रूप से किस पक्ष को प्रमाण प्रस्तुत करना चाहिए।
इस नियम का उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया में स्पष्टता और निष्पक्षता सुनिश्चित करना है।
यह सिद्धांत भी कहा जाता है:
“The burden lies on the party who would fail if no evidence is led.”

 निष्कर्ष:

धारा 105 के अनुसार, जिस पक्ष का दावा या बचाव साक्ष्य के बिना विफल हो जाएगा, उसी पर प्रमाण का भार होता है। यह न्याय का एक सरल और तर्कसंगत सिद्धांत है, जो प्रमाण पेश करने की जिम्मेदारी तय करता है।

धारा 106 – किसी विशेष तथ्य के संबंध में प्रमाण का भार (Burden of proof as to particular fact)

 मुख्य नियम:
किसी विशेष तथ्य के संबंध में प्रमाण का भार उस व्यक्ति पर होता है जो चाहता है कि न्यायालय उस तथ्य के अस्तित्व पर विश्वास करे, जब तक कि कोई विधि यह न कहे कि उस तथ्य का प्रमाण किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दिया जाना चाहिए।

 उदाहरण से स्पष्टता:

A, B पर चोरी का अभियोग लगाता है और न्यायालय को यह विश्वास दिलाना चाहता है कि B ने चोरी स्वीकार की थी, और यह स्वीकारोक्ति C के समक्ष की थी।
 ऐसे में, A को यह सिद्ध करना होगा कि B ने C के सामने चोरी स्वीकार की थी।

अब यदि B यह कहना चाहता है कि चोरी के समय वह किसी अन्य स्थान पर था (अलीबाई/अलिबी),
 तो इस तथ्य को साबित करने का भार B पर होगा, क्योंकि वही चाहता है कि न्यायालय इस तथ्य पर विश्वास करे।

 मुख्य बिंदु:

यह धारा विशेष तथ्यों के प्रमाण से जुड़ी है, न कि पूरे मुकदमे के सामान्य प्रमाण से।
यह सिद्धांत तर्कसंगत है – जो व्यक्ति किसी तथ्य पर न्यायालय का विश्वास चाहता है, उसी को उसे सिद्ध करना चाहिए।
यदि कोई कानून विशेष रूप से कहता है कि कोई अन्य व्यक्ति उस तथ्य को सिद्ध करेगा, तो उस स्थिति में अपवाद बनेगा।

 निष्कर्ष:

धारा 106 के अनुसार, किसी विशेष तथ्य को सिद्ध करने का भार उसी व्यक्ति पर होता है जो चाहता है कि न्यायालय उस पर विश्वास करे, जब तक कि कोई विशेष कानून उस प्रमाण के दायित्व को अन्य व्यक्ति पर न डाले। यह न्यायिक प्रक्रिया में संतुलन और स्पष्टता लाने के लिए महत्वपूर्ण सिद्धांत है।

 

धारा 107 – साक्ष्य को ग्राह्य (admissible) बनाने हेतु आवश्यक तथ्य को सिद्ध करने का भार
(Burden of proving fact to be proved to make evidence admissible)

 मुख्य सिद्धांत:
जब किसी व्यक्ति को कोई विशेष साक्ष्य देने के लिए पहले किसी अन्य तथ्य को सिद्ध करना आवश्यक होता है, तो उस आवश्यक तथ्य को सिद्ध करने का भार उसी व्यक्ति पर होता है जो वह साक्ष्य देना चाहता है।

 स्पष्टीकरण उदाहरणों द्वारा:

उदाहरण (a):
A चाहता है कि वह B का मरणोपरांत कथन (dying declaration) प्रमाण के रूप में न्यायालय में प्रस्तुत करे।
 A को यह सिद्ध करना होगा कि B की मृत्यु हो चुकी है, क्योंकि मरणोपरांत कथन तभी ग्राह्य होता है जब व्यक्ति की मृत्यु हो चुकी हो।

उदाहरण (b):
A एक गुम हो चुके दस्तावेज़ की सामग्री को द्वितीयक साक्ष्य (secondary evidence) के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है।
 A को यह सिद्ध करना होगा कि वह दस्तावेज़ वास्तव में गुम हो गया है, तभी उसका द्वितीयक साक्ष्य ग्राह्य होगा।

 महत्वपूर्ण बिंदु:

यह धारा साक्ष्य की पूर्व-शर्त से संबंधित है – यानि किसी साक्ष्य को स्वीकार करने से पहले कोई विशेष तथ्य प्रमाणित करना आवश्यक हो तो, उसका दायित्व किस पर होगा।

यह सिद्धांत न्याय प्रक्रिया की प्रारंभिक वैधता (procedural admissibility) सुनिश्चित करता है – केवल आवश्यक शर्तों की पूर्ति के बाद ही साक्ष्य को अनुमति दी जाती है।

 निष्कर्ष:

धारा 107 के अनुसार, जब कोई साक्ष्य तभी प्रस्तुत किया जा सकता है जब कोई पूर्व आवश्यक तथ्य सिद्ध हो जाए, तो उस पूर्व तथ्य को सिद्ध करने का भार उसी व्यक्ति पर होता है जो साक्ष्य देना चाहता है। यह सिद्धांत न्यायिक कार्यवाही में साक्ष्य की वैधता को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।

 

धारा 108 – यह सिद्ध करने का भार कि अभियुक्त का मामला अपवादों के अंतर्गत आता है
(Burden of proving that case of accused comes within exceptions)

 मुख्य सिद्धांत:
जब किसी व्यक्ति पर कोई अपराध आरोपित किया गया हो, तो यदि वह यह दावा करता है कि उसका कार्य भारतीय न्याय संहिता, 2023 (Bharatiya Nyaya Sanhita) में दिए गए किसी सामान्य अपवाद (General Exception), विशेष अपवाद (Special Exception) या किसी अन्य वैध अपवाद के अंतर्गत आता है, तो ऐसी परिस्थितियों को सिद्ध करने का भार अभियुक्त (accused) पर होता है, और न्यायालय यह मान लेगा कि ऐसी कोई अपवादात्मक स्थिति नहीं थी, जब तक कि अभियुक्त उसे प्रमाणित न कर दे।

 स्पष्टीकरण उदाहरणों द्वारा:

उदाहरण (a):
A पर हत्या का आरोप है। वह यह कहता है कि मानसिक अस्वस्थता (unsoundness of mind) के कारण वह अपने कृत्य की प्रकृति नहीं समझ सका।
 ऐसे में यह सिद्ध करने का भार A पर है कि वह मानसिक रूप से अस्वस्थ था।

उदाहरण (b):
A पर हत्या का आरोप है। वह कहता है कि अत्यधिक और अचानक उकसावे (grave and sudden provocation) के कारण उसने आत्म-नियंत्रण खो दिया।
 इस परिस्थिति को सिद्ध करना A की जिम्मेदारी है।

उदाहरण (c):
A पर भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 117 के तहत गंभीर चोट पहुँचाने का आरोप है, लेकिन वह कहता है कि उसका मामला धारा 122(2) के अपवाद के अंतर्गत आता है।
 इस अपवाद की स्थिति को सिद्ध करने का भार A पर है।

 महत्वपूर्ण बिंदु:

अभियुक्त पर प्रारंभिक आरोप सिद्ध करने की जिम्मेदारी अभियोजन पक्ष (Prosecution) की होती है,
लेकिन यदि अभियुक्त किसी अपवाद का लाभ लेना चाहता है, तो वह अपवाद वह स्वयं सिद्ध करेगा।

यह सिद्ध करना अभियुक्त की जिम्मेदारी है कि उसके खिलाफ जो सामान्य अपराध है, वह किसी कानूनी अपवाद के कारण अपराध नहीं बनता।

 निष्कर्ष:

धारा 108 के अनुसार, यदि अभियुक्त यह दावा करता है कि उसका कृत्य किसी वैधानिक अपवाद के अंतर्गत आता है, तो उस अपवाद की स्थिति को प्रमाणित करना उसी का उत्तरदायित्व होता है। जब तक वह ऐसा नहीं करता, न्यायालय यह मानकर चलेगा कि ऐसी कोई अपवादात्मक परिस्थिति मौजूद नहीं थी।

 

धारा 109 – ऐसे तथ्य को सिद्ध करने का भार जो विशेष रूप से किसी व्यक्ति के ज्ञान में हो
(Burden of proving fact especially within knowledge)

 मुख्य सिद्धांत:
जब कोई तथ्य विशेष रूप से किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत ज्ञान में होता है, तो उस तथ्य को सिद्ध करने का भार उसी व्यक्ति पर होता है।

यह न्याय की एक सामान्य भावना है कि जो व्यक्ति किसी तथ्य को जानता है, वही उसे सिद्ध करने के लिए सबसे उपयुक्त स्थिति में होता है।

 स्पष्टीकरण उदाहरणों द्वारा:

उदाहरण (a):
यदि कोई व्यक्ति ऐसा कार्य करता है, जिसका सामान्य आशय कुछ और होता है, लेकिन वह दावा करता है कि उसका आशय कुछ भिन्न था,
 तो उस भिन्न आशय (intention) को सिद्ध करने का भार उसी पर होगा।

उदाहरण (b):
A पर आरोप है कि उसने रेलवे में बिना टिकट यात्रा की।
 यह तथ्य कि उसके पास टिकट था या नहीं, यह विशेष रूप से A के अपने ज्ञान में है,
इसलिए उसके पास टिकट होने का प्रमाण देने का दायित्व A पर है।

 महत्वपूर्ण बिंदु:

यह धारा उस स्थिति में लागू होती है, जहां कोई तथ्य अदालत के अन्य माध्यमों से सामान्यतः ज्ञात नहीं हो सकता, परंतु वह विशेष रूप से किसी व्यक्ति के निजी ज्ञान में होता है।

यह धारा भार विभाजन (burden shifting) के सिद्धांत को लागू करती है — यानी, आमतौर पर अभियोजन को तथ्य सिद्ध करना होता है, लेकिन यदि कोई विशेष तथ्य अभियुक्त या किसी अन्य व्यक्ति के खास ज्ञान में है, तो उसे ही उसे सिद्ध करना पड़ेगा।

 निष्कर्ष:

धारा 109 के अनुसार, जब कोई तथ्य विशेष रूप से किसी व्यक्ति के निजी ज्ञान में हो, तो उस तथ्य को सिद्ध करने का दायित्व उसी व्यक्ति का होता है। इसका उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया को निष्पक्ष और व्यावहारिक बनाना है।

धारा 110 – ऐसे व्यक्ति की मृत्यु सिद्ध करने का भार जो पिछले तीस वर्षों में जीवित पाया गया हो
(Burden of proving death of person known to have been alive within thirty years)

 मुख्य सिद्धांत:
जब यह प्रश्न उठता है कि कोई व्यक्ति जीवित है या नहीं, और यह दिखाया जाता है कि वह पिछले 30 वर्षों के भीतर जीवित था,
 तो यह सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जो यह दावा करता है कि वह अब मर चुका है।

 इस धारा का उद्देश्य:

जीवन की निरंतरता की कानूनी मान्यता प्रदान करना।
न्यायालय यह मानकर चलता है कि यदि कोई व्यक्ति हाल के वर्षों में जीवित था, तो वह अब भी जीवित है, जब तक कि इसके विपरीत प्रमाण न दिया जाए।

 प्रमुख बिंदु:

यदि कोई व्यक्ति 30 वर्षों के भीतर जीवित देखा गया था,
तो उसकी मृत्यु का दावा करने वाले व्यक्ति को यह सिद्ध करना होगा कि वह अब जीवित नहीं है।

यह धारा संपत्ति के उत्तराधिकार, बीमा दावों, गुमशुदगी के मामलों, आदि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

 निष्कर्ष:

यदि कोई व्यक्ति पिछले 30 वर्षों में जीवित था, तो न्यायालय उसकी मृत्यु की धारणा नहीं बनाएगा, जब तक कि यह स्पष्ट प्रमाण के साथ सिद्ध न किया जाए।
 इस स्थिति में, मृत्यु को सिद्ध करने का भार उस व्यक्ति पर होगा जो मृत्यु का दावा करता है।

धारा 111 – ऐसे व्यक्ति के जीवित होने का भार जिसे सात वर्षों से नहीं सुना गया हो
(Burden of proving that person is alive who has not been heard of for seven years)

 मुख्य सिद्धांत:
यदि यह प्रश्न उठता है कि कोई व्यक्ति जीवित है या मर चुका है, और यह सिद्ध कर दिया जाए कि वह सात वर्षों से उन लोगों द्वारा नहीं सुना गया है,
जो स्वाभाविक रूप से उससे संपर्क में होते यदि वह जीवित होता,
 तो उस व्यक्ति पर भार आ जाता है जो यह दावा करता है कि वह अभी भी जीवित है

 इस धारा का उद्देश्य:

गायब व्यक्ति की स्थिति को स्पष्ट करना, ताकि उत्तराधिकार, विवाह, बीमा और संपत्ति संबंधी विवादों में निर्णय लिया जा सके।

न्यायालय सात वर्षों तक अज्ञात रहने पर व्यक्ति की मृत्यु मान सकता है, जब तक कि कोई यह सिद्ध न करे कि वह जीवित है।

 प्रमुख बिंदु:

व्यक्ति के सात साल से कोई समाचार न होने पर,
 न्यायालय यह मान सकता है कि वह मर चुका है।

ऐसी स्थिति में, यदि कोई यह कहता है कि वह व्यक्ति अब भी जीवित है,
तो सिद्ध करने का भार उसी व्यक्ति पर होगा

 निष्कर्ष:

यदि कोई व्यक्ति सात वर्षों से लापता है और उसके जीवन का कोई संकेत नहीं है,
तो उसकी मृत्यु की एक कानूनी धारणा बनती है।
 ऐसे में जीवित होने का दावा करने वाले व्यक्ति को उसका प्रमाण देना होगा।

 

धारा 112 – साझेदार, मकान-मालिक व किरायेदार, तथा प्रधान व अभिकर्ता के संबंधों में प्रमाण का भार
(Burden of proof as to relationship in the cases of partners, landlord and tenant, principal and agent)

 मुख्य सिद्धांत:
जब यह प्रश्न उठता है कि दो व्यक्ति आपस में साझेदार, मकान-मालिक और किरायेदार, या प्रधान और अभिकर्ता हैं या नहीं,
और यह सिद्ध कर दिया गया हो कि उन्होंने वास्तव में ऐसे संबंधों में कार्य किया है,
 तब यह भार उस व्यक्ति पर होगा जो यह कहता है कि अब ऐसा संबंध नहीं है या कभी था ही नहीं।

 धारा का उद्देश्य:

प्राकृतिक व्यवहार पर आधारित संबंधों की पुष्टि करना।
यदि लोग आपसी क्रियाकलाप में किसी विशेष संबंध (जैसे साझेदारी या किरायेदारी) की तरह कार्य करते हैं, तो उसे एक प्रारंभिक प्रमाण मान लिया जाएगा।

 प्रमुख बिंदु:

यदि किसी ने स्वयं को साझेदार, किरायेदार, या एजेंट की तरह व्यवहार किया है,
 तो कानून यह मान लेता है कि वह व्यक्ति वास्तव में उस संबंध में है।

यदि कोई यह कहता है कि ऐसा संबंध कभी था ही नहीं या अब नहीं है,
 तो उसे इसका प्रमाण देना होगा

 निष्कर्ष:

व्यवहारिक प्रमाण को संबंध का आधार मानकर,
 इस धारा में यह सुनिश्चित किया गया है कि कोई व्यक्ति, जो विशेष संबंध में कार्य करता रहा है,
बिना उचित प्रमाण के उससे मुकर नहीं सकता।
उल्टा दावा करने वाले को ही प्रमाण देना होगा।

 

धारा 113 – स्वामित्व के संबंध में प्रमाण का भार
(Burden of proof as to ownership)

 मुख्य सिद्धांत:
जब यह प्रश्न उठता है कि कोई व्यक्ति किसी वस्तु का मालिक (Owner) है या नहीं,
और यह दिखा दिया गया हो कि वह व्यक्ति उस वस्तु के कब्जे (Possession) में है,
 तब यह भार उस व्यक्ति पर होगा जो यह कहता है कि वह मालिक नहीं है।

 धारा का उद्देश्य:

कब्जे (Possession) को एक प्रारंभिक प्रमाण के रूप में मान्यता देना।
यह मान लेना कि जो व्यक्ति किसी वस्तु पर नियंत्रण रखता है, वही उसका मालिक है,
जब तक कि इसके विपरीत कुछ सिद्ध न कर दिया जाए।

 प्रमुख बिंदु:

यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु के कब्जे में है,
 तो यह माना जाएगा कि वह उसका स्वामी (Owner) है।
यदि कोई व्यक्ति इस स्वामित्व को चुनौती देता है,
 तो उसे सिद्ध करना होगा कि वह व्यक्ति मालिक नहीं है।

 निष्कर्ष:

कब्जा = स्वामित्व का प्राथमिक संकेत।
 जब तक विपरीत सिद्ध न हो, कब्जाधारी को मालिक माना जाएगा।
जो व्यक्ति इसका खंडन करता है, उसे इसका प्रमाण देना होगा।

धारा 114 – उन लेन-देन में सद्भावना का प्रमाण जहाँ एक पक्ष सक्रिय विश्वास के संबंध में हो
(Proof of good faith in transactions where one party is in relation of active confidence)

 मुख्य सिद्धांत:
जब दो पक्षों के बीच किसी लेन-देन की सद्भावना (good faith) पर प्रश्न उठता है,
और उनमें से एक पक्ष दूसरे के प्रति सक्रिय विश्वास (active confidence) की स्थिति में है,
 तो उस लेन-देन की सद्भावना सिद्ध करने का भार उसी पक्ष पर होता है, जो सक्रिय विश्वास की स्थिति में है।

 ‘Active Confidence’ का अर्थ:

इसका अर्थ है ऐसा संबंध जिसमें एक पक्ष दूसरे पर अत्यधिक विश्वास करता है – जैसे कि:

अधिवक्ता और मुवक्किल (Advocate & Client)

पिता और नव-वयस्क पुत्र (Father & Son just come of age)

गुरु और शिष्य,

डॉक्टर और रोगी,

ट्रस्टी और लाभार्थी, आदि।

 Illustrations (उदाहरण):

(a) मुवक्किल द्वारा अधिवक्ता को की गई बिक्री की सद्भावना पर सवाल उठता है –
 सद्भावना सिद्ध करने का भार अधिवक्ता पर है।

(b) अभी-अभी बालिग हुए पुत्र द्वारा पिता को की गई बिक्री की सत्यता पर प्रश्न उठता है –
 सद्भावना सिद्ध करने का भार पिता पर है।

 महत्वपूर्ण बिंदु:

यह धारणा इस सिद्धांत पर आधारित है कि जो व्यक्ति प्रभाव की स्थिति में है, वह लेन-देन को प्रभावित कर सकता है।
इसलिए न्याय की दृष्टि से यह उचित है कि वह व्यक्ति ही लेन-देन की ईमानदारी (good faith) साबित करे।

 निष्कर्ष:

जहाँ दो पक्षों में विश्वास का गहरा संबंध हो और किसी लेन-देन की नैतिकता, न्याय या ईमानदारी पर सवाल उठे,
 तो प्रमाण का भार उस पर होता है जो प्रभावशाली स्थिति (dominant position) में है।
यह निष्पक्षता की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है।

धारा 115 – कुछ अपराधों के संबंध में अनुमान (Presumption as to certain offences)

 मुख्य प्रावधान:
यदि किसी व्यक्ति पर कुछ विशेष अपराधों (नीचे दिए गए) का आरोप है, और वह ऐसे क्षेत्र में उपस्थित पाया गया है जहाँ लंबे समय से शांति भंग रही हो या जिसे कानून के तहत “अशांत क्षेत्र (disturbed area)” घोषित किया गया हो,
और यह सिद्ध हो जाए कि उस समय और स्थान पर आग्नेयास्त्र या विस्फोटकों का प्रयोग सुरक्षा बलों पर हमला करने या उनका प्रतिरोध करने के लिए किया गया था,
 तो यह माना जाएगा (presume किया जाएगा) कि उस व्यक्ति ने वह अपराध किया है, जब तक कि वह इसके विपरीत साबित न कर दे।

 किन क्षेत्रों में यह प्रावधान लागू होता है:

(a) वह क्षेत्र जिसे किसी क़ानून के अंतर्गत “अशांत क्षेत्र” घोषित किया गया हो – जहां दंगे, विद्रोह, आतंक आदि को नियंत्रित करने के लिए विशेष कानून लागू हो।
(b) ऐसा क्षेत्र जहाँ एक महीने से अधिक समय तक व्यापक सार्वजनिक अशांति रही हो।

 किन अपराधों के लिए यह अनुमान लगाया जाएगा?

(जिनका वर्णन उप-धारा 2 में किया गया है):

धारा 147 – दंगा (Rioting)

धारा 148 – घातक हथियार के साथ दंगा

धारा 149 – गैरकानूनी जमाव का सामान्य उद्देश्य से किया गया अपराध

धारा 150 – गैरकानूनी जमाव के लिए लोगों को उकसाना या भाड़े पर लेना

धारा 149 या 150 के अंतर्गत

षड्यंत्र (Criminal Conspiracy)

प्रयास (Attempt)

उकसाना (Abetment)

 व्याख्या:

यह धारा राज्य के कानून और व्यवस्था की रक्षा हेतु बनायी गई है।
यदि कोई व्यक्ति ऐसी हिंसा-ग्रस्त जगह पर मौजूद था जहाँ से बलों पर हमला हुआ, तो कानून स्वतः यह मान लेता है कि वह व्यक्ति शामिल था –
जब तक वह स्वयं यह सिद्ध न कर दे कि वह निर्दोष है।

 निष्कर्ष:

इस धारा के तहत, कुछ गंभीर अपराधों की स्थिति में, जब व्यक्ति अशांत क्षेत्र में आग्नेयास्त्र या विस्फोटक के उपयोग के दौरान उपस्थित हो,
 तो अदालत यह मान लेगी कि उसने अपराध किया,
जब तक वह साक्ष्य प्रस्तुत कर खुद को निर्दोष साबित न करे

यह एक गंभीर विधिक अनुमान (legal presumption) है जो सार्वजनिक शांति बनाए रखने हेतु लागू किया गया है।

 

धारा 116 – विवाह के दौरान जन्म, वैध संतति का निर्णायक प्रमाण (Birth during marriage, conclusive proof of legitimacy)

 मुख्य प्रावधान:
यदि कोई व्यक्ति एक वैध विवाह के दौरान, या उस विवाह के समापन (तलाक/मृत्यु) के 280 दिनों के भीतर जन्म लेता है और माता ने पुनः विवाह नहीं किया है,
 तो यह निर्णायक प्रमाण (conclusive proof) माना जाएगा कि वह बच्चा उसी पुरुष की वैध संतति (legitimate child) है।

केवल एक स्थिति में इसे चुनौती दी जा सकती है:
जब यह साबित किया जाए कि विवाह के समय दंपत्ति के बीच कोई संसर्ग (access) नहीं था, यानी वे उस समय साथ नहीं थे जब उस बच्चे की संकल्पना (conception) संभव थी।

 महत्वपूर्ण बिंदु:

यदि माता और पिता वैध विवाह में थे – और बच्चा उस दौरान या विवाह खत्म होने के 280 दिनों के अंदर पैदा हुआ है,
और माँ ने दोबारा विवाह नहीं किया है,
 तो कानून मान लेता है कि बच्चा उसी पति की संतान है।

परंतु, यह सिद्ध किया जा सकता है कि पति-पत्नी के बीच उस समय कोई संबंध नहीं था,
जिससे यह अनुमान टूट सकता है।

 निष्कर्ष:

यह धारा बच्चे की वैधता (legitimacy) की सुरक्षा करती है और अनावश्यक विवाद से बचाती है।
जब तक विपरीत साक्ष्य नहीं दिए जाते, तब तक बच्चा उस पति का वैध संतान माना जाएगा जो उस समय विवाह में था या विवाह खत्म होने के 280 दिनों के भीतर।

यह एक “conclusive presumption of law” है, जिसका खंडन केवल ‘no access’ के प्रमाण से ही संभव है।

धारा 117 – विवाहित स्त्री द्वारा आत्महत्या करने के प्रकरण में उकसावे की अनुमान की धारणा (Presumption as to abetment of suicide by a married woman)

 मुख्य प्रावधान:
जब किसी स्त्री द्वारा की गई आत्महत्या के मामले में यह प्रश्न उठता है कि क्या उसके पति या पति के किसी रिश्तेदार ने आत्महत्या के लिए उसे उकसाया (abet),
तो न्यायालय यह अनुमान लगा सकता है कि आत्महत्या का उकसावन उसी पति या रिश्तेदार द्वारा किया गया, यदि निम्नलिखित दोनों बातें साबित हो जाएं—

स्त्री ने विवाह की तिथि से सात वर्ष के भीतर आत्महत्या की हो, और
उसे पति या उसके किसी रिश्तेदार द्वारा क्रूरता (cruelty) का शिकार बनाया गया हो।

व्याख्या (Explanation):

इस धारा में “क्रूरता” शब्द का वही अर्थ है जो धारा 86, भारतीय न्याय संहिता, 2023 में दिया गया है, अर्थात्—

शारीरिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित करना या
विवाह के लिए या विवाह संबंधी कारणों से अनुचित दबाव डालना या दहेज संबंधी अत्याचार करना।

 निष्कर्ष:

यदि कोई विवाहित स्त्री, विवाह के 7 वर्षों के भीतर आत्महत्या करती है, और यह साबित हो जाए कि उसे पति या ससुराल वालों ने क्रूरता का शिकार बनाया,
 तो न्यायालय यह मान सकता है कि आत्महत्या उसी क्रूरता के कारण और उकसावे से हुई है।

यह अनुमान अनिवार्य नहीं बल्कि वैकल्पिक (discretionary) है — यानी न्यायालय अन्य परिस्थितियों को देखकर निर्णय ले सकता है।

यह धारा आत्महत्या के मामलों में पति या ससुराल पक्ष की जिम्मेदारी तय करने में अहम भूमिका निभाती है, विशेषतः दहेज प्रताड़ना जैसे मामलों में।

धारा 117 – विवाहित स्त्री द्वारा आत्महत्या करने के प्रकरण में उकसावे की अनुमान की धारणा (Presumption as to abetment of suicide by a married woman)

 मुख्य प्रावधान:
जब किसी स्त्री द्वारा की गई आत्महत्या के मामले में यह प्रश्न उठता है कि क्या उसके पति या पति के किसी रिश्तेदार ने आत्महत्या के लिए उसे उकसाया (abet),
तो न्यायालय यह अनुमान लगा सकता है कि आत्महत्या का उकसावन उसी पति या रिश्तेदार द्वारा किया गया, यदि निम्नलिखित दोनों बातें साबित हो जाएं—

स्त्री ने विवाह की तिथि से सात वर्ष के भीतर आत्महत्या की हो, और
उसे पति या उसके किसी रिश्तेदार द्वारा क्रूरता (cruelty) का शिकार बनाया गया हो।

 व्याख्या (Explanation):

इस धारा में “क्रूरता” शब्द का वही अर्थ है जो धारा 86, भारतीय न्याय संहिता, 2023 में दिया गया है, अर्थात्—

शारीरिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित करना या
विवाह के लिए या विवाह संबंधी कारणों से अनुचित दबाव डालना या दहेज संबंधी अत्याचार करना।

 निष्कर्ष:

यदि कोई विवाहित स्त्री, विवाह के 7 वर्षों के भीतर आत्महत्या करती है, और यह साबित हो जाए कि उसे पति या ससुराल वालों ने क्रूरता का शिकार बनाया,
 तो न्यायालय यह मान सकता है कि आत्महत्या उसी क्रूरता के कारण और उकसावे से हुई है।

 यह अनुमान अनिवार्य नहीं बल्कि वैकल्पिक (discretionary) है — यानी न्यायालय अन्य परिस्थितियों को देखकर निर्णय ले सकता है।

यह धारा आत्महत्या के मामलों में पति या ससुराल पक्ष की जिम्मेदारी तय करने में अहम भूमिका निभाती है, विशेषतः दहेज प्रताड़ना जैसे मामलों में।

धारा 119 – कुछ तथ्यों के अस्तित्व के संबंध में न्यायालय द्वारा अनुमान लगाने की शक्ति (Court may presume existence of certain facts)

 मुख्य प्रावधान:
न्यायालय किसी तथ्य के अस्तित्व का अनुमान लगा सकता है यदि वह यह समझे कि वह तथ्य सामान्य प्राकृतिक घटनाओं की सामान्य प्रवृत्ति, मानव व्यवहार और सार्वजनिक तथा निजी कार्यव्यवहार की सामान्य चाल के अनुसार संभवतः घटित हुआ होगा, विशेष रूप से मामले की परिस्थितियों के संदर्भ में।

 उदाहरण (Illustrations):

कोई व्यक्ति चोरी के तुरन्त बाद चोरी की वस्तु के कब्जे में है — न्यायालय मान सकता है कि वह या तो चोर है या जान-बूझकर चुराई हुई वस्तु को प्राप्त किया है, जब तक कि वह कब्जे का उचित कारण न बताए।

कोई सह-अपराधी (accomplice) अविश्वसनीय माना जाएगा जब तक कि उसकी बातों की प्रमुख तथ्यों में पुष्टि न हो

कोई हुण्डी या बिल ऑफ एक्सचेंज यदि स्वीकार या समर्थन किया गया हो तो माना जाएगा कि वह उचित विचार (consideration) पर किया गया।

कोई चीज़ या अवस्था जो हाल ही में अस्तित्व में पाई गई हो, और जो सामान्यतः इतनी जल्दी समाप्त नहीं होती, अभी भी अस्तित्व में मानी जा सकती है

न्यायिक व प्रशासनिक कार्य नियमित रूप से किए गए माने जाएंगे।

व्यवसाय की सामान्य प्रक्रिया पालन में रही है, ऐसा मान लिया जाएगा।

जो सबूत प्रस्तुत किए जा सकते थे पर नहीं किए गए, वे यदि प्रस्तुत किए जाते, तो उनसे उस व्यक्ति को नुकसान होता जो उन्हें छिपा रहा है — ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है।

यदि कोई व्यक्ति ऐसे प्रश्न का उत्तर देने से इंकार करता है जिसे देने के लिए कानून उसे बाध्य नहीं करता, तो माना जाएगा कि उत्तर देने पर वह नुकसान में पड़ता

जब कोई बॉन्ड या ऋण दस्तावेज़ उस व्यक्ति के पास हो जिस पर उसका दायित्व है (obligor), तो माना जाएगा कि ऋण चुका दिया गया है

 उपविभाग (2): किन परिस्थितियों में उपरोक्त अनुमान न लगाया जाए:

उदाहरणस्वरूप:

(i) दुकानदार के पास चोरी के कुछ समय बाद चिह्नित सिक्का पाया गया — पर वह तो रोज़ सैकड़ों सिक्के प्राप्त करता है।

(ii) एक उच्च चरित्र वाला व्यक्ति, मशीनरी से मृत्यु के लिए लापरवाही का आरोप झेल रहा है, और दूसरा समान चरित्र वाला व्यक्ति उसकी गलती की संयुक्त जिम्मेदारी बताता है।

(iii) कई अपराधियों द्वारा अपराध — तीन आरोपियों ने अलग-अलग बयान दिए लेकिन एक जैसे तथ्यों के साथ चौथे को फँसाया। यह साबित कर सकता है कि बात सच है।

(iv) प्रभावित और अनुभवहीन व्यक्ति द्वारा स्वीकार किया गया बिल, जो प्रभावशाली व्यक्ति द्वारा खींचा गया हो।

(v) नदी की पुरानी दिशा — लेकिन बाढ़ के कारण दिशा बदलने की संभावना।

(vi) न्यायिक कार्य विशेष परिस्थितियों में किया गया — सामान्य नियमितता मानना उचित नहीं।

(vii) पत्र पोस्ट किया गया लेकिन डाक सेवा दंगों के कारण बाधित थी — सामान्य प्रक्रिया नहीं मानी जाएगी।

(viii) कोई व्यक्ति ऐसा दस्तावेज़ नहीं दिखा रहा जो एक मामूली वाद से संबंधित है, पर वह परिवार की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुँचा सकता है।

(ix) कोई व्यक्ति उत्तर देने से इंकार करता है, पर उत्तर देने से उसे अन्य मामलों में नुकसान हो सकता है

(x) ऋणपत्र दायित्वकर्ता के पास है — लेकिन चोरी की आशंका हो सकती है।

 निष्कर्ष:

धारा 119 न्यायालय को यह विवेक देती है कि वह अनुभव, तर्क, मानव प्रवृत्ति और व्यावसायिक व्यवहार के आधार पर किसी तथ्य का अनुमान लगाए — परंतु हर मामले की विशेष परिस्थितियाँ भी ध्यान में रखनी होंगी, ताकि यह तय हो सके कि ऐसा अनुमान उपयुक्त है या नहीं।

यह धारा न्यायिक विवेक को दिशा देती है और न्यायिक निर्णयों में तार्किक अनुमान का स्थान सुनिश्चित करती है।

धारा 120 – कुछ बलात्कार के अभियोगों में सहमति के अभाव के संबंध में अनुमान (Presumption as to absence of consent in certain prosecution for rape)

 मुख्य प्रावधान:
जब भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 64(2) के अंतर्गत बलात्कार का अभियोग हो, और यह साबित हो जाए कि आरोपी द्वारा यौन संबंध बनाए गए, तथा यह प्रश्न हो कि क्या वह यौन संबंध महिला की सहमति के बिना था —
और यदि पीड़ित महिला न्यायालय में गवाही देती है कि उसने सहमति नहीं दी थी,
तो न्यायालय यह अनुमान लगाएगा कि सहमति नहीं दी गई थी।

 स्पष्टीकरण:
इस धारा में “यौन संबंध (sexual intercourse)” से आशय भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 63 में वर्णित किसी भी कृत्य से है।

 महत्वपूर्ण बिंदु:

अनुमान अनिवार्य है: जब पीड़िता स्पष्ट रूप से कहती है कि उसने सहमति नहीं दी, तो अदालत को मान लेना होगा कि सहमति नहीं थी — आरोपी को इसका खंडन करना होगा

यह प्रावधान विशेष रूप से धारा 64(2) के तहत बलात्कार के मामलों पर लागू होता है, जैसे कि:

पुलिस हिरासत में,

सार्वजनिक सेवक द्वारा,

अस्पताल में कार्यरत व्यक्ति द्वारा,

महिला के संरक्षणकर्ता द्वारा आदि।

यह महिला की गवाही को अधिक प्रभावशाली और निर्णायक बनाता है।

 निष्कर्ष:

इस धारा का उद्देश्य है कि विशेष परिस्थितियों में महिलाओं की सुरक्षा और न्याय सुनिश्चित किया जाए, जहां उनकी सहमति का शोषण किया जा सकता है।
यदि पीड़िता न्यायालय में कहती है कि सहमति नहीं थी, तो यह कानूनी रूप से पर्याप्त माना जाएगा, जब तक कि आरोपी यह साबित न करे कि सहमति थी।

यह प्रावधान बलात्कार के मामलों में पीड़िता के कथनों को सशक्त कानूनी आधार प्रदान करता है।

धारा 121 – प्रतिषेध (Estoppel)

 मुख्य प्रावधान:
जब कोई व्यक्ति अपने किसी कथन, कार्य या चूक (omission) द्वारा दूसरे व्यक्ति को किसी बात पर विश्वास करने और उस पर कार्य करने के लिए जानबूझकर प्रेरित करता है,
तो वह व्यक्ति या उसका प्रतिनिधि, उस दूसरे व्यक्ति या उसके प्रतिनिधि के साथ किसी वाद या प्रक्रिया में,
उस विश्वास को असत्य सिद्ध करने की अनुमति नहीं पा सकता।

सरल शब्दों में, यदि आपने किसी को किसी बात पर विश्वास करने के लिए प्रेरित किया और उसने उस पर भरोसा कर कोई कार्य किया, तो आप बाद में यह नहीं कह सकते कि वह बात गलत थी।

 उदाहरण:

A जानबूझकर और झूठ बोलकर B को यह विश्वास दिलाता है कि एक ज़मीन A की है, और इस विश्वास के आधार पर B वह ज़मीन खरीद लेता है और भुगतान कर देता है।
बाद में वह ज़मीन वास्तव में A की संपत्ति बन जाती है और A उस बिक्री को इस आधार पर रद्द करना चाहता है कि बिक्री के समय उसके पास स्वामित्व नहीं था।
 ऐसे में, A को यह साबित करने की अनुमति नहीं मिलेगी कि उस समय उसके पास स्वामित्व नहीं था, क्योंकि उसने स्वयं B को भ्रमित किया था।

 महत्वपूर्ण बातें:

यह सिद्धांत न्याय और ईमानदारी (equity and fairness) पर आधारित है।
इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई व्यक्ति अपने पूर्व कथन या कार्यों के विपरीत जाकर दूसरे को नुकसान न पहुंचा सके।
प्रतिषेध का सिद्धांत केवल उन्हीं मामलों में लागू होता है जहां विश्वास जानबूझकर उत्पन्न किया गया हो और दूसरा व्यक्ति उस पर कार्य कर चुका हो।

 निष्कर्ष:

धारा 121 व्यक्ति को अपने ही कथन या कार्य के विरुद्ध मुकरने से रोकती है, यदि किसी दूसरे ने उस पर विश्वास कर कार्य किया हो।
यह अनुचित लाभ को रोकने और विश्वास के आधार पर किए गए कार्यों की सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण प्रावधान है।

 

धारा 122 – किरायेदार और लाइसेंसी के लिए प्रतिषेध (Estoppel of tenant and licensee)

 मुख्य प्रावधान:
कोई भी किरायेदार (tenant) अचल संपत्ति का, या ऐसा व्यक्ति जो उस किरायेदार के माध्यम से अधिकार का दावा करता है, वह —
किराए की अवधि के दौरान या उसके बाद कभी भी यह इंकार नहीं कर सकता कि किराए की शुरुआत में मकान मालिक के पास उस संपत्ति का वैध स्वामित्व था।

इसी प्रकार,
कोई भी व्यक्ति जो किसी अचल संपत्ति में लाइसेंस (अनुमति) के आधार पर गया हो, वह यह इंकार नहीं कर सकता कि उसे लाइसेंस देने वाले व्यक्ति के पास उस समय वैध अधिकार था।

 

 सरल उदाहरण:

किरायेदार का मामला:
A, B से एक दुकान किराए पर लेता है।
किराए की अवधि के दौरान या बाद में, A यह नहीं कह सकता कि B इस दुकान का मालिक नहीं था।
 कानून A को B के स्वामित्व से इनकार करने की अनुमति नहीं देता।

लाइसेंस का मामला:
C, D की अनुमति से उसके मकान में अस्थायी रूप से रहता है।
बाद में, C यह नहीं कह सकता कि D के पास उस मकान पर कब्जे का वैध अधिकार नहीं था जब उसने अनुमति दी थी।
 ऐसा दावा धारा 122 के तहत वर्जित है।

 महत्वपूर्ण बातें:

यह धारा न्याय, नैतिकता और व्यवहारिकता पर आधारित है।
इसका उद्देश्य यह है कि जो व्यक्ति किसी स्थान पर दूसरे के अधिकार को मानकर प्रवेश करता है (चाहे किराए पर या अनुमति से),
वह बाद में उसके अधिकार को नकार नहीं सकता।

यह सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि कोई व्यक्ति अपने पूर्व स्वीकार किए गए संबंध को चुनौती देकर अनैतिक लाभ न ले सके।

 निष्कर्ष:

धारा 122 यह सुनिश्चित करती है कि किरायेदार और लाइसेंसी बाद में मकान मालिक या लाइसेंसदाता के स्वामित्व को चुनौती नहीं दे सकते, यदि उन्होंने पहले उसे स्वामित्व मानकर कब्जा लिया हो।
 यह मालिक के अधिकार की रक्षा करता है और संपत्ति विवादों को रोकने में मदद करता है।

धारा 123 – हुंडी स्वीकारकर्ता, भंडारी (bailee) या लाइसेंसी के लिए प्रतिषेध (Estoppel)

 मुख्य प्रावधान:
निम्नलिखित व्यक्तियों को कुछ विशिष्ट बातों से इनकार करने की अनुमति नहीं है:

हुंडी (bill of exchange) का स्वीकारकर्ता (acceptor) यह नहीं कह सकता कि जिसने हुंडी बनाई (drawer), उसे हुंडी बनाने या समर्थन (endorse) करने का अधिकार नहीं था।

भंडारी (bailee) या लाइसेंसी (licensee) यह नहीं कह सकता कि जिसने वस्तु को उसके पास रखवाया या उसे अनुमति दी (bailor या licensor), उसके पास ऐसा करने का अधिकार नहीं था जब उसने वस्तु दी या लाइसेंस दिया।

 स्पष्टीकरण (Explanations):

स्पष्टीकरण 1:
हुंडी स्वीकारकर्ता यह कह सकता है कि वह हुंडी असल में उसी व्यक्ति द्वारा नहीं बनाई गई थी, जो उस पर हस्ताक्षरकर्ता के रूप में दिखाई देता है।

स्पष्टीकरण 2:
यदि कोई भंडारी (bailee) वस्तु को मूल व्यक्ति (bailor) के अलावा किसी और को सौंपता है,
तो वह यह सिद्ध कर सकता है कि वह दूसरा व्यक्ति उस वस्तु पर वैध अधिकार रखता था, भंडारी के मुकाबले।

 उदाहरण द्वारा समझें:

हुंडी का मामला:
X, एक बिल ऑफ एक्सचेंज स्वीकार करता है, जो Y ने खींचा है।
बाद में X यह नहीं कह सकता कि Y के पास बिल खींचने का अधिकार नहीं था।
लेकिन अगर X यह साबित करना चाहता है कि Y असल में वह व्यक्ति है ही नहीं जिसने बिल खींचा, तो यह वह कर सकता है।

भंडारी का मामला:
A, B को एक घड़ी सुरक्षित रखने के लिए देता है।
B बाद में यह नहीं कह सकता कि A के पास घड़ी देने का अधिकार नहीं था।

लाइसेंस का मामला:
C, D को एक कमरे में रहने की अनुमति देता है।
D बाद में यह नहीं कह सकता कि C के पास अनुमति देने का अधिकार नहीं था।

निष्कर्ष:

धारा 123 यह सुनिश्चित करती है कि:

जो व्यक्ति किसी हुंडी को स्वीकार करता है, वह उसके बनाने वाले के अधिकार से इनकार नहीं कर सकता।

जो व्यक्ति भंडारी या लाइसेंसी के रूप में कार्य करता है, वह बैलर या लाइसेंसदाता के अधिकार से इनकार नहीं कर सकता।

यह सिद्धांत न्याय, लेन-देन की शुचिता और भरोसे को बनाए रखने के लिए जरूरी है।

धारा 124 – कौन साक्ष्य दे सकता है (Who may testify)

 मुख्य प्रावधान:
हर व्यक्ति साक्ष्य देने के लिए सक्षम माना जाएगा, जब तक कि न्यायालय यह न माने कि वह व्यक्ति प्रश्नों को समझने या उनके तार्किक उत्तर देने में अक्षम है, और यह अक्षमता निम्न में से किसी कारण से हो सकती है:

बहुत छोटी आयु (tender years)
अत्यधिक वृद्धावस्था (extreme old age)
कोई रोग – शारीरिक या मानसिक (disease of body or mind)
या ऐसी कोई अन्य समान अवस्था

 स्पष्टीकरण (Explanation):
कोई व्यक्ति केवल इस कारण से अयोग्य नहीं माना जाएगा कि वह मानसिक रूप से अस्वस्थ (unsound mind) है।
 यदि वह व्यक्ति अपने अस्वस्थ मानसिक अवस्था के कारण प्रश्नों को समझ नहीं सकता या उनका तार्किक उत्तर नहीं दे सकता, तभी वह साक्ष्य देने में अयोग्य होगा।

निष्कर्ष:

धारा 124 का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि कोई भी व्यक्ति केवल आयु, बीमारी या मानसिक स्थिति के कारण स्वतः अयोग्य न माना जाए, बल्कि यह न्यायालय के विवेक पर निर्भर करेगा कि वह उस व्यक्ति की बुद्धि और समझ की क्षमता को देखकर यह तय करे कि वह गवाही देने योग्य है या नहीं।

 यह प्रावधान न्यायिक प्रक्रिया में व्यक्तिगत योग्यता और मानसिक समझ की भूमिका को महत्व देता है।

 

धारा 125 – वह साक्षी जो मौखिक रूप से संवाद करने में असमर्थ है (Witness unable to communicate verbally)

 मुख्य प्रावधान:
अगर कोई साक्षी बोलने में असमर्थ है, तो वह अपनी गवाही किसी भी अन्य तरीके से दे सकता है जिससे वह उसे समझने योग्य (intelligible) बना सके, जैसे कि:

लिखकर (writing),
या संकेतों (signs) द्वारा।

 परंतु यह आवश्यक है कि:

वह लिखित बयान न्यायालय में खुली कार्यवाही (open Court) में लिखा जाए,

और संकेत भी न्यायालय के समक्ष किए जाएं।

 ऐसी गवाही को मौखिक साक्ष्य (oral evidence) माना जाएगा।

 प्रावधान:
यदि साक्षी मौखिक संवाद (verbal communication) करने में असमर्थ हो,
तो:

न्यायालय को दुभाषिये (interpreter) या विशेष शिक्षक (special educator) की सहायता लेकर उसका बयान दर्ज करना होगा।
और उस बयान का वीडियोग्राफ (videography) किया जाना अनिवार्य है।

निष्कर्ष:

धारा 125 यह सुनिश्चित करती है कि जो व्यक्ति मौखिक रूप से गवाही नहीं दे सकते, वे भी न्यायिक प्रक्रिया में भाग ले सकें।
 यह प्रावधान विकलांगजनों के अधिकारों की रक्षा करता है और उन्हें सम्मानपूर्वक सुनवाई का अवसर देता है।
 साथ ही, पारदर्शिता सुनिश्चित करने हेतु वीडियोग्राफी अनिवार्य की गई है।

 

धारा 126 – कुछ मामलों में पति और पत्नी की साक्ष्य देने की क्षमता (Competency of husband and wife as witnesses in certain cases)

 उपधारा (1) – दीवानी मामलों (Civil Proceedings) में:
सभी दीवानी मामलों में:
जो व्यक्ति वाद (case) में पक्षकार हैं,
और उन पक्षकारों के पति या पत्नी,
 गवाही देने के लिए सक्षम (competent witnesses) माने जाएंगे।

 उपधारा (2) – आपराधिक मामलों (Criminal Proceedings) में:
किसी व्यक्ति के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही में:
उस व्यक्ति का पति या पत्नी,
 साक्षी (witness) बनने के लिए सक्षम (competent) होगा।

 निष्कर्ष:

धारा 126 यह स्पष्ट करती है कि दीवानी और आपराधिक दोनों प्रकार की कार्यवाहियों में पति या पत्नी साक्ष्य देने के लिए योग्य होते हैं।
 इसका उद्देश्य न्यायिक प्रक्रिया को व्यापक और निष्पक्ष बनाना है,
 जिससे दांपत्य संबंध किसी महत्वपूर्ण गवाही में बाधा न बनें।

धारा 128 – विवाह के दौरान की गई बातचीत (Communications during marriage)

 मुख्य प्रावधान:
कोई भी व्यक्ति जो विवाहित है या कभी विवाहित रहा है, उसे निम्नलिखित के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता और न ही उसे अनुमति दी जाएगी:

अपने पति या पत्नी द्वारा विवाह के दौरान की गई किसी बातचीत को उजागर करने के लिए,
जब तक वह व्यक्ति जिसने वह बातचीत की थी, या उसके हिताधिकारी (representative in interest) द्वारा इसकी स्वीकृति न दी जाए।

 अपवाद (Exceptions):
यदि यह मामला पति-पत्नी के बीच का कोई वाद हो (जैसे तलाक, भरण-पोषण), या
यदि एक पति या पत्नी के विरुद्ध कोई अपराध का अभियोजन चल रहा हो, जो दूसरे जीवनसाथी के खिलाफ किया गया हो —
तब यह प्रतिबंध लागू नहीं होता, और ऐसी बातचीत को उजागर किया जा सकता है।

निष्कर्ष:

धारा 128 विवाह को एक गोपनीय संस्था मानती है और पति-पत्नी के बीच की निजी बातचीत को कानूनी सुरक्षा प्रदान करती है। कोई पति या पत्नी, विवाह के दौरान हुई आपसी बातचीत को ना तो उजागर करने के लिए मजबूर किया जा सकता है, ना ही उसकी अनुमति होती है, जब तक कि विशेष रूप से वह व्यक्ति अनुमति न दे जिसने वह बातचीत की थी — सिवाय उन मामलों के जहाँ वे दोनों एक-दूसरे के विरुद्ध मुकदमे में पक्षकार हों।

धारा 129 – राज्य के कार्यों से संबंधित मामलों का साक्ष्य (Evidence as to affairs of State)

 मुख्य प्रावधान:
राज्य के कार्यों से संबंधित अप्रकाशित सरकारी अभिलेखों (unpublished official records) से प्राप्त कोई भी साक्ष्य किसी भी व्यक्ति को देने की अनुमति नहीं होगी, जब तक कि—

संबंधित विभाग के प्रधान अधिकारी (head of the department) की अनुमति प्राप्त न हो।

यह अनुमति देना या न देना उस अधिकारी की स्वेच्छा पर निर्भर करेगा। वह अपनी समझ के अनुसार अनुमति दे या रोके सकता है।

निष्कर्ष:

धारा 129 का उद्देश्य राष्ट्रीय हित और गोपनीयता की रक्षा करना है। यदि कोई साक्ष्य राज्य के गोपनीय कार्यों से संबंधित है और वह सरकारी रिकॉर्ड अभी तक सार्वजनिक नहीं हुआ है, तो उसे कोर्ट में साक्ष्य के रूप में तभी पेश किया जा सकता है, जब संबंधित विभाग का उच्च अधिकारी स्पष्ट अनुमति प्रदान करे।

धारा 130 – सरकारी संप्रेषण (Official Communications)

 मुख्य प्रावधान:
कोई भी लोक सेवक (public officer) किसी ऐसी सूचना का खुलासा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता जो उसे आधिकारिक गोपनीयता (official confidence) के तहत दी गई हो, यदि वह यह माने कि उस सूचना के खुलासे से सार्वजनिक हित को हानि पहुँचेगी।

यानी, यदि कोई सूचना गोपनीय तरीके से सरकारी कार्य के दौरान दी गई है और उसका खुलासा करने से जनहित (public interest) को नुकसान हो सकता है, तो अधिकारी उसे प्रकट करने से इनकार कर सकता है।

निष्कर्ष:

धारा 130 का उद्देश्य सरकारी कार्यों में गोपनीयता और सुरक्षा बनाए रखना है। यह लोक सेवकों को अधिकार देता है कि वे ऐसी संप्रेषणों का खुलासा न करें जो सार्वजनिक हित के प्रतिकूल हों, भले ही उन्हें साक्ष्य देने के लिए बुलाया गया हो।

धारा 131 – अपराधों के संबंध में सूचना देने के लिए बाध्यता नहीं (Information as to commission of offences)

 मुख्य प्रावधान:
कोई मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी इस बात को बताने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता कि उसे किस समय या कब किसी अपराध के बारे में जानकारी मिली।
इसी प्रकार, कोई भी राजस्व अधिकारी यह बताने के लिए बाध्य नहीं होगा कि उसे लोक राजस्व (public revenue) से संबंधित किसी अपराध के बारे में कब सूचना मिली।

स्पष्टीकरण:
राजस्व अधिकारी (revenue officer)” का अर्थ है कोई ऐसा अधिकारी जो लोक राजस्व के किसी भी विभाग में या उससे संबंधित कार्यों में नियुक्त हो।

निष्कर्ष:

धारा 131 का उद्देश्य मजिस्ट्रेट, पुलिस और राजस्व अधिकारियों को सुरक्षा प्रदान करना है, ताकि वे गुप्त सूचनाओं के स्रोतों को प्रकट करने के लिए विवश न हों। यह कानून जांच की गोपनीयता और प्रभावशीलता बनाए रखने में सहायक है।

धारा 132 – पेशेवर संवाद (Professional Communications)

 मुख्य प्रावधान:
कोई भी वकील (advocate) बिना अपने मुवक्किल की स्पष्ट अनुमति के, उस संवाद (communication) को प्रकट नहीं कर सकता:

जो संवाद मुवक्किल या उसकी ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा,
वकील की पेशेवर सेवा के दौरान और उसी उद्देश्य से किया गया हो,
या कोई ऐसा दस्तावेज़ जिसकी जानकारी उसे पेशेवर सेवा के दौरान मिली हो,
या उसने जो सलाह मुवक्किल को दी हो।

अपवाद (Proviso): यह गोपनीयता निम्नलिखित मामलों में लागू नहीं होगी:

(a) यदि संवाद किसी अवैध उद्देश्य (illegal purpose) की पूर्ति के लिए किया गया हो।
(b) यदि वकील ने सेवा के दौरान ऐसा कोई तथ्य देखा हो जिससे यह स्पष्ट होता हो कि सेवा प्रारंभ होने के बाद अपराध या धोखाधड़ी की गई है।

 यह बात महत्त्वहीन है कि वकील का ध्यान उस तथ्य की ओर मुवक्किल द्वारा दिलाया गया हो या नहीं।

 स्पष्टीकरण: यह गोपनीयता की बाध्यता (duty of confidentiality) वकील की सेवा समाप्त हो जाने के बाद भी बनी रहती है।

 उदाहरण (Illustrations):

(a) A अपने वकील B से कहता है – “मैंने जालसाजी की है, और चाहता हूँ कि आप मेरी तरफ से बचाव करें।”
यह संवाद गोपनीय रहेगा, क्योंकि अपराध के बाद बचाव करना अवैध नहीं है।

(b) A अपने वकील B से कहता है – “मैं एक जाली दस्तावेज़ के माध्यम से संपत्ति पाना चाहता हूँ, आप उसी पर मुकदमा करें।”
यह संवाद गोपनीय नहीं रहेगा, क्योंकि यह अपराध करने के उद्देश्य से किया गया है।

(c) B, A का वकील है, जो गबन के मामले में बचाव कर रहा है। मुकदमे की प्रक्रिया के दौरान B यह देखता है कि A की खाता-बही में एक एंट्री बाद में जोड़ दी गई है, जो पहले नहीं थी।
यह तथ्य गोपनीय नहीं है, क्योंकि यह सेवा प्रारंभ होने के बाद किए गए धोखे को दर्शाता है।

 उप-धारा (3):
यह प्रावधान दुभाषियों (interpreters), वकीलों के लिपिकों या कर्मचारियों पर भी लागू होता है।

निष्कर्ष:
धारा 132 मुवक्किल और वकील के बीच गोपनीयता के सिद्धांत की रक्षा करती है, परंतु यदि संवाद अपराध या धोखाधड़ी के उद्देश्य से किया गया हो, तो वह संरक्षित नहीं रहेगा।

धारा 133 – साक्ष्य देने से विशेषाधिकार (Privilege) समाप्त नहीं होता

 मुख्य प्रावधान:
यदि किसी वाद (suit) में कोई पक्षकार (party) स्वेच्छा से या अन्यथा स्वयं साक्ष्य देता है, तो केवल इस आधार पर यह नहीं माना जाएगा कि उसने धारा 132 के अंतर्गत गोपनीय संवाद (professional communications) को प्रकट करने की अनुमति दे दी है

 साथ ही, यदि कोई पक्षकार किसी ऐसे वकील (advocate) को गवाह के रूप में बुलाता है,
तो यह तभी माना जाएगा कि उसने विशेष संवाद प्रकट करने की अनुमति दी है,
जब वह वकील से ऐसे प्रश्न पूछता है, जो अन्यथा वकील प्रकट करने के लिए स्वतंत्र नहीं होता।

निष्कर्ष:
धारा 133 यह सुनिश्चित करती है कि यदि कोई व्यक्ति स्वयं गवाही दे, तो वह अपने पेशेवर संवादों की गोपनीयता खो नहीं देता, जब तक कि वह जानबूझकर वकील से उस विषय पर प्रश्न नहीं करता, जो अन्यथा गोपनीय होता

यह प्रावधान वकील-मुवक्किल के विश्वासपूर्ण संबंधों की सुरक्षा करता है।

धारा 134 – विधिक परामर्शदाताओं के साथ गोपनीय संवाद

 मुख्य प्रावधान:
कोई भी व्यक्ति न्यायालय में अपने और अपने विधिक परामर्शदाता (legal adviser) के बीच हुए गोपनीय संवाद (confidential communication) को प्रकट करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा,

जब तक कि वह स्वयं गवाह के रूप में उपस्थित न हो।

 यदि कोई व्यक्ति स्वयं गवाह बनता है, तो उसे केवल उन्हीं गोपनीय संवादों को प्रकट करने के लिए बाध्य किया जा सकता है,
जो न्यायालय को यह समझाने के लिए आवश्यक प्रतीत हों कि उसने जो साक्ष्य दिया है, उसका पूरा आशय क्या है।

इसके अतिरिक्त अन्य कोई गोपनीय संवाद प्रकट करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

  निष्कर्ष:
धारा 134 व्यक्ति और उसके विधिक परामर्शदाता के बीच के गोपनीय अधिकार को सुरक्षित करती है, और यह सिर्फ तभी सीमित होता है जब व्यक्ति स्वयं गवाही देता है, और न्यायालय यह समझे कि उसके साक्ष्य की व्याख्या के लिए कुछ संवाद आवश्यक हैं।

धारा 135 – ऐसे गवाह से संपत्ति के शीर्षक-पत्र (title-deeds) प्रस्तुत करने की बाध्यता जो पक्षकार नहीं है

 मुख्य प्रावधान:
कोई भी गवाह जो मुकदमे का पक्षकार नहीं है, उसे निम्नलिखित दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता—

उसकी संपत्ति के शीर्षक-पत्र (title-deeds)
ऐसा कोई दस्तावेज जिसके आधार पर वह किसी संपत्ति को गिरवी (pledgee) या बंधक (mortgagee) के रूप में धारण करता हो
ऐसा कोई दस्तावेज जिसकी प्रस्तुति से वह स्वयं आपराधिक उत्तरदायित्व (criminal liability) में आ सकता हो

जब तक कि उसने लिखित रूप से ऐसे दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए स्वीकृति न दी हो,
और वह स्वीकृति उस व्यक्ति या उसके उत्तराधिकारी को दी हो जो दस्तावेज मांग रहा है।

निष्कर्ष:
धारा 135 ऐसे गवाह को सुरक्षा प्रदान करती है जो मुकदमे का पक्षकार नहीं है। जब तक उसने लिखित में सहमति नहीं दी हो, उसे स्वामित्व-संबंधी दस्तावेज या स्वयं को फँसाने वाले दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

 

धारा 136 – ऐसे दस्तावेजों या इलेक्ट्रॉनिक अभिलेखों का प्रस्तुतिकरण जिनका उत्पादन कोई अन्य व्यक्ति अस्वीकार कर सकता है

 मुख्य प्रावधान:
कोई भी व्यक्ति ऐसे दस्तावेज (documents) या इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख (electronic records) प्रस्तुत करने के लिए विवश नहीं किया जाएगा:

जो उसके पास हों या उसके नियंत्रण में हों,
लेकिन अगर वे किसी अन्य व्यक्ति के पास होते, तो वह उन्हें प्रस्तुत करने से इनकार करने का अधिकार रखता।

जब तक कि वह अन्य व्यक्ति स्वीकृति न दे, तब तक ऐसे दस्तावेज प्रस्तुत करने के लिए बाध्यता नहीं होगी।

निष्कर्ष:
धारा 136 का उद्देश्य व्यक्तिगत विशेषाधिकारों और गोपनीयता की रक्षा करना है। यदि किसी दस्तावेज को कोई और व्यक्ति कानूनन छिपा सकता है, तो वही अधिकार उस व्यक्ति को भी है जिसके पास वह दस्तावेज या इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड है — जब तक मूल व्यक्ति स्वेच्छा से अनुमति न दे।

धारा 137 – गवाही देने से इंकार करने की अनुमति नहीं है केवल इस आधार पर कि उत्तर से अपराध सिद्ध हो सकता है

मुख्य प्रावधान:
कोई भी गवाह केवल इस आधार पर किसी प्रश्न का उत्तर देने से इंकार नहीं कर सकता कि:

उसका उत्तर स्वयं उसके विरुद्ध आपराधिक आरोप सिद्ध कर सकता है (criminating answer),
या वह उत्तर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसे किसी दंड या संपत्ति के क्षय (forfeiture) के लिए उत्तरदायी बना सकता है।

परंतु शर्त (Proviso):
ऐसा कोई भी उत्तर, जिसे गवाह को देने के लिए बाध्य किया गया हो, उसे:

किसी गिरफ्तारी या अभियोजन (prosecution) के लिए उपयोग नहीं किया जा सकेगा,
और वह उत्तर किसी भी आपराधिक कार्यवाही में उसके विरुद्ध प्रमाण के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकेगा,
सिवाय उस स्थिति के जब गवाह ने उसी उत्तर के संबंध में झूठी गवाही (false evidence) दी हो।

निष्कर्ष:
गवाह को यह कहकर चुप रहने की अनुमति नहीं है कि उसका उत्तर उसके खिलाफ आपराधिक परिणाम ला सकता है, लेकिन यदि उसे उत्तर देने के लिए बाध्य किया गया हो, तो उस उत्तर का उपयोग उसके विरुद्ध नहीं किया जा सकता, जिससे संवैधानिक संरक्षण (जैसे आत्म-अभियोग से सुरक्षा) सुनिश्चित होता है।

धारा 138 – सह-अपराधी (Accomplice)

 मुख्य प्रावधान:
कोई सह-अपराधी (Accomplice), अर्थात् वह व्यक्ति जिसने किसी अपराध में आरोपी के साथ मिलकर भाग लिया हो, एक सक्षम गवाह होता है (competent witness) और वह आरोपी के विरुद्ध गवाही दे सकता है

 दूसरा भाग:
यदि सह-अपराधी की गवाही के समर्थन में अन्य साक्ष्य (corroboration) हो, तो केवल उस गवाही के आधार पर किसी व्यक्ति को दोषी ठहराना अवैध नहीं है।

निष्कर्ष:
सह-अपराधी की गवाही वैध मानी जाती है, लेकिन आमतौर पर न्यायालय उसकी गवाही की पुष्टि (corroboration) अन्य स्वतंत्र साक्ष्यों से चाहती है, ताकि न्याय में निष्पक्षता बनी रहे।
यह धारा यह स्पष्ट करती है कि सह-अपराधी की गवाही अकेले दोषसिद्धि का आधार बन सकती है, यदि वह पुष्ट हो

धारा 139 – गवाहों की संख्या (Number of witnesses)

कोई विशेष संख्या में गवाहों की आवश्यकता नहीं होती है — किसी भी तथ्य को साबित करने के लिए यह जरूरी नहीं कि एक निश्चित संख्या में गवाहों की गवाही ली जाए।

महत्वपूर्ण बिंदु:

एक ही गवाह की गवाही भी किसी तथ्य को साबित करने के लिए पर्याप्त हो सकती है, बशर्ते कि गवाही सत्य हो और अन्य परिस्थितियों से समर्थन प्राप्त हो।

न्यायालय गवाहों की संख्या के बजाय गवाही की विश्वसनीयता और साक्ष्य की गुणवत्ता पर अधिक ध्यान देता है।

 न्यायिक दृष्टिकोण:

किसी तथ्य को साबित करने के लिए किसी निश्चित संख्या में गवाहों की आवश्यकता नहीं है, बल्कि गवाही के आधार पर पूरी स्थिति की जांच की जाती है।

यदि एक गवाह का बयान काफ़ी विश्वसनीय और सुसंगत है, तो उसी के आधार पर निर्णय लिया जा सकता है।

धारा 141 – गवाह द्वारा प्रस्तुत किए गए प्रमाण की स्वीकृति पर न्यायाधीश का निर्णय (Judge to decide as to admissibility of evidence)

प्रमाण की स्वीकृति का निर्णय:

जब कोई पक्ष किसी तथ्य का प्रमाण प्रस्तुत करना चाहता है, तो न्यायाधीश उस पक्ष से पूछ सकता है कि वह प्रमाणित तथ्य यदि साबित हो जाए, तो उसकी प्रासंगिकता क्या होगी।

यदि न्यायाधीश को लगता है कि तथ्य प्रासंगिक है, तो वह प्रमाण को स्वीकार करेगा, अन्यथा नहीं।

अन्य तथ्य के प्रमाण के बाद ही प्रासंगिकता:

यदि प्रस्तुत किया गया तथ्य ऐसा है, जिसका प्रमाण केवल किसी अन्य तथ्य के प्रमाणित होने पर ही स्वीकार्य है, तो पहले उस अन्य तथ्य का प्रमाण दिया जाना चाहिए।

हालांकि, यदि पक्ष ऐसा प्रमाण देने का संकल्प करता है, और न्यायालय इस पर संतुष्ट होता है, तो वह प्रमाण देने की अनुमति दे सकता है।

न्यायाधीश की विवेकाधिकार:

यदि एक तथ्यों की प्रासंगिकता दूसरे तथ्यों पर निर्भर करती है, तो न्यायाधीश अपनी विवेकाधिकार से यह तय कर सकता है कि पहले कौन सा प्रमाण प्रस्तुत किया जाए।

वह पहले तथ्य को प्रस्तुत करने की अनुमति दे सकता है, भले ही दूसरा तथ्य पहले साबित न हो, या वह पहले दूसरे तथ्य का प्रमाण देने का आदेश दे सकता है।

 उदाहरण:

(a) यदि किसी मृत व्यक्ति के बयान को साबित करना है, तो पहले यह साबित करना होगा कि वह व्यक्ति मृत है।

(b) यदि किसी खोए हुए दस्तावेज की प्रति प्रस्तुत करनी है, तो पहले यह साबित करना होगा कि मूल दस्तावेज खो गया है।

(c) यदि चोरी की संपत्ति प्राप्त करने के आरोप में किसी पर मुकदमा चल रहा है, तो पहले संपत्ति की पहचान करनी होगी, तब ही आरोपी का दावा कि उसने संपत्ति को स्वीकार नहीं किया, प्रासंगिक हो सकता है।

महत्वपूर्ण बिंदु:

न्यायाधीश को यह अधिकार है कि वह प्रमाण की स्वीकृति के संबंध में निर्णय ले सके, यह सुनिश्चित करते हुए कि प्रमाण प्रासंगिक है या नहीं।

धारा 142 – गवाह की परीक्षण (Examination of witnesses)

प्रमुख परीक्षण (Examination-in-chief):

गवाह का प्रारंभिक परीक्षण उस पक्ष द्वारा किया जाता है जिसने उसे बुलाया है। इसे प्रमुख परीक्षण कहा जाता है।

विपरीत पक्ष द्वारा परीक्षण (Cross-examination):

गवाह का विपरीत पक्ष द्वारा परीक्षण किया जाता है, जिसे क्रॉस-परीक्षण कहा जाता है। इसका उद्देश्य गवाह की गवाही की सत्यता और विश्वसनीयता को चुनौती देना है।

पुनः परीक्षण (Re-examination):

गवाह का पुनः परीक्षण उस पक्ष द्वारा किया जाता है जिसने उसे पहले बुलाया था, और यह क्रॉस-परीक्षण के बाद होता है। इसे पुनः परीक्षण कहा जाता है, और इसका उद्देश्य गवाह की गवाही में किसी भी असंगति या अस्पष्टता को स्पष्ट करना है।

 महत्वपूर्ण बिंदु:

गवाह का परीक्षण तीन प्रमुख प्रकारों में किया जाता है: प्रमुख परीक्षण, क्रॉस-परीक्षण और पुनः परीक्षण, ताकि गवाही की पूर्णता और सत्यता सुनिश्चित की जा सके।

धारा 143 – परीक्षणों का क्रम (Order of examinations)

प्रमुख परीक्षण (Examination-in-chief):

पहले गवाह का प्रमुख परीक्षण किया जाएगा, जहां उस पक्ष द्वारा गवाही दी जाती है जिसने गवाह को बुलाया है।

क्रॉस-परीक्षण (Cross-examination):

उसके बाद, यदि विपरीत पक्ष चाहता है, तो क्रॉस-परीक्षण किया जाएगा। इसमें गवाह से वह सब कुछ पूछा जा सकता है जो गवाही के संदर्भ में है, लेकिन यह केवल उसी तक सीमित नहीं रहेगा, जो गवाह ने प्रमुख परीक्षण में बताया हो।

पुनः परीक्षण (Re-examination):

यदि गवाह को फिर से स्पष्ट करने की आवश्यकता हो, तो उसे पुनः परीक्षण किया जाएगा, और यह केवल क्रॉस-परीक्षण में उठाए गए विषयों पर आधारित होगा। यदि पुनः परीक्षण में कोई नया विषय प्रस्तुत किया जाता है, तो कोर्ट की अनुमति से विपरीत पक्ष उसे फिर से क्रॉस-परीक्षण कर सकता है।

 महत्वपूर्ण बिंदु:

गवाह का परीक्षण प्रमुख परीक्षण, क्रॉस-परीक्षण और पुनः परीक्षण के क्रम में होता है, और प्रत्येक प्रकार का परीक्षण गवाह से संबंधित तथ्यों की स्पष्टता और सत्यता सुनिश्चित करने के उद्देश्य से किया जाता है।

धारा 144 – दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के लिए बुलाए गए व्यक्ति का क्रॉस-परीक्षण

यदि किसी व्यक्ति को एक दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के लिए बुलाया जाता है, तो केवल दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के कारण वह गवाह नहीं बनता है।
वह क्रॉस-परीक्षण के लिए तब तक पात्र नहीं होगा जब तक उसे गवाह के रूप में नहीं बुलाया जाता।

 महत्वपूर्ण बिंदु:

दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का कार्य एक अलग प्रक्रिया है, और जब तक उस व्यक्ति को गवाह के रूप में नहीं बुलाया जाता, वह क्रॉस-परीक्षण के लिए उत्तरदायी नहीं होता।

धारा 145 – चरित्र के गवाह

चरित्र (Character) के संबंध में जो गवाह पेश किए जाते हैं, उन्हें भी अन्य गवाहों की तरह
क्रॉस-परीक्षा (Cross-examination) और पुनः परीक्षा (Re-examination) के लिए बुलाया जा सकता है।

 सारांश:
यदि कोई व्यक्ति किसी के चरित्र के पक्ष या विपक्ष में गवाही देता है, तो उस गवाह से भी जिरह की जा सकती है और आवश्यकता होने पर पुनः परीक्षा भी की जा सकती है।

धारा 146 – अग्रगामी प्रश्न (Leading Questions)

(1) अग्रगामी प्रश्न वह होता है जो अपने उत्तर का संकेत पहले से ही देता है, अर्थात् जो प्रश्न पूछने वाला चाहता या अपेक्षा करता है कि उत्तरदाता वैसा ही उत्तर दे।

(2) यदि प्रतिपक्ष आपत्ति करता है, तो मुख्य परीक्षा (Examination-in-chief) या पुनः परीक्षा (Re-examination) के दौरान अग्रगामी प्रश्न पूछना वर्जित है, जब तक कि न्यायालय इसकी अनुमति न दे।

(3) न्यायालय निम्न परिस्थितियों में अग्रगामी प्रश्न पूछने की अनुमति दे सकता है:

जब प्रश्न किसी परिचयात्मक विषय से संबंधित हो,

जब तथ्य विवादित न हो, या

जब ऐसा तथ्य पहले ही पर्याप्त रूप से सिद्ध हो चुका हो।

(4) पारस्परिक जिरह (Cross-examination) के दौरान अग्रगामी प्रश्न पूछे जा सकते हैं बिना किसी प्रतिबंध के।

 सारांश:
मुख्य और पुनः परीक्षा में अग्रगामी प्रश्नों पर आपत्ति हो सकती है, लेकिन क्रॉस एग्जामिनेशन में इन्हें स्वतंत्र रूप से पूछा जा सकता है। न्यायालय कुछ विशेष स्थितियों में इन्हें अनुमति दे सकता है।

धारा 147 – लिखित मामलों से संबंधित साक्ष्य

जब कोई गवाह परीक्षा के अधीन हो, तो उससे यह पूछा जा सकता है कि जिस अनुबंध, अनुदान या संपत्ति के हस्तांतरण के विषय में वह गवाही दे रहा है, वह किसी दस्तावेज़ में निहित था या नहीं

यदि वह कहता है कि वह दस्तावेज़ में था, या वह किसी दस्तावेज़ की विषय-वस्तु पर कथन देने वाला हो, और यदि न्यायालय की राय में वह दस्तावेज़ प्रस्तुत किया जाना चाहिए, तो विपक्ष यह आपत्ति कर सकता है कि तब तक साक्ष्य न दिया जाए जब तक:

वह दस्तावेज़ प्रस्तुत न किया जाए, या

यह सिद्ध न किया जाए कि प्राथमिक साक्ष्य के स्थान पर गौण साक्ष्य (Secondary Evidence) देना न्यायोचित है।

स्पष्टीकरण: यदि किसी दस्तावेज़ की विषय-वस्तु के बारे में अन्य व्यक्तियों द्वारा दिए गए कथन स्वयं में प्रासंगिक तथ्य (relevant facts) हैं, तो गवाह उन कथनों का मौखिक साक्ष्य दे सकता है।

 उदाहरण:
प्रश्न है कि A ने B पर हमला किया या नहीं। C गवाही देता है कि उसने A को D से यह कहते सुना — “B ने मेरे खिलाफ चोरी का आरोप लगाते हुए एक पत्र लिखा था, और मैं उससे बदला लूंगा।”
यह कथन A की मंशा (motive) को दर्शाता है, इसलिए इसका साक्ष्य दिया जा सकता है भले ही वह पत्र प्रस्तुत न किया गया हो।

सारांश:
यदि गवाह किसी दस्तावेज़ की विषयवस्तु पर बोलता है, तो पहले दस्तावेज़ दिखाया जाना जरूरी है या गौण साक्ष्य की अनुमति वाले तथ्य साबित होने चाहिए। लेकिन अगर उस दस्तावेज़ के बारे में दिए गए किसी कथन का खुद में कोई कानूनी महत्व है, तो उसका मौखिक साक्ष्य भी स्वीकार्य है।

धारा 147 – लिखित मामलों से संबंधित साक्ष्य

यदि कोई गवाह किसी अनुबंध (contract), अनुदान (grant) या संपत्ति के किसी अन्य प्रकार के हस्तांतरण (disposition) के बारे में गवाही दे रहा है, तो उससे यह पूछा जा सकता है कि क्या वह बात किसी दस्तावेज़ में निहित थी या नहीं

यदि गवाह कहता है कि वह दस्तावेज़ में थी, या वह किसी दस्तावेज़ की विषयवस्तु पर बयान देने वाला है, और न्यायालय की राय में वह दस्तावेज़ प्रस्तुत किया जाना चाहिए, तो विपक्षी पक्ष यह आपत्ति कर सकता है कि तब तक वह साक्ष्य न दिया जाए जब तक:

वह दस्तावेज़ प्रस्तुत न किया जाए; या

यह सिद्ध न हो जाए कि दस्तावेज़ की मूल प्रति उपलब्ध नहीं है और गौण साक्ष्य (secondary evidence) दिए जाने का अधिकार है।

 स्पष्टीकरण: यदि किसी दस्तावेज़ की विषयवस्तु के बारे में किसी अन्य व्यक्ति द्वारा कोई कथन किया गया है और वह कथन स्वयं में एक प्रासंगिक तथ्य है, तो गवाह उस कथन का मौखिक साक्ष्य दे सकता है।

उदाहरण:
प्रश्न है कि A ने B पर हमला किया या नहीं।
C गवाही देता है कि उसने A को D से यह कहते सुना —
“B ने मुझे चोरी का आरोपी बताते हुए एक पत्र लिखा था, और मैं उससे बदला लूंगा।”
यह कथन A की आशय और प्रेरणा (motive) को दर्शाता है, इसलिए इसका साक्ष्य दिया जा सकता है, भले ही वह पत्र प्रस्तुत न किया गया हो

निष्कर्ष:
जब कोई मामला लिखित रूप में दस्तावेज़ द्वारा किया गया हो, तो उसका प्रमाण देने के लिए पहले वह दस्तावेज़ पेश करना जरूरी होता है।
लेकिन यदि किसी दस्तावेज़ की विषयवस्तु के बारे में किया गया कथन स्वयं प्रासंगिक हो, तो उसका मौखिक साक्ष्य भी मान्य होता है।

धारा 148 – लिखित पूर्व कथनों के संबंध में जिरह (Cross-examination)

यदि कोई गवाह ऐसे पूर्व लिखित या लिखित में परिवर्तित किए गए कथन दे चुका है जो मुकदमे से संबंधित विषयों पर हों, तो उसे उन कथनों के आधार पर जिरह (cross-examine) किया जा सकता है।

ऐसे लिखित कथन को गवाह को दिखाना आवश्यक नहीं है, और ना ही उसे पहले से सिद्ध (prove) करना ज़रूरी है।

 लेकिन — यदि जिरह करने वाले पक्ष का उद्देश्य गवाह के कथन को उस लिखित कथन से विरोधाभासी (contradict) सिद्ध करना है, तो:

उस गवाह का ध्यान स्पष्ट रूप से उस लिखित कथन के उन अंशों की ओर दिलाया जाना चाहिए, जिनका प्रयोग विरोधाभास स्थापित करने के लिए किया जाना है।

उसके बाद ही उस लिखित कथन को प्रमाणित (prove) किया जा सकता है।

निष्कर्ष:
गवाह को उसके पूर्व लिखित बयानों के आधार पर जिरह की जा सकती है, लेकिन अगर उन बयानों से उसे झूठा या विरोधाभासी साबित करना हो, तो पहले उसे वह हिस्सा बताना अनिवार्य है। यह नियम गवाह की निष्पक्षता और न्यायसंगत सुनवाई सुनिश्चित करता है।

 

धारा 149 – प्रतिपरीक्षा (Cross-examination) में वैध प्रश्न (Lawful Questions)

जब किसी गवाह से प्रतिपरीक्षा (cross-examination) की जाती है, तो उससे ऐसे प्रश्न पूछे जा सकते हैं जो:

(a) उसकी सच्चाई (veracity) की जांच के लिए हों,
(b) उसकी पहचान और सामाजिक स्थिति (position in life) जानने के लिए हों,
(c) उसकी साख (credit) को कमजोर करने के उद्देश्य से हों, भले ही उत्तर देने से उसका चरित्र आहत हो या वह स्वयं को अपराध या दंड का पात्र सिद्ध कर बैठे

 लेकिन एक महत्वपूर्ण अपवाद:

यदि मामला भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 64 से 71 (जैसे बलात्कार आदि) या उनके प्रयास (attempt) से संबंधित है और “सहमति” (consent) मुद्दा है,
तो:

🔴 पीड़िता के चरित्र या पूर्व यौन अनुभव के बारे में प्रश्न पूछना,
या ऐसे साक्ष्य प्रस्तुत करना यह सिद्ध करने के लिए कि उसने सहमति दी थी — अनुमत नहीं है।

निष्कर्ष:
गवाह की सच्चाई, पहचान या विश्वसनीयता को परखने के लिए प्रतिपरीक्षा में विस्तृत प्रश्न पूछे जा सकते हैं, लेकिन यौन अपराधों के मामलों में पीड़िता की गरिमा की रक्षा हेतु प्रतिबंध लगाए गए हैं

धारा 150 – जब गवाह को उत्तर देने के लिए बाध्य किया जाएगा

यदि किसी गवाह से ऐसा कोई प्रश्न पूछा जाए जो विवाद या कार्यवाही से संबंधित कोई प्रासंगिक तथ्य (relevant fact) से जुड़ा हो,
तो धारा 137 के प्रावधान उस पर लागू होंगे

 संदर्भ – धारा 137 क्या कहती है:
धारा 137 के अनुसार, यदि कोई प्रश्न किसी महत्वपूर्ण तथ्य से जुड़ा है,
तो गवाह केवल इस आधार पर उत्तर देने से इंकार नहीं कर सकता कि उसका उत्तर उसे स्वयं अपराधी (self-incrimination) ठहरा सकता है या उसे किसी दंड या जुर्माने के खतरे में डाल सकता है।

लेकिन ऐसा उत्तर, जिससे गवाह को जबरन उत्तर दिलवाया गया हो,
उसे उसके विरुद्ध किसी आपराधिक कार्यवाही में प्रमाण के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता,
सिवाय इसके कि वह उत्तर झूठे साक्ष्य (false evidence) के लिए अभियोजन का आधार बने।

निष्कर्ष:
अगर प्रश्न मामले से संबंधित है, तो गवाह को उसका उत्तर देना अनिवार्य है, और उसे उत्तर से बचने का अधिकार नहीं होता — परन्तु उसका उत्तर, कानून द्वारा कुछ हद तक संरक्षित (protected) भी रहता है।

 

धारा 151 – न्यायालय यह तय करेगा कि प्रश्न कब पूछे जाएं और गवाह से उत्तर कब अनिवार्य रूप से लिया जाए

(1) यदि कोई प्रश्न ऐसे तथ्य से जुड़ा हो जो मामले से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित न हो,
सिवाय इसके कि वह प्रश्न गवाह की साख (creditworthiness) को चोट पहुँचाने के लिए हो,
तो न्यायालय तय करेगा कि क्या गवाह को उस प्रश्न का उत्तर देने के लिए बाध्य किया जाए या नहीं।

यदि न्यायालय उचित समझे, तो वह गवाह को चेतावनी भी दे सकता है कि
उसे ऐसे प्रश्न का उत्तर देना आवश्यक नहीं है।

(2) न्यायालय अपनी विवेक का प्रयोग करते समय निम्न बातों का ध्यान रखेगा:

(a) प्रश्न उपयुक्त माने जाएंगे यदि उनमें लगाए गए आरोप (imputation) की सच्चाई
गवाह की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रभाव डालती हो

(b) प्रश्न अनुपयुक्त माने जाएंगे यदि आरोप:

समय की दृष्टि से बहुत पुराने हों,

या उनका ऐसा चरित्र हो कि उनकी सच्चाई से गवाह की विश्वसनीयता पर
बहुत कम या नगण्य प्रभाव पड़े।

(c) प्रश्न अनुचित माने जाएंगे यदि:

गवाह के चरित्र पर लगाए गए आरोप और

उसकी गवाही के महत्व
के बीच अत्यधिक असंतुलन हो।

(d) यदि गवाह उत्तर देने से इंकार करता है,
तो न्यायालय यह अनुमान (inference) लगा सकता है कि
उत्तर प्रतिकूल (unfavourable) होता, यदि दिया जाता।

 निष्कर्ष:
गवाह से ऐसे प्रश्नों का उत्तर लेना या उसे उत्तर देने से छूट देना,
न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है, खासतौर पर जब प्रश्न का उद्देश्य
गवाह की साख को प्रभावित करना हो, न कि सीधे मामले से जुड़ा हो।

 

धारा 152 – बिना उचित आधार के प्रश्न नहीं पूछे जाने चाहिए

कोई भी ऐसा प्रश्न, जैसा कि धारा 151 में वर्णित है, तब तक नहीं पूछा जाना चाहिए,
जब तक प्रश्न पूछने वाले व्यक्ति के पास यह सोचने के लिए उचित आधार (reasonable grounds) न हो
कि उस प्रश्न में जो आरोप (imputation) निहित है, वह सही है

स्पष्टीकरणात्मक उदाहरण:

(a) यदि एक अधिवक्ता को दूसरे अधिवक्ता द्वारा बताया जाए कि एक महत्वपूर्ण गवाह डकैत है,
तो यह प्रश्न पूछने के लिए उचित आधार होगा।

(b) यदि किसी अधिवक्ता को अदालत में उपस्थित किसी व्यक्ति ने बताया कि एक गवाह डकैत है,
और जब अधिवक्ता उस व्यक्ति से कारण पूछता है, तो वह संतोषजनक कारण देता है —
तो यह भी उचित आधार है।

(c) किसी गवाह के बारे में कुछ भी ज्ञात न हो, फिर भी उससे यादृच्छिक रूप से (randomly)
यह पूछा जाए कि वह डकैत है — तो यह अनुचित है, क्योंकि कोई उचित आधार नहीं है।

(d) किसी अज्ञात गवाह से उसकी जीवनशैली और आय के साधनों के बारे में पूछा जाए
और वह असंतोषजनक उत्तर दे, तो यह एक उचित आधार हो सकता है
यह पूछने के लिए कि क्या वह डकैत है।

 निष्कर्ष:
यदि प्रश्न गवाह के चरित्र को आहत करने वाला हो,
तो उसे केवल तभी पूछा जाना चाहिए जब पूछने वाले के पास उचित और युक्तिसंगत आधार हो
अन्यथा, ऐसे प्रश्न अनुचित और अवैध माने जाएंगे।

धारा 153 – यदि बिना उचित आधार के प्रश्न पूछा जाए तो न्यायालय की प्रक्रिया

यदि न्यायालय को यह प्रतीत हो कि कोई प्रश्न बिना उचित आधार (reasonable grounds) के पूछा गया है,
तो यदि वह प्रश्न किसी अधिवक्ता (advocate) द्वारा पूछा गया है,
तो न्यायालय उस मामले की परिस्थितियों की रिपोर्ट उच्च न्यायालय (High Court) या
अन्य सक्षम प्राधिकरण (authority) को भेज सकता है,
जिसके अधीन वह अधिवक्ता अपने पेशे का पालन करता है

 मुख्य बिंदु:

यह प्रावधान अधिवक्ताओं की पेशेवर मर्यादा बनाए रखने के लिए है।

यदि कोई अधिवक्ता गवाह से ऐसा प्रश्न पूछे जो गंभीर आरोप लगाता हो, परन्तु उसका कोई आधार न हो,
तो न्यायालय उसे नजरअंदाज करने के बजाय अनुशासनात्मक कार्यवाही के लिए रिपोर्ट कर सकता है

उदाहरण के रूप में, यदि कोई अधिवक्ता किसी गवाह से बिना प्रमाण या सूचना के यह पूछता है कि वह अपराधी है,
तो न्यायालय मान सकता है कि यह अनैतिक या अनुचित व्यवहार है और उसकी रिपोर्ट उच्च न्यायालय को भेज सकता है

निष्कर्ष:
यह धारा सुनिश्चित करती है कि अधिवक्ता पूछे गए प्रश्नों में जिम्मेदारी और सावधानी बरतें,
अन्यथा उन्हें प्रोफेशनल अनुशासन का सामना करना पड़ सकता है।

धारा 154 – अशोभनीय और घृणित प्रश्न (Indecent and Scandalous Questions)

न्यायालय किसी भी ऐसे प्रश्न या पूछताछ को प्रतिबंधित (forbid) कर सकता है, जिसे वह अशोभनीय (indecent) या घृणित (scandalous) समझता है,
भले ही उन प्रश्नों का मामले से कुछ संबंध हो

लेकिन न्यायालय ऐसे प्रश्नों को तभी अनुमति देगा यदि:
वे प्रश्न प्रतिवादी तथ्यों (facts in issue) से संबंधित हों, या
वे तथ्य पता करने के लिए आवश्यक हों कि मामले के मुख्य तथ्य मौजूद थे या नहीं

 मुख्य बिंदु:

यह धारा गवाह की गरिमा और न्यायालय की मर्यादा की रक्षा करती है।

अनुचित चरित्र हनन, यौन या निजी जीवन से जुड़े असभ्य प्रश्नों को रोका जा सकता है।

अगर कोई सवाल केवल सनसनी फैलाने के लिए, न कि वास्तविक तथ्य जानने के लिए है, तो कोर्ट उसे अनुमति नहीं देगा।

निष्कर्ष:
न्यायालय का यह अधिकार है कि वह ऐसे प्रश्नों पर रोक लगाए जो नैतिकता के विरुद्ध हों और जिनका वास्तविक विवाद से कोई सार्थक संबंध न हो,
ताकि मुकदमे की कार्यवाही सम्मानजनक और केंद्रित बनी रहे।

धारा 155 – अपमान या क्षोभ उत्पन्न करने के उद्देश्य से पूछे गए प्रश्न (Questions intended to insult or annoy)

यदि कोई प्रश्न न्यायालय को ऐसा प्रतीत हो कि:

वह जानबूझकर अपमान करने (to insult) या
कष्ट पहुँचाने (to annoy) के लिए पूछा गया है, या
भले ही प्रश्न स्वयं में उचित हो, लेकिन उसका रूप अत्यधिक अपमानजनक या उद्दंड (offensive in form) है,

तो न्यायालय ऐसे प्रश्न को प्रतिबंधित करेगा (shall forbid)

 मुख्य उद्देश्य:

न्यायिक कार्यवाही को गरिमामय बनाए रखना।

गवाहों या पक्षकारों की अनावश्यक मानसिक प्रताड़ना से सुरक्षा।

विवाद से असंबंधित कटाक्ष या व्यक्तिगत हमलों को रोकना।

निष्कर्ष:
न्यायालय यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी प्रश्न सम्मानपूर्वक, उचित उद्देश्य से और अभद्रता से मुक्त होकर ही पूछे जाएँ,
ताकि कार्यवाही न्यायपूर्ण और सभ्य बनी रहे।

धारा 157 – अपने ही गवाह से प्रश्न पूछना (Question by party to his own witness)

उपधारा (1): न्यायालय अपने विवेकाधिकार से यह अनुमति दे सकता है कि जिस पक्ष ने किसी गवाह को बुलाया है, वह उस गवाह से ऐसे प्रश्न पूछे, जैसे कि विपरीत पक्ष द्वारा जिरह (cross-examination) में पूछे जा सकते हैं।

उपधारा (2): यदि न्यायालय ने उपधारा (1) के अंतर्गत किसी पक्ष को ऐसा करने की अनुमति दी हो, तो इसका यह मतलब नहीं होगा कि वह पक्ष ऐसे गवाह के किसी भी हिस्से के साक्ष्य पर भरोसा नहीं कर सकता
 अर्थात, यदि कोई गवाह शत्रुता दिखाता है या पक्षपातपूर्ण बयान देता है, और उसे cross-examination जैसे प्रश्नों से जिरह की अनुमति मिलती है, फिर भी जो भी भाग उसके कथन का सहायक हो, उस पर वह पक्ष विश्वास कर सकता है

 निष्कर्ष:

यदि कोई गवाह अपने ही पक्ष के खिलाफ हो जाए (hostile witness), तो न्यायालय यह अनुमति दे सकता है कि उसे अपने ही पक्ष द्वारा जिरह के समान प्रश्न पूछे जाएं

फिर भी, उस गवाह के उपयोगी हिस्सों पर भरोसा किया जा सकता है

धारा 158 – गवाह की विश्वसनीयता को कमज़ोर करना (Impeaching credit of witness)

इस धारा के अनुसार, किसी गवाह की विश्वसनीयता (credit) को निम्नलिखित तरीकों से चुनौती दी जा सकती है:

किसके द्वारा:

विपक्षी पक्ष (adverse party) द्वारा

या जिस पक्ष ने गवाह को बुलाया है, उसकी अनुमति न्यायालय से मिलने पर

 विश्वसनीयता को कमज़ोर करने के तरीके:

(a) ऐसे व्यक्तियों के साक्ष्य द्वारा, जो यह कहते हैं कि वे उस गवाह को जानते हैं और उनके अनुसार वह विश्वास करने योग्य नहीं है

(b) यह साबित करके कि गवाह ने रिश्वत ली है, या रिश्वत लेने का प्रस्ताव स्वीकार किया है, या उसे किसी अन्य भ्रष्ट प्रलोभन के कारण गवाही देने के लिए प्रेरित किया गया है।

(c) यह सिद्ध करके कि उस गवाह ने पहले ऐसा बयान दिया था, जो अब की उसकी गवाही के किसी भाग से विरोधाभासी (inconsistent) है।

 व्याख्या (Explanation):

कोई गवाह जो दूसरे गवाह को अविश्वसनीय बताता है, वह मुख्य परीक्षा (examination-in-chief) में अपने विश्वास के कारण नहीं बता सकता, लेकिन उसे जिरह में कारण पूछे जा सकते हैं

यदि वह कारण देता है और वे झूठे सिद्ध होते हैं, तो उस पर झूठी गवाही देने का अभियोग लगाया जा सकता है, लेकिन उसके उत्तरों का अन्य साक्ष्य से खंडन नहीं किया जा सकता

 उदाहरण (Illustrations):

(a) A, B पर माल की आपूर्ति के मूल्य हेतु वाद करता है। C गवाही देता है कि उसने माल B को दिया था।
अब यह साक्ष्य दिया जाता है कि C ने पहले कहा था कि उसने माल B को नहीं दिया।
 यह साक्ष्य स्वीकार्य (admissible) है।

(b) A पर B की हत्या का अभियोग है। C कहता है कि मरते समय B ने कहा कि A ने उसे घाव दिया।
अब यह साक्ष्य दिया जाता है कि C ने पहले कहा था कि B ने मरते समय ऐसा कुछ नहीं कहा।
 यह भी साक्ष्य स्वीकार्य है

 निष्कर्ष:

किसी गवाह की साख को कम करने के लिए तीन प्रमुख तरीके मान्य हैं: व्यक्तिपरक विश्वास, रिश्वत/प्रलोभन, और पूर्ववर्ती विरोधाभासी बयान।

यदि गवाह ने पहले कोई अलग बात कही थी और अब कुछ और कह रहा है, तो यह उसकी गवाही की विश्वसनीयता पर असर डाल सकता है

धारा 159 – प्रासंगिक तथ्य की गवाही को पुष्ट करने वाले प्रश्नों की स्वीकार्यता

यदि कोई गवाह किसी प्रासंगिक तथ्य (relevant fact) की गवाही देता है और उसे पुष्ट (corroborate) करने का उद्देश्य है, तो उसे ऐसे अन्य परिस्थितियों के बारे में भी प्रश्न किया जा सकता है, जिन्हें उसने उस समय या स्थान के पास देखा हो जब/जहाँ वह प्रासंगिक तथ्य घटित हुआ था।

 शर्त:
यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि ऐसी परिस्थितियाँ यदि सिद्ध हो जाएँ, तो वे उस गवाह की गवाही को उस प्रासंगिक तथ्य के संबंध में मज़बूत करेंगी, तब ही ऐसे प्रश्न स्वीकार्य होंगे।

 उदाहरण (Illustration):

A, जो एक सहअपराधी (accomplice) है, डकैती की पूरी घटना का विवरण देता है जिसमें वह स्वयं शामिल था।
वह डकैती के स्थान पर जाने और वहाँ से लौटने के दौरान की कुछ अन्य घटनाओं का वर्णन करता है, जो डकैती से सीधे जुड़े नहीं हैं।

 इन घटनाओं के बारे में स्वतंत्र साक्ष्य दिया जा सकता है ताकि उसकी गवाही को डकैती की घटना के संबंध में पुष्ट किया जा सके।

 निष्कर्ष:
यदि गवाह ने किसी मुख्य घटना के आसपास की ऐसी बातों को देखा है जो घटना से प्रत्यक्ष रूप से नहीं जुड़ी हैं, लेकिन उन्हें साबित करने से मुख्य गवाही की सच्चाई की पुष्टि होती है, तो ऐसे प्रश्न न्यायालय की अनुमति से स्वीकार्य होते हैं

धारा 160. गवाही के समर्थन हेतु पूर्व में दिए गए वक्तव्यों को सिद्ध किया जा सकता है

यदि किसी गवाह की वर्तमान गवाही को मजबूत (समर्थित) करना हो, तो उस गवाह द्वारा पूर्व में उसी तथ्य से संबंधित जो भी वक्तव्य दिया गया हो — जब वह तथ्य घटित हुआ था या उसके आसपास के समय पर, या किसी विधिक रूप से सक्षम प्राधिकारी के सामने — उसे सिद्ध किया जा सकता है।

सरल भाषा में:
अगर कोई गवाह अदालत में कोई बात कहता है, तो उसकी पहले किसी अधिकारी के सामने दी गई उसी बात से जुड़ी गई बातों को अदालत में सबूत के तौर पर पेश किया जा सकता है, ताकि वर्तमान गवाही की पुष्टि की जा सके।

धारा 161 – धारा 26 या 27 के अंतर्गत सिद्ध कथन से संबंधित किन बातों को सिद्ध किया जा सकता है

जब भी कोई कथन जो धारा 26 या 27 के अंतर्गत प्रासंगिक (relevant) है, सिद्ध किया गया हो, तब निम्नलिखित सभी बातें सिद्ध की जा सकती हैं:

उस कथन को झूठा सिद्ध करने (contradict) के लिए,
उस कथन की पुष्टि (corroborate) करने के लिए,
उस व्यक्ति की साख को कमजोर करने (impeach credit) के लिए जिसने वह कथन किया था,
या फिर उस व्यक्ति की साख को मज़बूत (confirm credit) करने के लिए,

बशर्ते कि उन बातों को उस स्थिति में सिद्ध किया जा सकता होता यदि वह व्यक्ति गवाह के रूप में बुलाया गया होता और जिरह के दौरान उसने कथन की सत्यता से इनकार किया होता।

 सरल शब्दों में:
यदि कोई बयान जो धारा 26 या 27 के तहत प्रासंगिक है, पेश किया गया हो, तो उसके साथ यह भी दिखाया जा सकता है कि वह कथन सही था या गलत, और वह व्यक्ति जिसने वह कथन किया, वह विश्वसनीय है या नहीं — बिलकुल वैसे ही जैसे यदि वह अदालत में गवाही दे रहा होता और उससे जिरह की जाती

 निष्कर्ष:
इस धारा के तहत, कोर्ट को यह अधिकार है कि वह धारा 26 या 27 के अंतर्गत सिद्ध कथन के विश्वास या अविश्वास को प्रमाणित करने के लिए विस्तृत जांच और साक्ष्य की अनुमति दे सके।

धारा 162 – स्मृति ताज़ा करना (Refreshing Memory)

(1) कोई गवाह, जब वह परीक्षा (examination) में हो, तो वह अपनी स्मृति को ताज़ा करने के लिए किसी ऐसी लिखावट (writing) को देख सकता है:

जो स्वयं गवाह ने उस लेन-देन के समय लिखी हो,
या उसके तुरंत बाद लिखी गई हो, जब कोर्ट को लगे कि वह लेन-देन गवाह की स्मृति में उस समय ताज़ा था

 स्पष्टीकरण:
गवाह किसी अन्य व्यक्ति द्वारा लिखे गए ऐसे दस्तावेज को भी देख सकता है, अगर उसने वह दस्तावेज़ उस समय पढ़ा हो और उसे सही माना हो

(2) जब भी किसी गवाह को किसी दस्तावेज़ को देखकर अपनी स्मृति ताज़ा करने की अनुमति हो, तब वह उस दस्तावेज़ की प्रति (copy) को भी देख सकता है —

कोर्ट की अनुमति से,
बशर्ते कोर्ट संतुष्ट हो कि मूल दस्तावेज़ (original) पेश न कर पाने का उचित कारण है।

 दूसरा प्रावधान:
अगर कोई विशेषज्ञ (expert) गवाह हो, तो वह पेशेवर ग्रंथों (professional treatises) को देखकर भी अपनी स्मृति ताज़ा कर सकता है।

 निष्कर्ष:
इस धारा के तहत, किसी गवाह को यह सुविधा दी गई है कि वह, कोर्ट की अनुमति से, अपने पुराने नोट्स, दस्तावेज़ या अन्य पढ़ी गई सामग्री देखकर अपनी स्मृति को ताज़ा कर सके, ताकि वह सही और विश्वसनीय गवाही दे सके।

धारा 163 – दस्तावेज़ में वर्णित तथ्यों के संबंध में गवाही देना
(Section 163 – Testimony to facts stated in document mentioned in section 162)

कोई गवाह ऐसे दस्तावेज़ में लिखे गए तथ्यों के बारे में भी गवाही दे सकता है जैसा कि धारा 162 में वर्णित है, भले ही उसे उन तथ्यों की स्पष्ट स्मृति न हो, यदि वह यह विश्वासपूर्वक कह सकता है कि वे तथ्य दस्तावेज़ में सही दर्ज किए गए थे।

 उदाहरण:
एक बही-खाता लेखक (book-keeper) अपने द्वारा व्यवसाय के नियमित कार्य में तैयार की गई पुस्तकों में दर्ज तथ्यों के बारे में गवाही दे सकता है, यदि उसे विश्वास है कि पुस्तकें सही तरीके से रखी गई थीं, भले ही वह प्रत्येक लेन-देन को विशेष रूप से याद न कर पा रहा हो।

सरल शब्दों में:
अगर कोई गवाह यह भरोसे से कहे कि उसने जो कुछ लिखा था, वह सही था, तो वह उस लिखे गए तथ्य पर गवाही दे सकता है — चाहे अब उसे वह बात याद न भी हो।

 प्रभाव: यह प्रावधान उन स्थितियों में मदद करता है जब गवाह ने कोई जानकारी पहले सही-सही दर्ज की थी लेकिन समय बीत जाने के कारण उसे अब स्पष्ट रूप से याद नहीं रहा।

धारा 164 – स्मृति ताज़ा करने के लिए प्रयुक्त लेखन के संबंध में विपक्षी पक्ष का अधिकार
(Section 164 – Right of adverse party as to writing used to refresh memory)

यदि कोई गवाह अपनी स्मृति ताज़ा करने के लिए धारा 162 या 163 के तहत किसी लेखन या दस्तावेज़ का उल्लेख करता है, तो वह दस्तावेज़ विपक्षी पक्ष को दिखाया जाएगा, यदि वह इसकी मांग करता है।
 विपक्षी पक्ष को यह अधिकार होगा कि वह उस लेखन के आधार पर गवाह से जिरह (cross-examination) कर सके, यदि वह ऐसा करना चाहे।

सरल भाषा में:
अगर कोई गवाह किसी पुराने दस्तावेज़ को देखकर अपनी बात याद करता है, तो विरोधी पक्ष उस दस्तावेज़ को देख सकता है और उस पर गवाह से सवाल पूछ सकता है।

 उद्देश्य: इस धारा का उद्देश्य निष्पक्षता बनाए रखना है, ताकि दूसरे पक्ष को भी यह जानने और परखने का अवसर मिले कि गवाह किस दस्तावेज़ के आधार पर गवाही दे रहा है।

 

धारा 165 – दस्तावेजों का प्रस्तुतिकरण
(Section 165 – Production of documents)

(1) यदि किसी गवाह को किसी दस्तावेज़ को प्रस्तुत करने के लिए समन भेजा गया है और वह दस्तावेज़ उसकी हिरासत या नियंत्रण में है, तो उसे उसे न्यायालय में लाना होगा, भले ही उसकी प्रस्तुति या ग्राह्यता (admissibility) पर कोई आपत्ति हो
 ऐसी आपत्तियों की वैधता पर निर्णय न्यायालय स्वयं करेगा

(2) न्यायालय, यदि उचित समझे, तो दस्तावेज़ की जांच कर सकता है (जब तक वह किसी राज्य के कार्य से संबंधित न हो), या उसकी ग्राह्यता तय करने हेतु अन्य साक्ष्य ले सकता है

(3) यदि दस्तावेज़ की जांच के लिए उसका अनुवाद कराना आवश्यक हो, तो न्यायालय अनुवादक को दस्तावेज़ की विषयवस्तु को गोपनीय रखने का निर्देश दे सकता है, यदि वह दस्तावेज़ साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है।
 यदि अनुवादक इस निर्देश का उल्लंघन करता है, तो वह भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 198 के अंतर्गत अपराध का दोषी होगा।

 अपवाद: राष्ट्रपति और मंत्रियों के बीच कोई भी संवाद न्यायालय में प्रस्तुत करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

मुख्य बिंदु:

गवाह को दस्तावेज़ लाना अनिवार्य है, परंतु उसे साक्ष्य के रूप में स्वीकार करना या नहीं, ये अदालत तय करेगी।

राज्य-गोपनीयता से जुड़ी सामग्री पर विशेष सुरक्षा है।

अनुवादकर्ता को गोपनीयता बनाए रखनी होती है — उल्लंघन पर दंडनीय अपराध।

धारा 166 – नोटिस पर प्रस्तुत दस्तावेज़ को साक्ष्य के रूप में देना
(Section 166 – Giving, as evidence, of document called for and produced on notice)

जब एक पक्ष (पार्टियाँ में से कोई) किसी दस्तावेज़ को प्रस्तुत करने के लिए दूसरे पक्ष को पूर्व सूचना (notice) देता है, और वह दस्तावेज़ वास्तव में उक्त पक्ष द्वारा प्रस्तुत किया जाता है तथा पहला पक्ष उस दस्तावेज़ का निरीक्षण करता है, तो:

यदि प्रस्तुत करने वाला पक्ष चाहता है, तो दस्तावेज़ को साक्ष्य (evidence) के रूप में स्वीकार करना अनिवार्य होगा।

मुख्य बिंदु:

एक पक्ष दस्तावेज़ प्रस्तुत करने की मांग करता है और उसका निरीक्षण करता है।

दूसरा पक्ष (जो दस्तावेज़ लाया) यदि कहे, तो पहले पक्ष को उस दस्तावेज़ को साक्ष्य के रूप में पेश करना ही होगा — वह मना नहीं कर सकता।

न्यायिक निष्कर्ष: एक बार दस्तावेज़ की मांग और निरीक्षण हो गया, तो मांग करने वाले पक्ष की मर्जी नहीं चलती, उसे दस्तावेज़ को साक्ष्य के रूप में देना अनिवार्य हो जाता है यदि प्रस्तुतकर्ता ऐसा चाहता है।

धारा 167 – नोटिस के बाद प्रस्तुत न किए गए दस्तावेज़ को साक्ष्य के रूप में प्रयोग करने की मनाही
(Section 167 – Using, as evidence, of document production of which was refused on notice)

यदि कोई पक्ष (party) ऐसे दस्तावेज़ को प्रस्तुत करने से इंकार कर देता है जिसके लिए उसे नोटिस (सूचना) दी गई थी, तो:

वह पक्ष बाद में उस दस्तावेज़ को साक्ष्य के रूप में प्रयोग नहीं कर सकता, जब तक कि—

दूसरा पक्ष सहमति न दे, या

न्यायालय का आदेश न हो।

 उदाहरण:
A ने B के विरुद्ध एक एग्रीमेंट के आधार पर मुकदमा किया और B को नोटिस देकर कहा कि वह एग्रीमेंट प्रस्तुत करे।
मुकदमे के समय B ने दस्तावेज़ देने से इंकार कर दिया, तो A ने उसके बारे में द्वितीयक साक्ष्य (secondary evidence) पेश किया।
अब यदि B यह दस्तावेज़ दिखाना चाहे यह सिद्ध करने के लिए कि यह एग्रीमेंट स्टांप नहीं हुआ है, तो वह ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि उसने पहले दस्तावेज़ प्रस्तुत करने से इनकार कर दिया था।

 मुख्य बिंदु:

नोटिस मिलने के बावजूद जो दस्तावेज़ प्रस्तुत नहीं किया गया, वह बाद में बिना अनुमति या आदेश के साक्ष्य नहीं बन सकता

यह प्रावधान दुरुपयोग रोकने और न्यायिक ईमानदारी बनाए रखने के लिए है।

धारा 168 – न्यायाधीश का प्रश्न पूछने या दस्तावेज़ मंगाने का अधिकार
(Section 168 – Judge’s power to put questions or order production)

यह धारा न्यायाधीश को यह अधिकार देती है कि वे प्रासंगिक तथ्यों (relevant facts) का पता लगाने या साक्ष्य प्राप्त करने के लिए:

किसी भी गवाह या पक्ष से किसी भी समय, किसी भी रूप में कोई भी प्रश्न पूछ सकते हैं,
किसी भी दस्तावेज़ या वस्तु के प्रस्तुत करने का आदेश दे सकते हैं।

 और इस पर:

न तो कोई पक्ष या उनके प्रतिनिधि इस पर आपत्ति कर सकते हैं,

और न ही न्यायालय की अनुमति के बिना उस उत्तर पर क्रॉस-परीक्षण कर सकते हैं।

 पहली proviso:
न्यायाधीश का निर्णय केवल उन्हीं तथ्यों पर आधारित होना चाहिए, जो इस अधिनियम में प्रासंगिक और विधिपूर्वक सिद्ध (duly proved) बताए गए हैं।

 दूसरी proviso:
यह धारा न्यायाधीश को यह अधिकार नहीं देती कि—

वह किसी गवाह को ऐसे प्रश्नों का उत्तर देने या दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के लिए बाध्य करे, जिसे वह धारा 127 से 136 के अंतर्गत इनकार कर सकता है,

वह ऐसे अनुचित प्रश्न पूछे, जिन्हें कोई अन्य व्यक्ति धारा 151 या 152 के अंतर्गत पूछ नहीं सकता,

वह मूल साक्ष्य (primary evidence) की अनिवार्यता को छोड़ दे, सिवाय उन्हीं मामलों में जहां इस अधिनियम में इसकी अनुमति दी गई हो।

 निष्कर्ष:
इस धारा के तहत न्यायाधीश को व्यापक शक्ति दी गई है ताकि वह सत्य तक पहुंच सके, लेकिन यह शक्ति न्यायिक सीमाओं और निष्पक्षता से नियंत्रित रहती है।

 

धारा 169 – साक्ष्य के गलत रूप से स्वीकार या अस्वीकार होने पर नया मुकदमा नहीं होगा
(Section 169 – No new trial for improper admission or rejection of evidence)

यदि किसी मामले में कोई पक्ष यह आपत्ति उठाता है कि कोई साक्ष्य गलत तरीके से स्वीकार या अस्वीकार किया गया था, तो केवल इसी आधार पर:

नया मुकदमा (new trial) शुरू नहीं किया जाएगा,
और फैसले को पलटा (reversal) नहीं जाएगा,

यदि न्यायालय को यह प्रतीत हो कि:

 स्वीकार किए गए आपत्तिजनक साक्ष्य के अलावा भी, पर्याप्त साक्ष्य थे जो फैसले को न्यायोचित ठहराते हैं,
या
 यदि अस्वीकार किया गया साक्ष्य स्वीकार भी कर लिया जाता, तब भी वह फैसले को नहीं बदलता

 निष्कर्ष:
केवल साक्ष्य को गलत तरीके से शामिल करने या खारिज करने की वजह से, जब तक कि उसका निर्णय पर वास्तविक प्रभाव न हो, मामले को फिर से शुरू नहीं किया जाएगा। यह प्रावधान न्यायिक कार्यवाही की निरंतरता और स्थिरता सुनिश्चित करता है।

धारा 170 – निरसन (Repeal) और संरक्षण (Savings)
(Section 170 – Repeal and savings)

(1) निरसन (Repeal):
भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act, 1872) को इस धारा के माध्यम से रद्द (repealed) कर दिया गया है।

(2) संरक्षण (Savings):
हालाँकि यह पुराना अधिनियम रद्द किया गया है, लेकिन अगर इस नए अधिनियम (भारत साक्ष्य अधिनियम, 2023) के लागू होने की तारीख से ठीक पहले:

 कोई आवेदन (application),
 विचारण (trial),
 जांच (inquiry or investigation),
 कार्रवाई (proceeding) या
 अपील (appeal)

चल रही थी, तो उन मामलों को उसी पुराने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अनुसार निपटाया जाएगा, जैसे कि नया अधिनियम अस्तित्व में आया ही नहीं।

 मुख्य बात:
नए अधिनियम के लागू होने के बाद भी, जो मामले पहले से लंबित हैं, वे पुराने अधिनियम के अनुसार ही चलेंगे। इससे न्यायिक प्रक्रिया में अनावश्यक बाधा नहीं आएगी और ट्रांजिशन सुचारू रहेगा।