Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023

Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023

Act No. 46/2023

धारा 1 – Section 1: संक्षिप्त शीर्षक, विस्तार और प्रारंभ (Short title, extent and commencement)

(1) इस अधिनियम को “भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023” कहा जाएगा।

(2) इस संहिता के प्रावधान, अध्याय IX, XI और XII को छोड़कर, निम्न क्षेत्रों पर लागू नहीं होंगे
(अ) नागालैंड राज्य पर
(ब) जनजातीय क्षेत्रों पर

लेकिन संबंधित राज्य सरकार एक अधिसूचना द्वारा यह निर्धारित कर सकती है कि ये प्रावधान, पूरे या किसी भाग में, नागालैंड या जनजातीय क्षेत्रों में लागू होंगे और आवश्यक अनुपूरक, सहायक या परिणामी संशोधन भी उस अधिसूचना में बताए जा सकते हैं।

स्पष्टीकरण – इस धारा में “जनजातीय क्षेत्र” का अर्थ उन क्षेत्रों से है जो 21 जनवरी 1972 से ठीक पहले असम के जनजातीय क्षेत्र माने जाते थे, जैसा कि संविधान की छठी अनुसूची के पैरा 20 में वर्णित है, लेकिन शिलांग नगर पालिका की सीमाओं के भीतर का क्षेत्र इसमें शामिल नहीं होगा।

(3) यह संहिता उस तिथि से प्रभावी होगी जिसे केंद्र सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा घोषित करेगी।

 (3) यह अधिनियम उस तिथि से लागू होगा जो केंद्र सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा घोषित करेगी। और वह तिथि है 01 Jul 2024.

 

धारा 2 – परिभाषाएँ (Section 2 – Definitions)

(1) जब तक संदर्भ अन्यथा न हो, इस संहिता में:
(1) In this Sanhita, unless the context otherwise requires:

(क) ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक (Audio-video electronic):
ऐसे किसी भी संचार उपकरण का उपयोग, जो वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, पहचान की प्रक्रिया, तलाशी और जब्ती या साक्ष्य की रिकॉर्डिंग, इलेक्ट्रॉनिक संचार के प्रसारण आदि के लिए हो; और राज्य सरकार नियम बनाकर अन्य प्रयोजनों व तरीकों को भी निर्धारित कर सकती है।

(ख) जमानत (Bail):
अपराध के आरोपी या संदेहास्पद व्यक्ति को कुछ शर्तों पर बंधपत्र या बेल बॉन्ड के आधार पर विधिक हिरासत से रिहा करना।

(ग) जमानती अपराध (Bailable offence):
प्रथम अनुसूची में जमानती बताया गया या किसी अन्य प्रभावी कानून द्वारा जमानती बनाया गया अपराध।
अजमानती अपराध (Non-bailable offence): अन्य सभी अपराध।

(घ) बेल बॉन्ड (Bail bond):
सुरक्षाकर्ता सहित रिहाई का वचन-पत्र।

(ङ) बॉन्ड (Bond):
बिना सुरक्षाकर्ता के रिहाई का व्यक्तिगत वचन-पत्र।

(च) आरोप (Charge):
जब आरोप एक से अधिक हों, तो प्रत्येक आरोप का शीर्षक भी शामिल है।

(छ) संज्ञेय अपराध (Cognizable offence):
ऐसा अपराध जिसमें पुलिस अधिकारी प्रथम अनुसूची या अन्य प्रभावी विधि के अनुसार वारंट के बिना गिरफ्तारी कर सकता है।
संज्ञेय वाद (Cognizable case): ऐसा मामला जिसमें पुलिस बिना वारंट गिरफ्तारी कर सके।

(ज) शिकायत (Complaint):
मजिस्ट्रेट को मौखिक या लिखित रूप में किया गया आरोप कि किसी व्यक्ति ने अपराध किया है, लेकिन इसमें पुलिस रिपोर्ट शामिल नहीं होती।
स्पष्टीकरण: यदि पुलिस जाँच के बाद किसी गैर-संज्ञेय अपराध की रिपोर्ट देती है, तो वह शिकायत मानी जाएगी।

(झ) इलेक्ट्रॉनिक संचार (Electronic communication):
किसी भी लिखित, मौखिक, चित्रात्मक या वीडियो सामग्री का एक व्यक्ति या उपकरण से दूसरे व्यक्ति या उपकरण तक इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों (जैसे फोन, मोबाइल, कंप्यूटर, कैमरा आदि) द्वारा स्थानांतरण।

(ञ) उच्च न्यायालय (High Court):
(i) किसी राज्य के लिए, उस राज्य का उच्च न्यायालय।
(ii) किसी केंद्र शासित क्षेत्र के लिए जहाँ किसी राज्य के उच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार बढ़ाया गया हो, वही उच्च न्यायालय।
(iii) अन्य केंद्र शासित क्षेत्रों के लिए, सर्वोच्च न्यायालय को छोड़कर, वहाँ की सर्वोच्च आपराधिक अपीलीय अदालत।

(ट) जाँच (Inquiry):
मजिस्ट्रेट या न्यायालय द्वारा इस संहिता के अंतर्गत मुकदमे को छोड़कर की गई प्रत्येक जांच।

(ठ) तफ्तीश (Investigation):
साक्ष्य एकत्र करने हेतु पुलिस अधिकारी या मजिस्ट्रेट द्वारा अधिकृत अन्य व्यक्ति द्वारा की गई सभी कार्यवाहियाँ।
स्पष्टीकरण: यदि किसी विशेष अधिनियम के प्रावधान इस संहिता से भिन्न हैं, तो विशेष अधिनियम के प्रावधान प्रभावी होंगे।

(ड) न्यायिक कार्यवाही (Judicial proceeding):
ऐसी कोई भी कार्यवाही जिसमें शपथ पर साक्ष्य लिया जाता है या लिया जा सकता है।

(ढ) स्थानीय अधिकार-क्षेत्र (Local jurisdiction):
वह क्षेत्र जहाँ कोई न्यायालय या मजिस्ट्रेट इस संहिता के अंतर्गत अपनी शक्तियाँ प्रयोग कर सकता है, जिसे राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट कर सकती है।

(ण) असंज्ञेय अपराध (Non-cognizable offence):
ऐसा अपराध जिसमें पुलिस अधिकारी वारंट के बिना गिरफ्तारी नहीं कर सकता।
असंज्ञेय वाद (Non-cognizable case): ऐसा मामला जिसमें पुलिस को गिरफ्तारी हेतु वारंट आवश्यक हो।

(त) अधिसूचना (Notification):
राजपत्र में प्रकाशित कोई सरकारी सूचना।

(थ) अपराध (Offence):
कोई भी ऐसा कार्य या चूक जो किसी वर्तमान विधि द्वारा दंडनीय हो, और इसमें पशु अवरोध अधिनियम, 1871 की धारा 20 के अंतर्गत शिकायत योग्य कृत्य भी शामिल हैं।

(द) पुलिस थाने का प्रभारी अधिकारी (Officer in charge of a police station):
जब थाना प्रभारी अनुपस्थित हो या कार्य करने में असमर्थ हो, तो वहाँ उपस्थित वह वरिष्ठ अधिकारी जो कांस्टेबल से ऊपर के पद पर हो, या राज्य सरकार द्वारा निर्दिष्ट कोई अन्य अधिकारी।

(ध) स्थान (Place):
घर, भवन, तंबू, वाहन और जलपोत।

(न) पुलिस रिपोर्ट (Police report):
धारा 193(3) के तहत मजिस्ट्रेट को भेजी गई पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट।

(प) पुलिस थाना (Police station):
राज्य सरकार द्वारा घोषित वह पोस्ट या स्थान जिसे पुलिस थाना माना गया हो, तथा वह स्थानीय क्षेत्र जिसे राज्य सरकार इस हेतु निर्दिष्ट करे।

(फ) लोक अभियोजक (Public Prosecutor):
वह व्यक्ति जो धारा 18 के तहत नियुक्त किया गया हो तथा वह जो लोक अभियोजक के निर्देशों पर कार्य करता हो।

(ब) उप-मंडल (Sub-division):
किसी जिले का उप-विभाग।

(भ) समन्स वाद (Summons-case):
वह मामला जो वारंट-केस नहीं है।

(म) पीड़ित (Victim):
वह व्यक्ति जिसे आरोपी के कृत्य या चूक से हानि या चोट पहुँची हो, और इसमें उसका अभिभावक या कानूनी उत्तराधिकारी भी शामिल है।

(य) वारंट-केस (Warrant-case):
वह मामला जो मृत्यु दंड, आजीवन कारावास या दो वर्ष से अधिक कारावास से दंडनीय अपराध से संबंधित हो।

(2) अन्य विधियों से लिए गए शब्दों का अर्थ (Words defined in other laws):
इस संहिता में प्रयुक्त ऐसे शब्द और अभिव्यक्तियाँ जिन्हें परिभाषित नहीं किया गया है, वे वही अर्थ रखेंगे जो उन्हें सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 और भारतीय न्याय संहिता, 2023 में दिया गया है।

धारा 3 – संदर्भों की व्याख्या (Section 3 – Construction of references)

(1) जब तक संदर्भ अन्यथा न हो, किसी भी कानून में “मजिस्ट्रेट”, “प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट” या “द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट” का उल्लेख, उस क्षेत्र के लिए संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट (Judicial Magistrate) के रूप में माना जाएगा, जो प्रथम श्रेणी या द्वितीय श्रेणी के हों और उस क्षेत्र में अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हों।

(2) यदि किसी अन्य कानून (इस संहिता को छोड़कर) के अंतर्गत मजिस्ट्रेट द्वारा किए जाने वाले कार्य निम्नलिखित प्रकार के हों:

(क) ऐसे कार्य जो साक्ष्य के मूल्यांकन, निर्णय निर्माण, किसी व्यक्ति को दंड, जुर्माना, या जांच, पूछताछ या मुकदमे के दौरान हिरासत में रखने अथवा किसी व्यक्ति को किसी न्यायालय में मुकदमे के लिए भेजने से संबंधित हों, तो वे कार्य इस संहिता के प्रावधानों के अधीन न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा किए जाएंगे।

(ख) ऐसे कार्य जो प्रशासनिक या कार्यपालिका प्रकृति के हों, जैसे कि लाइसेंस देना, लाइसेंस को निलंबित या रद्द करना, अभियोजन की स्वीकृति देना या अभियोजन से हटना, तो वे कार्य उपरोक्त (क) के अधीन प्रावधानों के अनुसार कार्यपालिका मजिस्ट्रेट (Executive Magistrate) द्वारा किए जाएंगे।

धारा 4 – भारतीय न्याय संहिता, 2023 तथा अन्य विधियों के अधीन अपराधों का विचारण (Section 4 – Trial of offences under Bharatiya Nyaya Sanhita, 2023 and other laws)

(1) भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अधीन सभी अपराधों की जांच, पूछताछ, विचारण तथा अन्य सभी कार्यवाहियाँ इस संहिता के प्रावधानों के अनुसार ही की जाएंगी।

(2) किसी अन्य कानून के अधीन किए गए अपराधों की जांच, पूछताछ, विचारण तथा अन्य सभी कार्यवाहियाँ भी इसी संहिता के प्रावधानों के अनुसार की जाएंगी, जब तक कि किसी वर्तमान प्रभावी कानून में उनके तरीके या स्थान को लेकर कोई विशेष व्यवस्था न हो।

 

धारा 5 – अपवाद (Section 5 – Saving)

जब तक इस संहिता में स्पष्ट रूप से इसके विपरीत कोई प्रावधान न हो, तब तक इसका कोई भी प्रावधान किसी भी ऐसे विशेष या स्थानीय कानून, जो वर्तमान में लागू हो, को प्रभावित नहीं करेगा। इसी प्रकार, किसी अन्य प्रभावी कानून द्वारा प्रदान किए गए विशेष अधिकार‑क्षेत्र, विशेष शक्तियाँ या विशेष प्रक्रिया पर भी इसका कोई प्रभाव नहीं होगा।

धारा 6 – आपराधिक न्यायालयों के वर्ग (Section 6 – Classes of Criminal Courts)

प्रत्येक राज्य में, उच्च न्यायालयों और इस संहिता के अतिरिक्त किसी अन्य कानून के अंतर्गत गठित न्यायालयों के अलावा, निम्नलिखित प्रकार के आपराधिक न्यायालय होंगे:

(क) सत्र न्यायालय (Courts of Session)
(ख) प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट (Judicial Magistrates of the first class)
(ग) द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट (Judicial Magistrates of the second class)
(घ) कार्यपालिक मजिस्ट्रेट (Executive Magistrates)

धारा 7 – क्षेत्रीय विभाजन (Section 7 – Territorial divisions)

(1) प्रत्येक राज्य या तो एक सत्र प्रभाग होगा या उसमें सत्र प्रभागों का गठन होगा, और प्रत्येक सत्र प्रभाग इस संहिता के उद्देश्यों के लिए एक जिला होगा या जिलों से मिलकर बना होगा।

(2) राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श के बाद, सत्र प्रभागों और जिलों की सीमाओं या संख्या में परिवर्तन कर सकती है।

(3) राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श के बाद, किसी जिले को उप-मंडलों में विभाजित कर सकती है और उन उप-मंडलों की सीमाओं या संख्या में भी परिवर्तन कर सकती है।

(4) इस संहिता के प्रारंभ के समय किसी राज्य में जो सत्र प्रभाग, जिले और उप-मंडल अस्तित्व में हैं, उन्हें इस धारा के अंतर्गत गठित माना जाएगा।

धारा 8 – सत्र न्यायालय (Section 8 – Court of Session)

(1) राज्य सरकार प्रत्येक सत्र प्रभाग के लिए एक सत्र न्यायालय की स्थापना करेगी।

(2) प्रत्येक सत्र न्यायालय की अध्यक्षता एक न्यायाधीश करेगा जिसे उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त किया जाएगा।

(3) उच्च न्यायालय सत्र न्यायालय में अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने हेतु अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश भी नियुक्त कर सकता है।

(4) किसी एक सत्र प्रभाग के सत्र न्यायाधीश को उच्च न्यायालय किसी अन्य प्रभाग का अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश भी नियुक्त कर सकता है, और ऐसे मामले में वह न्यायाधीश उच्च न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट स्थानों पर उस दूसरे प्रभाग में मामलों का निपटारा कर सकेगा।

(5) यदि किसी सत्र न्यायाधीश का पद रिक्त हो, तो उच्च न्यायालय किसी लंबित या संभावित तात्कालिक आवेदन के निपटान के लिए उसी सत्र प्रभाग में किसी अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश को, और यदि वह उपलब्ध न हो, तो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को नियुक्त कर सकता है; और ऐसे न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को ऐसे आवेदन पर कार्य करने का अधिकार प्राप्त होगा।

(6) सामान्य रूप से सत्र न्यायालय की बैठकें उच्च न्यायालय द्वारा अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट स्थानों पर होंगी; लेकिन यदि किसी विशेष मामले में न्यायालय यह माने कि पक्षकारों और गवाहों की सुविधा के लिए बैठक किसी अन्य स्थान पर होनी चाहिए, तो अभियोजन एवं अभियुक्त की सहमति से वह न्यायालय उस स्थान पर कार्यवाही कर सकता है।

(7) सत्र न्यायाधीश समय-समय पर इस संहिता के अनुरूप अतिरिक्त सत्र न्यायाधीशों के बीच कार्यों के वितरण हेतु आदेश जारी कर सकता है।

(8) सत्र न्यायाधीश अपनी अनुपस्थिति या असमर्थता की स्थिति में, किसी तात्कालिक आवेदन के निपटान की व्यवस्था किसी अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा, और यदि वह उपलब्ध न हो, तो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा कर सकता है; और ऐसा न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट उस आवेदन पर कार्य करने हेतु सक्षम माना जाएगा।

व्याख्या – इस संहिता के प्रयोजनों के लिए “नियुक्ति” में सरकार द्वारा किसी सेवा या पद पर की गई पहली नियुक्ति, पदस्थापन या पदोन्नति शामिल नहीं है, जहाँ किसी विधि के अंतर्गत ऐसी नियुक्ति सरकार द्वारा किया जाना अपेक्षित हो।

धारा 9 – न्यायिक मजिस्ट्रेटों की न्यायालयें (Section 9 – Courts of Judicial Magistrates)

(1) प्रत्येक जिले में राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श करके अधिसूचना द्वारा, आवश्यकता के अनुसार जितनी संख्या में तथा जिन स्थानों पर आवश्यक हो, प्रथम श्रेणी और द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेटों की न्यायालयों की स्थापना करेगी।
यह भी प्रावधान है कि राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श करके, किसी विशेष क्षेत्र के लिए एक या अधिक विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट न्यायालय (प्रथम या द्वितीय श्रेणी) किसी विशेष मामले या मामलों की विशेष श्रेणी के विचारण हेतु स्थापित कर सकती है।
ऐसी स्थिति में, उस क्षेत्र में कोई अन्य मजिस्ट्रेट न्यायालय उस विशेष मामले या मामलों की श्रेणी का विचारण नहीं कर सकेगा, जिसके लिए विशेष न्यायालय स्थापित किया गया है।

(2) इन न्यायालयों के अध्यक्ष (न्यायिक अधिकारी) उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त किए जाएंगे।

(3) उच्च न्यायालय जब आवश्यक या उपयुक्त समझे, तब वह राज्य की न्यायिक सेवा के किसी सिविल न्यायालय के न्यायाधीश को प्रथम या द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ प्रदान कर सकता है।

धारा 10 – मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट एवं अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट आदि (Section 10 – Chief Judicial Magistrate and Additional Chief Judicial Magistrate, etc.)

(1) प्रत्येक जिले में उच्च न्यायालय किसी प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट नियुक्त करेगा।

(2) उच्च न्यायालय किसी प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के रूप में भी नियुक्त कर सकता है, और ऐसा मजिस्ट्रेट इस संहिता या किसी अन्य प्रभावी कानून के तहत मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की सभी या कुछ शक्तियाँ उस प्रकार प्रयोग करेगा जैसा उच्च न्यायालय निर्देश दे।

(3) उच्च न्यायालय किसी उप-मंडल में कार्यरत किसी प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट को उप-मंडलीय न्यायिक मजिस्ट्रेट के रूप में नामित कर सकता है और आवश्यकता अनुसार उसे इस धारा के अंतर्गत निर्दिष्ट दायित्वों से मुक्त भी कर सकता है।

(4) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामान्य नियंत्रण के अधीन, प्रत्येक उप-मंडलीय न्यायिक मजिस्ट्रेट को अपने उप-मंडल में कार्यरत अन्य न्यायिक मजिस्ट्रेटों (अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को छोड़कर) के कार्यों की निगरानी और नियंत्रण की शक्तियाँ प्राप्त होंगी, जैसा कि उच्च न्यायालय सामान्य या विशेष आदेश द्वारा निर्दिष्ट करे।

धारा 11 – विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट (Section 11 – Special Judicial Magistrates)

(1) यदि केंद्र सरकार या राज्य सरकार अनुरोध करे, तो उच्च न्यायालय किसी सरकारी पद पर कार्यरत या पूर्व में कार्य कर चुके व्यक्ति को, किसी विशेष क्षेत्र में, कुछ विशिष्ट मामलों या विशिष्ट प्रकार के मामलों के संबंध में, इस संहिता के अंतर्गत प्रथम श्रेणी या द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट को प्रदान की जाने वाली सभी या कुछ शक्तियाँ प्रदान कर सकता है।
परंतु ऐसी शक्तियाँ किसी व्यक्ति को तभी दी जाएंगी जब तक वह वैसी विधिक योग्यता या अनुभव रखता हो जैसा कि उच्च न्यायालय नियमों द्वारा निर्धारित करे।

(2) ऐसे मजिस्ट्रेटों को “विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट” कहा जाएगा और उनकी नियुक्ति एक बार में अधिकतम एक वर्ष की अवधि के लिए की जाएगी, जैसा उच्च न्यायालय सामान्य या विशेष आदेश द्वारा निर्देश दे।

 

धारा 12 – न्यायिक मजिस्ट्रेटों का स्थानीय अधिकार-क्षेत्र (Section 12 – Local Jurisdiction of Judicial Magistrates)

(1) उच्च न्यायालय के नियंत्रण के अधीन, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट समय-समय पर यह निर्धारित कर सकता है कि धारा 9 या धारा 11 के अंतर्गत नियुक्त मजिस्ट्रेटों को इस संहिता के अंतर्गत प्राप्त सभी या कुछ विशेष शक्तियों का प्रयोग किस क्षेत्र में करना है।
परंतु, विशेष न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत अपने क्षेत्र में किसी भी स्थान पर बैठक कर सकती है।

(2) जब तक किसी मजिस्ट्रेट के अधिकार-क्षेत्र की स्पष्ट रूप से सीमाएँ निर्धारित न की जाएँ, तब तक उसकी शक्तियाँ और अधिकार पूरे जिले में लागू माने जाएँगे।

(3) यदि धारा 9 या 11 के अंतर्गत नियुक्त किसी मजिस्ट्रेट का स्थानीय अधिकार-क्षेत्र उस जिले से बाहर तक फैला हो जहाँ वह सामान्यतः अपनी अदालत आयोजित करता है, तो इस संहिता में “सत्र न्यायालय” या “मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट” का जो भी उल्लेख है, वह उस जिले के सत्र न्यायालय या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के रूप में माना जाएगा, जब तक संदर्भ कुछ और न दर्शाए।

धारा 13 – न्यायिक मजिस्ट्रेटों की अधीनता (Section 13 – Subordination of Judicial Magistrates)

(1) प्रत्येक मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट सत्र न्यायाधीश के अधीनस्थ होगा, और अन्य सभी न्यायिक मजिस्ट्रेट, सत्र न्यायाधीश के सामान्य नियंत्रण के अधीन रहते हुए, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के अधीनस्थ होंगे।

(2) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट समय-समय पर इस संहिता के अनुरूप, अपने अधीनस्थ न्यायिक मजिस्ट्रेटों के बीच कार्यों के वितरण हेतु नियम बना सकता है या विशेष आदेश दे सकता है।

धारा 14 – कार्यपालिक मजिस्ट्रेट (Section 14 – Executive Magistrates)

(1) प्रत्येक जिले में राज्य सरकार अपनी इच्छानुसार जितने व्यक्तियों को उपयुक्त समझे, उन्हें कार्यपालिक मजिस्ट्रेट नियुक्त कर सकती है और उनमें से किसी एक को जिला मजिस्ट्रेट नियुक्त करना अनिवार्य होगा।

(2) राज्य सरकार किसी कार्यपालिक मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट नियुक्त कर सकती है, और ऐसा मजिस्ट्रेट इस संहिता या किसी अन्य प्रभावी विधि के अंतर्गत जिला मजिस्ट्रेट की वह सभी या कुछ शक्तियाँ प्रयोग करेगा, जैसा राज्य सरकार निर्देश दे।

(3) यदि जिला मजिस्ट्रेट का पद रिक्त हो जाए और कोई अधिकारी अस्थायी रूप से जिले का प्रशासनिक कार्यभार ग्रहण कर ले, तो राज्य सरकार के आदेश आने तक, वह अधिकारी इस संहिता के अंतर्गत जिला मजिस्ट्रेट को प्रदान की गई सभी शक्तियाँ और कर्तव्यों का प्रयोग और पालन करेगा।

(4) राज्य सरकार किसी कार्यपालिक मजिस्ट्रेट को किसी उप-मंडल का प्रभार सौंप सकती है और आवश्यकता होने पर उससे यह प्रभार वापस भी ले सकती है। ऐसा मजिस्ट्रेट उप-मंडलीय मजिस्ट्रेट कहलाएगा।

(5) राज्य सरकार सामान्य या विशेष आदेश द्वारा, और ऐसी शर्तों व नियंत्रणों के अधीन जो वह उपयुक्त समझे, उप-धारा (4) के अंतर्गत अपनी शक्तियाँ जिला मजिस्ट्रेट को सौंप सकती है।

(6) इस धारा में कुछ भी ऐसा नहीं है जो राज्य सरकार को वर्तमान में लागू किसी विधि के अंतर्गत पुलिस आयुक्त को कार्यपालिक मजिस्ट्रेट की सभी या कुछ शक्तियाँ प्रदान करने से रोकता हो।

 

धारा 15 – विशेष कार्यपालिक मजिस्ट्रेट (Section 15 – Special Executive Magistrates)

राज्य सरकार, अपनी इच्छा अनुसार किसी निश्चित अवधि के लिए, कार्यपालिक मजिस्ट्रेटों या पुलिस अधीक्षक (या समकक्ष पद) से ऊपर के किसी पुलिस अधिकारी को विशेष कार्यपालिक मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त कर सकती है। यह नियुक्ति किसी विशेष क्षेत्र या किसी विशेष कार्य के संपादन हेतु की जा सकती है।
राज्य सरकार ऐसे विशेष कार्यपालिक मजिस्ट्रेटों को इस संहिता के अंतर्गत कार्यपालिक मजिस्ट्रेटों को दी जाने वाली उपयुक्त शक्तियाँ भी प्रदान कर सकती है।

 

धारा 16 – कार्यपालिक मजिस्ट्रेटों का स्थानीय अधिकार-क्षेत्र (Section 16 – Local Jurisdiction of Executive Magistrates)

(1) राज्य सरकार के नियंत्रण के अधीन, जिला मजिस्ट्रेट समय-समय पर यह निर्धारित कर सकता है कि किस क्षेत्र की सीमाओं के भीतर कार्यपालिक मजिस्ट्रेट इस संहिता के अंतर्गत दी गई सभी या कुछ विशेष शक्तियों का प्रयोग करेंगे।

(2) जब तक ऐसी कोई सीमांकन व्यवस्था न की गई हो, हर कार्यपालिक मजिस्ट्रेट का अधिकार-क्षेत्र और शक्तियाँ पूरे जिले में लागू होंगी।

 

धारा 18 – लोक अभियोजक (Section 18 – Public Prosecutors)

(1) प्रत्येक उच्च न्यायालय के लिए केंद्र सरकार या राज्य सरकार, उच्च न्यायालय से परामर्श करके, एक लोक अभियोजक तथा आवश्यकता अनुसार एक या अधिक अतिरिक्त लोक अभियोजक नियुक्त करेगी, जो उस न्यायालय में सरकार की ओर से अभियोजन, अपील या अन्य कार्यवाहियाँ करेंगे।
स्पष्टीकरण: दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए यह नियुक्ति केवल केंद्र सरकार द्वारा, दिल्ली उच्च न्यायालय से परामर्श के बाद की जाएगी।

(2) केंद्र सरकार किसी भी जिले या स्थानीय क्षेत्र में किसी मामले के संचालन के लिए एक या अधिक लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है।

(3) प्रत्येक जिले के लिए राज्य सरकार एक लोक अभियोजक तथा आवश्यकता अनुसार एक या अधिक अतिरिक्त लोक अभियोजक नियुक्त करेगी।
उपबंध: एक जिले के लिए नियुक्त लोक अभियोजक या अतिरिक्त लोक अभियोजक को दूसरे जिले के लिए भी नियुक्त किया जा सकता है।

(4) जिला मजिस्ट्रेट, सत्र न्यायाधीश से परामर्श करके, उन व्यक्तियों की एक सूची (पैनल) तैयार करेगा जो लोक अभियोजक या अतिरिक्त लोक अभियोजक पद के लिए उपयुक्त हों।

(5) राज्य सरकार द्वारा तब तक किसी व्यक्ति को लोक अभियोजक या अतिरिक्त लोक अभियोजक के रूप में नियुक्त नहीं किया जाएगा जब तक उसका नाम उप-धारा (4) में तैयार किए गए पैनल में सम्मिलित न हो।

(6) उप-धारा (5) के बावजूद, यदि किसी राज्य में लोक अभियोजन अधिकारियों का नियमित संवर्ग (Regular Cadre) मौजूद है, तो राज्य सरकार लोक अभियोजक या अतिरिक्त लोक अभियोजक की नियुक्ति केवल उसी संवर्ग के सदस्यों में से करेगी।
परंतु, यदि सरकार की राय में ऐसा कोई उपयुक्त व्यक्ति उस संवर्ग में उपलब्ध नहीं है, तो वह उप-धारा (4) के तहत तैयार किए गए पैनल से नियुक्ति कर सकती है।

स्पष्टीकरण:
(क) “लोक अभियोजन अधिकारियों का नियमित संवर्ग” का अर्थ ऐसा संवर्ग है जिसमें लोक अभियोजक का पद शामिल हो, और जिसमें सहायक लोक अभियोजकों को पदोन्नति का प्रावधान हो।
(ख) “लोक अभियोजन अधिकारी” का अर्थ ऐसा कोई व्यक्ति है जो इस संहिता के अंतर्गत लोक अभियोजक, विशेष लोक अभियोजक, अतिरिक्त लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक के रूप में कार्य करे, चाहे किसी भी नाम से जाना जाता हो।

(7) उप-धारा (1), (2), (3) या (6) के अंतर्गत लोक अभियोजक या अतिरिक्त लोक अभियोजक के रूप में केवल वही व्यक्ति नियुक्त किया जा सकता है जो कम से कम सात वर्ष तक अधिवक्ता के रूप में कार्यरत रहा हो।

(8) केंद्र सरकार या राज्य सरकार किसी मामले या मामलों की किसी श्रेणी के लिए कम से कम दस वर्ष तक अधिवक्ता रहे व्यक्ति को विशेष लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है।
उपबंध: न्यायालय पीड़ित को, अभियोजन की सहायता के लिए, अपनी पसंद का अधिवक्ता नियुक्त करने की अनुमति दे सकता है।

(9) उप-धारा (7) और (8) के प्रयोजन हेतु, किसी व्यक्ति द्वारा अधिवक्ता के रूप में की गई सेवा, या लोक अभियोजक, विशेष लोक अभियोजक, अतिरिक्त लोक अभियोजक, सहायक लोक अभियोजक या किसी अन्य अभियोजन अधिकारी के रूप में की गई सेवा को, अधिवक्ता के रूप में कार्यकाल माना जाएगा।

धारा 19 – सहायक लोक अभियोजक (Section 19 – Assistant Public Prosecutors)

(1) राज्य सरकार प्रत्येक जिले में एक या अधिक सहायक लोक अभियोजकों की नियुक्ति करेगी, ताकि वे मजिस्ट्रेट की अदालतों में अभियोजन कार्य कर सकें।

(2) केंद्र सरकार भी, किसी विशेष मामले या मामलों की किसी श्रेणी के लिए मजिस्ट्रेट की अदालतों में अभियोजन चलाने हेतु एक या अधिक सहायक लोक अभियोजक नियुक्त कर सकती है।

(3) उप-धारा (1) और (2) के प्रावधानों के बावजूद, यदि किसी विशेष मामले के लिए कोई सहायक लोक अभियोजक उपलब्ध न हो, तो जिला मजिस्ट्रेट राज्य सरकार को 14 दिन पूर्व सूचना देकर किसी अन्य व्यक्ति को उस मामले के लिए सहायक लोक अभियोजक नियुक्त कर सकता है।
परंतु, किसी पुलिस अधिकारी को सहायक लोक अभियोजक के रूप में नियुक्त नहीं किया जाएगा यदि—
(क) उसने उस अपराध की जांच में कोई भाग लिया हो, जिसके लिए अभियुक्त पर अभियोजन चलाया जा रहा है; या
(ख) वह निरीक्षक (Inspector) के पद से नीचे के दर्जे का हो।

धारा 20 – अभियोजन निदेशालय (Section 20 – Directorate of Prosecution)

(1) राज्य सरकार निम्नलिखित की स्थापना कर सकती है:
(क) राज्य में एक अभियोजन निदेशालय, जिसमें एक निदेशक अभियोजन (Director of Prosecution) और आवश्यकतानुसार उप-निदेशक अभियोजन (Deputy Directors of Prosecution) होंगे।
(ख) प्रत्येक जिले में एक जिला अभियोजन निदेशालय, जिसमें राज्य सरकार की आवश्यकतानुसार उप-निदेशक और सहायक निदेशक अभियोजन (Assistant Directors of Prosecution) होंगे।

(2) पात्रता:
(क) निदेशक या उप-निदेशक अभियोजन वही व्यक्ति हो सकता है जो कम से कम 15 वर्षों तक अधिवक्ता रहा हो या सत्र न्यायाधीश रहा हो।
(ख) सहायक निदेशक अभियोजन वही व्यक्ति हो सकता है जो कम से कम 7 वर्षों तक अधिवक्ता रहा हो या प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट रहा हो।

(3) अभियोजन निदेशालय का प्रमुख निदेशक अभियोजन होगा और वह राज्य के गृह विभाग के प्रशासनिक नियंत्रण में कार्य करेगा।

(4) हर उप-निदेशक और सहायक निदेशक अभियोजन, निदेशक अभियोजन के अधीन होंगे; तथा हर सहायक निदेशक, उप-निदेशक अभियोजन के अधीन होगा।

(5) उच्च न्यायालय में मामलों के संचालन हेतु धारा 18 की उप-धारा (1) या (8) के अंतर्गत राज्य सरकार द्वारा नियुक्त लोक अभियोजक, अतिरिक्त लोक अभियोजक या विशेष लोक अभियोजक, निदेशक अभियोजन के अधीन होंगे।

(6) जिला न्यायालयों में मामलों के संचालन हेतु धारा 18 की उप-धारा (3) या (8) और धारा 19 की उप-धारा (1) के तहत नियुक्त लोक अभियोजक, अतिरिक्त लोक अभियोजक, विशेष लोक अभियोजक और सहायक लोक अभियोजक, उप-निदेशक या सहायक निदेशक अभियोजन के अधीन होंगे।

(7) निदेशक अभियोजन के कार्य और शक्तियाँ होंगी —
उन मामलों की निगरानी करना जहाँ दंड 10 वर्ष या अधिक, आजीवन कारावास या मृत्युदंड है; कार्यवाही में तेजी लाना और अपील दायर करने पर राय देना

(8) उप-निदेशक अभियोजन का कार्य होगा —
7 वर्ष या अधिक परंतु 10 वर्ष से कम सजा वाले मामलों की निगरानी करना, पुलिस रिपोर्ट की जांच करना और मामलों का शीघ्र निपटान सुनिश्चित करना।

(9) सहायक निदेशक अभियोजन का कार्य होगा —
7 वर्ष से कम सजा वाले मामलों की निगरानी करना।

(10) उप-धाराओं (7), (8), और (9) के बावजूद, निदेशक, उप-निदेशक या सहायक निदेशक अभियोजन इस संहिता के अंतर्गत सभी कार्यवाहियों को देखने और उनके लिए उत्तरदायी होने का अधिकार रखते हैं।

(11) निदेशक, उप-निदेशक और सहायक निदेशक अभियोजन के अन्य अधिकार, कार्य और उनके कार्यक्षेत्र राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा निर्धारित करेगी।

(12) यह धारा राज्य के महाधिवक्ता (Advocate General) पर तब लागू नहीं होगी जब वह लोक अभियोजक के रूप में कार्य कर रहा हो।

 

धारा 21 – अपराधों का विचारण किन न्यायालयों द्वारा किया जाएगा (Section 21 – Courts by which offences are triable)

इस संहिता के अन्य प्रावधानों के अधीन रहते हुए—

(क) भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अंतर्गत किसी भी अपराध का विचारण निम्नलिखित न्यायालयों द्वारा किया जा सकता है:
(i) उच्च न्यायालय,
(ii) सत्र न्यायालय, या
(iii) ऐसा अन्य न्यायालय जो प्रथम अनुसूची में उस अपराध के विचारण हेतु उपयुक्त दर्शाया गया हो।
उपबंध: भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 64 से 71 तक के अंतर्गत आने वाले अपराधों का विचारण, जहाँ तक संभव हो, ऐसी महिला न्यायाधीश द्वारा किया जाना चाहिए।

(ख) किसी अन्य विधि के अंतर्गत किए गए अपराध का विचारण उस कानून में यदि कोई विशिष्ट न्यायालय निर्दिष्ट हो, तो उसी द्वारा किया जाएगा; और यदि कोई न्यायालय निर्दिष्ट नहीं है, तो ऐसे अपराधों का विचारण निम्न में से कोई कर सकता है:
(i) उच्च न्यायालय, या
(ii) ऐसा अन्य न्यायालय जो प्रथम अनुसूची में उस अपराध के लिए उपयुक्त बताया गया हो।

धारा 22 – उच्च न्यायालय और सत्र न्यायाधीश द्वारा दिए जा सकने वाले दंड (Section 22 – Sentences which High Courts and Sessions Judges may pass)

(1) उच्च न्यायालय ऐसा कोई भी दंड दे सकता है जो विधि द्वारा अनुमत हो

(2) सत्र न्यायाधीश या अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश भी ऐसा कोई भी दंड दे सकते हैं जो विधि द्वारा अनुमत हो;
लेकिन यदि वे मृत्युदंड (फांसी की सजा) सुनाते हैं, तो वह दंड उच्च न्यायालय की पुष्टि (confirmation) के अधीन होगा।

 

धारा 23 – मजिस्ट्रेटों द्वारा दिए जा सकने वाले दंड (Section 23 – Sentences which Magistrates may pass)

(1) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत ऐसा कोई भी दंड दे सकती है जो कानून द्वारा अनुमत हो,
परंतु मृत्युदंड, आजीवन कारावास या सात वर्ष से अधिक कारावास का दंड नहीं दे सकती।

(2) प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट की अदालत अधिकतम तीन वर्ष का कारावास, या अधिकतम पचास हजार रुपये जुर्माना, या दोनों, या सामुदायिक सेवा का दंड दे सकती है।

(3) द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट की अदालत अधिकतम एक वर्ष का कारावास, या अधिकतम दस हजार रुपये जुर्माना, या दोनों, या सामुदायिक सेवा का दंड दे सकती है।

स्पष्टीकरण: “सामुदायिक सेवा” का अर्थ है — ऐसा कार्य जो न्यायालय द्वारा दोषी व्यक्ति को समुदाय के हित के लिए दंडस्वरूप करने का आदेश दिया जाए, जिसके लिए उसे कोई भुगतान नहीं मिलेगा।

 

धारा 25 – एक ही अभियोजन में कई अपराधों के दोषसिद्धि पर दंड (Section 25 – Sentence in cases of conviction of several offences at one trial)

(1) जब किसी व्यक्ति को एक ही मुकदमे में दो या अधिक अपराधों के लिए दोषी ठहराया जाता है, तो न्यायालय, भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 9 के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, प्रत्येक अपराध के लिए अलग-अलग दंड दे सकता है, जो उस न्यायालय को देने का अधिकार हो।
न्यायालय को अपराधों की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लेना होगा कि दिए गए दंड साथ-साथ (concurrent) चलें या क्रमशः (consecutive) चलें।

(2) यदि दंड क्रमशः (consecutive) चलने वाले हों, तो केवल इस आधार पर कि कुल दंड की अवधि न्यायालय की एक अपराध पर देने योग्य अधिकतम सीमा से अधिक हो रही है, अभियुक्त को उच्च न्यायालय में नहीं भेजना पड़ेगा।
परंतु:
(क) किसी भी स्थिति में उस व्यक्ति को 20 वर्ष से अधिक की सजा नहीं दी जा सकती, और
(ख) कुल दंड उस सीमा से दो गुना अधिक नहीं हो सकता जितनी सजा उस न्यायालय को एक अपराध के लिए देने का अधिकार है।

(3) दोषसिद्ध व्यक्ति की अपील के उद्देश्य से, इस धारा के अंतर्गत दिए गए सभी क्रमशः दंडों का योग एक ही दंड माना जाएगा।

धारा 26 – अधिकार प्रदान करने की विधि (Section 26 – Mode of conferring powers)

(1) इस संहिता के अंतर्गत जब कोई अधिकार प्रदान किया जाता है, तो उच्च न्यायालय या राज्य सरकार, जिस पर वह लागू हो, आदेश द्वारा निम्न में से किसी भी प्रकार से अधिकार दे सकती है—

  • किसी व्यक्ति को विशेष रूप से नाम द्वारा,
  • उसके पद के कारण, या
  • अधिकारियों के किसी समूह को उनके पदनाम द्वारा

(2) ऐसा कोई भी आदेश उसी तिथि से प्रभावी माना जाएगा जिस दिन वह उस व्यक्ति को सूचित किया गया हो, जिसे अधिकार प्रदान किया गया है।

धारा 27 – नियुक्त अधिकारियों की शक्तियाँ (Section 27 – Powers of officers appointed)

जब कोई व्यक्ति, जो सरकारी सेवा में किसी पद पर कार्यरत है और जिसे उच्च न्यायालय या राज्य सरकार द्वारा इस संहिता के अंतर्गत किसी स्थानीय क्षेत्र में कुछ विशेष शक्तियाँ प्रदान की गई हैं,
और वह व्यक्ति उसी प्रकार के समान या उच्च पद पर, उसी राज्य सरकार के अधीन, उसी तरह के किसी अन्य स्थानीय क्षेत्र में नियुक्त किया जाता है,
तो वह व्यक्ति,
जब तक उच्च न्यायालय या राज्य सरकार कोई अन्य निर्देश न दे,
नए क्षेत्र में भी वही शक्तियाँ प्रयोग करेगा, जो उसे पहले दी गई थीं।

 

धारा 28 – शक्तियों की वापसी (Section 28 – Withdrawal of powers)

(1) उच्च न्यायालय या राज्य सरकार, जो भी संबंधित हो, इस संहिता के अंतर्गत किसी व्यक्ति को अपने द्वारा दी गई कोई भी शक्ति या सभी शक्तियाँ,
या अपने अधीनस्थ किसी अधिकारी द्वारा दी गई शक्तियाँ, वापस ले सकती है।

(2) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या जिला मजिस्ट्रेट द्वारा दी गई कोई भी शक्ति,
उसी मजिस्ट्रेट द्वारा वापस ली जा सकती है, जिसने वह शक्ति प्रदान की थी।

 

धारा 29 – न्यायाधीशों और मजिस्ट्रेटों के उत्तराधिकारी द्वारा शक्तियों का प्रयोग (Section 29 – Powers of Judges and Magistrates exercisable by their successors-in-office)

(1) इस संहिता के अन्य प्रावधानों के अधीन रहते हुए, किसी न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ और कर्तव्य उसके पद-उत्तराधिकारी (successor-in-office) द्वारा निभाए जा सकते हैं।

(2) यदि यह स्पष्ट न हो कि किसी न्यायाधीश का उत्तराधिकारी कौन है, तो सत्र न्यायाधीश लिखित आदेश द्वारा यह तय करेगा कि इस संहिता या इसके अंतर्गत किसी कार्यवाही या आदेश के प्रयोजन से कौन न्यायाधीश उसका उत्तराधिकारी माना जाएगा।

(3) यदि यह स्पष्ट न हो कि किसी मजिस्ट्रेट का उत्तराधिकारी कौन है, तो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या जिला मजिस्ट्रेट, जो उपयुक्त हो, लिखित आदेश द्वारा यह तय करेगा कि इस संहिता या इसके अंतर्गत किसी कार्यवाही या आदेश के प्रयोजन से कौन मजिस्ट्रेट उसका उत्तराधिकारी माना जाएगा।

 

धारा 30 – पुलिस के उच्च अधिकारियों की शक्तियाँ (Section 30 – Powers of superior officers of police)

जो पुलिस अधिकारी थाना प्रभारी (officer in charge of a police station) से ऊंचे पद पर हैं,
वे अपने नियुक्त क्षेत्र की सीमाओं के भीतर
वैसी ही सभी शक्तियाँ प्रयोग कर सकते हैं जैसी शक्तियाँ एक थाना प्रभारी को उसके थाने की सीमा में प्राप्त होती हैं।

धारा 31 – जनता कब मजिस्ट्रेट और पुलिस की सहायता करेगी (Section 31 – Public when to assist Magistrates and police)

हर व्यक्ति यह कर्तव्य रखता है कि वह मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी की उचित मांग पर उसकी सहायता करे—

(क) किसी व्यक्ति को पकड़ने या उसके भागने से रोकने में, जिसे वह मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी कानूनन गिरफ्तार करने का अधिकार रखता है;
(ख) शांति भंग होने से रोकने या उसे दबाने में;
(ग) सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुँचाने के प्रयास को रोकने में

 

धारा 32 – पुलिस अधिकारी के अलावा किसी व्यक्ति को वारंट निष्पादित करने में सहायता (Section 32 – Aid to person, other than police officer, executing warrant)

जब कोई वारंट किसी ऐसे व्यक्ति के नाम निर्देशित किया गया हो जो पुलिस अधिकारी नहीं है,
तो यदि वह व्यक्ति पास ही मौजूद हो और वारंट के निष्पादन की प्रक्रिया में सक्रिय हो,
तो कोई अन्य व्यक्ति भी उसकी सहायता कर सकता है ताकि वह वारंट को प्रभावी ढंग से निष्पादित कर सके।

 

धारा 33 – जनता द्वारा कुछ विशेष अपराधों की सूचना देना अनिवार्य (Section 33 – Public to give information of certain offences)

(1) यदि कोई व्यक्ति निम्नलिखित बातों की जानकारी रखता है—
कि कोई व्यक्ति कोई अपराध कर चुका है या करने की योजना बना रहा है,
और वह अपराध भारतीय न्याय संहिता, 2023 की निम्नलिखित धाराओं के अंतर्गत दंडनीय है:
(i) धारा 103 से 105 तक,
(ii) धारा 111 से 113 तक,
(iii) धारा 140 से 144 तक,
(iv) धारा 147 से 154 तक और धारा 158,
(v) धारा 178 से 182 तक,
(vi) धारा 189 और 191,
(vii) धारा 274 से 280 तक,
(viii) धारा 307,
(ix) धारा 309 से 312 तक,
(x) धारा 316 की उप-धारा (5),
(xi) धारा 326 से 328 तक,
(xii) धारा 331 और 332,

तो उस व्यक्ति पर यह कानूनी बाध्यता है कि वह तुरंत निकटतम मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी को इस अपराध या अपराध की मंशा के बारे में सूचना दे।

(2) इस धारा के अंतर्गत “अपराध” में वे कार्य भी शामिल हैं जो यदि भारत में किए जाते, तो वे अपराध माने जाते, भले ही वे भारत के बाहर कहीं और किए गए हों।

 

धारा 34 – गाँव से संबंधित कार्यों में लगे अधिकारियों का कुछ रिपोर्ट देना अनिवार्य (Section 34 – Duty of officers employed in connection with affairs of a village to make certain report)

(1) कोई भी व्यक्ति जो गाँव के प्रशासन से संबंधित कार्यों में लगा हुआ हो, और गाँव में रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति, यदि उनके पास निम्नलिखित में से किसी विषय की जानकारी हो, तो उन्हें तुरंत निकटतम मजिस्ट्रेट या पुलिस थाना प्रभारी को (जो भी निकट हो) सूचित करना अनिवार्य है

(क) किसी कुख्यात चोरी की संपत्ति के खरीदार या विक्रेता की स्थायी या अस्थायी उपस्थिति गाँव या उसके पास;
(ख) गाँव में किसी ऐसे व्यक्ति का आना या गुजरना, जिसे वह जानता हो या संदेह करता हो कि वह डकैत, जेल से भागा हुआ या उद्घोषित अपराधी है;
(ग) गाँव या उसके निकट किसी ग़ैर-जमानती अपराध या भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 189 या 191 में दंडनीय अपराध के किए जाने या किए जाने की योजना की सूचना;
(घ) गाँव या उसके पास अचानक या अस्वाभाविक मृत्यु, संदेहास्पद परिस्थितियों में मृत्यु, शव या शव का भाग मिलना, या किसी व्यक्ति का गायब होना जिससे संदेह हो कि उसके साथ कोई ग़ैर-जमानती अपराध हुआ है;
(ङ) भारत के बाहर, गाँव के पास के किसी स्थान पर ऐसा कोई कृत्य किया गया हो (या होने की योजना हो) जो यदि भारत में होता, तो भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धाराओं 103, 105, 111, 112, 113, 178 से 181, 305, 307, 309 से 312, 326 की उपधाराएँ (f) व (g), 331 या 332 के अंतर्गत दंडनीय होता;
(च) ऐसी कोई बात जो कानून व्यवस्था, अपराध की रोकथाम, या व्यक्ति व संपत्ति की सुरक्षा से संबंधित हो और जिसे जिला मजिस्ट्रेट ने, राज्य सरकार की पूर्व स्वीकृति से, सामान्य या विशेष आदेश द्वारा रिपोर्ट करने का निर्देश दिया हो।

(2) परिभाषाएँ—
(i) “गाँव” में गाँव की भूमि भी शामिल है।
(ii) “उद्घोषित अपराधी” में वह व्यक्ति भी शामिल है जिसे भारत के किसी अन्य क्षेत्र की अदालत या प्राधिकरण द्वारा उद्घोषित किया गया हो, यदि वह कृत्य भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अंतर्गत 10 वर्ष या अधिक की सजा, आजीवन कारावास या मृत्युदंड से दंडनीय होता।
(iii) “गाँव से संबंधित कार्यों में लगा अधिकारी” में गाँव की पंचायत का सदस्य, सरपंच/मुखिया, और वह प्रत्येक व्यक्ति शामिल है जिसे गाँव के प्रशासन से संबंधित कोई कार्य सौंपा गया हो।

 

धारा 35 – पुलिस किन परिस्थितियों में वारंट के बिना गिरफ्तारी कर सकती है (Section 35 – When police may arrest without warrant)

(1) कोई भी पुलिस अधिकारी, मजिस्ट्रेट के आदेश और वारंट के बिना, निम्नलिखित स्थितियों में किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार कर सकता है:

(a) जब कोई व्यक्ति पुलिस अधिकारी के सामने संज्ञेय अपराध (cognizable offence) करता है।

(b) जब किसी व्यक्ति के विरुद्ध उचित शिकायत हो, या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई हो, या उचित संदेह हो कि उसने संज्ञेय अपराध किया है, जिसकी सजा 7 वर्ष या उससे कम हो सकती है, तब गिरफ़्तारी तभी हो सकती है जब ये दो शर्तें पूरी हों—
(i) पुलिस अधिकारी को विश्वास हो कि उस व्यक्ति ने वह अपराध किया है;
(ii) पुलिस अधिकारी को यह लगना चाहिए कि गिरफ्तारी आवश्यक है:

  • आगे कोई अपराध करने से रोकने के लिए;
  • अपराध की सही जांच के लिए;
  • साक्ष्य मिटाने या छेड़छाड़ से रोकने के लिए;
  • गवाहों को धमकाने या बहकाने से रोकने के लिए;
  • आरोपी की कोर्ट में उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए।
    और पुलिस अधिकारी को ऐसी गिरफ्तारी के लिए अपने लिखित कारण दर्ज करने होंगे।
    नोट: यदि गिरफ्तारी आवश्यक नहीं है, तब भी पुलिस को गिरफ्तारी न करने के कारण लिखित रूप में दर्ज करने होंगे।

(c) जब पुलिस को विश्वसनीय सूचना मिले कि व्यक्ति ने ऐसा संज्ञेय अपराध किया है जिसकी सजा 7 वर्ष से अधिक या मृत्युदंड हो सकती है, और पुलिस अधिकारी को उस सूचना के आधार पर विश्वास हो कि उसने अपराध किया है।

(d) जब वह व्यक्ति घोषित अपराधी (proclaimed offender) है।

(e) जब उस व्यक्ति के पास कोई ऐसी वस्तु मिले जो चोरी की वस्तु होने का संदेह पैदा करे।

(f) जब वह व्यक्ति पुलिस अधिकारी के कार्य में बाधा डाले या कानूनी हिरासत से भागे या भागने का प्रयास करे।

(g) जब वह व्यक्ति भारतीय सशस्त्र बलों से भागा हुआ (deserter) संदेह किया जाए।

(h) जब वह व्यक्ति किसी ऐसे कृत्य में संलिप्त रहा हो जो भारत से बाहर हुआ हो लेकिन यदि भारत में होता तो अपराध माना जाता, और वह भारत में वांछनीय या हिरासत में लिए जाने योग्य हो।

(i) जब वह व्यक्ति, रिहा हुआ अपराधी होते हुए, धारा 394(5) के तहत बनाए गए किसी नियम का उल्लंघन करे।

(j) जब किसी अन्य पुलिस अधिकारी द्वारा लिखित या मौखिक अनुरोध प्राप्त हुआ हो, बशर्ते अनुरोध में गिरफ्तारी का कारण और व्यक्ति की पहचान स्पष्ट रूप से दी गई हो।

(2) गैर-संज्ञेय अपराध (non-cognizable offence) की स्थिति में, धारा 39 के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, कोई गिरफ्तारी नहीं की जा सकती जब तक मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट या आदेश न हो।

(3) यदि उपधारा (1) के तहत गिरफ्तारी आवश्यक नहीं है, तो पुलिस अधिकारी को व्यक्ति को नोटिस जारी करना होगा, जिसमें उसे अपने सामने या किसी अन्य स्थान पर उपस्थित होने को कहा जाएगा।

(4) जिसे नोटिस जारी की गई हो, उसका पालन करना उस व्यक्ति का कर्तव्य होगा।

(5) यदि वह व्यक्ति नोटिस का ईमानदारी से पालन करता है, तो उसे गिरफ्तार नहीं किया जाएगा जब तक कि पुलिस अधिकारी लिखित कारणों सहित यह न माने कि गिरफ्तारी आवश्यक है।

(6) यदि वह व्यक्ति नोटिस का पालन नहीं करता या अपनी पहचान नहीं बताता, तो पुलिस उसे गिरफ्तार कर सकती है, परंतु केवल सक्षम न्यायालय द्वारा पारित आदेशों के अनुसार

(7) यदि कोई अपराध 3 वर्ष से कम सजा योग्य है और आरोपी अशक्त (infirm) या 60 वर्ष से अधिक आयु का है, तो उसे गिरफ्तार करने से पहले पुलिस को डिप्टी एसपी या उच्च अधिकारी की पूर्व अनुमति लेना अनिवार्य होगा।

 

धारा 36 – गिरफ़्तारी की प्रक्रिया और गिरफ़्तारी करने वाले अधिकारी के कर्तव्य (Section 36 – Procedure of arrest and duties of officer making arrest)

हर पुलिस अधिकारी, जब वह किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करता है, तो उसे निम्नलिखित कर्तव्यों का पालन करना आवश्यक है:

(a) उस पुलिस अधिकारी को अपना नाम स्पष्ट, स्पष्ट रूप से दिखाई देने योग्य और सही रूप से अंकित पहचान के साथ पहनना होगा, ताकि उसे आसानी से पहचाना जा सके।

(b) उसे गिरफ़्तारी का एक ज्ञापन (memorandum of arrest) तैयार करना होगा, जो कि—
(i) कम से कम एक गवाह द्वारा प्रमाणित होना चाहिए, जो या तो

  • गिरफ्तार किए गए व्यक्ति के परिवार का सदस्य हो, या
  • उस स्थान का सम्मानित व्यक्ति हो जहाँ गिरफ़्तारी की गई है;
    (ii) गिरफ्तार किए गए व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित (countersigned) होना चाहिए।

(c) यदि ज्ञापन गिरफ्तार व्यक्ति के परिवार के सदस्य द्वारा प्रमाणित नहीं किया गया है, तो
पुलिस अधिकारी को उस व्यक्ति को यह सूचित करना होगा कि उसे यह अधिकार है कि वह अपने किसी रिश्तेदार, मित्र या किसी अन्य व्यक्ति को अपनी गिरफ्तारी की सूचना देने को कह सकता है।

 

धारा 37 – नामित पुलिस अधिकारी (Section 37 – Designated police officer)

राज्य सरकार निम्नलिखित कार्य करेगी:

(a) हर जिले और राज्य स्तर पर एक पुलिस नियंत्रण कक्ष (Police Control Room) की स्थापना करेगी।

(b) हर जिले और हर पुलिस थाने में कम से कम सहायक उप-निरीक्षक (Assistant Sub-Inspector) के पद से नीचे नहीं हो ऐसा एक पुलिस अधिकारी नामित करेगी,
जो यह सुनिश्चित करने का उत्तरदायी होगा कि—
गिरफ्तार किए गए व्यक्तियों के नाम और पते, तथा उन पर लगाए गए अपराध की प्रकृति से संबंधित जानकारी
हर पुलिस स्टेशन और जिला मुख्यालय में स्पष्ट रूप से प्रदर्शित की जाए,
किसी भी रूप में, जिसमें डिजिटल माध्यम भी शामिल हो सकता है।

 

धारा 38 – पूछताछ के दौरान गिरफ्तार व्यक्ति का अपने पसंद के वकील से मिलने का अधिकार (Section 38 – Right of arrested person to meet an advocate of his choice during interrogation)

जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया हो और पुलिस द्वारा पूछताछ की जा रही हो,
तो उस व्यक्ति को यह अधिकार प्राप्त होगा कि वह पूछताछ के दौरान अपनी पसंद के वकील से मिले,
हालाँकि यह अधिकार पूरी पूछताछ के दौरान लगातार (throughout) नहीं होगा।

 

धारा 39 – नाम और पता बताने से इनकार करने पर गिरफ्तारी (Section 39 – Arrest on refusal to give name and residence)

(1) यदि कोई व्यक्ति, जिसने किसी ग़ैर-संज्ञेय अपराध (non-cognizable offence) को पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में किया हो या करने का आरोप हो,
और वह व्यक्ति पुलिस अधिकारी के कहने पर अपना नाम या पता बताने से इनकार करता है,
या ऐसा नाम या पता बताता है जो पुलिस अधिकारी को झूठा प्रतीत होता है,
तो उस व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है,
ताकि उसका सही नाम और पता पता लगाया जा सके।

(2) जब उस व्यक्ति का सही नाम और पता पता चल जाता है, तो उसे बॉन्ड या बेल बॉन्ड पर रिहा किया जाएगा,
यह शर्त के साथ कि यदि आवश्यक हुआ, तो वह मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होगा।
परंतु: यदि वह व्यक्ति भारत का निवासी नहीं है, तो बेल बॉन्ड भारतीय निवासी ज़मानतदार द्वारा सुरक्षित होना चाहिए।

(3) यदि उस व्यक्ति का सही नाम और पता 24 घंटे के भीतर नहीं पता चल पाता,
या वह व्यक्ति बॉन्ड या बेल बॉन्ड पर हस्ताक्षर करने से इनकार करता है,
या यदि आवश्यक हो तो पर्याप्त ज़मानती नहीं देता,
तो उसे तत्काल नज़दीकी सक्षम मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।

 

धारा 40 – निजी व्यक्ति द्वारा गिरफ़्तारी और उसकी प्रक्रिया (Section 40 – Arrest by private person and procedure on such arrest)

(1) कोई भी निजी व्यक्ति (private person) किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है या उसकी गिरफ्तारी करवा सकता है यदि:

  • उस व्यक्ति के सामने कोई गैर-जमानती और संज्ञेय अपराध (non-bailable and cognizable offence) किया गया हो, या
  • वह व्यक्ति घोषित अपराधी (proclaimed offender) हो।
    गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को बिना अनावश्यक विलंब के, लेकिन हर हाल में गिरफ्तारी के छह घंटे के भीतर,
    या तो किसी पुलिस अधिकारी को सौंपना होगा, या यदि कोई पुलिस अधिकारी पास में न हो, तो उसे नज़दीकी पुलिस थाने ले जाकर सौंपना होगा।

(2) यदि ऐसा विश्वास करने का उचित कारण हो कि वह व्यक्ति धारा 35 की उप-धारा (1) के अंतर्गत आता है,
तो पुलिस अधिकारी उसे हिरासत में लेगा।

(3) यदि विश्वास का कारण है कि उस व्यक्ति ने कोई गैर-संज्ञेय अपराध किया है,
और वह पुलिस अधिकारी के कहने पर अपना नाम और पता बताने से इनकार करता है,
या झूठा नाम-पता बताता है,
तो उसे धारा 39 के अनुसार कार्यवाही के अधीन लाया जाएगा।
लेकिन यदि ऐसा कोई उचित कारण नहीं है जिससे यह विश्वास किया जा सके कि उसने कोई अपराध किया है,
तो उसे तुरंत रिहा कर दिया जाएगा।

 

धारा 41 – मजिस्ट्रेट द्वारा गिरफ़्तारी (Section 41 – Arrest by Magistrate)

(1) यदि किसी मजिस्ट्रेट (कार्यपालक या न्यायिक) की स्थानीय अधिकारिता में उसके सामने कोई अपराध होता है,
तो वह मजिस्ट्रेट स्वयं उस अपराधी को गिरफ़्तार कर सकता है या किसी अन्य व्यक्ति को गिरफ़्तार करने का आदेश दे सकता है,
और उसके बाद, इस संहिता में दी गई जमानत से संबंधित धाराओं के अधीन,
उस अपराधी को हिरासत में भेज सकता है

(2) कोई भी मजिस्ट्रेट (कार्यपालक या न्यायिक),
किसी भी समय अपने सामने, अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र में,
किसी ऐसे व्यक्ति को गिरफ़्तार कर सकता है या उसकी गिरफ़्तारी का आदेश दे सकता है,
जिसकी गिरफ़्तारी के लिए वह उस समय और परिस्थितियों में वारंट जारी कर सकता है।

 

धारा 42 – सशस्त्र बलों के सदस्यों को गिरफ्तारी से सुरक्षा (Section 42 – Protection of members of Armed Forces from arrest)

(1) धारा 35 तथा धारा 39 से 41 तक की किसी बात के बावजूद,
केंद्रीय सशस्त्र बलों के किसी सदस्य को,
उसके द्वारा किए गए या अपने अधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए कार्यों के लिए,
बिना केंद्रीय सरकार की पूर्व अनुमति के गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।

(2) राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, यह निर्देश दे सकती है कि उप-धारा (1) का प्रावधान
उन बलों के किसी वर्ग या श्रेणी पर भी लागू हो,
जो लोक व्यवस्था बनाए रखने के कार्य में लगे हों,
चाहे वे कहीं भी कार्यरत हों।
ऐसी स्थिति में, उप-धारा (1) ऐसे लागू मानी जाएगी जैसे उसमें “केंद्रीय सरकार” के स्थान पर “राज्य सरकार” पढ़ा जाए।

 

धारा 43 – गिरफ़्तारी कैसे की जाए (Section 43 – Arrest how made)

(1) जब किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार किया जाता है, तो पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति को वास्तव में उस व्यक्ति के शरीर को छूना या उसे बंद करना (confine) आवश्यक है,
जब तक कि वह व्यक्ति स्वेच्छा से शब्दों या कार्यों के माध्यम से गिरफ्तारी स्वीकार न कर ले
विशेष प्रावधान (महिला के लिए): यदि कोई महिला गिरफ्तार की जा रही हो, तो,
जब तक परिस्थितियाँ विपरीत न हों,

  • उसे सिर्फ मौखिक सूचना पर गिरफ्तारी मानी जाएगी,
  • और जब तक परिस्थितियाँ न चाहें या महिला पुलिस अधिकारी न हो,
    पुरुष पुलिस अधिकारी महिला को छूकर गिरफ़्तार नहीं करेगा।

(2) यदि कोई व्यक्ति गिरफ्तारी का विरोध करता है या भागने की कोशिश करता है,
तो पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति को गिरफ़्तारी के लिए आवश्यक सभी उपायों का प्रयोग करने का अधिकार है।

(3) अपराध की प्रकृति और गंभीरता को ध्यान में रखते हुए,
पुलिस अधिकारी उस व्यक्ति को गिरफ्तार करते समय या कोर्ट में पेश करते समय हथकड़ी (handcuff) का प्रयोग कर सकता है, यदि वह व्यक्ति—

  • आदतन अपराधी या बार-बार अपराध करने वाला हो,
  • हिरासत से भागा हो,
  • संगठित अपराध, आतंकवादी कृत्य, नशीली दवाओं से संबंधित अपराध,
  • अवैध हथियार या गोला-बारूद रखने,
  • हत्या, बलात्कार, एसिड अटैक,
  • मुद्राओं व नकली नोटों की नकल,
  • मानव तस्करी, बच्चों के विरुद्ध यौन अपराध,
  • या राज्य के विरुद्ध अपराध किया हो।

(4) इस धारा में ऐसा कुछ नहीं है जो किसी ऐसे व्यक्ति की हत्या का अधिकार देता हो
जिस पर मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध का आरोप न हो

(5) सामान्यतः किसी महिला को सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले गिरफ्तार नहीं किया जाएगा
यदि विशेष परिस्थितियाँ हों, तो महिला पुलिस अधिकारी को लिखित रिपोर्ट बनाकर,
स्थानीय प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट से पूर्व अनुमति लेनी होगी
,

जहाँ अपराध हुआ हो या गिरफ्तारी की जानी हो

 

धारा 44 – उस स्थान की तलाशी जहाँ वांछित व्यक्ति छिपा हो (Section 44 – Search of place entered by person sought to be arrested)

(1) यदि कोई व्यक्ति गिरफ्तारी वारंट के आधार पर कार्य कर रहा है या कोई पुलिस अधिकारी जिसे किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करने का अधिकार है, को यह विश्वास हो कि वांछित व्यक्ति किसी स्थान में प्रवेश कर चुका है या वहाँ मौजूद है,
तो उस स्थान में रहने वाला या उस स्थान का प्रभारी व्यक्ति,
ऐसे अधिकारी के कहने पर,
उसे उस स्थान में प्रवेश की अनुमति देगा और वहाँ तलाशी लेने के लिए उचित सहयोग प्रदान करेगा

(2) यदि उप-धारा (1) के अनुसार प्रवेश की अनुमति नहीं मिलती, तो—

  • यदि अधिकारी वारंट के साथ कार्य कर रहा हो,
  • या ऐसा मामला हो जहाँ वारंट जारी किया जा सकता है, लेकिन वारंट प्राप्त करने से पहले आरोपी के भागने की आशंका हो,
    तो पुलिस अधिकारी उस स्थान में प्रवेश कर सकता है और तलाशी ले सकता है,
    और ऐसा करने के लिए वह किसी घर या स्थान के बाहर या अंदर के दरवाज़े या खिड़की को तोड़ सकता है,
    चाहे वह वांछित व्यक्ति का हो या किसी अन्य व्यक्ति का,
    यदि उसने पहले—
  • अपनी पहचान और उद्देश्य की सूचना दे दी हो,
  • और प्रवेश की मांग कर ली हो,
    फिर भी यदि प्रवेश नहीं मिल पाता है, तो वह ज़बरदस्ती अंदर जा सकता है।

परंतु: यदि ऐसा स्थान किसी महिला के अधिवास में है,
जो परंपरा अनुसार सार्वजनिक रूप से नहीं आती, और वह गिरफ्तार किया जाने वाला व्यक्ति नहीं है,
तो अधिकारी को पहले—

  • महिला को पीछे हटने का अवसर देना होगा,
  • और उसे पीछे हटने के लिए पर्याप्त सुविधा भी देनी होगी,
    उसके बाद ही वह उस कमरे को तोड़कर अंदर प्रवेश कर सकता है

(3) कोई भी पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति जिसे गिरफ्तारी करने का अधिकार है,
यदि वह या कोई अन्य व्यक्ति, जो कानूनी रूप से गिरफ्तारी के लिए स्थान में गया हो,
अंदर रोका गया हो,
तो वह बाहर निकलने के लिए उस स्थान का कोई भी दरवाज़ा या खिड़की तोड़ सकता है

धारा 45 – अपराधी का पीछा करते हुए अन्य क्षेत्राधिकार में प्रवेश (Section 45 – Pursuit of offenders into other jurisdictions)

यदि कोई पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ़्तार करने के लिए अधिकृत है,
तो वह अधिकारी उस व्यक्ति का पीछा करते हुए भारत के किसी भी भाग में जा सकता है,
और वहां जाकर उसे गिरफ़्तार कर सकता है

धारा 46 – अनावश्यक प्रतिबंध नहीं (Section 46 – No unnecessary restraint)

गिरफ्तार किए गए व्यक्ति पर ऐसा कोई भी प्रतिबंध नहीं लगाया जाएगा जो आवश्यक से अधिक हो,
और उसे केवल भागने से रोकने के लिए आवश्यक सीमा तक ही प्रतिबंधित किया जा सकता है

धारा 47 – गिरफ्तार व्यक्ति को गिरफ्तारी के कारण और जमानत के अधिकार की सूचना देना (Section 47 – Person arrested to be informed of grounds of arrest and of right to bail)

(1) कोई भी पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति जो किसी व्यक्ति को बिना वारंट गिरफ्तार करता है,
उसे तुरंत उस अपराध का पूरा विवरण या अन्य आधार बताना होगा,
जिसके कारण गिरफ्तारी की गई है

(2) जब कोई पुलिस अधिकारी बिना वारंट के किसी ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार करता है,
जो गैर-जमानती अपराध का आरोपी नहीं है,
तो उसे गिरफ्तार व्यक्ति को यह सूचित करना अनिवार्य होगा कि—

  • वह जमानत पाने का हकदार है,
  • और वह अपने लिए जमानतदारों की व्यवस्था कर सकता है

 

धारा 48 – गिरफ्तारी की सूचना देने का कर्तव्य (Section 48 – Obligation of person making arrest to inform about arrest, etc., to relative or friend)

(1) इस संहिता के अंतर्गत जब कोई पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करता है,
तो उसे गिरफ्तारी और गिरफ्तार व्यक्ति को कहाँ रखा गया है, इसकी सूचना तुरंत

  • गिरफ्तार व्यक्ति के रिश्तेदार, मित्र या उसके द्वारा नामित किसी अन्य व्यक्ति को देनी होगी,
  • तथा जिले के नामित पुलिस अधिकारी को भी देनी होगी

(2) पुलिस अधिकारी को यह भी गिरफ्तार व्यक्ति को सूचित करना होगा कि
वह किन अधिकारों का हकदार है,
जैसे ही उसे पुलिस स्टेशन लाया जाता है

(3) पुलिस स्टेशन में एक पुस्तक (Register/Book) रखी जाएगी,
जिसमें यह दर्ज किया जाएगा कि किस व्यक्ति को गिरफ्तारी की सूचना दी गई है,
और यह पुस्तक राज्य सरकार द्वारा निर्धारित प्रारूप में होगी।

(4) जब गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है,
तो मजिस्ट्रेट को यह सुनिश्चित करना होगा कि
उप-धारा (2) और (3) में दिए गए सभी प्रावधानों का पालन किया गया है या नहीं

धारा 49 – गिरफ्तार व्यक्ति की तलाशी (Section 49 – Search of arrested person)

(1) निम्न परिस्थितियों में गिरफ्तार व्यक्ति की तलाशी ली जा सकती है:

(i) यदि किसी व्यक्ति को ऐसे वारंट के तहत पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तार किया गया है,
जिसमें जमानत देने का प्रावधान नहीं है, या
जिसमें जमानत का प्रावधान है लेकिन वह व्यक्ति जमानत नहीं दे सकता, और

(ii) यदि किसी व्यक्ति को बिना वारंट गिरफ्तार किया गया है, या
किसी निजी व्यक्ति द्वारा वारंट के तहत गिरफ्तार किया गया है
और उसे कानूनन जमानत नहीं दी जा सकती या वह जमानत नहीं दे सकता,

तो गिरफ़्तारी करने वाला पुलिस अधिकारी,
या यदि गिरफ्तारी किसी निजी व्यक्ति ने की है, तो
जिस पुलिस अधिकारी को वह गिरफ्तार व्यक्ति सौंपेगा,
वह उस व्यक्ति की तलाशी ले सकता है
और उसके पास से आवश्यक वस्त्रों को छोड़कर अन्य सभी वस्तुओं को सुरक्षित रूप से कब्जे में रख सकता है

यदि कोई वस्तु जब्त की जाती है, तो
उस व्यक्ति को एक रसीद दी जाएगी,
जिसमें यह दर्ज होगा कि पुलिस अधिकारी ने कौन-कौन सी वस्तुएँ अपने कब्जे में ली हैं

(2) जब किसी महिला की तलाशी आवश्यक हो,
तो यह तलाशी किसी अन्य महिला द्वारा और पूर्ण शालीनता के साथ की जाएगी

 

धारा 50 – आपत्तिजनक हथियार जब्त करने की शक्ति (Section 50 – Power to seize offensive weapons)

जो पुलिस अधिकारी या कोई अन्य व्यक्ति इस संहिता के अंतर्गत गिरफ्तारी करता है,
वह व्यक्ति को गिरफ्तार करने के तुरंत बाद,
उसके पास मौजूद किसी भी आपत्तिजनक हथियार (offensive weapon) को उससे ले सकता है

ऐसे जब्त किए गए सभी हथियार
उस न्यायालय या अधिकारी को सौंपे जाएंगे,
जिसके समक्ष इस संहिता के अनुसार गिरफ्तार व्यक्ति को प्रस्तुत करना आवश्यक है

 

धारा 51 – अभियुक्त की चिकित्सकीय जांच पुलिस अधिकारी के अनुरोध पर (Section 51 – Examination of accused by medical practitioner at request of police officer)

(1) जब किसी व्यक्ति को ऐसे अपराध के आरोप में गिरफ्तार किया गया हो और
ऐसे परिस्थितियाँ हों जिससे यह विश्वास हो कि उसकी शारीरिक जांच से अपराध का प्रमाण मिल सकता है,
तो पुलिस अधिकारी के अनुरोध पर कोई पंजीकृत चिकित्सक तथा उसके सहयोगी कोई भी व्यक्ति,
उस गिरफ्तार व्यक्ति की वाजिब और आवश्यक सीमा में जांच कर सकते हैं,
ताकि अपराध से संबंधित तथ्य सामने आ सकें।
इसके लिए आवश्यक होने पर उचित बल का प्रयोग किया जा सकता है

(2) यदि जांच किसी महिला की होनी है, तो यह जांच केवल महिला चिकित्सक द्वारा या उसके पर्यवेक्षण में की जाएगी।

(3) पंजीकृत चिकित्सक को जांच रिपोर्ट में कोई देरी किए बिना,
जांच अधिकारी को रिपोर्ट भेजनी होगी

व्याख्या: इस धारा व धाराओं 52 और 53 में—
(a) “जांच (Examination)” का अर्थ है—

  • खून, खून के धब्बे, वीर्य, यौन अपराधों में लिए गए स्वैब, थूक, पसीना, बाल, नाखून आदि की जांच,
  • और इसमें DNA प्रोफाइलिंग जैसी आधुनिक वैज्ञानिक विधियाँ भी शामिल हैं,
  • तथा वह अन्य जांचें जो चिकित्सक विशेष मामले में आवश्यक समझे।

(b) “पंजीकृत चिकित्सक (Registered Medical Practitioner)” वह व्यक्ति है—

  • जिसके पास राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग अधिनियम, 2019 के तहत मान्यता प्राप्त योग्यता हो,
  • और जिसका नाम राष्ट्रीय चिकित्सा रजिस्टर या राज्य चिकित्सा रजिस्टर में दर्ज हो।

 

धारा52 – बलात्कार के अभियुक्त की चिकित्सकीय जाँच (Section52 – Examination of person accused of rape by medical practitioner)

(1) यदि किसी व्यक्ति को बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है और उसके शरीर की जाँच से अपराध का प्रमाण मिलने की उचित संभावना है, तो पुलिस अधिकारी के अनुरोध पर किसी सरकारी या स्थानीय निकाय द्वारा संचालित अस्पताल में तैनात पंजीकृत चिकित्सक (और यदि घटना‑स्थल से 16 किमी के भीतर ऐसा चिकित्सक उपलब्ध न हो तो कोई भी पंजीकृत चिकित्सक) उस अभियुक्त की समुचित मेडिकल जाँच कर सकता है तथा इस प्रयोजन हेतु आवश्यक बल प्रयोग कर सकता है।

(2) जाँच करने वाला पंजीकृत चिकित्सक बिना विलंब—
(क) अभियुक्त का  पूरा नाम‑पता, उसे लाने वाले व्यक्ति का नाम‑पता,
(ख) अभियुक्त की  आयु,
(ग) अभियुक्त के शरीर पर मौजूद  चोट के निशान,
(घ)  DNA प्रोफाइलिंग हेतु अभियुक्त से लिया गया सामग्री का विवरण,
(ङ) अन्य प्रासंगिक तथ्य, 
का उल्लेख करते हुए विस्तृत रिपोर्ट तैयार करेगा।

(3) रिपोर्ट में प्रत्येक निष्कर्ष का सटीक आधार स्पष्ट रूप से लिखा होगा।

(4) जाँच शुरू होने और समाप्त होने का ठीक‑ठीक समय भी रिपोर्ट में अंकित किया जाएगा।

(5) चिकित्सक यह रिपोर्ट तत्काल जाँच अधिकारी को भेजेगा, जो उसे धारा193 में उल्लिखित दस्तावेज़ों के भाग के रूप में मजिस्ट्रेट को अग्रेषित करेगा।

धारा 53 – गिरफ्तार व्यक्ति की चिकित्सकीय जाँच (Section 53 – Examination of arrested person by medical officer)

(1) जब किसी व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है, तो उसे जल्द से जल्द एक सरकारी चिकित्सा अधिकारी (केंद्र या राज्य सरकार के सेवा में) द्वारा जाँचा जाएगा।
यदि ऐसा अधिकारी उपलब्ध न हो, तो उसकी जाँच एक पंजीकृत चिकित्सक द्वारा की जाएगी।
पहला प्रावधान: यदि चिकित्सा अधिकारी या पंजीकृत चिकित्सक को लगे कि अधिक बार जांच करना आवश्यक है, तो वह ऐसा कर सकता है।
दूसरा प्रावधान: यदि गिरफ्तार व्यक्ति महिला है, तो उसकी शारीरिक जाँच केवल महिला चिकित्सा अधिकारी द्वारा या उसके पर्यवेक्षण में की जाएगी।
यदि महिला चिकित्सा अधिकारी उपलब्ध नहीं है, तो यह कार्य महिला पंजीकृत चिकित्सक द्वारा किया जाएगा।

(2) जाँच करने वाला चिकित्सक एक रिकॉर्ड तैयार करेगा, जिसमें—

  • गिरफ्तार व्यक्ति के शरीर पर किसी भी चोट या हिंसा के निशान का उल्लेख होगा,
  • और यह भी लिखा जाएगा कि ऐसे निशान कब के हो सकते हैं (अनुमानित समय)।

(3) जब उपधारा (1) के अनुसार जाँच की जाती है, तो उसकी एक प्रति रिपोर्ट की,

  • गिरफ्तार व्यक्ति को, या
  • उसके द्वारा नामित किसी व्यक्ति को
    प्रदान की जाएगी।

धारा 54 – गिरफ्तार व्यक्ति की पहचान (Section 54 – Identification of person arrested)

जब किसी व्यक्ति को किसी अपराध के आरोप में गिरफ्तार किया गया हो और जांच के लिए उसकी पहचान किसी अन्य व्यक्ति द्वारा कराना आवश्यक हो,
तो जिस न्यायालय को क्षेत्रीय अधिकार प्राप्त है, वह पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी के अनुरोध पर
गिरफ्तार व्यक्ति को आदेश दे सकता है कि वह ऐसे व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा पहचान प्रक्रिया के लिए प्रस्तुत हो,
और यह पहचान उस विधि से की जाएगी जिसे न्यायालय उपयुक्त समझे

परंतु, यदि पहचान करने वाला व्यक्ति मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग है,
तो यह पहचान प्रक्रिया मजिस्ट्रेट की देखरेख में की जाएगी।
मजिस्ट्रेट यह सुनिश्चित करेगा कि पहचान करने वाला व्यक्ति अपने अनुसार सुविधाजनक तरीकों से पहचान कर सके,
और यह पूरी पहचान प्रक्रिया ऑडियो‑वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से रिकॉर्ड की जाएगी।

 

धारा 55 – जब पुलिस अधिकारी किसी अधीनस्थ को बिना वारंट गिरफ़्तारी का आदेश देता है (Section 55 – Procedure when police officer deputes subordinate to arrest without warrant)

(1) जब किसी पुलिस थाने का प्रभारी अधिकारी या धारा XIII के अंतर्गत जांच कर रहा कोई पुलिस अधिकारी,
अपने किसी अधीनस्थ को बिना वारंट किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करने का आदेश देता है (और वह गिरफ्तारी उसके सामने नहीं होनी है),
तो उसे उस अधीनस्थ अधिकारी को एक लिखित आदेश देना होगा,
जिसमें स्पष्ट रूप से गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति का नाम और अपराध या कारण लिखा हो।

गिरफ्तारी करने वाला अधीनस्थ अधिकारी,
गिरफ्तारी से पहले, गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति को उस आदेश का सार बताएगा,
और यदि वह व्यक्ति माँगे, तो उसे वह लिखित आदेश दिखाएगा

(2) यह प्रावधान धारा 35 के तहत किसी पुलिस अधिकारी की स्वतंत्र गिरफ्तारी की शक्ति को प्रभावित नहीं करता

 

धारा 55 – जब पुलिस अधिकारी किसी अधीनस्थ को बिना वारंट गिरफ़्तारी का आदेश देता है (Section 55 – Procedure when police officer deputes subordinate to arrest without warrant)

(1) जब किसी पुलिस थाने का प्रभारी अधिकारी या धारा XIII के अंतर्गत जांच कर रहा कोई पुलिस अधिकारी,
अपने किसी अधीनस्थ को बिना वारंट किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करने का आदेश देता है (और वह गिरफ्तारी उसके सामने नहीं होनी है),
तो उसे उस अधीनस्थ अधिकारी को एक लिखित आदेश देना होगा,
जिसमें स्पष्ट रूप से गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति का नाम और अपराध या कारण लिखा हो।

गिरफ्तारी करने वाला अधीनस्थ अधिकारी,
गिरफ्तारी से पहले, गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति को उस आदेश का सार बताएगा,
और यदि वह व्यक्ति माँगे, तो उसे वह लिखित आदेश दिखाएगा

(2) यह प्रावधान धारा 35 के तहत किसी पुलिस अधिकारी की स्वतंत्र गिरफ्तारी की शक्ति को प्रभावित नहीं करता

धारा 56 – गिरफ्तार व्यक्ति का स्वास्थ्य और सुरक्षा (Section 56 – Health and safety of arrested person)

जिस व्यक्ति की कस्टडी में कोई अभियुक्त हो, उसका यह कर्तव्य होगा कि वह अभियुक्त के स्वास्थ्य और सुरक्षा की उचित देखभाल करे

धारा 57 – गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट या थाना प्रभारी के समक्ष प्रस्तुत करना (Section 57 – Person arrested to be taken before Magistrate or officer in charge of police station)

जब कोई पुलिस अधिकारी बिना वारंट गिरफ्तारी करता है,
तो वह, बिना अनावश्यक विलंब किए हुए,
और जमानत से संबंधित प्रावधानों के अधीन,
गिरफ्तार व्यक्ति को न्यायालय के क्षेत्राधिकार वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष या
थाना प्रभारी अधिकारी के समक्ष ले जाएगा या भेजेगा

 

धारा 58 – बिना वारंट गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे से अधिक हिरासत में न रखा जाए (Section 58 – Person arrested not to be detained more than twenty-four hours)

हर पुलिस स्टेशन का प्रभारी अधिकारी अपने क्षेत्र में बिना वारंट गिरफ्तार किए गए सभी व्यक्तियों के मामलों की रिपोर्ट
चाहे उन्हें जमानत पर रिहा किया गया हो या नहीं,
जिला मजिस्ट्रेट को देगा,
या यदि जिला मजिस्ट्रेट निर्देश दे, तो उप-मंडल मजिस्ट्रेट को देगा।

धारा 59 – पुलिस द्वारा गिरफ्तारी की रिपोर्ट देना (Section 59 – Police to report apprehensions)

हर पुलिस स्टेशन का प्रभारी अधिकारी,
अपने थाना क्षेत्र की सीमा में बिना वारंट गिरफ्तार किए गए सभी व्यक्तियों के मामलों की रिपोर्ट
जिला मजिस्ट्रेट को देगा,
या यदि जिला मजिस्ट्रेट निर्देश दे, तो उप-मंडल मजिस्ट्रेट को देगा
चाहे ऐसे व्यक्ति को जमानत पर रिहा किया गया हो या नहीं

धारा 60 – गिरफ्तार व्यक्ति को रिहा करने का प्रावधान (Section 60 – Discharge of person apprehended)

किसी व्यक्ति को यदि पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तार किया गया है,
तो उसे केवल निम्न स्थितियों में ही रिहा किया जा सकता है
या तो उसके व्यक्तिगत बॉन्ड पर,
या जमानत बॉन्ड पर,
या फिर मजिस्ट्रेट के विशेष आदेश से

धारा 61 – भाग जाने पर पीछा करके दोबारा गिरफ्तारी की शक्ति (Section 61 – Power, on escape, to pursue and retake)

(1) यदि कोई व्यक्ति जो कानूनी हिरासत में है, भाग जाता है या छुड़ा लिया जाता है,
तो जिसकी हिरासत से वह भागा या छुड़ाया गया है,
वह उसे भारत के किसी भी स्थान में तुरंत पीछा करके दोबारा गिरफ्तार कर सकता है

(2) ऐसी गिरफ्तारी में, भले ही गिरफ्तारी करने वाला व्यक्ति कोई पुलिस अधिकारी न हो या उसके पास वारंट न हो,
धारा 44 के प्रावधान लागू होंगे

धारा 62 – गिरफ्तारी केवल संहिता के अनुसार ही की जाए (Section 62 – Arrest to be made strictly according to Sanhita)

किसी भी व्यक्ति की गिरफ्तारी तब तक नहीं की जाएगी,
जब तक कि वह इस संहिता के प्रावधानों या
किसी अन्य प्रचलित कानून के अनुसार न हो
जो गिरफ्तारी से संबंधित व्यवस्था करता हो।

धारा 63 – समन का प्रारूप (Section 63 – Form of summons)

इस संहिता के अंतर्गत न्यायालय द्वारा जारी किया गया हर समन निम्नलिखित रूप में होगा—

(i) लिखित रूप में, दो प्रति में, जिस पर न्यायालय के पीठासीन अधिकारी या उच्च न्यायालय द्वारा नियत किसी अधिकारी के हस्ताक्षर होंगे और उस पर न्यायालय की मुहर लगी होगी;
या
(ii) एन्क्रिप्टेड या किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक संप्रेषण के रूप में, जिसमें न्यायालय की मुहर की छवि या डिजिटल हस्ताक्षर सम्मिलित होंगे।

 

धारा 64 – समन कैसे तामील किया जाए (Section 64 – Summons how served)

(1) प्रत्येक समन की तामील एक पुलिस अधिकारी द्वारा की जाएगी,
या राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार, समन जारी करने वाले न्यायालय का अधिकारी या अन्य लोक सेवक भी यह कार्य कर सकता है।
प्रावधान: थाने या न्यायालय का रजिस्ट्रार एक रजिस्टर बनाए रखेगा, जिसमें पते, ईमेल, फोन नंबर और अन्य विवरण दर्ज किए जाएंगे, जैसा कि राज्य सरकार नियमों द्वारा तय करेगी।

(2) यदि संभव हो तो, समन की व्यक्तिगत रूप से तामील की जाएगी,
जिसमें समन की एक प्रति उस व्यक्ति को सौंपी या दी जाएगी
प्रावधान: न्यायालय की मुहर वाली समन की छवि को इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भी भेजा जा सकता है,
जैसा कि राज्य सरकार नियमों में निर्धारित करेगी।

(3) जिस व्यक्ति को समन की व्यक्तिगत रूप से तामील की गई हो,
वह यदि समन पहुँचाने वाला अधिकारी कहे, तो समन की दूसरी प्रति के पीछे रसीद पर हस्ताक्षर करेगा

 

धारा 65 – कंपनियों, फर्मों और संस्थाओं पर समन की तामील (Section 65 – Service of summons on corporate bodies, firms, and societies)

(1) किसी कंपनी या निगम पर समन की तामील इस प्रकार की जा सकती है—
उस कंपनी या निगम के डायरेक्टर, मैनेजर, सचिव या किसी अन्य अधिकारी को समन देकर,
या उनके नाम पर भारत में पंजीकृत डाक द्वारा पत्र भेजकर।
इस स्थिति में समन की तामील तभी मानी जाएगी जब वह पत्र सामान्य डाक के अनुसार पहुँचता

व्याख्या: इस धारा में “कंपनी” से आशय है कोई कॉर्पोरेट संस्था, और “निगम” से आशय है कोई ऐसी कंपनी या संस्था जो Companies Act, 2013 के अंतर्गत पंजीकृत हो, या Societies Registration Act, 1860 के अंतर्गत पंजीकृत कोई सोसाइटी हो।

(2) किसी फर्म या व्यक्तियों के संघ पर समन की तामील इस प्रकार होगी—
उस फर्म या संघ के किसी साझेदार को समन देकर,
या उस साझेदार के नाम पंजीकृत डाक द्वारा पत्र भेजकर
इस स्थिति में समन की तामील मानी जाएगी जब वह पत्र सामान्य डाक के अनुसार पहुँचता

धारा 66 – जब समन प्राप्त करने वाला व्यक्ति नहीं मिलता तब तामील का तरीका (Section 66 – Service when persons summoned cannot be found)

यदि उचित प्रयासों के बावजूद समन प्राप्त करने वाला व्यक्ति नहीं मिलता,
तो समन की एक प्रति उस व्यक्ति के साथ रहने वाले किसी वयस्क पारिवारिक सदस्य को दी जा सकती है
ऐसे व्यक्ति से, यदि समन देने वाला अधिकारी कहे, तो उसे समन की दूसरी प्रति के पीछे रसीद पर हस्ताक्षर करना होगा

व्याख्या: इस धारा के अनुसार नौकर परिवार का सदस्य नहीं माना जाएगा

 

धारा 67 – जब समन की तामील पूर्ववर्ती विधियों से संभव न हो तब प्रक्रिया (Section 67 – Procedure when service cannot be effected as before provided)

यदि उचित प्रयासों के बाद भी धारा 64, 65 या 66 में बताए गए तरीकों से समन की तामील संभव नहीं हो,
तो समन पहुँचाने वाला अधिकारी समन की एक प्रति को
उस मकान या घर के किसी प्रमुख स्थान पर चिपका देगा जहाँ समन प्राप्त करने वाला व्यक्ति सामान्यतः निवास करता है।

इसके बाद, न्यायालय उचित जांच करने के पश्चात्—
या तो यह घोषणा कर सकता है कि समन विधिवत रूप से तामील हो गया है,
या फिर समन की पुनः तामील का आदेश दे सकता है और तामील का तरीका तय कर सकता है।

धारा 68 – सरकारी कर्मचारी पर समन की तामील (Section 68 – Service on Government servant)

(1) यदि समन प्राप्त करने वाला व्यक्ति सरकारी सेवा में कार्यरत है,
तो समन जारी करने वाला न्यायालय सामान्यतः समन की दो प्रतियां उस कार्यालय के अध्यक्ष को भेजेगा जहाँ वह कर्मचारी कार्यरत है।
कार्यालय अध्यक्ष धारा 64 के अनुसार समन की तामील कराएगा और फिर समन को अपने हस्ताक्षर के साथ न्यायालय को वापस भेजेगा, जिसमें धारा 64 के अनुसार आवश्यक विवरण भी शामिल होगा।

(2) ऐसा हस्ताक्षर समन की विधिवत तामील का प्रमाण होगा

 

धारा 69 – स्थानीय क्षेत्र की सीमा के बाहर समन की तामील (Section 69 – Service of summons outside local limits)

जब कोई न्यायालय चाहे कि उसके द्वारा जारी किया गया समन उसके स्थानीय अधिकार क्षेत्र से बाहर किसी स्थान पर तामील हो,
तो वह उस समन की दो प्रतियां सामान्यतः उस मजिस्ट्रेट को भेजेगा,
जिसके अधिकार क्षेत्र में समन प्राप्त करने वाला व्यक्ति निवास करता है या मौजूद है,
ताकि समन की वहां तामील कराई जा सके

धारा 70 – ऐसे मामलों में समन की तामील का प्रमाण, जब तामीलकर्ता उपस्थित न हो (Section 70 – Proof of service in such cases and when serving officer not present)

(1) जब किसी न्यायालय द्वारा जारी समन उसके स्थानीय क्षेत्र के बाहर तामील किया गया हो,
या जिस अधिकारी ने समन की तामील की है वह मामले की सुनवाई के समय उपस्थित न हो,
तो एक हलफनामा, जो किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष बनाया गया प्रतीत होता हो,
और समन की एक दूसरी प्रति, जिस पर धारा 64 या 66 के अनुसार उस व्यक्ति द्वारा प्रमाणन किया गया हो जिसे समन दिया गया था या जिसके पास समन छोड़ा गया था —
प्रमाण के रूप में स्वीकार किए जाएंगे
जब तक इसके विपरीत कुछ सिद्ध न हो, उस हलफनामे की बातों को सत्य माना जाएगा

(2) उपरोक्त हलफनामा समन की दूसरी प्रति के साथ संलग्न कर न्यायालय को लौटाया जा सकता है

(3) धारा 64 से 71 तक के अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से तामील किए गए समन को विधिवत तामील माना जाएगा,
और ऐसे समन की एक प्रमाणित प्रति तामील के प्रमाण के रूप में रखी जाएगी

धारा 71 – गवाह को समन की तामील (Section 71 – Service of summons on witness)

(1) इस अध्याय की पूर्ववर्ती धाराओं के बावजूद, यदि कोई न्यायालय किसी गवाह को समन जारी करता है,
तो वह न्यायालय, समन जारी करने के साथ-साथ यह निर्देश भी दे सकता है कि समन की एक प्रति गवाह को इलेक्ट्रॉनिक माध्यम या पंजीकृत डाक से भेजी जाए,
जिस पते पर वह सामान्यतः निवास करता है, व्यवसाय करता है या रोजगार करता है

(2) यदि समन की प्राप्ति का कोई ऐसा प्रमाण प्राप्त होता है जो यह दर्शाता हो कि—
गवाह ने स्वेच्छा से समन स्वीकार कर लिया है, या
डाक कर्मचारी ने यह प्रमाणित किया है कि गवाह ने समन लेने से इनकार कर दिया,
या धारा 70(3) के अंतर्गत इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से समन की तामील का प्रमाण न्यायालय को संतोषजनक लगता है,
तो न्यायालय यह मान सकता है कि समन विधिवत रूप से तामील हो गया है

धारा 72 – गिरफ्तारी वारंट का प्रपत्र और प्रभाव की अवधि (Section 72 – Form of warrant of arrest and duration)

(1) इस संहिता के अंतर्गत किसी न्यायालय द्वारा जारी किया गया हर गिरफ्तारी वारंट लिखित रूप में होगा,
उस पर न्यायालय के अध्यक्ष के हस्ताक्षर होंगे और न्यायालय की मुहर लगी होगी

(2) ऐसा हर वारंट तब तक प्रभाव में रहेगा, जब तक कि उसे जारी करने वाला न्यायालय रद्द न कर दे या वह निष्पादित न हो जाए

धारा 73 – जमानत लेने का निर्देश देने की शक्ति (Section 73 – Power to direct security to be taken)

(1) कोई भी न्यायालय जो किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी करता है,
अपनी विवेकानुसार उस वारंट पर यह लिखकर निर्देश दे सकता है कि यदि वह व्यक्ति पर्याप्त जमानतदारों के साथ एक जमानती बांड भरता है,
जिसमें वह निर्धारित समय पर न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने और जब तक न्यायालय अन्यथा निर्देश न दे तब तक उपस्थित रहने का वचन देता है,
तो वारंट जिस अधिकारी को संबोधित किया गया है, वह उस व्यक्ति से सुरक्षा लेकर उसे हिरासत से रिहा कर सकता है

(2) उस लिखित निर्देश में निम्नलिखित बातें स्पष्ट रूप से होंगी—
(a) जमानतदारों की संख्या,
(b) वह राशि जिसमें जमानतदार और संबंधित व्यक्ति अलग-अलग रूप से बंधित होंगे,
(c) वह समय जब व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष उपस्थित होना है।

(3) जब इस धारा के अंतर्गत जमानत ली जाती है,
तो वारंट प्राप्त करने वाला अधिकारी उस बांड को न्यायालय को भेजेगा

धारा 74 – वारंट किसे निर्देशित किया जाता है (Section 74 – Warrants to whom directed)

(1) गिरफ्तारी का वारंट सामान्यतः एक या अधिक पुलिस अधिकारियों को निर्देशित किया जाता है;
लेकिन यदि वारंट का तुरंत निष्पादन आवश्यक हो और कोई पुलिस अधिकारी तुरंत उपलब्ध न हो,
तो न्यायालय ऐसा वारंट किसी अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों को भी निर्देशित कर सकता है,
और ऐसे व्यक्ति/व्यक्ति उस वारंट को निष्पादित करने के लिए बाध्य होंगे

(2) जब किसी वारंट को एक से अधिक अधिकारियों या व्यक्तियों को निर्देशित किया जाता है,
तो उसे सभी मिलकर या उनमें से कोई एक या एक से अधिक व्यक्ति निष्पादित कर सकते हैं

धारा 75 – वारंट किसी भी व्यक्ति को निर्देशित किया जा सकता है (Section 75 – Warrant may be directed to any person)

(1) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट, अपने स्थानीय क्षेत्राधिकार में,
किसी भी व्यक्ति को वारंट जारी कर सकते हैं ताकि वह किसी फरार दोषी,
घोषित अपराधी या ऐसे किसी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सके जो अजमानती अपराध में आरोपी है और गिरफ्तारी से बच रहा है

(2) ऐसा व्यक्ति वारंट प्राप्त करने की लिखित रसीद देगा और यदि वह आरोपी उसके अधिकार में किसी भूमि या संपत्ति पर है या आता है,
तो वह वारंट का निष्पादन करेगा

(3) जब ऐसे वारंट के तहत व्यक्ति को गिरफ्तार किया जाता है,
तो उसे वारंट के साथ निकटतम पुलिस अधिकारी को सौंपा जाएगा,
जो उसे मामले में अधिकार रखने वाले मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करेगा,
जब तक कि धारा 73 के अंतर्गत उसे जमानत न मिल गई हो

धारा 76 – वारंट जो किसी पुलिस अधिकारी को निर्देशित किया गया हो (Section 76 – Warrant directed to police officer)

यदि किसी पुलिस अधिकारी को वारंट निर्देशित किया गया है,
तो वह वारंट किसी अन्य पुलिस अधिकारी द्वारा भी निष्पादित किया जा सकता है,
बशर्ते कि उस अधिकारी का नाम उस वारंट पर उस अधिकारी द्वारा लिखा गया हो
जिसे वह वारंट निर्देशित या अनुमोदित किया गया है

 

धारा 77 – वारंट की विषयवस्तु की सूचना (Section 77 – Notification of substance of warrant)

कोई भी पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति जो गिरफ्तारी के वारंट को निष्पादित कर रहा है,
उसे गिरफ्तार किए जाने वाले व्यक्ति को उस वारंट की विषयवस्तु की सूचना देना आवश्यक है,
और यदि वह व्यक्ति मांग करता है, तो उसे वह वारंट दिखाना भी अनिवार्य है

धारा 78 – गिरफ्तार व्यक्ति को बिना विलंब न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना (Section 78 – Person arrested to be brought before Court without delay)

कोई भी पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति जो गिरफ्तारी का वारंट निष्पादित करता है,
उसे (धारा 73 में दिए गए जमानत संबंधी प्रावधानों के अधीन) गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को बिना अनावश्यक विलंब के
उस न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना अनिवार्य है,
जिसके समक्ष उसे कानून के अनुसार पेश किया जाना आवश्यक है

परंतु यह विलंब किसी भी स्थिति में 24 घंटे से अधिक नहीं हो सकता,
और इस समय में गिरफ्तारी के स्थान से न्यायालय तक की यात्रा में लगने वाला समय शामिल नहीं होगा

 

धारा 79 – वारंट कहां निष्पादित किया जा सकता है (Section 79 – Where warrant may be executed)

गिरफ्तारी का वारंट भारत में किसी भी स्थान पर निष्पादित किया जा सकता है।

 

धारा 80 – अधिकार क्षेत्र से बाहर वारंट का निष्पादन (Section 80 – Warrant forwarded for execution outside jurisdiction)

(1) जब किसी न्यायालय द्वारा जारी किया गया गिरफ्तारी वारंट उसके स्थानीय क्षेत्राधिकार से बाहर निष्पादित किया जाना हो,
तो वह न्यायालय उस वारंट को अपनी सीमा में किसी पुलिस अधिकारी को निर्देशित करने के बजाय,
डाक या अन्य माध्यम से उस क्षेत्र के कार्यपालक मजिस्ट्रेट, जिला पुलिस अधीक्षक या पुलिस आयुक्त को भेज सकता है
जहां वारंट निष्पादित किया जाना है।
उस अधिकारी को अपने नाम का अनुमोदन (endorsement) उस वारंट पर करना होगा,
और यदि संभव हो, तो इस संहिता के अनुसार उसे निष्पादित कराना होगा

(2) ऐसे वारंट को भेजते समय, जारी करने वाला न्यायालय उस व्यक्ति के विरुद्ध आरोप की विषयवस्तु,
और ऐसे दस्तावेज, यदि कोई हों, जो धारा 83 के अंतर्गत न्यायालय को यह तय करने में सहायक हों कि जमानत दी जाए या नहीं,
साथ में प्रेषित करेगा

धारा 81 – जब वारंट किसी पुलिस अधिकारी को क्षेत्राधिकार से बाहर निष्पादन हेतु निर्देशित हो (Section 81 – Warrant directed to police officer for execution outside jurisdiction)

(1) यदि किसी पुलिस अधिकारी को जारी किया गया वारंट उसके स्थानीय क्षेत्राधिकार से बाहर निष्पादित किया जाना है, तो वह सामान्यतः उस वारंट को स्वीकृति (endorsement) के लिए उस क्षेत्र के कार्यपालक मजिस्ट्रेट या थाना प्रभारी से नीचे नहीं होने वाले पुलिस अधिकारी के पास ले जाएगा जहाँ वारंट निष्पादित किया जाना है।

(2) ऐसा मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी अपने नाम की स्वीकृति वारंट पर लिख देगा, और वह स्वीकृति उस पुलिस अधिकारी को, जिसे वारंट निर्देशित किया गया है, वारंट को निष्पादित करने का वैध अधिकार प्रदान करेगी। स्थानीय पुलिस, यदि आवश्यक हो, तो निष्पादन में सहायता करेगी

(3) यदि ऐसा विश्वास करने का कारण हो कि स्वीकृति प्राप्त करने में देरी के कारण वारंट निष्पादित नहीं हो पाएगा,
तो वह पुलिस अधिकारी बिना स्वीकृति के भी वारंट को किसी भी स्थान पर निष्पादित कर सकता है,
भले ही वह उस न्यायालय की स्थानीय सीमा से बाहर हो जिसने वारंट जारी किया है

 

धारा 82 – जिस व्यक्ति के विरुद्ध वारंट जारी हुआ है उसकी गिरफ्तारी पर प्रक्रिया (Section 82 – Procedure on arrest of person against whom warrant issued)

(1) जब किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी वारंट के आधार पर उस जिले के बाहर की जाती है, जहाँ से वह वारंट जारी हुआ है, तो उसे उस न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करना होगा जिसने वारंट जारी किया है,
यदि

  • वह न्यायालय गिरफ्तारी स्थल से 30 किलोमीटर के भीतर है,
    या
  • वह न्यायालय उस कार्यपालक मजिस्ट्रेट या जिला पुलिस अधीक्षक या पुलिस आयुक्त से निकट है जिसकी स्थानीय सीमा में गिरफ्तारी हुई है,
    या
  • धारा 73 के अंतर्गत जमानत ली गई है

इन शर्तों के न होने पर, व्यक्ति को उस मजिस्ट्रेट या जिला पुलिस अधीक्षक या आयुक्त के सामने प्रस्तुत किया जाएगा जिसकी स्थानीय सीमा में गिरफ्तारी की गई है।

(2) उपरोक्त उप-धारा (1) के अंतर्गत गिरफ्तारी होते ही पुलिस अधिकारी को तुरंत

  • गिरफ्तारी की सूचना, और
  • वह स्थान जहाँ गिरफ्तार व्यक्ति को रखा गया है,

जिले के नामित पुलिस अधिकारी को और उस जिले के संबंधित अधिकारी को जहाँ वह व्यक्ति सामान्यतः रहता है, देनी होगी

मुख्य बिंदु: गिरफ्तारी यदि दूसरे जिले में हो तो निकटतम सक्षम अधिकारी के सामने पेश करना अनिवार्य है, और सूचना संबंधित पुलिस अधिकारियों को तुरंत देना आवश्यक है।

धारा 83 – उस मजिस्ट्रेट द्वारा प्रक्रिया जिसके समक्ष गिरफ्तार व्यक्ति को प्रस्तुत किया गया है
(Section 83 – Procedure by Magistrate before whom such person arrested is brought)

(1) कार्यपालक मजिस्ट्रेट, जिला पुलिस अधीक्षक या पुलिस आयुक्त को, यदि प्रस्तुत किया गया व्यक्ति वही है जिसे उस न्यायालय ने गिरफ्तार करने का आदेश दिया है जिसने वारंट जारी किया है, तो वह व्यक्ति को हिरासत में उस न्यायालय में भेजने का निर्देश देगा

लेकिन, यदि—

  • अपराध जमानती है, और
  • व्यक्ति बेल बॉन्ड देने के लिए तैयार और इच्छुक है,
  • या यदि धारा 73 के अंतर्गत वारंट में जमानत का निर्देश है और वह व्यक्ति उस अनुसार सुरक्षा देने के लिए तैयार है,

तो वह अधिकारी बेल बॉन्ड या सुरक्षा लेकर उसे स्वीकार करेगा और उसे उस न्यायालय को अग्रेषित करेगा जिसने वारंट जारी किया।

दूसरा प्रावधान यह कहता है कि यदि अपराध अजमानती है, तो उस जिले के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (धारा 480 के प्रावधानों के अधीन) या सेशन्स न्यायाधीश उस व्यक्ति को, धारा 80(2) के अंतर्गत सूचना व दस्तावेजों पर विचार करते हुए, जमानत पर रिहा कर सकते हैं

(2) इस धारा में ऐसा कुछ नहीं है जो पुलिस अधिकारी को धारा 73 के तहत सुरक्षा लेने से रोकता हो

मुख्य बिंदु:

  • मजिस्ट्रेट यह सुनिश्चित करता है कि गिरफ्तार व्यक्ति वही है,
  • जमानती अपराध में जमानत ली जा सकती है,
  • अजमानती अपराध में भी न्यायिक अधिकारी की अनुमति से जमानत दी जा सकती है,
  • धारा 73 के तहत पुलिस भी सुरक्षा ले सकती है।

 

धारा 84 – फरार व्यक्ति के लिए उद्घोषणा (Section 84 – Proclamation for person absconding)

(1) यदि कोई न्यायालय यह मानने का कारण रखता है (चाहे साक्ष्य लेने के बाद या बिना साक्ष्य लिए) कि किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध जिसे गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया है, वह फरार है या छिपा हुआ है ताकि उस पर वारंट की तामीली न हो सके, तो न्यायालय एक लिखित उद्घोषणा प्रकाशित कर सकता है जिसमें उस व्यक्ति को निर्धारित स्थान और दिन पर उपस्थित होने का आदेश दिया जाएगा, परन्तु यह दिन प्रकाशन की तारीख से कम से कम 30 दिन बाद का होना चाहिए

(2) उद्घोषणा को निम्नलिखित प्रकार से प्रकाशित किया जाएगा:
(i)
(a) उसे उस कस्बे या गांव के किसी प्रमुख स्थान पर सार्वजनिक रूप से पढ़ा जाएगा, जहाँ वह व्यक्ति सामान्यतः निवास करता है;
(b) उसके निवास स्थान या मकान के किसी प्रमुख भाग पर या कस्बे/गांव के किसी प्रमुख स्थान पर चिपकाया जाएगा;
(c) एक प्रति न्यायालय भवन के किसी प्रमुख स्थान पर चिपकाई जाएगी;

(ii) न्यायालय चाहे तो उद्घोषणा की एक प्रति किसी दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित करने का निर्देश भी दे सकता है, जो उस स्थान में प्रचलित हो जहाँ वह व्यक्ति सामान्यतः निवास करता है।

(3) यदि न्यायालय यह लिखित में कह दे कि उद्घोषणा एक विशेष दिन को उचित रूप से प्रकाशित की गई, जैसा कि उपधारा (2)(i) में वर्णित है, तो वह कथन निर्णायक साक्ष्य माना जाएगा कि उद्घोषणा विधि के अनुसार प्रकाशित की गई।

(4) यदि यह उद्घोषणा ऐसे व्यक्ति के संबंध में की गई हो जिस पर कोई ऐसा अपराध आरोपित हो जो 10 वर्ष या उससे अधिक की सजा, आजीवन कारावास या मृत्यु दंड से दंडनीय हो (भारतीय न्याय संहिता, 2023 या किसी अन्य लागू कानून के अंतर्गत), और वह व्यक्ति उद्घोषणा में बताए अनुसार उपस्थित नहीं होता, तो न्यायालय उसे “घोषित अपराधी” घोषित कर सकता है और इस आशय की घोषणा कर सकता है।

(5) उपधारा (4) के अंतर्गत की गई घोषित अपराधी की घोषणा पर भी उपधारा (2) और (3) की सभी प्रक्रियाएं लागू होंगी, जैसे कि उद्घोषणा पर लागू होती हैं।

मुख्य बिंदु:

  • फरार या छिपे व्यक्ति को न्यायालय उद्घोषणा द्वारा बुला सकता है।
  • 30 दिन से कम की तिथि नहीं दी जा सकती।
  • उद्घोषणा सार्वजनिक रूप से पढ़ी जाती है, चिपकाई जाती है और आवश्यकता होने पर अखबार में प्रकाशित की जाती है।
  • गंभीर अपराधों में अनुपस्थिति पर व्यक्ति को घोषित अपराधी घोषित किया जा सकता है।

 

धारा 85 – फरार व्यक्ति की संपत्ति को संलग्न करना (Section 85 – Attachment of property of person absconding)

(1) यदि कोई न्यायालय धारा 84 के अंतर्गत उद्घोषणा जारी करता है, तो वह न्यायालय, लिखित में कारण दर्ज करते हुए, उद्घोषणा के जारी होने के किसी भी समय बाद, उस घोषित व्यक्ति की चल, अचल या दोनों प्रकार की संपत्ति को संलग्न करने का आदेश दे सकता है

परंतु, यदि उद्घोषणा जारी करते समय न्यायालय को शपथ-पत्र या अन्य माध्यम से यह संतोष हो जाए कि संबंधित व्यक्ति:
(a) अपनी पूरी या आंशिक संपत्ति को बेचने वाला है; या
(b) अपनी पूरी या आंशिक संपत्ति को न्यायालय के अधिकार क्षेत्र से बाहर ले जाने वाला है,
तो उद्घोषणा के साथ-साथ ही संपत्ति को संलग्न करने का आदेश भी दिया जा सकता है

(2) ऐसा आदेश उस जिले की सीमा में स्थित संपत्ति पर लागू होगा जहाँ आदेश दिया गया है। यदि संपत्ति किसी अन्य जिले में हो, तो उस जिले के जिलाधिकारी द्वारा उस आदेश पर अनुमोदन करने पर ही संलग्नी की जा सकती है।

(3) यदि संलग्न की जाने वाली संपत्ति कर्ज या कोई अन्य चल संपत्ति है, तो संलग्नी निम्नलिखित में से किसी विधि से की जा सकती है:
(a) जब्ती द्वारा;
(b) रिसीवर की नियुक्ति द्वारा;
(c) एक लिखित आदेश द्वारा, जो उस संपत्ति को घोषित व्यक्ति या उसके किसी प्रतिनिधि को देने से मना करता हो;
(d) उपरोक्त विधियों में से कोई भी दो या सभी विधियों द्वारा, जैसा न्यायालय उचित समझे।

(4) यदि संलग्न की जाने वाली संपत्ति अचल संपत्ति है:

  • और वह भूमि राज्य सरकार को राजस्व देती है, तो संलग्नी उस जिले के कलेक्टर के माध्यम से की जाएगी जहाँ भूमि स्थित है;
  • अन्य मामलों में संलग्नी निम्न प्रकार से की जा सकती है:
    (a) स्वामित्व लेना (possession लेना);
    (b) रिसीवर की नियुक्ति;
    (c) लिखित आदेश द्वारा, जो किराया भुगतान या संपत्ति का हस्तांतरण घोषित व्यक्ति या उसके प्रतिनिधि को करने से मना करता हो;
    (d) उपरोक्त में से कोई भी दो या सभी तरीके, जैसा न्यायालय उपयुक्त समझे।

(5) यदि संलग्न की गई संपत्ति पशु है या जल्दी खराब होने वाली प्रकृति की है, तो न्यायालय तत्काल बिक्री का आदेश दे सकता है और ऐसी बिक्री से प्राप्त राशि को न्यायालय के आदेश के अधीन रखा जाएगा।

(6) इस धारा के तहत नियुक्त रिसीवर के सभी अधिकार, कर्तव्य और उत्तरदायित्व वही होंगे जो सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत नियुक्त रिसीवर के होते हैं।

मुख्य बिंदु:

  • फरार व्यक्ति की संपत्ति न्यायालय द्वारा संलग्न की जा सकती है।
  • यदि संपत्ति बेचने या हटाने की आशंका हो, तो उद्घोषणा के साथ-साथ संलग्नी भी हो सकती है।
  • संलग्नी चल संपत्ति, अचल संपत्ति, ऋण, पशु आदि किसी भी प्रकार की संपत्ति पर हो सकती है।
  • रिसीवर की नियुक्ति और तत्काल बिक्री जैसे उपाय भी न्यायालय द्वारा अपनाए जा सकते हैं।

 

धारा 86 – उद्घोषित व्यक्ति की संपत्ति की पहचान और संलग्नीकरण (Section 86 – Identification and attachment of property of proclaimed person)

यदि कोई व्यक्ति उद्घोषित अपराधी (proclaimed person) घोषित किया गया है, तो कोर्ट एक विशेष प्रक्रिया शुरू कर सकता है, जिसके तहत उसकी संपत्ति की पहचान, संलग्न (attach) करना और जब्ती (forfeiture) करने की कार्रवाई की जा सकती है।

इसके लिए निम्नलिखित शर्तें हैं:

  • यह प्रक्रिया तब शुरू होगी जब कोई पुलिस अधिकारी जो अधीक्षक (Superintendent) या पुलिस आयुक्त (Commissioner) के स्तर से नीचे न हो, लिखित में अनुरोध करेगा।
  • इसके आधार पर कोर्ट किसी “contracting State” (विदेशी संधि-राज्य) की कोर्ट या प्राधिकरण से मदद मांग सकता है, ताकि उस उद्घोषित व्यक्ति की विदेश में स्थित संपत्ति की पहचान, संलग्नी और जब्ती की कार्रवाई की जा सके।
  • यह पूरी प्रक्रिया अध्याय VIII में दिए गए नियमों के अनुसार होगी।

मुख्य बिंदु:

  • विदेश में स्थित संपत्ति की जब्ती और पहचान हेतु कोर्ट विदेशी सहयोग मांग सकता है।
  • केवल उद्घोषित अपराधी की संपत्ति पर यह कार्रवाई लागू होती है।
  • यह प्रक्रिया तभी शुरू होती है जब वरिष्ठ पुलिस अधिकारी की ओर से लिखित अनुरोध किया जाए।
  • संपत्ति की पहचान, संलग्नीकरण और जब्ती अध्याय VIII के अनुसार की जाती है।

 

धारा 87. अन्वेषण की गई संपत्ति पर दावे और आपत्तियाँ (Claims and objections to attachment)

(1) यदि कोई व्यक्ति, जो उद्घोषित अपराधी नहीं है, धारा 85 के अंतर्गत कुर्क की गई संपत्ति पर छह माह की अवधि के भीतर यह दावा करता है या आपत्ति करता है कि उसे उस संपत्ति में कोई हित (interest) है और उसका वह हित धारा 85 के अंतर्गत कुर्क नहीं किया जा सकता, तो ऐसी दावा या आपत्ति पर न्यायालय द्वारा जांच की जाएगी और उसे पूर्णतः या आंशिक रूप से स्वीकृत या अस्वीकृत किया जा सकता है। यदि दावा करने वाला या आपत्ति करने वाला व्यक्ति इस अवधि के भीतर मृत्यु को प्राप्त हो जाए, तो उसका कानूनी प्रतिनिधि उस दावा या आपत्ति को जारी रख सकता है।

(2) इस धारा के तहत दावे या आपत्तियाँ उस न्यायालय में दायर की जा सकती हैं जिसने कुर्की का आदेश पारित किया है, या यदि संपत्ति की कुर्की धारा 85(2) के अंतर्गत किए गए आदेश के तहत की गई हो, तो उस जिले के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में, जहां कुर्की की गई है।

(3) हर ऐसा दावा या आपत्ति उसी न्यायालय द्वारा जांचा जाएगा जिसमें वह प्रस्तुत किया गया है। यदि वह मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के न्यायालय में प्रस्तुत किया गया हो, तो वह उसे अपने अधीनस्थ किसी मजिस्ट्रेट को निर्णय हेतु सौंप सकता है

(4) वह व्यक्ति जिसका दावा या आपत्ति पूरी या आंशिक रूप से अस्वीकृत कर दिया गया हो, वह एक वर्ष के भीतर एक दीवानी वाद (civil suit) दायर कर सकता है जिससे वह संपत्ति में अपना अधिकार सिद्ध कर सके। लेकिन जब तक ऐसा वाद दायर नहीं होता या उसका निर्णय नहीं होता, पूर्ववर्ती आदेश अंतिम माना जाएगा

 

धारा 88. कुर्क की गई संपत्ति की रिहाई, बिक्री और पुनः प्राप्ति

(1) यदि उद्घोषणा में निर्दिष्ट समय के भीतर उद्घोषित व्यक्ति उपस्थित हो जाता है, तो न्यायालय कुर्की हटाने का आदेश देगा।

(2) यदि उद्घोषित व्यक्ति निर्दिष्ट समय में उपस्थित नहीं होता, तो कुर्क की गई संपत्ति राज्य सरकार के अधीन हो जाएगी, लेकिन उसे तब तक बेचा नहीं जाएगा जब तक:

  • कुर्की की तिथि से छह माह की अवधि पूरी न हो जाए; और
  • धारा 87 के अंतर्गत किया गया कोई दावा या आपत्ति का निपटारा न हो जाए,
    जब तक कि संपत्ति शीघ्र और स्वाभाविक रूप से नष्ट होने योग्य न हो, या न्यायालय को यह न लगे कि मालिक के हित में उसकी बिक्री आवश्यक है, ऐसे मामलों में न्यायालय उचित समय पर बिक्री का आदेश दे सकता है

(3) यदि कुर्की की तिथि से दो वर्षों के भीतर वह व्यक्ति:

  • स्वेच्छा से उपस्थित होता है या गिरफ्तार होकर न्यायालय में लाया जाता है,
  • और न्यायालय को संतुष्ट कर देता है कि उसने वारंट के निष्पादन से बचने के उद्देश्य से न तो भागने का प्रयास किया और न ही छिपा, और उसे उद्घोषणा की ऐसी जानकारी नहीं थी जिससे वह समय पर उपस्थित हो सकता,

तो न्यायालय उस व्यक्ति को—

  • संपत्ति वापस कर देगा, या
  • यदि संपत्ति बेच दी गई हो, तो बिक्री की शुद्ध आय, या
  • यदि संपत्ति का कुछ भाग बेचा गया हो, तो बिक्री की आय और शेष संपत्ति,
    इस शर्त पर कि कुर्की से संबंधित सभी खर्चे काटने के बाद ही संपत्ति या धन वापस किया जाएगा।

 

धारा 89. कुर्क की गई संपत्ति की पुनः प्राप्ति के आवेदन की अस्वीकृति के आदेश के विरुद्ध अपील

धारा 88 की उपधारा (3) में वर्णित कोई भी व्यक्ति, यदि न्यायालय द्वारा संपत्ति लौटाने या उसकी बिक्री की आय देने से इनकार किया गया हो, और वह इससे पीड़ित हो, तो वह उस न्यायालय में अपील कर सकता है जहाँ से उस पहले उल्लेखित न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध सामान्य रूप से अपील की जाती है

धारा 89. कुर्क की गई संपत्ति की पुनः प्राप्ति के आवेदन की अस्वीकृति के आदेश के विरुद्ध अपील

धारा 88 की उपधारा (3) में वर्णित कोई भी व्यक्ति, यदि न्यायालय द्वारा संपत्ति लौटाने या उसकी बिक्री की आय देने से इनकार किया गया हो, और वह इससे पीड़ित हो, तो वह उस न्यायालय में अपील कर सकता है जहाँ से उस पहले उल्लेखित न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध सामान्य रूप से अपील की जाती है

धारा 90. समन के स्थान पर या उसके अतिरिक्त वारंट जारी करना

जिस किसी मामले में इस संहिता के अंतर्गत न्यायालय किसी व्यक्ति की उपस्थिति के लिए समन जारी करने के लिए सक्षम है, वह न्यायालय, यदि आवश्यक समझे, अपने द्वारा लिखित में कारण दर्ज करने के बाद, उस व्यक्ति की गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी कर सकता है—

(a) यदि समन जारी करने से पहले, या समन जारी होने के बाद लेकिन निर्धारित समय से पहले, न्यायालय को यह विश्वास हो कि वह व्यक्ति फरार हो गया है या समन का पालन नहीं करेगा; या
(b) यदि वह व्यक्ति निर्धारित समय पर उपस्थित नहीं होता है और यह सिद्ध हो जाता है कि समन उसे विधिवत और समय पर तामील हुआ था, ताकि वह समय पर उपस्थित हो सके, और वह अनुपस्थित रहने के लिए कोई उचित कारण नहीं देता है

 

धारा 91. उपस्थिति के लिए बंधपत्र या जमानत बंधपत्र लेने की शक्ति

जब कोई व्यक्ति, जिसकी उपस्थिति या गिरफ्तारी के लिए किसी न्यायालय में अध्यक्षता कर रहा अधिकारी समन या वारंट जारी करने के लिए अधिकृत है, यदि वह व्यक्ति ऐसे न्यायालय में उपस्थित होता है, तो वह अधिकारी उस व्यक्ति से यह कह सकता है कि वह उस न्यायालय में या किसी अन्य न्यायालय में, जिसमें मामला विचारण हेतु स्थानांतरित किया जा सकता है, अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिए एक बंधपत्र या जमानत बंधपत्र भरें

धारा 92. उपस्थिति के लिए बंधपत्र या जमानत बंधपत्र के उल्लंघन पर गिरफ्तारी

जब कोई व्यक्ति, जो इस संहिता के अंतर्गत न्यायालय में उपस्थिति के लिए बंधपत्र या जमानत बंधपत्र भरकर बाध्य है, यदि वह व्यक्ति निर्धारित समय पर न्यायालय में उपस्थित नहीं होता, तो उस न्यायालय में अध्यक्षता कर रहा अधिकारी एक वारंट जारी कर सकता है, जिसके द्वारा उस व्यक्ति को गिरफ्तार करके उसके समक्ष प्रस्तुत करने का निर्देश दिया जा सकता है

धारा 93. इस अध्याय के प्रावधान सामान्य रूप से समन और गिरफ्तारी वारंट पर लागू

इस अध्याय में समन और गिरफ्तारी वारंट तथा उनके निर्गमन, तामील और निष्पादन से संबंधित जो भी प्रावधान हैं, वे, जहां तक संभव हो, इस संहिता के अंतर्गत जारी किए गए हर समन और हर गिरफ्तारी वारंट पर लागू होंगे

 

धारा 94. दस्तावेज़ या अन्य वस्तु प्रस्तुत करने के लिए समन

(1) जब कोई न्यायालय या किसी पुलिस थाने का प्रभारी अधिकारी यह माने कि किसी दस्तावेज़, इलेक्ट्रॉनिक संचार (जैसे संचार उपकरण जिनमें डिजिटल साक्ष्य हो सकता है) या अन्य किसी वस्तु का किसी जांच, पूछताछ, विचारण या अन्य कार्यवाही के लिए प्रस्तुत किया जाना आवश्यक या उपयुक्त है, तो ऐसा न्यायालय समन जारी कर सकता है या पुलिस अधिकारी लिखित आदेश (भौतिक या इलेक्ट्रॉनिक रूप में) द्वारा उस व्यक्ति को, जिसके पास वह वस्तु या दस्तावेज़ होने की संभावना है, आदेश दे सकता है कि वह उसे उपस्थित होकर प्रस्तुत करे या बताई गई समय और स्थान पर भेजे।

(2) यदि किसी व्यक्ति को केवल दस्तावेज़ या वस्तु प्रस्तुत करने के लिए कहा गया है, तो वह व्यक्ति स्वयं उपस्थित हुए बिना भी उसे प्रस्तुत करवाकर इस धारा के अंतर्गत की गई मांग का पालन माना जाएगा।

(3) इस धारा के किसी भी प्रावधान से निम्नलिखित प्रभावित नहीं होंगे—
(a) भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 129 और 130 तथा बैंकर पुस्तकों का साक्ष्य अधिनियम, 1891 की व्यवस्था;
(b) डाक प्राधिकारी की अभिरक्षा में कोई पत्र, पोस्टकार्ड, अन्य दस्तावेज़, पार्सल या वस्तु।

 

धारा 95. पत्रों के संबंध में प्रक्रिया

(1) यदि कोई दस्तावेज़, पार्सल या वस्तु जो डाक प्राधिकरण की अभिरक्षा में है, किसी जिला मजिस्ट्रेट, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय की राय में किसी जांच, पूछताछ, विचारण या अन्य कार्यवाही के लिए आवश्यक है, तो ऐसा मजिस्ट्रेट या न्यायालय डाक प्राधिकरण को निर्देश दे सकता है कि वह उक्त दस्तावेज़, पार्सल या वस्तु को निर्दिष्ट व्यक्ति को सौंप दे

(2) यदि कोई अन्य कार्यपालक या न्यायिक मजिस्ट्रेट, या कोई पुलिस आयुक्त या जिला पुलिस अधीक्षक यह राय बनाता है कि ऐसा कोई दस्तावेज़, पार्सल या वस्तु किसी जांच या कार्यवाही के लिए आवश्यक है, तो वह डाक प्राधिकरण को निर्देश दे सकता है कि वह उस वस्तु की खोज कर उसे रोके रखे, जब तक कि उपरोक्त (उपधारा 1 में उल्लिखित) प्राधिकारी का आदेश प्राप्त न हो जाए।

धारा 96. कब तलाशी वारंट जारी किया जा सकता है

(1) जब—

(a) किसी न्यायालय को यह विश्वास करने का कारण हो कि जिस व्यक्ति को धारा 94 के अंतर्गत समन या आदेश या धारा 95(1) के अंतर्गत मांगपत्र भेजा गया है या भेजा जा सकता है, वह संबंधित दस्तावेज़ या वस्तु प्रस्तुत नहीं करेगा,
या
(b) ऐसा दस्तावेज़ या वस्तु किसी व्यक्ति के पास है या नहीं, यह न्यायालय को ज्ञात नहीं है,
या
(c) न्यायालय यह माने कि किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के प्रयोजन की पूर्ति सामान्य तलाशी या निरीक्षण से हो सकती है,
तो वह न्यायालय तलाशी वारंट जारी कर सकता है, और जिस व्यक्ति को वह वारंट निर्देशित किया गया है, वह नियत विधियों के अनुसार तलाशी या निरीक्षण कर सकता है

(2) न्यायालय चाहे तो वारंट में उस विशेष स्थान या उसके किसी भाग को निर्दिष्ट कर सकता है, जहां तलाशी या निरीक्षण सीमित रहेगा; ऐसे में वारंट का निष्पादन करने वाला व्यक्ति केवल उसी स्थान या भाग में तलाशी या निरीक्षण करेगा

(3) इस धारा में कुछ भी ऐसा नहीं है जो डाक प्राधिकरण की अभिरक्षा में रखे गए दस्तावेज़, पार्सल या वस्तु की तलाशी के लिए कोई वारंट जारी करने का अधिकार किसी जिला मजिस्ट्रेट या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के अलावा किसी अन्य मजिस्ट्रेट को देता हो

 

धारा 97. चोरी की संपत्ति, जाली दस्तावेज़ आदि से संबंधित स्थान की तलाशी

(1) यदि कोई जिला मजिस्ट्रेट, उप-मंडलीय मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट को किसी सूचना और आवश्यकतानुसार जांच के बाद यह विश्वास करने का कारण हो कि कोई स्थान निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए उपयोग में लिया जा रहा है—

  • चोरी की संपत्ति को रखने या बेचने,
  • या ऐसे आपत्तिजनक वस्तुओं को रखने, बेचने या बनाने के लिए,
  • या ऐसा कोई आपत्तिजनक वस्तु उस स्थान पर जमा है,

तो वह मजिस्ट्रेट एक वारंट द्वारा किसी हेड कांस्टेबल से ऊपर रैंक के पुलिस अधिकारी को अधिकृत कर सकता है कि वह:

(a) आवश्यक सहायता के साथ उस स्थान में प्रवेश करे,
(b) वारंट में बताए गए अनुसार तलाशी ले,
(c) वहाँ जो भी चोरी की संपत्ति या आपत्तिजनक वस्तु पाई जाए, जिसे वह उचित रूप से संदेहास्पद समझे, उसे कब्जे में ले,
(d) ऐसी संपत्ति या वस्तु को किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करे, या उसी स्थान पर सुरक्षित रखवाए, या किसी सुरक्षित स्थान में रखवाए,
(e) उस स्थान में पाए गए हर उस व्यक्ति को हिरासत में ले और मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करे, जो उस वस्तु के भंडारण, बिक्री या निर्माण में सहभागी रहा हो या जान-बूझकर या संदेह के आधार पर शामिल हो

(2) इस धारा में जिन आपत्तिजनक वस्तुओं की बात की गई है, वे हैं:

(a) नकली सिक्के (counterfeit coin),
(b) वे धातु के टुकड़े जो Coinage Act, 2011 के उल्लंघन में बनाए गए हों, या जिन्हें Customs Act, 1962 की धारा 11 के तहत जारी अधिसूचना के उल्लंघन में भारत लाया गया हो,
(c) नकली मुद्रा नोट और नकली डाक टिकट,
(d) जाली दस्तावेज़ (forged documents),
(e) झूठी मुहरें (false seals),
(f) धारा 294, भारतीय न्याय संहिता, 2023 के तहत अश्लील वस्तुएं,
(g) उपर्युक्त (a) से (f) में वर्णित वस्तुओं के निर्माण में प्रयुक्त उपकरण या सामग्री

 

धारा 98. कुछ प्रकाशनों को जब्त घोषित करने और उनकी तलाशी हेतु वारंट जारी करने की शक्ति

(1) यदि—

(a) कोई अख़बार (newspaper) या पुस्तक (book),
या
(b) कोई दस्तावेज़ (document),

चाहे वह कहीं भी मुद्रित हुआ हो, राज्य सरकार को यह प्रतीत होता है कि उसमें ऐसा कोई विषयवस्तु है जिसकी प्रकाशना भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 152, 196, 197, 294, 295 या 299 के तहत दंडनीय है, तो राज्य सरकार एक अधिसूचना द्वारा, अपने मत के आधार (grounds) बताते हुए, ऐसे अख़बार के उस अंक की प्रत्येक प्रति, तथा उस पुस्तक या दस्तावेज़ की प्रत्येक प्रति को सरकार के पक्ष में जब्त (forfeited) घोषित कर सकती है

ऐसी घोषणा के बाद—

  • कोई भी पुलिस अधिकारी भारत में कहीं भी ऐसी प्रति को जब्त कर सकता है, और
  • कोई भी मजिस्ट्रेट एक वारंट द्वारा, किसी सब-इंस्पेक्टर से नीचे नहीं के पुलिस अधिकारी को यह अधिकार दे सकता है कि वह किसी भी स्थान में, जहाँ उस प्रकाशन की प्रति रखी हो या होने की संभावना हो, वहाँ जाकर प्रवेश कर तलाशी ले

(2) इस धारा और धारा 99 में—

(a) “अख़बार” (newspaper) और “पुस्तक” (book) के वही अर्थ हैं जो Press and Registration of Books Act, 1867 में दिए गए हैं।
(b) “दस्तावेज़” (document) में कोई चित्रकला (painting), रेखाचित्र (drawing), फोटोग्राफ (photograph) या अन्य दृश्यमान अभिव्यक्ति (visible representation) भी शामिल हैं।

(3) इस धारा के अंतर्गत पारित किसी आदेश या की गई किसी कार्रवाई को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती, सिवाय इसके कि वह धारा 99 के प्रावधानों के अनुसार हो

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धारा 99. जब्ती की घोषणा को रद्द करने के लिए उच्च न्यायालय में आवेदन

(1) यदि किसी व्यक्ति का किसी अख़बार, पुस्तक या अन्य दस्तावेज़ में कोई स्वार्थ (interest) है और उस पर धारा 98 के अंतर्गत जब्ती की घोषणा की गई है, तो वह व्यक्ति, राजपत्र में उस घोषणा के प्रकाशन की तिथि से दो माह के भीतर, उच्च न्यायालय में यह आवेदन कर सकता है कि उस जब्ती की घोषणा को रद्द किया जाए, इस आधार पर कि जिस अख़बार, पुस्तक या दस्तावेज़ के संदर्भ में वह घोषणा की गई, उसमें धारा 98(1) में उल्लिखित कोई भी आपत्तिजनक विषयवस्तु नहीं थी

(2) ऐसा प्रत्येक आवेदन, यदि उच्च न्यायालय में तीन या अधिक न्यायाधीश हों, तो तीन न्यायाधीशों की विशेष पीठ (Special Bench) द्वारा सुना और निपटाया जाएगा; और यदि उच्च न्यायालय में तीन से कम न्यायाधीश हों, तो उस उच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों की विशेष पीठ द्वारा।

(3) यदि आवेदन किसी अख़बार के संबंध में है, तो उस अख़बार की कोई प्रति सबूत के रूप में प्रस्तुत की जा सकती है, जिससे यह साबित किया जा सके कि उसमें छपे शब्दों, चिह्नों या दृश्यमान अभिव्यक्तियों की प्रकृति या प्रवृत्ति क्या थी, जिनके आधार पर जब्ती की घोषणा की गई थी।

(4) यदि उच्च न्यायालय इस बात से संतुष्ट नहीं है कि संबंधित अख़बार, पुस्तक या दस्तावेज़ में धारा 98(1) के अंतर्गत कोई दंडनीय विषयवस्तु थी, तो वह जब्ती की घोषणा को रद्द कर देगा

(5) यदि विशेष पीठ के न्यायाधीशों के बीच मतभेद हो, तो निर्णय बहुमत के अनुसार किया जाएगा।

 

धारा 100. अन्यायपूर्वक बंदी बनाए गए व्यक्तियों की तलाश के लिए तलाशी

यदि किसी जिला मजिस्ट्रेट, अनुप्रभागीय मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट को यह विश्वास करने का कारण है कि कोई व्यक्ति ऐसे हालात में बंद है जो कि किसी अपराध की श्रेणी में आता है, तो वह एक तलाशी वारंट जारी कर सकता है। यह वारंट जिसे निर्देशित किया गया हो, वह ऐसे बंद किए गए व्यक्ति की तलाश करेगा, और यह तलाशी उसी के अनुसार की जाएगी।

यदि वह व्यक्ति तलाशी में पाया जाता है, तो उसे तुरंत मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा, जो मामले की परिस्थितियों के अनुसार उचित आदेश पारित करेगा

महत्वपूर्ण बिंदु: यदि किसी व्यक्ति को ग़ैर-क़ानूनी रूप से बंदी बनाकर रखा गया है, तो मजिस्ट्रेट को यह अधिकार है कि वह उसे रिहा कराने के लिए कानूनी कार्रवाई कर सके, जिसमें तलाशी वारंट जारी करना और उचित न्यायिक आदेश देना शामिल है।

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धारा 101. अपहृत स्त्रियों की पुनर्स्थापना के लिए विवश करने की शक्ति

यदि किसी स्त्री या बालिका का अपहरण या किसी अवैध उद्देश्य से ग़ैर-क़ानूनी रूप से निरुद्ध किए जाने की शपथपूर्वक शिकायत की जाती है, तो जिला मजिस्ट्रेट, अनुप्रभागीय मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट यह आदेश दे सकता है कि ऐसी स्त्री को तुरंत स्वतंत्र किया जाए, या ऐसी बालिका को उसके माता-पिता, अभिभावक या किसी वैध रूप से जिम्मेदार व्यक्ति को सौंप दिया जाए

मजिस्ट्रेट उक्त आदेश का पालन सुनिश्चित कराने के लिए आवश्यक बल प्रयोग भी कर सकता है

धारा 102. तलाशी वारंटों के निर्देश आदि – Section 102. Direction, etc., of search-warrants

धारा 96, धारा 97, धारा 98 या धारा 100 के अंतर्गत जारी किए गए सभी तलाशी वारंटों पर, जहाँ तक संभव हो, धारा 32, धारा 72, धारा 74, धारा 76, धारा 79, धारा 80 और धारा 81 के प्रावधान लागू होंगे।

 

धारा 103. बंद स्थान का प्रभारी व्यक्ति तलाशी की अनुमति देगा – Section 103. Persons in charge of closed place to allow search

(1) जब कोई स्थान इस अध्याय के अंतर्गत तलाशी या निरीक्षण के लिए उत्तरदायी हो और वह बंद हो, तब उस स्थान में रहने वाला या उसका प्रभारी कोई भी व्यक्ति, वारंट प्रस्तुत करने पर और तलाशी करने वाले अधिकारी या अन्य व्यक्ति के माँग करने पर, उसे स्वतंत्र रूप से अंदर जाने देगा और तलाशी के लिए सभी उचित सुविधाएँ प्रदान करेगा।

(2) यदि ऐसे स्थान में प्रवेश इस प्रकार प्राप्त नहीं किया जा सकता, तो वारंट निष्पादित करने वाला अधिकारी या अन्य व्यक्ति धारा 44 की उपधारा (2) में दिए गए तरीके से कार्य कर सकता है।

(3) यदि ऐसे स्थान में उपस्थित कोई व्यक्ति इस संदेह के अधीन हो कि उसने अपनी देह पर ऐसा कोई वस्तु छुपा रखा है जिसकी तलाशी ली जानी चाहिए, तो उसकी तलाशी ली जा सकती है; और यदि वह व्यक्ति महिला हो, तो उसकी तलाशी किसी अन्य महिला द्वारा शालीनता का पूरा ध्यान रखते हुए ली जाएगी।

(4) इस अध्याय के अंतर्गत तलाशी करने से पहले, तलाशी करने वाला अधिकारी या अन्य व्यक्ति, उस स्थान की स्थिति वाले क्षेत्र के या यदि ऐसा कोई निवासी उपलब्ध या तैयार न हो तो किसी अन्य क्षेत्र के दो या अधिक स्वतंत्र और सम्मानित निवासियों को तलाशी में उपस्थित होने और उसका साक्षी बनने के लिए कहेगा और उन्हें लिखित आदेश देकर ऐसा करने को कह सकता है।

(5) तलाशी उनकी उपस्थिति में की जाएगी, और तलाशी के दौरान जब्त की गई सभी वस्तुओं तथा वे जहाँ पाई गईं, उनकी एक सूची तैयार की जाएगी, जिसे वह अधिकारी या अन्य व्यक्ति और वे साक्षीगण हस्ताक्षर करेंगे; परंतु ऐसा कोई व्यक्ति जो तलाशी का साक्षी हो, उसे न्यायालय में साक्षी के रूप में उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा जब तक कि उसे विशेष रूप से समन न किया गया हो।

(6) तलाशी के समय, उस स्थान का निवासी या उसकी ओर से कोई व्यक्ति हर स्थिति में तलाशी के दौरान उपस्थित रहने की अनुमति दी जाएगी, और इस धारा के अंतर्गत तैयार की गई सूची की एक प्रति, जो साक्षियों द्वारा हस्ताक्षरित होगी, ऐसे निवासी या व्यक्ति को दी जाएगी।

(7) जब किसी व्यक्ति की तलाशी उपधारा (3) के अंतर्गत ली जाती है, तो उसके पास से ली गई सभी वस्तुओं की एक सूची तैयार की जाएगी और उसकी एक प्रति उस व्यक्ति को दी जाएगी।

(8) जो कोई व्यक्ति बिना उचित कारण के, लिखित आदेश प्राप्त करने या उसे सौंपे जाने पर, इस धारा के अंतर्गत तलाशी में उपस्थित होने और साक्षी बनने से इनकार करता है या उपेक्षा करता है, वह भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 222 के अंतर्गत एक अपराध का दोषी माना जाएगा।

 

धारा 104. क्षेत्राधिकार से बाहर तलाशी में पाई गई वस्तुओं का निपटान – Section 104. Disposal of things found in search beyond jurisdiction

जब किसी ऐसे स्थान पर, जो उस न्यायालय की स्थानीय सीमा क्षेत्र से बाहर हो जिसने तलाशी वारंट जारी किया है, वारंट की निष्पादन के दौरान तलाशी की गई कोई वस्तु प्राप्त होती है, तो उन वस्तुओं को, तथा उनके बारे में बनाई गई सूची को, इस संहिता के आगे दिए गए प्रावधानों के अनुसार तुरंत उस न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा जिसने वारंट जारी किया है।

परंतु यदि वह स्थान, वारंट जारी करने वाले न्यायालय की तुलना में, उस क्षेत्राधिकार वाले मजिस्ट्रेट के अधिक निकट हो, तो सूची और वस्तुएं तुरंत उस मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत की जाएंगी; और यदि कोई उचित कारण न हो, तो वह मजिस्ट्रेट उन वस्तुओं को उस न्यायालय में ले जाने के लिए आदेश जारी करेगा।

धारा 105. ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक साधनों के माध्यम से तलाशी और जब्ती की रिकॉर्डिंग – Section 105. Recording of search and seizure through audio video electronic means

इस अध्याय या धारा 185 के अंतर्गत किसी स्थान की तलाशी लेने या किसी संपत्ति, वस्तु या सामग्री को कब्जे में लेने की प्रक्रिया, जिसमें तलाशी और जब्ती के दौरान जब्त की गई सभी वस्तुओं की सूची तैयार करना और गवाहों द्वारा उस सूची पर हस्ताक्षर करना शामिल है, को किसी भी ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक साधन, प्राथमिकता से मोबाइल फोन, के माध्यम से रिकॉर्ड किया जाएगा।

और पुलिस अधिकारी इस रिकॉर्डिंग को बिना किसी विलंब के जिला मजिस्ट्रेट, उप-मंडल मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट को अग्रेषित करेगा।

धारा 106. पुलिस अधिकारी द्वारा कुछ संपत्तियों की जब्ती की शक्ति – Section 106. Power of police officer to seize certain property

(1) कोई भी पुलिस अधिकारी किसी भी ऐसी संपत्ति को जब्त कर सकता है जिसे चुराया गया बताया गया हो या ऐसा संदेह हो, या जो ऐसी परिस्थितियों में पाई जाए जिससे किसी अपराध के किए जाने का संदेह उत्पन्न होता हो।

(2) यदि ऐसा पुलिस अधिकारी किसी पुलिस थाना प्रभारी का अधीनस्थ है, तो वह तुरंत उस अधिकारी को जब्ती की रिपोर्ट देगा।

(3) उपधारा (1) के अंतर्गत कार्यवाही करने वाला प्रत्येक पुलिस अधिकारी तुरंत जब्ती की रिपोर्ट उस क्षेत्राधिकार वाले मजिस्ट्रेट को देगा, और जब्त की गई संपत्ति ऐसी हो जिसे न्यायालय में लाना सुविधाजनक न हो, या जिसके संरक्षण के लिए उचित व्यवस्था कर पाना कठिन हो, या जब्त की गई संपत्ति का पुलिस अभिरक्षा में बने रहना अन्वेषण के उद्देश्य से आवश्यक न हो, तो वह उस संपत्ति को किसी व्यक्ति को उसकी ओर से एक बंधपत्र पर सौंप सकता है, जिसमें वह व्यक्ति संपत्ति को न्यायालय में जब भी आवश्यक हो प्रस्तुत करने और न्यायालय के आगे दिए गए आदेशों का पालन करने का वचन देगा।

परंतु, यदि जब्त की गई संपत्ति शीघ्र नष्ट होने योग्य हो और उसका स्वामी अज्ञात या अनुपस्थित हो तथा उसकी कीमत पांच सौ रुपये से कम हो, तो उसे पुलिस अधीक्षक के आदेश से तुरंत नीलाम किया जा सकता है, और धारा 503 और 504 के प्रावधान ऐसे मामले में लागू होंगे, जितना कि संभव हो सके।

धारा 107. संपत्ति का कुर्क, जब्ती या पुनर्स्थापन – Section 107. Attachment, forfeiture or restoration of property

(1) जब किसी अपराध की जांच कर रहा कोई पुलिस अधिकारी यह विश्वास करता है कि कोई संपत्ति किसी आपराधिक गतिविधि के फलस्वरूप, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्राप्त की गई है, तो वह पुलिस अधीक्षक या पुलिस आयुक्त की स्वीकृति से ऐसे अपराध का संज्ञान लेने, विचारण के लिए भेजने या विचारण करने वाले न्यायालय या मजिस्ट्रेट के समक्ष उस संपत्ति की कुर्की के लिए आवेदन कर सकता है।

(2) यदि न्यायालय या मजिस्ट्रेट को यह विश्वास होता है, चाहे साक्ष्य लेने से पहले या बाद में, कि उक्त संपत्तियाँ अपराध की आय हैं, तो वह व्यक्ति को कारण बताने का नोटिस जारी कर सकता है कि क्यों न उस संपत्ति की कुर्की का आदेश दिया जाए। यह नोटिस चौदह दिन की अवधि के भीतर जवाब देने हेतु दिया जाएगा।

(3) यदि उपधारा (2) के अंतर्गत जारी नोटिस में यह उल्लेख किया गया है कि संपत्ति किसी अन्य व्यक्ति के पास उस व्यक्ति की ओर से रखी गई है, तो उस अन्य व्यक्ति को भी नोटिस की प्रति दी जाएगी।

(4) न्यायालय या मजिस्ट्रेट, नोटिस के उत्तर और उपलब्ध तथ्यों पर विचार करने के बाद तथा संबंधित व्यक्ति को सुनवाई का उचित अवसर देने के बाद, उन संपत्तियों के संबंध में कुर्की का आदेश पारित कर सकता है जो अपराध की आय पाई जाती हैं।
परंतु, यदि संबंधित व्यक्ति चौदह दिन की निर्धारित अवधि में न्यायालय या मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित नहीं होता या अपनी बात नहीं रखता, तो न्यायालय एकतरफा आदेश पारित कर सकता है।

(5) उपधारा (2) में उल्लिखित प्रावधानों के बावजूद, यदि न्यायालय या मजिस्ट्रेट यह माने कि नोटिस जारी करना कुर्की या जब्ती के उद्देश्य को विफल कर देगा, तो वह एकतरफा अंतरिम आदेश द्वारा संपत्ति की कुर्की या जब्ती का निर्देश दे सकता है, और यह आदेश तब तक प्रभावी रहेगा जब तक उपधारा (6) के अंतर्गत कोई आदेश पारित नहीं हो जाता।

(6) यदि न्यायालय या मजिस्ट्रेट यह पाता है कि कुर्क या जब्त की गई संपत्ति अपराध की आय है, तो वह जिलाधिकारी को आदेश देगा कि ऐसी संपत्ति को उस अपराध से प्रभावित व्यक्तियों में अनुपातिक रूप से वितरित किया जाए।

(7) उपधारा (6) के अंतर्गत आदेश प्राप्त होने पर, जिलाधिकारी स्वयं या अपने किसी अधीनस्थ अधिकारी को अधिकृत कर, साठ दिन की अवधि के भीतर संपत्ति का वितरण करेगा।

(8) यदि ऐसे अपराध की आय प्राप्त करने के लिए कोई दावेदार नहीं है, या कोई दावेदार पता नहीं चल रहा है, या सभी दावों की पूर्ति के बाद कुछ अंश बचता है, तो वह शेष राशि सरकार को जब्त मानी जाएगी।

धारा 108. मजिस्ट्रेट द्वारा अपनी उपस्थिति में तलाशी का निर्देश – Section 108. Magistrate may direct search in his presence

कोई भी मजिस्ट्रेट किसी ऐसे स्थान की तलाशी के लिए, जिसकी तलाशी के लिए वह तलाशी वारंट जारी करने का अधिकारी है, अपनी उपस्थिति में तलाशी कराए जाने का निर्देश दे सकता है।

धारा 109. दस्तावेज़ आदि को जब्त करने की शक्ति – Section 109. Power to impound document, etc., produced

कोई भी न्यायालय, यदि उसे उपयुक्त प्रतीत हो, तो इस संहिता के अंतर्गत उसके समक्ष प्रस्तुत किए गए किसी भी दस्तावेज़ या वस्तु को जब्त कर सकता है।

 

धारा 110. कार्यवाही संबंधी पारस्परिक व्यवस्था – Section 110. Reciprocal arrangements regarding processes

(1) जब किसी न्यायालय को, जो उन क्षेत्रों में स्थित है जहाँ यह संहिता प्रवर्तनीय है (जिसे इस धारा में “निर्धारित क्षेत्र” कहा गया है), निम्न में से कोई कार्यवाही किसी अन्य स्थान पर करानी हो—
(क) किसी अभियुक्त को तलब करने के लिए समन;
(ख) किसी अभियुक्त की गिरफ्तारी हेतु वारंट;
(ग) किसी व्यक्ति को दस्तावेज़ या अन्य वस्तु को लाने या प्रस्तुत करने हेतु तलब करने के लिए समन;
(घ) तलाशी वारंट—

तो वह न्यायालय—
(i) यदि वह स्थान भारत में किसी अन्य राज्य या क्षेत्र में स्थित है जो इन निर्धारित क्षेत्रों से बाहर है, तो वह ऐसा समन या वारंट दो प्रतियों में डाक या अन्य माध्यम से वहाँ के न्यायालय के पीठासीन अधिकारी को भेज सकता है ताकि वह उसे सेवा या क्रियान्वयन में लाए; और ऐसे समन की सेवा के संबंध में धारा 70 की वे सभी व्यवस्थाएँ लागू होंगी, जैसे कि समन भेजे गए न्यायालय का पीठासीन अधिकारी भी इन्हीं निर्धारित क्षेत्रों का मजिस्ट्रेट हो;

(ii) यदि वह स्थान भारत के बाहर किसी ऐसे देश में है जहाँ आपराधिक मामलों में समन या वारंट की सेवा या क्रियान्वयन के लिए भारत सरकार ने उस देश या स्थान की सरकार के साथ व्यवस्था की है (जिसे इस धारा में “अनुबंध राज्य” कहा गया है), तो वह ऐसा समन या वारंट दो प्रतियों में निर्धारित रूप में, किसी न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट के नाम संबोधित करके तथा किसी प्राधिकारी को भेजने के लिए भारत सरकार द्वारा अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट प्राधिकारी को भेज सकता है।

(2) जब किसी न्यायालय को निर्धारित क्षेत्रों में निम्न में से कोई दस्तावेज़ सेवा या क्रियान्वयन हेतु प्राप्त होता है—
(क) किसी अभियुक्त को तलब करने वाला समन;
(ख) किसी अभियुक्त की गिरफ्तारी हेतु वारंट;
(ग) किसी व्यक्ति को दस्तावेज़ या अन्य वस्तु को लाने या प्रस्तुत करने हेतु समन;
(घ) तलाशी वारंट—

जो कि—
(I) भारत में किसी अन्य राज्य या क्षेत्र में स्थित न्यायालय द्वारा; या
(II) किसी अनुबंध राज्य के न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा जारी किया गया हो,

तो वह न्यायालय उसे ऐसे सेवा या क्रियान्वयन में लाएगा जैसे कि वह उसके अपने क्षेत्र में स्थित किसी अन्य न्यायालय से प्राप्त हुआ हो; और—
(i) यदि गिरफ्तारी वारंट क्रियान्वित किया गया है, तो गिरफ्तार व्यक्ति को, जहाँ तक संभव हो, धारा 82 और 83 में निर्दिष्ट प्रक्रिया के अनुसार प्रस्तुत किया जाएगा;
(ii) यदि तलाशी वारंट क्रियान्वित किया गया है, तो तलाशी में प्राप्त वस्तुओं को, जहाँ तक संभव हो, धारा 104 में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार निपटाया जाएगा:

परन्तु यह भी उपबंध है कि, यदि किसी अनुबंध राज्य से प्राप्त समन या तलाशी वारंट की सेवा की गई है या उसे क्रियान्वित किया गया है, तो दस्तावेज़ों या प्राप्त वस्तुओं को उस न्यायालय को, जिसने वह समन या तलाशी वारंट जारी किया था, भारत सरकार द्वारा अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट प्राधिकारी के माध्यम से भेजा जाएगा।

धारा 111. परिभाषाएँ – Section 111. Definitions

इस अध्याय में, जब तक प्रसंग से अन्यथा अपेक्षित न हो—
(क) “अनुबंध राज्य” (contracting State) का अर्थ है भारत के बाहर कोई ऐसा देश या स्थान जिसके साथ भारत सरकार ने उस देश की सरकार के साथ संधि या अन्य तरीके से कोई व्यवस्था की हो;
(ख) “पहचान करना” (identifying) का अर्थ है यह सिद्ध करना कि संपत्ति अपराध से प्राप्त हुई थी या अपराध में प्रयुक्त हुई थी;
(ग) “अपराध से प्राप्त आय” (proceeds of crime) का अर्थ है वह संपत्ति जो किसी व्यक्ति द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आपराधिक गतिविधियों (जिसमें मुद्रा स्थानांतरण से संबंधित अपराध भी शामिल हैं) से प्राप्त की गई हो, या ऐसी किसी संपत्ति का मूल्य;
(घ) “संपत्ति” (property) का अर्थ है हर प्रकार की संपत्ति और परिसंपत्तियाँ, चाहे वे भौतिक हों या अभौतिक, चल अथवा अचल, दृश्य अथवा अदृश्य, और वे विलेख या दस्तावेज़ जो ऐसी संपत्ति या परिसंपत्तियों पर शीर्षक या हित को दर्शाते हैं, जो किसी अपराध से प्राप्त या उस में प्रयुक्त हुई हों, तथा इसमें अपराध से प्राप्त संपत्ति भी शामिल है;
(ङ) “पता लगाना” (tracing) का अर्थ है किसी संपत्ति की प्रकृति, स्रोत, निपटान, गमन, शीर्षक या स्वामित्व का निर्धारण करना।

 

धारा 112. भारत के बाहर किसी देश या स्थान में जांच के लिए सक्षम प्राधिकरण को अनुरोध-पत्र भेजना – Section 112. Letter of request to competent authority for investigation in a country or place outside India

(1) यदि किसी अपराध की जांच के दौरान जांच अधिकारी या उससे उच्च पदस्थ कोई अधिकारी यह आवेदन करता है कि किसी देश या स्थान में, जो भारत के बाहर है, साक्ष्य उपलब्ध हो सकते हैं, तो कोई भी आपराधिक न्यायालय ऐसे देश या स्थान की किसी सक्षम न्यायालय या प्राधिकरण को एक अनुरोध-पत्र भेज सकता है, ताकि वह उस व्यक्ति की मौखिक रूप से पूछताछ कर सके जो मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित माना जाता है, तथा पूछताछ के दौरान दिए गए उसके कथन को अभिलेखित कर सके, और उस व्यक्ति या किसी अन्य व्यक्ति से कोई दस्तावेज़ या वस्तु जो उसके पास इस मामले से संबंधित हो, प्रस्तुत करने को कह सके, तथा एकत्रित किए गए सभी साक्ष्य या उनके प्रमाणित प्रतिलिपियों या वस्तु को न्यायालय को भेज सके जिसने ऐसा अनुरोध-पत्र जारी किया हो।

(2) अनुरोध-पत्र उस तरीके से प्रेषित किया जाएगा जैसा इस संबंध में भारत सरकार द्वारा निर्दिष्ट किया गया हो।

(3) उप-धारा (1) के अंतर्गत अभिलेखित किया गया प्रत्येक कथन या प्राप्त दस्तावेज़ या वस्तु, इस संहिता के अंतर्गत जांच के दौरान एकत्रित साक्ष्य माने जाएंगे।

धारा 113. भारत में जांच के लिए किसी देश या स्थान के न्यायालय या प्राधिकरण से अनुरोध-पत्र प्राप्त होना – Section 113. Letter of request from a country or place outside India to a Court or an authority for investigation in India

(1) जब किसी देश या स्थान के किसी सक्षम न्यायालय या प्राधिकरण से, जो उस देश या स्थान में ऐसा अनुरोध-पत्र जारी करने का अधिकार रखता है, किसी अपराध की जांच के संबंध में किसी व्यक्ति की पूछताछ या किसी दस्तावेज़ या वस्तु के प्रस्तुत करने हेतु अनुरोध-पत्र प्राप्त होता है, तो केंद्र सरकार यदि उपयुक्त समझे तो—
(i) उसे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या किसी ऐसे न्यायिक मजिस्ट्रेट को अग्रेषित कर सकती है जिसे वह इस कार्य के लिए नियुक्त करे, और वह मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को तलब कर उसका कथन दर्ज करेगा या उस दस्तावेज़ या वस्तु को प्रस्तुत कराने का आदेश देगा; या
(ii) उसे किसी पुलिस अधिकारी को भेज सकती है जो उस अपराध की उसी प्रकार जांच करेगा जैसे वह अपराध भारत में किया गया हो।

(2) उप-धारा (1) के अंतर्गत एकत्रित किया गया या लिया गया समस्त साक्ष्य, अथवा उसकी प्रमाणित प्रतिलिपियाँ या एकत्रित वस्तु, मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी (जैसा भी मामला हो) केंद्र सरकार को अग्रेषित करेगा, ताकि उसे उस न्यायालय या प्राधिकरण को भेजा जा सके जिसने अनुरोध-पत्र जारी किया था, और यह कार्य उस प्रकार किया जाएगा जैसा केंद्र सरकार उचित समझे।

 

धारा 114. व्यक्तियों के स्थानांतरण को सुनिश्चित करने में सहायता – Section 114. Assistance in securing transfer of persons

(1) जब भारत में कोई न्यायालय किसी आपराधिक मामले में यह चाहता है कि किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी या उसके समक्ष उपस्थिति अथवा किसी दस्तावेज़ या अन्य वस्तु के प्रस्तुत करने हेतु जारी किया गया कोई वारंट किसी संविदा राज्य (contracting State) में निष्पादित किया जाए, तो वह वारंट की दो प्रतियों को उस रूप में, उस न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को, उस प्राधिकारी के माध्यम से भेजेगा जिसे भारत सरकार इस संबंध में अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट करे; और ऐसा न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट उसे निष्पादित कराएगा।

(2) यदि किसी अपराध की जांच या पूछताछ के दौरान जांच अधिकारी या उससे उच्च पदस्थ अधिकारी यह आवेदन करता है कि किसी व्यक्ति की, जो किसी संविदा राज्य में स्थित है, उपस्थिति जांच या पूछताछ के लिए आवश्यक है और न्यायालय यह संतुष्ट हो जाता है कि ऐसी उपस्थिति आवश्यक है, तो वह उस व्यक्ति के विरुद्ध सम्मन या वारंट की दो प्रतियाँ, उस रूप में, उस न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट को भेजेगा जिसे भारत सरकार अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट करे, ताकि उसका सेवा या निष्पादन कराया जा सके।

(3) जब भारत में कोई न्यायालय किसी संविदा राज्य के किसी न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा जारी ऐसा वारंट प्राप्त करता है जिसमें किसी व्यक्ति की उपस्थिति या उपस्थिति तथा किसी दस्तावेज़ या वस्तु के प्रस्तुत करने की आवश्यकता हो, तो वह उसे ऐसे निष्पादित करेगा जैसे वह भारत में किसी अन्य न्यायालय से प्राप्त हुआ हो।

(4) जब किसी व्यक्ति को उप-धारा (3) के अंतर्गत किसी संविदा राज्य में स्थानांतरित किया जाता है और वह भारत में कोई बंदी है, तो भारत का न्यायालय या भारत सरकार उस स्थानांतरण पर ऐसी शर्तें लागू कर सकती है जो वह उपयुक्त समझे।

(5) जब उप-धारा (1) या (2) के अंतर्गत किसी व्यक्ति को, जो संविदा राज्य में बंदी है, भारत लाया जाता है, तो भारत का न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि जिन शर्तों के अंतर्गत उस बंदी को भारत स्थानांतरित किया गया है उनका पालन हो, और उसे ऐसी हिरासत में रखा जाएगा जैसी भारत सरकार लिखित रूप में निर्देश दे।

 

धारा 116. अवैध रूप से अर्जित संपत्ति की पहचान – Section 116. Identifying unlawfully acquired property

(1) न्यायालय, धारा 115 की उप-धारा (1) के अंतर्गत या उप-धारा (3) के अंतर्गत प्राप्त अनुरोध पत्र पर, पुलिस उप-निरीक्षक या उससे उच्च पद वाले किसी पुलिस अधिकारी को यह निर्देश देगा कि वह ऐसी संपत्ति का पता लगाने और पहचान करने के लिए सभी आवश्यक कदम उठाए।

(2) उप-धारा (1) में उल्लिखित कदमों में किसी व्यक्ति, स्थान, संपत्ति, परिसंपत्तियों, बैंकों या सार्वजनिक वित्तीय संस्थानों में रखे खातों की पुस्तकों, दस्तावेजों या किसी अन्य प्रासंगिक विषय के संबंध में कोई भी जांच, अन्वेषण या सर्वेक्षण शामिल हो सकता है।

(3) उप-धारा (2) में उल्लिखित कोई भी जांच, अन्वेषण या सर्वेक्षण उप-धारा (1) में निर्दिष्ट अधिकारी द्वारा उस न्यायालय के निर्देशों के अनुसार किया जाएगा।

धारा 117. संपत्ति की जब्ती या कुर्की – Section 117. Seizure or attachment of property

(1) जब कोई अधिकारी धारा 116 के अंतर्गत किसी जांच या अन्वेषण का संचालन कर रहा हो और उसे यह विश्वास हो कि जिस संपत्ति के संबंध में यह जांच की जा रही है, उसे छिपाया जा सकता है, स्थानांतरित किया जा सकता है या ऐसे किसी भी प्रकार से लेन-देन किया जा सकता है जिससे उस संपत्ति का निपटान हो जाए, तो वह उस संपत्ति की जब्ती का आदेश दे सकता है; और यदि संपत्ति की जब्ती व्यावहारिक रूप से संभव न हो, तो वह कुर्की का आदेश दे सकता है, जिसमें यह निर्देश होगा कि उक्त संपत्ति को तब तक स्थानांतरित या अन्य प्रकार से निपटाया नहीं जाएगा जब तक कि ऐसा करने की पूर्व अनुमति उस आदेश देने वाले अधिकारी से प्राप्त न हो जाए, और ऐसे आदेश की एक प्रति संबंधित व्यक्ति को दी जाएगी।

(2) उप-धारा (1) के अंतर्गत दिया गया कोई भी आदेश तब तक प्रभावी नहीं होगा जब तक कि उस आदेश को उसी न्यायालय द्वारा तीस दिन की अवधि के भीतर पुष्टि न कर दी जाए।

धारा 118. इस अध्याय के अंतर्गत जब्त या अधिहृत संपत्तियों का प्रबंधन – Section 118. Management of properties seized or forfeited under this Chapter

(1) न्यायालय उस क्षेत्र के जिलाधिकारी को, जहाँ संपत्ति स्थित है, या जिलाधिकारी द्वारा नामित किसी अन्य अधिकारी को ऐसी संपत्ति के प्रबंधक (प्रशासक) के रूप में नियुक्त कर सकता है।

(2) उप-धारा (1) के अंतर्गत नियुक्त प्रशासक को उस संपत्ति को प्राप्त करना और उसका प्रबंधन करना होगा, जिसके संबंध में धारा 117 की उप-धारा (1) या धारा 120 के अंतर्गत आदेश पारित किया गया हो, और यह कार्य उस प्रकार और उन शर्तों के अधीन किया जाएगा जो केंद्रीय सरकार द्वारा निर्दिष्ट की जाएं।

(3) प्रशासक को केंद्रीय सरकार के निर्देशानुसार ऐसी संपत्ति, जो केंद्र सरकार के अधिग्रहण में चली गई हो, के निपटान हेतु आवश्यक उपाय भी करने होंगे।

धारा 121. जब्ती के स्थान पर जुर्माना – Section 121. Fine in lieu of forfeiture

(1) जब न्यायालय यह घोषणा करता है कि कोई संपत्ति धारा 120 के अंतर्गत केंद्र सरकार के पक्ष में जब्त की जाती है, और यह मामला ऐसा है जिसमें केवल उस संपत्ति के एक भाग के स्रोत को न्यायालय की संतुष्टि के अनुसार सिद्ध नहीं किया गया है, तो न्यायालय प्रभावित व्यक्ति को जब्ती के स्थान पर उस भाग के बाजार मूल्य के बराबर जुर्माना अदा करने का विकल्प देने वाला आदेश देगा।

(2) उप-धारा (1) के अंतर्गत जुर्माना लगाने से पूर्व, प्रभावित व्यक्ति को सुनवाई का उचित अवसर दिया जाएगा।

(3) जब प्रभावित व्यक्ति उप-धारा (1) के अंतर्गत देय जुर्माना निर्दिष्ट समयावधि में अदा कर देता है, तो न्यायालय आदेश द्वारा धारा 120 के अंतर्गत की गई जब्ती की घोषणा को रद्द कर सकता है और उस स्थिति में वह संपत्ति मुक्त मानी जाएगी।

 

धारा 122. कुछ अंतरणों को शून्य और अमान्य माना जाना – Section 122. Certain transfers to be null and void

जब धारा 117 की उप-धारा (1) के अंतर्गत कोई आदेश पारित किया गया हो या धारा 119 के अंतर्गत कोई नोटिस जारी किया गया हो, और उसके बाद संबंधित संपत्ति का किसी भी प्रकार से अंतरण किया जाए, तो ऐसे अंतरण को इस अध्याय के अंतर्गत कार्यवाहियों के उद्देश्य से नज़रअंदाज़ किया जाएगा; और यदि ऐसी संपत्ति को बाद में धारा 120 के अंतर्गत केंद्र सरकार के पक्ष में जब्त कर लिया जाता है, तो उस संपत्ति का ऐसा अंतरण शून्य और अमान्य माना जाएगा।

धारा 123. अनुरोध पत्र से संबंधित प्रक्रिया – Section 123. Procedure in respect of letter of request

इस अध्याय के अंतर्गत किसी अनुबंध राज्य से प्राप्त प्रत्येक अनुरोध पत्र, समन या वारंट तथा अनुबंध राज्य को भेजा जाने वाला प्रत्येक अनुरोध पत्र, समन या वारंट, उस रूप और रीति में अनुबंध राज्य को प्रेषित किया जाएगा या, जैसा कि मामला हो, भारत में संबंधित न्यायालय को भेजा जाएगा, जैसा कि केंद्र सरकार इस संबंध में अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट करे।

 धारा 123. अनुरोध पत्र से संबंधित प्रक्रिया – Section 123. Procedure in respect of letter of request

इस अध्याय के अंतर्गत किसी अनुबंध राज्य से प्राप्त प्रत्येक अनुरोध पत्र, समन या वारंट तथा अनुबंध राज्य को भेजा जाने वाला प्रत्येक अनुरोध पत्र, समन या वारंट, उस रूप और रीति में अनुबंध राज्य को प्रेषित किया जाएगा या, जैसा कि मामला हो, भारत में संबंधित न्यायालय को भेजा जाएगा, जैसा कि केंद्र सरकार इस संबंध में अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट करे।

धारा 124. इस अध्याय का प्रयोग – Section 124. Application of this Chapter

केंद्र सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, यह निर्देश दे सकती है कि किसी अनुबंध राज्य के संबंध में, जिससे पारस्परिक व्यवस्था की गई हो, इस अध्याय का प्रयोग उन शर्तों, अपवादों या अर्हताओं के अधीन होगा, जो उस अधिसूचना में विनिर्दिष्ट की गई हों।

धारा 125. दोषसिद्धि पर शांति बनाए रखने के लिए सुरक्षा – Security for keeping peace on conviction

(1) जब सत्र न्यायालय या प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट की अदालत किसी व्यक्ति को उप-धारा (2) में बताए गए किसी अपराध के लिए, या ऐसे किसी अपराध के लिए उकसाने के लिए दोषी ठहराती है और यह उचित समझती है कि उस व्यक्ति से शांति बनाए रखने के लिए सुरक्षा ली जानी चाहिए, तो अदालत उस व्यक्ति को दंड सुनाते समय यह आदेश दे सकती है कि वह एक बांड या जमानत बांड भरे कि वह जितने समय तक अदालत उचित समझे (परंतु तीन वर्ष से अधिक नहीं), तब तक शांति बनाए रखेगा।

(2) वे अपराध जिनका उल्लेख उप-धारा (1) में किया गया है, निम्नलिखित हैं—
(क) भारतीय न्याय संहिता, 2023 (45 का 2023) के अध्याय ग्यारह के अंतर्गत दंडनीय कोई भी अपराध, सिवाय उप-धारा (1) की धारा 193 या धारा 196 या धारा 197 के अधीन दंडनीय अपराधों के;
(ख) कोई भी अपराध जिसमें मारपीट, आपराधिक बल प्रयोग या शरारत करना शामिल हो;
(ग) आपराधिक डराने-धमकाने का कोई भी अपराध;
(घ) कोई भी अन्य अपराध जो शांति भंग करने का कारण बना हो, या जानबूझकर या संभावित रूप से शांति भंग करने के लिए किया गया हो।

(3) यदि दोषसिद्धि अपील या अन्य तरीके से रद्द कर दी जाती है, तो इस धारा के अंतर्गत भरा गया बांड या जमानत बांड अमान्य हो जाएगा।

(4) इस धारा के अंतर्गत आदेश अपीलीय न्यायालय या पुनरीक्षण की शक्तियाँ प्रयोग करने वाली अदालत द्वारा भी दिया जा सकता है।

 

धारा 126. अन्य मामलों में शांति बनाए रखने के लिए सुरक्षा – Security for keeping peace in other cases

(1) जब किसी कार्यपालिका मजिस्ट्रेट को ऐसी सूचना मिलती है कि कोई व्यक्ति शांति भंग कर सकता है या सार्वजनिक शांति को बाधित कर सकता है, या ऐसा कोई गलत कार्य कर सकता है जिससे शांति भंग होने की संभावना हो, और मजिस्ट्रेट यह राय बनाता है कि कार्रवाई करने के लिए पर्याप्त आधार है, तो वह उस व्यक्ति को कारण बताने के लिए कह सकता है कि उसे शांति बनाए रखने के लिए बांड या जमानत बांड भरने का आदेश क्यों न दिया जाए, और यह अवधि मजिस्ट्रेट के अनुसार उचित हो, लेकिन एक वर्ष से अधिक नहीं होगी।

(2) इस धारा के अंतर्गत कार्यवाही किसी भी कार्यपालिका मजिस्ट्रेट के सामने तब की जा सकती है जब या तो वह स्थान जहाँ शांति भंग होने की आशंका है, उसके स्थानीय अधिकार क्षेत्र में आता हो, या कोई ऐसा व्यक्ति जो शांति भंग कर सकता है या सार्वजनिक शांति में बाधा डाल सकता है, उसके अधिकार क्षेत्र में निवास करता हो, भले ही वह कार्य उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर होने की आशंका हो।

धारा 127. कुछ प्रकार की सामग्री फैलाने वाले व्यक्तियों से अच्छे आचरण के लिए सुरक्षा – Security for good behaviour from persons disseminating certain matters

(1) जब किसी कार्यपालिका मजिस्ट्रेट को यह सूचना मिलती है कि उसके स्थानीय क्षेत्राधिकार में कोई ऐसा व्यक्ति है, जो उस क्षेत्र के भीतर या बाहर—

(i) मौखिक रूप से, लिखित रूप में या किसी अन्य तरीके से जानबूझकर ऐसी सामग्री फैलाता है, फैलाने का प्रयास करता है या फैलाने में सहायता करता है—
(a) ऐसी कोई सामग्री जिसकी प्रकाशन पर भारतीय दंड संहिता, 2023 की धारा 152, 196, 197 या 299 के तहत दंड का प्रावधान है; या 
(b) ऐसी कोई सामग्री जो किसी न्यायाधीश के उसके पद के कर्तव्यों के निर्वहन में की गई कार्रवाई से संबंधित है और जो भारतीय दंड संहिता, 2023 के अंतर्गत आपराधिक भयादोहन या मानहानि के अंतर्गत आती है; 

(ii) ऐसा कोई अश्लील वस्तु बनाता है, तैयार करता है, प्रकाशित करता है, बिक्री के लिए रखता है, आयात या निर्यात करता है, परिवहन करता है, बेचता है, किराये पर देता है, वितरित करता है, सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करता है या किसी अन्य तरीके से प्रचारित करता है, जैसी वस्तुएँ भारतीय दंड संहिता, 2023 की धारा 294 में वर्णित हैं,

और मजिस्ट्रेट की यह राय बनती है कि आगे की कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है, तो वह ऐसे व्यक्ति को कारण बताने के लिए कह सकता है कि उसे अच्छे आचरण के लिए बांड या जमानत बांड भरने का आदेश क्यों न दिया जाए, और यह अवधि मजिस्ट्रेट के अनुसार उचित हो, लेकिन एक वर्ष से अधिक नहीं होगी।

(2) इस धारा के अंतर्गत किसी प्रकाशन के संपादक, स्वामी, मुद्रक या प्रकाशक के विरुद्ध कार्यवाही नहीं की जाएगी, यदि वह प्रकाशन “प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम, 1867” के अंतर्गत पंजीकृत है और उसके नियमों के अनुसार संपादित, मुद्रित और प्रकाशित किया गया है, जब तक कि राज्य सरकार या उसके द्वारा अधिकृत अधिकारी की अनुमति या आदेश प्राप्त न हो।

धारा 128. संदिग्ध व्यक्तियों से अच्छे आचरण के लिए सुरक्षा – Security for good behaviour from suspected persons

जब किसी कार्यपालिका मजिस्ट्रेट को यह सूचना मिलती है कि उसके स्थानीय क्षेत्राधिकार में कोई व्यक्ति अपनी उपस्थिति छिपाने के लिए सावधानियाँ बरत रहा है और यह विश्वास करने का कारण है कि वह ऐसा किसी दंडनीय (संज्ञेय) अपराध को करने की नीयत से कर रहा है, तो मजिस्ट्रेट, आगे वर्णित तरीके से, उस व्यक्ति को कारण बताने के लिए कह सकता है कि उसे अच्छे आचरण के लिए बांड या जमानत बांड भरने का आदेश क्यों न दिया जाए, और यह अवधि मजिस्ट्रेट के अनुसार उचित हो, लेकिन एक वर्ष से अधिक नहीं होगी।

धारा 129. आदतन अपराधियों से अच्छे आचरण के लिए सुरक्षा – Security for good behaviour from habitual offenders

जब किसी कार्यपालिका मजिस्ट्रेट को यह जानकारी मिलती है कि उसके स्थानीय क्षेत्राधिकार में कोई व्यक्ति है जो—
(क) आदतन लुटेरा, घर में सेंध लगाने वाला, चोर या जालसाज है; या
(ख) आदतन चुराई गई संपत्ति को, यह जानते हुए कि वह चोरी की है, प्राप्त करता है; या
(ग) आदतन चोरों को संरक्षण या आश्रय देता है, या चोरी की संपत्ति को छिपाने या नष्ट करने में मदद करता है; या
(घ) आदतन अपहरण, जबरन वसूली, धोखाधड़ी या शरारत जैसे अपराध करता है, या करने का प्रयास करता है, या ऐसे अपराधों के लिए उकसाता है, या भारतीय दंड संहिता, 2023 के अध्याय 10 या धारा 178, 179, 180 या 181 के अंतर्गत दंडनीय किसी अपराध को करता है; या
(ङ) आदतन ऐसे अपराध करता है, जिनसे शांति भंग होती है; या
(च) आदतन निम्नलिखित अधिनियमों में से किसी एक या अधिक के अंतर्गत कोई अपराध करता है, प्रयास करता है या करवाने के लिए उकसाता है—
(i)
(क) औषधि और प्रसाधन सामग्री अधिनियम, 1940;
(ख) विदेशी नागरिक अधिनियम, 1946;
(ग) कर्मचारी भविष्य निधि और विविध उपबंध अधिनियम, 1952;
(घ) आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955;
(ङ) नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955;
(च) सीमा शुल्क अधिनियम, 1962;
(छ) खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम, 2006; या
(ii) किसी अन्य ऐसे कानून के अंतर्गत दंडनीय अपराध करता है जो जमाखोरी, मुनाफाखोरी, खाद्य या औषधियों की मिलावट या भ्रष्टाचार को रोकने के लिए बनाया गया हो; या
(छ) इतना दुस्साहसी और खतरनाक है कि उसे बिना किसी सुरक्षा के खुला छोड़ना समाज के लिए जोखिमपूर्ण है,

तो मजिस्ट्रेट, आगे दिए गए तरीके से, उस व्यक्ति को कारण बताने के लिए कह सकता है कि उसे अच्छे आचरण के लिए जमानती बांड भरने का आदेश क्यों न दिया जाए, और यह अवधि मजिस्ट्रेट के अनुसार उचित हो, लेकिन तीन वर्ष से अधिक नहीं होगी।

धारा 130. आदेश दिया जाना – Order to be made

जब कोई मजिस्ट्रेट धारा 126, धारा 127, धारा 128 या धारा 129 के अंतर्गत कार्य करते हुए यह आवश्यक समझता है कि किसी व्यक्ति से कारण पूछा जाए, तो वह एक लिखित आदेश जारी करेगा। इस आदेश में प्राप्त जानकारी का सार, भरने के लिए बांड की राशि, बांड की अवधि और कितने जमानती होने चाहिए, यह सब उल्लेख किया जाएगा। साथ ही, जमानतियों की उपयुक्तता और योग्यता पर विचार करके यह आदेश बनाया जाएगा।

धारा 131. न्यायालय में उपस्थित व्यक्ति के संबंध में प्रक्रिया – Procedure in respect of person present in Court

यदि वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध ऐसा आदेश दिया गया है, न्यायालय में उपस्थित हो, तो उस आदेश को उसे पढ़कर सुनाया जाएगा, या यदि वह चाहे तो उसका सारांश उसे समझाया जाएगा।

धारा 132. अनुपस्थित व्यक्ति के मामले में समन या वारंट – Summons or warrant in case of person not so present

यदि ऐसा व्यक्ति न्यायालय में उपस्थित नहीं है, तो मजिस्ट्रेट उसे उपस्थित होने के लिए समन जारी करेगा, या यदि वह व्यक्ति हिरासत में है, तो एक वारंट जारी करेगा जिसमें उस अधिकारी को निर्देश दिया जाएगा जिसकी हिरासत में वह है कि उसे न्यायालय में प्रस्तुत करे।
परंतु, यदि मजिस्ट्रेट को किसी पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट या अन्य सूचना (जिसका सारांश मजिस्ट्रेट द्वारा अभिलेखित किया जाएगा) के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि शांति भंग होने की आशंका है और ऐसी शांति भंग को अन्यथा रोका नहीं जा सकता, तो वह किसी भी समय ऐसे व्यक्ति की तात्कालिक गिरफ्तारी के लिए वारंट जारी कर सकता है।

धारा 134. व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट देने की शक्ति – Power to dispense with personal attendance

यदि मजिस्ट्रेट को उचित कारण प्रतीत होता है, तो वह ऐसे किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट दे सकता है जिसे यह कारण बताने के लिए बुलाया गया है कि उसे शांति बनाए रखने या सदाचार के लिए बंधपत्र देने का आदेश क्यों न दिया जाए, और ऐसे व्यक्ति को अपने अधिवक्ता के माध्यम से उपस्थित होने की अनुमति दे सकता है।

 

धारा 134. व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट देने की शक्ति – Power to dispense with personal attendance

यदि मजिस्ट्रेट को उचित कारण प्रतीत होता है, तो वह ऐसे किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट दे सकता है जिसे यह कारण बताने के लिए बुलाया गया है कि उसे शांति बनाए रखने या सदाचार के लिए बंधपत्र देने का आदेश क्यों न दिया जाए, और ऐसे व्यक्ति को अपने अधिवक्ता के माध्यम से उपस्थित होने की अनुमति दे सकता है।

धारा 135. सूचना की सत्यता की जांच – Inquiry as to truth of information

(1) जब धारा 130 के अंतर्गत किया गया आदेश न्यायालय में उपस्थित व्यक्ति को पढ़कर सुनाया गया हो या समझाया गया हो, या जब कोई व्यक्ति धारा 132 के अंतर्गत जारी समन या वारंट के पालन में उपस्थित होता है या लाया जाता है, तो मजिस्ट्रेट उस सूचना की सत्यता की जांच करेगा जिस पर कार्रवाई की गई है, और आवश्यकतानुसार अन्य साक्ष्य लेगा।

(2) यह जांच, जितना संभव हो सके, समन-वाले मामलों के परीक्षण और साक्ष्य रिकॉर्ड करने की प्रक्रिया के अनुसार की जाएगी।

(3) जांच शुरू होने के बाद और पूरी होने से पहले, यदि मजिस्ट्रेट को यह आवश्यक लगे कि शांति भंग, लोक शांति में विघ्न, किसी अपराध या जन सुरक्षा को रोकने के लिए तुरंत उपाय जरूरी हैं, तो वह कारणों को लिखित रूप में दर्ज करते हुए उस व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध धारा 130 के अंतर्गत आदेश जारी किया गया है, यह निर्देश दे सकता है कि वह शांति बनाए रखने या सदाचार के लिए बंधपत्र या जमानती बंधपत्र दे, और तब तक उसे हिरासत में रख सकता है जब तक वह बंधपत्र दे न दे, या यदि वह देने में विफल रहता है, तब तक जब तक जांच पूरी न हो जाए:

परंतु यह शर्तें रहेंगी कि
(क) जिस व्यक्ति के विरुद्ध धारा 127, 128 या 129 के अंतर्गत कार्यवाही नहीं की जा रही है, उससे सदाचार बनाए रखने के लिए बंधपत्र देने का निर्देश नहीं दिया जाएगा;
(ख) ऐसे बंधपत्र की शर्तें — चाहे वह राशि हो, या जमानतदारों की संख्या या उनकी आर्थिक जिम्मेदारी — धारा 130 में दिए गए आदेश से अधिक कठोर नहीं होंगी।

(4) इस धारा के उद्देश्यों के लिए, यह तथ्य कि कोई व्यक्ति आदतन अपराधी है या इतना खतरनाक है कि उसे बिना सुरक्षा छोड़ा जाना समाज के लिए हानिकारक होगा, सामान्य प्रतिष्ठा या अन्य तरीकों से सिद्ध किया जा सकता है।

(5) जहां दो या अधिक व्यक्ति उस विषय में एक साथ जुड़े हुए हों जिसकी जांच की जा रही है, तो मजिस्ट्रेट न्यायोचित समझे तो उन्हें एक ही जांच में या अलग-अलग जांचों में लिया जा सकता है।

(6) इस धारा के अंतर्गत जांच उसकी प्रारंभ तिथि से छह महीने की अवधि में पूरी की जानी चाहिए, और यदि ऐसा नहीं होता है, तो यह कार्यवाही उक्त अवधि समाप्त होते ही स्वतः समाप्त हो जाएगी, जब तक कि मजिस्ट्रेट कोई विशेष कारण लिखित रूप में दर्ज कर इसे जारी रखने का निर्देश न दे:
परंतु यदि कोई व्यक्ति इस जांच के दौरान निरुद्ध रहा है, तो उस व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही, यदि पहले समाप्त नहीं हुई हो, तो छह महीने की निरुद्धि अवधि के अंत में समाप्त मानी जाएगी।

(7) जहां उपधारा (6) के अंतर्गत कार्यवाही जारी रखने का निर्देश दिया गया हो, वहां संबंधित व्यक्ति सत्र न्यायाधीश के समक्ष आवेदन कर सकता है, और यदि सत्र न्यायाधीश यह पाता है कि वह निर्देश किसी विशेष कारण पर आधारित नहीं है या अनुचित है, तो वह उसे रद्द कर सकता है।

धारा 136. सुरक्षा देने का आदेश – Order to give security

यदि ऐसी जांच के बाद यह सिद्ध हो जाता है कि शांति बनाए रखने या सदाचार बनाए रखने के लिए, जैसा भी मामला हो, उस व्यक्ति से बंधपत्र या जमानती बंधपत्र लेना आवश्यक है, जिसके संबंध में जांच की गई है, तो मजिस्ट्रेट ऐसा आदेश देगा:

परंतु यह शर्तें लागू होंगी
(क) किसी व्यक्ति को ऐसा सुरक्षा देने का आदेश नहीं दिया जाएगा जो धारा 130 के अंतर्गत दिए गए आदेश से भिन्न प्रकृति का हो, या उससे अधिक राशि का हो, या अधिक अवधि के लिए हो।
(ख) प्रत्येक बंधपत्र या जमानती बंधपत्र की राशि मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए निर्धारित की जाएगी और वह अत्यधिक नहीं होगी।
(ग) जब वह व्यक्ति जिसके संबंध में जांच की गई है, एक बालक है, तो बंधपत्र केवल उसके जमानतदारों द्वारा ही भरा जाएगा।

 

धारा 136. सुरक्षा देने का आदेश – Order to give security

यदि ऐसी जांच के बाद यह सिद्ध हो जाता है कि शांति बनाए रखने या सदाचार बनाए रखने के लिए, जैसा भी मामला हो, उस व्यक्ति से बंधपत्र या जमानती बंधपत्र लेना आवश्यक है, जिसके संबंध में जांच की गई है, तो मजिस्ट्रेट ऐसा आदेश देगा:

परंतु यह शर्तें लागू होंगी
(क) किसी व्यक्ति को ऐसा सुरक्षा देने का आदेश नहीं दिया जाएगा जो धारा 130 के अंतर्गत दिए गए आदेश से भिन्न प्रकृति का हो, या उससे अधिक राशि का हो, या अधिक अवधि के लिए हो।
(ख) प्रत्येक बंधपत्र या जमानती बंधपत्र की राशि मामले की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए निर्धारित की जाएगी और वह अत्यधिक नहीं होगी।
(ग) जब वह व्यक्ति जिसके संबंध में जांच की गई है, एक बालक है, तो बंधपत्र केवल उसके जमानतदारों द्वारा ही भरा जाएगा।

धारा 137. आरोपित व्यक्ति को मुक्त करना – Discharge of person informed against

यदि धारा 135 के अंतर्गत की गई जांच में यह सिद्ध नहीं होता कि शांति बनाए रखने या सदाचार बनाए रखने के लिए, जैसा भी मामला हो, उस व्यक्ति से बंधपत्र लिया जाना आवश्यक है, जिसके संबंध में जांच की गई है, तो मजिस्ट्रेट अभिलेख में इस बात का उल्लेख करेगा, और यदि वह व्यक्ति केवल जांच के उद्देश्य से हिरासत में है, तो उसे रिहा कर देगा, या यदि वह हिरासत में नहीं है, तो उसे मुक्त कर देगा।

धारा 138. जिसके लिए सुरक्षा की आवश्यकता है, उसकी अवधि की शुरुआत – Commencement of period for which security is required

(1) यदि किसी व्यक्ति के विरुद्ध धारा 125 या धारा 136 के अंतर्गत सुरक्षा देने का आदेश दिया गया है और उस समय वह व्यक्ति कारावास की सजा भुगत रहा है या उसे सजा सुनाई जा चुकी है, तो जिस अवधि के लिए सुरक्षा ली जानी है, वह सजा की समाप्ति के बाद प्रारंभ होगी।

(2) अन्य मामलों में यह अवधि उस आदेश की तिथि से शुरू होगी, जब तक कि मजिस्ट्रेट किसी उचित कारण से कोई बाद की तिथि निर्धारित न करे।

धारा 139. बंधपत्र की विषयवस्तु – Contents of bond

ऐसे किसी व्यक्ति द्वारा जो बंधपत्र या जमानत बंधपत्र भरना है, उसमें यह बाध्यता होगी कि वह व्यक्ति शांति बनाए रखेगा या सदाचार बनाए रखेगा, जैसा भी मामला हो। और यदि बंधपत्र सदाचार बनाए रखने के लिए है, तो किसी भी ऐसे अपराध को करना, करने का प्रयास करना या उसमें उकसाना, जो कारावास से दंडनीय है, चाहे वह अपराध कहीं भी किया गया हो, उस बंधपत्र या जमानत बंधपत्र का उल्लंघन माना जाएगा।

धारा 140. जमानती को अस्वीकार करने की शक्ति – Power to reject sureties

(1) कोई मजिस्ट्रेट किसी भी जमानती को, जिसे प्रस्तुत किया गया हो, स्वीकार करने से इनकार कर सकता है, या इस अध्याय के अंतर्गत स्वयं या अपने पूर्ववर्ती द्वारा पहले से स्वीकार किए गए किसी जमानती को यह कारण बताकर अस्वीकार कर सकता है कि वह व्यक्ति जमानत बंधपत्र के उद्देश्य के लिए उपयुक्त नहीं है।
परंतु, ऐसा करने से पहले, मजिस्ट्रेट को स्वयं शपथ पर जमानती की उपयुक्तता की जांच करनी होगी या किसी अधीनस्थ मजिस्ट्रेट से वह जांच करवा कर उसकी रिपोर्ट मंगवानी होगी।

(2) ऐसे मजिस्ट्रेट को जांच करने से पहले जमानती और जिसने उसे प्रस्तुत किया है, दोनों को यथोचित सूचना देनी होगी और जांच करते समय उसके समक्ष प्रस्तुत साक्ष्यों का सार लेखबद्ध करना होगा।

(3) यदि मजिस्ट्रेट, प्रस्तुत साक्ष्य और (यदि हो तो) अधीनस्थ मजिस्ट्रेट की रिपोर्ट के आधार पर यह संतुष्ट होता है कि जमानती जमानत बंधपत्र के लिए अनुपयुक्त है, तो वह उसे अस्वीकार करने या अस्वीकृति का आदेश देगा और ऐसा करने के कारणों को रिकॉर्ड करेगा।
परंतु, किसी पहले से स्वीकार किए गए जमानती को अस्वीकार करने का आदेश देने से पहले, मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति के नाम समन या वारंट जारी करेगा जिसके लिए जमानती बंधा हुआ है और उसे अपने समक्ष उपस्थित होने या लाए जाने का निर्देश देगा।

 

धारा 141. जमानत न देने पर कारावास – Imprisonment in default of security

(1)(a) यदि किसी व्यक्ति को धारा 125 या धारा 136 के तहत जमानत देने का आदेश दिया गया हो और वह व्यक्ति उस तारीख तक जमानत न दे, जिस दिन से जमानत की अवधि शुरू होनी है, तो उसे जेल भेजा जाएगा या यदि वह पहले से जेल में है तो उसे तब तक जेल में रखा जाएगा जब तक वह अवधि पूरी न हो जाए या जब तक वह उसी अवधि के भीतर कोर्ट या मजिस्ट्रेट के समक्ष जमानत न दे दे जिसने उसे जमानत देने का आदेश दिया था।

(b) यदि कोई व्यक्ति मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 136 के तहत शांति बनाए रखने के लिए बंधपत्र या जमानती बंधपत्र भरने के बाद उसका उल्लंघन करता है, और मजिस्ट्रेट या उनके उत्तराधिकारी को यह प्रमाण मिल जाए, तो वह व्यक्ति गिरफ्तार कर जेल भेजा जा सकता है और उसे बंधपत्र की शेष अवधि तक जेल में रखा जाएगा। यह आदेश किसी अन्य दंड या जब्ती से अलग होगा जिसे वह व्यक्ति कानून के अनुसार भुगतने का पात्र हो सकता है।

(2) यदि किसी व्यक्ति को मजिस्ट्रेट द्वारा एक वर्ष से अधिक की अवधि के लिए जमानत देने का आदेश दिया गया हो और वह ऐसा न करे, तो मजिस्ट्रेट आदेश देगा कि उसे जेल में रखा जाए और सत्र न्यायाधीश के आदेश की प्रतीक्षा की जाए, और कार्यवाही यथाशीघ्र उस न्यायालय के समक्ष रखी जाएगी।

(3) सत्र न्यायालय, कार्यवाही की जांच कर, मजिस्ट्रेट से आवश्यक जानकारी या साक्ष्य मांग कर और संबंधित व्यक्ति को सुनवाई का अवसर देकर, जैसा उचित समझे वैसा आदेश पारित कर सकता है।
परंतु, जमानत न देने के कारण किसी व्यक्ति को दी गई कारावास की अवधि तीन वर्ष से अधिक नहीं होगी।

(4) यदि एक ही कार्यवाही में दो या अधिक व्यक्तियों से जमानत ली गई हो और उनमें से किसी एक की कार्यवाही सत्र न्यायाधीश को भेजी गई हो, तो अन्य व्यक्ति की कार्यवाही भी भेजी जाएगी और उपधारा (2) व (3) के प्रावधान उनके मामले में भी लागू होंगे, परंतु कारावास की अवधि उस अवधि से अधिक नहीं होगी जितनी जमानत देने के लिए आदेशित की गई थी।

(5) सत्र न्यायाधीश अपनी इच्छा से किसी कार्यवाही को अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश को स्थानांतरित कर सकते हैं और वह अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश इस धारा के अंतर्गत सत्र न्यायाधीश की शक्तियां प्रयोग कर सकता है।

(6) यदि जमानत जेल अधीक्षक को दी जाती है, तो वह तुरंत उस न्यायालय या मजिस्ट्रेट को सूचित करेगा जिसने आदेश दिया था और उनके आदेश की प्रतीक्षा करेगा।

(7) शांति बनाए रखने के लिए जमानत न देने पर साधारण कारावास दी जाएगी।

(8) अच्छा आचरण बनाए रखने की जमानत न देने पर, यदि कार्यवाही धारा 127 के अंतर्गत है तो साधारण कारावास और यदि धारा 128 या 129 के अंतर्गत है तो न्यायालय या मजिस्ट्रेट के निर्देशानुसार साधारण या कठोर कारावास दी जा सकती है।

धारा 142. जमानत न देने पर कारावास भुगत रहे व्यक्ति की रिहाई की शक्ति – Power to release persons imprisoned for failing to give security

(1) जब जिला मजिस्ट्रेट (यदि धारा 136 के अंतर्गत कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा आदेश दिया गया हो) या किसी अन्य मामले में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट यह माने कि किसी व्यक्ति को इस अध्याय के तहत जमानत न देने के कारण जेल में रखा गया है और उसकी रिहाई से समाज या किसी व्यक्ति को कोई खतरा नहीं होगा, तो वह उस व्यक्ति की रिहाई का आदेश दे सकता है।

(2) जब किसी व्यक्ति को इस अध्याय के तहत जमानत न देने पर जेल भेजा गया हो, तो उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय, या जहां आदेश किसी अन्य न्यायालय द्वारा किया गया हो, वहां जिला मजिस्ट्रेट (यदि आदेश कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 136 के अंतर्गत दिया गया हो) या अन्यथा मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, जमानत की राशि, जमानतदारों की संख्या या जमानत की अवधि को कम करने का आदेश दे सकते हैं।

(3) उप-धारा (1) के अंतर्गत रिहाई का आदेश बिना किसी शर्त के या उस शर्त पर दिया जा सकता है जिसे वह व्यक्ति स्वीकार करे।
परंतु, कोई भी शर्त केवल उस अवधि तक प्रभावी रहेगी जितनी अवधि के लिए जमानत देने का आदेश दिया गया था।

(4) राज्य सरकार नियम बनाकर यह तय कर सकती है कि किन शर्तों पर सशर्त रिहाई दी जा सकती है।

(5) यदि जिला मजिस्ट्रेट (धारा 136 के तहत कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा आदेश दिए जाने की स्थिति में) या अन्यथा मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट यह माने कि रिहाई की कोई शर्त पूरी नहीं की गई है, तो वह रिहाई के आदेश को रद्द कर सकता है।

(6) जब सशर्त रिहाई का आदेश उप-धारा (5) के अंतर्गत रद्द किया गया हो, तो ऐसा व्यक्ति पुलिस अधिकारी द्वारा बिना वारंट के गिरफ्तार किया जा सकता है और उसे संबंधित जिला मजिस्ट्रेट या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया जाएगा।

(7) यदि वह व्यक्ति, पहले दिए गए आदेश के अनुसार, शेष अवधि के लिए जमानत नहीं देता (यह अवधि उस दिन से गिनी जाएगी जिस दिन उसने शर्त का उल्लंघन किया और उस दिन तक जब वह बिना सशर्त रिहाई के रिहा होता), तो संबंधित मजिस्ट्रेट उसे शेष अवधि के लिए फिर से जेल भेज सकता है।

(8) उप-धारा (7) के अंतर्गत जेल भेजे गए व्यक्ति को, धारा 141 के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, कभी भी रिहा किया जा सकता है यदि वह पहले दिए गए आदेश के अनुसार शेष अवधि के लिए जमानत दे देता है।

(9) उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय किसी भी समय, लिखित रूप में कारण दर्ज करके, इस अध्याय के तहत शांति बनाए रखने या अच्छा आचरण बनाए रखने के लिए दिए गए किसी बंधपत्र को रद्द कर सकता है, और जिला मजिस्ट्रेट (जहां आदेश कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 136 के तहत दिया गया हो) या अन्यथा मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट भी अपने आदेश या अपने जिले के किसी अन्य न्यायालय के आदेश से निष्पादित बंधपत्र को रद्द कर सकता है।

(10) कोई भी व्यक्ति जो किसी अन्य व्यक्ति के शांति या अच्छा आचरण बनाए रखने के लिए जमानती बना है, वह कभी भी अदालत में आवेदन कर सकता है कि उस बंधपत्र को रद्द किया जाए, और ऐसे आवेदन पर अदालत उस व्यक्ति को बुलाने या लाने के लिए समन या वारंट जारी करेगी।

धारा 143. बंधपत्र की शेष अवधि के लिए सुरक्षा – Security for unexpired period of bond

(1) जब किसी व्यक्ति के लिए, जिसकी उपस्थिति के लिए धारा 140 की उप-धारा (3) के उपबंध या धारा 142 की उप-धारा (10) के अंतर्गत समन या वारंट जारी किया गया हो, वह व्यक्ति मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष उपस्थित होता है या लाया जाता है, तो मजिस्ट्रेट या न्यायालय उसके द्वारा निष्पादित मूल बंधपत्र या जमानत बंधपत्र को रद्द करेगा और आदेश देगा कि वह व्यक्ति उस बंधपत्र की शेष अवधि के लिए उसी प्रकार की नई जमानत या सुरक्षा दे, जैसी मूल जमानत थी।

(2) ऐसा प्रत्येक आदेश, धारा 139 से 142 (दोनों सहित) के प्रयोजनों के लिए, ऐसा माना जाएगा जैसे कि वह धारा 125 या धारा 136, जो भी लागू हो, के अंतर्गत दिया गया आदेश हो।

धारा 144. पत्नियों, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण का आदेश – Order for maintenance of wives, children and parents

(1) यदि कोई व्यक्ति, जिसके पास पर्याप्त साधन हैं, निम्नलिखित में से किसी का भरण-पोषण करने से मना करता है या उपेक्षा करता है—
(क) अपनी पत्नी का, जो स्वयं अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है;
(ख) अपने वैध या अवैध संतान का (चाहे वह विवाहित हो या न हो), जो स्वयं अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है;
(ग) अपनी ऐसी वैध या अवैध संतान का (जो विवाहित पुत्री न हो), जो व्यस्क हो चुकी हो और किसी शारीरिक या मानसिक विकृति या चोट के कारण स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ हो;
(घ) अपने माता या पिता का, जो स्वयं का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं,
तो प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट, जब यह प्रमाणित हो जाए कि उपेक्षा या मना किया गया है, उस व्यक्ति को आदेश दे सकता है कि वह अपनी पत्नी, संतान, माता या पिता को हर महीने एक निश्चित राशि उनके भरण-पोषण के लिए दे, जिसे वह उचित समझे, और वह राशि उस व्यक्ति को दे जैसा मजिस्ट्रेट समय-समय पर निर्देश दे।

पहला प्रावधान: यदि उप-धारा (1) के खंड (ख) में वर्णित संतान स्त्री हो, तो मजिस्ट्रेट उसके पिता को उसके व्यस्क होने तक भरण-पोषण देने का आदेश दे सकता है, यदि यह प्रमाणित हो जाए कि उस स्त्री का पति, यदि वह विवाहित है, पर्याप्त साधनों से युक्त नहीं है।
दूसरा प्रावधान: यदि इस उप-धारा के तहत भरण-पोषण की कार्यवाही लंबित है, तो मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही के खर्च के लिए भी मासिक राशि देने का आदेश दे सकता है, जिसे वह उचित समझे।
तीसरा प्रावधान: अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही खर्च के लिए आवेदन, जहां तक संभव हो, नोटिस की सेवा की तिथि से साठ दिनों के भीतर निपटा दिया जाएगा।

व्याख्या: इस अध्याय के प्रयोजन के लिए “पत्नी” में वह स्त्री भी सम्मिलित है जिसे उसके पति ने तलाक दे दिया हो या जिसने तलाक प्राप्त किया हो और जिसने पुनः विवाह नहीं किया हो।

(2) ऐसा भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण तथा कार्यवाही खर्च की राशि उस आदेश की तिथि से देय होगी, या यदि आदेश में उल्लेख हो, तो आवेदन की तिथि से देय होगी।

(3) यदि ऐसा आदेश पाने वाला व्यक्ति बिना उचित कारण के आदेश का पालन नहीं करता, तो मजिस्ट्रेट प्रत्येक उल्लंघन के लिए बकाया राशि की वसूली हेतु जुर्माने की वसूली की तरह वारंट जारी कर सकता है और आदेश के अनुसार मासिक भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण व कार्यवाही खर्च की शेष राशि के लिए एक माह तक का कारावास दे सकता है या जब तक भुगतान न हो, तब तक कारावास में रख सकता है:
प्रथम प्रावधान: कोई भी वारंट तब तक जारी नहीं होगा जब तक कि बकाया राशि की वसूली के लिए एक वर्ष के भीतर आवेदन न किया गया हो।
द्वितीय प्रावधान: यदि पति अपनी पत्नी को अपने साथ रखने की पेशकश करता है और पत्नी मना करती है, तो मजिस्ट्रेट उसके इनकार के कारणों पर विचार कर सकता है और यदि वह उचित पाए, तो भरण-पोषण का आदेश दे सकता है।
व्याख्या: यदि पति ने दूसरी शादी कर ली है या कोई रखैल रखता है, तो यह पत्नी द्वारा साथ न रहने का उचित कारण माना जाएगा।

(4) कोई पत्नी, जो व्यभिचार कर रही है, या जो बिना उचित कारण के अपने पति के साथ रहने से इनकार करती है, या जो आपसी सहमति से अलग रह रही हो, वह इस धारा के अंतर्गत भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण तथा कार्यवाही खर्च की हकदार नहीं होगी।

(5) यदि यह प्रमाणित हो जाए कि ऐसी पत्नी व्यभिचार कर रही है, या बिना उचित कारण के पति के साथ रहने से मना करती है, या दोनों आपसी सहमति से अलग रह रहे हैं, तो मजिस्ट्रेट आदेश को रद्द कर देगा।

धारा 145. प्रक्रिया – Procedure

(1) धारा 144 के अंतर्गत कार्यवाही किसी व्यक्ति के विरुद्ध किसी भी जिले में की जा सकती है—
(क) जहाँ वह वर्तमान में रहता है; या
(ख) जहाँ वह या उसकी पत्नी रहती है; या
(ग) जहाँ वह अंतिम बार अपनी पत्नी या, जैसा मामला हो, अवैध संतान की माता के साथ रहा था; या
(घ) जहाँ उसके पिता या माता रहते हैं।

(2) ऐसी कार्यवाही में सभी साक्ष्य उस व्यक्ति की उपस्थिति में लिए जाएंगे जिसके विरुद्ध भरण-पोषण के भुगतान का आदेश प्रस्तावित है, या यदि उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति माफ कर दी गई हो, तो उसके वकील की उपस्थिति में लिए जाएंगे, और इन्हें समन मामलों के लिए निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार लिपिबद्ध किया जाएगा:
परंतु यदि मजिस्ट्रेट यह संतुष्ट हो कि जिसके विरुद्ध भरण-पोषण का आदेश प्रस्तावित है, वह जानबूझकर समन की सेवा से बच रहा है या जानबूझकर न्यायालय में उपस्थित नहीं हो रहा है, तो मजिस्ट्रेट एकतरफा (ex parte) रूप से मामले की सुनवाई और निपटान कर सकता है, और ऐसा किया गया आदेश किसी उपयुक्त कारण दिखाए जाने पर उस तिथि से तीन माह की अवधि के भीतर किए गए आवेदन पर शर्तों सहित (जैसे कि विरोधी पक्ष को लागत का भुगतान आदि) रद्द किया जा सकता है, जैसा मजिस्ट्रेट उचित समझे।

(3) न्यायालय, धारा 144 के अंतर्गत आवेदन का निपटारा करते समय, लागत (costs) के संबंध में ऐसा आदेश पारित करने की शक्ति रखेगा जैसा वह न्यायसंगत समझे।

धारा 146. भत्ते में परिवर्तन – Alteration in allowance

(1) यदि यह प्रमाणित होता है कि किसी व्यक्ति की परिस्थितियों में परिवर्तन हुआ है, जो धारा 144 के अंतर्गत भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण के लिए मासिक भत्ता प्राप्त कर रहा है, या जिसे अपनी पत्नी, संतान, पिता या माता को मासिक भत्ता देने का आदेश दिया गया है, तो मजिस्ट्रेट उस भत्ते में उपयुक्त परिवर्तन कर सकता है जैसा वह उचित समझे।

(2) यदि मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि किसी सक्षम सिविल न्यायालय के किसी निर्णय के कारण, धारा 144 के अंतर्गत दिया गया कोई आदेश रद्द या परिवर्तित किया जाना चाहिए, तो वह उस आदेश को उसी प्रकार रद्द या परिवर्तित करेगा।

(3) यदि धारा 144 के अंतर्गत किसी ऐसी स्त्री के पक्ष में कोई आदेश पारित किया गया हो, जिसे उसके पति ने तलाक दे दिया है या जिसने अपने पति से तलाक प्राप्त किया है, तो मजिस्ट्रेट यदि निम्नलिखित बातों से संतुष्ट हो तो आदेश रद्द करेगा—
(क) यदि स्त्री ने तलाक के बाद पुनः विवाह कर लिया है, तो आदेश को पुनः विवाह की तिथि से रद्द किया जाएगा;
(ख) यदि पति द्वारा तलाक दिया गया है और स्त्री को तलाक के समय या बाद में वह पूरी राशि प्राप्त हो गई है जो प्रचलित या वैयक्तिक कानून के अनुसार देय थी, तो आदेश को—
(i) यदि वह राशि आदेश से पूर्व दी गई हो, तो आदेश की तिथि से रद्द किया जाएगा;
(ii) अन्यथा, उस अवधि की समाप्ति की तिथि से रद्द किया जाएगा, जिसके लिए वास्तव में पति द्वारा भरण-पोषण दिया गया है;
(ग) यदि स्त्री ने तलाक प्राप्त करने के बाद स्वेच्छा से अपने भरण-पोषण के अधिकार को त्याग दिया है, तो आदेश को त्याग की तिथि से रद्द किया जाएगा।

(4) जब किसी व्यक्ति को भरण-पोषण या दहेज की वसूली के लिए कोई डिक्री पारित की जाती है और उस व्यक्ति को पहले धारा 144 के तहत मासिक भत्ता दिया गया हो, तो सिविल न्यायालय इस बात का ध्यान रखेगा कि उस व्यक्ति को पूर्व में कितना भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण दिया गया है या वसूला गया है।

धारा 147. भरण-पोषण के आदेश का प्रवर्तन – Enforcement of order of maintenance

भरण-पोषण या अंतरिम भरण-पोषण और कार्यवाही के खर्चों का आदेश, जो भी मामला हो, उसकी एक प्रति उस व्यक्ति को (या उसके अभिभावक को, यदि हो) निःशुल्क दी जाएगी, जिसके पक्ष में यह आदेश पारित किया गया है, या उसे जिसे वह भत्ता या खर्च दिया जाना है। ऐसा आदेश किसी मजिस्ट्रेट द्वारा किसी भी स्थान पर लागू किया जा सकता है जहाँ वह व्यक्ति रहता है जिसके विरुद्ध यह आदेश दिया गया है, यदि वह मजिस्ट्रेट यह संतुष्ट हो जाए कि पक्षकारों की पहचान सही है और आदेश के अनुसार भत्ता या खर्चा अब तक अदा नहीं किया गया है।

धारा 148. असेंबली को नागरिक बल द्वारा तितर-बितर करना – Dispersal of assembly by use of civil force

(1) कोई भी कार्यपालक मजिस्ट्रेट, थाने का प्रभारी अधिकारी या, उसकी अनुपस्थिति में, कोई पुलिस अधिकारी जो उप-निरीक्षक से नीचे के पद का न हो, किसी अवैध सभा या ऐसी पाँच या अधिक व्यक्तियों की सभा जो सार्वजनिक शांति भंग करने की संभावना रखती हो, को आदेश दे सकता है कि वे तितर-बितर हो जाएँ; और ऐसे आदेश के बाद उस सभा के सभी सदस्यों का कर्तव्य होगा कि वे तुरंत तितर-बितर हो जाएँ।

(2) यदि ऐसा आदेश दिए जाने पर भी सभा तितर-बितर नहीं होती है, या बिना आदेश के ही वह इस तरह से व्यवहार करती है जिससे यह प्रतीत होता है कि वे तितर-बितर होने को तैयार नहीं हैं, तो ऐसा कार्यपालक मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी, उस सभा को बल प्रयोग द्वारा तितर-बितर कर सकता है और इसके लिए वह किसी भी व्यक्ति (जो सशस्त्र बल का अधिकारी या सदस्य न हो) से सहायता ले सकता है, चाहे वह तितर-बितर करने में सहायता हो या उन व्यक्तियों की गिरफ्तारी व हिरासत में लेना हो, ताकि वे सभा को छोड़ दें या उनके विरुद्ध कानून के अनुसार दंडात्मक कार्यवाही की जा सके।

 

धारा 149. सभा को तितर-बितर करने के लिए सशस्त्र बलों का प्रयोग – Use of armed forces to disperse assembly

(1) यदि धारा 148(1) में वर्णित कोई सभा अन्य किसी उपाय से तितर-बितर नहीं की जा सकती और जन सुरक्षा के लिए उसका तितर-बितर किया जाना आवश्यक हो, तो जिला मजिस्ट्रेट या उनके द्वारा अधिकृत कोई अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट, जो वहाँ उपस्थित हो, उस सभा को सशस्त्र बलों की सहायता से तितर-बितर करा सकता है।

(2) ऐसा मजिस्ट्रेट सशस्त्र बलों के किसी टुकड़ी के कमांडिंग अधिकारी  को निर्देश दे सकता है कि वह अपने अधीनस्थ सशस्त्र बलों के सहयोग से सभा को तितर-बितर करे, और ऐसे व्यक्तियों को गिरफ्तार व हिरासत में ले जो उस मजिस्ट्रेट के निर्देशानुसार या सभा को तितर-बितर करने या कानून के अनुसार दंडित करने हेतु आवश्यक हों।

(3) ऐसा सशस्त्र बल अधिकारी माग की गई सहायता को अपने उचित विचार से पूरा करेगा, लेकिन ऐसा करते समय वह न्यूनतम बल का प्रयोग करेगा और व्यक्तियों या संपत्ति को न्यूनतम क्षति पहुँचाने का प्रयास करेगा, ताकि सभा तितर-बितर हो सके और संबंधित व्यक्तियों को हिरासत में लिया जा सके।

 

धारा 150. कुछ सशस्त्र बल अधिकारियों को सभा तितर-बितर करने का अधिकार – Power of certain armed force officers to disperse assembly

जब कोई सभा स्पष्ट रूप से जनसुरक्षा के लिए खतरा बन जाए और किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट से संपर्क करना संभव न हो, तो सशस्त्र बलों का कोई भी कमीशन्ड या गजटेड अधिकारी अपनी कमान के अधीन सशस्त्र बलों की सहायता से ऐसी सभा को तितर-बितर कर सकता है और उसमें शामिल किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर उसे हिरासत में रख सकता है, ताकि सभा तितर-बितर हो सके या ऐसे व्यक्तियों को कानून के अनुसार दंडित किया जा सके।

लेकिन यदि ऐसा करते समय उस अधिकारी के लिए किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट से संपर्क करना संभव हो जाए, तो उसे तत्काल ऐसा करना चाहिए, और उसके बाद वह मजिस्ट्रेट के निर्देशों का पालन करेगा कि उसे कार्रवाई जारी रखनी है या नहीं

धारा 151. धारा 148, 149 और 150 के अंतर्गत किए गए कार्यों के लिए अभियोजन से सुरक्षा – Protection against prosecution for acts done under sections 148, 149 and 150

(1) अगर किसी व्यक्ति के विरुद्ध ऐसा कोई अभियोजन (मुकदमा) किया जाना हो जो यह दर्शाता हो कि उसने धारा 148, 149 या 150 के अंतर्गत कोई कार्य किया है, तो ऐसा अभियोजन किसी आपराधिक न्यायालय में तब तक शुरू नहीं किया जा सकता, जब तक—

(a) वह व्यक्ति सशस्त्र बलों का अधिकारी या सदस्य हो और केंद्र सरकार की अनुमति न ली गई हो, या
(b) अन्य कोई व्यक्ति हो और राज्य सरकार की अनुमति न ली गई हो।

(2) निम्नलिखित व्यक्तियों को, यदि उन्होंने ईमानदारी (सद्भावना) से कार्य किया है, अपराधी नहीं माना जाएगा

(a) कोई कार्यपालक मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी, जो उपरोक्त धाराओं के अंतर्गत कार्य कर रहा हो,
(b) कोई व्यक्ति जो धारा 148 या 149 के अंतर्गत दिए गए आदेश का ईमानदारी से पालन कर रहा हो,
(c) कोई सशस्त्र बल अधिकारी जो धारा 150 के अंतर्गत ईमानदारी से कार्य कर रहा हो,
(d) कोई सशस्त्र बल का सदस्य जो उस आदेश का पालन कर रहा हो जिसे उसे मानना आवश्यक था।

(3) इस धारा और इस अध्याय की पूर्ववर्ती धाराओं में—

(a) “सशस्त्र बल” का अर्थ है — थल सेना, नौसेना और वायु सेना जो भूमि पर कार्य कर रही हों, और साथ ही केंद्र सरकार के अन्य कोई सशस्त्र बल जो भूमि पर कार्य कर रहे हों।
(b) “अधिकारी” का अर्थ है — कमीशन्ड, गजटेड, वेतनभोगी अधिकारी, और जूनियर कमीशन्ड अधिकारी, वारंट अधिकारी, पेट्टी अधिकारी, गैर-कमीशन्ड अधिकारी या गैर-गजटेड अधिकारी
(c) “सदस्य” का अर्थ है — सशस्त्र बलों का ऐसा कोई व्यक्ति जो अधिकारी न हो

धारा 152. असुविधा (नुक़सान) दूर करने के लिए सशर्त आदेश – Conditional order for removal of nuisance

(1) जब कोई जिला मजिस्ट्रेट, उप-विभागीय मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार द्वारा विशेष रूप से अधिकृत कोई अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट या किसी अन्य सूचना पर तथा आवश्यकतानुसार साक्ष्य लेकर यह मानता है कि—

(a) किसी सार्वजनिक स्थान या रास्ते, नदी या नहर से अवैध अड़चन या असुविधा को हटाया जाना चाहिए; या
(b) किसी व्यापार, कार्य या सामान के भंडारण से समाज के स्वास्थ्य या शारीरिक आराम को नुकसान हो रहा है, इसलिए उस व्यापार या कार्य को निषिद्ध या नियंत्रित किया जाना चाहिए या सामान को हटाया जाए या रखने का तरीका नियंत्रित किया जाए; या
(c) किसी इमारत का निर्माण या किसी पदार्थ का निपटान आग लगने या विस्फोट की आशंका पैदा कर रहा है, और उसे रोकना या बंद करना जरूरी है; या
(d) कोई इमारत, तंबू, ढांचा या पेड़ इस हालत में है कि वह गिर सकता है और पड़ोस के लोगों को या रास्ते से गुजरने वालों को नुकसान पहुंचा सकता है, इसलिए उसे हटाना, मरम्मत करना या सहारा देना जरूरी है; या
(e) कोई तालाब, कुआं या गड्ढा सार्वजनिक जगह के पास है और उससे जनता को खतरा है, इसलिए उसे बाड़ लगाकर सुरक्षित करना चाहिए; या
(f) कोई खतरनाक जानवर है जिसे मारना, कैद करना या अन्य तरीके से निपटाना जरूरी है,

तो मजिस्ट्रेट ऐसा सशर्त आदेश दे सकता है, जिसमें उस व्यक्ति को जो उपरोक्त स्थिति का कारण है या संबंधित संपत्ति या जानवर का स्वामी है, यह निर्देश दिया जा सकता है कि वह निर्दिष्ट समय सीमा में—

  • (i) उस अड़चन या असुविधा को हटाए; या
  • (ii) उस व्यापार या कार्य को बंद करे या निर्देशानुसार नियंत्रित करे, या सामान को हटाए या उसकी व्यवस्था को नियमानुसार करे; या
  • (iii) उस इमारत के निर्माण को रोके या उस पदार्थ के निपटान को बदले; या
  • (iv) उस इमारत, तंबू, ढांचे या पेड़ को हटाए, मरम्मत करे या सहारा दे; या
  • (v) उस तालाब, कुएं या गड्ढे को बाड़बंदी से सुरक्षित करे; या
  • (vi) उस खतरनाक जानवर को मार दे, बंद करे या अन्य निर्देशानुसार निपटाए,

या यदि वह ऐसा करने पर आपत्ति करता है, तो निर्दिष्ट समय व स्थान पर स्वयं या किसी अधीनस्थ कार्यपालक मजिस्ट्रेट के सामने उपस्थित होकर यह बताए कि उक्त आदेश स्थायी क्यों न किया जाए।

(2) इस धारा के अंतर्गत मजिस्ट्रेट द्वारा विधिवत पारित कोई भी आदेश किसी दीवानी न्यायालय (Civil Court) में चुनौती नहीं दी जा सकती

स्पष्टीकरण — “सार्वजनिक स्थान” में राज्य की संपत्ति, शिविर क्षेत्र तथा स्वास्थ्य या मनोरंजन हेतु छोड़ी गई खाली ज़मीन भी शामिल है।

 

धारा 153. आदेश का सेवा या सूचनाकरण – Service or notification of order

(1) यदि संभव हो, तो जिस व्यक्ति के विरुद्ध आदेश जारी किया गया है, उसे यह आदेश समन की सेवा के नियमों के अनुसार व्यक्तिगत रूप से दिया जाएगा।

(2) यदि ऐसे आदेश की सेवा इस प्रकार नहीं की जा सकती, तो उसे राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार घोषणा द्वारा प्रकाशित किया जाएगा, और उसकी एक प्रति ऐसे स्थान या स्थानों पर चिपकाई जाएगी, जो उस व्यक्ति तक सूचना पहुँचाने के लिए सबसे उपयुक्त हों।

धारा 154. जिस व्यक्ति को आदेश दिया गया है, उसे आदेश का पालन करना या कारण प्रस्तुत करना होगा – Person to whom order is addressed to obey or show cause

जिस व्यक्ति के खिलाफ ऐसा आदेश जारी किया गया है, उसे—

(a) आदेश में निर्दिष्ट समय और तरीके से आदेश द्वारा निर्धारित कार्य करना होगा; या
(b) आदेश के अनुसार उपस्थित होकर आदेश के खिलाफ कारण प्रस्तुत करना होगा; और ऐसी उपस्थिति या सुनवाई ऑडियो-वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अनुमति दी जा सकती है।

धारा 155. धारा 154 का पालन न करने पर दण्ड – Penalty for failure to comply with section 154

यदि वह व्यक्ति, जिसके विरुद्ध धारा 154 के अंतर्गत आदेश जारी किया गया है, न तो उस कार्य को करता है और न ही उपस्थित होकर कारण प्रस्तुत करता है, तो उसे भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 223 में उल्लिखित दण्ड के लिए उत्तरदायी ठहराया जाएगा, और वह आदेश पूर्ण रूप से प्रभावी (अत्यवाची) घोषित कर दिया जाएगा

धारा 156. जब सार्वजनिक अधिकार के अस्तित्व से इनकार किया जाए तब प्रक्रिया – Procedure where existence of public right is denied

(1) जब किसी मार्ग, नदी, नाले या स्थान के सार्वजनिक उपयोग में अवरोध, उपद्रव या खतरे को रोकने के लिए धारा 152 के अंतर्गत कोई आदेश जारी किया जाता है, और उस आदेश के विरुद्ध व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होता है, तो मजिस्ट्रेट उससे यह पूछेगा कि क्या वह उस मार्ग, नदी, नाले या स्थान में सार्वजनिक अधिकार के अस्तित्व का इनकार करता है। यदि वह इनकार करता है, तो मजिस्ट्रेट, धारा 157 के अनुसार आगे कार्यवाही करने से पहले उस बात की जांच करेगा

(2) यदि जांच में मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि ऐसे इनकार के समर्थन में कोई विश्वसनीय साक्ष्य है, तो वह कार्यवाही को रोक देगा जब तक कि सक्षम न्यायालय उस सार्वजनिक अधिकार के अस्तित्व के विषय में निर्णय नहीं दे देता। लेकिन यदि उसे ऐसा कोई विश्वसनीय साक्ष्य नहीं मिलता, तो वह धारा 157 के अनुसार कार्यवाही करेगा

(3) कोई व्यक्ति जो मजिस्ट्रेट द्वारा पूछे जाने पर सार्वजनिक अधिकार के अस्तित्व का इनकार नहीं करता, या जिसने ऐसा इनकार करने के बाद उसके समर्थन में कोई विश्वसनीय साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया, वह आगे की कार्यवाही में फिर से ऐसा इनकार नहीं कर सकेगा।

 

धारा 156. जब सार्वजनिक अधिकार के अस्तित्व से इनकार किया जाए तब प्रक्रिया – Procedure where existence of public right is denied

(1) जब किसी मार्ग, नदी, नाले या स्थान के सार्वजनिक उपयोग में अवरोध, उपद्रव या खतरे को रोकने के लिए धारा 152 के अंतर्गत कोई आदेश जारी किया जाता है, और उस आदेश के विरुद्ध व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होता है, तो मजिस्ट्रेट उससे यह पूछेगा कि क्या वह उस मार्ग, नदी, नाले या स्थान में सार्वजनिक अधिकार के अस्तित्व का इनकार करता है। यदि वह इनकार करता है, तो मजिस्ट्रेट, धारा 157 के अनुसार आगे कार्यवाही करने से पहले उस बात की जांच करेगा

(2) यदि जांच में मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि ऐसे इनकार के समर्थन में कोई विश्वसनीय साक्ष्य है, तो वह कार्यवाही को रोक देगा जब तक कि सक्षम न्यायालय उस सार्वजनिक अधिकार के अस्तित्व के विषय में निर्णय नहीं दे देता। लेकिन यदि उसे ऐसा कोई विश्वसनीय साक्ष्य नहीं मिलता, तो वह धारा 157 के अनुसार कार्यवाही करेगा

(3) कोई व्यक्ति जो मजिस्ट्रेट द्वारा पूछे जाने पर सार्वजनिक अधिकार के अस्तित्व का इनकार नहीं करता, या जिसने ऐसा इनकार करने के बाद उसके समर्थन में कोई विश्वसनीय साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया, वह आगे की कार्यवाही में फिर से ऐसा इनकार नहीं कर सकेगा।

धारा 157. जब धारा 152 के अंतर्गत आदेशित व्यक्ति कारण प्रस्तुत करने के लिए उपस्थित होता है तब की प्रक्रिया – Procedure where person against whom order is made under section 152 appears to show-cause

(1) यदि वह व्यक्ति, जिसके विरुद्ध धारा 152 के अंतर्गत आदेश दिया गया है, मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होता है और उस आदेश के विरुद्ध कारण प्रस्तुत करता है, तो मजिस्ट्रेट उस विषय में सम्मन-प्रकरण (summons-case) की तरह साक्ष्य ग्रहण करेगा

(2) यदि मजिस्ट्रेट यह संतुष्ट होता है कि आदेश उचित और उचित रूप से आवश्यक है, चाहे वह जैसा मूल रूप में था या जैसे वह संशोधित किया जाए, तो वह आदेश को जैसा है या आवश्यक संशोधन सहित पूर्ण रूप से प्रभावी (absolute) बना देगा

(3) यदि मजिस्ट्रेट ऐसा संतुष्ट नहीं होता, तो उस मामले में कोई आगे की कार्यवाही नहीं की जाएगी

उपबंध: इस धारा के अंतर्गत कार्यवाही को, जहाँ तक संभव हो, 90 दिनों की अवधि के भीतर पूर्ण कर लिया जाएगा, जिसे लिखित रूप में कारण दर्ज करके अधिकतम 120 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है

धारा 158. मजिस्ट्रेट को स्थानीय जांच कराने और विशेषज्ञ से परीक्षण कराने का अधिकार – Power of Magistrate to direct local investigation and examination of an expert

मजिस्ट्रेट, धारा 156 या धारा 157 के अंतर्गत जांच के प्रयोजन से—

(а) स्थानीय जांच (local investigation) कराने का निर्देश दे सकता है, जो किसी उपयुक्त व्यक्ति द्वारा की जाए जिसे वह उपयुक्त समझे; या
(б) किसी विशेषज्ञ (expert) को समन जारी करके परीक्षण के लिए बुला सकता है और उसका परीक्षण कर सकता है

धारा 159. मजिस्ट्रेट को लिखित निर्देश देने का अधिकार – Power of Magistrate to furnish written instructions, etc.

(1) जब मजिस्ट्रेट धारा 158 के अंतर्गत किसी व्यक्ति से स्थानीय जांच कराने का निर्देश देता है, तो वह—

(а) ऐसे व्यक्ति को आवश्यक मार्गदर्शन हेतु लिखित निर्देश दे सकता है;
(б) यह घोषित कर सकता है कि स्थानीय जांच के आवश्यक खर्चों का पूरा या कोई भाग कौन वहन करेगा

(2) ऐसे व्यक्ति की रिपोर्ट को मामले में साक्ष्य के रूप में पढ़ा जा सकता है

(3) जब मजिस्ट्रेट धारा 158 के अंतर्गत किसी विशेषज्ञ को समन जारी कर परीक्षण करता है, तो वह यह निर्देश दे सकता है कि ऐसे समन और परीक्षण का खर्च कौन देगा

धारा 160. आदेश के निरपेक्ष होने पर प्रक्रिया और अवज्ञा के परिणाम – Procedure on order being made absolute and consequences of disobedience

(1) जब कोई आदेश धारा 155 या धारा 157 के अंतर्गत निरपेक्ष (absolute) बना दिया जाता है, तो मजिस्ट्रेट उस व्यक्ति को जिसके विरुद्ध आदेश दिया गया था, उसकी सूचना देगा, और उससे यह भी कहेगा कि वह आदेश में निर्देशित कार्य निर्धारित समय सीमा में कर दे, और यह भी सूचित करेगा कि यदि उसने ऐसा नहीं किया तो उस पर भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 223 के अंतर्गत दंड लगाया जा सकता है

(2) यदि वह कार्य निर्धारित समय में नहीं किया जाता, तो मजिस्ट्रेट स्वयं उसे करवा सकता है, और उसे करवाने का खर्च उस व्यक्ति से निम्नलिखित तरीकों से वसूल सकता है

  • आदेश के तहत हटाई गई किसी इमारत, सामान या अन्य संपत्ति को बेचकर, या
  • ऐसे व्यक्ति की अन्य चल संपत्ति को जब्त कर बेचकर, चाहे वह संपत्ति उस मजिस्ट्रेट की स्थानीय सीमा में हो या बाहर।
    यदि वह संपत्ति किसी अन्य मजिस्ट्रेट की सीमा में है, तो इस प्रकार की बिक्री उसी मजिस्ट्रेट के प्रमाणन (endorsement) से की जा सकेगी।

(3) इस धारा के अंतर्गत ईमानदारी से किए गए किसी कार्य के संबंध में कोई वाद (case/suit) नहीं चलाया जा सकेगा

धारा 161. जांच लंबित रहने के दौरान निषेधाज्ञा – Injunction pending inquiry

(1) यदि कोई मजिस्ट्रेट धारा 152 के अंतर्गत आदेश देते समय यह माने कि जनता को गंभीर प्रकार के आसन्न (निकटवर्ती) खतरे या क्षति से बचाने के लिए तुरंत कदम उठाना आवश्यक है, तो वह ऐसी निषेधाज्ञा (injunction) जारी कर सकता है जो उस व्यक्ति पर लागू होगी जिसके विरुद्ध आदेश दिया गया है, ताकि जांच पूरी होने तक उस खतरे या क्षति को टाला या रोका जा सके

(2) यदि वह व्यक्ति तत्काल उस निषेधाज्ञा का पालन नहीं करता, तो मजिस्ट्रेट स्वयं या अपने आदेश से उचित उपाय कर सकता है ताकि ऐसे खतरे या क्षति को टाला जा सके या रोका जा सके।

(3) इस धारा के अंतर्गत मजिस्ट्रेट द्वारा सद्भावपूर्वक (good faith) किए गए किसी कार्य के लिए कोई वाद (मुकदमा) नहीं चलाया जा सकता।

धारा 162. मजिस्ट्रेट सार्वजनिक उपद्रव की पुनरावृत्ति या निरंतरता पर रोक लगा सकता है – Magistrate may prohibit repetition or Continuance of public nuisance

जिला मजिस्ट्रेट, उप-मंडल मजिस्ट्रेट, या कोई अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट अथवा पुलिस उपायुक्त, जिन्हें राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट द्वारा इस कार्य के लिए अधिकृत किया गया हो, किसी भी व्यक्ति को यह आदेश दे सकता है कि वह किसी सार्वजनिक उपद्रव (public nuisance) — जैसा कि भारतीय न्याय संहिता, 2023 या किसी विशेष अथवा स्थानीय विधि में परिभाषित है — की पुनरावृत्ति या निरंतरता न करे

धारा 163. उपद्रव या संभावित खतरे के आपात मामलों में आदेश जारी करने की शक्ति – Power to issue order in urgent cases of nuisance or apprehended danger

यदि जिला मजिस्ट्रेट, उप-मंडल मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार द्वारा विशेष रूप से अधिकृत कोई अन्य कार्यपालक मजिस्ट्रेट यह माने कि किसी मामले में कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार है और तत्काल रोकथाम या शीघ्र समाधान आवश्यक है, तो वह मामले के मुख्य तथ्यों को लिखित रूप में उल्लेख करते हुए और धारा 153 में वर्णित तरीके से सेवा कर, किसी व्यक्ति को यह निर्देश दे सकता है कि वह किसी विशेष कार्य से विरत रहे या अपने अधिकार या प्रबंधन में स्थित संपत्ति के संबंध में कोई विशेष व्यवस्था करे, यदि ऐसा निर्देश देने से किसी विधिपूर्वक नियोजित व्यक्ति को बाधा, असुविधा या क्षति से बचाया जा सके, या मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा को खतरे से, या सार्वजनिक शांति भंग होने, दंगा या झगड़े से बचा जा सके

(2) इस धारा के अंतर्गत आदेश, आपात स्थिति में, या जब उस व्यक्ति को समय पर नोटिस देना संभव न हो, तो एकतरफा (ex parte) भी पारित किया जा सकता है।

(3) ऐसा आदेश किसी व्यक्ति विशेष, या किसी विशेष स्थान या क्षेत्र में रहने वाले लोगों, या उस स्थान या क्षेत्र में आने-जाने वाली जनता को संबोधित किया जा सकता है।

(4) ऐसा कोई आदेश दो महीने से अधिक समय तक प्रभावी नहीं रहेगा, लेकिन यदि राज्य सरकार यह माने कि यह आदेश मानव जीवन, स्वास्थ्य या सुरक्षा की रक्षा, या दंगे अथवा झगड़े की रोकथाम के लिए आवश्यक है, तो वह अधिसूचना द्वारा ऐसे आदेश की अवधि अधिकतम छह महीने तक बढ़ा सकती है

(5) कोई भी मजिस्ट्रेट, स्वयं या किसी पीड़ित व्यक्ति के आवेदन पर, अपने द्वारा या अपने अधीनस्थ या पूर्ववर्ती मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश को निरस्त या संशोधित कर सकता है।

(6) राज्य सरकार भी, स्वतः या किसी पीड़ित व्यक्ति के आवेदन पर, प्रावधान (4) के तहत अपने द्वारा किए गए आदेश को निरस्त या संशोधित कर सकती है।

(7) जब उपधारा (5) या (6) के अंतर्गत आवेदन किया जाता है, तो मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार को आवेदनकर्ता को व्यक्तिगत रूप से या वकील के माध्यम से उपस्थित होकर अपनी बात रखने का शीघ्र अवसर देना होगा, और यदि आवेदन को पूरी तरह या आंशिक रूप से अस्वीकार किया जाए, तो कारणों को लिखित रूप में दर्ज करना अनिवार्य होगा

धारा 164. भूमि या जल से संबंधित विवाद जिसमें शांति भंग होने की संभावना हो, की प्रक्रिया – Procedure where dispute concerning land or water is likely to cause breach of peace

(1) जब कोई कार्यपालक मजिस्ट्रेट किसी पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट या अन्य सूचना के आधार पर यह संतुष्ट हो जाता है कि उसकी स्थानीय सीमा में भूमि, जल या उसकी सीमाओं से संबंधित कोई ऐसा विवाद है, जिससे शांति भंग होने की संभावना है, तो वह अपने इस संतोष के कारणों को लिखकर एक आदेश जारी करेगा, जिसमें संबंधित पक्षों को स्वयं या वकील के माध्यम से किसी निर्दिष्ट दिन और समय पर उपस्थित होकर यह बताने को कहा जाएगा कि विवादित संपत्ति पर वास्तविक कब्जा किसका है, इसके लिए वे अपने लिखित दावे प्रस्तुत करें।

(2) इस धारा में “भूमि या जल” का तात्पर्य भवन, बाजार, मत्स्य पालन, फसल या भूमि की उपज तथा ऐसे संपत्ति से प्राप्त किराया या मुनाफा से भी है।

(3) उक्त आदेश की एक प्रति संबंधित व्यक्ति को इस संहिता में समन की सेवा के अनुसार दी जाएगी, और कम से कम एक प्रति विवादित स्थान पर या उसके निकट किसी प्रमुख स्थान पर चिपकाकर प्रकाशित की जाएगी।

(4) मजिस्ट्रेट, किसी पक्ष के स्वामित्व या अधिकार के गुण-दोष पर विचार किए बिना, प्रस्तुत बयानों को पढ़ेगा, पक्षों को सुनेगा, उनके द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य को स्वीकार करेगा, और आवश्यकता होने पर अन्य साक्ष्य भी लेगा, तथा यदि संभव हो तो यह तय करेगा कि उसके द्वारा उपधारा (1) के अंतर्गत आदेश पारित करने की तिथि को किस पक्ष के पास विवादित संपत्ति का कब्जा था:
परंतु, यदि यह प्रतीत हो कि किसी पक्ष को आदेश की तिथि से दो माह पूर्व या उसके बाद, और आदेश की तिथि से पहले बलपूर्वक और अवैध रूप से कब्जे से हटाया गया था, तो मजिस्ट्रेट उसे ऐसा मान सकता है जैसे कि आदेश की तिथि को उसी का कब्जा था।

(5) इस धारा में ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी पक्ष या अन्य व्यक्ति को यह दिखाने से रोके कि ऐसा कोई विवाद अस्तित्व में नहीं है या कभी नहीं था। ऐसे में मजिस्ट्रेट अपना आदेश रद्द कर देगा और आगे की कार्यवाही रोक दी जाएगी, परंतु रद्दीकरण के अभाव में, उपधारा (1) के तहत किया गया मजिस्ट्रेट का आदेश अंतिम होगा।

(6) (a) यदि मजिस्ट्रेट यह तय करता है कि कोई एक पक्ष विवादित संपत्ति पर कब्जे में था या उपधारा (4) के प्रावधान के तहत ऐसा माना जाना चाहिए, तो वह आदेश जारी करेगा कि ऐसा पक्ष कब्जे का हकदार है जब तक उसे विधिक प्रक्रिया द्वारा बेदखल नहीं किया जाता, और ऐसे कब्जे में किसी प्रकार की बाधा डालने पर रोक लगाएगा, तथा यदि किसी पक्ष को बलपूर्वक हटाया गया था, तो उसे फिर से कब्जे में बहाल कर सकता है;
(b) इस उपधारा के तहत पारित आदेश को उपधारा (3) के अनुसार सेवा और प्रकाशन किया जाएगा।

(7) यदि कार्यवाही के दौरान किसी पक्ष की मृत्यु हो जाती है, तो मजिस्ट्रेट उसके कानूनी उत्तराधिकारी को पक्षकार बनाकर कार्यवाही जारी रखेगा। यदि यह तय करना आवश्यक हो कि कौन उत्तराधिकारी है, तो सभी दावेदारों को पक्षकार बनाया जाएगा।

(8) यदि मजिस्ट्रेट यह माने कि विवादित संपत्ति की कोई फसल या उत्पाद शीघ्र और प्राकृतिक क्षय के अधीन है, तो वह उसकी सुरक्षित देखभाल या बिक्री का आदेश दे सकता है, और जांच पूरी होने पर, उसका या उसकी बिक्री की राशि का निपटान जैसा उपयुक्त समझे, वैसा आदेश देगा।

(9) मजिस्ट्रेट, यदि आवश्यक समझे, तो किसी भी चरण पर, किसी पक्ष के आवेदन पर, गवाह को बुलाने या दस्तावेज/वस्तु प्रस्तुत करने हेतु समन जारी कर सकता है।

(10) इस धारा में ऐसा कुछ भी नहीं है जो धारा 126 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट की अन्य शक्तियों को प्रभावित करता हो।

धारा 165. विवादित विषय की जब्ती और प्रबंधक की नियुक्ति की शक्ति – Power to attach subject of dispute and to appoint receiver

(1) यदि मजिस्ट्रेट, धारा 164 की उप-धारा (1) के अंतर्गत आदेश पारित करने के बाद किसी भी समय यह माने कि मामला आपात स्थिति का है, या वह यह तय करे कि किसी भी पक्ष के पास ऐसा कब्जा नहीं था जैसा कि धारा 164 में वर्णित है, या वह यह तय करने में असमर्थ हो कि उस समय विवादित संपत्ति पर किस पक्ष का कब्जा था, तो वह विवादित विषय (संपत्ति) को जब्त कर सकता है जब तक कि कोई सक्षम सिविल न्यायालय यह तय न कर दे कि उसमें से किस पक्ष को कब्जे का अधिकार है
परंतु, यदि मजिस्ट्रेट को यह संतोष हो जाता है कि विवादित विषय के संबंध में अब शांति भंग होने की संभावना नहीं है, तो वह जब्ती को कभी भी वापस ले सकता है

(2) जब मजिस्ट्रेट किसी विषय को जब्त करता है, और यदि उस विवादित विषय के संबंध में कोई सिविल न्यायालय पहले से कोई प्रबंधक (receiver) नियुक्त नहीं कर चुका है, तो मजिस्ट्रेट ऐसी व्यवस्था कर सकता है जो उसे संपत्ति की देखभाल के लिए उचित लगे, या वह यदि उचित समझे तो एक प्रबंधक नियुक्त कर सकता है, जिसे मजिस्ट्रेट के नियंत्रण में रहकर सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत नियुक्त प्रबंधक जैसे सभी अधिकार प्राप्त होंगे।
परंतु, यदि बाद में किसी सिविल न्यायालय द्वारा उसी विवादित विषय के लिए कोई प्रबंधक नियुक्त किया जाता है, तो मजिस्ट्रेट—

(a) अपने द्वारा नियुक्त प्रबंधक को आदेश देगा कि वह संपत्ति का कब्जा सिविल न्यायालय द्वारा नियुक्त प्रबंधक को सौंप दे, और इसके पश्चात् अपने द्वारा नियुक्त प्रबंधक को मुक्त कर देगा;
(b) अन्य उचित और आनुषंगिक आदेश पारित कर सकेगा।

 

 

 

धारा 166. भूमि या जल के उपयोग के अधिकार से संबंधित विवाद – Dispute concerning right of use of land or water

(1) जब किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट को किसी पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट या किसी अन्य सूचना से यह संतोष होता है कि उसकी स्थानीय सीमा में किसी भूमि या जल के उपयोग के कथित अधिकार को लेकर कोई ऐसा विवाद है जिससे शांति भंग होने की संभावना है, तो वह एक लिखित आदेश देगा जिसमें ऐसा संतोष होने के कारणों का उल्लेख होगा, और विवाद से संबंधित पक्षों को आदेश देगा कि वे किसी निर्धारित दिन और समय पर स्वयं या अपने अधिवक्ता के माध्यम से उसके समक्ष उपस्थित हों और अपने-अपने दावे का लिखित विवरण प्रस्तुत करें।
व्याख्या—इस उप-धारा के प्रयोजनार्थ “भूमि या जल” की अभिव्यक्ति का वही अर्थ है जो धारा 164 की उप-धारा (2) में दिया गया है।

(2) मजिस्ट्रेट प्रस्तुत किए गए लिखित बयानों को पढ़ेगा, पक्षों की सुनवाई करेगा, उनके द्वारा प्रस्तुत सभी साक्ष्य को स्वीकार करेगा, उन साक्ष्यों का प्रभाव विचार करेगा, और यदि आवश्यक हो तो अतिरिक्त साक्ष्य भी लेगा और यदि संभव हो तो यह निर्णय करेगा कि ऐसा अधिकार अस्तित्व में है या नहीं; और इस जांच में, धारा 164 के प्रावधान यथासंभव लागू होंगे

(3) यदि मजिस्ट्रेट को प्रतीत होता है कि ऐसा अधिकार मौजूद है, तो वह ऐसे अधिकार के प्रयोग में किसी प्रकार के हस्तक्षेप पर रोक लगाने का आदेश दे सकता है, और उपयुक्त स्थिति में, ऐसे अधिकार के प्रयोग में आई किसी बाधा को हटाने का आदेश भी दे सकता है।
परंतु, ऐसा कोई आदेश तब नहीं दिया जाएगा जब—

  • वह अधिकार साल भर किसी भी समय प्रयोग करने योग्य हो, और ऐसा अधिकार पिछले तीन महीनों में (पुलिस रिपोर्ट या सूचना प्राप्त होने से पहले) वास्तव में प्रयोग में न लाया गया हो; या
  • यदि वह अधिकार केवल किसी विशेष मौसम में या विशेष अवसरों पर प्रयोग किया जाता हो, और ऐसा प्रयोग पिछले ऐसे मौसम या अवसर पर न किया गया हो।

(4) यदि किसी कार्यवाही की शुरुआत धारा 164 की उप-धारा (1) के अंतर्गत की गई हो और मजिस्ट्रेट को बाद में पता चलता है कि विवाद भूमि या जल के उपयोग के अधिकार से संबंधित है, तो वह कारण दर्ज करके कार्यवाही को इस धारा के अंतर्गत जारी रख सकता है
और यदि कोई कार्यवाही इस धारा की उप-धारा (1) के अंतर्गत शुरू की गई हो और मजिस्ट्रेट को प्रतीत हो कि विवाद को धारा 164 के अंतर्गत निपटाना चाहिए, तो वह कारण रिकॉर्ड करके कार्यवाही को धारा 164 की उप-धारा (1) के अंतर्गत माने और आगे बढ़ा सकता है।

 

धारा 167. स्थानीय जांच – Local inquiry

(1) जब धारा 164, धारा 165 या धारा 166 के प्रयोजन के लिए स्थानीय जांच आवश्यक हो, तो जिला मजिस्ट्रेट या उप-विभागीय मजिस्ट्रेट किसी अधीनस्थ मजिस्ट्रेट को जांच के लिए नियुक्त कर सकता है, और उसे लिखित निर्देश दे सकता है जो उसकी मार्गदर्शना के लिए आवश्यक प्रतीत हों, तथा यह घोषित कर सकता है कि जांच की आवश्यक लागत किसके द्वारा या किस अनुपात में वहन की जाएगी।

(2) ऐसे नियुक्त व्यक्ति की रिपोर्ट को मामले में साक्ष्य के रूप में पढ़ा जा सकता है

(3) जब किसी पक्ष द्वारा धारा 164, 165 या 166 के अंतर्गत कार्यवाही में कोई खर्च किया गया हो, तो निर्णय देने वाला मजिस्ट्रेट यह निर्देश दे सकता है कि ऐसे खर्च किसके द्वारा चुकाए जाएं — चाहे वह पक्ष जिसने खर्च किया, या कार्यवाही में शामिल कोई अन्य पक्ष — और पूरे या आंशिक या अनुपात के रूप में, और इन खर्चों में गवाहों के खर्च व वकील की फीस शामिल हो सकती है, यदि न्यायालय उन्हें उचित माने।

धारा 168. संज्ञेय अपराधों को रोकने के लिए पुलिस का कर्तव्य – Police to prevent cognizable offences

प्रत्येक पुलिस अधिकारी को यह अधिकार है कि वह किसी संज्ञेय अपराध को होने से रोकने के लिए हस्तक्षेप कर सकता है, और उसे अपनी सर्वोत्तम क्षमता अनुसार ऐसे किसी संज्ञेय अपराध की रोकथाम करनी चाहिए

धारा 169. संज्ञेय अपराध करने की योजना की सूचना

जब किसी पुलिस अधिकारी को यह सूचना प्राप्त होती है कि कोई व्यक्ति कोई संज्ञेय अपराध (जिसकी रिपोर्ट पर पुलिस बिना मजिस्ट्रेट की अनुमति के कार्रवाई कर सकती है) करने की योजना बना रहा है, तो वह पुलिस अधिकारी यह सूचना —
(i) उस पुलिस अधिकारी को देगा जिसके वह अधीनस्थ है, और
(ii) ऐसे किसी अन्य अधिकारी को भी देगा जिसका कर्तव्य है कि वह ऐसे अपराध को रोकने या उस पर संज्ञान लेने का कार्य करता है

धारा 170. संज्ञेय अपराधों की रोकथाम के लिए गिरफ़्तारी

(1) यदि किसी पुलिस अधिकारी को यह ज्ञात होता है कि कोई व्यक्ति कोई संज्ञेय अपराध करने की योजना बना रहा है, तो वह अधिकारी बिना मजिस्ट्रेट के आदेश और बिना वारंट के उस व्यक्ति को गिरफ़्तार कर सकता है, यदि उसे यह प्रतीत होता है कि अपराध को अन्य किसी उपाय से रोका नहीं जा सकता

(2) ऐसे किसी व्यक्ति को, जिसे उप-धारा (1) के तहत गिरफ़्तार किया गया हो, गिरफ़्तारी के समय से 24 घंटे से अधिक हिरासत में नहीं रखा जाएगा, जब तक कि उसे इस संहिता या किसी अन्य लागू कानून के किसी प्रावधान के अंतर्गत आगे हिरासत में रखना आवश्यक या अधिकृत न हो।

धारा 171. सार्वजनिक संपत्ति को हानि पहुँचाने की रोकथाम

कोई भी पुलिस अधिकारी अपनी स्वतः शक्ति से हस्तक्षेप कर सकता है यदि उसकी दृष्टि में कोई व्यक्ति किसी चल या अचल सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुँचाने का प्रयास कर रहा हो, या किसी सार्वजनिक सीमा-चिह्न (landmark), बाय (buoy) या नौवहन (navigation) में प्रयुक्त किसी अन्य चिह्न को हटाने या हानि पहुँचाने का प्रयास कर रहा हो

धारा 172. पुलिस के वैध निर्देशों का पालन करने के लिए बाध्यता

(1) सभी व्यक्तियों के लिए यह अनिवार्य है कि वे इस अध्याय के अंतर्गत पुलिस अधिकारी द्वारा उसके कर्तव्य की पूर्ति हेतु दिए गए वैध निर्देशों का पालन करें

(2) यदि कोई व्यक्ति ऐसे निर्देशों का विरोध करता है, अस्वीकार करता है, अनदेखा करता है या पालन नहीं करता, तो पुलिस अधिकारी उसे हिरासत में ले सकता है या वहाँ से हटा सकता है, और आवश्यक होने पर उसे मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, या यदि मामला छोटा हो तो 24 घंटे के भीतर यथाशीघ्र रिहा भी कर सकता है

धारा 173. संज्ञेय मामलों में सूचना

(1) किसी भी संज्ञेय अपराध से संबंधित सूचना, चाहे वह अपराध कहीं भी हुआ हो, किसी थाना प्रभारी को मौखिक या इलेक्ट्रॉनिक संप्रेषण के माध्यम से दी जा सकती है। यदि—

(i) मौखिक रूप से दी जाती है, तो उसे थाना प्रभारी स्वयं या उसके निर्देश पर लिखित रूप में दर्ज करेगा और सूचना देने वाले को पढ़कर सुनाएगा; फिर उस सूचना पर सूचना देने वाले का हस्ताक्षर लिया जाएगा।

(ii) इलेक्ट्रॉनिक रूप में दी जाती है, तो सूचना देने वाला व्यक्ति तीन दिनों के भीतर उस पर हस्ताक्षर करेगा, और थाना प्रभारी उसे दर्ज करेगा।

इस सूचना का सार एक रजिस्टर में दर्ज किया जाएगा, जिसे राज्य सरकार द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार रखा जाएगा।

प्रथम प्रावधान: यदि उक्त सूचना किसी महिला द्वारा दी गई हो, और उस पर भारतीय दंड संहिता, 2023 की धारा 64 से 71 या धारा 74 से 79 या धारा 124 के अंतर्गत कोई अपराध किया गया हो या करने का प्रयास हुआ हो, तो यह सूचना महिला पुलिस अधिकारी या किसी महिला अधिकारी द्वारा दर्ज की जाएगी

द्वितीय प्रावधान:
(a) यदि पीड़िता मानसिक या शारीरिक रूप से अस्थायी या स्थायी रूप से अक्षम हो, तो पुलिस अधिकारी उसकी सूचना उसके निवास स्थान पर या उसकी इच्छानुसार किसी उपयुक्त स्थान पर, और किसी दुभाषिया या विशेष शिक्षक की उपस्थिति में दर्ज करेगा;

(b) ऐसी सूचना को वीडियोग्राफ किया जाएगा;

(c) पुलिस अधिकारी को संभवतः शीघ्र ही मजिस्ट्रेट के समक्ष पीड़िता का बयान दर्ज कराना होगा, जैसा कि धारा 183(6)(a) में कहा गया है।

(2) सूचना की एक प्रति, बिना किसी शुल्क के, तुरंत सूचना देने वाले या पीड़ित को दी जाएगी।

(3) यदि कोई संज्ञेय अपराध, जो 3 वर्ष या अधिक परंतु 7 वर्ष से कम की सजा से दंडनीय है, की सूचना प्राप्त होती है, तो थाना प्रभारी को, उस अपराध की प्रकृति और गंभीरता को देखते हुए, उप पुलिस अधीक्षक (DSP) से पूर्व अनुमति लेकर निम्नलिखित में से कोई कार्यवाही करनी होगी—

(i) प्राथमिक जांच करना, ताकि यह पता चल सके कि मामला आगे बढ़ाने योग्य है या नहीं (यह जांच 14 दिनों के भीतर पूरी होनी चाहिए); या

(ii) यदि प्रथम दृष्टया मामला बनता है, तो सीधा जांच शुरू करना

(4) यदि कोई थाना प्रभारी उपधारा (1) के अंतर्गत सूचना दर्ज करने से इन्कार करता है, तो पीड़ित व्यक्ति उस सूचना का सार लिखित रूप से और डाक द्वारा संबंधित पुलिस अधीक्षक (SP) को भेज सकता है। यदि एसपी को लगता है कि वह सूचना संज्ञेय अपराध को दर्शाती है, तो वह या तो स्वयं जांच करेगा या अपने अधीनस्थ अधिकारी को जांच के लिए निर्देश देगा। ऐसा अधिकारी उस अपराध के संबंध में थाना प्रभारी के समान सभी अधिकार रखेगा। यदि ऐसा भी नहीं होता, तो पीड़ित व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष आवेदन कर सकता है

धारा 174. असंज्ञेय मामलों की सूचना तथा उनकी जांच

(1) जब किसी पुलिस थाना क्षेत्र की सीमा के भीतर किसी असंज्ञेय अपराध की सूचना थाना प्रभारी को दी जाती है, तो वह अधिकारी—

  • उस सूचना का सार एक रजिस्टर में दर्ज करेगा, जिसे राज्य सरकार द्वारा निर्धारित प्रपत्र में रखा जाएगा; और—

(i) सूचना देने वाले को मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा;
(ii) ऐसे सभी मामलों की दैनिक डायरी रिपोर्ट प्रत्येक पखवाड़े में मजिस्ट्रेट को भेजेगा

(2) कोई भी पुलिस अधिकारी असंज्ञेय अपराध की जांच नहीं कर सकता, जब तक कि किसी सक्षम मजिस्ट्रेट द्वारा, जो उस मामले की सुनवाई या विचारण कर सकता हो, उसके लिए आदेश न दिया गया हो

(3) ऐसा आदेश प्राप्त करने के पश्चात पुलिस अधिकारी जांच से संबंधित वैसे ही सभी अधिकारों का प्रयोग कर सकता है, जैसा कि कोई थाना प्रभारी किसी संज्ञेय अपराध के मामले में करता है, परंतु बिना वारंट के गिरफ्तारी का अधिकार नहीं होगा

(4) जब कोई मामला दो या अधिक अपराधों से संबंधित हो, जिनमें से कम से कम एक संज्ञेय हो, तो ऐसा मामला संज्ञेय माना जाएगा, भले ही अन्य अपराध असंज्ञेय हों।

धारा 175. पुलिस अधिकारी द्वारा संज्ञेय अपराध की जांच का अधिकार

(1) किसी पुलिस थाना प्रभारी को यह अधिकार है कि वह बिना मजिस्ट्रेट के आदेश के किसी भी संज्ञेय अपराध की जांच कर सकता है, जिसकी सुनवाई या जांच उस क्षेत्र की अधिकारिता रखने वाली न्यायालय द्वारा की जा सकती है, जैसा कि अध्याय XIV में उल्लेखित है:
परंतु, यदि अपराध की प्रकृति और गंभीरता को देखते हुए पुलिस अधीक्षक उपयुक्त समझे, तो वह उप पुलिस अधीक्षक से जांच करवा सकता है

(2) ऐसे किसी भी मामले में पुलिस अधिकारी की कार्यवाही को, इस आधार पर कि वह उस मामले की जांच करने के लिए अधिकृत नहीं था, किसी भी चरण पर प्रश्न में नहीं लाया जा सकेगा

(3) धारा 210 के अंतर्गत प्राधिकृत कोई मजिस्ट्रेट, धारा 173 की उप-धारा (4) के अंतर्गत शपथ-पत्र द्वारा समर्थित आवेदन को और पुलिस अधिकारी द्वारा की गई प्रस्तुतियों को ध्यान में रखते हुए, यदि आवश्यक हो तो जांच कर, इस धारा के अनुसार जांच का आदेश दे सकता है

(4) धारा 210 के अंतर्गत प्राधिकृत कोई मजिस्ट्रेट, यदि किसी लोक सेवक के विरुद्ध उसकी सरकारी ड्यूटी के दौरान उत्पन्न किसी घटना को लेकर शिकायत प्राप्त होती है, तो वह निम्न शर्तों के अधीन जांच का आदेश दे सकता है—

(a) उससे उच्च अधिकारी द्वारा दी गई घटना से संबंधित तथ्यों की रिपोर्ट प्राप्त करने के बाद; तथा
(b) लोक सेवक द्वारा उस स्थिति से संबंधित किए गए कथनों पर विचार करने के बाद, जिनके कारण वह घटना घटी बताई गई है।

धारा 176. जांच की प्रक्रिया

(1) यदि किसी पुलिस थाना प्रभारी को किसी सूचना से या अन्य किसी माध्यम से यह संदेह होता है कि कोई ऐसा अपराध घटित हुआ है जिसकी जांच वह धारा 175 के अंतर्गत करने का अधिकारी है, तो वह तत्काल उस अपराध की रिपोर्ट उस मजिस्ट्रेट को भेजेगा जो ऐसे अपराध की पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान लेने के लिए अधिकृत है, और स्वयं घटनास्थल पर जाकर या राज्य सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम पद से नीचे न हो, ऐसे किसी अधीनस्थ अधिकारी को भेजकर, मामले के तथ्यों और परिस्थितियों की जांच करेगा, और यदि आवश्यक हो तो अपराधी को पकड़ने और उसके बारे में जानकारी प्राप्त करने हेतु कदम उठाएगा:

परंतु

(a) यदि किसी व्यक्ति के विरुद्ध अपराध की जानकारी नाम लेकर दी गई हो और मामला गंभीर प्रकृति का न हो, तो थाना प्रभारी स्वयं या अपने किसी अधीनस्थ को घटनास्थल पर जांच के लिए भेजना आवश्यक नहीं होगा;

(b) यदि थाना प्रभारी को यह प्रतीत होता है कि जांच करने का कोई पर्याप्त आधार नहीं है, तो वह जांच नहीं करेगा:

और यह भी प्रदान किया गया है कि बलात्कार के अपराध के मामले में, पीड़िता का बयान उसके निवास स्थान पर या उसके द्वारा चुने गए स्थान पर, और जहाँ तक संभव हो महिला पुलिस अधिकारी द्वारा, उसके माता-पिता, अभिभावक, निकट संबंधी या क्षेत्र के किसी सामाजिक कार्यकर्ता की उपस्थिति में दर्ज किया जाएगा, और यह बयान ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम जैसे मोबाइल फोन आदि द्वारा भी रिकॉर्ड किया जा सकता है

(2) उप-धारा (1) के पहले प्रावधान की धाराओं (a) और (b) में वर्णित प्रत्येक मामले में, थाना प्रभारी को अपनी रिपोर्ट में यह कारण स्पष्ट रूप से बताना होगा कि उसने उस उप-धारा की आवश्यकताओं का पूरी तरह पालन क्यों नहीं किया, और प्रत्येक पंद्रह दिन में उसकी दैनिक डायरी रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजनी होगी। साथ ही (b) मामले में, उसे सूचना देने वाले व्यक्ति को तुरंत नियमानुसार सूचित करना होगा

(3) हर उस अपराध की सूचना मिलने पर, जो सात वर्ष या उससे अधिक के कारावास से दंडनीय है, थाना प्रभारी को राज्य सरकार द्वारा पांच वर्षों के भीतर अधिसूचित तिथि से, फॉरेंसिक विशेषज्ञ को अपराध स्थल पर बुलाकर सबूत जुटाने और संपूर्ण प्रक्रिया की वीडियो रिकॉर्डिंग मोबाइल फोन या अन्य किसी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण द्वारा करानी होगी:

परंतु, यदि किसी अपराध के संबंध में फॉरेंसिक सुविधा उपलब्ध नहीं है, तो जब तक राज्य में ऐसी सुविधा विकसित या सुलभ नहीं हो जाती, राज्य सरकार किसी अन्य राज्य की उपलब्ध सुविधा के उपयोग को अधिसूचित कर सकती है

धारा 177 – रिपोर्ट कैसे प्रस्तुत की जाए

(1) धारा 176 के अंतर्गत जो भी रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजी जाती है, वह रिपोर्ट, यदि राज्य सरकार ऐसा निर्देश देती है, तो उस पुलिस के उच्च अधिकारी के माध्यम से भेजी जाएगी जिसे राज्य सरकार सामान्य या विशेष आदेश द्वारा इसके लिए नियुक्त करेगी।

(2) वह उच्च अधिकारी, थाने के प्रभारी अधिकारी को अपनी आवश्यकता अनुसार निर्देश दे सकता है, और उन निर्देशों को रिपोर्ट पर दर्ज करने के बाद, रिपोर्ट को बिना देरी के मजिस्ट्रेट को भेज देगा।

धारा 178 – जांच या प्रारंभिक जांच करने की शक्ति

जब मजिस्ट्रेट को धारा 176 के तहत कोई रिपोर्ट प्राप्त होती है, तो वह जांच करने का निर्देश दे सकता है, या यदि वह उचित समझे, तो स्वयं ही तुरंत या किसी अधीनस्थ मजिस्ट्रेट को निर्देश देकर उस मामले में प्रारंभिक जांच करवा सकता है या अन्यथा इस संहिता में दिए गए तरीके से मामले का निपटारा कर सकता है।

धारा 179 – पुलिस अधिकारी द्वारा गवाहों की उपस्थिति हेतु शक्ति

(1) इस अध्याय के अंतर्गत जांच कर रहा कोई भी पुलिस अधिकारी, किसी ऐसे व्यक्ति को, जो उसके अपने थाना क्षेत्र या किसी आस-पास के थाना क्षेत्र में हो और जो उपलब्ध जानकारी या अन्य स्रोतों से उस मामले की परिस्थितियों से परिचित प्रतीत होता हो, एक लिखित आदेश के माध्यम से अपने समक्ष उपस्थित होने के लिए कह सकता है; और ऐसे व्यक्ति को वैसा ही करना होगा जैसा निर्देशित किया गया है:
परंतु यह शर्त है कि कोई भी पुरुष जिसकी आयु 15 वर्ष से कम या 60 वर्ष से अधिक है, या कोई महिला, या मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति, या कोई गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति को उसके निवास स्थान के अलावा किसी अन्य स्थान पर उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा:
परंतु यदि ऐसा व्यक्ति स्वेच्छा से थाने आने के लिए तैयार हो, तो उसे अनुमति दी जा सकती है।

 

(2) राज्य सरकार इस विषय में नियम बनाकर यह प्रावधान कर सकती है कि ऐसे किसी व्यक्ति को, जो अपने निवास स्थान के अलावा किसी अन्य स्थान पर उपस्थित होता है, उसके उचित खर्चे पुलिस अधिकारी द्वारा दिए जाएंगे।

धारा 180 – पुलिस द्वारा गवाहों से पूछताछ

(1) इस अध्याय के अंतर्गत जांच कर रहा कोई भी पुलिस अधिकारी, या ऐसा कोई अन्य पुलिस अधिकारी जो राज्य सरकार द्वारा सामान्य या विशेष आदेश से निर्धारित की गई न्यूनतम रैंक का हो, और उस जांच अधिकारी के अनुरोध पर कार्य कर रहा हो, किसी भी ऐसे व्यक्ति से मौखिक रूप से पूछताछ कर सकता है, जो उस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित माना जाता हो।

(2) ऐसा व्यक्ति उस अधिकारी द्वारा पूछे गए सभी प्रश्नों का सत्यपूर्वक उत्तर देने के लिए बाध्य होगा, बशर्ते कि ऐसे प्रश्न न हों, जिनके उत्तर देने से वह स्वयं किसी आपराधिक आरोप, दंड या संपत्ति की जब्ती के खतरे में आ जाए।

(3) पुलिस अधिकारी पूछताछ के दौरान दिए गए किसी भी बयान को लिखित रूप में दर्ज कर सकता है, और यदि वह ऐसा करता है, तो हर व्यक्ति का बयान अलग-अलग और सत्य रूप में दर्ज करेगा

प्रथम proviso: यह बयान ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भी रिकॉर्ड किया जा सकता है।

द्वितीय proviso: यदि बयान देने वाली महिला है, और उसके विरुद्ध भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 64 से 79 या 124 के अंतर्गत कोई अपराध किया गया है या करने का प्रयास हुआ है, तो उसका बयान किसी महिला पुलिस अधिकारी या अन्य महिला अधिकारी द्वारा ही दर्ज किया जाएगा।

धारा 181 – पुलिस को दिए गए बयान और उनका उपयोग

(1) इस अध्याय के अंतर्गत किसी जांच के दौरान किसी व्यक्ति द्वारा किसी पुलिस अधिकारी को दिया गया कोई भी बयान, यदि उसे लिखित रूप में लिया गया हो, तो उस पर बयान देने वाले से हस्ताक्षर नहीं करवाए जाएंगे; और ऐसा कोई भी बयान या उसका कोई रिकॉर्ड, चाहे वह पुलिस डायरी में हो या अन्य किसी रूप में, या उसका कोई भी हिस्सा, उस अपराध के संबंध में किसी पूछताछ या मुकदमे के दौरान उपयोग में नहीं लिया जा सकता, जब तक कि इस संहिता में आगे विशेष रूप से ऐसा प्रावधान न हो।

परन्तु, यदि अभियोजन पक्ष की ओर से कोई गवाह बुलाया जाता है, जिसका बयान उपर्युक्त प्रकार से लिखित रूप में लिया गया हो, तो उस बयान का कोई हिस्सा, यदि ठीक से सिद्ध हो गया हो, अभियुक्त द्वारा उस गवाह की गवाही का खंडन करने के लिए उपयोग में लिया जा सकता है, और न्यायालय की अनुमति से अभियोजन पक्ष भी उसका उपयोग कर सकता है। जब बयान का कोई भाग इस प्रकार उपयोग किया जाता है, तब गवाह की पुनः-जांच में भी उसका उपयोग किया जा सकता है, लेकिन केवल जिरह में उठाई गई बातों को स्पष्ट करने के उद्देश्य से।

(2) इस धारा में भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 26 के खंड (a) में आने वाले किसी भी बयान पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, और न ही यह धारा 23 की उप-धारा (2) के प्रावधान को प्रभावित करेगा।

व्याख्या: यदि किसी व्यक्ति ने अपने बयान में किसी महत्वपूर्ण तथ्य या परिस्थिति का उल्लेख नहीं किया, और वह तथ्य उस संदर्भ में महत्वपूर्ण तथा प्रासंगिक प्रतीत होता है, तो ऐसी चूक को विरोधाभास (contradiction) माना जा सकता है। और यह कि किसी विशेष संदर्भ में ऐसी चूक विरोधाभास है या नहीं, यह एक तथ्य का प्रश्न (question of fact) होगा।

धारा 182 – प्रलोभन नहीं दिया जाएगा

(1) कोई भी पुलिस अधिकारी या अन्य कोई सक्षम व्यक्ति भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 22 में वर्णित किसी भी प्रकार का प्रलोभन (inducement), धमकी (threat) या वादा (promise) न तो स्वयं देगा और न ही किसी अन्य के माध्यम से दिलवाएगा।

(2) लेकिन कोई भी पुलिस अधिकारी या अन्य व्यक्ति इस अध्याय के अंतर्गत होने वाली किसी जांच के दौरान, किसी व्यक्ति को स्वेच्छा से दिया जाने वाला कोई भी बयान देने से किसी चेतावनी या अन्य तरीके से नहीं रोकेगा

परंतुक: इस उप-धारा में कुछ भी ऐसा नहीं है जो धारा 183 की उप-धारा (4) के प्रावधानों को प्रभावित करता हो।

धारा 183 – इकबालिया बयान (Confession) और वक्तव्य (Statement) की रेकॉर्डिंग

(1) जिस ज़िले में किसी अपराध की सूचना दर्ज हुई है, वहाँ का कोई भी मजिस्ट्रेट (भले ही उसके पास मामले का अधिकार क्षेत्र न हो) जांच के दौरान या बाद में, लेकिन जांच या मुकदमे की कार्यवाही शुरू होने से पहले, किसी व्यक्ति द्वारा दिया गया इकबालिया बयान या कोई अन्य वक्तव्य रेकॉर्ड कर सकता है
प्रथम प्रावधान: ऐसा कोई भी इकबालिया बयान या वक्तव्य ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से, आरोपी के वकील की उपस्थिति में भी रिकॉर्ड किया जा सकता है।
द्वितीय प्रावधान: कोई भी पुलिस अधिकारी जिसे मजिस्ट्रेट के समान अधिकार दिए गए हों, इकबालिया बयान रिकॉर्ड नहीं कर सकता

(2) मजिस्ट्रेट को किसी व्यक्ति का इकबालिया बयान रिकॉर्ड करने से पहले उसे यह स्पष्ट रूप से समझाना होगा कि वह ऐसा बयान देने के लिए बाध्य नहीं है, और यदि वह देता है तो इसे उसके विरुद्ध सबूत के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। मजिस्ट्रेट को यह सुनिश्चित करना होगा कि बयान स्वेच्छा से दिया जा रहा है

(3) यदि व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष यह कहता है कि वह इकबालिया बयान नहीं देना चाहता, तो मजिस्ट्रेट उसे पुलिस हिरासत में भेजने की अनुमति नहीं देगा

(4) इकबालिया बयान को ऐसे रिकॉर्ड किया जाएगा जैसा धारा 316 में अभियुक्त की पूछताछ के लिए बताया गया है। बयान व्यक्ति से हस्ताक्षरित कराया जाएगा और मजिस्ट्रेट को नीचे यह मेमो लिखना होगा:

“मैंने (नाम) को समझाया कि वह इकबालिया बयान देने के लिए बाध्य नहीं है और यदि वह ऐसा करता है, तो इसे उसके विरुद्ध सबूत के रूप में उपयोग किया जा सकता है। मुझे विश्वास है कि यह बयान स्वेच्छा से दिया गया है। यह बयान मेरी उपस्थिति में लिया गया, पढ़कर सुनाया गया और व्यक्ति ने इसे सही बताया। यह उसके द्वारा कही गई बातों का पूर्ण और सत्य विवरण है।”

(हस्ताक्षर)
A.B.
मजिस्ट्रेट

(5) कोई भी ऐसा वक्तव्य (इकबालिया बयान नहीं) मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे तरीकों से रिकॉर्ड किया जाएगा, जैसा वह परिस्थितियों के अनुसार उचित समझे। मजिस्ट्रेट ऐसे व्यक्ति को शपथ दिला सकता है

(6)
(क) यदि मामला धारा 64 से 79 या धारा 124 (भारतीय न्याय संहिता, 2023) के अंतर्गत आता है, तो मजिस्ट्रेट को पीड़ित व्यक्ति का वक्तव्य उप-धारा (5) में बताए गए तरीके से तत्काल रिकॉर्ड करना होगा:

  • यथासंभव, महिला मजिस्ट्रेट द्वारा और यदि न हो तो पुरुष मजिस्ट्रेट द्वारा किसी महिला की उपस्थिति में
  • यदि अपराध 10 वर्ष या उससे अधिक की सजा, आजीवन कारावास या मृत्यु दंड वाला हो, तो गवाह का बयान अनिवार्य रूप से लिया जाएगा
  • यदि व्यक्ति मानसिक या शारीरिक रूप से अक्षम है, तो अनुवादक (Interpreter) या विशेष शिक्षक (Special Educator) की मदद ली जाएगी।
  • ऐसे मामलों में, बयान को ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम (जैसे मोबाइल फोन) से रिकॉर्ड किया जाएगा

(ख) यदि व्यक्ति मानसिक या शारीरिक रूप से अक्षम है, तो उसका बयान भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 142 के अनुसार मुख्य परीक्षण (Examination-in-chief) के स्थान पर माना जाएगा और उस व्यक्ति से केवल प्रतिपरीक्षण (Cross-examination) ही किया जाएगा; फिर से बयान लेने की आवश्यकता नहीं होगी

(7) जो मजिस्ट्रेट बयान या इकबालिया बयान रिकॉर्ड करता है, वह इसे उस मजिस्ट्रेट को भेजेगा जो इस मामले की जांच या सुनवाई करेगा।

धारा 184 – बलात्कार की शिकार महिला का चिकित्सकीय परीक्षण

(1) जब बलात्कार या बलात्कार के प्रयास के अपराध की जाँच चल रही हो, और यह प्रस्तावित हो कि उस महिला का चिकित्सकीय परीक्षण कराया जाए जिसके साथ बलात्कार हुआ हो या करने का प्रयास किया गया हो, तो यह परीक्षण सरकारी या स्थानीय प्राधिकरण द्वारा संचालित अस्पताल में कार्यरत पंजीकृत चिकित्सक (Registered Medical Practitioner) द्वारा किया जाएगा।
यदि ऐसा चिकित्सक उपलब्ध न हो, तो अन्य किसी पंजीकृत चिकित्सक द्वारा भी किया जा सकता है, लेकिन महिला की सहमति या उसके स्थान पर सक्षम व्यक्ति की सहमति से ही।
इस महिला को सूचना प्राप्त होने के 24 घंटे के भीतर चिकित्सकीय परीक्षण के लिए भेजा जाना आवश्यक है।

(2) पंजीकृत चिकित्सक बिना विलंब के महिला की जांच करेगा और अपनी रिपोर्ट में निम्नलिखित विवरण देगा:
(i) महिला का नाम और पता तथा उसे लाने वाले व्यक्ति का नाम और पता;
(ii) महिला की आयु;
(iii) DNA प्रोफाइलिंग के लिए लिए गए नमूनों का विवरण;
(iv) महिला के शरीर पर चोटों के निशान, यदि कोई हों;
(v) महिला की सामान्य मानसिक स्थिति;
(vi) अन्य प्रासंगिक विवरण, जो उचित रूप से दिए जा सकें।

(3) रिपोर्ट में प्रत्येक निष्कर्ष के पीछे सटीक कारण दिए जाएंगे।

(4) रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट रूप से दर्ज किया जाएगा कि जांच के लिए महिला या उसके स्थान पर सक्षम व्यक्ति की सहमति प्राप्त की गई थी

(5) परीक्षण की सटीक शुरूआत और समाप्ति का समय भी रिपोर्ट में लिखा जाएगा।

(6) पंजीकृत चिकित्सक को यह रिपोर्ट 7 दिनों के भीतर जांच अधिकारी को भेजनी होगी, और जांच अधिकारी इसे धारा 193 की उप-धारा (6) के खंड (a) में उल्लेखित दस्तावेजों के साथ मजिस्ट्रेट को भेजेगा।

(7) इस धारा में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे यह समझा जाए कि महिला की सहमति के बिना उसका चिकित्सकीय परीक्षण कानूनी रूप से वैध होगा।

व्याख्या: इस धारा में “चिकित्सकीय परीक्षण (examination)” और “पंजीकृत चिकित्सक (registered medical practitioner)” के वही अर्थ होंगे जो धारा 51 में दिए गए हैं।

धारा 186 – जब एक थाना प्रभारी दूसरे से तलाशी वारंट जारी करने का अनुरोध कर सकता है

(1) किसी थाने का प्रभारी अधिकारी या ऐसा पुलिस अधिकारी जो उप-निरीक्षक (sub-inspector) से नीचे के पद का न हो, यदि वह किसी मामले की जाँच कर रहा हो, तो वह किसी अन्य थाने के प्रभारी से — चाहे वह उसी जिले में हो या किसी अन्य जिले में — अनुरोध कर सकता है कि वह ऐसे स्थान की तलाशी कराए, जहाँ वह स्वयं अपनी थाना सीमा में तलाशी करवा सकता था।

(2) जब ऐसे अनुरोध के अनुसार कोई अधिकारी कार्य करता है, तो उसे धारा 185 के प्रावधानों के अनुसार कार्यवाही करनी होगी, और तलाशी में जो भी वस्तु मिले, उसे उस अधिकारी को भेजना होगा जिसने तलाशी का अनुरोध किया था।

(3) यदि ऐसा विश्वास करने का कारण हो कि दूसरे थाना क्षेत्र के प्रभारी अधिकारी को तलाशी का अनुरोध करने में देरी होने से अपराध के साक्ष्य छिपाए या नष्ट किए जा सकते हैं, तो ऐसा थाना प्रभारी या जाँचकर्ता अधिकारी स्वयं उस क्षेत्र में जाकर या किसी अन्य से तलाशी करवा सकता है जैसे कि वह स्थान उसी के थाना क्षेत्र में आता हो। यह तलाशी धारा 185 के अनुसार ही होगी।

(4) जब कोई अधिकारी उप-धारा (3) के अंतर्गत तलाशी करता है, तो वह तत्काल उस थाना क्षेत्र के प्रभारी अधिकारी को तलाशी की सूचना भेजेगा, जहाँ वह स्थान स्थित है। साथ ही, वह धारा 103 के अनुसार तैयार सूची (यदि कोई हो) और धारा 185 की उप-धाराओं (1) और (3) में उल्लिखित अभिलेखों की प्रति निकटतम मजिस्ट्रेट को भेजेगा, जो उस अपराध का संज्ञान लेने के लिए सक्षम हो।

(5) जिस स्थान का मालिक या कब्जाधारी हो, उसे मजिस्ट्रेट को भेजे गए अभिलेखों की प्रति आवेदन करने पर नि:शुल्क दी जाएगी

धारा 187 – जब जाँच 24 घंटे में पूरी नहीं हो सके तब की प्रक्रिया

(1) जब किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करके हिरासत में रखा गया हो और ऐसा लगे कि जाँच 24 घंटे के अंदर पूरी नहीं हो सकती (जैसा कि धारा 58 में निर्धारित है), और आरोप या सूचना सही प्रतीत हो, तो थाने का प्रभारी या वह पुलिस अधिकारी जो उप-निरीक्षक से नीचे के पद का न हो, मामले की डायरी से संबंधित प्रविष्टियों की प्रति निकटतम मजिस्ट्रेट को तुरंत भेजेगा और आरोपी को मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करेगा।

(2) मजिस्ट्रेट चाहे उस मामले की सुनवाई का अधिकार रखता हो या नहीं, आरोपी को हिरासत में लेने की अनुमति दे सकता है, अधिकतम 15 दिनों तक, चाहे एक बार में या भागों में। यह अवधि 60 या 90 दिन की कुल अधिकतम हिरासत में से पहले 40 या 60 दिन के भीतर होनी चाहिए, जैसा कि नीचे उप-धारा (3) में दिया गया है। यदि मजिस्ट्रेट को मामले की सुनवाई का अधिकार न हो और उसे आगे हिरासत की आवश्यकता न लगे, तो वह आरोपी को ऐसे मजिस्ट्रेट के पास भेज सकता है जिसके पास अधिकार है।

(3) मजिस्ट्रेट, यदि संतुष्ट हो कि और अधिक हिरासत जरूरी है, तो वह 15 दिन से आगे भी हिरासत की अनुमति दे सकता है, लेकिन कुल अवधि निम्न से अधिक नहीं हो सकती:

  • 90 दिन, यदि मामला ऐसा है जिसमें मृत्यु दंड, आजीवन कारावास या 10 वर्ष या उससे अधिक की सजा हो सकती है;
  • 60 दिन, यदि इससे कम सज़ायोग्य अपराध हो;
    इन अवधियों के बाद, यदि आरोपी जमानत देने को तैयार हो, तो उसे जमानत पर रिहा किया जाएगा और ऐसा माना जाएगा कि उसे धारा XXXV के तहत रिहा किया गया है।

(4) मजिस्ट्रेट आरोपी को पुलिस हिरासत में रखने की अनुमति तभी देगा, जब आरोपी को पहली बार और हर बार व्यक्तिगत रूप से उसके सामने प्रस्तुत किया जाए। लेकिन आगे की न्यायिक हिरासत की अवधि व्यक्तिगत रूप से या वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से बढ़ाई जा सकती है।

(5) द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट को जब तक उच्च न्यायालय द्वारा विशेष रूप से अधिकृत न किया गया हो, पुलिस हिरासत की अनुमति देने का अधिकार नहीं होगा

व्याख्या 1 – यदि उप-धारा (3) में निर्दिष्ट अवधि समाप्त हो गई है, तो जब तक आरोपी जमानत न दे, वह हिरासत में ही रहेगा

व्याख्या 2 – अगर यह प्रश्न उठे कि आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया गया था या नहीं, तो इसे आरोपी के हस्ताक्षर या मजिस्ट्रेट के प्रमाणित आदेश से सिद्ध किया जा सकता है।

पहला प्रावधान – यदि कोई महिला आरोपी 18 वर्ष से कम उम्र की है, तो उसकी हिरासत किसी रिमांड होम या मान्यता प्राप्त सामाजिक संस्था में की जाएगी।

दूसरा प्रावधान – किसी व्यक्ति को सिर्फ पुलिस स्टेशन, न्यायिक हिरासत (जेल) या केंद्र/राज्य सरकार द्वारा घोषित जेल में ही हिरासत में रखा जा सकता है

(6) यदि कोई मजिस्ट्रेट उपलब्ध न हो, तो थाना प्रभारी या उप-निरीक्षक रैंक का जांच अधिकारी निकटतम कार्यपालक मजिस्ट्रेट को डायरी की प्रति और आरोपी को भेज सकता है। कार्यपालक मजिस्ट्रेट, लिखित कारणों सहित, अधिकतम 7 दिन की हिरासत की अनुमति दे सकता है। यदि इस अवधि में न्यायिक मजिस्ट्रेट से आगे की हिरासत का आदेश नहीं लिया गया तो आरोपी को जमानत पर रिहा किया जाएगा। कार्यपालक मजिस्ट्रेट को डायरी प्रविष्टियाँ और अन्य अभिलेख न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजने होंगे।

(7) जो भी मजिस्ट्रेट पुलिस हिरासत की अनुमति देगा, उसे उसके कारणों को रिकॉर्ड करना होगा

(8) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को छोड़कर, अन्य मजिस्ट्रेटों द्वारा हिरासत का आदेश देने पर, उनके आदेश की प्रति और कारण मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजनी होगी

(9) यदि किसी समन-योग्य मामले में, गिरफ्तारी की तारीख से 6 महीने के भीतर जाँच पूरी नहीं होती, तो मजिस्ट्रेट को जाँच रोकने का आदेश देना होगा, जब तक कि जांच अधिकारी विशेष कारणों के आधार पर मजिस्ट्रेट को न मना ले कि न्यायहित में जाँच आगे जारी रहनी चाहिए।

(10) यदि उप-धारा (9) के तहत जाँच रोकने का आदेश दिया गया हो, तो सत्र न्यायाधीश, यदि उचित समझे, तो ऐसा आदेश रद्द कर सकता है और आगे की जाँच के निर्देश दे सकता है, जिसमें वह जमानत आदि से संबंधित शर्तें भी निर्धारित कर सकता है।

धारा 188 – अधीनस्थ पुलिस अधिकारी द्वारा जाँच की रिपोर्ट

जब कोई अधीनस्थ पुलिस अधिकारी इस अध्याय के अंतर्गत कोई जाँच करता है, तो वह उस जाँच के परिणाम की रिपोर्ट संबंधित थाने के प्रभारी अधिकारी को देगा

धारा 189 – जब साक्ष्य अपर्याप्त हों तो आरोपी को रिहा करना

यदि इस अध्याय के अंतर्गत की गई जांच के बाद थाना प्रभारी अधिकारी को यह प्रतीत होता है कि आरोपी को मजिस्ट्रेट के समक्ष भेजने के लिए पर्याप्त साक्ष्य या उचित संदेह के आधार नहीं हैं, तो यदि ऐसा व्यक्ति हिरासत में है, तो उसे उस अधिकारी द्वारा निर्देशित शर्तों पर एक बंधपत्र या जमानत बंधपत्र भरवाकर रिहा कर दिया जाएगा। इसमें यह शर्त होगी कि यदि और जब आवश्यकता हो, तो वह मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होगा, जो उस अपराध की पुलिस रिपोर्ट पर संज्ञान लेने और आरोपी का विचारण या अभियोजन के लिए प्रतिषेपण करने के लिए अधिकृत हो।

धारा 190 : पर्याप्त साक्ष्य होने पर मामला मजिस्ट्रेट के पास भेजा जाना – Cases to be sent to Magistrate, when evidence is sufficient

यदि इस अध्याय के अंतर्गत की गई जांच में थाना प्रभारी को यह प्रतीत होता है कि अपराध को साबित करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य या उचित कारण मौजूद हैं, तो वह आरोपी को हिरासत में लेकर उस मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत करेगा, जो पुलिस रिपोर्ट के आधार पर उस अपराध का संज्ञान लेकर उसे स्वयं विचारण कर सके या मुकदमे के लिए आगे भेज सके। यदि अपराध जमानती है और आरोपी जमानत देने में सक्षम है, तो वह अधिकारी उससे जमानत ले सकता है, जिससे आरोपी निश्चित दिन और मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित हो सके और तब तक उपस्थित रहे जब तक कोई अन्य निर्देश न दिया जाए।

** proviso (उपवाक्य) के अनुसार**, यदि आरोपी हिरासत में नहीं है, तो पुलिस अधिकारी उससे सुरक्षा लेकर मजिस्ट्रेट के समक्ष पेशी सुनिश्चित करेगा और मजिस्ट्रेट केवल इसलिए रिपोर्ट को अस्वीकार नहीं करेगा कि आरोपी को हिरासत में नहीं लाया गया।

(2) जब थाना प्रभारी आरोपी को मजिस्ट्रेट के पास भेजता है या उसकी पेशी हेतु जमानत लेता है, तो वह मजिस्ट्रेट को वे हथियार या अन्य वस्तुएं भी भेजेगा, जिन्हें पेश करना आवश्यक हो सकता है, और शिकायतकर्ता (यदि हो) एवं उन व्यक्तियों को भी, जो घटना की जानकारी रखते हों, मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होकर गवाही देने या अभियोजन के लिए बॉन्ड (प्रतिज्ञापत्र) भरवाएगा।

(3) यदि बॉन्ड में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (Chief Judicial Magistrate) की अदालत का उल्लेख हो, तो उसे ऐसा माना जाएगा कि वह अदालत उस किसी अन्य मजिस्ट्रेट की अदालत को भी शामिल करती है, जिसे वह मामला जांच या विचारण के लिए भेजे, यदि शिकायतकर्ता आदि को इसका उचित नोटिस दे दिया गया हो।

(4) बॉन्ड भरने के समय जो अधिकारी उपस्थित होगा, वह उसकी एक प्रति निष्पादक (executant) को देगा, और मूल प्रति के साथ रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को भेजेगा।

धारा 191 : शिकायतकर्ता और गवाह को पुलिस अधिकारी के साथ जाने या अनुचित प्रतिबंध सहने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा – Complainant and witnesses not to be required to accompany police officer and not to be subject to restraint

कोई भी शिकायतकर्ता या गवाह, जब वह किसी न्यायालय की ओर जा रहा हो, तो उसे किसी पुलिस अधिकारी के साथ जाने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा, और न ही उस पर कोई अनावश्यक प्रतिबंध या असुविधा डाली जाएगी, और न ही उससे उसके उपस्थिति के लिए कोई सुरक्षा माँगी जाएगी, सिवाय उसके अपने बांड के।

परंतु, यदि कोई शिकायतकर्ता या गवाह धारा 190 के तहत निर्देशानुसार उपस्थिति देने या बांड भरने से मना करता है, तो थाना प्रभारी उसे हिरासत में लेकर मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है, और मजिस्ट्रेट उसे तब तक हिरासत में रख सकता है जब तक वह ऐसा बांड भर नहीं देता या जब तक मुकदमे की सुनवाई पूरी नहीं हो जाती।

धारा 192 : जांच में कार्यवाही की डायरी – Diary of proceedings in investigation

(1) इस अध्याय के अंतर्गत जांच कर रहा प्रत्येक पुलिस अधिकारी जांच में की गई कार्यवाही को प्रतिदिन अपनी डायरी में दर्ज करेगा, जिसमें यह विवरण होगा कि सूचना उसे किस समय प्राप्त हुई, उसने जांच कब शुरू और कब समाप्त की, उसने किन स्थानों का दौरा किया, और जांच के दौरान उसे किन परिस्थितियों की जानकारी मिली

(2) धारा 180 के अंतर्गत जांच के दौरान दर्ज किए गए गवाहों के बयान केस डायरी में शामिल किए जाएंगे।

(3) उपधारा (1) में उल्लिखित डायरी एक संकलन (वॉल्यूम) होगी और विधिवत क्रमांकित (पेजिनेटेड) होगी।

(4) कोई भी आपराधिक न्यायालय उस मामले की पुलिस डायरी मंगवा सकता है जो उसके समक्ष विचाराधीन या परीक्षणाधीन है, और वह इन डायरियों का उपयोग साक्ष्य के रूप में नहीं, बल्कि जांच या परीक्षण में सहायता के लिए कर सकता है।

(5) अभियुक्त या उसके प्रतिनिधि ऐसी डायरियों की मांग नहीं कर सकते और न ही देखने के अधिकारी होंगे, केवल इस आधार पर कि न्यायालय ने उनका उल्लेख किया है; परंतु यदि उन डायरियों का उपयोग पुलिस अधिकारी द्वारा अपनी स्मृति ताज़ा करने के लिए किया जाए, या न्यायालय उनका उपयोग उक्त पुलिस अधिकारी के कथन का खंडन करने के लिए करे, तो भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 148 या 164 लागू होगी।

धारा 193 : जांच पूरी होने पर पुलिस अधिकारी की रिपोर्ट – Report of police officer on completion of investigation

(1) इस अध्याय के अंतर्गत की गई हर जांच अनावश्यक देरी के बिना पूरी की जाएगी

(2) भारतीय दंड संहिता, 2023 की धारा 64, 65, 66, 67, 68, 70, 71 या POCSO Act, 2012 की धारा 4, 6, 8 या 10 के तहत अपराधों से संबंधित जांच उस दिन से दो महीने के भीतर पूरी की जानी चाहिए, जिस दिन पुलिस थाने के प्रभारी अधिकारी द्वारा सूचना दर्ज की गई थी।

(3)
(i) जैसे ही जांच पूरी होती है, पुलिस स्टेशन का प्रभारी अधिकारी एक रिपोर्ट मजिस्ट्रेट को अग्रेषित करेगा (इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भी), जिसमें निम्नलिखित बिंदु होंगे—
(a) पक्षकारों के नाम;
(b) सूचना की प्रकृति;
(c) ऐसे व्यक्तियों के नाम जो मामले की परिस्थितियों से परिचित हैं;
(d) क्या कोई अपराध हुआ प्रतीत होता है और यदि हां, तो किसके द्वारा;
(e) क्या अभियुक्त को गिरफ़्तार किया गया है;
(f) क्या अभियुक्त को बांड या जमानत पर छोड़ा गया है;
(g) क्या अभियुक्त को धारा 190 के अंतर्गत हिरासत में भेजा गया है;
(h) यदि अपराध धारा 64 से 71 के अंतर्गत है, तो क्या महिला की चिकित्सीय जांच रिपोर्ट संलग्न की गई है;
(i) इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस की कस्टडी का क्रम;
(ii) पुलिस अधिकारी 90 दिन के भीतर जांच की प्रगति सूचित करेगा (पीड़िता या सूचनाकर्ता को किसी भी माध्यम से);
(iii) पुलिस अधिकारी, सूचना देने वाले व्यक्ति को की गई कार्रवाई की जानकारी भी देगा, जैसा कि राज्य सरकार नियमों द्वारा निर्धारित करे।

(4) यदि धारा 177 के अंतर्गत कोई उच्च अधिकारी नियुक्त किया गया है, तो राज्य सरकार के निर्देश अनुसार रिपोर्ट उसके माध्यम से भेजी जाएगी, और वह जांच अधिकारी को आगे जांच के निर्देश दे सकता है।

(5) यदि रिपोर्ट से प्रतीत होता है कि अभियुक्त को बांड या जमानत पर छोड़ा गया है, तो मजिस्ट्रेट उस बांड को समाप्त करने या अन्य उपयुक्त आदेश पारित करेगा।

(6) यदि रिपोर्ट धारा 190 के अंतर्गत आने वाले किसी मामले से संबंधित है, तो पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट को रिपोर्ट के साथ ये दस्तावेज भेजेगा—
(a) सभी दस्तावेज या अंश जिन पर अभियोजन पक्ष निर्भर करेगा,
(b) धारा 180 के अंतर्गत दर्ज गवाहों के बयान।

(7) यदि पुलिस अधिकारी का मानना है कि बयान का कोई भाग अप्रासंगिक है या अभियुक्त को देना न्यायहित में नहीं है, तो वह उस भाग को चिह्नित करके मजिस्ट्रेट से उसे प्रतियों से हटाने का अनुरोध कर सकता है।

(8) उप-धारा (7) के अधीन, पुलिस अधिकारी प्रारूपित पुलिस रिपोर्ट व दस्तावेजों की प्रतियां मजिस्ट्रेट को उपलब्ध कराएगा, ताकि अभियुक्त को धारा 230 के अनुसार आपूर्ति की जा सके।
प्रत्येक रिपोर्ट या दस्तावेज की इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से आपूर्ति को वैध माना जाएगा।

(9) इस धारा में कुछ भी ऐसा नहीं है जो यह रोक लगाए कि प्रारंभिक रिपोर्ट भेजे जाने के बाद भी आगे की जांच न की जाए। यदि आगे जांच में कोई नया मौखिक या दस्तावेजी साक्ष्य प्राप्त होता है, तो पुलिस अधिकारी उसे मजिस्ट्रेट को आगे की रिपोर्ट के रूप में भेजेगा।
(3) से (8) तक की सभी उप-धाराएं उस आगे की रिपोर्ट पर भी लागू होंगी।
शर्त यह है कि यदि मुकदमे के दौरान आगे की जांच होनी हो, तो न्यायालय की अनुमति से ही होगी और इसे 90 दिन में पूरा किया जाएगा, जिसे न्यायालय की अनुमति से बढ़ाया जा सकता है।

धारा 194 : आत्महत्या आदि पर पुलिस द्वारा जांच और रिपोर्ट – Police to enquire and report on suicide, etc.

(1) जब किसी पुलिस थाना प्रभारी या राज्य सरकार द्वारा विशेष रूप से अधिकृत कोई अन्य पुलिस अधिकारी को यह सूचना मिलती है कि किसी व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली है, या किसी अन्य व्यक्ति, पशु, मशीनरी या दुर्घटना द्वारा उसकी मृत्यु हुई है, या उसकी मृत्यु ऐसे संदिग्ध परिस्थितियों में हुई है जिससे यह संदेह हो कि किसी अन्य व्यक्ति ने कोई अपराध किया है, तो वह अधिकारी तुरंत इसकी सूचना सबसे निकटस्थ कार्यपालक मजिस्ट्रेट को देगा जो इनक्वायरी (मृत्यु जांच) करने के लिए अधिकृत हो।

जब तक राज्य सरकार द्वारा बनाए गए किसी नियम या जिला/उपमंडलीय मजिस्ट्रेट के सामान्य या विशेष आदेश द्वारा अन्यथा निर्देशित न किया गया हो, तब तक वह अधिकारी मृतक के शव वाले स्थान पर जाएगा, और आसपास के दो या अधिक सम्मानित व्यक्तियों की उपस्थिति में जांच करेगा, तथा मृत्यु का स्पष्ट कारण बताते हुए रिपोर्ट तैयार करेगा, जिसमें शरीर पर पाई गई चोटों, हड्डी टूटने, खरोंच, या अन्य चोटों का विवरण दिया जाएगा और यह भी लिखा जाएगा कि ये निशान किस प्रकार, किस हथियार या यंत्र से लगे प्रतीत होते हैं

(2) यह रिपोर्ट संबंधित पुलिस अधिकारी और अन्य व्यक्तियों (जो इसमें सहमत हों) द्वारा हस्ताक्षरित की जाएगी और 24 घंटे के भीतर जिला मजिस्ट्रेट या उपमंडलीय मजिस्ट्रेट को भेजी जाएगी

(3) निम्नलिखित परिस्थितियों में शव को परीक्षण के लिए भेजा जाएगा—
(i) जब मामला किसी विवाहिता महिला की विवाह के सात वर्षों के भीतर आत्महत्या से संबंधित हो;
(ii) जब मामला ऐसी महिला की मृत्यु से संबंधित हो जिसकी मृत्यु विवाह के सात वर्षों के भीतर हुई हो और परिस्थितियां अपराध की आशंका उत्पन्न करती हों;
(iii) जब मामला ऐसी महिला की मृत्यु से संबंधित हो और उसके किसी रिश्तेदार द्वारा जांच की मांग की गई हो;
(iv) जब मृत्यु का कारण स्पष्ट न हो;
(v) या जब पुलिस अधिकारी को किसी अन्य कारण से आवश्यक प्रतीत हो।

इन स्थितियों में, राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियमों के अधीन, शव को परीक्षण हेतु निकटतम सिविल सर्जन या राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किसी योग्य चिकित्सक के पास भेजा जाएगा, बशर्ते मौसम और दूरी के कारण शव की सड़ने की संभावना न हो।

(4) मृत्यु जांच (inquest) करने के लिए अधिकृत मजिस्ट्रेट होंगे — कोई भी जिला मजिस्ट्रेट, उपमंडलीय मजिस्ट्रेट या राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट द्वारा विशेष रूप से अधिकृत कार्यपालक मजिस्ट्रेट

महत्वपूर्ण बिंदु:

  • महिला की विवाह के 7 वर्षों के भीतर मृत्यु विशेष रूप से संदेहास्पद मानी जाती है।
  • पुलिस द्वारा शव की जांच के साथ-साथ मजिस्ट्रेट को तुरंत सूचित करना अनिवार्य है।
  • आवश्यक होने पर शव को चिकित्सीय परीक्षण हेतु भेजना अनिवार्य है।

धारा 195 : व्यक्तियों को समन करने की शक्ति – Power to summon persons

(1) जो पुलिस अधिकारी धारा 194 के अंतर्गत कार्यवाही कर रहा है, वह लिखित आदेश द्वारा दो या अधिक व्यक्तियों को, जो मृतक के आस-पास के सम्मानित निवासी हों, तथा किसी अन्य व्यक्ति को जिसे मामले के तथ्यों की जानकारी हो, जांच के लिए समन भेज सकता है। ऐसा हर व्यक्ति इस समन का पालन करने और सभी प्रश्नों का सत्यता से उत्तर देने के लिए बाध्य होगा, सिवाय उन प्रश्नों के जिनके उत्तर उसे किसी अपराध के लिए दोषी ठहरा सकते हैं या उस पर दंड या ज़ब्ती का कारण बन सकते हैं।

यह भी प्रावधान है कि कोई पुरुष जिसकी आयु 15 वर्ष से कम या 60 वर्ष से अधिक हो, या कोई महिला, या मानसिक या शारीरिक रूप से विकलांग व्यक्ति, या गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति को उसके निवास स्थान के अतिरिक्त किसी अन्य स्थान पर आने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।
लेकिन यदि ऐसा व्यक्ति स्वयं पुलिस थाने आने व उत्तर देने को तैयार हो, तो उसे ऐसा करने की अनुमति दी जा सकती है।

(2) यदि तथ्यों से यह स्पष्ट नहीं होता कि कोई संज्ञेय अपराध हुआ है जिसके लिए धारा 190 लागू होती है, तो ऐसे व्यक्तियों को पुलिस अधिकारी द्वारा मजिस्ट्रेट की अदालत में उपस्थित होने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

धारा 196 : मृत्यु के कारणों की मजिस्ट्रेट द्वारा जांच – Inquiry by Magistrate into cause of death

(1) जब मामला धारा 194 की उप-धारा (3) के खंड (i) या (ii) में वर्णित प्रकृति का हो, तो निकटतम मजिस्ट्रेट जिसे जांच करने का अधिकार है, जांच करना आवश्यक होगा, और यदि धारा 194 की उप-धारा (1) में वर्णित अन्य किसी मामले में ऐसा हो, तो कोई भी ऐसा मजिस्ट्रेट जांच कर सकता है। यह जांच वह पुलिस अधिकारी की जांच के स्थान पर या उसके अतिरिक्त कर सकता है। इस जांच को करते समय, मजिस्ट्रेट के पास वही शक्तियाँ होंगी जो किसी अपराध की जांच करते समय होती हैं।

(2) यदि—
(क) कोई व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त होता है या लापता हो जाता है; या
(ख) किसी महिला के साथ बलात्कार हुआ है या बलात्कार का आरोप है, जब वह महिला या व्यक्ति पुलिस की हिरासत में हो या किसी अन्य विधिक रूप से स्वीकृत हिरासत में हो,
तो पुलिस द्वारा की गई जांच या विवेचना के अलावा मजिस्ट्रेट द्वारा अनिवार्य रूप से जांच की जाएगी, और यह मजिस्ट्रेट वही होगा जिसकी स्थानीय अधिकारिता में यह घटना हुई हो।

(3) जांच करने वाला मजिस्ट्रेट, प्रासंगिक परिस्थितियों के अनुसार, उसके द्वारा लिए गए साक्ष्यों को रिकॉर्ड करेगा

(4) यदि ऐसा मजिस्ट्रेट यह उपयुक्त समझे कि किसी पहले से दफनाए गए मृत व्यक्ति के शव की जांच जरूरी है, तो वह उस शव को निकालकर (उत्खनन करवा कर) जांच करवा सकता है।

(5) जहाँ भी यह जांच की जानी हो, मजिस्ट्रेट मृत व्यक्ति के परिचित परिजनों को (यदि नाम व पता ज्ञात हो) सूचना देगा और उन्हें जांच में उपस्थित रहने की अनुमति देगा

(6) जो मजिस्ट्रेट, कार्यपालक मजिस्ट्रेट या पुलिस अधिकारी उप-धारा (2) के अंतर्गत जांच कर रहा हो, वह मृत्यु के 24 घंटे के भीतर (जब तक कि कोई वैध कारण न हो जिसे लिखित रूप में रिकॉर्ड किया जाए), शव को निकटतम सिविल सर्जन या राज्य सरकार द्वारा नियुक्त योग्य चिकित्सक के पास परीक्षण हेतु भेजेगा

स्पष्टीकरण — इस धारा में “परिजन” का अर्थ है — माता-पिता, संतान, भाई, बहन और पति/पत्नी

 

धारा 197 : सामान्यतः जांच और विचारण का स्थान – Ordinary place of inquiry and trial

प्रत्येक अपराध की सामान्यतः उसी न्यायालय में जांच और विचारण किया जाएगा, जिसकी स्थानीय अधिकारिता में वह अपराध किया गया हो

 

धारा 198 : जांच या विचारण का स्थान – Place of inquiry or trial

जब किसी अपराध के संबंध में —
(a) यह निश्चित न हो कि वह किस क्षेत्र में किया गया; या
(b) वह दो क्षेत्रों में आंशिक रूप से किया गया हो; या
(c) वह लगातार चलने वाला अपराध हो, जो अनेक क्षेत्रों में जारी रहता हो; या
(d) वह अपराध अलग-अलग क्षेत्रों में की गई कई क्रियाओं से मिलकर बना हो,

तो ऐसे सभी मामलों में उस अपराध की जांच या विचारण किसी भी ऐसे न्यायालय में किया जा सकता है, जिसकी अधिकारिता उपरोक्त में से किसी एक क्षेत्र पर हो

धारा 199 : अपराध उस स्थान पर विचारणीय जहां कार्य किया गया हो या परिणाम उत्पन्न हुआ हो – Offence triable where act is done or consequence ensues

जब कोई कार्य किसी किए गए कृत्य और उससे उत्पन्न परिणाम के कारण अपराध बनता है, तो ऐसे अपराध की जांच या विचारण उस न्यायालय में की जा सकती है जिसकी स्थानीय अधिकारिता में वह कार्य किया गया हो या वह परिणाम उत्पन्न हुआ हो

धारा 200 : जिस स्थान पर अपराध किसी अन्य अपराध से संबंध के कारण बनता है, वहाँ विचारण का स्थान – Place of trial where act is an offence by reason of relation to other offence

जब कोई कार्य किसी अन्य कार्य से संबंध के कारण अपराध बनता है, और वह अन्य कार्य स्वयं भी अपराध हो या यदि करने वाला सक्षम होता तो वह अपराध होता, तो पहले उल्लिखित अपराध की जांच या विचारण उस न्यायालय में की जा सकती है जिसकी स्थानीय अधिकारिता में कोई भी एक कार्य किया गया हो

धारा 201 : कुछ अपराधों के मामलों में विचारण स्थान – Place of trial in case of certain offences

(1) डकैती, डकैती के साथ हत्या, डकैतों के गिरोह का सदस्य होना या हिरासत से भागना – ऐसे अपराध की जांच या विचारण उस न्यायालय में किया जा सकता है जहाँ अपराध हुआ हो या आरोपी पाया गया हो

(2) अपहरण या बलपूर्वक ले जाने का अपराध – उसकी जांच या विचारण उस न्यायालय में की जा सकती है जहाँ अपहरण हुआ हो, ले जाया गया हो, छुपाया गया हो या रोका गया हो

(3) चोरी, जबरन वसूली या डकैती का अपराध – विचारण उस न्यायालय में किया जा सकता है जहाँ अपराध हुआ हो या चुराई गई संपत्ति आरोपी या किसी अन्य व्यक्ति के पास हो जिसने उसे चुराई हुई संपत्ति जानते हुए रखा हो

(4) अपराधिक दुरुपयोग या आपराधिक न्यासभंग का अपराध – विचारण उस न्यायालय में किया जा सकता है जहाँ अपराध हुआ हो या संपत्ति प्राप्त, रखी गई हो या लौटाई जानी हो या उसका लेखा-जोखा देना हो

(5) चुराई हुई संपत्ति के कब्जे से संबंधित अपराध – विचारण उस न्यायालय में किया जा सकता है जहाँ अपराध हुआ हो या संपत्ति किसी व्यक्ति के पास हो जिसने उसे चुराई हुई संपत्ति जानते हुए रखा हो

धारा 202 : इलेक्ट्रॉनिक संचार, पत्र आदि के माध्यम से किए गए अपराध – Offences committed by means of electronic communications, letters, etc.

(1) यदि धोखाधड़ी किसी इलेक्ट्रॉनिक संचार, पत्र या दूरसंचार संदेश के माध्यम से की गई हो, तो उस अपराध की जांच या विचारण उस न्यायालय में किया जा सकता है जहाँ ऐसे संचार, पत्र या संदेश भेजे गए हों या प्राप्त किए गए हों; और यदि धोखाधड़ी द्वारा संपत्ति की बेईमानी से डिलीवरी करवाई गई हो, तो विचारण उस न्यायालय में किया जा सकता है जहाँ धोखा खाए व्यक्ति ने संपत्ति सौंपी हो या आरोपी ने उसे प्राप्त किया हो

(2) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 82 के अंतर्गत दंडनीय कोई भी अपराध उस न्यायालय में विचारणीय होगा जहाँ अपराध हुआ हो, या जहाँ अपराध करने वाला अपने पहले विवाह के जीवनसाथी के साथ अंतिम बार रहा हो, या जहाँ पहली पत्नी ने अपराध के बाद स्थायी निवास बना लिया हो

धारा 203 : यात्रा या समुद्र यात्रा के दौरान किया गया अपराध – Offence committed on journey or voyage

यदि कोई अपराध उस समय किया जाए जब जिस व्यक्ति द्वारा, जिसके विरुद्ध या जिस वस्तु के संबंध में अपराध किया गया है, वह यात्रा या समुद्री यात्रा कर रहा हो, तो उस अपराध की जांच या विचारण उस न्यायालय में की जा सकती है जिसकी स्थानीय अधिकारिता क्षेत्र से वह व्यक्ति या वस्तु उस यात्रा या समुद्री यात्रा के दौरान होकर गुजरी हो

धारा 204 : एक साथ विचारणीय अपराधों के लिए विचारण का स्थान – Place of trial for offences triable together

जब—

(क) किसी व्यक्ति द्वारा किए गए अपराध ऐसे हों कि उन्हें धारा 242, 243 या 244 के अंतर्गत एक ही मुकदमे में आरोपित और विचारित किया जा सकता हो, या
(ख) कई व्यक्तियों द्वारा किए गए अपराध ऐसे हों कि उन्हें धारा 246 के अंतर्गत एक साथ आरोपित और विचारित किया जा सकता हो,

तो ऐसे सभी अपराधों की जांच या विचारण किसी भी ऐसे न्यायालय द्वारा किया जा सकता है जो उन अपराधों में से किसी एक की जांच या विचारण के लिए सक्षम हो

धारा 205 : मामलों को विभिन्न सत्र संभागों में विचारण के लिए आदेश देने की शक्ति – Power to order cases to be tried in different sessions divisions

इस अध्याय की पूर्ववर्ती धाराओं में उल्लिखित प्रावधानों के बावजूद, राज्य सरकार यह निर्देश दे सकती है कि किसी जिले में विचारण के लिए भेजा गया कोई मामला या मामलों की कोई श्रेणी किसी भी सत्र संभाग में विचारित की जाए

परंतु, यह निर्देश उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान, इस संहिता या वर्तमान में प्रवर्तन में किसी अन्य विधि के अंतर्गत पूर्व में दिए गए किसी भी निर्देश के विरुद्ध नहीं होना चाहिए

धारा 206 : संदेह की स्थिति में जांच या विचारण का स्थान तय करने का अधिकार उच्च न्यायालय को – High Court to decide, in case of doubt, district where inquiry or trial shall take place

जब दो या अधिक न्यायालय किसी एक ही अपराध का संज्ञान ले लें और यह प्रश्न उत्पन्न हो कि उस अपराध की जांच या विचारण किस न्यायालय को करनी चाहिए, तो यह प्रश्न इस प्रकार तय किया जाएगा—

(क) यदि सभी न्यायालय एक ही उच्च न्यायालय के अधीन हैं, तो वह उच्च न्यायालय निर्णय करेगा;

(ख) यदि न्यायालय भिन्न-भिन्न उच्च न्यायालयों के अधीन हैं, तो वह उच्च न्यायालय निर्णय करेगा जिसकी अपीलीय आपराधिक अधिकारिता की स्थानीय सीमा में कार्यवाही सबसे पहले आरंभ हुई थी,

और उसके पश्चात उक्त अपराध से संबंधित अन्य सभी कार्यवाहियाँ बंद कर दी जाएंगी

धारा 207 : स्थानीय क्षेत्राधिकार से बाहर किए गए अपराध के लिए समन या वारंट जारी करने की शक्ति – Power to issue summons or warrant for offence committed beyond local jurisdiction

(1) जब प्रथम श्रेणी का किसी न्यायिक मजिस्ट्रेट को यह विश्वास करने का कारण हो कि उसकी स्थानीय अधिकारिता में कोई व्यक्ति, किसी ऐसे अपराध का अपराधी है जो उसने उस क्षेत्र के बाहर (भारत के भीतर या बाहर) किया है, और ऐसा अपराध धारा 197 से 205 या किसी अन्य लागू कानून के अंतर्गत उस क्षेत्र में विचारणीय नहीं है, लेकिन वह अपराध भारत में विचारणीय है, तो ऐसा मजिस्ट्रेट उस अपराध की जांच ऐसे कर सकता है जैसे वह अपराध उसकी स्थानीय सीमा में हुआ हो। वह उस व्यक्ति को पेश होने के लिए बाध्य कर सकता है, और उसे उस मजिस्ट्रेट के पास भेज सकता है जिसे उस अपराध का विचारण करने का अधिकार है, या यदि वह अपराध मृत्युदंड या आजीवन कारावास से दंडनीय नहीं है और आरोपी जमानत देने को तैयार है, तो वह मजिस्ट्रेट उससे उपस्थिति के लिए बंधपत्र या जमानत बंधपत्र ले सकता है

(2) यदि ऐसे अधिकार क्षेत्र वाले एक से अधिक मजिस्ट्रेट हों, और इस धारा के अंतर्गत कार्य कर रहा मजिस्ट्रेट यह निर्धारित न कर सके कि किस मजिस्ट्रेट के समक्ष उस व्यक्ति को भेजा जाए या उपस्थिति के लिए बाध्य किया जाए, तो मामला उच्च न्यायालय के आदेश के लिए भेजा जाएगा

धारा 208 : भारत के बाहर किया गया अपराध – Offence committed outside India

जब कोई अपराध भारत के बाहर किया गया हो—

(क) भारतीय नागरिक द्वारा, चाहे वह समुद्र में हो या कहीं और; या
(ख) ऐसे व्यक्ति द्वारा जो भारतीय नागरिक नहीं है, परंतु वह किसी भारत में पंजीकृत जहाज या विमान पर हो,

तो ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध उस अपराध के लिए ऐसे व्यवहार किया जा सकता है मानो वह अपराध भारत के भीतर उस स्थान पर किया गया हो जहाँ वह व्यक्ति पाया गया हो या जहाँ वह अपराध भारत में दर्ज हो

परंतु, इस अध्याय की किसी भी पूर्ववर्ती धारा के होते हुए भी, ऐसे किसी अपराध की जांच या विचारण भारत में तब तक नहीं की जाएगी जब तक कि केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति प्राप्त न हो

धारा 209 : भारत के बाहर किए गए अपराधों से संबंधित साक्ष्य की प्राप्ति – Receipt of evidence relating to offences committed outside India

जब किसी भारत के बाहर किए गए अपराध की जांच या विचारण धारा 208 के प्रावधानों के अंतर्गत किया जा रहा हो, तो केंद्र सरकार यदि उचित समझे, तो यह निर्देश दे सकती है कि—

उस क्षेत्र में या उसके लिए नियुक्त किसी न्यायिक अधिकारी अथवा भारत के किसी राजनयिक या वाणिज्यिक प्रतिनिधि के समक्ष भौतिक या इलेक्ट्रॉनिक रूप में दिए गए कथन (गवाही) या प्रस्तुत साक्ष्य (दस्तावेज या वस्तुएं) की प्रतिलिपियाँ,
उस न्यायालय द्वारा साक्ष्य के रूप में स्वीकार की जाएं,
जो उस मामले की जांच या विचारण कर रहा है, यदि वह न्यायालय उन विषयों पर साक्ष्य लेने के लिए आयोग जारी कर सकता हो जिनसे वे कथन या साक्ष्य संबंधित हैं।

धारा 210 : मजिस्ट्रेट द्वारा अपराध का संज्ञान लेना – Cognizance of offences by Magistrate

(1) इस अध्याय के प्रावधानों के अधीन, प्रथम श्रेणी का कोई भी मजिस्ट्रेट, और द्वितीय श्रेणी का कोई भी मजिस्ट्रेट जिसे उपधारा (2) के अंतर्गत विशेष रूप से अधिकृत किया गया हो, निम्न आधारों पर किसी अपराध का संज्ञान ले सकता है—

(क) ऐसी शिकायत प्राप्त होने पर, जिसमें अपराध को दर्शाने वाले तथ्य हों, जिसमें किसी विशेष विधि के अंतर्गत अधिकृत व्यक्ति द्वारा की गई शिकायत भी शामिल है;

(ख) ऐसे तथ्यात्मक पुलिस रिपोर्ट पर, जो किसी भी माध्यम (जैसे इलेक्ट्रॉनिक सहित) से प्रस्तुत की गई हो;

(ग) पुलिस अधिकारी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से सूचना प्राप्त होने पर, या स्वयं के ज्ञान के आधार पर, कि ऐसा अपराध किया गया है।

(2) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, किसी द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट को उन अपराधों के लिए संज्ञान लेने हेतु अधिकृत कर सकता है जिनकी जांच या विचारण करने की उसे विधिक क्षमता है

धारा 211 : अभियुक्त के आवेदन पर स्थानांतरण – Transfer on application of accused

जब कोई मजिस्ट्रेट धारा 210 की उपधारा (1) के खंड (ग) के अंतर्गत किसी अपराध का संज्ञान लेता है, तो साक्ष्य लेने से पहले अभियुक्त को यह सूचित किया जाएगा कि उसे यह अधिकार है कि मामला किसी अन्य मजिस्ट्रेट द्वारा जांचा या विचारित किया जाए

यदि अभियुक्त (या यदि एक से अधिक हों तो कोई भी अभियुक्त) उस मजिस्ट्रेट के समक्ष आगे की कार्यवाही पर आपत्ति करता है, तो मामला मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा निर्दिष्ट किसी अन्य मजिस्ट्रेट को स्थानांतरित कर दिया जाएगा

धारा 212 : मामलों को मजिस्ट्रेटों को सौंपना – Making over of cases to Magistrates

(1) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, किसी अपराध का संज्ञान लेने के बाद, उस मामले को किसी सक्षम अधीनस्थ मजिस्ट्रेट को जांच या विचारण हेतु सौंप सकता है

(2) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा इस प्रयोजन के लिए अधिकृत प्रथम श्रेणी का कोई मजिस्ट्रेट, किसी अपराध का संज्ञान लेने के बाद, उस मामले को जांच या विचारण हेतु ऐसे अन्य सक्षम मजिस्ट्रेट को सौंप सकता है, जिसे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ने सामान्य या विशेष आदेश द्वारा निर्दिष्ट किया हो, और इसके बाद वह मजिस्ट्रेट उस मामले की जांच या विचारण कर सकता है

धारा 213 : सत्र न्यायालय द्वारा अपराध का संज्ञान – Cognizance of offences by Court of Session

जब तक इस संहिता या किसी अन्य वर्तमान में प्रवर्तित विधि द्वारा विशेष रूप से अन्यथा न कहा गया हो, तब तक कोई भी सत्र न्यायालय किसी अपराध का संज्ञान एक प्रारंभिक अधिकार क्षेत्र वाले न्यायालय के रूप में तब तक नहीं ले सकता, जब तक कि वह मामला मजिस्ट्रेट द्वारा इस संहिता के अंतर्गत उसके पास विचारण हेतु प्रस्तुत न किया गया हो

धारा 214 : अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश द्वारा सौंपे गए मामलों का विचारण – Additional Sessions Judges to try cases made over to them

अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश उन मामलों का विचारण करेगा जो उस सत्र संभाग के सत्र न्यायाधीश द्वारा सामान्य या विशेष आदेश द्वारा उसे सौंपे जाएं, या जो उच्च न्यायालय द्वारा विशेष आदेश से विचारण के लिए निर्देशित किए जाएं

धारा 215 : लोक सेवकों के विधिक अधिकारों के अपमान, न्याय में बाधा डालने वाले अपराधों तथा न्यायालय में साक्ष्य रूप में दिए गए दस्तावेजों से संबंधित अपराधों के अभियोजन हेतु प्रावधान – Prosecution for contempt of lawful authority of public servants, for offences against public justice and for offences relating to documents given in evidence

(1) कोई भी न्यायालय संज्ञान नहीं लेगा—

(क)
(i) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 206 से 223 (धारा 209 को छोड़कर) के अंतर्गत दंडनीय किसी अपराध का; या
(ii) ऐसे अपराध के उकसावे या प्रयास का; या
(iii) ऐसे अपराध को करने की आपराधिक साजिश का,
जब तक कि संबंधित लोक सेवक, या वह लोक सेवक जिसे वह प्रशासनिक रूप से अधीनस्थ हो, या उसके द्वारा अधिकृत कोई अन्य लोक सेवक लिखित में शिकायत न करे

(ख)
(i) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 229 से 233, 236, 237, 242 से 248 और 267 में से किसी के अंतर्गत दंडनीय ऐसे अपराध का, जब वह किसी न्यायालय में या न्यायालय की कार्यवाही से संबंधित रूप में किया गया हो; या
(ii) धारा 336 की उपधारा (1) में वर्णित, या धारा 340 की उपधारा (2) या धारा 342 के अंतर्गत दंडनीय ऐसे अपराध का, जब वह किसी न्यायालय की कार्यवाही में प्रस्तुत या साक्ष्य के रूप में दिए गए दस्तावेज के संबंध में किया गया हो; या
(iii) उप-खंड (i) या (ii) में निर्दिष्ट अपराध का आपराधिक षड्यंत्र, प्रयास या उकसावा,
जब तक कि उस न्यायालय की लिखित शिकायत, या उसके द्वारा अधिकृत किसी अधिकारी, या उस न्यायालय के अधीनस्थ किसी अन्य न्यायालय की लिखित शिकायत न हो, प्राप्त न हो।

धारा 217 : राज्य के विरुद्ध अपराधों तथा उनके लिए आपराधिक षड्यंत्र के अभियोजन का प्रावधान – Prosecution for offences against State and for criminal conspiracy to commit such offence

(1) कोई न्यायालय निम्नलिखित मामलों में जब तक केंद्र सरकार या राज्य सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त न हो, तब तक संज्ञान नहीं लेगा

(क) भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अध्याय VII, धारा 196, धारा 299 या धारा 353 की उपधारा (1) के अंतर्गत दंडनीय कोई अपराध;
(ख) ऐसे अपराध को करने की आपराधिक षड्यंत्र;
(ग) धारा 47 में वर्णित उकसावे के ऐसे किसी भी रूप।

(2) कोई न्यायालय, जब तक केंद्र सरकार, राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति प्राप्त न हो, तब तक निम्नलिखित का संज्ञान नहीं लेगा—

(क) धारा 197 या धारा 353 की उपधारा (2) या (3) के अंतर्गत दंडनीय कोई अपराध;
(ख) ऐसे अपराध को करने की आपराधिक षड्यंत्र

(3) कोई न्यायालय धारा 61 की उपधारा (2) के अंतर्गत दंडनीय आपराधिक षड्यंत्र का संज्ञान नहीं लेगा, जब तक कि—

  • वह षड्यंत्र ऐसा न हो जो मृत्युदंड, आजीवन कारावास या दो वर्ष या उससे अधिक कठोर कारावास से दंडनीय अपराध करने के लिए किया गया हो; या
  • राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट ने लिखित रूप में कार्यवाही प्रारंभ करने के लिए सहमति न दी हो

परंतु, यदि षड्यंत्र धारा 215 के अंतर्गत आता है, तो ऐसी सहमति आवश्यक नहीं होगी।

(4) केंद्र सरकार या राज्य सरकार उपधारा (1) या (2) के अंतर्गत अनुमति देने से पहले, और जिला मजिस्ट्रेट उपधारा (2) के अंतर्गत अनुमति देने से पहले, तथा राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट उपधारा (3) के अंतर्गत सहमति देने से पहले, यह आदेश दे सकते हैं कि निरीक्षक रैंक से नीचे न होने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा प्रारंभिक जांच करवाई जाए; ऐसी स्थिति में उस पुलिस अधिकारी को धारा 174 की उपधारा (3) में वर्णित शक्तियाँ प्राप्त होंगी।

धारा 217 : राज्य के विरुद्ध अपराधों तथा उनके लिए आपराधिक षड्यंत्र के अभियोजन का प्रावधान – Prosecution for offences against State and for criminal conspiracy to commit such offence

(1) कोई न्यायालय निम्नलिखित मामलों में जब तक केंद्र सरकार या राज्य सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त न हो, तब तक संज्ञान नहीं लेगा

(क) भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अध्याय VII, धारा 196, धारा 299 या धारा 353 की उपधारा (1) के अंतर्गत दंडनीय कोई अपराध;
(ख) ऐसे अपराध को करने की आपराधिक षड्यंत्र;
(ग) धारा 47 में वर्णित उकसावे के ऐसे किसी भी रूप।

(2) कोई न्यायालय, जब तक केंद्र सरकार, राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट की पूर्व अनुमति प्राप्त न हो, तब तक निम्नलिखित का संज्ञान नहीं लेगा—

(क) धारा 197 या धारा 353 की उपधारा (2) या (3) के अंतर्गत दंडनीय कोई अपराध;
(ख) ऐसे अपराध को करने की आपराधिक षड्यंत्र

(3) कोई न्यायालय धारा 61 की उपधारा (2) के अंतर्गत दंडनीय आपराधिक षड्यंत्र का संज्ञान नहीं लेगा, जब तक कि—

  • वह षड्यंत्र ऐसा न हो जो मृत्युदंड, आजीवन कारावास या दो वर्ष या उससे अधिक कठोर कारावास से दंडनीय अपराध करने के लिए किया गया हो; या
  • राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट ने लिखित रूप में कार्यवाही प्रारंभ करने के लिए सहमति न दी हो

परंतु, यदि षड्यंत्र धारा 215 के अंतर्गत आता है, तो ऐसी सहमति आवश्यक नहीं होगी।

(4) केंद्र सरकार या राज्य सरकार उपधारा (1) या (2) के अंतर्गत अनुमति देने से पहले, और जिला मजिस्ट्रेट उपधारा (2) के अंतर्गत अनुमति देने से पहले, तथा राज्य सरकार या जिला मजिस्ट्रेट उपधारा (3) के अंतर्गत सहमति देने से पहले, यह आदेश दे सकते हैं कि निरीक्षक रैंक से नीचे न होने वाले पुलिस अधिकारी द्वारा प्रारंभिक जांच करवाई जाए; ऐसी स्थिति में उस पुलिस अधिकारी को धारा 174 की उपधारा (3) में वर्णित शक्तियाँ प्राप्त होंगी।

धारा 218 : न्यायाधीशों और लोक सेवकों का अभियोजन – Prosecution of Judges and public servants

(1) जब कोई व्यक्ति जो वर्तमान या पूर्व न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट या ऐसा लोक सेवक हो जिसे सरकार की अनुमति के बिना पद से नहीं हटाया जा सकता, उस पर यह आरोप हो कि उसने अपना आधिकारिक कार्य करते समय या ऐसा करते हुए प्रतीत होते हुए कोई अपराध किया है, तो, लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम, 2013 में अन्यथा प्रावधान के अलावा, न्यायालय तब तक उस अपराध का संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पूर्व अनुमति प्राप्त न हो

(क) यदि वह व्यक्ति केंद्र सरकार से संबंधित कार्यों से संबद्ध है या अपराध के समय संबद्ध था, तो अनुमति केंद्र सरकार से ली जाएगी;
(ख) यदि वह व्यक्ति राज्य सरकार से संबंधित कार्यों से संबद्ध है या अपराध के समय संबद्ध था, तो अनुमति राज्य सरकार से ली जाएगी।

पहला प्रावधान : यदि उपरोक्त (ख) श्रेणी का व्यक्ति वह अपराध उस समय करता है जब संविधान के अनुच्छेद 356(1) के अंतर्गत राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो, तो “राज्य सरकार” के स्थान पर “केंद्र सरकार” मानी जाएगी।

दूसरा प्रावधान : अनुमति हेतु आवेदन की प्राप्ति की तिथि से 120 दिन के भीतर सरकार को निर्णय लेना होगा, अन्यथा अनुमति स्वीकृत मानी जाएगी

तीसरा प्रावधान : यदि कोई लोक सेवक धारा 64, 65, 66, 68, 69, 70, 71, 74, 75, 76, 77, 78, 79, 143, 199 या 200 के अंतर्गत किसी अपराध का आरोपी हो, तो अनुमति आवश्यक नहीं होगी

(2) यदि कोई केंद्रीय सशस्त्र बल का सदस्य अपने आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में या ऐसा करते हुए प्रतीत होते हुए कोई अपराध करता है, तो न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक केंद्र सरकार से पूर्व अनुमति प्राप्त न हो

(3) राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा यह निर्देश दे सकती है कि उपधारा (2) के प्रावधान उन बलों के उन वर्गों पर भी लागू होंगे जो सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने हेतु तैनात हैं, और इसके बाद “केंद्र सरकार” के स्थान पर “राज्य सरकार” माना जाएगा

(4) परंतु, उपधारा (3) के बावजूद, यदि ऐसे बल का कोई सदस्य राज्य में राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद 356 के तहत) के दौरान अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए अपराध करता है, तो न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक केंद्र सरकार की पूर्व अनुमति प्राप्त न हो

(5) केंद्र या राज्य सरकार यह निर्धारित कर सकती है कि किसी न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट या लोक सेवक का अभियोजन किसके द्वारा, किस प्रकार से और किन अपराधों के लिए किया जाएगा, तथा यह भी निर्धारित कर सकती है कि विचारण किस न्यायालय में होगा

धारा 219 : विवाह से संबंधित अपराधों के अभियोजन का प्रावधान – Prosecution for offences against marriage

(1) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 81 से 84 (दोनों सहित) के अंतर्गत दंडनीय अपराध का कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा शिकायत न की गई हो

परंतु
(क) यदि पीड़ित बालक/बालिका, मंदबुद्धि, गंभीर रोग या अशक्तता से ग्रस्त हो, या ऐसी महिला हो जिसे स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार सार्वजनिक रूप से उपस्थित नहीं होना चाहिए, तो न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकता है
(ख) यदि पीड़ित पति है जो सशस्त्र बलों में कार्यरत है, और उसका कमांडिंग ऑफिसर यह प्रमाणित करता है कि उसे छुट्टी नहीं मिल सकती, तो पति द्वारा अधिकृत अन्य व्यक्ति (उपधारा 4 के अनुसार) उसकी ओर से शिकायत कर सकता है।
(ग) यदि धारा 82 के अंतर्गत पीड़ित पत्नी है, तो उसके माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, चाचा-चाची, या न्यायालय की अनुमति से रक्त, विवाह या दत्तक संबंधी अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकते हैं।

(2) उपधारा (1) के संदर्भ में, धारा 84 के अंतर्गत किसी अपराध में, केवल उस महिला का पति ही पीड़ित माना जाएगा, अन्य कोई नहीं।

(3) यदि उपबंध (क) के अंतर्गत, कोई व्यक्ति बालक या मंदबुद्धि व्यक्ति की ओर से शिकायत करना चाहता है, और वह अभिभावक नियुक्त नहीं है, तो यदि न्यायालय को ज्ञात हो कि कोई विधिवत नियुक्त अभिभावक मौजूद है, तो शिकायत स्वीकार करने से पहले न्यायालय उसे सूचना देगा और उसका पक्ष सुनने का अवसर देगा

(4) उपबंध (ख) के अंतर्गत पति द्वारा अधिकृत व्यक्ति की नियुक्ति—

  • लिखित में होनी चाहिए,
  • पति द्वारा हस्ताक्षरित या प्रमाणित होनी चाहिए,
  • इसमें यह उल्लेख हो कि पति को आरोपों की जानकारी है,
  • कमांडिंग ऑफिसर द्वारा प्रमाणित होनी चाहिए,
  • साथ ही यह प्रमाण पत्र संलग्न होना चाहिए कि पति को व्यक्तिगत रूप से शिकायत करने के लिए छुट्टी नहीं दी जा सकती

(5) ऐसा कोई दस्तावेज जो उपधारा (4) के प्रावधानों को पूरा करता है, और ऐसा कोई प्रमाण पत्र, जब तक विपरीत प्रमाण न दिया जाए, तब तक उसे प्रामाणिक माना जाएगा और साक्ष्य में स्वीकार किया जाएगा

(6) कोई न्यायालय धारा 64 के अंतर्गत अपराध (जहाँ पति अपनी पत्नी से तब शारीरिक संबंध बनाए जब वह अठारह वर्ष से कम उम्र की हो) का संज्ञान तभी लेगा जब वह अपराध किए जाने की तिथि से एक वर्ष के भीतर किया गया हो; एक वर्ष के बाद संज्ञान नहीं लिया जाएगा।

धारा 219 : विवाह से संबंधित अपराधों के अभियोजन का प्रावधान – Prosecution for offences against marriage

(1) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 81 से 84 (दोनों सहित) के अंतर्गत दंडनीय अपराध का कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा शिकायत न की गई हो

परंतु
(क) यदि पीड़ित बालक/बालिका, मंदबुद्धि, गंभीर रोग या अशक्तता से ग्रस्त हो, या ऐसी महिला हो जिसे स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार सार्वजनिक रूप से उपस्थित नहीं होना चाहिए, तो न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकता है
(ख) यदि पीड़ित पति है जो सशस्त्र बलों में कार्यरत है, और उसका कमांडिंग ऑफिसर यह प्रमाणित करता है कि उसे छुट्टी नहीं मिल सकती, तो पति द्वारा अधिकृत अन्य व्यक्ति (उपधारा 4 के अनुसार) उसकी ओर से शिकायत कर सकता है।
(ग) यदि धारा 82 के अंतर्गत पीड़ित पत्नी है, तो उसके माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, चाचा-चाची, या न्यायालय की अनुमति से रक्त, विवाह या दत्तक संबंधी अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकते हैं।

(2) उपधारा (1) के संदर्भ में, धारा 84 के अंतर्गत किसी अपराध में, केवल उस महिला का पति ही पीड़ित माना जाएगा, अन्य कोई नहीं।

(3) यदि उपबंध (क) के अंतर्गत, कोई व्यक्ति बालक या मंदबुद्धि व्यक्ति की ओर से शिकायत करना चाहता है, और वह अभिभावक नियुक्त नहीं है, तो यदि न्यायालय को ज्ञात हो कि कोई विधिवत नियुक्त अभिभावक मौजूद है, तो शिकायत स्वीकार करने से पहले न्यायालय उसे सूचना देगा और उसका पक्ष सुनने का अवसर देगा

(4) उपबंध (ख) के अंतर्गत पति द्वारा अधिकृत व्यक्ति की नियुक्ति—

  • लिखित में होनी चाहिए,
  • पति द्वारा हस्ताक्षरित या प्रमाणित होनी चाहिए,
  • इसमें यह उल्लेख हो कि पति को आरोपों की जानकारी है,
  • कमांडिंग ऑफिसर द्वारा प्रमाणित होनी चाहिए,
  • साथ ही यह प्रमाण पत्र संलग्न होना चाहिए कि पति को व्यक्तिगत रूप से शिकायत करने के लिए छुट्टी नहीं दी जा सकती

(5) ऐसा कोई दस्तावेज जो उपधारा (4) के प्रावधानों को पूरा करता है, और ऐसा कोई प्रमाण पत्र, जब तक विपरीत प्रमाण न दिया जाए, तब तक उसे प्रामाणिक माना जाएगा और साक्ष्य में स्वीकार किया जाएगा

(6) कोई न्यायालय धारा 64 के अंतर्गत अपराध (जहाँ पति अपनी पत्नी से तब शारीरिक संबंध बनाए जब वह अठारह वर्ष से कम उम्र की हो) का संज्ञान तभी लेगा जब वह अपराध किए जाने की तिथि से एक वर्ष के भीतर किया गया हो; एक वर्ष के बाद संज्ञान नहीं लिया जाएगा।

धारा 220 : भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 85 के अंतर्गत अपराधों का अभियोजन – Prosecution of offences under section 85 of Bharatiya Nyaya Sanhita, 2023

कोई न्यायालय धारा 85 के अंतर्गत दंडनीय किसी अपराध का संज्ञान तब तक नहीं लेगा,
जब तक कि—

  • ऐसे अपराध से संबंधित तथ्यात्मक पुलिस रिपोर्ट प्राप्त न हो,
    या
  • पीड़ित महिला स्वयं, या
  • उसके पिता, माता, भाई, बहन, या
  • उसके पिता या माता के भाई या बहन,
    या
  • न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति जो उससे रक्त, विवाह या दत्तक संबंध से जुड़ा हो, द्वारा की गई शिकायत प्राप्त न हो

 

 

धारा 219 : विवाह से संबंधित अपराधों के अभियोजन का प्रावधान – Prosecution for offences against marriage

(1) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 81 से 84 (दोनों सहित) के अंतर्गत दंडनीय अपराध का कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा शिकायत न की गई हो

परंतु
(क) यदि पीड़ित बालक/बालिका, मंदबुद्धि, गंभीर रोग या अशक्तता से ग्रस्त हो, या ऐसी महिला हो जिसे स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार सार्वजनिक रूप से उपस्थित नहीं होना चाहिए, तो न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकता है
(ख) यदि पीड़ित पति है जो सशस्त्र बलों में कार्यरत है, और उसका कमांडिंग ऑफिसर यह प्रमाणित करता है कि उसे छुट्टी नहीं मिल सकती, तो पति द्वारा अधिकृत अन्य व्यक्ति (उपधारा 4 के अनुसार) उसकी ओर से शिकायत कर सकता है।
(ग) यदि धारा 82 के अंतर्गत पीड़ित पत्नी है, तो उसके माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, चाचा-चाची, या न्यायालय की अनुमति से रक्त, विवाह या दत्तक संबंधी अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकते हैं।

(2) उपधारा (1) के संदर्भ में, धारा 84 के अंतर्गत किसी अपराध में, केवल उस महिला का पति ही पीड़ित माना जाएगा, अन्य कोई नहीं।

(3) यदि उपबंध (क) के अंतर्गत, कोई व्यक्ति बालक या मंदबुद्धि व्यक्ति की ओर से शिकायत करना चाहता है, और वह अभिभावक नियुक्त नहीं है, तो यदि न्यायालय को ज्ञात हो कि कोई विधिवत नियुक्त अभिभावक मौजूद है, तो शिकायत स्वीकार करने से पहले न्यायालय उसे सूचना देगा और उसका पक्ष सुनने का अवसर देगा

(4) उपबंध (ख) के अंतर्गत पति द्वारा अधिकृत व्यक्ति की नियुक्ति—

  • लिखित में होनी चाहिए,
  • पति द्वारा हस्ताक्षरित या प्रमाणित होनी चाहिए,
  • इसमें यह उल्लेख हो कि पति को आरोपों की जानकारी है,
  • कमांडिंग ऑफिसर द्वारा प्रमाणित होनी चाहिए,
  • साथ ही यह प्रमाण पत्र संलग्न होना चाहिए कि पति को व्यक्तिगत रूप से शिकायत करने के लिए छुट्टी नहीं दी जा सकती

(5) ऐसा कोई दस्तावेज जो उपधारा (4) के प्रावधानों को पूरा करता है, और ऐसा कोई प्रमाण पत्र, जब तक विपरीत प्रमाण न दिया जाए, तब तक उसे प्रामाणिक माना जाएगा और साक्ष्य में स्वीकार किया जाएगा

(6) कोई न्यायालय धारा 64 के अंतर्गत अपराध (जहाँ पति अपनी पत्नी से तब शारीरिक संबंध बनाए जब वह अठारह वर्ष से कम उम्र की हो) का संज्ञान तभी लेगा जब वह अपराध किए जाने की तिथि से एक वर्ष के भीतर किया गया हो; एक वर्ष के बाद संज्ञान नहीं लिया जाएगा।

धारा 220 : भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 85 के अंतर्गत अपराधों का अभियोजन – Prosecution of offences under section 85 of Bharatiya Nyaya Sanhita, 2023

कोई न्यायालय धारा 85 के अंतर्गत दंडनीय किसी अपराध का संज्ञान तब तक नहीं लेगा,
जब तक कि—

  • ऐसे अपराध से संबंधित तथ्यात्मक पुलिस रिपोर्ट प्राप्त न हो,
    या
  • पीड़ित महिला स्वयं, या
  • उसके पिता, माता, भाई, बहन, या
  • उसके पिता या माता के भाई या बहन,
    या
  • न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति जो उससे रक्त, विवाह या दत्तक संबंध से जुड़ा हो,

द्वारा की गई शिकायत प्राप्त न हो

धारा 221 : अपराध का संज्ञान – Cognizance of offence

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 67 के अंतर्गत दंडनीय किसी अपराध का कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पति-पत्नी के वैवाहिक संबंध होने की स्थिति में, पत्नी द्वारा पति के विरुद्ध शिकायत दर्ज न की गई हो और उस शिकायत में अपराध से संबंधित तथ्यों की प्रथमदृष्टया पुष्टि न हो जाए

धारा 219 : विवाह से संबंधित अपराधों के अभियोजन का प्रावधान – Prosecution for offences against marriage

(1) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 81 से 84 (दोनों सहित) के अंतर्गत दंडनीय अपराध का कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा शिकायत न की गई हो

परंतु
(क) यदि पीड़ित बालक/बालिका, मंदबुद्धि, गंभीर रोग या अशक्तता से ग्रस्त हो, या ऐसी महिला हो जिसे स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार सार्वजनिक रूप से उपस्थित नहीं होना चाहिए, तो न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकता है
(ख) यदि पीड़ित पति है जो सशस्त्र बलों में कार्यरत है, और उसका कमांडिंग ऑफिसर यह प्रमाणित करता है कि उसे छुट्टी नहीं मिल सकती, तो पति द्वारा अधिकृत अन्य व्यक्ति (उपधारा 4 के अनुसार) उसकी ओर से शिकायत कर सकता है।
(ग) यदि धारा 82 के अंतर्गत पीड़ित पत्नी है, तो उसके माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, चाचा-चाची, या न्यायालय की अनुमति से रक्त, विवाह या दत्तक संबंधी अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकते हैं।

(2) उपधारा (1) के संदर्भ में, धारा 84 के अंतर्गत किसी अपराध में, केवल उस महिला का पति ही पीड़ित माना जाएगा, अन्य कोई नहीं।

(3) यदि उपबंध (क) के अंतर्गत, कोई व्यक्ति बालक या मंदबुद्धि व्यक्ति की ओर से शिकायत करना चाहता है, और वह अभिभावक नियुक्त नहीं है, तो यदि न्यायालय को ज्ञात हो कि कोई विधिवत नियुक्त अभिभावक मौजूद है, तो शिकायत स्वीकार करने से पहले न्यायालय उसे सूचना देगा और उसका पक्ष सुनने का अवसर देगा

(4) उपबंध (ख) के अंतर्गत पति द्वारा अधिकृत व्यक्ति की नियुक्ति—

  • लिखित में होनी चाहिए,
  • पति द्वारा हस्ताक्षरित या प्रमाणित होनी चाहिए,
  • इसमें यह उल्लेख हो कि पति को आरोपों की जानकारी है,
  • कमांडिंग ऑफिसर द्वारा प्रमाणित होनी चाहिए,
  • साथ ही यह प्रमाण पत्र संलग्न होना चाहिए कि पति को व्यक्तिगत रूप से शिकायत करने के लिए छुट्टी नहीं दी जा सकती

(5) ऐसा कोई दस्तावेज जो उपधारा (4) के प्रावधानों को पूरा करता है, और ऐसा कोई प्रमाण पत्र, जब तक विपरीत प्रमाण न दिया जाए, तब तक उसे प्रामाणिक माना जाएगा और साक्ष्य में स्वीकार किया जाएगा

(6) कोई न्यायालय धारा 64 के अंतर्गत अपराध (जहाँ पति अपनी पत्नी से तब शारीरिक संबंध बनाए जब वह अठारह वर्ष से कम उम्र की हो) का संज्ञान तभी लेगा जब वह अपराध किए जाने की तिथि से एक वर्ष के भीतर किया गया हो; एक वर्ष के बाद संज्ञान नहीं लिया जाएगा।

धारा 220 : भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 85 के अंतर्गत अपराधों का अभियोजन – Prosecution of offences under section 85 of Bharatiya Nyaya Sanhita, 2023

कोई न्यायालय धारा 85 के अंतर्गत दंडनीय किसी अपराध का संज्ञान तब तक नहीं लेगा,
जब तक कि—

  • ऐसे अपराध से संबंधित तथ्यात्मक पुलिस रिपोर्ट प्राप्त न हो,
    या
  • पीड़ित महिला स्वयं, या
  • उसके पिता, माता, भाई, बहन, या
  • उसके पिता या माता के भाई या बहन,
    या
  • न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति जो उससे रक्त, विवाह या दत्तक संबंध से जुड़ा हो,

द्वारा की गई शिकायत प्राप्त न हो

धारा 221 : अपराध का संज्ञान – Cognizance of offence

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 67 के अंतर्गत दंडनीय किसी अपराध का कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पति-पत्नी के वैवाहिक संबंध होने की स्थिति में, पत्नी द्वारा पति के विरुद्ध शिकायत दर्ज न की गई हो और उस शिकायत में अपराध से संबंधित तथ्यों की प्रथमदृष्टया पुष्टि न हो जाए

धारा 222 : मानहानि के लिए अभियोजन – Prosecution for defamation

(1) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 356 के अंतर्गत दंडनीय मानहानि के अपराध का कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा शिकायत दर्ज न की जाए
परंतु, यदि पीड़ित व्यक्ति बालक/बालिका, मंदबुद्धि, बौद्धिक अक्षमता से ग्रस्त, रोग या दुर्बलता के कारण शिकायत करने में असमर्थ, या ऐसी महिला है जिसे स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार सार्वजनिक रूप से प्रकट नहीं होना चाहिए, तो न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकता है

(2) इस संहिता के किसी भी प्रावधान के बावजूद, यदि धारा 356 के अंतर्गत कोई अपराध निम्न व्यक्तियों के विरुद्ध उनके सार्वजनिक कर्तव्यों के निर्वहन से संबंधित रूप में किया गया हो, तो सत्र न्यायालय उस अपराध का संज्ञान सीधे ले सकता है, बशर्ते लोक अभियोजक द्वारा लिखित शिकायत प्रस्तुत की गई हो, और मजिस्ट्रेट द्वारा मामला प्रतिबंधित किए बिना—

  • भारत के राष्ट्रपति
  • भारत के उपराष्ट्रपति
  • राज्यपाल
  • केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासक
  • केंद्र या राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के मंत्री
  • या केंद्र/राज्य से संबंधित कार्यों से नियुक्त कोई अन्य लोक सेवक

(3) उपधारा (2) के अंतर्गत की गई हर शिकायत में आरोपित अपराध से संबंधित तथ्य, उसका स्वभाव, और ऐसे पर्याप्त विवरण होने चाहिए जिससे अभियुक्त को स्पष्ट सूचना मिल सके कि उस पर किस अपराध का आरोप है।

(4) उपधारा (2) के अंतर्गत लोक अभियोजक द्वारा कोई शिकायत तब तक नहीं की जाएगी जब तक पूर्व स्वीकृति प्राप्त न हो
(क) राज्य सरकार की, यदि—
(i) आरोपी राज्य का राज्यपाल या मंत्री है;
(ii) या कोई अन्य लोक सेवक जो राज्य के कार्यों से जुड़ा है;
(ख) केंद्र सरकार की, अन्य सभी मामलों में।

(5) सत्र न्यायालय उपधारा (2) के तहत तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि अपराध किए जाने की तारीख से छह महीने के भीतर शिकायत न की गई हो

(6) इस धारा में कुछ भी ऐसा नहीं होगा जिससे पीड़ित व्यक्ति द्वारा मजिस्ट्रेट के समक्ष स्वयं शिकायत दर्ज करने के अधिकार या मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे मामले का संज्ञान लेने की शक्ति पर कोई प्रभाव पड़े

धारा 219 : विवाह से संबंधित अपराधों के अभियोजन का प्रावधान – Prosecution for offences against marriage

(1) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 81 से 84 (दोनों सहित) के अंतर्गत दंडनीय अपराध का कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा शिकायत न की गई हो

परंतु
(क) यदि पीड़ित बालक/बालिका, मंदबुद्धि, गंभीर रोग या अशक्तता से ग्रस्त हो, या ऐसी महिला हो जिसे स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार सार्वजनिक रूप से उपस्थित नहीं होना चाहिए, तो न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकता है
(ख) यदि पीड़ित पति है जो सशस्त्र बलों में कार्यरत है, और उसका कमांडिंग ऑफिसर यह प्रमाणित करता है कि उसे छुट्टी नहीं मिल सकती, तो पति द्वारा अधिकृत अन्य व्यक्ति (उपधारा 4 के अनुसार) उसकी ओर से शिकायत कर सकता है।
(ग) यदि धारा 82 के अंतर्गत पीड़ित पत्नी है, तो उसके माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, चाचा-चाची, या न्यायालय की अनुमति से रक्त, विवाह या दत्तक संबंधी अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकते हैं।

(2) उपधारा (1) के संदर्भ में, धारा 84 के अंतर्गत किसी अपराध में, केवल उस महिला का पति ही पीड़ित माना जाएगा, अन्य कोई नहीं।

(3) यदि उपबंध (क) के अंतर्गत, कोई व्यक्ति बालक या मंदबुद्धि व्यक्ति की ओर से शिकायत करना चाहता है, और वह अभिभावक नियुक्त नहीं है, तो यदि न्यायालय को ज्ञात हो कि कोई विधिवत नियुक्त अभिभावक मौजूद है, तो शिकायत स्वीकार करने से पहले न्यायालय उसे सूचना देगा और उसका पक्ष सुनने का अवसर देगा

(4) उपबंध (ख) के अंतर्गत पति द्वारा अधिकृत व्यक्ति की नियुक्ति—

  • लिखित में होनी चाहिए,
  • पति द्वारा हस्ताक्षरित या प्रमाणित होनी चाहिए,
  • इसमें यह उल्लेख हो कि पति को आरोपों की जानकारी है,
  • कमांडिंग ऑफिसर द्वारा प्रमाणित होनी चाहिए,
  • साथ ही यह प्रमाण पत्र संलग्न होना चाहिए कि पति को व्यक्तिगत रूप से शिकायत करने के लिए छुट्टी नहीं दी जा सकती

(5) ऐसा कोई दस्तावेज जो उपधारा (4) के प्रावधानों को पूरा करता है, और ऐसा कोई प्रमाण पत्र, जब तक विपरीत प्रमाण न दिया जाए, तब तक उसे प्रामाणिक माना जाएगा और साक्ष्य में स्वीकार किया जाएगा

(6) कोई न्यायालय धारा 64 के अंतर्गत अपराध (जहाँ पति अपनी पत्नी से तब शारीरिक संबंध बनाए जब वह अठारह वर्ष से कम उम्र की हो) का संज्ञान तभी लेगा जब वह अपराध किए जाने की तिथि से एक वर्ष के भीतर किया गया हो; एक वर्ष के बाद संज्ञान नहीं लिया जाएगा।

धारा 220 : भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 85 के अंतर्गत अपराधों का अभियोजन – Prosecution of offences under section 85 of Bharatiya Nyaya Sanhita, 2023

कोई न्यायालय धारा 85 के अंतर्गत दंडनीय किसी अपराध का संज्ञान तब तक नहीं लेगा,
जब तक कि—

  • ऐसे अपराध से संबंधित तथ्यात्मक पुलिस रिपोर्ट प्राप्त न हो,
    या
  • पीड़ित महिला स्वयं, या
  • उसके पिता, माता, भाई, बहन, या
  • उसके पिता या माता के भाई या बहन,
    या
  • न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति जो उससे रक्त, विवाह या दत्तक संबंध से जुड़ा हो,

द्वारा की गई शिकायत प्राप्त न हो

धारा 221 : अपराध का संज्ञान – Cognizance of offence

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 67 के अंतर्गत दंडनीय किसी अपराध का कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पति-पत्नी के वैवाहिक संबंध होने की स्थिति में, पत्नी द्वारा पति के विरुद्ध शिकायत दर्ज न की गई हो और उस शिकायत में अपराध से संबंधित तथ्यों की प्रथमदृष्टया पुष्टि न हो जाए

धारा 222 : मानहानि के लिए अभियोजन – Prosecution for defamation

(1) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 356 के अंतर्गत दंडनीय मानहानि के अपराध का कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा शिकायत दर्ज न की जाए
परंतु, यदि पीड़ित व्यक्ति बालक/बालिका, मंदबुद्धि, बौद्धिक अक्षमता से ग्रस्त, रोग या दुर्बलता के कारण शिकायत करने में असमर्थ, या ऐसी महिला है जिसे स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार सार्वजनिक रूप से प्रकट नहीं होना चाहिए, तो न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकता है

(2) इस संहिता के किसी भी प्रावधान के बावजूद, यदि धारा 356 के अंतर्गत कोई अपराध निम्न व्यक्तियों के विरुद्ध उनके सार्वजनिक कर्तव्यों के निर्वहन से संबंधित रूप में किया गया हो, तो सत्र न्यायालय उस अपराध का संज्ञान सीधे ले सकता है, बशर्ते लोक अभियोजक द्वारा लिखित शिकायत प्रस्तुत की गई हो, और मजिस्ट्रेट द्वारा मामला प्रतिबंधित किए बिना—

  • भारत के राष्ट्रपति
  • भारत के उपराष्ट्रपति
  • राज्यपाल
  • केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासक
  • केंद्र या राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के मंत्री
  • या केंद्र/राज्य से संबंधित कार्यों से नियुक्त कोई अन्य लोक सेवक

(3) उपधारा (2) के अंतर्गत की गई हर शिकायत में आरोपित अपराध से संबंधित तथ्य, उसका स्वभाव, और ऐसे पर्याप्त विवरण होने चाहिए जिससे अभियुक्त को स्पष्ट सूचना मिल सके कि उस पर किस अपराध का आरोप है।

(4) उपधारा (2) के अंतर्गत लोक अभियोजक द्वारा कोई शिकायत तब तक नहीं की जाएगी जब तक पूर्व स्वीकृति प्राप्त न हो
(क) राज्य सरकार की, यदि—
(i) आरोपी राज्य का राज्यपाल या मंत्री है;
(ii) या कोई अन्य लोक सेवक जो राज्य के कार्यों से जुड़ा है;
(ख) केंद्र सरकार की, अन्य सभी मामलों में।

(5) सत्र न्यायालय उपधारा (2) के तहत तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि अपराध किए जाने की तारीख से छह महीने के भीतर शिकायत न की गई हो

(6) इस धारा में कुछ भी ऐसा नहीं होगा जिससे पीड़ित व्यक्ति द्वारा मजिस्ट्रेट के समक्ष स्वयं शिकायत दर्ज करने के अधिकार या मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे मामले का संज्ञान लेने की शक्ति पर कोई प्रभाव पड़े

धारा 223 : परिवादी का परीक्षण – Examination of complainant

(1) जब कोई मजिस्ट्रेट अपनी अधिकारिता में किसी शिकायत पर अपराध का संज्ञान लेता है, तो वह परिवादी तथा उपस्थित गवाहों का शपथपूर्वक परीक्षण करेगा, और उस परीक्षण का सार लेखबद्ध किया जाएगा, जिस पर परिवादी, गवाहों और मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे

परंतु

  • मजिस्ट्रेट अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिए बिना संज्ञान नहीं ले सकता
  • यदि शिकायत लिखित रूप में हो, और—
    (a) वह किसी लोक सेवक द्वारा अपने अधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में की गई हो, या
    (b) वह मामला धारा 212 के अंतर्गत किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंपा गया हो,
    तो मजिस्ट्रेट को परिवादी और गवाहों का परीक्षण करने की आवश्यकता नहीं है
  • यदि मजिस्ट्रेट ने धारा 212 के अंतर्गत किसी अन्य मजिस्ट्रेट को मामला सौंपने से पहले परीक्षण कर लिया हो, तो दूसरे मजिस्ट्रेट को पुनः परीक्षण करने की आवश्यकता नहीं है

(2) यदि किसी लोक सेवक के विरुद्ध यह आरोप हो कि उसने अपने अधिकारिक कार्य के दौरान कोई अपराध किया है, तो मजिस्ट्रेट तब तक शिकायत का संज्ञान नहीं लेगा जब तक
(क) उस लोक सेवक को घटना की स्थिति के बारे में अपना पक्ष रखने का अवसर न दिया जाए, और
(ख) उस लोक सेवक के उच्च अधिकारी से घटना के तथ्यों व परिस्थितियों की रिपोर्ट प्राप्त न हो जाए

 

धारा 219 : विवाह से संबंधित अपराधों के अभियोजन का प्रावधान – Prosecution for offences against marriage

(1) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 81 से 84 (दोनों सहित) के अंतर्गत दंडनीय अपराध का कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा शिकायत न की गई हो

परंतु
(क) यदि पीड़ित बालक/बालिका, मंदबुद्धि, गंभीर रोग या अशक्तता से ग्रस्त हो, या ऐसी महिला हो जिसे स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार सार्वजनिक रूप से उपस्थित नहीं होना चाहिए, तो न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकता है
(ख) यदि पीड़ित पति है जो सशस्त्र बलों में कार्यरत है, और उसका कमांडिंग ऑफिसर यह प्रमाणित करता है कि उसे छुट्टी नहीं मिल सकती, तो पति द्वारा अधिकृत अन्य व्यक्ति (उपधारा 4 के अनुसार) उसकी ओर से शिकायत कर सकता है।
(ग) यदि धारा 82 के अंतर्गत पीड़ित पत्नी है, तो उसके माता-पिता, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री, चाचा-चाची, या न्यायालय की अनुमति से रक्त, विवाह या दत्तक संबंधी अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकते हैं।

(2) उपधारा (1) के संदर्भ में, धारा 84 के अंतर्गत किसी अपराध में, केवल उस महिला का पति ही पीड़ित माना जाएगा, अन्य कोई नहीं।

(3) यदि उपबंध (क) के अंतर्गत, कोई व्यक्ति बालक या मंदबुद्धि व्यक्ति की ओर से शिकायत करना चाहता है, और वह अभिभावक नियुक्त नहीं है, तो यदि न्यायालय को ज्ञात हो कि कोई विधिवत नियुक्त अभिभावक मौजूद है, तो शिकायत स्वीकार करने से पहले न्यायालय उसे सूचना देगा और उसका पक्ष सुनने का अवसर देगा

(4) उपबंध (ख) के अंतर्गत पति द्वारा अधिकृत व्यक्ति की नियुक्ति—

  • लिखित में होनी चाहिए,
  • पति द्वारा हस्ताक्षरित या प्रमाणित होनी चाहिए,
  • इसमें यह उल्लेख हो कि पति को आरोपों की जानकारी है,
  • कमांडिंग ऑफिसर द्वारा प्रमाणित होनी चाहिए,
  • साथ ही यह प्रमाण पत्र संलग्न होना चाहिए कि पति को व्यक्तिगत रूप से शिकायत करने के लिए छुट्टी नहीं दी जा सकती

(5) ऐसा कोई दस्तावेज जो उपधारा (4) के प्रावधानों को पूरा करता है, और ऐसा कोई प्रमाण पत्र, जब तक विपरीत प्रमाण न दिया जाए, तब तक उसे प्रामाणिक माना जाएगा और साक्ष्य में स्वीकार किया जाएगा

(6) कोई न्यायालय धारा 64 के अंतर्गत अपराध (जहाँ पति अपनी पत्नी से तब शारीरिक संबंध बनाए जब वह अठारह वर्ष से कम उम्र की हो) का संज्ञान तभी लेगा जब वह अपराध किए जाने की तिथि से एक वर्ष के भीतर किया गया हो; एक वर्ष के बाद संज्ञान नहीं लिया जाएगा।

धारा 220 : भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 85 के अंतर्गत अपराधों का अभियोजन – Prosecution of offences under section 85 of Bharatiya Nyaya Sanhita, 2023

कोई न्यायालय धारा 85 के अंतर्गत दंडनीय किसी अपराध का संज्ञान तब तक नहीं लेगा,
जब तक कि—

  • ऐसे अपराध से संबंधित तथ्यात्मक पुलिस रिपोर्ट प्राप्त न हो,
    या
  • पीड़ित महिला स्वयं, या
  • उसके पिता, माता, भाई, बहन, या
  • उसके पिता या माता के भाई या बहन,
    या
  • न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति जो उससे रक्त, विवाह या दत्तक संबंध से जुड़ा हो,

द्वारा की गई शिकायत प्राप्त न हो

धारा 221 : अपराध का संज्ञान – Cognizance of offence

भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 67 के अंतर्गत दंडनीय किसी अपराध का कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पति-पत्नी के वैवाहिक संबंध होने की स्थिति में, पत्नी द्वारा पति के विरुद्ध शिकायत दर्ज न की गई हो और उस शिकायत में अपराध से संबंधित तथ्यों की प्रथमदृष्टया पुष्टि न हो जाए

धारा 222 : मानहानि के लिए अभियोजन – Prosecution for defamation

(1) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 356 के अंतर्गत दंडनीय मानहानि के अपराध का कोई भी न्यायालय तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि पीड़ित व्यक्ति द्वारा शिकायत दर्ज न की जाए
परंतु, यदि पीड़ित व्यक्ति बालक/बालिका, मंदबुद्धि, बौद्धिक अक्षमता से ग्रस्त, रोग या दुर्बलता के कारण शिकायत करने में असमर्थ, या ऐसी महिला है जिसे स्थानीय रीति-रिवाजों के अनुसार सार्वजनिक रूप से प्रकट नहीं होना चाहिए, तो न्यायालय की अनुमति से कोई अन्य व्यक्ति उसकी ओर से शिकायत कर सकता है

(2) इस संहिता के किसी भी प्रावधान के बावजूद, यदि धारा 356 के अंतर्गत कोई अपराध निम्न व्यक्तियों के विरुद्ध उनके सार्वजनिक कर्तव्यों के निर्वहन से संबंधित रूप में किया गया हो, तो सत्र न्यायालय उस अपराध का संज्ञान सीधे ले सकता है, बशर्ते लोक अभियोजक द्वारा लिखित शिकायत प्रस्तुत की गई हो, और मजिस्ट्रेट द्वारा मामला प्रतिबंधित किए बिना—

  • भारत के राष्ट्रपति
  • भारत के उपराष्ट्रपति
  • राज्यपाल
  • केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासक
  • केंद्र या राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के मंत्री
  • या केंद्र/राज्य से संबंधित कार्यों से नियुक्त कोई अन्य लोक सेवक

(3) उपधारा (2) के अंतर्गत की गई हर शिकायत में आरोपित अपराध से संबंधित तथ्य, उसका स्वभाव, और ऐसे पर्याप्त विवरण होने चाहिए जिससे अभियुक्त को स्पष्ट सूचना मिल सके कि उस पर किस अपराध का आरोप है।

(4) उपधारा (2) के अंतर्गत लोक अभियोजक द्वारा कोई शिकायत तब तक नहीं की जाएगी जब तक पूर्व स्वीकृति प्राप्त न हो
(क) राज्य सरकार की, यदि—
(i) आरोपी राज्य का राज्यपाल या मंत्री है;
(ii) या कोई अन्य लोक सेवक जो राज्य के कार्यों से जुड़ा है;
(ख) केंद्र सरकार की, अन्य सभी मामलों में।

(5) सत्र न्यायालय उपधारा (2) के तहत तब तक संज्ञान नहीं लेगा जब तक कि अपराध किए जाने की तारीख से छह महीने के भीतर शिकायत न की गई हो

(6) इस धारा में कुछ भी ऐसा नहीं होगा जिससे पीड़ित व्यक्ति द्वारा मजिस्ट्रेट के समक्ष स्वयं शिकायत दर्ज करने के अधिकार या मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे मामले का संज्ञान लेने की शक्ति पर कोई प्रभाव पड़े

धारा 223 : परिवादी का परीक्षण – Examination of complainant

(1) जब कोई मजिस्ट्रेट अपनी अधिकारिता में किसी शिकायत पर अपराध का संज्ञान लेता है, तो वह परिवादी तथा उपस्थित गवाहों का शपथपूर्वक परीक्षण करेगा, और उस परीक्षण का सार लेखबद्ध किया जाएगा, जिस पर परिवादी, गवाहों और मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे

परंतु

  • मजिस्ट्रेट अभियुक्त को सुनवाई का अवसर दिए बिना संज्ञान नहीं ले सकता
  • यदि शिकायत लिखित रूप में हो, और—
    (a) वह किसी लोक सेवक द्वारा अपने अधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में की गई हो, या
    (b) वह मामला धारा 212 के अंतर्गत किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंपा गया हो,
    तो मजिस्ट्रेट को परिवादी और गवाहों का परीक्षण करने की आवश्यकता नहीं है
  • यदि मजिस्ट्रेट ने धारा 212 के अंतर्गत किसी अन्य मजिस्ट्रेट को मामला सौंपने से पहले परीक्षण कर लिया हो, तो दूसरे मजिस्ट्रेट को पुनः परीक्षण करने की आवश्यकता नहीं है

(2) यदि किसी लोक सेवक के विरुद्ध यह आरोप हो कि उसने अपने अधिकारिक कार्य के दौरान कोई अपराध किया है, तो मजिस्ट्रेट तब तक शिकायत का संज्ञान नहीं लेगा जब तक
(क) उस लोक सेवक को घटना की स्थिति के बारे में अपना पक्ष रखने का अवसर न दिया जाए, और
(ख) उस लोक सेवक के उच्च अधिकारी से घटना के तथ्यों व परिस्थितियों की रिपोर्ट प्राप्त न हो जाए

धारा 224 : ऐसे मजिस्ट्रेट द्वारा प्रक्रिया जो मामले का संज्ञान लेने के लिए सक्षम नहीं है – Procedure by Magistrate not competent to take cognizance of case

यदि कोई शिकायत ऐसे मजिस्ट्रेट के पास की जाती है जो उस अपराध का संज्ञान लेने के लिए सक्षम नहीं है, तो वह—

(क) यदि शिकायत लिखित में हो, तो उसे उपयुक्त न्यायालय में प्रस्तुत करने के लिए वापस कर देगा, और उस पर उपयुक्त उल्लेख करेगा;

(ख) और यदि शिकायत लिखित में न हो, तो शिकायतकर्ता को उपयुक्त न्यायालय के पास जाने का निर्देश देगा

धारा 225 : प्रक्रिया जारी करने में विलंब – Postponement of issue of process

(1) कोई मजिस्ट्रेट, जिसे किसी अपराध की शिकायत प्राप्त हुई हो जिसका वह संज्ञान ले सकता है या जो उसे धारा 212 के अंतर्गत सौंपा गया हो, तो वह यदि उचित समझे, और यदि आरोपी उसकी अधिकारिता क्षेत्र से बाहर रहता हो, तो उसे अनिवार्य रूप से, प्रक्रिया जारी करने में विलंब कर सकता है और या तो—

  • स्वयं मामले की जांच कर सकता है,
  • या किसी पुलिस अधिकारी या अन्य उपयुक्त व्यक्ति से जांच करवा सकता है,
    ताकि यह निर्णय लिया जा सके कि कार्यवाही आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त आधार है या नहीं

परंतु, जांच का ऐसा आदेश निम्न स्थितियों में नहीं दिया जाएगा—
(क) जब यह प्रतीत होता है कि शिकायत किया गया अपराध विशेष रूप से सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है;
(ख) जब शिकायत किसी न्यायालय द्वारा नहीं की गई हो, और शिकायतकर्ता तथा उपस्थित गवाहों (यदि हों) को धारा 223 के अंतर्गत शपथ पर परीक्षा नहीं की गई हो

(2) उप-धारा (1) के अंतर्गत जांच में मजिस्ट्रेट यदि उचित समझे, तो गवाहों की शपथ पर गवाही ले सकता है
परंतु, यदि अपराध केवल सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय प्रतीत हो, तो वह शिकायतकर्ता को सभी गवाहों को प्रस्तुत करने और शपथ पर परीक्षा के लिए कहेगा

(3) यदि उप-धारा (1) के अंतर्गत जांच किसी पुलिस अधिकारी के अतिरिक्त व्यक्ति द्वारा की जाती है, तो उसे इस संहिता के अंतर्गत थाना प्रभारी को प्राप्त सभी शक्तियाँ प्राप्त होंगी, सिवाय बिना वारंट गिरफ्तारी की शक्ति के

धारा 225 : प्रक्रिया जारी करने में विलंब – Postponement of issue of process

(1) कोई मजिस्ट्रेट, जिसे किसी अपराध की शिकायत प्राप्त हुई हो जिसका वह संज्ञान ले सकता है या जो उसे धारा 212 के अंतर्गत सौंपा गया हो, तो वह यदि उचित समझे, और यदि आरोपी उसकी अधिकारिता क्षेत्र से बाहर रहता हो, तो उसे अनिवार्य रूप से, प्रक्रिया जारी करने में विलंब कर सकता है और या तो—

  • स्वयं मामले की जांच कर सकता है,
  • या किसी पुलिस अधिकारी या अन्य उपयुक्त व्यक्ति से जांच करवा सकता है,
    ताकि यह निर्णय लिया जा सके कि कार्यवाही आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त आधार है या नहीं

परंतु, जांच का ऐसा आदेश निम्न स्थितियों में नहीं दिया जाएगा—
(क) जब यह प्रतीत होता है कि शिकायत किया गया अपराध विशेष रूप से सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है;
(ख) जब शिकायत किसी न्यायालय द्वारा नहीं की गई हो, और शिकायतकर्ता तथा उपस्थित गवाहों (यदि हों) को धारा 223 के अंतर्गत शपथ पर परीक्षा नहीं की गई हो

(2) उप-धारा (1) के अंतर्गत जांच में मजिस्ट्रेट यदि उचित समझे, तो गवाहों की शपथ पर गवाही ले सकता है
परंतु, यदि अपराध केवल सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय प्रतीत हो, तो वह शिकायतकर्ता को सभी गवाहों को प्रस्तुत करने और शपथ पर परीक्षा के लिए कहेगा

(3) यदि उप-धारा (1) के अंतर्गत जांच किसी पुलिस अधिकारी के अतिरिक्त व्यक्ति द्वारा की जाती है, तो उसे इस संहिता के अंतर्गत थाना प्रभारी को प्राप्त सभी शक्तियाँ प्राप्त होंगी, सिवाय बिना वारंट गिरफ्तारी की शक्ति के

धारा 226 : शिकायत का निरसन – Dismissal of complaint

यदि मजिस्ट्रेट, शिकायतकर्ता और गवाहों के शपथ पर दिए गए कथनों (यदि कोई हों) तथा धारा 225 के अंतर्गत की गई जांच या अन्वेषण के परिणाम (यदि कोई हो) पर विचार करने के बाद यह मत बनाए कि आगे कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है, तो वह शिकायत को निरस्त कर देगा,

और ऐसे प्रत्येक मामले में वह अपने निर्णय के लिए संक्षेप में कारण दर्ज करेगा

धारा 225 : प्रक्रिया जारी करने में विलंब – Postponement of issue of process

(1) कोई मजिस्ट्रेट, जिसे किसी अपराध की शिकायत प्राप्त हुई हो जिसका वह संज्ञान ले सकता है या जो उसे धारा 212 के अंतर्गत सौंपा गया हो, तो वह यदि उचित समझे, और यदि आरोपी उसकी अधिकारिता क्षेत्र से बाहर रहता हो, तो उसे अनिवार्य रूप से, प्रक्रिया जारी करने में विलंब कर सकता है और या तो—

  • स्वयं मामले की जांच कर सकता है,
  • या किसी पुलिस अधिकारी या अन्य उपयुक्त व्यक्ति से जांच करवा सकता है,
    ताकि यह निर्णय लिया जा सके कि कार्यवाही आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त आधार है या नहीं

परंतु, जांच का ऐसा आदेश निम्न स्थितियों में नहीं दिया जाएगा—
(क) जब यह प्रतीत होता है कि शिकायत किया गया अपराध विशेष रूप से सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है;
(ख) जब शिकायत किसी न्यायालय द्वारा नहीं की गई हो, और शिकायतकर्ता तथा उपस्थित गवाहों (यदि हों) को धारा 223 के अंतर्गत शपथ पर परीक्षा नहीं की गई हो

(2) उप-धारा (1) के अंतर्गत जांच में मजिस्ट्रेट यदि उचित समझे, तो गवाहों की शपथ पर गवाही ले सकता है
परंतु, यदि अपराध केवल सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय प्रतीत हो, तो वह शिकायतकर्ता को सभी गवाहों को प्रस्तुत करने और शपथ पर परीक्षा के लिए कहेगा

(3) यदि उप-धारा (1) के अंतर्गत जांच किसी पुलिस अधिकारी के अतिरिक्त व्यक्ति द्वारा की जाती है, तो उसे इस संहिता के अंतर्गत थाना प्रभारी को प्राप्त सभी शक्तियाँ प्राप्त होंगी, सिवाय बिना वारंट गिरफ्तारी की शक्ति के

धारा 226 : शिकायत का निरसन – Dismissal of complaint

यदि मजिस्ट्रेट, शिकायतकर्ता और गवाहों के शपथ पर दिए गए कथनों (यदि कोई हों) तथा धारा 225 के अंतर्गत की गई जांच या अन्वेषण के परिणाम (यदि कोई हो) पर विचार करने के बाद यह मत बनाए कि आगे कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है, तो वह शिकायत को निरस्त कर देगा,

और ऐसे प्रत्येक मामले में वह अपने निर्णय के लिए संक्षेप में कारण दर्ज करेगा

धारा 227 : प्रक्रिया जारी करना – Issue of process

(1) यदि किसी अपराध का संज्ञान लेने वाले मजिस्ट्रेट की राय में कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार है, और मामला—

(क) समन प्रकरण हो, तो वह आरोपी को उपस्थित होने के लिए समन जारी करेगा;
(ख) वॉरंट प्रकरण हो, तो वह आरोपी को लाने या उपस्थित कराने हेतु वॉरंट या, यदि उचित समझे तो समन भी जारी कर सकता है, ताकि आरोपी उक्त मजिस्ट्रेट (या यदि वह सक्षम नहीं है तो किसी सक्षम मजिस्ट्रेट) के समक्ष निश्चित समय पर प्रस्तुत हो

परंतु, समन या वॉरंट इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से भी जारी किए जा सकते हैं

(2) उप-धारा (1) के अंतर्गत जब तक अभियोजन पक्ष के गवाहों की सूची दायर नहीं की जाती, तब तक आरोपी के विरुद्ध समन या वॉरंट जारी नहीं किया जाएगा

(3) यदि लिखित शिकायत पर कार्यवाही प्रारंभ की गई हो, तो उप-धारा (1) के तहत जारी किया गया प्रत्येक समन या वॉरंट उस शिकायत की प्रति के साथ भेजा जाएगा

(4) यदि किसी लागू विधि के अनुसार प्रक्रिया शुल्क या अन्य शुल्क देय हो, तो शुल्क चुकाए बिना प्रक्रिया जारी नहीं की जाएगी, और यदि शुल्क युक्तियुक्त समय में नहीं चुकाया गया, तो मजिस्ट्रेट शिकायत को निरस्त कर सकता है

(5) इस धारा में ऐसा कुछ नहीं है जो धारा 90 के प्रावधानों को प्रभावित करता हो

धारा 228 : मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट – Magistrate may dispense with personal attendance of accused

(1) जब कोई मजिस्ट्रेट समन जारी करता है, तो यदि वह उचित समझे, तो वह अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट प्रदान कर सकता है, और उसे अपने अधिवक्ता के माध्यम से उपस्थित होने की अनुमति दे सकता है

(2) परंतु, जो मजिस्ट्रेट उस मामले की जांच या विचारण कर रहा हो, वह किसी भी चरण पर अपनी विवेकाधीन शक्ति से अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति का निर्देश दे सकता है, और आवश्यक होने पर, उसकी उपस्थिति पूर्व में वर्णित विधियों के अनुसार सुनिश्चित कर सकता है

धारा 229 : लघु अपराधों में विशेष समन – Special summons in cases of petty offence

(1) यदि किसी मजिस्ट्रेट की राय में कोई लघु अपराध ऐसा है जिसे धारा 283 या 284 के अंतर्गत संक्षिप्त रूप से निपटाया जा सकता है, तो मजिस्ट्रेट, जब तक कि लिखित रूप में विपरीत राय न दर्ज की हो, निम्न में से किसी एक विकल्प सहित अभियुक्त को समन जारी करेगा

  • वह निर्धारित तिथि को व्यक्तिगत रूप से या अपने अधिवक्ता के माध्यम से उपस्थित हो;
  • या यदि वह मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित हुए बिना दोष स्वीकार करना चाहता है, तो वह निर्धारित तिथि से पहले डाक या किसी व्यक्ति के माध्यम से अपना दोष स्वीकरण लिखित में तथा समन में उल्लिखित जुर्माना राशि मजिस्ट्रेट को भेज दे;
  • या यदि वह अधिवक्ता के माध्यम से उपस्थित होकर दोष स्वीकार करना चाहता है, तो वह अपने अधिवक्ता को लिखित रूप से ऐसा करने के लिए अधिकृत कर सकता है, और अधिवक्ता उसकी ओर से जुर्माना राशि भी अदा कर सकता है

परंतु, ऐसे समन में जो जुर्माना राशि निर्धारित की जाएगी, वह पाँच हज़ार रुपये से अधिक नहीं होगी

(2) इस धारा के प्रयोजन हेतु “लघु अपराध” का अर्थ है—
ऐसा कोई भी अपराध जो केवल पाँच हज़ार रुपये तक के जुर्माने से दंडनीय हो,
लेकिन इसमें मोटर वाहन अधिनियम, 1988 या ऐसे अन्य किसी कानून के अंतर्गत दंडनीय अपराध शामिल नहीं होंगे जो अभियुक्त की अनुपस्थिति में दोष स्वीकार करने पर सजा देने का प्रावधान रखते हैं।

(3) राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा किसी मजिस्ट्रेट को विशेष रूप से इस धारा की उपधारा (1) की शक्तियों का प्रयोग करने के लिए अधिकृत कर सकती है, जहाँ—

  • अपराध धारा 359 के अंतर्गत संयोज्य हो,
    या
  • तीन महीने तक के कारावास, या जुर्माना, या दोनों से दंडनीय हो,
    और मजिस्ट्रेट की राय में, केवल जुर्माना ही न्याय के हित में पर्याप्त है

धारा 230 : अभियुक्त को पुलिस रिपोर्ट और अन्य दस्तावेजों की प्रतियां प्रदान करना – Supply to accused of copy of police report and other documents

यदि किसी मामले की कार्यवाही पुलिस रिपोर्ट के आधार पर प्रारंभ हुई है, तो मजिस्ट्रेट को बिना विलंब के, और किसी भी स्थिति में अभियुक्त की उपस्थिति या प्रस्तुति की तारीख से 14 दिनों के भीतर, अभियुक्त और पीड़ित (यदि वह अधिवक्ता द्वारा प्रतिनिधित्व करता है) को नि:शुल्क निम्नलिखित प्रत्येक दस्तावेज की प्रतियां प्रदान करनी होंगी

(i) पुलिस रिपोर्ट
(ii) धारा 173 के अंतर्गत दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट
(iii) धारा 180(3) के तहत दर्ज किए गए उन सभी व्यक्तियों के कथन, जिन्हें अभियोजन पक्ष अपने गवाहों के रूप में प्रस्तुत करना चाहता है, बशर्ते उन अंशों को छोड़कर जिनके अपवर्जन हेतु धारा 193(7) के तहत पुलिस अधिकारी द्वारा अनुरोध किया गया हो
(iv) धारा 183 के अंतर्गत दर्ज स्वीकारोक्ति और बयान (यदि कोई हों)
(v) धारा 193(6) के तहत मजिस्ट्रेट को भेजे गए अन्य दस्तावेज या उनके प्रासंगिक अंश

प्रथम प्रावधान: यदि मजिस्ट्रेट उपरोक्त (iii) में उल्लिखित किसी कथन के अपवर्जित अंश को देखकर और पुलिस अधिकारी द्वारा दिए गए कारणों पर विचार कर यह उचित समझे, तो वह निर्देश दे सकता है कि उस कथन का पूर्ण या आंशिक अंश अभियुक्त को प्रदान किया जाए

द्वितीय प्रावधान: यदि मजिस्ट्रेट संतुष्ट हो कि कोई दस्तावेज बहुत अधिक लंबा या विस्तृत (voluminous) है, तो वह अभियुक्त और पीड़ित (यदि अधिवक्ता द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया हो) को उसकी प्रति देने के स्थान पर उसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से उपलब्ध करा सकता है, या यह निर्देश दे सकता है कि अभियुक्त को केवल न्यायालय में व्यक्तिगत रूप से या अधिवक्ता के माध्यम से उसका निरीक्षण करने की अनुमति होगी

तृतीय प्रावधान: यदि दस्तावेज इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रदान किए गए हैं, तो उन्हें प्रदत्त (furnished) माने जाने की विधिक मान्यता होगी

धारा 231 : सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय अन्य मामलों में अभियुक्त को कथनों और दस्तावेजों की प्रतियां देना – Supply of copies of statements and documents to accused in other cases triable by Court of Session

जब किसी मामले की कार्यवाही पुलिस रिपोर्ट के अलावा अन्य किसी आधार पर प्रारंभ हुई हो, और धारा 227 के अंतर्गत प्रक्रिया जारी करते समय मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत हो कि अपराध विशेष रूप से सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है, तो मजिस्ट्रेट को अभियुक्त को नि:शुल्क निम्नलिखित दस्तावेजों की प्रतियां तुरंत उपलब्ध करानी होंगी

(i) धारा 223 या 225 के अंतर्गत मजिस्ट्रेट द्वारा परीक्षण किए गए सभी व्यक्तियों के कथन
(ii) धारा 180 या 183 के अंतर्गत दर्ज बयान या स्वीकारोक्ति (यदि कोई हो)
(iii) वे दस्तावेज जो अभियोजन पक्ष द्वारा मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किए गए हों और जिन पर अभियोजन पक्ष भरोसा करना चाहता हो

प्रथम प्रावधान: यदि मजिस्ट्रेट संतुष्ट हो कि कोई दस्तावेज बहुत अधिक लंबा या विस्तृत (voluminous) है, तो वह अभियुक्त को उसकी प्रति देने के स्थान पर निर्देश दे सकता है कि वह उसे केवल न्यायालय में व्यक्तिगत रूप से या अपने अधिवक्ता के माध्यम से देख सकता है

द्वितीय प्रावधान: दस्तावेज यदि इलेक्ट्रॉनिक रूप में दिए गए हैं, तो उन्हें विधिवत प्रदत्त (furnished) माना जाएगा

धारा 232 : जब अपराध विशेष रूप से सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय हो, तब मामला सत्र न्यायालय को प्रेषित करना – Commitment of case to Court of Session when offence is triable exclusively by it

जब किसी मामले में, चाहे वह पुलिस रिपोर्ट के आधार पर शुरू हुआ हो या अन्यथा, अभियुक्त मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित हो या लाया जाए, और मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत हो कि अपराध विशेष रूप से सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है, तब वह—

(क) धारा 230 या 231 के प्रावधानों का पालन करने के बाद मामले को सत्र न्यायालय को सौंपेगा, और इस संहिता में जमानत से संबंधित प्रावधानों के अधीन अभियुक्त को हिरासत में भेजेगा जब तक कि मामला सौंपा न जाए;

(ख) इस संहिता के जमानत संबंधी प्रावधानों के अधीन, अभियुक्त को विचारण की समाप्ति तक हिरासत में रखेगा;

(ग) मामले का रिकॉर्ड, तथा वे दस्तावेज और वस्तुएं जो साक्ष्य में पेश की जानी हैं, सत्र न्यायालय को भेजेगा;

(घ) लोक अभियोजक को मामले के सत्र न्यायालय को सौंपे जाने की सूचना देगा

प्रथम प्रावधान: इस धारा के अंतर्गत की जाने वाली कार्यवाही, संज्ञान लेने की तिथि से 90 दिनों के भीतर पूरी की जानी चाहिए; और यदि आवश्यक हो, मजिस्ट्रेट लिखित कारणों के आधार पर इस अवधि को अधिकतम 180 दिनों तक बढ़ा सकता है

द्वितीय प्रावधान: यदि सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय किसी मामले में अभियुक्त, पीड़ित, या उनके द्वारा अधिकृत कोई व्यक्ति मजिस्ट्रेट के समक्ष कोई आवेदन प्रस्तुत करता है, तो वह आवेदन सत्र न्यायालय को मामले के साथ अग्रेषित किया जाएगा

धारा 233 : जब एक ही अपराध के संबंध में शिकायत मामला और पुलिस जांच दोनों हों, तब अपनाई जाने वाली प्रक्रिया – Procedure to be followed when there is a complaint case and police investigation in respect of same offence

(1) जब किसी शिकायत मामले (जो पुलिस रिपोर्ट के आधार पर प्रारंभ नहीं हुआ हो) में मजिस्ट्रेट द्वारा जांच या विचारण के दौरान यह ज्ञात होता है कि उसी अपराध के संबंध में पुलिस द्वारा जांच जारी है, तो मजिस्ट्रेट को उस जांच या विचारण की कार्यवाही स्थगित करनी होगी और जांच कर रहे पुलिस अधिकारी से रिपोर्ट मंगवानी होगी

(2) यदि पुलिस अधिकारी द्वारा धारा 193 के अंतर्गत रिपोर्ट प्रस्तुत की जाती है, और मजिस्ट्रेट उस रिपोर्ट पर किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध संज्ञान लेता है जो शिकायत मामले में अभियुक्त है, तो मजिस्ट्रेट को शिकायत मामला और पुलिस रिपोर्ट से उत्पन्न मामला दोनों को एक साथ ऐसे सुनना होगा जैसे कि दोनों पुलिस रिपोर्ट के आधार पर दर्ज किए गए हों

(3) यदि पुलिस रिपोर्ट शिकायत मामले के किसी अभियुक्त से संबंधित नहीं है, या मजिस्ट्रेट उस रिपोर्ट पर किसी अपराध का संज्ञान नहीं लेता है, तो वह अपने द्वारा स्थगित की गई जांच या विचारण की कार्यवाही इस संहिता के प्रावधानों के अनुसार आगे बढ़ाएगा

धारा 234 : आरोप की विषयवस्तु – Contents of charge

(1) इस संहिता के अंतर्गत बनाए गए प्रत्येक आरोप में उस अपराध का उल्लेख होना चाहिए जिसके लिए अभियुक्त पर आरोप लगाया गया है।

(2) यदि जिस कानून के अंतर्गत अपराध बना है, उसमें उसे कोई विशिष्ट नाम दिया गया है, तो उसी नाम से अपराध का वर्णन किया जा सकता है

(3) यदि अपराध का कोई विशिष्ट नाम नहीं है, तो उसकी परिभाषा का उतना भाग अवश्य लिखा जाना चाहिए जिससे अभियुक्त को यह जानकारी मिल सके कि उस पर किस बात का आरोप है

(4) जिस कानून और उसकी धारा का उल्लंघन किया गया है, उसका उल्लेख आरोप में किया जाना चाहिए

(5) आरोप का बनाया जाना यह मानी जाती है कि अभियोग लगाए जाने के लिए आवश्यक सभी वैधानिक शर्तें पूरी की गई हैं

(6) आरोप न्यायालय की भाषा में लिखा जाना चाहिए

(7) यदि अभियुक्त पहले किसी अपराध के लिए दोषी ठहराया जा चुका है, और उस पूर्व दोषसिद्धि के कारण उसे वर्तमान अपराध के लिए अधिक कठोर दंड या भिन्न प्रकार का दंड दिया जा सकता है, और यदि ऐसा करना अभियोजन पक्ष का उद्देश्य है, तो उस पूर्व दोषसिद्धि की तिथि, स्थान और तथ्य आरोप में उल्लेखित होने चाहिए; और यदि वह उल्लेख छूट गया हो, तो अदालत सजा सुनाए जाने से पहले कभी भी उसे जोड़ सकती है

उदाहरण:
(क) A पर B की हत्या का आरोप है — इसका अर्थ है कि A का कार्य धारा 100 और 101 की परिभाषा में आता है, कोई सामान्य अपवाद लागू नहीं होता, और धारा 101 के पाँच अपवादों में भी नहीं आता, या यदि Exception 1 में आता है, तो उसमें दिए गए तीन उपबंधों में से कोई न कोई लागू होता है

(ख) A पर धारा 118(2) के तहत आरोप है कि उसने B को गोली मारने के उपकरण से जानबूझकर गंभीर चोट पहुंचाई — इसका अर्थ है कि यह मामला धारा 122(2) में कवर नहीं होता और सामान्य अपवाद भी लागू नहीं होते

(ग) A पर हत्या, धोखाधड़ी, चोरी, जबरन वसूली, आपराधिक डराना या नकली चिह्न उपयोग करने का आरोप है — आरोप में केवल अपराध का नाम लिखा जा सकता है, परंतु जिस धारा में दंड दिया गया है, उसका उल्लेख आवश्यक है

(घ) A पर धारा 219 के अंतर्गत आरोप है कि उसने किसी सार्वजनिक सेवक की विधिपूर्ण बिक्री में जानबूझकर बाधा पहुंचाई — आरोप उसी भाषा में लिखा जाना चाहिए

धारा 235 : समय, स्थान और व्यक्ति से संबंधित विवरण – Particulars as to time, place and person

(1) आरोप में अपराध किए जाने का समय और स्थान, तथा जिस व्यक्ति (यदि कोई हो) के विरुद्ध या जिस वस्तु (यदि कोई हो) के संबंध में अपराध किया गया हो, उसका ऐसा स्पष्ट विवरण होना चाहिए जो अभियुक्त को यह समझने के लिए यथोचित रूप से पर्याप्त हो कि उस पर किस बात का आरोप है

(2) जब अभियुक्त पर आपराधिक न्यासभंग या धोखे से किसी धन या चल संपत्ति के दुरुपयोग का आरोप हो, तो यह पर्याप्त होगा कि—

  • उस कुल राशि का उल्लेख किया जाए या
  • संबंधित चल संपत्ति का वर्णन किया जाए, और
  • उन तिथियों के बीच की अवधि बताई जाए जिनमें अपराध किए जाने का आरोप है,

बिना किसी विशेष वस्तु या सटीक तिथि का उल्लेख किए, और इस प्रकार बनाए गए आरोप को धारा 242 के अंतर्गत एक ही अपराध का आरोप माना जाएगा

परंतु, जिन दो तिथियों के बीच की अवधि बताई गई हो, वह एक वर्ष से अधिक नहीं होनी चाहिए

धारा 236 : जब अपराध किए जाने का तरीका बताना आवश्यक हो – When manner of committing offence must be stated

जब प्रकरण की प्रकृति ऐसी हो कि धारा 234 और 235 में दिए गए विवरणों से आरोपी को पर्याप्त जानकारी नहीं मिलती कि उस पर किस बात का आरोप है, तब अभियोग पत्र (charge) में उस अपराध को किए जाने के तरीके के ऐसे विवरण भी शामिल किए जाएंगे जो आरोपी को स्पष्ट जानकारी देने के लिए पर्याप्त हों।

उदाहरण
(क) A पर एक निश्चित समय और स्थान पर एक वस्तु की चोरी का आरोप है। इसमें यह बताना आवश्यक नहीं है कि चोरी किस तरीके से की गई।
(ख) A पर एक निश्चित समय और स्थान पर B को धोखा देने का आरोप है। इसमें यह बताना आवश्यक है कि A ने B को किस तरीके से धोखा दिया।
(ग) A पर एक निश्चित समय और स्थान पर झूठा बयान देने का आरोप है। आरोप में उस हिस्से का उल्लेख होना चाहिए जो झूठा कहा जा रहा है।
(घ) A पर B नामक लोक सेवक को उसके कार्यों में बाधा पहुँचाने का आरोप है। इसमें यह स्पष्ट करना होगा कि A ने किस तरीके से बाधा पहुँचाई।
(ङ) A पर एक निश्चित समय और स्थान पर B की हत्या का आरोप है। इसमें हत्या का तरीका बताना आवश्यक नहीं है।
(च) A पर B को दंड से बचाने के इरादे से कानून के एक निर्देश की अवहेलना का आरोप है। आरोप में उल्लंघन किए गए निर्देश और उस कानून का उल्लेख होना चाहिए।

धारा 237 : अभियोग में प्रयुक्त शब्दों का अर्थ उस कानून के अनुसार लिया जाएगा – Words in charge taken in sense of law under which offence is punishable

किसी भी अभियोग में अपराध का वर्णन करते समय प्रयुक्त शब्दों को उसी अर्थ में लिया जाएगा, जैसा अर्थ उस कानून में दिया गया है जिसके अंतर्गत वह अपराध दंडनीय है

धारा 238 : त्रुटियों का प्रभाव – Effect of errors

यदि आरोप में अपराध या उससे संबंधित आवश्यक विवरण को गलत तरीके से लिखा गया हो या उल्लेख करना छूट गया हो, तो उसे किसी भी चरण पर गंभीर नहीं माना जाएगा, जब तक कि यह स्पष्ट न हो कि अभियुक्त उस त्रुटि या चूक से वास्तव में भ्रमित हुआ है, और इससे न्याय में बाधा उत्पन्न हुई है

उदाहरण:

(क) A पर धारा 180 के तहत आरोप है कि वह जाली सिक्कों के कब्जे में था, पर आरोप में “धोखे से” (fraudulently) शब्द छूट गया। यदि यह स्पष्ट न हो कि A वास्तव में इस चूक से भ्रमित हुआ, तो यह त्रुटि गंभीर नहीं मानी जाएगी

(ख) A पर B को धोखा देने का आरोप है, पर उसने कैसे धोखा दिया, यह आरोप में स्पष्ट नहीं है या गलत लिखा गया है। यदि A ने अपनी सफाई दी, गवाह बुलाए और लेन-देन के बारे में अपनी बात रखी, तो माना जा सकता है कि यह चूक महत्वपूर्ण नहीं है

(ग) A पर B को धोखा देने का आरोप है, पर आरोप में कैसे धोखा दिया गया, यह नहीं लिखा गया है। A और B के बीच कई लेन-देन हुए थे और A को यह पता ही नहीं चल सका कि कौन-से लेन-देन की बात हो रही है, इसलिए उसने कोई सफाई नहीं दी। ऐसे में कोर्ट यह मान सकता है कि यह चूक गंभीर थी

(घ) A पर 21 जनवरी 2023 को खोदा बख्श की हत्या का आरोप है, जबकि वास्तव में हैदर बख्श की 20 जनवरी 2023 को हत्या हुई थी। A पर केवल एक हत्या का आरोप था और मजिस्ट्रेट के समक्ष हुई जांच भी केवल हैदर बख्श की हत्या से संबंधित थी, तो माना जा सकता है कि A भ्रमित नहीं हुआ और यह त्रुटि गंभीर नहीं थी

(ङ) A पर 20 जनवरी 2023 को हैदर बख्श की हत्या और 21 जनवरी 2023 को खोदा बख्श की हत्या (जो उसे गिरफ्तार करने आया था) का आरोप था। लेकिन जब उस पर हैदर बख्श की हत्या का आरोप लगाया गया, तो उस पर खोदा बख्श की हत्या का मुकदमा चलाया गया, और उसके बचाव में जो गवाह पेश हुए वे हैदर बख्श के मामले से संबंधित थे, तो यह माना जा सकता है कि A भ्रमित हुआ और यह त्रुटि गंभीर थी

धारा 239 : न्यायालय आरोप में परिवर्तन कर सकता है – Court may alter charge

(1) कोई भी न्यायालय किसी भी आरोप में निर्णय सुनाए जाने से पहले किसी भी समय परिवर्तन या जोड़ कर सकता है।

(2) ऐसे प्रत्येक परिवर्तन या जोड़ को अभियुक्त को पढ़कर सुनाया जाएगा और समझाया जाएगा

(3) यदि आरोप में किया गया परिवर्तन या जोड़ ऐसा है कि उस पर तुरंत विचारण करना, न्यायालय की राय में, अभियुक्त की रक्षा या अभियोजन की प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करेगा, तो न्यायालय अपने विवेक से, ऐसे परिवर्तित या जोड़े गए आरोप को मूल आरोप मानते हुए विचारण को जारी रख सकता है

(4) यदि परिवर्तन या जोड़ ऐसा हो जिससे तुरंत विचारण जारी रखना अभियुक्त या अभियोजन के लिए हानिकारक हो सकता है, तो न्यायालय या तो नए सिरे से विचारण का निर्देश दे सकता है या विचारण को आवश्यक अवधि के लिए स्थगित कर सकता है

(5) यदि परिवर्तित या जोड़े गए आरोप में वर्णित अपराध ऐसा है जिसके अभियोजन के लिए पूर्व स्वीकृति आवश्यक है, तो जब तक ऐसी स्वीकृति प्राप्त न हो जाए, उस पर कार्यवाही नहीं की जा सकती, यदि वही तथ्य पहले से अनुमोदित स्वीकृति के अंतर्गत नहीं आते हों

धारा 240 : आरोप में परिवर्तन होने पर गवाहों को पुनः बुलाने का अधिकार – Recall of witnesses when charge altered

जब विचारण प्रारंभ होने के बाद न्यायालय द्वारा किसी आरोप में परिवर्तन या जोड़ किया जाता है, तो अभियोजन पक्ष और अभियुक्त को निम्नलिखित अधिकार होंगे—

(क) वे किसी भी गवाह को, जो पहले से परीक्षित हो चुका हो, पुनः बुलाकर या फिर से समन भेजकर, उस परिवर्तन या जोड़ के संदर्भ में पुनः परीक्षा कर सकते हैं,
जब तक न्यायालय यह नहीं मानता (और इस संबंध में लिखित कारण दर्ज करता है) कि अभियोजन पक्ष या अभियुक्त ऐसा केवल उत्पीड़न, विलंब या न्याय की अवहेलना करने के उद्देश्य से कर रहा है;

(ख) वे ऐसे किसी भी अतिरिक्त गवाह को बुला सकते हैं, जिसे न्यायालय प्रासंगिक और आवश्यक मानता हो।

धारा 241 : भिन्न-भिन्न अपराधों के लिए अलग-अलग आरोप – Separate charges for distinct offences

(1) जब किसी व्यक्ति पर अलग-अलग अपराधों का आरोप हो, तो हर अपराध के लिए अलग आरोप लगाया जाएगा, और हर आरोप का अलग से विचारण किया जाएगा
परंतु, यदि अभियुक्त लिखित आवेदन के द्वारा ऐसा चाहता है और मजिस्ट्रेट को यह लगता है कि ऐसा करने से अभियुक्त को कोई हानि नहीं होगी, तो मजिस्ट्रेट सभी या कुछ आरोपों का एक साथ विचारण कर सकता है

(2) उपधारा (1) की कोई भी बात धारा 242, 243, 244 और 246 के प्रावधानों को प्रभावित नहीं करेगी।

उदाहरण:
A पर एक अवसर पर चोरी करने और दूसरे अवसर पर गम्भीर चोट पहुँचाने का आरोप है।
उसे चोरी और चोट पहुँचाने के लिए अलग-अलग आरोपित किया जाएगा और प्रत्येक आरोप का अलग विचारण किया जाएगा

 

धारा 242 : एक वर्ष में किए गए एक जैसे अपराधों के लिए एक साथ आरोप – Offences of same kind within year may be charged together

(1) यदि किसी व्यक्ति पर बारह महीनों की अवधि में किए गए एक जैसे एक से अधिक अपराधों का आरोप है, चाहे वे एक ही व्यक्ति के विरुद्ध हों या अलग-अलग व्यक्तियों के विरुद्ध, तो उस पर अधिकतम पाँच ऐसे अपराधों के लिए एक ही विचारण में आरोप लगाया जा सकता है और विचारण किया जा सकता है

(2) वे अपराध एक जैसे माने जाएंगे, जब वे भारतीय न्याय संहिता, 2023 की एक ही धारा या किसी विशेष या स्थानीय विधि के अंतर्गत समान दंडनीयता रखते हों
परंतु, इस धारा के उद्देश्य से—

  • धारा 303(2) के अंतर्गत दंडनीय अपराध को, धारा 305 के अंतर्गत दंडनीय अपराध के समान माना जाएगा।
  • किसी भी धारा के अंतर्गत दंडनीय अपराध को, उस अपराध को करने के प्रयास से संबंधित अपराध के समान माना जाएगा, यदि वह प्रयास स्वयं एक अपराध हो।

 

धारा 243 : एक से अधिक अपराधों के लिए विचारण – Trial for more than one offence

(1) यदि किसी व्यक्ति द्वारा किए गए एक ही श्रृंखला के कृत्य, जो एक ही लेन-देन या घटना का हिस्सा हों, में एक से अधिक अपराध किए गए हों, तो उस व्यक्ति पर उन सभी अपराधों के लिए आरोप लगाया जा सकता है और एक ही विचारण में विचार किया जा सकता है

(2) यदि किसी व्यक्ति पर विश्वासघात या बेईमानी से संपत्ति के गबन का आरोप है (धारा 235(2) या 242(1) के अंतर्गत), और वह लेखों की हेराफेरी करके इन अपराधों को करने या छिपाने का प्रयास करता है, तो उस पर इन सभी अपराधों का एक साथ विचारण हो सकता है

(3) यदि कोई कार्य दो या अधिक अपराधों की परिभाषाओं के अंतर्गत आता है, तो उस व्यक्ति पर प्रत्येक अपराध के लिए अलग-अलग आरोप लगाकर एक साथ विचारण हो सकता है

(4) यदि कुछ कार्य, जो अलग-अलग अपराध बनाते हैं, एक साथ मिलकर कोई नया अपराध बनाते हैं, तो उस व्यक्ति पर उन सभी कार्यों के लिए तथा उस सम्मिलित अपराध के लिए आरोप लगाकर एक ही विचारण हो सकता है

(5) यह धारा भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 9 को प्रभावित नहीं करती।

स्पष्टीकरण:
उदाहरण स्वरूप—
(a) किसी को छुड़ाते समय पुलिस वाले को चोट पहुँचाना,
(b) घर में घुसकर बलात्कार करना,
(c) नकली सील रखना,
(d) झूठा अभियोग लगाना और झूठा मुकदमा चलाना,
(e) झूठी गवाही देना,
(f) दंगा करना और अधिकारी पर हमला करना,
(g) एक ही समय में तीन व्यक्तियों को धमकी देना —
इन सभी मामलों में अलग-अलग अपराधों के लिए एक साथ आरोप लगाकर विचारण किया जा सकता है

धारा 244 : जब यह संदेह हो कि कौन-सा अपराध किया गया है – Where it is doubtful what offence has been committed

(1) यदि कोई एक कार्य या कार्यों की शृंखला इस प्रकार की हो कि यह स्पष्ट न हो कि सिद्ध किए जा सकने वाले तथ्य किस अपराध को सिद्ध करते हैं, तो आरोपी को उन सभी अपराधों के लिए, या उनमें से किसी एक के लिए अभियुक्त ठहराया जा सकता है, और उन सभी अभियोगों की एक साथ सुनवाई की जा सकती है; अथवा उसे वैकल्पिक रूप से इन अपराधों में से किसी एक के लिए अभियुक्त ठहराया जा सकता है।

(2) यदि ऐसे मामले में आरोपी को केवल एक अपराध के लिए अभियुक्त ठहराया गया है, और साक्ष्यों से यह प्रतीत होता है कि उसने कोई अन्य अपराध किया है जिसके लिए उसे उपधारा (1) के अनुसार अभियुक्त ठहराया जा सकता था, तो उसे उस अपराध के लिए दोषी ठहराया जा सकता है, भले ही उस अपराध के लिए अभियोग नहीं लगाया गया हो

उदाहरण
(क) A पर ऐसे कार्य का आरोप है जो चोरी, चोरी की संपत्ति को प्राप्त करना, आपराधिक विश्वासघात या धोखाधड़ी में से कोई एक हो सकता है। उसे चारों अपराधों के लिए या इनमें से किसी एक के लिए अभियुक्त ठहराया जा सकता है।
(ख) उपरोक्त मामले में A को केवल चोरी के लिए अभियुक्त ठहराया गया, लेकिन साक्ष्य से पता चला कि उसने आपराधिक विश्वासघात या चोरी की संपत्ति को छिपाने का अपराध किया। तब भी उसे उन अपराधों के लिए दोषी ठहराया जा सकता है, भले ही उन अपराधों का अलग से अभियोग न हो।
(ग) A ने मजिस्ट्रेट के समक्ष शपथपूर्वक कहा कि उसने B को C को डंडे से मारते हुए देखा, लेकिन सत्र न्यायालय में उसने शपथपूर्वक कहा कि B ने C को नहीं मारा। ऐसी स्थिति में A को वैकल्पिक रूप से झूठा साक्ष्य देने के अपराध में अभियुक्त ठहराया और दोषी ठहराया जा सकता है, भले ही यह सिद्ध न हो कि दोनों में से कौन-सा बयान झूठा था

धारा 245 : जब सिद्ध किया गया अपराध आरोपित अपराध में सम्मिलित हो – When offence proved included in offence charged

(1) यदि किसी व्यक्ति पर ऐसे अपराध का आरोप है जिसमें कई विशिष्ट बातें सम्मिलित हैं, और उनमें से कुछ बातें मिलकर एक पूर्ण लघु (कम गंभीर) अपराध बनाती हैं और वही बातें सिद्ध हो जाती हैं, लेकिन शेष बातें सिद्ध नहीं होतीं, तो उसे उस लघु अपराध के लिए दोषी ठहराया जा सकता है, भले ही उस अपराध के लिए आरोप न लगाया गया हो।

(2) यदि किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का आरोप है और सिद्ध तथ्यों से वह अपराध घटकर किसी लघु अपराध में परिवर्तित हो जाता है, तो उसे उस लघु अपराध के लिए दोषी ठहराया जा सकता है, भले ही उसका अलग से आरोप न हो।

(3) यदि किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का आरोप है, तो उसे उस अपराध के प्रयत्न (attempt) के लिए दोषी ठहराया जा सकता है, भले ही प्रयत्न के लिए अलग से आरोप न हो

(4) इस धारा में ऐसी किसी भी लघु अपराध की दोषसिद्धि की अनुमति नहीं दी गई है, जिसके लिए विधि द्वारा आवश्यक प्रारंभिक शर्तें पूरी नहीं की गई हों।

उदाहरण
(क) A पर धारा 316(3) के अंतर्गत एक वाहक के रूप में सौंपी गई संपत्ति के आपराधिक न्यासभंग (criminal breach of trust) का आरोप है। साक्ष्य से यह सिद्ध होता है कि A ने न्यासभंग किया, लेकिन उसे संपत्ति वाहक के रूप में नहीं सौंपी गई थी। उसे धारा 316(2) के अंतर्गत न्यासभंग के लिए दोषी ठहराया जा सकता है।

(ख) A पर धारा 117(2) के अंतर्गत गंभीर चोट पहुंचाने का आरोप है, लेकिन वह यह सिद्ध कर देता है कि उसने यह कार्य गंभीर और अचानक उकसावे के प्रभाव में किया। उसे धारा 122(2) के अंतर्गत दोषी ठहराया जा सकता है।

धारा 246 : किन व्यक्तियों पर संयुक्त रूप से आरोप लगाया जा सकता है – What persons may be charged jointly

निम्नलिखित व्यक्तियों पर संयुक्त रूप से आरोप लगाया जा सकता है और उनका एक साथ विचारण किया जा सकता है

(a) वे व्यक्ति जो एक ही लेन-देन की प्रक्रिया में किए गए समान अपराध के लिए अभियुक्त हों।
(b) वे व्यक्ति जो किसी मुख्य अपराध के आरोपी हों और उनके साथ उस अपराध के लिए उकसावे या प्रयत्न के आरोपी व्यक्ति
(c) वे व्यक्ति जिन्होंने धारा 242 के अंतर्गत समान प्रकार के एक से अधिक अपराध, बारह माह की अवधि में संयुक्त रूप से किए हों।
(d) वे व्यक्ति जो अलग-अलग अपराधों के लिए अभियुक्त हों लेकिन वे अपराध एक ही लेन-देन की प्रक्रिया में किए गए हों
(e) वे व्यक्ति जो चोरी, जबरन वसूली, धोखाधड़ी या आपराधिक गबन जैसे अपराधों के लिए अभियुक्त हों और वे व्यक्ति भी जिन पर ऐसी संपत्ति को प्राप्त करने, संभालने, नष्ट करने या छिपाने का आरोप हो, जो कि पहले बताए अपराधों द्वारा स्थानांतरित की गई हो, या इन अंतिम अपराधों में सहायता या प्रयत्न किया गया हो।
(f) वे व्यक्ति जो धारा 317(2) और 317(5) के अंतर्गत, या उन धाराओं में से किसी एक के अंतर्गत ऐसे चोरी के माल से संबंधित अपराध में अभियुक्त हों, जिसकी मालिकियत एक अपराध के माध्यम से स्थानांतरित की गई हो।
(g) वे व्यक्ति जो भारतीय दंड संहिता के अध्याय X (Chapter X) के अंतर्गत नकली सिक्कों से संबंधित अपराधों में अभियुक्त हों, और वे भी जो उसी सिक्के से संबंधित अन्य अपराधों या उनमें सहायक/प्रयत्नकर्ता हों।

स्पष्टीकरण / अपवाद:
यदि अलग-अलग अपराधों के लिए अलग-अलग व्यक्तियों पर आरोप हैं, और वे उपरोक्त में से किसी भी श्रेणी में नहीं आते, तो यदि वे सभी व्यक्ति लिखित आवेदन द्वारा चाहें, और न्यायालय को यह विश्वास हो कि ऐसा करने से उन्हें कोई पूर्वाग्रह नहीं होगा, और यदि ऐसा करना न्यायहित में उचित हो, तो न्यायालय सभी व्यक्तियों पर एक साथ विचार कर सकता है

धारा 247 : एकाधिक आरोपों में से एक पर दोषसिद्धि होने पर शेष आरोपों की वापसी – Withdrawal of remaining charges on conviction on one of several charges

जब किसी व्यक्ति के विरुद्ध एक से अधिक आरोपों वाला आरोप-पत्र तैयार किया गया हो, और उसमें से किसी एक या अधिक आरोपों पर दोषसिद्धि हो चुकी हो, तो शिकायतकर्ता या अभियोजन अधिकारी, न्यायालय की अनुमति से, शेष आरोपों को वापस ले सकता है, या न्यायालय स्वयं भी उन आरोपों की जाँच या विचारण स्थगित कर सकता है

ऐसी वापसी का प्रभाव यह होगा कि शेष आरोपों पर आरोपी को दोषमुक्त (बरी) माना जाएगा, जब तक कि दोषसिद्धि रद्द न कर दी जाए; और यदि दोषसिद्धि रद्द हो जाती है, तो न्यायालय (जो दोषसिद्धि को रद्द करने वाले न्यायालय के आदेश के अधीन होगा), वापस लिए गए आरोपों की पुनः जाँच या विचारण कर सकता है

धारा 248 : सत्र न्यायालय में विचारण लोक अभियोजक द्वारा किया जाएगा – Trial to be conducted by Public Prosecutor

प्रत्येक उस मामले में जहाँ विचारण सत्र न्यायालय में होता है, उस विचारण में अभियोजन का संचालन लोक अभियोजक द्वारा किया जाएगा

धारा 249 : अभियोजन पक्ष द्वारा मामला प्रारंभ करना – Opening case for prosecution

जब किसी आरोपी को धारा 232 के अंतर्गत या किसी वर्तमान लागू कानून के अंतर्गत सत्र न्यायालय में उपस्थित किया जाता है या लाया जाता है, तब लोक अभियोजक अपने मामले की शुरुआत करेगा। इसके अंतर्गत वह आरोप का वर्णन करेगा जो आरोपी पर लगाए गए हैं, और यह भी बताएगा कि वह किन साक्ष्यों के द्वारा आरोपी का अपराध सिद्ध करना चाहता है

धारा 250 : दोषमुक्ति – Discharge

(1) आरोपी, धारा 232 के अंतर्गत मामले की अभिसमर्पण (commitment) की तिथि से साठ दिनों की अवधि के भीतर दोषमुक्ति के लिए आवेदन कर सकता है।

(2) यदि न्यायाधीश, मामले के अभिलेख (record) और उसके साथ प्रस्तुत दस्तावेजों पर विचार करने के बाद, और अभियोजन तथा आरोपी दोनों की दलीलें सुनने के पश्चात यह मानता है कि आरोपी के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है, तो वह आरोपी को दोषमुक्त कर देगा और उसका कारण अभिलेखित करेगा

 

धारा 251 : आरोप का गठन – Framing of charge

(1) यदि विचार और सुनवाई के बाद न्यायाधीश यह मानने का आधार पाता है कि आरोपी ने कोई ऐसा अपराध किया है जो—

(क) विशेष रूप से सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय नहीं है, तो वह आरोपी के विरुद्ध आरोप तय कर सकता है और आदेश द्वारा मामला मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी के किसी अन्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को विचारण हेतु स्थानांतरित कर सकता है, और आरोपी को निर्देश दे सकता है कि वह नियत तिथि पर उस मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित हो, जिसके बाद वह मजिस्ट्रेट वारंट-प्रकरणों की प्रक्रिया के अनुसार मामले का विचारण करेगा;

(ख) विशेष रूप से सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय है, तो न्यायाधीश आरोपी के विरुद्ध लिखित रूप में आरोप तय करेगा, और यह कार्य प्रथम आरोप-श्रवण की तिथि से साठ दिनों के भीतर किया जाएगा।

(2) जब न्यायाधीश उपधारा (1) के खंड (ख) के अंतर्गत आरोप तय करता है, तो वह आरोप आरोपी को पढ़कर सुनाया और समझाया जाएगा, चाहे वह व्यक्तिगत रूप से उपस्थित हो या ऑडियो-विज़ुअल इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से, और उससे यह पूछा जाएगा कि वह आरोप स्वीकार करता है या मुकदमे का सामना करना चाहता है

धारा 252 : दोष स्वीकार करने पर दोषसिद्धि – Conviction on plea of guilty

यदि आरोपी दोष स्वीकार करता है, तो न्यायाधीश उस स्वीकृति को अभिलेखबद्ध करेगा और अपने विवेक से आरोपी को उस आधार पर दोषसिद्ध कर सकता है

धारा 253 : अभियोजन साक्ष्य की तिथि – Date for Prosecution Evidence

यदि अभियुक्त दोष स्वीकार करने से मना करता है, या कुछ नहीं कहता, या मुकदमा चलाने की मांग करता है, या धारा 252 के अंतर्गत दोषी नहीं ठहराया जाता, तो न्यायाधीश गवाहों की जाँच के लिए एक तिथि निर्धारित करेगा, और अभियोजन पक्ष के आवेदन पर, किसी गवाह को बुलाने या किसी दस्तावेज़ या अन्य वस्तु को प्रस्तुत कराने के लिए कोई प्रक्रिया जारी कर सकता है

धारा 254 : अभियोजन का साक्ष्य – Evidence for Prosecution

(1) नियत तिथि पर, न्यायाधीश अभियोजन के समर्थन में प्रस्तुत सभी साक्ष्यों को दर्ज करेगा
यह भी प्रावधान है कि इस उप-धारा के तहत किसी गवाह का साक्ष्य ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से रिकॉर्ड किया जा सकता है

(2) किसी लोक सेवक का साक्ष्य ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से लिया जा सकता है

(3) न्यायाधीश अपने विवेक से किसी गवाह की जिरह को तब तक स्थगित करने की अनुमति दे सकता है जब तक अन्य किसी गवाह की जाँच पूरी न हो जाए, या किसी गवाह को दोबारा बुलाकर आगे की जिरह करवा सकता है

धारा 255 : दोषमुक्ति – Acquittal

यदि अभियोजन के साक्ष्य लेने के बाद, अभियुक्त से पूछताछ करने के पश्चात, और अभियोजन तथा बचाव पक्ष को सुनने के बाद, न्यायाधीश यह मानता है कि अभियुक्त के द्वारा अपराध किए जाने का कोई साक्ष्य नहीं है, तो वह दोषमुक्ति (बरी करने) का आदेश पारित करेगा

धारा 256 : प्रतिरक्षा प्रारंभ करना – Entering upon Defence

(1) यदि अभियुक्त को धारा 255 के अंतर्गत दोषमुक्त नहीं किया जाता, तो उसे अपनी प्रतिरक्षा प्रस्तुत करने और उससे संबंधित कोई भी साक्ष्य देने के लिए कहा जाएगा

(2) यदि अभियुक्त कोई लिखित वक्तव्य प्रस्तुत करता है, तो न्यायाधीश उसे अभिलेख में संलग्न करेगा

(3) यदि अभियुक्त किसी गवाह को बुलाने या किसी दस्तावेज़ अथवा वस्तु को प्रस्तुत कराने के लिए कोई प्रक्रिया जारी करने का आवेदन करता है, तो न्यायाधीश ऐसी प्रक्रिया जारी करेगा, जब तक कि वह यह न माने (और इसका कारण अभिलेख में दर्ज करे) कि यह आवेदन केवल उत्पीड़न, विलंब या न्याय में बाधा डालने के उद्देश्य से किया गया है

धारा 258 : दोषमुक्ति या दोषसिद्धि का निर्णय – Judgment of Acquittal or Conviction

(1) तर्क और विधिक बिंदुओं को सुनने के बाद, न्यायाधीश मामले में यथाशीघ्र निर्णय देगा, जो कि बहस समाप्ति की तिथि से तीस दिनों के भीतर होगा, और यह अवधि अधिकतम पैंतालीस दिन तक बढ़ाई जा सकती है, बशर्ते कि कारण लिखित रूप में दर्ज किए जाएँ

(2) यदि अभियुक्त दोषी ठहराया जाता है, तो जब तक न्यायाधीश धारा 401 के अनुसार कार्यवाही न करे, वह अभियुक्त से दंड के विषय में सुनवाई करेगा, और फिर कानून के अनुसार दंड देगा

धारा 259 : पूर्व दोषसिद्धि – Previous Conviction

यदि किसी मामले में धारा 234(7) के अंतर्गत पूर्व दोषसिद्धि का आरोप लगाया गया है और अभियुक्त यह स्वीकार नहीं करता कि उसे पहले दोषी ठहराया गया था, तो न्यायाधीश, जब अभियुक्त को धारा 252 या धारा 258 के तहत दोषी ठहरा देता है, तब वह पूर्व दोषसिद्धि से संबंधित साक्ष्य ले सकता है और उस पर अपना निर्णय दर्ज करेगा

परंतु, जब तक अभियुक्त को धारा 252 या 258 के तहत दोषी न ठहराया जाए, तब तक
(1) पूर्व दोषसिद्धि का आरोप न पढ़कर सुनाया जाएगा,
(2) अभियुक्त से उस पर जवाब नहीं माँगा जाएगा, और
(3) अभियोजन या उसके साक्ष्य में पूर्व दोषसिद्धि का कोई उल्लेख नहीं किया जाएगा

धारा 260 : धारा 222(2) के अंतर्गत प्रारंभ किए गए मामलों में कार्यवाही – Procedure in cases instituted under sub-section (2) of section 222

(1) यदि अपर सत्र न्यायालय धारा 222(2) के अंतर्गत किसी अपराध का संज्ञान लेता है, तो वह मामला उसी प्रकार चलाएगा जैसे कि पुलिस रिपोर्ट के बिना वॉरंट-केस मजिस्ट्रेट के सामने चलाया जाता है।
लेकिन, जिस व्यक्ति के विरुद्ध अपराध किया गया है, उसे, जब तक न्यायालय कारण बताकर अन्यथा न कहे, अभियोजन पक्ष के गवाह के रूप में प्रस्तुत करना होगा

(2) यदि पक्षकारों में से कोई चाहे या न्यायालय उचित समझे, तो ऐसा हर मुकदमा बंद कक्ष में (इन-कैमरा) चलाया जाएगा।

(3) यदि न्यायालय सभी या किसी अभियुक्त को रिहा या बरी कर दे और यह माने कि उनके विरुद्ध आरोप लगाने का कोई उचित कारण नहीं था, तो वह अपने निर्णय में यह निर्देश दे सकता है कि अपराध का आरोप झेलने वाला व्यक्ति (राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल या केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासक को छोड़कर) यह बताए कि उसे अभियुक्त या अभियुक्तों को मुआवज़ा क्यों नहीं देना चाहिए

(4) न्यायालय उस व्यक्ति द्वारा बताए गए कारण को दर्ज करेगा और विचार करेगा, और यदि वह संतुष्ट हो जाए कि आरोप लगाने का कोई उचित कारण नहीं था, तो कारण दर्ज कर ऐसा आदेश दे सकता है कि वह व्यक्ति प्रत्येक अभियुक्त को अधिकतम पाँच हज़ार रुपये तक का मुआवज़ा दे

(5) इस धारा के तहत मुआवज़ा उसी प्रकार वसूल किया जाएगा जैसे मजिस्ट्रेट द्वारा लगाया गया जुर्माना

(6) मुआवज़ा देने का आदेश किसी व्यक्ति को इस धारा के तहत की गई शिकायत के लिए किसी दीवानी या आपराधिक दायित्व से मुक्त नहीं करेगा
लेकिन, अभियुक्त को दिए गए मुआवज़े की राशि बाद में उसी विषय पर किसी दीवानी वाद में दिए गए मुआवज़े में समायोजित की जाएगी

(7) जिस व्यक्ति को मुआवज़ा देने का आदेश दिया गया है, वह इस आदेश के मुआवज़े से संबंधित भाग के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है

(8) जब अभियुक्त को मुआवज़ा देने का आदेश दिया गया हो, तो यह मुआवज़ा तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक अपील करने की समय-सीमा समाप्त न हो जाए, या अगर अपील की गई हो तो उसका निर्णय न हो जाए

धारा 261 : धारा 230 का पालन – Compliance with section 230

जब किसी पुलिस रिपोर्ट पर आधारित वॉरंट-केस में अभियुक्त न्यायालय में उपस्थित होता है या लाया जाता है, तब मुकदमे की कार्यवाही शुरू करते समय मजिस्ट्रेट को यह सुनिश्चित करना होगा कि उसने धारा 230 के प्रावधानों का पालन किया है

धारा 262: अभियुक्त को discharge कब किया जाएगा – When accused shall be discharged

(1) अभियुक्त धारा 230 के अंतर्गत दस्तावेजों की प्रतियां प्राप्त करने की तिथि से साठ दिन के भीतर डिस्चार्ज की अर्जी दाखिल कर सकता है

(2) यदि मजिस्ट्रेट को, धारा 193 के अंतर्गत भेजी गई पुलिस रिपोर्ट और संबंधित दस्तावेजों पर विचार करने के बाद, तथा आवश्यक समझे तो अभियुक्त की शारीरिक या ऑडियो-वीडियो माध्यम से पूछताछ करने के बाद, और अभियोजन एवं अभियुक्त दोनों को सुनने का अवसर देने के पश्चात् यह प्रतीत हो कि अभियुक्त के विरुद्ध कोई आधार नहीं है, तो वह अभियुक्त को discharge कर देगा और इसके लिए कारण रिकॉर्ड करेगा

धारा 263 : आरोप का गठन – Framing of charge

(1) यदि विचार, पूछताछ (यदि की गई हो) और दोनों पक्षों को सुनने के बाद मजिस्ट्रेट की राय हो कि अभियुक्त के विरुद्ध ऐसा आधार है जिससे यह अनुमान हो कि उसने ऐसा अपराध किया है जो इस अध्याय के अंतर्गत विचारणीय है, जिसे वह स्वयं सुनने और उचित दंड देने में सक्षम है, तो वह पहली सुनवाई की तारीख से साठ दिन के भीतर अभियुक्त के विरुद्ध लिखित रूप में आरोप तय करेगा

(2) आरोप को फिर अभियुक्त को पढ़कर सुनाया और समझाया जाएगा, और उससे पूछा जाएगा कि वह आरोप स्वीकार करता है या मुकदमा चाहता है

धारा 264 : दोष स्वीकार करने पर दोषसिद्धि – Conviction on plea of guilty

यदि अभियुक्त दोष स्वीकार करता है, तो मजिस्ट्रेट उस स्वीकृति को दर्ज करेगा और विवेकानुसार उस आधार पर उसे दोषी ठहरा सकता है

धारा 265: अभियोजन पक्ष के साक्ष्य – Evidence for prosecution

(1) यदि अभियुक्त दोष स्वीकार नहीं करता, चुप रहता है, या मुकदमा लड़ने की इच्छा प्रकट करता है, या मजिस्ट्रेट धारा 264 के अंतर्गत दोषसिद्धि नहीं करता, तो मजिस्ट्रेट गवाहों की जाँच के लिए एक तिथि निर्धारित करेगा
यह अनिवार्य है कि मजिस्ट्रेट जाँच के दौरान पुलिस द्वारा दर्ज गवाहों के बयान अभियुक्त को पूर्व में प्रदान करेगा

(2) अभियोजन की अर्जी पर मजिस्ट्रेट किसी भी गवाह को उपस्थित होने या दस्तावेज अथवा वस्तु लाने के लिए समन जारी कर सकता है

(3) निर्धारित तिथि पर मजिस्ट्रेट अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत सभी साक्ष्य को दर्ज करेगा
मजिस्ट्रेट यह अनुमति दे सकता है कि किसी गवाह की जिरह किसी अन्य गवाह की जाँच तक स्थगित की जाए या किसी गवाह को पुनः बुलाकर उससे आगे की जिरह की जाए
साथ ही, किसी गवाह की जाँच राज्य सरकार द्वारा निर्धारित स्थान पर ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से की जा सकती है

धारा 266 : बचाव पक्ष के साक्ष्य – Evidence for defence

(1) इसके बाद अभियुक्त को अपने बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए कहा जाएगा, और यदि वह कोई लिखित बयान देता है, तो मजिस्ट्रेट उसे मुकदमे की फाइल में संलग्न करेगा

(2) यदि अभियुक्त बचाव पक्ष की कार्यवाही शुरू करने के बाद यह आवेदन करता है कि किसी गवाह को बुलाने, जाँच या जिरह करने, या कोई दस्तावेज या वस्तु प्रस्तुत कराने के लिए प्रक्रिया जारी की जाए, तो मजिस्ट्रेट ऐसी प्रक्रिया जारी करेगा, जब तक कि यह न माने कि यह आवेदन केवल उत्पीड़न, विलंब या न्याय में बाधा डालने के उद्देश्य से किया गया है, और ऐसे कारणों को मजिस्ट्रेट को लिखित रूप में दर्ज करना होगा

परंतु, यदि अभियुक्त ने पहले ही किसी गवाह से जिरह की है या उसे अवसर मिला है, तो ऐसे गवाह को इस धारा के अंतर्गत फिर से बुलाना अनिवार्य नहीं होगा, जब तक कि मजिस्ट्रेट यह न माने कि न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक है

साथ ही, इस उपधारा के अंतर्गत गवाह की जाँच राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित स्थान पर ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से की जा सकती है

(3) उपधारा (2) के अंतर्गत किसी गवाह को समन जारी करने से पहले, मजिस्ट्रेट उस गवाह की उपस्थिति के लिए उचित खर्च अदालत में जमा कराने का निर्देश दे सकता है

धारा 267 : अभियोजन पक्ष के साक्ष्य – Evidence for prosecution

(1) जब किसी वॉरंट-केस, जो पुलिस रिपोर्ट के अतिरिक्त किसी अन्य माध्यम से शुरू किया गया हो, में अभियुक्त न्यायालय में उपस्थित होता है या लाया जाता है, तब मजिस्ट्रेट को अभियोजन पक्ष की सुनवाई करनी होगी और अभियोजन के समर्थन में प्रस्तुत सभी साक्ष्यों को दर्ज करना होगा

(2) अभियोजन की अर्जी पर, मजिस्ट्रेट उसके किसी भी गवाह को बुलाने या किसी दस्तावेज अथवा वस्तु को प्रस्तुत करने के लिए समन जारी कर सकता है

धारा 268 : अभियुक्त को discharge कब किया जाएगा – When accused shall be discharged

(1) यदि धारा 267 के अंतर्गत सभी साक्ष्य लेने के बाद मजिस्ट्रेट यह माने कि अभियुक्त के विरुद्ध कोई ऐसा मामला नहीं बनता, जो यदि बिना खंडन के रह जाए तो उसे दोषसिद्ध करने के लिए पर्याप्त हो, तो वह लिखित कारण दर्ज कर अभियुक्त को discharge कर देगा

(2) इस धारा में ऐसा कुछ नहीं है जो मजिस्ट्रेट को यह अधिकार देने से रोके कि वह मुकदमे के किसी भी पूर्व चरण में, यदि उसे आरोप आधारहीन प्रतीत हो, तो लिखित कारण बताते हुए अभियुक्त को discharge कर सके

धारा 269 : जब अभियुक्त को discharge नहीं किया जाता – Procedure where accused is not discharged

(1) यदि साक्ष्य लेने के बाद या मुकदमे के किसी भी पूर्व चरण में मजिस्ट्रेट यह माने कि ऐसा आधार है जिससे यह अनुमान हो कि अभियुक्त ने ऐसा अपराध किया है जो इस अध्याय के अंतर्गत विचारणीय है, जिसे वह स्वयं सुन सकता है और उचित रूप से दंडित कर सकता है, तो वह अभियुक्त के विरुद्ध लिखित रूप में आरोप तय करेगा

(2) आरोप को अभियुक्त को पढ़कर सुनाया और समझाया जाएगा, और उससे पूछा जाएगा कि वह दोष स्वीकार करता है या कोई बचाव करना चाहता है

(3) यदि अभियुक्त दोष स्वीकार करता है, तो मजिस्ट्रेट उस स्वीकृति को दर्ज करेगा और विवेकानुसार उस आधार पर दोषसिद्ध कर सकता है

(4) यदि अभियुक्त दोष स्वीकार नहीं करता, या चुप रहता है, या मुकदमा लड़ना चाहता है, या उप-धारा (3) के अंतर्गत दोषसिद्ध नहीं होता, तो उससे अगली सुनवाई की शुरुआत में या मजिस्ट्रेट के आदेशानुसार तुरंत यह पूछा जाएगा कि क्या वह अभियोजन पक्ष के किसी गवाह से जिरह करना चाहता है, और यदि हाँ, तो किन गवाहों से

(5) यदि अभियुक्त जिरह करना चाहता है, तो उसके द्वारा बताए गए गवाहों को पुनः बुलाया जाएगा, और जिरह तथा पुनः जाँच के बाद उन्हें मुक्त कर दिया जाएगा

(6) अभियोजन पक्ष के अन्य शेष गवाहों की गवाही ली जाएगी, और उनकी भी जिरह तथा पुनः जाँच (यदि हो) के बाद उन्हें मुक्त किया जाएगा

(7) यदि अभियोजन पक्ष को अवसर देने और इस संहिता के अंतर्गत सभी उचित प्रयासों के बावजूद उप-धारा (5) और (6) के गवाहों को जिरह के लिए उपस्थित नहीं किया जा सके, तो माना जाएगा कि वे गवाह अनुपलब्ध हैं और उनका परीक्षण नहीं हुआ, और मजिस्ट्रेट कारण दर्ज कर अभियोजन साक्ष्य को समाप्त कर सकता है, और रिकॉर्ड में उपलब्ध सामग्री के आधार पर मामले की कार्यवाही आगे बढ़ा सकता है

धारा 270 : बचाव पक्ष के साक्ष्य – Evidence for defence

इसके बाद अभियुक्त को अपने बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने के लिए कहा जाएगा, और इस मामले में धारा 266 के प्रावधान लागू होंगे

धारा 271 : दोषमुक्ति या दोषसिद्धि – Acquittal or conviction

(1) यदि इस अध्याय के अंतर्गत किसी मामले में आरोप तय होने के बाद मजिस्ट्रेट यह पाता है कि अभियुक्त दोषी नहीं है, तो वह दोषमुक्ति का आदेश दर्ज करेगा

(2) यदि मजिस्ट्रेट यह पाता है कि अभियुक्त दोषी है, परंतु वह धारा 364 या धारा 401 के अनुसार कार्यवाही नहीं करता, तो वह अभियुक्त को दंड देने के प्रश्न पर सुनवाई के बाद, कानून के अनुसार दंड सुनाएगा

(3) यदि इस अध्याय के अंतर्गत किसी मामले में धारा 234(7) के अनुसार पूर्व दोषसिद्धि का आरोप लगाया गया है और अभियुक्त इसे स्वीकार नहीं करता, तो मजिस्ट्रेट द्वारा अभियुक्त को दोषी ठहराए जाने के बाद वह पूर्व दोषसिद्धि से संबंधित साक्ष्य ले सकता है और इस पर निर्णय दर्ज करेगा

परंतु, जब तक अभियुक्त को उप-धारा (2) के अंतर्गत दोषी नहीं ठहराया गया हो, तब तक
(i) पूर्व दोषसिद्धि का आरोप पढ़कर नहीं सुनाया जाएगा,
(ii) अभियुक्त से उस पर उत्तर नहीं माँगा जाएगा, और
(iii) अभियोजन या उसके साक्ष्य में उस दोषसिद्धि का कोई उल्लेख नहीं किया जाएगा

धारा 272 : परिवादी की अनुपस्थिति – Absence of complainant

जब किसी मामले की कार्यवाही शिकायत के आधार पर शुरू की गई हो, और किसी नियत तिथि पर परिवादी अनुपस्थित हो, तथा वह अपराध कानूनी रूप से समझौता योग्य हो या संज्ञेय न हो, तो मजिस्ट्रेट, परिवादी को उपस्थित होने के लिए तीस दिन का समय देने के बाद, और आरोप तय किए जाने से पहले किसी भी समय, अपने विवेक से अभियुक्त को discharge कर सकता है, चाहे इस संहिता में इसके विपरीत कुछ भी कहा गया हो।

धारा 273 : अनुचित कारण से आरोप लगाने पर क्षतिपूर्ति – Compensation for accusation without reasonable cause

(1) यदि किसी शिकायत या पुलिस अधिकारी अथवा मजिस्ट्रेट को दी गई सूचना के आधार पर कोई मामला शुरू किया गया हो, जिसमें एक या अधिक व्यक्तियों पर किसी ऐसे अपराध का आरोप हो जो मजिस्ट्रेट द्वारा विचारणीय है, और मजिस्ट्रेट द्वारा मामले की सुनवाई के बाद सभी या किसी अभियुक्त को discharge या बरी कर दिया जाए, और मजिस्ट्रेट यह माने कि उन पर आरोप लगाने का कोई उचित कारण नहीं था, तो वह अपने निर्णय में, यदि शिकायतकर्ता या सूचना देने वाला उपस्थित हो, तो उसे तुरंत कारण बताने को कह सकता है कि क्यों उसे अभियुक्त या अभियुक्तों को क्षतिपूर्ति नहीं देनी चाहिए; और यदि वह व्यक्ति उपस्थित न हो, तो उसे बुलाने के लिए समन जारी करने का निर्देश दे सकता है

(2) मजिस्ट्रेट शिकायतकर्ता या सूचना देने वाले द्वारा बताए गए कारणों को दर्ज करेगा और उन पर विचार करेगा, और यदि वह संतुष्ट हो जाए कि आरोप का कोई उचित आधार नहीं था, तो कारण दर्ज कर यह आदेश दे सकता है कि उस व्यक्ति द्वारा अभियुक्त या अभियुक्तों को एक निर्धारित राशि तक (जो मजिस्ट्रेट द्वारा लगाई जा सकने वाली अधिकतम जुर्माने की सीमा से अधिक न हो) क्षतिपूर्ति दी जाए

(3) मजिस्ट्रेट, उप-धारा (2) के अंतर्गत क्षतिपूर्ति भुगतान का आदेश देते समय यह भी आदेश दे सकता है कि यदि राशि का भुगतान नहीं किया गया, तो आदेशित व्यक्ति को अधिकतम तीस दिन तक के साधारण कारावास का सामना करना होगा

(4) उप-धारा (3) के तहत किसी व्यक्ति को कारावास की सजा होने पर, भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 8 की उप-धारा (6) की व्यवस्था लागू होगी।

(5) इस धारा के अंतर्गत क्षतिपूर्ति देने का आदेश मिलने से, शिकायतकर्ता या सूचना देने वाला किसी भी दीवानी या आपराधिक दायित्व से मुक्त नहीं होगा;
परंतु, अभियुक्त को इस धारा के तहत दी गई किसी भी राशि को बाद में दीवानी वाद में दिए जाने वाले मुआवज़े में समायोजित किया जाएगा

(6) यदि मजिस्ट्रेट द्वितीय श्रेणी द्वारा उप-धारा (2) के तहत दो हजार रुपये से अधिक की क्षतिपूर्ति का आदेश दिया गया हो, तो शिकायतकर्ता या सूचना देने वाला उस आदेश के विरुद्ध अपील कर सकता है, जैसे कि वह मजिस्ट्रेट द्वारा मुकदमे में दोषसिद्ध किया गया हो।

(7) यदि क्षतिपूर्ति का आदेश ऐसे मामले में दिया गया है जिसमें उप-धारा (6) के अंतर्गत अपील हो सकती है, तो अपील की समय-सीमा समाप्त होने से पहले या अपील तय होने से पहले क्षतिपूर्ति राशि अभियुक्त को नहीं दी जाएगी; और यदि मामला अपील योग्य नहीं है, तो आदेश की तारीख से एक माह तक राशि नहीं दी जाएगी

(8) इस धारा के प्रावधान समन्स-केस और वॉरंट-केस दोनों पर लागू होते हैं

धारा 274 : आरोप का सार बताना – Substance of accusation to be stated

जब समन्स-केस में अभियुक्त न्यायालय में उपस्थित होता है या लाया जाता है, तो उस पर लगे अपराध का विवरण उसे बताया जाएगा, और उससे पूछा जाएगा कि वह दोष स्वीकार करता है या कोई बचाव करना चाहता है,
परंतु औपचारिक रूप से आरोप तय करना आवश्यक नहीं होगा

परंतु, यदि मजिस्ट्रेट को आरोप आधारहीन प्रतीत हो, तो वह कारणों को लिखित रूप में दर्ज करने के बाद अभियुक्त को रिहा कर देगा, और ऐसी रिहाई discharge मानी जाएगी

धारा 275 : दोष स्वीकार करने पर दोषसिद्धि – Conviction on plea of guilty

यदि अभियुक्त दोष स्वीकार करता है, तो मजिस्ट्रेट उसकी स्वीकृति को यथासंभव उसके शब्दों में दर्ज करेगा और विवेकानुसार उस आधार पर उसे दोषी ठहरा सकता है

धारा 276 : साधारण मामलों में अभियुक्त की अनुपस्थिति में दोष स्वीकार करने पर दोषसिद्धि – Conviction on plea of guilty in absence of accused in petty cases

(1) जब धारा 229 के तहत समन जारी किया गया हो और अभियुक्त बिना मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित हुए दोष स्वीकार करना चाहता हो, तो वह डाक या किसी व्यक्ति के माध्यम से एक पत्र भेज सकता है जिसमें उसका दोष स्वीकार करने का बयान और समन में दर्शाया गया जुर्माना जमा हो

(2) मजिस्ट्रेट विवेकानुसार अभियुक्त की अनुपस्थिति में, उसके द्वारा भेजे गए दोषस्वीकार के आधार पर उसे दोषी ठहरा सकता है, और उसे समन में उल्लेखित जुर्माना अदा करने की सजा दे सकता है
अभियुक्त द्वारा भेजी गई राशि को उस जुर्माने में समायोजित कर दिया जाएगा
या, यदि अभियुक्त द्वारा अधिकृत कोई अधिवक्ता उसकी ओर से दोष स्वीकार करता है, तो मजिस्ट्रेट उस अधिवक्ता के शब्दों में यथासंभव दोषस्वीकार को दर्ज करेगा और विवेकानुसार अभियुक्त को दोषी ठहराकर वैसी ही सजा दे सकता है

धारा 276 : साधारण मामलों में अभियुक्त की अनुपस्थिति में दोष स्वीकार करने पर दोषसिद्धि – Conviction on plea of guilty in absence of accused in petty cases

(1) जब धारा 229 के तहत समन जारी किया गया हो और अभियुक्त बिना मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित हुए दोष स्वीकार करना चाहता हो, तो वह डाक या किसी व्यक्ति के माध्यम से एक पत्र भेज सकता है जिसमें उसका दोष स्वीकार करने का बयान और समन में दर्शाया गया जुर्माना जमा हो

(2) मजिस्ट्रेट विवेकानुसार अभियुक्त की अनुपस्थिति में, उसके द्वारा भेजे गए दोषस्वीकार के आधार पर उसे दोषी ठहरा सकता है, और उसे समन में उल्लेखित जुर्माना अदा करने की सजा दे सकता है
अभियुक्त द्वारा भेजी गई राशि को उस जुर्माने में समायोजित कर दिया जाएगा
या, यदि अभियुक्त द्वारा अधिकृत कोई अधिवक्ता उसकी ओर से दोष स्वीकार करता है, तो मजिस्ट्रेट उस अधिवक्ता के शब्दों में यथासंभव दोषस्वीकार को दर्ज करेगा और विवेकानुसार अभियुक्त को दोषी ठहराकर वैसी ही सजा दे सकता है

धारा 277 : दोषी न ठहराए जाने की स्थिति में प्रक्रिया – Procedure when not convicted

(1) यदि मजिस्ट्रेट धारा 275 या धारा 276 के अंतर्गत अभियुक्त को दोषी नहीं ठहराता, तो वह अभियोजन पक्ष की बात सुनेगा और उसके समर्थन में प्रस्तुत सभी साक्ष्य ग्रहण करेगा, साथ ही अभियुक्त की भी सुनवाई करेगा और उसके बचाव में प्रस्तुत सभी साक्ष्य भी स्वीकार करेगा

(2) मजिस्ट्रेट, यदि उपयुक्त समझे, तो अभियोजन या अभियुक्त के आवेदन पर, किसी गवाह को बुलाने या कोई दस्तावेज़ या अन्य वस्तु प्रस्तुत करने के लिए समन जारी कर सकता है

(3) मजिस्ट्रेट, ऐसे आवेदन पर किसी गवाह को बुलाने से पहले, यह निर्धारित कर सकता है कि उस गवाह के उपस्थित होने में हुए उचित खर्च की राशि न्यायालय में जमा कराई जाए

धारा 278 : दोषमुक्ति या दोषसिद्धि – Acquittal or conviction

(1) यदि मजिस्ट्रेट, धारा 277 के अंतर्गत लिए गए साक्ष्य और अपने विवेक से लिए गए किसी अन्य साक्ष्य के आधार पर, अभियुक्त को दोषी नहीं पाता, तो वह दोषमुक्ति (बरी करने) का आदेश दर्ज करेगा

(2) यदि मजिस्ट्रेट धारा 364 या धारा 401 के प्रावधानों के अनुसार कार्यवाही नहीं करता, और उसे अभियुक्त दोषी प्रतीत होता है, तो वह कानून के अनुसार दंड निर्धारित करेगा

(3) मजिस्ट्रेट, धारा 275 या धारा 278 के अंतर्गत, अभियुक्त को इस अध्याय के अंतर्गत विचारणीय किसी भी अपराध के लिए दोषी ठहरा सकता है, यदि प्रमाणित या स्वीकार किए गए तथ्यों से ऐसा अपराध सिद्ध होता हो, और मजिस्ट्रेट को यह संतोष हो कि इससे अभियुक्त को कोई अन्याय नहीं होगा, चाहे शिकायत या समन का स्वरूप कुछ भी हो

धारा 279 : परिवादी के उपस्थित न होने या मृत्यु की स्थिति – Non-appearance or death of complainant

(1) यदि समन किसी शिकायत पर जारी किया गया है, और निर्धारित तिथि या उस तिथि के बाद स्थगित की गई किसी भी तिथि को जब अभियुक्त को उपस्थित होना है, परिवादी उपस्थित नहीं होता, तो मजिस्ट्रेट, परिवादी को उपस्थित होने के लिए तीस दिन का समय देने के बाद, भले ही पहले कुछ भी कहा गया हो, अभियुक्त को दोषमुक्त कर देगा, जब तक कि कोई कारण न हो जिसके कारण वह सुनवाई को किसी और दिन के लिए स्थगित करना उचित समझे

यह भी प्रावधान है कि, यदि परिवादी की ओर से कोई वकील या अभियोजन अधिकारी उपस्थित हो, या मजिस्ट्रेट यह माने कि परिवादी की व्यक्तिगत उपस्थिति आवश्यक नहीं है, तो वह उसकी उपस्थिति को माफ कर सकता है और मामले की कार्यवाही आगे बढ़ा सकता है

(2) उपधारा (1) के प्रावधान, जहाँ परिवादी की अनुपस्थिति उसकी मृत्यु के कारण हो, ऐसे मामलों पर भी जहाँ तक संभव हो लागू होंगे

धारा 280 : शिकायत का वापस लिया जाना – Withdrawal of complaint

यदि कोई परिवादी, इस अध्याय के अंतर्गत किसी मामले में अंतिम आदेश पारित होने से पहले कभी भी, मजिस्ट्रेट को यह संतुष्ट कर देता है कि अपनी शिकायत वापस लेने के लिए पर्याप्त कारण हैं, चाहे वह सभी या किसी एक अभियुक्त के विरुद्ध हो, तो मजिस्ट्रेट उसे शिकायत वापस लेने की अनुमति दे सकता है, और उसके बाद जिस अभियुक्त के विरुद्ध शिकायत वापस ली गई है, उसे दोषमुक्त कर देगा

धारा 281 : कुछ मामलों में कार्यवाही रोकने की शक्ति – Power to stop proceedings in certain cases

किसी समन-प्रकरण में, जो शिकायत के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार से आरंभ हुआ हो, प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की पूर्व स्वीकृति से कोई अन्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, अपने द्वारा लिखित रूप में दर्ज कारणों के आधार पर, किसी भी चरण पर बिना कोई निर्णय सुनाए कार्यवाही रोक सकता है

यदि यह कार्यवाही मुख्य गवाहों की गवाही दर्ज होने के बाद रोकी जाती है, तो मजिस्ट्रेट दोषमुक्ति का निर्णय सुनाएगा। अन्य स्थिति में वह अभियुक्त को रिहा कर सकता है, और ऐसी रिहाई आरोपमुक्ति (discharge) के समान मानी जाएगी

धारा 282 : समन-प्रकरण को वारंट-प्रकरण में बदलने की न्यायालय की शक्ति – Power of Court to convert summons-cases into warrant-cases

जब किसी ऐसे समन-प्रकरण की सुनवाई के दौरान, जो छह महीने से अधिक की सजा वाले अपराध से संबंधित हो, मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत हो कि न्याय के हित में उस अपराध की सुनवाई वारंट-प्रकरण की प्रक्रिया के अनुसार की जानी चाहिए, तो वह मजिस्ट्रेट, इस संहिता में वर्णित वारंट-प्रकरण की प्रक्रिया के अनुसार पुनः सुनवाई शुरू कर सकता है, और पूर्व में परीक्षित किसी भी गवाह को फिर से बुला सकता है

धारा 283 : संक्षिप्त रूप से विचारण की शक्ति – Power to try summarily

(1) इस संहिता में वर्णित किसी भी बात के होते हुए भी—

(क) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट,
(ख) प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट,
निम्नलिखित अपराधों में से किसी एक या सभी का संक्षिप्त रूप से विचारण कर सकते हैं

(i) धारा 303(2), 305 या 306 के अंतर्गत चोरी, जब चोरी की गई संपत्ति का मूल्य 20,000 रुपये से अधिक न हो
(ii) धारा 317(2) के अंतर्गत चोरी की संपत्ति को प्राप्त करना या अपने पास रखना, जब संपत्ति का मूल्य 20,000 रुपये से अधिक न हो।
(iii) धारा 317(5) के अंतर्गत चोरी की संपत्ति को छुपाने या हटाने में सहायता करना, जब उसका मूल्य 20,000 रुपये से अधिक न हो।
(iv) धारा 331(2) और (3) के अंतर्गत अपराध।
(v) धारा 352 के अंतर्गत शांति भंग करने के उद्देश्य से अपमान, तथा धारा 351(2) और (3) के अंतर्गत आपराधिक डराना
(vi) उपर्युक्त किसी भी अपराध में उकसाना
(vii) उपर्युक्त किसी भी अपराध के प्रयास, जब वह स्वयं एक अपराध हो।
(viii) Cattle-trespass Act, 1871 की धारा 20 के अंतर्गत शिकायत किए जा सकने वाले किसी कार्य से संबंधित अपराध।

(2) मजिस्ट्रेट, अभियुक्त को सुनवाई का यथोचित अवसर देकर और कारणों को लिखित रूप में दर्ज कर, ऐसे किसी भी अपराध का संक्षिप्त विचारण कर सकता है जो मृत्यु, आजीवन कारावास या तीन वर्ष से अधिक की सजा से दंडनीय न हो
यह प्रावधान भी है कि मजिस्ट्रेट द्वारा ऐसे संक्षिप्त विचारण का निर्णय अपील योग्य नहीं होगा

(3) यदि संक्षिप्त विचारण के दौरान मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत हो कि मामले का स्वभाव ऐसा है कि उसका संक्षिप्त विचारण उचित नहीं होगा, तो वह पूर्व में परीक्षित किसी भी गवाह को फिर से बुलाएगा और इस संहिता में निर्धारित सामान्य प्रक्रिया के अनुसार मामले की पुनः सुनवाई करेगा

धारा 284 : द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट द्वारा संक्षिप्त विचारण – Summary trial by Magistrate of second class

उच्च न्यायालय किसी ऐसे मजिस्ट्रेट को, जिसे द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट की शक्तियाँ प्रदान की गई हों, यह शक्ति प्रदान कर सकता है कि वह ऐसे अपराधों का संक्षिप्त रूप से विचारण कर सके जो केवल जुर्माने से या छह महीने तक की कारावास (जुर्माने सहित या बिना जुर्माने के) से दंडनीय हों, तथा ऐसे अपराधों के प्रयास या उकसावे से संबंधित अपराधों का भी

धारा 285 : संक्षिप्त विचारण की प्रक्रिया – Procedure for summary trials

(1) इस अध्याय के अंतर्गत मामलों की सुनवाई में, इस संहिता में समन-प्रकरणों की जो प्रक्रिया निर्धारित की गई है, उसे ही अपनाया जाएगा, जब तक कि आगे कुछ अलग न कहा गया हो

(2) इस अध्याय के अंतर्गत किसी भी दोषसिद्धि की स्थिति में तीन महीने से अधिक की कारावास की सजा नहीं दी जा सकती

धारा 286 : संक्षिप्त विचारण में अभिलेख – Record in summary trials

हर उस मामले में जो संक्षिप्त रूप से विचारित किया गया हो, मजिस्ट्रेट को राज्य सरकार द्वारा निर्धारित रूप में निम्नलिखित विवरण दर्ज करने होंगे—

(क) मामले का क्रमांक
(ख) अपराध किए जाने की तिथि
(ग) रिपोर्ट या शिकायत की तिथि
(घ) परिवादी का नाम (यदि हो)
(ङ) अभियुक्त का नाम, पिता का नाम और निवास स्थान
(च) अभियोजित अपराध तथा यदि कोई सिद्ध हुआ हो तो वह अपराध, और यदि मामला धारा 283 की उपधारा (1) के खंड (i), (ii) या (iii) के अंतर्गत आता हो तो संपत्ति का मूल्य
(छ) अभियुक्त का कथन और उसका परीक्षण (यदि हुआ हो)
(ज) निर्णय
(झ) सजा या अन्य अंतिम आदेश
(ञ) वह तिथि जब कार्यवाही समाप्त हुई

धारा 287 : संक्षिप्त रूप से विचारित मामलों में निर्णय – Judgment in cases tried summarily

हर उस मामले में जो संक्षिप्त रूप से विचारित किया गया हो और जिसमें अभियुक्त दोष स्वीकार नहीं करता, मजिस्ट्रेट को साक्ष्यों का सार तथा निर्णय के लिए दिए गए कारणों का संक्षिप्त विवरण सहित एक निर्णय दर्ज करना होगा।

धारा 288 : अभिलेख और निर्णय की भाषा – Language of record and judgment

(1) ऐसा हर अभिलेख और निर्णय न्यायालय की भाषा में लिखा जाएगा

(2) उच्च न्यायालय किसी ऐसे मजिस्ट्रेट को, जिसे संक्षिप्त रूप से अपराधों के विचारण की शक्ति प्राप्त हो, यह अधिकार दे सकता है कि वह उपरोक्त अभिलेख या निर्णय या दोनों को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा इस कार्य हेतु नियुक्त अधिकारी के माध्यम से तैयार कराए, और ऐसे तैयार किए गए अभिलेख या निर्णय पर वह मजिस्ट्रेट हस्ताक्षर करेगा

धारा 289 : अध्याय का अनुप्रयोग – Application of Chapter

(1) यह अध्याय उस अभियुक्त पर लागू होगा—
(क) जिसके विरुद्ध पुलिस थाना प्रभारी द्वारा धारा 193 के अंतर्गत रिपोर्ट भेजी गई हो, जिसमें यह कहा गया हो कि उसने कोई ऐसा अपराध किया है जो वर्तमान कानून के अंतर्गत मृत्यु, आजीवन कारावास या सात वर्ष से अधिक की सजा से दंडनीय नहीं है; या
(ख) जिसके विरुद्ध मजिस्ट्रेट ने शिकायत पर संज्ञान लिया हो, जो ऐसा अपराध हो जो मृत्यु, आजीवन कारावास या सात वर्ष से अधिक की सजा से दंडनीय नहीं है, और जिसमें धारा 223 के अंतर्गत परिवादी और गवाहों का परीक्षण करके, धारा 227 के अंतर्गत प्रक्रिया जारी की गई हो

लेकिन यह अध्याय उन अपराधों पर लागू नहीं होगा, जो देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को प्रभावित करते हैं या जो किसी स्त्री या बच्चे के विरुद्ध किए गए हों

(2) उपधारा (1) के प्रयोजन के लिए, केंद्र सरकार अधिसूचना द्वारा यह निर्धारित करेगी कि कौन-से अपराध देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को प्रभावित करने वाले माने जाएंगे, जो उस समय प्रभावी कानून के अंतर्गत होंगे।

धारा 290 : दोष स्वीकार याचिका के लिए आवेदन – Application for plea bargaining

(1) अभियुक्त व्यक्ति, उस न्यायालय में जिसमें अपराध की सुनवाई लंबित है, आरोप तय होने की तिथि से तीस दिनों के भीतर दोष स्वीकार याचिका (plea bargaining) के लिए आवेदन कर सकता है

(2) उपधारा (1) के अंतर्गत किया गया आवेदन उस मामले का संक्षिप्त विवरण देगा, जिसमें यह याचिका दायर की गई है, और उस अपराध का उल्लेख करेगा जिससे वह मामला संबंधित है। इसके साथ अभियुक्त द्वारा दिया गया एक शपथपत्र भी संलग्न होगा, जिसमें यह कहा जाएगा कि उसने कानून में उस अपराध के लिए निर्धारित सजा की प्रकृति और सीमा को समझने के बाद, स्वेच्छा से दोष स्वीकार याचिका दायर की है, और वह पूर्व में उसी अपराध के लिए किसी न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध नहीं किया गया है

(3) उपधारा (1) के अंतर्गत आवेदन प्राप्त होने के बाद, न्यायालय लोक अभियोजक या परिवादी तथा अभियुक्त को नोटिस जारी करेगा, ताकि वे निर्धारित तिथि पर उपस्थित हों

(4) जब लोक अभियोजक या परिवादी और अभियुक्त उपधारा (3) के अंतर्गत निर्धारित तिथि पर उपस्थित होते हैं, तो न्यायालय अभियुक्त की व्यक्तिगत रूप से बंद कक्ष (in camera) में जांच करेगा, जहाँ मामला संबंधित अन्य पक्ष उपस्थित नहीं रहेगा, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अभियुक्त ने आवेदन स्वेच्छा से किया है, और—

(क) यदि न्यायालय को यह संतोष होता है कि आवेदन अभियुक्त द्वारा स्वेच्छा से किया गया है, तो वह लोक अभियोजक या परिवादी और अभियुक्त को आपसी सहमति से मामले के समाधान हेतु अधिकतम साठ दिनों का समय देगा, जिसमें पीड़ित को अभियुक्त द्वारा मुआवजा या अन्य व्यय की व्यवस्था भी शामिल हो सकती है, और उसके बाद मामले की अगली सुनवाई की तिथि निर्धारित करेगा;

(ख) यदि न्यायालय यह पाता है कि आवेदन स्वेच्छा से नहीं किया गया है या अभियुक्त पूर्व में उसी अपराध में दोषसिद्ध हो चुका है, तो वह इस संहिता के अनुसार उस अवस्था से आगे की कार्यवाही करेगा, जहाँ उपधारा (1) के तहत आवेदन दायर किया गया था

धारा 291 : आपसी संतोषजनक निपटान के लिए दिशानिर्देश – Guidelines for mutually satisfactory disposition

धारा 290 की उपधारा (4) के खंड (क) के अंतर्गत आपसी संतोषजनक निपटान की प्रक्रिया में न्यायालय निम्नलिखित प्रक्रिया अपनाएगा—

(क) यदि मामला पुलिस रिपोर्ट के आधार पर प्रारंभ हुआ है, तो न्यायालय लोक अभियोजक, मामले की जांच करने वाले पुलिस अधिकारी, अभियुक्त तथा पीड़ित को नोटिस जारी करेगा, ताकि वे मामले के संतोषजनक निपटान के लिए बैठक में भाग लें
यह न्यायालय का कर्तव्य होगा कि पूरी प्रक्रिया में यह सुनिश्चित करे कि सभी पक्ष स्वेच्छा से भाग लें, और
यदि अभियुक्त चाहे, तो वह अपने नियुक्त अधिवक्ता के साथ बैठक में भाग ले सकता है

(ख) यदि मामला पुलिस रिपोर्ट के अतिरिक्त किसी अन्य माध्यम से प्रारंभ हुआ है, तो न्यायालय अभियुक्त और पीड़ित को नोटिस जारी करेगा ताकि वे संतोषजनक निपटान हेतु बैठक में भाग लें
इस पूरी प्रक्रिया में न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि सभी पक्ष स्वेच्छा से भाग लें, और
यदि अभियुक्त या पीड़ित चाहे, तो वह अपने नियुक्त अधिवक्ता के साथ बैठक में भाग ले सकता है

 

धारा 292 : आपसी संतोषजनक निपटान की रिपोर्ट न्यायालय में प्रस्तुत करना – Report of mutually satisfactory disposition to be submitted before Court

जब धारा 291 के अंतर्गत हुई बैठक में मामला संतोषजनक रूप से सुलझा लिया गया हो, तो न्यायालय ऐसे निपटान की एक रिपोर्ट तैयार करेगा, जिस पर न्यायालय के अध्यक्ष और बैठक में भाग लेने वाले सभी व्यक्तियों के हस्ताक्षर होंगे

यदि कोई संतोषजनक निपटान नहीं हो पाया, तो न्यायालय उसका उल्लेख अभिलेख में करेगा और फिर उस स्थिति से आगे की कार्यवाही इस संहिता के प्रावधानों के अनुसार उसी चरण से प्रारंभ करेगा, जहाँ धारा 290 की उपधारा (1) के तहत आवेदन दायर किया गया था

 

धारा 293 : मामले का निपटारा – Disposal of case

जब धारा 292 के अंतर्गत मामला संतोषजनक रूप से सुलझा लिया गया हो, तो न्यायालय मामले का निपटारा निम्नलिखित प्रकार से करेगा—

(क) न्यायालय पीड़ित को धारा 292 के अंतर्गत हुए निपटान के अनुसार मुआवजा प्रदान करेगा और फिर दंड की मात्रा, अभियुक्त को अच्छे आचरण पर परिवीक्षा पर छोड़ने या चेतावनी देकर छोड़ने (धारा 401 के अंतर्गत), या Probation of Offenders Act, 1958 अथवा किसी अन्य लागू कानून के अंतर्गत अभियुक्त से व्यवहार करने के संबंध में पक्षकारों की सुनवाई करेगा, और अभियुक्त को दंड देने हेतु आगे की प्रक्रिया अपनाएगा

(ख) यदि उपरोक्त सुनवाई के बाद न्यायालय को यह प्रतीत हो कि धारा 401 या Probation of Offenders Act, 1958 अथवा किसी अन्य लागू कानून के प्रावधान लागू होते हैं, तो वह अभियुक्त को परिवीक्षा पर रिहा कर सकता है या उस कानून का लाभ प्रदान कर सकता है

(ग) यदि न्यायालय को यह लगे कि अभियुक्त द्वारा किए गए अपराध के लिए कानून में न्यूनतम सजा निर्धारित है, तो वह उस न्यूनतम सजा के आधे भाग की सजा दे सकता है, और यदि अभियुक्त प्रथम बार अपराध करने वाला है और पहले कभी दोषसिद्ध नहीं हुआ है, तो वह न्यूनतम सजा के एक-चौथाई भाग की सजा दे सकता है

(घ) यदि न्यायालय यह पाता है कि अभियुक्त द्वारा किया गया अपराध उपरोक्त (ख) या (ग) के अंतर्गत नहीं आता, तो वह निर्धारित या विस्तार योग्य सजा का एक-चौथाई भाग दे सकता है, और यदि अभियुक्त प्रथम बार अपराधी है और पूर्व में दोषसिद्ध नहीं हुआ है, तो वह उस सजा का एक-छठा भाग दे सकता है

धारा 294 : न्यायालय का निर्णय – Judgment of Court

न्यायालय धारा 293 के अनुसार अपना निर्णय खुले न्यायालय में सुनाएगा, और उस निर्णय पर न्यायालय के अध्यक्ष द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे

धारा 295 : निर्णय की अंतिमता – Finality of judgment

इस धारा के अंतर्गत न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय अंतिम होगा, और ऐसे निर्णय के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में अपील नहीं की जा सकेगी, सिवाय इसके कि संविधान के अनुच्छेद 136 के अंतर्गत विशेष अनुमति याचिका (Special Leave Petition) या अनुच्छेद 226 और 227 के अंतर्गत रिट याचिका दायर की जाए।

धारा 296 : दोष स्वीकार याचिका में न्यायालय की शक्ति – Power of Court in plea bargaining

इस अध्याय के अंतर्गत अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए, न्यायालय को जमानत, अपराधों के विचारण तथा मामले के निपटारे से संबंधित अन्य विषयों के संबंध में इस संहिता के अंतर्गत जो भी शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, वे सभी शक्तियाँ प्राप्त होंगी

धारा 297 : अभियुक्त द्वारा भोगी गई निरुद्धि की अवधि को कारावास की सजा में समायोजित किया जाना – Period of detention undergone by accused to be set off against sentence of imprisonment

इस अध्याय के अंतर्गत आरोपित कारावास की सजा में, अभियुक्त द्वारा पूर्व में भोगी गई निरुद्धि की अवधि को समायोजित करने के लिए धारा 468 के प्रावधान उसी प्रकार लागू होंगे, जैसे कि इस संहिता के अन्य प्रावधानों के अंतर्गत दी गई सजा के मामले में होते हैं

धारा 298 : संरक्षण (Savings)

इस अध्याय के प्रावधान प्रभावी होंगे, चाहे इस संहिता के किसी अन्य प्रावधान में कुछ भी असंगत क्यों न कहा गया हो, और ऐसे अन्य प्रावधानों को इस अध्याय के किसी भी प्रावधान की व्याख्या को बाधित करने वाला नहीं माना जाएगा

स्पष्टीकरण इस अध्याय के प्रयोजन के लिए, “लोक अभियोजक” (Public Prosecutor) शब्द का अर्थ धारा 2 के खंड (v) में दिया गया है और इसमें धारा 19 के अंतर्गत नियुक्त सहायक लोक अभियोजक (Assistant Public Prosecutor) भी शामिल हैं

धारा 299 : अभियुक्त के कथनों का उपयोग नहीं किया जाएगा – Statements of accused not to be used

वर्तमान में प्रभावी किसी भी कानून में कुछ भी कहा गया हो, उसके बावजूद, धारा 290 के अंतर्गत दोष स्वीकार याचिका के लिए अभियुक्त द्वारा दिए गए कथन या तथ्य, इस अध्याय के प्रयोजन को छोड़कर किसी अन्य उद्देश्य के लिए प्रयोग में नहीं लिए जाएंगे

धारा 300 : अध्याय का अपलागुता – Non-application of Chapter

इस अध्याय का कोई भी प्रावधान ऐसे किसी किशोर या बालक पर लागू नहीं होगा जैसा कि किशोर न्याय (बच्चों की देखरेख और संरक्षण) अधिनियम, 2015 की धारा 2 में परिभाषित किया गया है

CHAPTER XXIV

ATTENDANCE OF PERSONS CONFINED OR DETAINED IN PRISONS

धारा 301 : परिभाषाएँ – Definitions

इस अध्याय में—

(क) “निरुद्ध” (detained) में वह स्थिति भी शामिल है जब किसी व्यक्ति को किसी भी निवारक निरुद्धि कानून (preventive detention law) के अंतर्गत निरुद्ध किया गया हो।

(ख) “कारागार” (prison) में निम्नलिखित स्थान सम्मिलित हैं—
(i) ऐसा कोई भी स्थान जिसे राज्य सरकार द्वारा सामान्य या विशेष आदेश के माध्यम से उपकारागार घोषित किया गया हो
(ii) कोई भी सुधारगृह, बोर्स्टल संस्था या इसी प्रकार की कोई अन्य संस्था

धारा 302 : बंदियों की उपस्थिति आवश्यक करने की शक्ति – Power to require attendance of prisoners

(1) जब किसी जांच, विचारण या कार्यवाही के दौरान किसी आपराधिक न्यायालय को यह प्रतीत होता है—

(क) कि किसी व्यक्ति को, जो कारागार में बंद या निरुद्ध है, किसी अपराध के आरोप का उत्तर देने या उसके विरुद्ध चल रही कार्यवाही के लिए न्यायालय के समक्ष लाया जाना आवश्यक है; या
(ख) कि न्याय के हित में ऐसे व्यक्ति का गवाह के रूप में परीक्षण आवश्यक है,
तो न्यायालय कारागार प्रभारी अधिकारी को आदेश दे सकता है कि वह उस व्यक्ति को आरोप का उत्तर देने, कार्यवाही में भाग लेने या साक्ष्य देने हेतु न्यायालय में प्रस्तुत करे

(2) यदि ऐसा आदेश द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट द्वारा पारित किया गया हो, तो वह तब तक कारागार अधिकारी को न भेजा जाएगा और न उस पर कार्रवाई की जाएगी, जब तक कि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, जिसके अधीन वह मजिस्ट्रेट कार्य करता है, उस पर अनुमोदन (countersign) न कर दे

(3) अनुमोदन हेतु भेजे गए हर आदेश के साथ एक विवरण पत्र भी संलग्न होगा, जिसमें वह तथ्य होंगे जिनके आधार पर मजिस्ट्रेट को ऐसा आदेश आवश्यक प्रतीत हुआ
मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, विवरण का परीक्षण करके, चाहे तो आदेश पर अनुमोदन देने से इनकार कर सकता है

धारा 303 : राज्य सरकार या केंद्र सरकार को धारा 302 के क्रियान्वयन से कुछ व्यक्तियों को अपवर्जित करने की शक्ति – Power of State Government or Central Government to exclude certain persons from operation of section 302

(1) राज्य सरकार या केंद्र सरकार, जैसा भी प्रासंगिक हो, उपधारा (2) में उल्लिखित बातों को ध्यान में रखते हुए, किसी भी समय, सामान्य या विशेष आदेश द्वारा यह निर्देश दे सकती है कि कोई व्यक्ति या व्यक्तियों का कोई वर्ग उस कारागार से नहीं हटाया जाएगा, जिसमें वे निरुद्ध या बंद हैं।
ऐसे आदेश के प्रभावी रहते हुए, धारा 302 के अंतर्गत पारित कोई भी आदेश—चाहे वह राज्य या केंद्र सरकार के आदेश से पहले या बाद में पारित हुआ हो—उन व्यक्तियों पर लागू नहीं होगा

(2) उपधारा (1) के अंतर्गत आदेश पारित करने से पहले, राज्य सरकार या केंद्र सरकार (यदि मामला उसकी केंद्रीय एजेंसी द्वारा दायर किया गया हो), निम्न बातों पर विचार करेगी—

(क) उस अपराध की प्रकृति या कारण, जिसके लिए वह व्यक्ति या व्यक्तियों का वर्ग कारागार में बंद या निरुद्ध किया गया है।
(ख) यदि उन व्यक्तियों को कारागार से बाहर ले जाने की अनुमति दी जाती है, तो सार्वजनिक व्यवस्था भंग होने की संभावना
(ग) सामान्य रूप से जनहित

धारा 304 : कुछ परिस्थितियों में न्यायालय के आदेश के पालन से कारागार प्रभारी अधिकारी का विरत रहना – Officer in charge of prison to abstain from carrying out order in certain contingencies

यदि जिस व्यक्ति के संबंध में धारा 302 के अंतर्गत आदेश जारी किया गया हो, वह—

(क) बीमारी या दुर्बलता के कारण कारागार से बाहर ले जाने के लिए अयोग्य हो; या
(ख) विचारण हेतु न्यायालय में प्रस्तुत किए जाने की प्रतीक्षा में या पूर्व जांच लंबित होने के कारण हिरासत में हो; या
(ग) ऐसी हिरासत में हो जिसकी अवधि उस समय से पहले समाप्त हो रही हो जितना उस आदेश का पालन करने और उसे पुनः उसी कारागार में वापस लाने में लगेगा; या
(घ) ऐसा व्यक्ति हो जिस पर धारा 303 के अंतर्गत राज्य सरकार या केंद्र सरकार द्वारा पारित आदेश लागू हो,

तो कारागार प्रभारी अधिकारी न्यायालय के आदेश का पालन नहीं करेगा और ऐसा न करने के कारणों का विवरण न्यायालय को भेजेगा

परंतु, यदि ऐसे व्यक्ति को गवाही देने के लिए उपस्थित होना है और वह स्थान कारागार से पच्चीस किलोमीटर से अधिक दूर नहीं है, तो उपबंध (ख) के कारण अधिकारी आदेश के पालन से विरत नहीं हो सकता

धारा 305 : बंदी को अभिरक्षा में न्यायालय में लाना – Prisoner to be brought to Court in custody

धारा 304 के प्रावधानों के अधीन रहते हुए, जब धारा 302 की उपधारा (1) के अंतर्गत पारित आदेश (और जहाँ आवश्यक हो, उपधारा (2) के अनुसार अनुमोदित) कारागार प्रभारी अधिकारी को प्राप्त होता है, तो वह आदेश में उल्लिखित व्यक्ति को उस न्यायालय में ले जाने की व्यवस्था करेगा, जहाँ उसकी उपस्थिति आवश्यक है, ताकि वह निर्धारित समय पर न्यायालय में उपस्थित हो सके

इसके साथ ही, अधिकारी यह भी सुनिश्चित करेगा कि उस व्यक्ति को न्यायालय में या उसके निकट अभिरक्षा में रखा जाए, जब तक कि—

(i) उसका परीक्षण पूरा न हो जाए, या
(ii) न्यायालय उसे पुनः उस कारागार में वापस भेजने की अनुमति न दे, जहाँ वह बंद या निरुद्ध था।

धारा 306 : कारागार में बंद गवाह के परीक्षण हेतु आयोग जारी करने की शक्ति – Power to issue commission for examination of witness in prison

इस अध्याय के प्रावधानों के बावजूद, न्यायालय को यह शक्ति प्राप्त होगी कि वह धारा 319 के अंतर्गत किसी ऐसे व्यक्ति के गवाह के रूप में परीक्षण के लिए आयोग (commission) जारी कर सके, जो कारागार में बंद या निरुद्ध हो

इसके अतिरिक्त, अध्याय XXV के भाग ‘B’ के प्रावधान ऐसे व्यक्ति के आयोग द्वारा परीक्षण पर उसी प्रकार लागू होंगे, जैसे वे किसी अन्य व्यक्ति के आयोग द्वारा परीक्षण पर लागू होते हैं।

धारा 307 : न्यायालयों की भाषा – Language of Courts

राज्य सरकार यह निर्धारित कर सकती है कि इस संहिता के प्रयोजनों के लिए राज्य में उच्च न्यायालय को छोड़कर प्रत्येक न्यायालय की भाषा क्या होगी

CHAPTER XXV

EVIDENCE IN INQUIRIES AND TRIALS

धारा 308 : अभियुक्त की उपस्थिति में साक्ष्य लिया जाना – Evidence to be taken in presence of accused

जब तक कि कहीं और विशेष रूप से अन्यथा न कहा गया हो, मुकदमे या अन्य कार्यवाही के दौरान लिया गया प्रत्येक साक्ष्य अभियुक्त की उपस्थिति में लिया जाएगा, या यदि उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट दी गई हो, तो उसके अधिवक्ता की उपस्थिति में, जिसमें राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित स्थान पर ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से उपस्थिति भी शामिल है।

परंतु, यदि किसी अठारह वर्ष से कम आयु की महिला, जिसे बलात्कार या अन्य किसी यौन अपराध का शिकार बताया गया है, की साक्ष्य रिकार्ड की जानी हो, तो न्यायालय यह सुनिश्चित करने के लिए उचित उपाय कर सकता है कि उसे अभियुक्त का आमना-सामना न करना पड़े, और साथ ही यह भी सुनिश्चित करे कि अभियुक्त को जिरह (cross-examination) का अधिकार प्राप्त रहे

स्पष्टीकरण इस धारा में “अभियुक्त” में वह व्यक्ति भी शामिल है जिसके विरुद्ध इस संहिता के अध्याय IX के अंतर्गत कोई कार्यवाही प्रारंभ की गई है

धारा 309 : समन-प्रकरणों और जांच में अभिलेख – Record in summons-cases and inquiries

(1) सभी समन-प्रकरणों, जो मजिस्ट्रेट के समक्ष विचारण में हों, तथा धारा 164 से 167 (दोनों सहित) के अंतर्गत की गई सभी जांचों, और धारा 491 के अंतर्गत की गई सभी कार्यवाहियों (जब वे मुकदमे की प्रक्रिया में न हों), में मजिस्ट्रेट प्रत्येक गवाह की जांच के दौरान न्यायालय की भाषा में साक्ष्य का सारांश रूपी स्मरण-पत्र (memorandum) तैयार करेगा

परंतु, यदि मजिस्ट्रेट स्वयं ऐसा स्मरण-पत्र तैयार करने में असमर्थ हो, तो वह अपनी असमर्थता का कारण रिकॉर्ड पर दर्ज करेगा, और फिर ऐसा स्मरण-पत्र लिखित रूप में या खुले न्यायालय में अपने कथन के अनुसार तैयार करवाएगा

(2) ऐसा स्मरण-पत्र मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षरित किया जाएगा और अभिलेख (record) का भाग माना जाएगा

धारा 310 : वारंट-प्रकरणों में अभिलेख – Record in warrant-cases

(1) सभी वारंट-प्रकरणों, जो मजिस्ट्रेट के समक्ष विचारण में हों, में प्रत्येक गवाह का साक्ष्य उसकी जांच के दौरान लिखित रूप में लिया जाएगा, या तो—

मजिस्ट्रेट स्वयं द्वारा,
या खुले न्यायालय में उनके कथन पर लिखवाकर,
या यदि वह शारीरिक या अन्य अक्षमता के कारण स्वयं लिखने में असमर्थ हों, तो उनके निर्देश व पर्यवेक्षण में उनके द्वारा नियुक्त न्यायालय के किसी अधिकारी द्वारा

परंतु, इस उपधारा के अंतर्गत गवाह का साक्ष्य ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भी दर्ज किया जा सकता है, बशर्ते कि अभियुक्त के अधिवक्ता की उपस्थिति में किया जाए

(2) यदि मजिस्ट्रेट स्वयं साक्ष्य नहीं लिखते हैं, तो उन्हें यह प्रमाणपत्र दर्ज करना होगा कि वह उपधारा (1) में बताए गए कारणों से स्वयं साक्ष्य नहीं लिख सके

(3) सामान्य रूप से साक्ष्य को विवरणात्मक (narrative) रूप में लिया जाएगा; परंतु मजिस्ट्रेट अपने विवेक से साक्ष्य के किसी भाग को प्रश्न-उत्तर के रूप में भी दर्ज कर सकते हैं या करवा सकते हैं

(4) इस प्रकार दर्ज किया गया साक्ष्य मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षरित किया जाएगा और अभिलेख (record) का भाग माना जाएगा

धारा 311 : सत्र न्यायालय में विचारण का अभिलेख – Record in trial before Court of Session

(1) सत्र न्यायालय के समक्ष सभी विचारणों में, प्रत्येक गवाह का साक्ष्य उसकी जांच के दौरान या तो पीठासीन न्यायाधीश स्वयं लिखेंगे, या खुले न्यायालय में अपने कथन पर लिखवाएंगे, या फिर अपने निर्देश और पर्यवेक्षण में, इस उद्देश्य के लिए नियुक्त न्यायालय के किसी अधिकारी द्वारा लिखवाएंगे

(2) यह साक्ष्य सामान्य रूप से वर्णनात्मक (narrative) रूप में लिखा जाएगा, लेकिन पीठासीन न्यायाधीश अपने विवेक से साक्ष्य के किसी भाग को प्रश्न-उत्तर रूप में भी लिख सकते हैं या लिखवा सकते हैं

(3) इस प्रकार लिया गया साक्ष्य पीठासीन न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षरित किया जाएगा और यह अभिलेख (record) का भाग होगा

धारा 312 : साक्ष्य अभिलेख की भाषा – Language of record of evidence

जहाँ भी साक्ष्य धारा 310 या धारा 311 के अंतर्गत दर्ज किया गया हो, वहाँ:

(क) यदि गवाह न्यायालय की भाषा में साक्ष्य देता है, तो उसे उसी भाषा में लिखा जाएगा

(ख) यदि वह किसी अन्य भाषा में साक्ष्य देता है, तो यथासंभव उसे उसी भाषा में लिखा जा सकता है, और यदि ऐसा करना संभव न हो, तो साक्ष्य के साथ-साथ उसका न्यायालय की भाषा में सत्य अनुवाद तैयार किया जाएगा, जिसे मजिस्ट्रेट या पीठासीन न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षरित किया जाएगा, और वह अभिलेख का भाग बनेगा

(ग) जब उपखंड (ख) के अंतर्गत साक्ष्य न्यायालय की भाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा में लिखा गया हो, तो उसका सत्य अनुवाद न्यायालय की भाषा में यथाशीघ्र तैयार किया जाएगा, जिसे मजिस्ट्रेट या पीठासीन न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षरित किया जाएगा, और वह अभिलेख का भाग बनेगा

परंतु, यदि साक्ष्य अंग्रेज़ी में लिखा गया है और किसी पक्ष द्वारा न्यायालय की भाषा में अनुवाद की मांग नहीं की गई है, तो न्यायालय ऐसा अनुवाद कराने से छूट दे सकता है

धारा 313 : साक्ष्य पूर्ण होने पर की जाने वाली प्रक्रिया – Procedure in regard to such evidence when completed

(1) जब धारा 310 या 311 के अंतर्गत किसी गवाह का साक्ष्य पूर्ण हो जाता है, तो उसे अभियुक्त की उपस्थिति में (यदि वह उपस्थित हो) या उसके अधिवक्ता की उपस्थिति में पढ़कर सुनाया जाएगा, और यदि आवश्यक हो, तो उसमें संशोधन किया जाएगा

(2) यदि गवाह अपने साक्ष्य के किसी भाग को असत्य या गलत बताता है, तो मजिस्ट्रेट या पीठासीन न्यायाधीश उस साक्ष्य को सुधारने के बजाय उस पर गवाह की आपत्ति का स्मरण-पत्र (memorandum) तैयार कर सकते हैं, और आवश्यकतानुसार अपनी टिप्पणी जोड़ सकते हैं

(3) यदि साक्ष्य का अभिलेख उस भाषा में नहीं है जिसमें गवाही दी गई थी, और गवाह उस भाषा को नहीं समझता, तो उसे वह अभिलेख उस भाषा में या किसी अन्य ऐसी भाषा में समझाया जाएगा, जिसे वह समझता हो

धारा 314 : अभियुक्त या उसके अधिवक्ता को साक्ष्य की व्याख्या – Interpretation of evidence to accused or his advocate

(1) जब भी कोई साक्ष्य ऐसी भाषा में दिया जाता है जिसे अभियुक्त नहीं समझता, और वह निजी रूप से न्यायालय में उपस्थित है, तो उसे खुले न्यायालय में अभियुक्त को उसकी समझ की भाषा में समझाया जाएगा

(2) यदि अभियुक्त अपने अधिवक्ता के माध्यम से उपस्थित होता है, और साक्ष्य न्यायालय की भाषा के अतिरिक्त किसी ऐसी भाषा में दिया जाता है जिसे अधिवक्ता नहीं समझता, तो उसे उस भाषा में अधिवक्ता को समझाया जाएगा

(3) जब दस्तावेज़ों को केवल औपचारिक प्रमाण के उद्देश्य से प्रस्तुत किया जाता है, तो न्यायालय के विवेक पर निर्भर करेगा कि उन दस्तावेजों का कितना भाग व्याख्या हेतु आवश्यक है और कितना समझाया जाए

धारा 315 : गवाह के आचरण के संबंध में टिप्पणियाँ – Remarks respecting demeanour of witness

जब कोई पीठासीन न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट किसी गवाह का साक्ष्य दर्ज करता है, तो उसे यह भी लिखित रूप में दर्ज करना होगा (यदि आवश्यक समझे) कि गवाही के दौरान उस गवाह का आचरण (demeanour) कैसा था, और ऐसी टिप्पणियाँ केवल तभी की जाएंगी जब न्यायाधीश उन्हें प्रासंगिक और महत्वपूर्ण समझे

धारा 316 : अभियुक्त की जाँच (बयान) का अभिलेख – Record of examination of accused

(1) जब किसी मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायालय द्वारा अभियुक्त से जाँच (बयान) की जाती है, तो पूछे गए हर प्रश्न और दिए गए हर उत्तर सहित पूरा बयान या तो पीठासीन न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट स्वयं लिखेंगे, या यदि वे शारीरिक या अन्य असमर्थता के कारण ऐसा करने में असमर्थ हों, तो उनके निर्देश और पर्यवेक्षण में, उनके द्वारा नियुक्त न्यायालय के किसी अधिकारी द्वारा लिखा जाएगा

(2) यह अभिलेख संभव हो तो उस भाषा में लिखा जाएगा जिसमें अभियुक्त से जाँच की गई हो, और यदि ऐसा संभव न हो, तो न्यायालय की भाषा में लिखा जाएगा

(3) यह अभिलेख अभियुक्त को दिखाया या पढ़कर सुनाया जाएगा, और यदि वह उस भाषा को नहीं समझता जिसमें यह लिखा गया है, तो उसे ऐसी भाषा में समझाया जाएगा जिसे वह समझता हो। अभियुक्त को अपने उत्तरों में स्पष्टीकरण देने या कुछ जोड़ने की स्वतंत्रता होगी

(4) इसके बाद इस अभिलेख पर अभियुक्त और मजिस्ट्रेट या पीठासीन न्यायाधीश के हस्ताक्षर किए जाएंगे, और न्यायाधीश यह प्रमाणित करेगा कि बयान उसकी उपस्थिति और सुनवाई में लिया गया है तथा अभिलेख अभियुक्त द्वारा दिए गए पूरे और सत्य कथन को दर्शाता है

परंतु, यदि अभियुक्त हिरासत में है और वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से उसका बयान लिया गया है, तो उसके हस्ताक्षर 72 घंटे के भीतर लिए जाएंगे

(5) यह धारा संक्षिप्त विचारण (summary trial) के दौरान अभियुक्त से की गई जाँच पर लागू नहीं होगी।

धारा 317 : दुभाषिए का सत्य रूप से व्याख्या करना बाध्यकारी – Interpreter to be bound to interpret truthfully

जब किसी फौजदारी न्यायालय को किसी साक्ष्य या बयान की व्याख्या (interpretation) के लिए किसी दुभाषिए की आवश्यकता होती है, तो वह दुभाषिया इस बात के लिए बाध्य होगा कि वह उस साक्ष्य या बयान की सत्य एवं ठीक-ठीक व्याख्या करे

धारा 318 : उच्च न्यायालय में अभिलेख – Record in High Court

प्रत्येक उच्च न्यायालय सामान्य नियम बनाकर यह निर्धारित कर सकता है कि उसके समक्ष आने वाले मामलों में गवाहों के साक्ष्य और अभियुक्त की जाँच (बयान) किस ढंग से दर्ज की जाएगी, और ऐसी साक्ष्य व जाँच उसी निर्धारित नियम के अनुसार दर्ज की जाएंगी

धारा 319 : जब गवाह की उपस्थिति माफ की जा सकती है और आयोग जारी किया जा सकता है – When attendance of witness may be dispensed with and commission issued

(1) जब किसी जाँच, विचारण या अन्य कार्यवाही के दौरान न्यायालय या मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत हो कि न्याय के हित में किसी गवाह का परीक्षण आवश्यक है, परंतु उसकी उपस्थिति कराना इतनी देर, खर्च या असुविधा का कारण बनेगा जो परिस्थिति अनुसार अनुचित होगी, तो न्यायालय या मजिस्ट्रेट ऐसी उपस्थिति को माफ कर सकता है और इस अध्याय के प्रावधानों के अनुसार उस गवाह के परीक्षण हेतु आयोग (commission) जारी कर सकता है

यह आवश्यक है कि यदि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल या केंद्रशासित प्रदेश के प्रशासक को गवाह के रूप में परीक्षित करना आवश्यक हो, तो उसके लिए अनिवार्य रूप से आयोग जारी किया जाएगा

(2) जब किसी गवाह के परीक्षण हेतु अभियोजन पक्ष की ओर से आयोग जारी किया जाता है, तो न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि अभियुक्त के खर्चे, जिसमें उसके अधिवक्ता की फीस भी शामिल हो, अभियोजन पक्ष द्वारा दिए जाएं, और यह राशि न्यायालय उचित मानकर निर्धारित करेगा

धारा 320 : आयोग किसे भेजा जाएगा – Commission to whom to be issued

(1) यदि गवाह भारत के उस क्षेत्र में है जहाँ यह संहिता लागू होती है, तो आयोग उस मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजा जाएगा जिसके स्थानीय क्षेत्राधिकार में वह गवाह पाया जाता है

(2) यदि गवाह भारत में है, परंतु ऐसे राज्य या क्षेत्र में है जहाँ यह संहिता लागू नहीं होती, तो आयोग ऐसे न्यायालय या अधिकारी को भेजा जाएगा जिसे केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचना के माध्यम से इस प्रयोजन के लिए नामित किया गया हो

(3) यदि गवाह भारत से बाहर किसी देश या स्थान में है, और उस देश या स्थान की सरकार के साथ आपराधिक मामलों में गवाहों के साक्ष्य लेने के लिए केंद्र सरकार ने व्यवस्था की है, तो आयोग उस रूप में, ऐसे न्यायालय या अधिकारी को भेजा जाएगा और ऐसी प्राधिकरण को प्रेषित किया जाएगा जैसा केंद्र सरकार अधिसूचना द्वारा निर्धारित करे

धारा 321 : आयोग का निष्पादन – Execution of commissions

जैसे ही आयोग प्राप्त होता है, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट, या वह मजिस्ट्रेट जिसे वह इस कार्य के लिए नियुक्त करता है, उस गवाह को समन भेजेगा या उस स्थान पर जाएगा जहाँ गवाह मौजूद है, और उसकी गवाही उसी प्रकार दर्ज करेगा, जैसा कि इस संहिता के अंतर्गत वॉरंट-प्रकरणों के विचारण में किया जाता है, और इस प्रयोजन के लिए वह वही अधिकार प्रयोग कर सकता है जो ऐसे विचारणों में दिए गए हैं।

धारा 322 : पक्षकार गवाहों से पूछताछ कर सकते हैं – Parties may examine witnesses

(1) इस संहिता के अंतर्गत किसी कार्यवाही में आयोग जारी होने पर, संबंधित पक्षकार अपने-अपने प्रश्नों (interrogatories) को लिखित रूप में भेज सकते हैं, जिन्हें न्यायालय या मजिस्ट्रेट जो आयोग जारी कर रहा है, यदि मामले से संबंधित समझे, तो वह उन पर गवाह से पूछताछ करने की अनुमति दे सकता है। ऐसे में जिस मजिस्ट्रेट, न्यायालय या अधिकारी को आयोग भेजा गया है, या जो आयोग को निष्पादित कर रहा है, वह गवाह से उन प्रश्नों पर पूछताछ कर सकता है

(2) कोई भी पक्षकार, ऐसे मजिस्ट्रेट, न्यायालय या अधिकारी के समक्ष, अपने अधिवक्ता के माध्यम से, या यदि हिरासत में न हो तो स्वयं उपस्थित होकर, उस गवाह से जिरह (cross-examination), पुनः जिरह (re-examination) और सीधी पूछताछ कर सकता है

धारा 323 : आयोग की वापसी – Return of commission

(1) जब धारा 319 के अंतर्गत जारी किया गया कोई आयोग विधिपूर्वक निष्पादित कर लिया जाता है, तो उसे, उसके अंतर्गत गवाह की दर्ज की गई गवाही सहित, उस न्यायालय या मजिस्ट्रेट को वापस भेजा जाएगा जिसने आयोग जारी किया था। यह आयोग, उसकी रिपोर्ट और गवाही, पक्षकारों के निरीक्षण के लिए उचित समय पर खुले रहेंगे, और न्यायिक अपवादों को छोड़कर, मामले में दोनों पक्षों द्वारा साक्ष्य के रूप में पढ़े जा सकते हैं, तथा अभिलेख का भाग माने जाएंगे

(2) यदि इस प्रकार ली गई गवाही धारा 27, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की शर्तों को पूरा करती है, तो उसे मामले के किसी अन्य चरण में किसी अन्य न्यायालय में भी साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जा सकता है

धारा 324 : कार्यवाही की स्थगन – Adjournment of proceeding

हर मामले में जिसमें धारा 319 के अंतर्गत आयोग जारी किया गया है, जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही को इतने निर्धारित समय के लिए स्थगित किया जा सकता है जो आयोग के निष्पादन और वापसी के लिए उचित रूप से पर्याप्त हो

धारा 325 : विदेशी आयोगों का निष्पादन – Execution of foreign commissions

(1) धारा 321, तथा धारा 322 और 323 के वे भाग जो आयोग के निष्पादन और उसकी वापसी से संबंधित हैं, वे उसी प्रकार लागू होंगे जैसे कि वे धारा 319 के अंतर्गत जारी आयोगों पर लागू होते हैं, जब आयोग निम्नलिखित न्यायालयों, न्यायाधीशों या मजिस्ट्रेटों द्वारा जारी किया गया हो।

(2) उपधारा (1) में उल्लिखित न्यायालय, न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट निम्नलिखित हैं—
(а) ऐसे कोई भी न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट, जो भारत के उस क्षेत्र में कार्य कर रहे हों जहाँ यह संहिता लागू नहीं होती, और जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट किया गया हो;
(б) कोई भी न्यायालय, न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट जो भारत के बाहर किसी देश या स्थान में कार्य कर रहे हों, जिन्हें केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट किया गया हो, और जो उस देश या स्थान में लागू कानून के अंतर्गत आपराधिक मामलों से संबंधित गवाहों की जांच के लिए आयोग जारी करने का अधिकार रखते हों

धारा 326 : चिकित्सा गवाह का कथन – Deposition of medical witness

(1) सिविल सर्जन या अन्य चिकित्सा गवाह का कथन, जो आरोपी की उपस्थिति में मजिस्ट्रेट द्वारा लिया और प्रमाणित किया गया हो, या जो इस अध्याय के अंतर्गत आयोग पर लिया गया हो, उसे इस संहिता के अंतर्गत किसी भी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, भले ही कथन देने वाले व्यक्ति को गवाह के रूप में नहीं बुलाया गया हो

(2) न्यायालय, यदि उपयुक्त समझे, तो, और यदि अभियोजन या आरोपी की ओर से आवेदन किया जाए, तो अनिवार्य रूप से, ऐसे कथन देने वाले व्यक्ति को बुलाकर उसके कथन के विषय में पूछताछ कर सकता है

धारा 327 : मजिस्ट्रेट की पहचान रिपोर्ट – Identification report of Magistrate

(1) किसी व्यक्ति या संपत्ति के संबंध में किसी कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा किए गए हस्ताक्षरयुक्त पहचान की रिपोर्ट, जो ऐसी प्रतीत होती है, इस संहिता के अंतर्गत किसी भी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में उपयोग की जा सकती है, भले ही मजिस्ट्रेट को गवाह के रूप में नहीं बुलाया गया हो
परंतु यदि ऐसी रिपोर्ट में किसी संदेहास्पद व्यक्ति या गवाह का कोई कथन सम्मिलित है, जिस पर भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 19, 26, 27, 158 या 160 लागू होती है, तो ऐसे कथन को केवल उन्हीं धाराओं के अनुसार ही उपयोग में लिया जा सकेगा

(2) न्यायालय, यदि उपयुक्त समझे, तो, और यदि अभियोजन पक्ष या आरोपी की ओर से आवेदन किया जाए, तो अनिवार्य रूप से, ऐसे मजिस्ट्रेट को बुलाकर उसकी रिपोर्ट के विषय में पूछताछ कर सकता है

धारा 328 : टकसाल के अधिकारियों का साक्ष्य – Evidence of officers of Mint

(1) किसी राजपत्रित अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित कोई दस्तावेज, जो किसी टकसाल (Mint), नोट प्रिंटिंग प्रेस, सुरक्षा मुद्रण प्रेस, मुद्रांक और स्टेशनरी नियंत्रक कार्यालय, किसी फॉरेंसिक विभाग या फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला की किसी शाखा, या शंकास्पद दस्तावेजों के किसी सरकारी परीक्षक या राज्य परीक्षक द्वारा इस संहिता के तहत किसी कार्यवाही के दौरान जांच के लिए प्रस्तुत किसी विषय या वस्तु पर दी गई रिपोर्ट प्रतीत होती है, तो वह दस्तावेज़ साक्ष्य के रूप में प्रयोज्य होगा, भले ही उस अधिकारी को गवाह के रूप में बुलाया न गया हो

(2) न्यायालय, यदि उपयुक्त समझे, तो ऐसे अधिकारी को बुलाकर उसकी रिपोर्ट के विषय में पूछताछ कर सकता है
परंतु ऐसे किसी अधिकारी को उस रिकॉर्ड को प्रस्तुत करने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा, जिसके आधार पर रिपोर्ट बनाई गई हो

(3) भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 की धारा 129 और 130 के प्रावधानों को अप्रभावित रखते हुए, कोई अधिकारी, जब तक संबंधित टकसाल, नोट प्रिंटिंग प्रेस, सुरक्षा मुद्रण प्रेस, फॉरेंसिक विभाग, या दस्तावेज़ परीक्षक संगठन के महाप्रबंधक या प्रभारी अधिकारी से अनुमति प्राप्त न हो, तब तक—

(a) ऐसे अप्रकाशित आधिकारिक रिकॉर्ड से प्राप्त कोई भी साक्ष्य नहीं देगा, जिसके आधार पर रिपोर्ट बनाई गई हो; या
(b) उस परीक्षण की प्रकृति या विवरण का खुलासा नहीं करेगा, जो उसने जांच के दौरान संबंधित विषय या वस्तु पर लागू किया हो।

धारा 329 : कुछ सरकारी वैज्ञानिक विशेषज्ञों की रिपोर्टें – Reports of certain Government scientific experts

(1) किसी सरकारी वैज्ञानिक विशेषज्ञ द्वारा हस्ताक्षरित कोई दस्तावेज, जो इस धारा के अधीन किसी विशेषज्ञ द्वारा किसी विषय या वस्तु की जांच या विश्लेषण के लिए प्रस्तुत किए गए मामले में दी गई रिपोर्ट प्रतीत होती है, तो ऐसी रिपोर्ट इस संहिता के अंतर्गत किसी भी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में प्रयोज्य होगी

(2) न्यायालय, यदि उचित समझे, तो ऐसे विशेषज्ञ को बुलाकर उसकी रिपोर्ट के विषय में पूछताछ कर सकता है

(3) यदि कोई विशेषज्ञ न्यायालय द्वारा तलब किया जाता है और वह स्वयं उपस्थित नहीं हो सकता, तो जब तक न्यायालय ने स्पष्ट रूप से उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति का निर्देश न दिया हो, वह अपने साथ कार्यरत किसी उत्तरदायी अधिकारी को भेज सकता है, यदि वह अधिकारी मामले के तथ्यों से परिचित हो और न्यायालय में उसकी ओर से संतोषजनक गवाही दे सके

(4) यह धारा निम्नलिखित सरकारी वैज्ञानिक विशेषज्ञों पर लागू होती है—
(a) कोई भी रासायनिक परीक्षक या सहायक रासायनिक परीक्षक;
(b) विस्फोटक नियंत्रक प्रमुख;
(c) फिंगरप्रिंट ब्यूरो के निदेशक;
(d) हाफकिन संस्थान, मुंबई के निदेशक;
(e) केंद्रीय या राज्य फॉरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला के निदेशक, उप निदेशक या सहायक निदेशक;
(f) सरकारी सेरोलॉजिस्ट;
(g) कोई अन्य वैज्ञानिक विशेषज्ञ जिसे राज्य सरकार या केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचना द्वारा निर्दिष्ट या प्रमाणित किया गया हो।

धारा 330 : कुछ दस्तावेजों का औपचारिक प्रमाण आवश्यक नहीं – No formal proof of certain documents

(1) जब अभियोजन पक्ष या अभियुक्त द्वारा किसी दस्तावेज को किसी न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है, तो प्रत्येक ऐसे दस्तावेज का विवरण एक सूची में शामिल किया जाएगा, और अभियोजन पक्ष या अभियुक्त, या उनके अधिवक्ता (यदि कोई हो), को ऐसे दस्तावेजों की आपूर्ति के तुरंत बाद और किसी भी स्थिति में उसकी आपूर्ति के तीस दिनों से अधिक विलंब नहीं करते हुए, प्रत्येक दस्तावेज की प्रामाणिकता को स्वीकार या अस्वीकार करने के लिए कहा जाएगा

पहला प्रावधान: न्यायालय, यदि उचित समझे, तो लिखित कारणों के साथ इस समय-सीमा में शिथिलता प्रदान कर सकता है
दूसरा प्रावधान: यदि किसी पक्ष द्वारा किसी विशेषज्ञ की रिपोर्ट पर आपत्ति नहीं की जाती, तो ऐसे विशेषज्ञ को न्यायालय में बुलाया नहीं जाएगा

(2) दस्तावेजों की सूची ऐसे प्रारूप में होगी जैसा राज्य सरकार नियमों द्वारा निर्धारित करेगी

(3) यदि किसी दस्तावेज की प्रामाणिकता पर विवाद नहीं किया गया है, तो ऐसे दस्तावेज को, बिना यह सिद्ध किए कि उस पर हस्ताक्षर किसने किया है, किसी भी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में पढ़ा जा सकता है
प्रावधान: न्यायालय, यदि उचित समझे, तो हस्ताक्षर का प्रमाण मांग सकता है

धारा 331 : लोक सेवकों के आचरण के प्रमाण हेतु शपथ-पत्र – Affidavit in proof of conduct of public servants

जब इस संहिता के अधीन किसी भी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के दौरान किसी न्यायालय में कोई आवेदन प्रस्तुत किया जाता है और उसमें किसी लोक सेवक के संबंध में आरोप लगाए जाते हैं, तो आवेदक ऐसे आरोपित तथ्यों का प्रमाण शपथ-पत्र (affidavit) के माध्यम से दे सकता है, और न्यायालय, यदि उपयुक्त समझे, तो ऐसे तथ्यों से संबंधित साक्ष्य शपथ-पत्र द्वारा ही प्रस्तुत करने का आदेश दे सकता है

धारा 333 : जिन अधिकारियों के समक्ष शपथ-पत्र किया जा सकता है – Authorities before whom affidavits may be sworn

(1) इस संहिता के अंतर्गत किसी भी न्यायालय में उपयोग के लिए शपथ-पत्र निम्नलिखित अधिकारियों के समक्ष शपथपूर्वक या प्रतिज्ञा द्वारा प्रस्तुत किए जा सकते हैं—
(a) कोई भी न्यायाधीश या न्यायिक अथवा कार्यपालक मजिस्ट्रेट;
(b) किसी उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय द्वारा नियुक्त कोई भी शपथ आयुक्त (Commissioner of Oaths);
(c) नोटरी अधिनियम, 1952 (1952 का 53) के अंतर्गत नियुक्त कोई भी नोटरी।

(2) शपथ-पत्र में केवल उन्हीं तथ्यों को शामिल किया जाएगा जिन्हें शपथकर्ता स्वयं के ज्ञान से प्रमाणित कर सकता है, तथा ऐसे तथ्यों को जो वह उचित आधारों पर सत्य मानता है। इस दूसरे प्रकार के तथ्यों के लिए, शपथकर्ता को स्पष्ट रूप से ऐसे विश्वास के आधार बताने होंगे।

(3) न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि शपथ-पत्र में कोई भी अपमानजनक या अप्रासंगिक सामग्री हो तो उसे हटा दिया जाए या उसमें संशोधन किया जाए।

धारा 334 : पूर्व दोषसिद्धि या दोषमुक्ति को सिद्ध करने की विधि – Previous conviction or acquittal how proved

इस संहिता के अंतर्गत किसी भी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में, किसी व्यक्ति की पूर्व दोषसिद्धि (conviction) या पूर्व दोषमुक्ति (acquittal) को, उस समय लागू किसी अन्य विधि में वर्णित तरीकों के अतिरिक्त, निम्नलिखित तरीकों से सिद्ध किया जा सकता है—

(a) उस न्यायालय के अभिलेखों (records) का एक प्रमाणित प्रतिलिपि (certified extract), जिस न्यायालय ने दोषसिद्धि या दोषमुक्ति का आदेश दिया हो, जिसे उस अधिकारी द्वारा प्रमाणित किया गया हो जिसके पास ऐसे अभिलेखों की अभिरक्षा है।

(b) यदि दोषसिद्धि हुई हो, तो निम्न में से किसी एक माध्यम से—

  • उस जेल के प्रभारी अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित एक प्रमाण-पत्र, जिसमें यह दर्शाया गया हो कि अभियुक्त ने सजा या उसका कोई भाग भोगा है; या
  • वह वॉरंट (warrant of commitment) जिसके अधीन अभियुक्त ने सजा भोगी थी।

इन दोनों ही स्थितियों में, यह भी आवश्यक होगा कि यह साक्ष्य प्रस्तुत किया जाए कि वर्तमान अभियुक्त वही व्यक्ति है जिसे पूर्व में दोषी ठहराया गया था या दोषमुक्त किया गया था।

धारा 335 : अभियुक्त की अनुपस्थिति में साक्ष्य का अभिलेखन – Record of evidence in absence of accused

(1) यदि यह सिद्ध हो जाए कि कोई अभियुक्त फरार हो गया है और उसके शीघ्र गिरफ्तारी की कोई संभावना नहीं है, तो वह न्यायालय जो ऐसे व्यक्ति का विचारण करने या विचारण के लिए समर्पण करने का अधिकार रखता है, अभियोजन पक्ष द्वारा प्रस्तुत गवाहों का परीक्षण कर सकता है और उनके बयान दर्ज कर सकता है। ऐसे बयानों को, यदि अभियुक्त को बाद में गिरफ्तार किया जाता है, तब उसके विरुद्ध उस अपराध की जांच या विचारण में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है, यदि—

  • बयान देने वाला व्यक्ति मर गया हो, या
  • वह गवाही देने में असमर्थ हो, या
  • उसे ढूंढा न जा सके, या
  • उसकी उपस्थिति ऐसी विलंब, खर्च या असुविधा का कारण बने जो परिस्थितियों में अनुचित हो।

(2) यदि ऐसा प्रतीत होता है कि कोई अज्ञात व्यक्ति या व्यक्तियों द्वारा कोई ऐसा अपराध किया गया है जिसकी सजा मृत्यु या आजीवन कारावास है, तो उच्च न्यायालय या सत्र न्यायाधीश यह निर्देश दे सकता है कि कोई प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट इस मामले में जांच करे और उन गवाहों का परीक्षण करे जो अपराध के संबंध में साक्ष्य दे सकते हैं। ऐसे लिए गए बयान उस व्यक्ति के विरुद्ध साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं जिसे बाद में उस अपराध का अभियुक्त बनाया गया हो, यदि—

  • गवाह मर चुका हो, या
  • गवाही देने में असमर्थ हो, या
  • भारत की सीमाओं से बाहर हो।

धारा 336 : कुछ मामलों में लोक सेवकों, विशेषज्ञों, पुलिस अधिकारियों की साक्ष्य – Evidence of public servants, experts, police officers in certain cases

यदि किसी लोक सेवक, वैज्ञानिक विशेषज्ञ या चिकित्सा अधिकारी द्वारा तैयार किया गया कोई दस्तावेज़ या रिपोर्ट किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत की जाती है, और—

(i) ऐसा लोक सेवक, विशेषज्ञ या अधिकारी स्थानांतरित, सेवानिवृत्त या मृत हो गया हो; या
(ii) वह नहीं मिल रहा हो या गवाही देने में असमर्थ हो; या
(iii) उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करना ऐसी देरी का कारण बन सकता हो जिससे जांच, विचारण या कार्यवाही बाधित हो,

तो न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि उस पद पर वर्तमान में कार्यरत उत्तराधिकारी अधिकारी को उस दस्तावेज़ या रिपोर्ट के संबंध में गवाही देने के लिए बुलाया जाए

पहला प्रावधान यह है कि ऐसे लोक सेवक, वैज्ञानिक विशेषज्ञ या चिकित्सा अधिकारी को तब तक न्यायालय में नहीं बुलाया जाएगा, जब तक कि उसकी रिपोर्ट पर किसी पक्ष द्वारा आपत्ति न की जाए

दूसरा प्रावधान यह है कि ऐसे उत्तराधिकारी अधिकारी की गवाही ऑडियो-विज़ुअल इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भी दी जा सकती है

धारा 336 : कुछ मामलों में लोक सेवकों, विशेषज्ञों, पुलिस अधिकारियों की साक्ष्य – Evidence of public servants, experts, police officers in certain cases

यदि किसी लोक सेवक, वैज्ञानिक विशेषज्ञ या चिकित्सा अधिकारी द्वारा तैयार किया गया कोई दस्तावेज़ या रिपोर्ट किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही में साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत की जाती है, और—

(i) ऐसा लोक सेवक, विशेषज्ञ या अधिकारी स्थानांतरित, सेवानिवृत्त या मृत हो गया हो; या
(ii) वह नहीं मिल रहा हो या गवाही देने में असमर्थ हो; या
(iii) उसकी उपस्थिति सुनिश्चित करना ऐसी देरी का कारण बन सकता हो जिससे जांच, विचारण या कार्यवाही बाधित हो,

तो न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि उस पद पर वर्तमान में कार्यरत उत्तराधिकारी अधिकारी को उस दस्तावेज़ या रिपोर्ट के संबंध में गवाही देने के लिए बुलाया जाए

पहला प्रावधान यह है कि ऐसे लोक सेवक, वैज्ञानिक विशेषज्ञ या चिकित्सा अधिकारी को तब तक न्यायालय में नहीं बुलाया जाएगा, जब तक कि उसकी रिपोर्ट पर किसी पक्ष द्वारा आपत्ति न की जाए

दूसरा प्रावधान यह है कि ऐसे उत्तराधिकारी अधिकारी की गवाही ऑडियो-विज़ुअल इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भी दी जा सकती है

धारा 337 : किसी व्यक्ति को दोषसिद्धि या दोषमुक्ति के बाद उसी अपराध के लिए दोबारा दंडित न किया जाए – Person once convicted or acquitted not to be tried for same offence

(1) यदि किसी व्यक्ति का किसी सक्षम न्यायालय में एक बार किसी अपराध के लिए परीक्षण हो चुका हो और उसे दोषी ठहराया गया हो या दोषमुक्त किया गया हो, और वह दोषसिद्धि या दोषमुक्ति अभी भी प्रभावी हो, तो उसे न तो उसी अपराध के लिए दोबारा दंडित किया जा सकता है और न ही उन्हीं तथ्यों के आधार पर किसी अन्य अपराध के लिए, जिसके लिए उस पर धारा 244 की उप-धारा (1) के अंतर्गत भिन्न आरोप लगाया जा सकता था या धारा 244 की उप-धारा (2) के अंतर्गत दोषी ठहराया जा सकता था

(2) यदि कोई व्यक्ति किसी अपराध में दोषमुक्त या दोषसिद्ध किया गया हो, तो उसे राज्य सरकार की स्वीकृति के बाद उस अपराध से जुड़े किसी भिन्न अपराध के लिए, जिसका पृथक आरोप पूर्व परीक्षण में लगाया जा सकता था (धारा 243 की उप-धारा (1) के अंतर्गत), पुनः परीक्षण किया जा सकता है

(3) यदि कोई व्यक्ति ऐसे अपराध में दोषी ठहराया गया हो, जो किसी कृत्य से उत्पन्न परिणामों से मिलकर बना हो और बाद में ऐसा कोई परिणाम घटित हो, या न्यायालय को उस समय ज्ञात न हो, तो उसे बाद में उस नए परिणाम वाले अपराध के लिए दंडित किया जा सकता है

(4) यदि कोई व्यक्ति किसी अपराध में दोषसिद्ध या दोषमुक्त हो चुका हो, लेकिन जिस न्यायालय ने पहले उसका परीक्षण किया था, वह बाद के अपराध को दंडित करने के लिए सक्षम न था, तो उसे उसी कृत्य से उत्पन्न अन्य अपराध के लिए बाद में परीक्षण में लिया जा सकता है

(5) धारा 281 के अंतर्गत जिस व्यक्ति को आरोपमुक्त किया गया हो, उसे उसी अपराध के लिए पुनः परीक्षण में नहीं लिया जा सकता, जब तक कि उसे आरोपमुक्त करने वाले न्यायालय या किसी उच्चतर न्यायालय की अनुमति न हो

(6) इस धारा में दी गई बातों से सामान्य धारणा अधिनियम, 1897 की धारा 26 या इस संहिता की धारा 208 पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।

व्याख्या — किसी परिवाद की अस्वीकृति या अभियुक्त की आरोपमुक्ति को इस धारा के उद्देश्य से दोषमुक्ति नहीं माना जाएगा

उदाहरण

(a) A पर नौकर के रूप में चोरी का आरोप लगाकर मुकदमा चलाया गया और वह दोषमुक्त हो गया। अब उसे फिर से उसी चोरी या संबंधित आपराधिक विश्वासघात के लिए दंडित नहीं किया जा सकता।

(b) A को गंभीर चोट पहुंचाने के अपराध में दोषी ठहराया गया। बाद में घायल व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। अब A को फिर से हत्या के आरोप में दंडित किया जा सकता है।

(c) A को B की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया। अब उन्हीं तथ्यों के आधार पर A पर फिर से हत्या के लिए मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।

(d) A को B को चोट पहुँचाने के लिए प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट ने दोषी ठहराया। अब A पर उन्हीं तथ्यों के आधार पर गंभीर चोट पहुँचाने के लिए पुनः मुकदमा नहीं चल सकता, जब तक कि वह उप-धारा (3) में न आता हो।

(e) द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट ने A को B से चोरी के लिए दोषी ठहराया। बाद में A पर उन्हीं तथ्यों पर डकैती का मुकदमा चल सकता है

(f) A, B और C को प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट ने D से लूट करने के लिए दोषी ठहराया। बाद में उन्हें उन्हीं तथ्यों पर डकैती के लिए मुकदमे में लिया जा सकता है

धारा 338 : लोक अभियोजकों द्वारा उपस्थिति – Appearance by Public Prosecutors

(1) जिस मामले में जांच, विचारण या अपील चल रही हो, उस मामले के प्रभारी लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक किसी भी न्यायालय के समक्ष बिना किसी लिखित प्राधिकरण के उपस्थित होकर पक्ष प्रस्तुत कर सकता है

(2) यदि ऐसे किसी मामले में कोई निजी व्यक्ति किसी अभियुक्त के विरुद्ध अभियोजन हेतु अपने वकील को निर्देश देता है, तो उस मामले में प्रभारी लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक ही अभियोजन का संचालन करेगा, और निजी व्यक्ति द्वारा नियुक्त वकील उसी के निर्देशन में कार्य करेगा तथा न्यायालय की अनुमति से साक्ष्य पूर्ण होने के बाद लिखित तर्क प्रस्तुत कर सकता है

धारा 339 : अभियोजन चलाने की अनुमति – Permission to conduct prosecution

(1) कोई भी मजिस्ट्रेट जो किसी मामले की जांच या विचारण कर रहा है, वह अभियोजन को किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा चलाने की अनुमति दे सकता है जो पुलिस निरीक्षक से निम्न पद पर न हो; परंतु एडवोकेट जनरल, सरकारी वकील, लोक अभियोजक या सहायक लोक अभियोजक को छोड़कर कोई भी व्यक्ति बिना ऐसी अनुमति के अभियोजन नहीं चला सकता
परन्तु यह भी आवश्यक है कि कोई ऐसा पुलिस अधिकारी जो अपराध की जांच में शामिल रहा हो, उसे अभियोजन चलाने की अनुमति नहीं दी जाएगी

(2) अभियोजन चलाने वाला व्यक्ति स्वयं या किसी वकील के माध्यम से अभियोजन कर सकता है।

धारा 340 : जिसके विरुद्ध कार्यवाही की गई है, उसके बचाव का अधिकार – Right of person against whom proceedings are instituted to be defended

किसी अपराध के लिए किसी आपराधिक न्यायालय के समक्ष अभियुक्त या जिसके विरुद्ध इस संहिता के अंतर्गत कार्यवाही की गई है, उसे अपने पसंद के वकील द्वारा अपनी ओर से बचाव करने का पूरा अधिकार होगा।

धारा 341 : कुछ मामलों में अभियुक्त को राज्य के खर्चे पर विधिक सहायता – Legal aid to accused at State expense in certain cases

(1) जब किसी न्यायालय में विचारण या अपील के दौरान अभियुक्त की ओर से कोई वकील उपस्थित नहीं होता और न्यायालय को प्रतीत होता है कि अभियुक्त के पास वकील रखने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं, तो न्यायालय उसकी ओर से बचाव के लिए राज्य के खर्चे पर एक वकील नियुक्त करेगा

(2) उच्च न्यायालय, राज्य सरकार की पूर्व स्वीकृति से, निम्नलिखित विषयों पर नियम बना सकता है—
(a) उपधारा (1) के अंतर्गत बचाव के लिए वकीलों के चयन की विधि;
(b) ऐसे वकीलों को न्यायालयों द्वारा दी जाने वाली सुविधाएं;
(c) सरकार द्वारा ऐसे वकीलों को देय फीस;
तथा सामान्यतः उपधारा (1) के उद्देश्यों को कार्यान्वित करने के लिए।

(3) राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, यह निर्देश दे सकती है कि अधिसूचना में विनिर्दिष्ट दिनांक से, उपधाराएं (1) और (2) में वर्णित प्रावधान राज्य के अन्य न्यायालयों में किसी विशेष वर्ग के विचारणों पर उसी प्रकार लागू होंगे जैसे कि सत्र न्यायालयों में विचारणों पर होते हैं।

धारा 342 : जब कोई निगम या पंजीकृत सोसाइटी अभियुक्त हो तब प्रक्रिया – Procedure when corporation or registered society is an accused

(1) इस धारा में “निगम (corporation)” का अर्थ एक समविष्ट कंपनी या अन्य निकाय कार्पोरेट से है, और इसमें 1860 के सोसाइटी रजिस्ट्रेशन अधिनियम के अंतर्गत पंजीकृत कोई सोसाइटी भी शामिल है।

(2) जब कोई निगम किसी जांच या विचारण में अभियुक्त होता है या अभियुक्तों में से एक होता है, तो वह अपने प्रतिनिधि को उस जांच या विचारण के लिए नियुक्त कर सकता है, और यह नियुक्ति निगम की मुहर के अंतर्गत होना आवश्यक नहीं है।

(3) जब कोई प्रतिनिधि उपस्थित होता है, तब इस संहिता में जो कुछ भी अभियुक्त की उपस्थिति में किया जाना आवश्यक है, या अभियुक्त को पढ़कर सुनाया जाना, बताया जाना या समझाया जाना आवश्यक है, उसे प्रतिनिधि की उपस्थिति में किया जाना, या उसे पढ़कर सुनाया जाना, बताया जाना या समझाया जाना माना जाएगा; और यदि अभियुक्त की परीक्षा की बात है, तो उसे प्रतिनिधि की परीक्षा के रूप में समझा जाएगा।

(4) यदि निगम का प्रतिनिधि उपस्थित नहीं होता, तो उपधारा (3) में उल्लिखित कोई भी शर्त लागू नहीं होगी।

(5) यदि एक लिखित वक्तव्य, जो निगम के प्रबंध निदेशक या उसके द्वारा विधिपूर्वक प्राधिकृत किसी व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित प्रतीत होता है, जिसमें कहा गया हो कि किसी विशेष व्यक्ति को इस धारा के अंतर्गत निगम का प्रतिनिधि नियुक्त किया गया है, न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है, तो जब तक विपरीत प्रमाणित न किया जाए, न्यायालय यह मान लेगा कि वह व्यक्ति ऐसा प्रतिनिधि है

(6) यदि यह प्रश्न उठता है कि किसी जांच या विचारण में कोई व्यक्ति जो निगम का प्रतिनिधित्व कर रहा है, वह प्रतिनिधि है या नहीं, तो यह प्रश्न न्यायालय द्वारा तय किया जाएगा

धारा 343 : सह-अभियुक्त को क्षमादान का प्रस्ताव – Tender of pardon to accomplice

(1) यदि किसी व्यक्ति के बारे में यह संदेह हो कि वह किसी अपराध में सीधे या परोक्ष रूप से सम्मिलित या उसके बारे में जानकार रहा है, तो उस व्यक्ति का पूर्ण और सच्चा खुलासा प्राप्त करने के उद्देश्य से, प्रमुख न्यायिक मजिस्ट्रेट (Chief Judicial Magistrate) किसी भी स्तर पर – चाहे वह जांच हो, पूछताछ हो या विचारण – उस व्यक्ति को क्षमादान का प्रस्ताव दे सकता है, बशर्ते वह व्यक्ति अपने ज्ञान के अनुसार अपराध और उसमें सम्मिलित सभी व्यक्तियों (चाहे वे मुख्य अपराधी हों या मददगार) के बारे में पूरा और सच्चा खुलासा करे। इसी प्रकार, प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट भी जांच या विचारण के किसी भी चरण में क्षमादान दे सकता है।

(2) यह धारा निम्नलिखित अपराधों पर लागू होती है—
(a) ऐसे अपराध जो केवल सेशन न्यायालय या किसी विशेष विधि के अंतर्गत नियुक्त विशेष न्यायाधीश द्वारा विचारणीय हैं;
(b) ऐसे अपराध जिनकी सजा सात वर्ष तक की कारावास या उससे अधिक हो सकती है।

(3) प्रत्येक मजिस्ट्रेट जो उपधारा (1) के अंतर्गत क्षमादान देता है, उसे निम्नलिखित बातें अभिलेखित करनी होंगी—
(a) उसने क्षमादान क्यों दिया, इसके कारण;
(b) क्या क्षमादान प्राप्त करने वाले व्यक्ति ने उसे स्वीकार किया या नहीं;
साथ ही अभियुक्त के अनुरोध पर, यह अभिलेख मुफ्त में उसकी प्रति उपलब्ध कराई जाएगी

(4) क्षमादान स्वीकार करने वाला व्यक्ति—
(a) उस मजिस्ट्रेट की अदालत में और बाद में विचारण में, गवाह के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा;
(b) यदि वह पहले से जमानत पर नहीं है, तो विचारण समाप्ति तक हिरासत में रखा जाएगा

(5) जब कोई व्यक्ति क्षमादान स्वीकार कर लेता है और उपधारा (4) के अनुसार उसका परीक्षण हो चुका होता है, तो अपराध का संज्ञान लेने वाला मजिस्ट्रेट बिना आगे की जांच किए
(a) निम्नलिखित के लिए मुकदमा प्रतिबद्ध करेगा—
(i) यदि अपराध केवल सेशन न्यायालय में विचारणीय है या यदि संज्ञान लेने वाला मजिस्ट्रेट प्रमुख न्यायिक मजिस्ट्रेट है, तो सेशन न्यायालय को;
(ii) यदि अपराध केवल किसी विशेष न्यायालय में विचारणीय है, तो ऐसे विशेष न्यायाधीश को, जो अन्य किसी कानून के अंतर्गत नियुक्त किया गया है;
(b) अन्य किसी मामले में, मुकदमा प्रमुख न्यायिक मजिस्ट्रेट को सौंपेगा, जो स्वयं विचारण करेगा।

धारा 344 : क्षमादान प्रस्तावित करने की शक्ति – Power to direct tender of pardon

जिस न्यायालय को किसी मामले में प्रतिबंध (commitment) किया गया है, वह किसी भी समय निर्णय सुनाए जाने से पहले, यदि उसे यह उचित प्रतीत हो कि किसी व्यक्ति की जो सीधे या परोक्ष रूप से उस अपराध में सम्मिलित या उसके बारे में जानकार रहा हो, उसकी गवाही प्राप्त करना न्यायिक हित में आवश्यक है, तो ऐसे व्यक्ति को वही शर्तों पर क्षमादान का प्रस्ताव दे सकता है जैसा कि धारा 343 में उल्लेखित है।

धारा 345 : क्षमादान की शर्तों का पालन न करने वाले व्यक्ति का विचारण – Trial of person not complying with conditions of pardon

(1) यदि कोई व्यक्ति, जिसे धारा 343 या धारा 344 के अंतर्गत क्षमादान दिया गया था, और लोक अभियोजक यह प्रमाणित करता है कि उस व्यक्ति ने या तो जानबूझकर कोई आवश्यक तथ्य छिपाया है या झूठी गवाही दी है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि उसने क्षमादान की शर्तों का पालन नहीं किया है, तो ऐसे व्यक्ति पर उस अपराध के लिए जिसके लिए क्षमादान दिया गया था, या उस मामले से संबंधित किसी अन्य अपराध के लिए, तथा झूठी गवाही देने के अपराध के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है।

पहली proviso: ऐसे व्यक्ति पर अन्य अभियुक्तों के साथ संयुक्त रूप से मुकदमा नहीं चलाया जाएगा।
दूसरी proviso:
ऐसे व्यक्ति पर झूठी गवाही देने का मुकदमा केवल उच्च न्यायालय की स्वीकृति से ही चलाया जाएगा, और धारा 215 या धारा 379 की कोई बात इस पर लागू नहीं होगी।

(2) ऐसे व्यक्ति द्वारा क्षमादान स्वीकार करते समय दिया गया कोई भी कथन जो मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 183 के अंतर्गत या न्यायालय द्वारा धारा 343(4) के अंतर्गत दर्ज किया गया हो, उसे उस पर चलाए जा रहे मुकदमे में सबूत के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है

(3) ऐसे मुकदमे में अभियुक्त को यह दलील देने का अधिकार होगा कि उसने क्षमादान की शर्तों का पालन किया है, और ऐसी स्थिति में यह अभियोजन का दायित्व होगा कि वह यह सिद्ध करे कि शर्तों का पालन नहीं किया गया

(4) ऐसे मुकदमे में न्यायालय:

  • (a) यदि वह सत्र न्यायालय है, तो अभियोग पत्र पढ़े जाने और समझाए जाने से पहले;
  • (b) यदि वह मजिस्ट्रेट की अदालत है, तो अभियोजन पक्ष की गवाही से पहले;

अभियुक्त से पूछेगा कि क्या वह यह दलील देना चाहता है कि उसने क्षमादान की शर्तों का पालन किया है।

(5) यदि अभियुक्त ऐसा कहता है, तो न्यायालय उस दलील को अभिलेखित करेगा और विचारण को आगे बढ़ाएगा, और निर्णय सुनाने से पहले यह तय करेगा कि क्या अभियुक्त ने शर्तों का पालन किया है; और यदि न्यायालय यह पाता है कि उसने शर्तों का पालन किया है, तो वह, भले ही इस संहिता में कुछ भी हो, निर्दोषीकरण (acquittal) का निर्णय देगा

धारा 346 : कार्यवाही को स्थगित या मुल्तवी करने की शक्ति – Power to postpone or adjourn proceedings

(1) हर जाँच या विचारण में कार्यवाही प्रतिदिन चलती रहेगी जब तक कि उपस्थित सभी गवाहों की जाँच पूरी न हो जाए, जब तक कि न्यायालय ऐसा न माने कि अगले दिन से आगे स्थगन आवश्यक है और इसके कारणों को अभिलेखित करे
परंतु, यदि जाँच या विचारण भारतीय न्याय संहिता, 2023 (संख्या 45 का) की धारा 64, 65, 66, 67, 68, 70 या 71 से संबंधित है, तो उसे आरोप-पत्र दाखिल होने की तिथि से दो माह के भीतर पूरा करना अनिवार्य होगा

(2) यदि न्यायालय अपराध का संज्ञान लेने के बाद या विचारण प्रारंभ होने पर यह आवश्यक या उचित समझे कि किसी जाँच या विचारण को स्थगित या मुल्तवी किया जाए, तो वह कारणों को अभिलेखित करते हुए, समय-समय पर उचित शर्तों पर और उचित समय तक स्थगित या मुल्तवी कर सकता है और यदि अभियुक्त हिरासत में है तो उसे वारंट द्वारा रिमांड पर भेज सकता है
परंतु

  • कोई न्यायालय 15 दिनों से अधिक की रिमांड एक बार में नहीं दे सकता
  • जब गवाह उपस्थित हों, तो विशेष कारणों को लिखित रूप में अभिलेखित किए बिना स्थगन नहीं दिया जाएगा
  • केवल इस कारण से कि अभियुक्त प्रस्तावित दंड के विरुद्ध कारण प्रस्तुत कर सके, स्थगन नहीं दिया जाएगा

इसके अतिरिक्त
(a) पक्षकार के निवेदन पर केवल तभी स्थगन दिया जाएगा जब परिस्थितियाँ उसके नियंत्रण से बाहर हों
(b) ऐसी स्थिति में अधिकतम दो स्थगन दिए जा सकते हैं, वह भी दूसरे पक्ष की आपत्तियाँ सुनकर और कारण लिखकर
(c) यदि किसी पक्षकार का वकील किसी अन्य न्यायालय में व्यस्त है, तो यह स्थगन का कारण नहीं माना जाएगा।
(d) यदि कोई गवाह न्यायालय में उपस्थित है, परन्तु पक्षकार या उसका वकील अनुपस्थित है या उपस्थित होकर भी जिरह के लिए तैयार नहीं है, तो न्यायालय गवाह का बयान दर्ज कर सकता है और ऐसी स्थिति में मुख्य या प्रतिपरीक्षा से छूट देते हुए उचित आदेश पारित कर सकता है

स्पष्टीकरण 1— यदि पर्याप्त साक्ष्य मिल गया है जिससे यह संदेह उत्पन्न होता है कि अभियुक्त ने अपराध किया हो सकता है, और यदि ऐसा प्रतीत होता है कि अधिक साक्ष्य रिमांड से प्राप्त किया जा सकता है, तो यह रिमांड का उचित कारण माना जाएगा।

स्पष्टीकरण 2— स्थगन या मुल्तवीकरण की शर्तों में, उचित मामलों में अभियोजन या अभियुक्त द्वारा लागत (costs) का भुगतान भी शामिल हो सकता है

धारा 347 : स्थानीय निरीक्षण – Local Inspection

(1) कोई भी न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट, किसी भी जाँच, विचारण या अन्य कार्यवाही के किसी भी चरण पर, पक्षकारों को उचित सूचना देकर, उस स्थल का निरीक्षण कर सकता है जहाँ अपराध हुआ हो या ऐसा कोई अन्य स्थान, जिसे उसकी राय में साक्ष्य की सम्यक समझ के लिए देखना आवश्यक हो। निरीक्षण के दौरान देखे गए प्रासंगिक तथ्यों का एक ज्ञापन वह अनावश्यक विलंब के बिना अभिलेखित करेगा।

(2) यह ज्ञापन मामले के अभिलेख का भाग होगा, और यदि अभियोजक, परिवादी, अभियुक्त या अन्य कोई पक्षकार चाहे, तो उसे उसकी प्रति निःशुल्क प्रदान की जाएगी

धारा 348 : महत्वपूर्ण गवाह को तलब करने या उपस्थित व्यक्ति से पूछताछ करने की शक्ति – Power to summon material witness, or examine person present

किसी भी न्यायालय को, इस संहिता के अंतर्गत किसी भी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के किसी भी चरण पर, किसी भी व्यक्ति को गवाह के रूप में तलब करने, या ऐसे किसी व्यक्ति से पूछताछ करने जो उपस्थित है परंतु जिसे गवाह के रूप में नहीं बुलाया गया है, अथवा पहले से परीक्षित किसी व्यक्ति को पुनः बुलाकर दोबारा पूछताछ करने की शक्ति है। और यदि न्यायालय को यह प्रतीत हो कि ऐसे व्यक्ति का साक्ष्य न्यायपूर्ण निर्णय के लिए आवश्यक है, तो उसे ऐसे व्यक्ति को अवश्य तलब करके पूछताछ करनी चाहिए या पुनः बुलाकर पूछताछ करनी चाहिए

धारा 349 : व्यक्ति को हस्ताक्षर, लेख, अंगुलि छाप या आवाज़ के नमूने देने का आदेश देने की मजिस्ट्रेट की शक्ति – Power of Magistrate to order person to give specimen signatures or handwriting, etc.

यदि प्रथम श्रेणी का मजिस्ट्रेट यह संतुष्ट हो जाता है कि इस संहिता के अंतर्गत किसी जांच या कार्यवाही के लिए यह आवश्यक है कि किसी व्यक्ति, जिसमें अभियुक्त भी शामिल है, से हस्ताक्षर, अंगुलि छाप, हस्तलिपि या आवाज़ का नमूना लिया जाए, तो वह ऐसा आदेश दे सकता है। उस स्थिति में, संबंधित व्यक्ति को निर्धारित समय और स्थान पर उपस्थित होना होगा और अपना नमूना देना होगा

परंतु यह आदेश तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक वह व्यक्ति किसी समय उस जांच या कार्यवाही के संबंध में गिरफ्तार न किया गया हो

लेकिन मजिस्ट्रेट यदि उपयुक्त कारणों को लेखबद्ध करता है, तो वह बिना गिरफ्तारी के भी ऐसे व्यक्ति को नमूना देने का आदेश दे सकता है

धारा 350 : परिवादियों और गवाहों का खर्च – Expenses of complainants and witnesses

राज्य सरकार द्वारा बनाए गए किसी भी नियम के अधीन रहते हुए, कोई भी आपराधिक न्यायालय, यदि उसे उचित लगे, तो इस संहिता के अंतर्गत किसी जांच, विचारण या अन्य कार्यवाही के लिए उपस्थित हुए किसी परिवादी या गवाह के युक्तियुक्त खर्चों का भुगतान सरकार की ओर से किए जाने का आदेश दे सकता है

धारा 351 : अभियुक्त की जांच का अधिकार – Power to examine accused

(1) किसी भी जांच या विचारण में, अभियुक्त को उसके विरुद्ध साक्ष्यों में प्रकट किसी भी परिस्थिति को व्यक्तिगत रूप से स्पष्ट करने का अवसर देने के लिए न्यायालय––
(a) किसी भी चरण पर, बिना पूर्व चेतावनी दिए, अभियुक्त से ऐसे प्रश्न पूछ सकता है जिन्हें वह आवश्यक समझे;
(b) अभियोजन पक्ष के गवाहों की जांच पूरी होने के बाद और अभियुक्त को अपनी सफाई पेश करने से पहले, सामान्य रूप से मामले पर उससे प्रश्न करेगा:
परंतु यह कि समन वादों में, जहां न्यायालय ने अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट दी है, वहां उस पर खंड (b) के अंतर्गत पूछताछ से भी छूट दी जा सकती है।

(2) उप-धारा (1) के अंतर्गत अभियुक्त से पूछताछ करते समय उसे शपथ नहीं दिलाई जाएगी

(3) अभियुक्त यदि इन प्रश्नों का उत्तर देने से इनकार करता है या झूठे उत्तर देता है, तो वह केवल इस कारण से दंडनीय नहीं होगा

(4) अभियुक्त द्वारा दिए गए उत्तरों को उस जांच या विचारण में ध्यान में रखा जा सकता है, तथा किसी अन्य जांच या विचारण में उसके विरुद्ध या पक्ष में साक्ष्य के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है, यदि वे उत्तर यह इंगित करते हों कि उसने कोई अन्य अपराध किया है।

(5) न्यायालय अभियुक्त से पूछे जाने वाले उचित प्रश्नों की तैयारी में अभियोजन पक्ष तथा प्रतिरक्षा वकील की सहायता ले सकता है, और न्यायालय अभियुक्त द्वारा लिखित वक्तव्य दाखिल करने की अनुमति भी दे सकता है, जो इस धारा का पर्याप्त पालन माना जाएगा।

धारा 352 : मौखिक तर्क और तर्कों का ज्ञापन – Oral arguments and memorandum of arguments

(1) किसी भी कार्यवाही में, प्रत्येक पक्षकार को यह अधिकार होगा कि अपने साक्ष्य समाप्त होने के बाद शीघ्र ही संक्षिप्त मौखिक तर्क प्रस्तुत कर सके, और यदि वह मौखिक तर्क देता है, तो तर्क समाप्त करने से पहले वह न्यायालय में संक्षिप्त और स्पष्ट शीर्षकों के अंतर्गत अपने मामले के समर्थन में तर्कों का ज्ञापन प्रस्तुत कर सकता है। यह ज्ञापन न्यायालय की अभिलेख सामग्री (रिकॉर्ड) का भाग बनेगा।

(2) ऐसे प्रत्येक ज्ञापन की एक प्रति साथ ही साथ विरोधी पक्ष को भी दी जाएगी

(3) मात्र लिखित तर्क प्रस्तुत करने के उद्देश्य से कार्यवाही स्थगित नहीं की जाएगी, जब तक कि न्यायालय लिखित रूप में कारण दर्ज करके यह आवश्यक न समझे

(4) यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि मौखिक तर्क संक्षिप्त या प्रासंगिक नहीं हैं, तो वह ऐसे तर्कों को नियंत्रित कर सकता है।

धारा 353 : अभियुक्त व्यक्ति साक्षी होने के लिए सक्षम – Accused person to be competent witness

(1) कोई भी व्यक्ति जो किसी आपराधिक न्यायालय में अपराध का अभियुक्त है, अपने बचाव में साक्ष्य देने के लिए सक्षम साक्षी होगा और वह अपने विरुद्ध लगाए गए आरोपों के खंडन में या उसी मुकदमे में उसके साथ अभियुक्त किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध शपथ पर साक्ष्य दे सकता है:
परंतु निम्नलिखित शर्तें लागू होंगी
(a) उसे साक्षी के रूप में तभी बुलाया जाएगा जब वह स्वयं लिखित रूप में ऐसा अनुरोध करे;
(b) यदि वह साक्ष्य नहीं देता है, तो इस विषय में कोई भी पक्ष या न्यायालय कोई टिप्पणी नहीं करेगा, और उसके विरुद्ध या उसी मुकदमे में अन्य अभियुक्तों के विरुद्ध कोई अनुमान (presumption) नहीं लगाया जाएगा

(2) किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध यदि धारा 101, 126, 127, 128, 129, अध्याय X या अध्याय XI के भाग B, C या D के अंतर्गत कार्यवाही की गई है, तो वह व्यक्ति ऐसी कार्यवाही में स्वयं को साक्षी के रूप में प्रस्तुत कर सकता है:
परंतु यह शर्त है कि धारा 127, 128 या 129 की कार्यवाहियों में यदि ऐसा व्यक्ति साक्ष्य नहीं देता है, तो इस बारे में कोई टिप्पणी नहीं की जाएगी, और उसके विरुद्ध या उसी जांच में साथ पेश अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध कोई अनुमान नहीं लगाया जाएगा

धारा 354 : कथन खुलवाने हेतु प्रभाव का प्रयोग वर्जित – No influence to be used to induce disclosure

धाराओं 343 और 344 में जो प्रावधान किए गए हैं, उनके अतिरिक्त, किसी अभियुक्त से उसके ज्ञान में किसी बात का खुलासा करने या उसे छिपाने के लिए किसी भी प्रकार का प्रभाव, चाहे वह वादा हो, धमकी हो या अन्य कोई तरीका हो, नहीं डाला जाएगा

धारा 355 : कुछ मामलों में अभियुक्त की अनुपस्थिति में जांच और विचारण की व्यवस्था – Provision for inquiries and trial being held in absence of accused in certain cases

(1) किसी भी जांच या विचारण की प्रक्रिया के किसी भी चरण में, यदि न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट यह संतुष्ट हो जाए (और इसका कारण लेखबद्ध करे) कि अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति न्यायहित में आवश्यक नहीं है, या वह बार-बार न्यायालय की कार्यवाही में विघ्न डालता है, तो न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट, यदि अभियुक्त की ओर से कोई अधिवक्ता उपस्थित हो, तो उसकी उपस्थिति को माफ कर सकता है और उसकी अनुपस्थिति में ही जांच या विचारण आगे बढ़ा सकता है, तथा किसी भी बाद के चरण में उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति का आदेश दे सकता है

(2) यदि अभियुक्त किसी अधिवक्ता द्वारा प्रतिनिधित्वित नहीं हो रहा हो, या न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट यह माने कि उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति आवश्यक है, तो वह, अपना कारण दर्ज करके, या तो कार्यवाही स्थगित कर सकता है, या यह आदेश दे सकता है कि उस अभियुक्त का मामला अलग से लिया जाए या उसका अलग से विचारण किया जाए

स्पष्टीकरण : इस धारा के प्रयोजन के लिए, अभियुक्त की व्यक्तिगत उपस्थिति में ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से की गई उपस्थिति भी सम्मिलित है

धारा 356 : उद्घोषित अपराधी की अनुपस्थिति में जांच, विचारण या निर्णय – Inquiry, trial or judgment in absentia of proclaimed offender

(1) यदि कोई व्यक्ति उद्घोषित अपराधी घोषित किया गया है और वह विचारण से बचने के लिए फरार हो गया है तथा उसकी गिरफ्तारी की कोई तत्काल संभावना नहीं है, तो ऐसा समझा जाएगा कि उसने स्वयं उपस्थित होकर विचारण किए जाने के अपने अधिकार का त्याग कर दिया है, और न्यायालय, कारण लिखित रूप में दर्ज करके, ऐसे व्यक्ति की अनुपस्थिति में विचारण की कार्यवाही उसी प्रकार और उसी प्रभाव के साथ करेगा जैसे वह व्यक्ति उपस्थित हो और अंत में निर्णय सुनाएगा
परंतु, विचारण तब तक आरंभ नहीं होगा जब तक अभियोग तय होने की तारीख से 90 दिन नहीं बीत जाते

(2) उपधारा (1) के अंतर्गत विचारण प्रारंभ करने से पूर्व न्यायालय को यह सुनिश्चित करना होगा कि निम्नलिखित प्रक्रिया का पालन किया गया है—
(i) कम से कम 30 दिन के अंतराल पर लगातार दो गिरफ्तारी वारंट जारी किए गए हों;
(ii) उसके अंतिम ज्ञात पते पर प्रचलित राष्ट्रीय या स्थानीय समाचार पत्र में एक प्रकाशन किया गया हो, जिसमें उसे न्यायालय में उपस्थित होने के लिए कहा गया हो और यह सूचित किया गया हो कि यदि वह प्रकाशन की तिथि से 30 दिन के भीतर उपस्थित नहीं होता, तो उसकी अनुपस्थिति में विचारण शुरू कर दिया जाएगा;
(iii) उसके किसी संबंधी या मित्र को विचारण प्रारंभ होने की सूचना दी गई हो, यदि कोई हो;
(iv) उसके घर या निवास स्थान के किसी प्रमुख भाग पर सूचना चस्पा की गई हो, और संबंधित थाना क्षेत्र में यह सूचना प्रदर्शित की गई हो।

(3) यदि उद्घोषित अपराधी की ओर से कोई अधिवक्ता नियुक्त नहीं है, तो राज्य की ओर से उसके बचाव के लिए एक अधिवक्ता की नियुक्ति की जाएगी

(4) यदि विचारण के दौरान न्यायालय ने अभियोजन पक्ष के किसी गवाह का बयान दर्ज कर लिया है, तो उन गवाहों की गवाही उद्घोषित अपराधी के विरुद्ध साक्ष्य के रूप में स्वीकार की जा सकती है:
परंतु, यदि अभियुक्त विचारण के दौरान गिरफ्तार होकर न्यायालय में उपस्थित होता है या प्रस्तुत किया जाता है, तो न्यायालय, न्यायहित में, उसे उस साक्ष्य की जांच की अनुमति दे सकता है जो उसकी अनुपस्थिति में लिया गया हो

(5) इस धारा के अंतर्गत विचारण में, गवाहों की गवाही को यथासंभव ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से रिकॉर्ड किया जाएगा, अधिमानतः मोबाइल फोन से, और उस रिकॉर्डिंग को न्यायालय के निर्देशानुसार सुरक्षित रखा जाएगा।

(6) यदि विचारण उपधारा (1) के अंतर्गत शुरू हो गया है, तो अभियुक्त की स्वैच्छिक अनुपस्थिति के कारण विचारण या निर्णय की प्रक्रिया नहीं रुकेगी, भले ही वह बाद में गिरफ्तार हो जाए या उपस्थित हो

(7) इस धारा के अंतर्गत पारित निर्णय के विरुद्ध अपील तब तक स्वीकार नहीं की जाएगी जब तक उद्घोषित अपराधी स्वयं अपील न्यायालय में प्रस्तुत न हो:
परंतु, दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील, निर्णय की तिथि से 3 वर्ष के भीतर ही की जा सकती है

(8) राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा, इस धारा के प्रावधानों को धारा 84(1) में उल्लिखित किसी भी फरार व्यक्ति पर भी लागू कर सकती है

धारा 357 : जहां अभियुक्त कार्यवाही नहीं समझता हो, वहां की प्रक्रिया – Procedure where accused does not understand proceedings

यदि अभियुक्त, मनोविकृत (unsound mind) व्यक्ति नहीं है, फिर भी उसे कार्यवाही समझाई नहीं जा सकती, तो न्यायालय जांच या विचारण की प्रक्रिया को आगे बढ़ा सकता है;
और यदि ऐसा मामला उच्च न्यायालय के अतिरिक्त किसी अन्य न्यायालय द्वारा सुना जा रहा हो और उस कार्यवाही का परिणाम दोषसिद्धि (conviction) हो, तो उस कार्यवाही को मामले की परिस्थितियों की एक रिपोर्ट सहित उच्च न्यायालय को अग्रेषित किया जाएगा, और उच्च न्यायालय उस पर उपयुक्त आदेश पारित करेगा

अर्थ: यदि अभियुक्त की मानसिक स्थिति सामान्य है लेकिन वह भाषा, शिक्षा या किसी अन्य कारण से न्यायिक कार्यवाही को नहीं समझ पा रहा, तब भी न्यायालय कार्यवाही जारी रख सकता है, लेकिन यदि उसे दोषी ठहराया जाए, तो अंतिम निर्णय उच्च न्यायालय द्वारा किया जाएगा।

धारा 358 : अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध कार्यवाही की शक्ति जो अपराधी प्रतीत होते हैं – Power to proceed against other persons appearing to be guilty of offence

(1) यदि किसी अपराध की जांच या विचारण के दौरान यह प्रमाण से प्रतीत होता है कि कोई व्यक्ति, जो अभियुक्त नहीं है, ने ऐसा कोई अपराध किया है जिसके लिए उसे अभियुक्त के साथ मिलाकर विचारण किया जा सकता था, तो न्यायालय ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध उस अपराध के लिए कार्यवाही कर सकता है, जो उसने किया प्रतीत होता है।

(2) यदि ऐसा व्यक्ति न्यायालय में उपस्थित नहीं है, तो मामले की परिस्थितियों के अनुसार उसे गिरफ़्तार या तलब (summon) किया जा सकता है, ताकि उसके विरुद्ध कार्यवाही की जा सके।

(3) यदि कोई व्यक्ति न्यायालय में उपस्थित है, चाहे वह गिरफ़्तार न हो या उसे समन जारी न किया गया हो, फिर भी यदि वह अपराधी प्रतीत होता है, तो न्यायालय उसे हिरासत में ले सकता है ताकि उसके विरुद्ध जांच या विचारण किया जा सके।

(4) यदि न्यायालय उपधारा (1) के अंतर्गत किसी व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही करता है, तो—
(a) उस व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही नए सिरे से शुरू की जाएगी, और साक्षियों को पुनः सुना जाएगा;
(b) उपधारा (4)(a) के अधीन रहते हुए, मामला ऐसे चलेगा मानो वह व्यक्ति प्रारंभ में ही अभियुक्त था, जब न्यायालय ने उस अपराध की संज्ञान लिया था जिसके लिए जांच या विचारण शुरू किया गया।

सार: अगर किसी मामले में सुनवाई के दौरान किसी अन्य व्यक्ति की भूमिका अपराध में सामने आती है, तो न्यायालय उसे भी अभियुक्त मानकर उसके विरुद्ध नया विचारण शुरू कर सकता है, भले ही वह पहले अभियुक्त नहीं था।

धारा 359 : अपराधों के समझौते का प्रावधान – Compounding of Offences

(1) भारतीय न्याय संहिता, 2023 की जिन धाराओं में वर्णित अपराधों को समझौते (compounding) द्वारा समाप्त किया जा सकता है, उनका विवरण एक तालिका में दिया गया है। पहली तालिका में वे अपराध हैं जिन्हें संबंधित व्यक्ति बिना न्यायालय की अनुमति के समझौते द्वारा समाप्त कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, स्वेच्छा से चोट पहुंचाना (धारा 115(2)) का अपराध वह व्यक्ति समझौते से समाप्त कर सकता है जिसे चोट पहुंचाई गई हो।

(2) दूसरी तालिका में वे अपराध हैं जिन्हें केवल न्यायालय की अनुमति से समझौते द्वारा समाप्त किया जा सकता है। जैसे, किसी महिला की लज्जा भंग करने हेतु शब्द, इशारे या क्रिया करना (धारा 79) – इस अपराध का समझौता पीड़िता न्यायालय की अनुमति से कर सकती है।

(3) यदि कोई अपराध समझौतাযোগ्य है, तो उसका उकसाव, प्रयास, या संयुक्त रूप से किए गए अपराध की जिम्मेदारी (धारा 3(5) व धारा 190 के अनुसार) भी उसी प्रकार समझौते से समाप्त की जा सकती है।

(4)(a) यदि समझौते के लिए सक्षम व्यक्ति अवयस्क या मानसिक रूप से अस्वस्थ है, तो उसकी ओर से कोई सक्षम व्यक्ति न्यायालय की अनुमति से समझौता कर सकता है।
(b) यदि ऐसा व्यक्ति मृत हो गया है, तो उसका वैधानिक प्रतिनिधि (Legal Representative) न्यायालय की सहमति से समझौता कर सकता है।

(5) जब अभियुक्त को विचारण हेतु समर्पित किया गया हो या वह दोषसिद्ध हो चुका हो और अपील लंबित हो, तो बिना संबंधित न्यायालय की अनुमति के समझौता नहीं किया जा सकता।

(6) उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय, जो पुनरीक्षण की शक्ति (धारा 442) का प्रयोग कर रहा हो, वह ऐसा समझौता स्वीकार कर सकता है।

(7) यदि अभियुक्त पूर्व में दोषसिद्ध हो चुका है, जिससे वह इस अपराध के लिए अधिक दंड या भिन्न प्रकार के दंड के लिए उत्तरदायी हो गया है, तो ऐसा अपराध समझौतायोग्य नहीं होगा।

(8) इस धारा के अंतर्गत किया गया समझौता, अभियुक्त के लिए दोषमुक्ति (acquittal) के बराबर होता है।

(9) कोई भी अपराध इस धारा में वर्णित प्रावधानों के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार से समझौते से समाप्त नहीं किया जा सकता।

निष्कर्ष: केवल उन्हीं अपराधों को समझौते से समाप्त किया जा सकता है जो इस धारा की तालिका में सूचीबद्ध हैं, और उनके लिए उपयुक्त व्यक्ति तथा न्यायालय की अनुमति (जहां आवश्यक हो) अनिवार्य है। समझौता दोषमुक्ति के समान प्रभाव रखता है।

धारा 360 : अभियोजन से अभियोजन अधिकारी का हटना – Withdrawal from Prosecution

यदि किसी मामले में लोक अभियोजक (Public Prosecutor) या सहायक लोक अभियोजक (Assistant Public Prosecutor) न्यायालय के समक्ष यह प्रस्ताव करता है कि वह अभियुक्त के विरुद्ध अभियोजन से हटना चाहता है, तो वह न्यायालय की अनुमति से, किसी भी समय (जब तक निर्णय नहीं हो जाता), अभियोजन से हट सकता है — चाहे वह हटना पूर्णतः हो या केवल कुछ अपराधों के संबंध में

इस स्थिति में:

(a) यदि अभियोजन से हटने का निर्णय आरोप तय होने से पहले लिया गया हो, तो अभियुक्त को उस अपराध या अपराधों के लिए आरोपमुक्त (discharged) किया जाएगा।

(b) यदि अभियोजन से हटने का निर्णय आरोप तय होने के बाद, या जहां आरोप तय करना आवश्यक नहीं है, लिया गया हो, तो अभियुक्त को उस अपराध या अपराधों के लिए दोषमुक्त (acquitted) किया जाएगा।

प्रथम प्रावधान: यदि अपराध निम्न में से किसी एक से संबंधित हो—

(i) ऐसा अपराध जो संघ की कार्यपालक शक्ति (Executive Power of the Union) के अंतर्गत आता हो;
(ii) ऐसा अपराध जिसकी जांच किसी केंद्रीय अधिनियम के तहत की गई हो;
(iii) ऐसा अपराध जिसमें केंद्र सरकार की संपत्ति का दुरुपयोग, विनाश या क्षति हुई हो;
(iv) ऐसा अपराध जो केंद्र सरकार की सेवा में कार्यरत किसी व्यक्ति द्वारा अपने आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में किया गया हो,

और यदि ऐसे मामले में अभियोजन अधिकारी की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा नहीं की गई हो, तो वह अभियोजन से हटने के लिए तब तक न्यायालय से अनुमति नहीं मांग सकता जब तक उसे केंद्र सरकार से अनुमति प्राप्त न हो
न्यायालय भी, ऐसी स्थिति में अभियोजन से हटने की अनुमति तभी देगा जब अभियोजन अधिकारी न्यायालय के समक्ष केंद्र सरकार की अनुमति प्रस्तुत करेगा

द्वितीय प्रावधान: कोई भी न्यायालय अभियोजन से हटने की अनुमति तब तक नहीं देगा जब तक पीड़ित (victim) को सुनने का अवसर नहीं दिया गया हो।

निष्कर्ष: इस धारा के तहत, अभियोजन अधिकारी न्यायालय की अनुमति से अभियोजन से हट सकता है, लेकिन कुछ विशेष मामलों में केंद्र सरकार की अनुमति आवश्यक है, और पीड़ित को सुनवाई का अवसर देना अनिवार्य है। यह प्रावधान लोकहित व पीड़ित के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाया गया है।

धारा 361 : ऐसे मामलों की प्रक्रिया जिन्हें मजिस्ट्रेट निपटा नहीं सकता – Procedure in cases which Magistrate cannot dispose of

(1) यदि किसी जिले में किसी मजिस्ट्रेट के समक्ष किसी अपराध की जांच या विचारण के दौरान, प्रमाणों से ऐसा प्रतीत होता है कि : –

(a) उस मजिस्ट्रेट के पास उस मामले का विचारण करने या उसे विचारण के लिए सुपुर्द करने का अधिकार नहीं है, या
(b) मामला ऐसा है जिसे जिले के किसी अन्य मजिस्ट्रेट द्वारा विचारित या विचारण हेतु सुपुर्द किया जाना चाहिए, या
(c) मामला मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (Chief Judicial Magistrate) द्वारा विचारण योग्य है,

तो ऐसे में वह मजिस्ट्रेट कार्यवाही को स्थगित (stay) कर देगा और मामले को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा निर्दिष्ट अन्य सक्षम मजिस्ट्रेट के पास संक्षिप्त रिपोर्ट सहित भेज देगा, जिसमें वह मामले का संक्षिप्त स्वरूप स्पष्ट करेगा।

(2) जिस मजिस्ट्रेट को यह मामला भेजा गया है, यदि वह विधिपूर्वक अधिकृत है, तो वह —

  • स्वयं उस मामले का विचारण कर सकता है, या
  • उसे किसी अधीनस्थ सक्षम मजिस्ट्रेट को सौंप सकता है, या
  • अभियुक्त को विचारण हेतु सुपुर्द (commit) कर सकता है।

निष्कर्ष: यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि यदि किसी मजिस्ट्रेट को यह लगे कि वह किसी मामले का विचारण नहीं कर सकता या नहीं करना चाहिए, तो वह मामला सही अधिकार क्षेत्र वाले मजिस्ट्रेट या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को सौंप दे, ताकि विधिक प्रक्रिया न्यायोचित रूप से आगे बढ़े।

धारा 362 : जब किसी जांच या विचारण के प्रारंभ के बाद मजिस्ट्रेट को लगे कि मामला सत्र न्यायालय द्वारा विचारण योग्य है – Procedure when after commencement of inquiry or trial, Magistrate finds case should be committed

यदि किसी अपराध की जांच या विचारण के दौरान किसी मजिस्ट्रेट को, निर्णय पर हस्ताक्षर करने से पहले किसी भी चरण पर यह प्रतीत होता है कि मामला ऐसा है जिसे सत्र न्यायालय (Court of Session) द्वारा विचारित किया जाना चाहिए, तो वह उस मामले को पूर्ववर्ती प्रावधानों के अनुसार सत्र न्यायालय को सुपुर्द (commit) करेगा।

और इसके बाद, अध्याय XIX की समस्त धाराएं उस सुपुर्दगी पर लागू होंगी।

निष्कर्ष: यदि किसी मजिस्ट्रेट को विचारण के किसी भी चरण में यह लगे कि मामला उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है और उसे सत्र न्यायालय में जाना चाहिए, तो वह उस मामले को सत्र न्यायालय को भेज देगा और उस पर सत्र न्यायालय में विचारण होगा।

धारा 363 : उन व्यक्तियों का विचारण जो पहले मुद्रा, मुहर-कानून या संपत्ति संबंधी अपराधों में दोषसिद्ध हो चुके हैं – Trial of persons previously convicted of offences against coinage, stamp-law or property

(1) यदि कोई व्यक्ति भारतीय न्याय संहिता, 2023 (45 of 2023) के अध्याय X (मुद्रा और सरकारी मुहर संबंधी अपराध) या अध्याय XVII (संपत्ति संबंधी अपराध) के अंतर्गत किसी ऐसे अपराध में दोषसिद्ध हो चुका है जो तीन वर्ष या अधिक की कारावास से दंडनीय है, और वह पुनः उन्हीं अध्यायों के अंतर्गत किसी ऐसे अपराध का आरोपी है जो तीन वर्ष या उससे अधिक की सजा से दंडनीय है, तो जिस मजिस्ट्रेट के समक्ष मामला लंबित है, यदि वह यह संतुष्ट हो जाता है कि इस बात का प्रत्याशित आधार है कि उस व्यक्ति ने यह अपराध किया है, तो वह उसे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (Chief Judicial Magistrate) के पास विचारण हेतु भेजेगा या सत्र न्यायालय को सुपुर्द करेगा, जब तक कि वह मजिस्ट्रेट स्वयं उस अपराध के विचारण हेतु सक्षम न हो और उसे यह न लगता हो कि वह स्वयं उस अपराध के लिए उचित सजा दे सकता है।

(2) जब किसी व्यक्ति को उपधारा (1) के अनुसार मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास विचारण हेतु भेजा जाता है या सत्र न्यायालय को सुपुर्द किया जाता है, और उस मामले में कोई अन्य व्यक्ति उसके साथ संयुक्त रूप से आरोपी है, तो उसे भी उसी प्रकार विचारण हेतु भेजा या सुपुर्द किया जाएगा, जब तक कि मजिस्ट्रेट उसे धारा 262 या धारा 268 के अंतर्गत निर्दोष पाकर आरोपमुक्त न कर दे

सारांश: जो व्यक्ति पहले संपत्ति, मुद्रा या सरकारी मुहर से संबंधित गंभीर अपराधों में दोषी पाया जा चुका है, यदि वह फिर से ऐसा अपराध करता है, तो उसे मजिस्ट्रेट स्वयं विचारण न कर मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायालय को भेजेगा, जब तक कि वह स्वयं उस पर उचित सजा न दे सके। उसके साथ आरोपित अन्य व्यक्ति भी उसी न्यायालय में भेजे जाएंगे।

धारा 364 : जब मजिस्ट्रेट पर्याप्त कठोर दंड नहीं दे सकता तब की प्रक्रिया – Procedure when Magistrate cannot pass sentence sufficiently severe

(1) जब कोई मजिस्ट्रेट, अभियोजन पक्ष और अभियुक्त की गवाही सुनने के बाद यह मत व्यक्त करता है कि अभियुक्त दोषी है और उसे ऐसा दंड दिया जाना चाहिए जो उस मजिस्ट्रेट की अधिकार सीमा से अधिक कठोर हो, या ऐसा दंड जो स्वरूप में अलग हो, या यदि वह द्वितीय श्रेणी का मजिस्ट्रेट है और उसे लगता है कि अभियुक्त को धारा 125 के तहत बंधपत्र (bond) या जमानती बंधपत्र (bail bond) भरने का आदेश देना चाहिए, तो वह अपनी यह राय लिखित रूप में दर्ज करेगा, अपनी समस्त कार्रवाई सहित अभियुक्त को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट (Chief Judicial Magistrate) के पास भेजेगा, जो उसका अधीनस्थ न्यायालय है।

(2) यदि एक से अधिक अभियुक्तों का एक साथ विचारण हो रहा है, और मजिस्ट्रेट को यह आवश्यक लगे कि उनमें से किसी एक या अधिक अभियुक्तों के संबंध में उपधारा (1) के तहत कार्रवाई की जाए, तो वह सभी उन अभियुक्तों को, जो उसकी राय में दोषी हैं, मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजेगा।

(3) जिस मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को यह मामला भेजा गया है, वह यदि उचित समझे तो पक्षों से पूछताछ कर सकता है, पहले से गवाही दे चुके गवाहों को पुनः बुलाकर उनसे दोबारा जिरह कर सकता है, और आवश्यक लगे तो नई गवाही भी दर्ज कर सकता है। इसके बाद वह विधि अनुसार जो भी उपयुक्त हो, वैसा निर्णय, दंड या आदेश पारित करेगा।

सारांश: जब किसी मजिस्ट्रेट को लगता है कि अभियुक्त को ऐसा दंड देना चाहिए जो उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है, तो वह मामला मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेज देता है, जो आगे की सुनवाई कर अंतिम निर्णय लेता है।

धारा 365 : आंशिक रूप से एक मजिस्ट्रेट द्वारा तथा आंशिक रूप से किसी अन्य मजिस्ट्रेट द्वारा रिकॉर्ड की गई साक्ष्य के आधार पर दोषसिद्धि या प्रतिबद्धता – Conviction or commitment on evidence partly recorded by one Magistrate and partly by another

(1) यदि किसी जज या मजिस्ट्रेट द्वारा किसी विचारण या जांच में पूरी या आंशिक साक्ष्य दर्ज की जा चुकी हो, और उसके बाद वह उस मामले का अधिकार क्षेत्र छोड़ दे, और कोई अन्य जज या मजिस्ट्रेट उसका उत्तराधिकारी बनकर उस मामले पर अधिकार क्षेत्र ग्रहण करता है, तो नया जज या मजिस्ट्रेट पूर्ववर्ती अधिकारी द्वारा दर्ज साक्ष्य पर कार्यवाही कर सकता है, या पूर्व अधिकारी और स्वयं द्वारा दर्ज साक्ष्य दोनों पर कार्य कर सकता है

परंतु, यदि उत्तराधिकारी जज या मजिस्ट्रेट को यह प्रतीत होता है कि न्यायहित में पहले से दर्ज किसी गवाह की फिर से पूछताछ आवश्यक है, तो वह ऐसे गवाह को पुनः बुला सकता है और उसे फिर से मुख्य परीक्षा, जिरह और पुनः परीक्षा के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है। इसके बाद ही गवाह को मुक्त किया जाएगा

(2) जब किसी मामले को इस संहिता के अंतर्गत एक जज से दूसरे जज या एक मजिस्ट्रेट से दूसरे मजिस्ट्रेट को स्थानांतरित किया जाता है, तो पहला जज या मजिस्ट्रेट ऐसा माना जाएगा कि उसने अधिकार क्षेत्र छोड़ दिया है, और दूसरा अधिकारी उसका उत्तराधिकारी बन गया है, जैसा कि उपधारा (1) में उल्लेखित है।

(3) इस धारा का प्रावधान संक्षिप्त विचारण (summary trials) या उन मामलों पर लागू नहीं होगा, जिनमें कार्यवाही को धारा 361 के तहत स्थगित कर दिया गया हो, या जिन्हें धारा 364 के अंतर्गत किसी उच्च मजिस्ट्रेट को प्रेषित किया गया हो

सारांश: अगर किसी मामले में एक मजिस्ट्रेट द्वारा आंशिक साक्ष्य दर्ज की गई हो और बाद में दूसरा मजिस्ट्रेट उस पर सुनवाई करता है, तो वह पूर्ववर्ती मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज साक्ष्य का उपयोग कर सकता है, और आवश्यक लगे तो गवाहों को दोबारा बुलाकर पूछताछ कर सकता है।

धारा 366 : न्यायालय खुला होगा – Court to be open

(1) जिस स्थान पर कोई आपराधिक न्यायालय किसी अपराध की जांच या विचारण के लिए बैठता है, वह स्थान खुला न्यायालय माना जाएगा, जहाँ सामान्य जनता को प्रवेश की अनुमति होगी, जब तक कि उस स्थान की क्षमता अनुसार यह सुविधाजनक हो

परंतु, न्यायालय की अध्यक्षता करने वाला न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट यह उपयुक्त समझे तो, किसी भी समय, किसी विशेष मामले की जांच या विचारण के दौरान, यह आदेश दे सकता है कि सामान्य जनता या कोई विशेष व्यक्ति उस कमरे या भवन में प्रवेश न करे या वहाँ रुके नहीं, जहाँ न्यायालय कार्य कर रहा है।

(2) उपधारा (1) में उल्लिखित प्रावधानों के बावजूद, बलात्कार या भारतीय दंड संहिता, 2023 (45 का 2023) की धारा 64, 65, 66, 67, 68, 70 या 71, अथवा बाल यौन अपराधों से संरक्षण अधिनियम, 2012 (2012 का 32) की धारा 4, 6, 8 या 10 से संबंधित अपराधों की जांच व विचारण न्यायालय कक्ष में बंद रूप से (in camera) की जाएगी।

परंतु, पीठासीन न्यायाधीश यदि उचित समझे या पक्षकारों द्वारा आवेदन करने पर, किसी विशेष व्यक्ति को न्यायालय में उपस्थित रहने की अनुमति दे सकता है।

दूसरा proviso: इन in camera कार्यवाहियों को जहाँ तक संभव हो, किसी महिला न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट द्वारा ही संचालित किया जाएगा

(3) उपधारा (2) के अंतर्गत की गई किसी भी कार्यवाही के बारे में बिना न्यायालय की पूर्व अनुमति के, कोई भी व्यक्ति प्रकाशन या मुद्रण नहीं कर सकता

परंतु, बलात्कार से संबंधित मामलों की कार्यवाही के प्रकाशन पर प्रतिबंध को हटाया जा सकता है, परंतु यह सुनिश्चित करते हुए कि पीड़ित व अभियुक्त का नाम और पता गोपनीय रखा जाए।

धारा 367 : अभियुक्त के विक्षिप्त होने की दशा में प्रक्रिया – Procedure in case of accused being person of unsound mind

(1) जब कोई मजिस्ट्रेट किसी मामले की जांच कर रहा हो और उसे यह विश्वास करने का कारण मिले कि जिसके विरुद्ध जांच हो रही है वह विक्षिप्त (unsound mind) है और अपनी सफाई करने में असमर्थ है, तो वह उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति की जांच करेगा और उसे जिला सिविल सर्जन या राज्य सरकार द्वारा निर्देशित किसी अन्य चिकित्सा अधिकारी से जांच करवाएगा। इसके बाद मजिस्ट्रेट उस सर्जन या चिकित्सा अधिकारी का गवाह के रूप में परीक्षण करेगा और उसका लिखित बयान दर्ज करेगा

(2) यदि सिविल सर्जन यह पाता है कि अभियुक्त विक्षिप्त है, तो वह उसे सरकारी अस्पताल या मेडिकल कॉलेज के मनोचिकित्सक (psychiatrist) या क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट के पास इलाज, देखभाल और मानसिक स्थिति के पूर्वानुमान के लिए भेजेगा। मनोचिकित्सक या क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट मजिस्ट्रेट को यह बताएगा कि अभियुक्त विक्षिप्त है या बौद्धिक अक्षमता (intellectual disability) से पीड़ित है।

प्रावधान: यदि अभियुक्त को उक्त जानकारी से आपत्ति हो, तो वह मेडिकल बोर्ड में अपील कर सकता है, जिसमें होंगे:

(a) निकटतम सरकारी अस्पताल के मनोचिकित्सा विभाग के प्रमुख, और
(b) निकटतम सरकारी मेडिकल कॉलेज के मनोचिकित्सा विभाग के एक संकाय सदस्य।

(3) जब तक उपरोक्त जांच और परीक्षण लंबित है, मजिस्ट्रेट अभियुक्त से धारा 369 के अनुसार व्यवहार कर सकता है।

(4) यदि मजिस्ट्रेट को सूचित किया जाता है कि वह व्यक्ति विक्षिप्त है, तो मजिस्ट्रेट यह और जांच करेगा कि क्या यह मानसिक स्थिति अभियुक्त को अपनी सफाई करने में अक्षम बनाती है। यदि वह अक्षम पाया जाए, तो मजिस्ट्रेट इस बारे में एक निर्णय दर्ज करेगा और अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य का पुनरावलोकन करेगा। इसके बाद अभियुक्त के वकील को सुनकर, लेकिन अभियुक्त से कोई प्रश्न किए बिना, यदि कोई प्रथमदृष्टया मामला नहीं बनता, तो मजिस्ट्रेट जांच स्थगित करने के बजाय अभियुक्त को बरी कर देगा और उससे धारा 369 के अनुसार व्यवहार करेगा।

 (5) यदि मजिस्ट्रेट को यह सूचित किया जाता है कि वह व्यक्ति बौद्धिक अक्षमता से ग्रस्त है, तो वह यह जांच करेगा कि क्या यह अक्षमता अभियुक्त को अपनी सफाई करने में असमर्थ बनाती है। यदि ऐसा पाया जाता है, तो मजिस्ट्रेट जांच समाप्त करने का आदेश देगा और अभियुक्त से धारा 369 के अनुसार व्यवहार करेगा।

धारा 368 : विक्षिप्त व्यक्ति के न्यायालय में अभियोजन की दशा में प्रक्रिया – Procedure in case of person of unsound mind tried before Court

(1) यदि किसी मजिस्ट्रेट या सेशन न्यायालय में अभियुक्त के विरुद्ध मुकदमे की सुनवाई के दौरान यह प्रतीत होता है कि वह विक्षिप्त (unsound mind) है और इस कारण अपनी रक्षा करने में अक्षम है, तो न्यायालय या मजिस्ट्रेट को सबसे पहले उसके विक्षिप्त होने और अक्षम होने के तथ्य की जांच करनी होगी। यदि प्रस्तुत चिकित्सकीय या अन्य साक्ष्यों के आधार पर न्यायालय इस तथ्य से संतुष्ट हो जाए, तो वह इस बारे में एक निर्णय दर्ज करेगा और आगे की कार्यवाही को स्थगित कर देगा।

(2) यदि मुकदमे की सुनवाई के दौरान मजिस्ट्रेट या सेशन न्यायालय को अभियुक्त विक्षिप्त प्रतीत होता है, तो वह उसे मनोचिकित्सक या क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट के पास उपचार और देखभाल के लिए भेजेगा। संबंधित विशेषज्ञ यह रिपोर्ट देगा कि अभियुक्त विक्षिप्त है या नहीं

प्रावधान: यदि अभियुक्त को मनोचिकित्सक या क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट की रिपोर्ट से आपत्ति हो, तो वह मेडिकल बोर्ड में अपील कर सकता है, जिसमें निम्न सदस्य होंगे:

(a) निकटतम सरकारी अस्पताल के मनोचिकित्सा विभाग के प्रमुख, तथा
(b) निकटतम सरकारी मेडिकल कॉलेज के मनोचिकित्सा विभाग के एक संकाय सदस्य।

(3) यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय को सूचित किया जाता है कि अभियुक्त विक्षिप्त है, तो यह और जांच की जाएगी कि क्या यह विक्षिप्तता उसे अपनी रक्षा करने में अक्षम बनाती है। यदि ऐसा पाया जाता है, तो न्यायालय एक निर्णय दर्ज करेगा, फिर अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों की समीक्षा करेगा और अभियुक्त के वकील को सुनकर, लेकिन अभियुक्त से प्रश्न किए बिना, यदि कोई प्रथमदृष्टया मामला नहीं बनता, तो न्यायालय मुकदमा स्थगित करने के बजाय अभियुक्त को discharge करेगा और धारा 369 के अनुसार उससे व्यवहार करेगा।

प्रावधान: यदि प्रथमदृष्टया मामला बनता है, तो न्यायालय मुकदमे को उतनी अवधि के लिए स्थगित करेगा जितनी अवधि अभियुक्त के चिकित्सा उपचार हेतु मनोचिकित्सक या क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट द्वारा आवश्यक बताई जाए।

(4) यदि न्यायालय यह पाता है कि अभियुक्त के विरुद्ध प्रथमदृष्टया मामला बनता है लेकिन वह व्यक्ति बौद्धिक अक्षमता के कारण अपनी रक्षा करने में असमर्थ है, तो न्यायालय मुकदमा नहीं चलाएगा और अभियुक्त से धारा 369 के अनुसार व्यवहार करेगा।

धारा 369 : जांच या विचारण लंबित होने पर विक्षिप्त व्यक्ति की रिहाई – Release of person of unsound mind pending investigation or trial

(1) जब किसी व्यक्ति को धारा 367 या 368 के अंतर्गत यह पाया जाता है कि वह विक्षिप्तता या बौद्धिक अक्षमता के कारण अपनी रक्षा करने में अक्षम है, तो चाहे वह मामला जमानती हो या न हो, मजिस्ट्रेट या न्यायालय उस व्यक्ति को जमानत पर रिहा करने का आदेश देगा

शर्त: ऐसा तभी किया जाएगा जब –

  • अभियुक्त की स्थिति ऐसी हो जो अस्पताल में भर्ती होकर उपचार (in-patient treatment) की मांग न करती हो,
  • और उसका कोई मित्र या रिश्तेदार यह लिखित रूप से आश्वासन दे कि वह उसे नियमित बाह्य-रोगी मनोरोग उपचार (out-patient psychiatric treatment) दिलवाएगा और यह सुनिश्चित करेगा कि वह अपने या दूसरों को कोई हानि न पहुंचाए।

(2) यदि न्यायालय की राय में –

  • ऐसा मामला है जिसमें जमानत नहीं दी जा सकती,
  • या कोई उपयुक्त प्रशासनिक आश्वासन (undertaking) नहीं दिया गया है,
    तो अभियुक्त को ऐसी जगह भेजा जाएगा जहां उसे नियमित मानसिक उपचार मिल सके, और न्यायालय इस बारे में की गई कार्रवाई की सूचना राज्य सरकार को देगा।

प्रावधान: किसी भी अभियुक्त को सार्वजनिक मानसिक स्वास्थ्य संस्था में रखने का आदेश केवल उन्हीं नियमों के अनुसार दिया जाएगा जो मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 के अंतर्गत राज्य सरकार द्वारा बनाए गए हों।

(3) जब किसी व्यक्ति को धारा 367 या 368 के तहत अपनी रक्षा करने में अक्षम पाया जाता है, तो मजिस्ट्रेट या न्यायालय को, उसके किए गए कार्य की प्रकृति और उसकी विक्षिप्तता या बौद्धिक अक्षमता की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए यह भी तय करना होगा कि क्या उसे रिहा किया जा सकता है

शर्तें:

(a) यदि किसी चिकित्सकीय विशेषज्ञ की राय के आधार पर मजिस्ट्रेट या न्यायालय यह निर्णय लेता है कि अभियुक्त को discharge किया जा सकता है, तो उसे रिहा किया जा सकता है, यदि पर्याप्त सुरक्षा (undertaking/security) दी जाती है कि वह स्वयं या अन्य किसी को हानि नहीं पहुंचाएगा

(b) यदि discharge नहीं किया जा सकता, तो अभियुक्त को ऐसे रिहायशी केंद्र (residential facility) में भेजा जा सकता है, जहां उसे देखभाल, उपयुक्त शिक्षा, और प्रशिक्षण प्रदान किया जा सके।

धारा 370 : जांच या विचारण की पुनः शुरुआत – Resumption of inquiry or trial

(1) जब किसी व्यक्ति के विरुद्ध धारा 367 या 368 के अंतर्गत जांच या विचारण स्थगित किया गया हो, तो जैसे ही वह व्यक्ति विक्षिप्तता से मुक्त हो जाए, मजिस्ट्रेट या न्यायालय किसी भी समय उस जांच या विचारण को फिर से आरंभ कर सकता है, और अभियुक्त को उपस्थित होने या लाए जाने का निर्देश दे सकता है।

(2) जब अभियुक्त को धारा 369 के तहत रिहा किया गया हो, और उसके जमानती व्यक्ति उसे उस अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत करें जिसे मजिस्ट्रेट या न्यायालय ने नियुक्त किया हो, तो उस अधिकारी का प्रमाणपत्र कि अभियुक्त अब अपनी रक्षा करने में सक्षम है, प्रमाण के रूप में स्वीकार किया जाएगा

धारा 371 : अभियुक्त के मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत होने पर प्रक्रिया – Procedure on accused appearing before Magistrate or Court

(1) यदि अभियुक्त मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष उपस्थित होता है या दोबारा लाया जाता है, और मजिस्ट्रेट या न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि वह अपनी रक्षा करने में सक्षम है, तो जांच या विचारण आगे बढ़ाया जाएगा

(2) लेकिन यदि मजिस्ट्रेट या न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि अभियुक्त अभी भी अपनी रक्षा करने में असमर्थ है, तो मजिस्ट्रेट या न्यायालय धारा 367 या 368 के प्रावधानों के अनुसार कार्य करेगा और यदि अभियुक्त को विक्षिप्त पाया जाता है तथा वह अपनी रक्षा करने में अक्षम हो, तो उसे धारा 369 के अनुसार उपचारित किया जाएगा।

धारा 372 : जब अभियुक्त सामान्य मानसिक स्थिति में प्रतीत हो – When accused appears to have been of sound mind

जब अभियुक्त जांच या विचारण के समय सामान्य मानसिक स्थिति में प्रतीत होता है, और मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत साक्ष्यों से यह संतोष होता है कि ऐसा मानने का कारण है कि अभियुक्त ने कोई ऐसा कृत्य किया था, जो यदि वह सामान्य मानसिक स्थिति में होता, तो वह एक दंडनीय अपराध होता, तथा उस कृत्य को करते समय वह विक्षिप्तता के कारण या तो उस कृत्य की प्रकृति को नहीं समझ सका था या यह नहीं जानता था कि वह गलत है या कानून के विरुद्ध है, तब मजिस्ट्रेट को प्रकरण की कार्यवाही आगे बढ़ानी चाहिए, और यदि अभियुक्त को सेशन न्यायालय में विचारित किया जाना उचित हो, तो उसे सेशन न्यायालय में विचारण हेतु समर्पित (commit) कर दिया जाएगा

धारा 373 : विक्षिप्तता के आधार पर दोषमुक्ति का निर्णय – Judgment of acquittal on ground of unsoundness of mind

जब किसी व्यक्ति को इस आधार पर दोषमुक्त किया जाता है कि जिस समय उस पर अपराध करने का आरोप है, उस समय वह विक्षिप्तता के कारण उस कृत्य की प्रकृति को समझने में असमर्थ था, या यह नहीं जानता था कि वह कृत्य गलत है या कानून के विरुद्ध है, तब निर्णय में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया जाना चाहिए कि उस व्यक्ति ने वह कृत्य किया था या नहीं।

धारा 374 : विक्षिप्तता के आधार पर दोषमुक्त व्यक्ति को सुरक्षित हिरासत में रखना – Person acquitted on ground of unsoundness of mind to be detained in safe custody

(1) जब निर्णय में यह पाया जाए कि अभियुक्त ने वह कृत्य किया था, और यदि उसकी अयोग्यता (विक्षिप्तता) न होती तो वह कृत्य अपराध होता, तब वह मजिस्ट्रेट या न्यायालय, जिसके समक्ष मुकदमा चला हो—
(a) ऐसे व्यक्ति को सुरक्षित हिरासत में रखने का आदेश दे सकता है, जिस स्थान व तरीके को वह उपयुक्त समझे; या
(b) ऐसे व्यक्ति को किसी रिश्तेदार या मित्र के सुपुर्द करने का आदेश दे सकता है।

(2) किसी व्यक्ति को सार्वजनिक मानसिक स्वास्थ्य संस्था में हिरासत में रखने का आदेश केवल उन्हीं नियमों के अनुसार दिया जा सकता है जो राज्य सरकार द्वारा मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 के अंतर्गत बनाए गए हों।

(3) किसी रिश्तेदार या मित्र के सुपुर्द करने का आदेश केवल उसी स्थिति में दिया जाएगा—

  • जब वह व्यक्ति स्वयं आवेदन करे, और
  • वह संतोषजनक सुरक्षा (बॉन्ड) दे कि—
    (a) उस व्यक्ति की उचित देखभाल की जाएगी और वह स्वयं या अन्य को कोई क्षति नहीं पहुँचाएगा;
    (b) राज्य सरकार द्वारा निर्देशित समय व स्थान पर उसे निरीक्षण हेतु प्रस्तुत किया जाएगा।

(4) मजिस्ट्रेट या न्यायालय को अपने द्वारा की गई कार्रवाई की सूचना राज्य सरकार को देनी होगी।

धारा 375 : अधिकारी को रिहाई हेतु सशक्त बनाने की राज्य सरकार की शक्ति – Power of State Government to empower officer in charge to discharge

राज्य सरकार, ऐसे जेल के प्रभारी अधिकारी को, जिसमें कोई व्यक्ति धारा 369 या धारा 374 के अधीन बंद है, धारा 376 या धारा 377 के अंतर्गत कारागार महानिरीक्षक (Inspector-General of Prisons) के किसी या सभी कर्तव्यों के निर्वहन के लिए सशक्त बना सकती है ।

धारा 376 : जब बंदी व्यक्ति सामान्य मानसिक स्थिति में आ जाए और अपनी रक्षा करने में सक्षम हो — Procedure where prisoner of unsound mind is reported capable of making his defence

यदि कोई व्यक्ति धारा 369 की उप-धारा (2) के अधीन निरुद्ध किया गया हो, और—

  • यदि वह जेल में बंद है, तो कारागार महानिरीक्षक (Inspector-General of Prisons) द्वारा, या
  • यदि वह सार्वजनिक मानसिक स्वास्थ्य संस्थान में है, तो मानसिक स्वास्थ्य पुनरवलोकन बोर्ड (Mental Health Review Board) द्वारा,

यह प्रमाणित किया जाए कि वह व्यक्ति अब अपनी रक्षा करने में सक्षम है, तो उसे मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष उस समय उपस्थित कराया जाएगा जो मजिस्ट्रेट या न्यायालय द्वारा निश्चित किया जाए।

इसके बाद मजिस्ट्रेट या न्यायालय उस व्यक्ति के साथ धारा 371 के अनुसार कार्य करेगा।

धारा 377 : जब मानसिक रूप से अस्वस्थ निरुद्ध व्यक्ति को रिहा करने योग्य घोषित किया जाए — Procedure where person of unsound mind detained is declared fit to be released

(1) यदि कोई व्यक्ति धारा 369 की उप-धारा (2) या धारा 374 के अंतर्गत निरुद्ध हो, और कारागार महानिरीक्षक (Inspector-General) या निरीक्षणकर्ताओं द्वारा यह प्रमाणित किया जाए कि उनके मतानुसार उस व्यक्ति को रिहा किया जा सकता है बिना कि वह स्वयं को या किसी अन्य को हानि पहुँचाए, तो राज्य सरकार निम्न में से कोई आदेश दे सकती है—

  • उसे रिहा किया जाए, या
  • उसे निरुद्ध ही रखा जाए, या
  • उसे सार्वजनिक मानसिक स्वास्थ्य संस्थान में भेज दिया जाए, यदि वह पहले से वहां नहीं भेजा गया है।

और यदि राज्य सरकार उसे सार्वजनिक मानसिक स्वास्थ्य संस्थान में स्थानांतरित करने का आदेश देती है, तो वह एक आयोग (Commission) नियुक्त कर सकती है, जिसमें एक न्यायिक अधिकारी और दो चिकित्सा अधिकारी होंगे।

(2) यह आयोग उस व्यक्ति की मानसिक स्थिति की विधिवत जांच करेगा, आवश्यक साक्ष्य लेगा और फिर राज्य सरकार को रिपोर्ट सौंपेगा। राज्य सरकार उस रिपोर्ट के आधार पर रिहाई या निरुद्ध रखने का आदेश दे सकती है, जैसा उसे उचित लगे।

धारा 378 : मानसिक रूप से अस्वस्थ व्यक्ति को किसी रिश्तेदार या मित्र की अभिरक्षा में सौंपना — Delivery of person of unsound mind to care of relative or friend

(1) जब कोई व्यक्ति धारा 369 या धारा 374 के अंतर्गत निरुद्ध हो, और उसका कोई रिश्तेदार या मित्र यह चाहता हो कि उस व्यक्ति को उसकी देखरेख और अभिरक्षा में सौंप दिया जाए, तो राज्य सरकार उस रिश्तेदार या मित्र के आवेदन पर, तथा इस शर्त पर कि वह निम्नलिखित बातों के लिए राज्य सरकार को संतोषजनक सुरक्षा (security) प्रदान करे, आदेश दे सकती है कि उस व्यक्ति को उसकी अभिरक्षा में सौंप दिया जाए—

(a) उसकी उचित देखभाल की जाएगी और वह स्वयं को या किसी अन्य व्यक्ति को हानि नहीं पहुँचाएगा;
(b) उसे राज्य सरकार द्वारा निर्दिष्ट समय और स्थान पर, निर्दिष्ट अधिकारी के निरीक्षण के लिए प्रस्तुत किया जाएगा;
(c) यदि वह व्यक्ति धारा 369 की उप-धारा (2) के अंतर्गत निरुद्ध था, तो जब भी आवश्यक हो, उसे न्यायिक मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।

(2) यदि इस प्रकार सौंपा गया व्यक्ति किसी अपराध का अभियुक्त है और उसका विचारण मानसिक अस्वस्थता के कारण स्थगित किया गया था, और उपरोक्त निरीक्षण अधिकारी कभी भी मजिस्ट्रेट या न्यायालय को प्रमाणित करता है कि वह व्यक्ति अब अपनी रक्षा करने में सक्षम है, तो मजिस्ट्रेट या न्यायालय उस रिश्तेदार या मित्र को, जिसे अभियुक्त सौंपा गया था, आदेश देगा कि वह अभियुक्त को मजिस्ट्रेट या न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करे। और जब अभियुक्त प्रस्तुत कर दिया जाएगा, तो मजिस्ट्रेट या न्यायालय धारा 371 के प्रावधानों के अनुसार कार्यवाही करेगा, तथा निरीक्षण अधिकारी का प्रमाणपत्र साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य होगा।

धारा 379 : धारा 215 में उल्लिखित मामलों में प्रक्रिया – Procedure in cases mentioned in section 215

(1) जब किसी आवेदन पर या अन्यथा, कोई न्यायालय यह माने कि न्याय के हित में यह आवश्यक है कि ऐसे किसी अपराध की जांच की जाए जो धारा 215 की उप-धारा (1) की क्लॉज (b) में उल्लिखित है — और जो अपराध उस न्यायालय की कार्यवाही में, या ऐसी कार्यवाही में प्रस्तुत या साक्ष्य के रूप में दिए गए दस्तावेज़ से संबंधित है, तो न्यायालय, अपनी आवश्यकता अनुसार प्रारंभिक जांच के पश्चात, निम्नलिखित कार्य कर सकता है—

(a) इस प्रभाव का न्यायालय द्वारा अभिलेखबद्ध निर्णय देना कि अपराध हुआ है;
(b) उस अपराध के लिए लिखित शिकायत करना;
(c) वह शिकायत ऐसे प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट को भेजना जिसके पास न्यायाधिकार हो;
(d) अभियुक्त को उस मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित होने के लिए पर्याप्त जमानत लेना, या यदि अपराध अजमानती हो और न्यायालय उचित समझे, तो अभियुक्त को हिरासत में भेजना;
(e) किसी व्यक्ति को उस मजिस्ट्रेट के समक्ष साक्ष्य देने हेतु बाध्य करना

(2) यदि उप-धारा (1) के अंतर्गत किसी अपराध के लिए न तो शिकायत की गई है और न ही ऐसी शिकायत हेतु आवेदन को अस्वीकार किया गया है, तो वह शक्ति उस न्यायालय द्वारा भी प्रयोग की जा सकती है जो उस पूर्ववर्ती न्यायालय का अधीनस्थ न्यायालय हो, जैसा कि धारा 215 की उप-धारा (4) में बताया गया है।

(3) इस धारा के अंतर्गत की गई शिकायत पर हस्ताक्षर होंगे—

(a) यदि शिकायत करने वाला न्यायालय उच्च न्यायालय है, तो उस न्यायालय द्वारा नियुक्त कोई अधिकारी हस्ताक्षर करेगा;
(b) अन्य मामलों में, उस न्यायालय का पीठासीन अधिकारी या वह अधिकारी जिसे न्यायालय द्वारा लिखित रूप से अधिकृत किया गया हो, हस्ताक्षर करेगा।

(4) इस धारा में “न्यायालय” शब्द का वही अर्थ है जो धारा 215 में दिया गया है।

धारा 380 : अपील – Appeal

(1) यदि किसी व्यक्ति द्वारा किया गया आवेदन, जिस पर किसी उच्च न्यायालय को छोड़कर किसी अन्य न्यायालय ने धारा 379 की उप-धारा (1) या (2) के अंतर्गत शिकायत करने से इनकार कर दिया हो, या उस व्यक्ति के विरुद्ध ऐसी शिकायत उस न्यायालय द्वारा की गई हो, तो वह व्यक्ति उस उच्चतर न्यायालय में अपील कर सकता है जो कि उस पूर्ववर्ती न्यायालय का धारा 215 की उप-धारा (4) के अनुसार अधीनस्थ न्यायालय है।
ऐसी स्थिति में, उच्चतर न्यायालय संबंधित पक्षों को सूचना देकर, यह निर्देश दे सकता है कि—

  • या तो शिकायत वापस ली जाए,
  • या फिर वह शिकायत की जाए जो पूर्ववर्ती न्यायालय धारा 379 के अंतर्गत कर सकता था।

और यदि उच्चतर न्यायालय ऐसी शिकायत करता है, तो धारा 379 के प्रावधान उसी प्रकार लागू होंगे

(2) इस धारा के अंतर्गत पारित कोई भी आदेश, और उस आदेश के अधीन धारा 379 के अंतर्गत पारित कोई भी आदेश, अंतिम होगा और वह पुनरीक्षण (revision) के अधीन नहीं होगा

धारा 381 : लागत का आदेश देने की शक्ति – Power to order costs

कोई भी न्यायालय, जो धारा 379 के तहत की गई शिकायत दर्ज कराने की आवेदन या धारा 380 के तहत की गई अपील से संबंधित मामले की सुनवाई कर रहा हो, को यह अधिकार होगा कि वह उचित समझे जाने पर लागत (खर्चे) के बारे में आदेश पारित कर सके।

धारा 383 : झूठे साक्ष्य देने के लिए संक्षिप्त प्रक्रिया द्वारा विचारण – Summary procedure for trial for giving false evidence

(1) यदि किसी न्यायालय द्वारा किसी न्यायिक कार्यवाही का निर्णय या अंतिम आदेश पारित करते समय यह राय व्यक्त की जाती है कि किसी गवाह ने जानबूझकर या इच्छापूर्वक झूठा साक्ष्य दिया या झूठा साक्ष्य गढ़ा ताकि वह उस कार्यवाही में उपयोग हो, और यदि न्यायालय यह समझता है कि न्यायहित में उस गवाह पर संक्षिप्त विचारण द्वारा कार्यवाही करना आवश्यक और उपयुक्त है, तो वह न्यायालय ऐसे अपराध का संज्ञान ले सकता है और अभियुक्त को अपना पक्ष रखने का उचित अवसर देकर संक्षिप्त रूप से उसका विचारण कर सकता है, और उसे तीन माह तक की कैद या एक हजार रुपये तक जुर्माना या दोनों से दंडित कर सकता है।

(2) ऐसे प्रत्येक मामले में, न्यायालय को संक्षिप्त विचारण के लिए निर्धारित प्रक्रिया का यथासंभव पालन करना होगा।

(3) इस धारा में कुछ भी ऐसा नहीं है जो न्यायालय की धारा 379 के अंतर्गत शिकायत करने की शक्ति को प्रभावित करता हो, यदि वह इस धारा के तहत कार्यवाही करना न चाहे।

(4) यदि उपधारा (1) के तहत कार्यवाही शुरू होने के बाद यह न्यायालय को ज्ञात होता है कि उस निर्णय या आदेश के विरुद्ध जिसमें झूठे साक्ष्य की राय दी गई थी, कोई अपील या पुनरावलोकन की याचिका दायर की गई है, तो न्यायालय को विचारण की आगे की कार्यवाही तब तक स्थगित करनी होगी जब तक वह अपील या पुनरावलोकन निपट न जाए, और उसके बाद विचारण की आगे की कार्यवाही उस अपील या पुनरावलोकन के परिणाम पर निर्भर करेगी।

 

यह रहा धारा 384 : कुछ अवमानना मामलों में प्रक्रिया – Procedure in certain cases of contempt का सरल और पूर्ण हिंदी अनुवाद उपधाराओं सहित:

धारा 384 : कुछ अवमानना मामलों में प्रक्रिया – Procedure in certain cases of contempt

(1) जब भारतीय न्याय संहिता, 2023 (अधिनियम सं. 45 का 2023) की धारा 210, 213, 214, 215 या 267 में वर्णित कोई अपराध किसी सिविल, फौजदारी या राजस्व न्यायालय के सामने या उसकी उपस्थिति में किया जाता है, तो ऐसा न्यायालय अपराधी को हिरासत में लेने का आदेश दे सकता है, और उसी दिन न्यायालय के उठने से पहले कभी भी उस अपराध का संज्ञान लेकर, अपराधी को कारण बताने का अवसर देने के बाद कि उसे इस धारा के अंतर्गत दंड क्यों न दिया जाए, अधिकतम एक हज़ार रुपये तक का जुर्माना कर सकता है, और जुर्माना अदा न करने की स्थिति में अधिकतम एक महीने तक का साधारण कारावास दे सकता है, जब तक कि वह जुर्माना पहले ही अदा न कर दिया जाए।

(2) हर ऐसे मामले में, न्यायालय को अपराध के तथ्य, अपराधी द्वारा दिया गया कथन (यदि कोई हो), साथ ही निर्णय और दंड को अभिलेखित (रिकॉर्ड) करना होगा।

(3) यदि अपराध भारतीय न्याय संहिता की धारा 267 के अंतर्गत आता है, तो अभिलेख में यह दर्ज करना होगा कि जिस न्यायिक कार्यवाही के दौरान न्यायालय का अपमान या विघ्न हुआ, वह कार्यवाही किस प्रकार की थी और किस अवस्था में थी, और विघ्न या अपमान का स्वरूप क्या था

इस धारा का उद्देश्य यह है कि यदि कोई व्यक्ति अदालत की उपस्थिति में ही अवमानना जैसे अपराध करता है, तो न्यायालय स्वयं तुरंत दंडात्मक कार्रवाई कर सकता है, लेकिन उसे उस व्यक्ति को कारण बताने का मौका भी देना होगा और पूरी कार्रवाई का अभिलेख रखना होगा।

धारा 385 : जब न्यायालय माने कि मामला धारा 384 के अंतर्गत नहीं निपटाया जाना चाहिए – Procedure where Court considers that case should not be dealt with under section 384

(1) यदि किसी मामले में न्यायालय यह माने कि धारा 384 में उल्लिखित किसी अपराध के आरोपी को केवल जुर्माना न भरने की स्थिति में नहीं, बल्कि वास्तव में कारावास दी जानी चाहिए, या उस पर दो सौ रुपये से अधिक का जुर्माना लगाया जाना चाहिए, या किसी अन्य कारण से न्यायालय यह राय बनाए कि मामला धारा 384 के अंतर्गत नहीं निपटाया जाना चाहिए, तो वह न्यायालय, अपराध के तथ्य और आरोपी का कथन रिकॉर्ड करने के बाद, मामला उपयुक्त अधिकार क्षेत्र वाले मजिस्ट्रेट को भेज सकता है, और उस व्यक्ति की उपस्थिति के लिए जमानत ले सकता है, या यदि पर्याप्त जमानत नहीं दी जाती है, तो आरोपी को हिरासत में मजिस्ट्रेट के पास भेजेगा।

(2) जिस मजिस्ट्रेट को यह मामला भेजा गया है, वह ऐसे कार्यवाही करेगा जैसे मामला पुलिस रिपोर्ट के आधार पर शुरू किया गया हो।

धारा 386 : रजिस्ट्रार या उप-रजिस्ट्रार को सिविल न्यायालय कब माना जाएगा – When Registrar or Sub-Registrar to be deemed a Civil Court

जब राज्य सरकार ऐसा निर्देश देती है, तब पंजीकरण अधिनियम, 1908 (1908 का 16) के तहत नियुक्त कोई भी रजिस्ट्रार या उप-रजिस्ट्रार, धारा 384 और 385 के प्रयोजन हेतु सिविल न्यायालय माना जाएगा।

धारा 387 : माफी मांगने पर अपराधी को मुक्त करना – Discharge of offender on submission of apology

जब किसी न्यायालय ने धारा 384 के अंतर्गत किसी अपराधी को दंडित किया हो, या धारा 385 के अंतर्गत उसे विचारण हेतु मजिस्ट्रेट के पास भेजा हो, कानूनी रूप से अपेक्षित कार्य करने से इनकार करने या टालने, या जानबूझकर अपमान या व्यवधान उत्पन्न करने के लिए, तो ऐसा न्यायालय, अपने विवेक से, यदि अपराधी न्यायालय के आदेश या निर्देश का पालन करता है या उससे न्यायालय को संतोषजनक माफ़ी मांग ली जाती है, तो उसे मुक्त कर सकता है या उसका दंड माफ कर सकता है।

धारा 388 : उत्तर देने या दस्तावेज प्रस्तुत करने से इंकार करने पर कारावास या अभिरक्षा – Imprisonment or committal of person refusing to answer or produce document

यदि कोई गवाह या व्यक्ति जिसे किसी दंड न्यायालय के समक्ष दस्तावेज़ या वस्तु प्रस्तुत करने के लिए बुलाया गया है, प्रश्नों का उत्तर देने से मना करता है या अपने पास या अधिकार में मौजूद दस्तावेज़ या वस्तु प्रस्तुत करने से इंकार करता है, और उसे उचित अवसर देने के बावजूद वह कोई उचित कारण नहीं बताता, तो ऐसा न्यायालय, कारणों को लिखित रूप में दर्ज करते हुए, उसे सादा कारावास की सजा दे सकता है या अध्यक्ष मजिस्ट्रेट या न्यायाधीश के हस्ताक्षरित वारंट द्वारा अधिकतम सात दिन के लिए न्यायालय के अधिकारी की अभिरक्षा में भेज सकता है, जब तक कि वह व्यक्ति जांच के लिए सहमत न हो जाए और उत्तर देने या दस्तावेज़ या वस्तु प्रस्तुत करने को राज़ी न हो जाए
यदि वह इंकार पर अड़ा रहता है, तो उसके विरुद्ध धारा 384 या धारा 385 के प्रावधानों के अनुसार कार्रवाई की जा सकती है।

 

धारा 389 : समन की पालना में गवाह के अनुपस्थित रहने पर दंड की संक्षिप्त प्रक्रिया – Summary procedure for punishment for non-attendance by a witness in obedience to summons

(1) यदि कोई गवाह जो किसी दंड न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने के लिए समन द्वारा बुलाया गया है, कानूनी रूप से निर्धारित स्थान और समय पर बिना उचित कारण के उपस्थित नहीं होता, या जहाँ उसे उपस्थित होना था वहाँ से उस समय से पहले चला जाता, जब वह वैध रूप से जा सकता था, और जिस न्यायालय के समक्ष उसे उपस्थित होना था, वह यह माने कि न्यायहित में उस गवाह का संक्षिप्त विचारण आवश्यक है, तो न्यायालय ऐसे अपराध का संज्ञान ले सकता है और अपराधी को कारण बताने का अवसर देकर, उसे पाँच सौ रुपये तक के जुर्माने से दंडित कर सकता है।

(2) ऐसे प्रत्येक मामले में न्यायालय को संक्षिप्त विचारण की निर्धारित प्रक्रिया का यथासंभव पालन करना होगा।

धारा 390 : धारा 383, 384, 388 और 389 के तहत दोषसिद्धि पर अपील – Appeals from convictions under sections 383, 384, 388 and 389

(1) कोई भी व्यक्ति, जिसे उच्च न्यायालय को छोड़कर किसी अन्य न्यायालय द्वारा धारा 383, 384, 388 या 389 के अंतर्गत दंडित किया गया हो, वह इस संहिता में दी गई किसी बात के बावजूद उस न्यायालय में अपील कर सकता है जहाँ सामान्यतः उस न्यायालय के डिक्री या आदेशों के विरुद्ध अपील की जाती है।

(2) अध्याय XXXI के प्रावधान, जहाँ तक लागू हो सकते हैं, इस धारा के अंतर्गत अपीलों पर लागू होंगे, और अपील न्यायालय दोष को बदल या रद्द कर सकता है, या दंड को घटा या रद्द कर सकता है

(3) यदि यह दोषसिद्धि किसी लघु कारण न्यायालय (Court of Small Causes) द्वारा की गई हो, तो उसके विरुद्ध अपील सत्र विभाग के सत्र न्यायालय में की जाएगी जहाँ वह न्यायालय स्थित है।

(4) यदि दोषसिद्धि किसी रजिस्ट्रार या उप-रजिस्ट्रार द्वारा की गई हो, जिसे धारा 386 के निर्देश के तहत सिविल न्यायालय माना गया हो, तो उसके विरुद्ध अपील उसी सत्र विभाग के सत्र न्यायालय में की जाएगी जहाँ उसका कार्यालय स्थित है।

धारा 391 : कुछ न्यायाधीश और मजिस्ट्रेट स्वयं के समक्ष किए गए कुछ अपराधों का विचारण नहीं करेंगे – Certain Judges and Magistrates not to try certain offences when committed before themselves

धारा 383, 384, 388 और 389 में जो प्रावधान दिए गए हैं उनके अलावा, कोई भी दंड न्यायालय का न्यायाधीश (उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को छोड़कर) या मजिस्ट्रेट, धारा 215 में उल्लिखित किसी अपराध का विचारण नहीं करेगा, यदि वह अपराध उसके सामने किया गया हो, या उसकी अधिकारिता की अवमानना स्वरूप हो, या न्यायिक कार्यवाही के दौरान उसे उसी के रूप में (न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट के रूप में) संज्ञान में लाया गया हो।

धारा 392 : निर्णय – Judgment

(1) किसी भी मूल अधिकारिता वाले दंड न्यायालय में हर विचारण का निर्णय खुले न्यायालय में पीठासीन अधिकारी द्वारा सुनाया जाएगा, या तो विचारण समाप्त होते ही, या अधिकतम पैंतालीस दिनों के भीतर किसी उपयुक्त समय पर, जिसकी सूचना पक्षकारों या उनके वकीलों को दी जाएगी। निर्णय निम्न में से किसी एक तरीके से दिया जा सकता है—
(क) पूरा निर्णय सुनाकर,
(ख) पूरा निर्णय पढ़कर,
(ग) निर्णय के मुख्य भाग को पढ़कर और उसका सार उस भाषा में समझाकर जिसे अभियुक्त या उसका वकील समझता हो।

(2) यदि निर्णय उपधारा (1) के खंड (क) के तहत सुनाया गया हो, तो पीठासीन अधिकारी उसे शॉर्टहैंड में लिखवाएगा, ट्रांसक्रिप्ट और उसके हर पृष्ठ पर हस्ताक्षर करेगा और उस पर खुले न्यायालय में सुनाए जाने की तिथि लिखेगा।

(3) यदि निर्णय या उसका मुख्य भाग खंड (ख) या (ग) के तहत पढ़ा गया हो, तो वह निर्णय खुले न्यायालय में दिनांकित और हस्ताक्षरित किया जाएगा, और यदि वह अधिकारी के हाथ से न लिखा गया हो, तो प्रत्येक पृष्ठ पर उसके हस्ताक्षर होंगे।

(4) यदि निर्णय खंड (ग) के अनुसार सुनाया गया हो, तो पूरा निर्णय या उसकी प्रति तत्काल पक्षकारों या उनके वकीलों को निःशुल्क उपलब्ध कराई जाएगी
उपबंध यह है कि न्यायालय, यथासंभव, निर्णय की प्रति अपने पोर्टल पर निर्णय की तिथि से सात दिनों के भीतर अपलोड करेगा।

(5) यदि अभियुक्त हिरासत में हो, तो उसे व्यक्तिगत रूप से या ऑडियो-वीडियो इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से निर्णय सुनाने के समय उपस्थित किया जाएगा।

(6) यदि अभियुक्त हिरासत में नहीं है, तो उसे निर्णय सुनने के लिए न्यायालय में उपस्थित होना आवश्यक होगा, सिवाय इसके कि उसकी व्यक्तिगत उपस्थिति से विचारण के दौरान छूट दी गई हो और सजा केवल जुर्माने की हो या वह दोषमुक्त हुआ हो
उपबंध यह है कि यदि अभियुक्त एक से अधिक हों और उनमें से एक या अधिक न्यायालय में निर्णय की तिथि को उपस्थित न हों, तो भी पीठासीन अधिकारी मुकदमे में अनावश्यक देरी से बचने के लिए उनकी अनुपस्थिति में भी निर्णय सुना सकता है।

(7) किसी भी दंड न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय केवल इस आधार पर अमान्य नहीं माना जाएगा कि उस दिन या स्थान पर कोई पक्ष या उसका वकील उपस्थित नहीं था, या उन्हें उस दिन व स्थान की सूचना देने में कोई त्रुटि या चूक हुई हो।

(8) इस धारा में ऐसा कुछ भी नहीं है जो धारा 511 के प्रावधानों की सीमा को किसी भी प्रकार से सीमित करता हो।

धारा 393 : निर्णय की भाषा और विषयवस्तु – Language and contents of judgment

(1) जब तक इस संहिता में विशेष रूप से अन्यथा न कहा गया हो, धारा 392 में उल्लिखित हर निर्णय
(क) न्यायालय की भाषा में लिखा जाएगा,
(ख) उसमें निर्णयन के बिंदु, उन पर लिया गया निर्णय और उसके कारण स्पष्ट रूप से होंगे,
(ग) उसमें यह स्पष्ट रूप से बताया जाएगा कि अभियुक्त को किस अपराध में दोषी ठहराया गया, भारतीय न्याय संहिता, 2023 (45 का 2023) या किसी अन्य कानून की कौन-सी धारा लागू हुई, तथा उस पर क्या दंड लगाया गया,
(घ) यदि निर्णय दोषमुक्ति का है, तो उसमें यह उल्लेख होगा कि अभियुक्त को किस अपराध से दोषमुक्त किया गया और यह निर्देश दिया जाएगा कि उसे मुक्त कर दिया जाए।

(2) जब दोषसिद्धि भारतीय न्याय संहिता, 2023 के अंतर्गत हो और यह स्पष्ट न हो कि अपराध दो धाराओं में से किसके अंतर्गत आता है, या किसी एक धारा के दो भागों में से किसमें आता है, तो न्यायालय को यह संदेह स्पष्ट रूप से प्रकट करना होगा और वैकल्पिक रूप में निर्णय देना होगा।

(3) जब दोषसिद्धि ऐसे अपराध के लिए हो जो मृत्यु दंड या वैकल्पिक रूप से आजीवन कारावास या अवधि विशेष के कारावास से दंडनीय हो, तो निर्णय में दंड दिए जाने के कारण बताए जाएंगे और यदि मृत्यु दंड दिया गया हो, तो उसके विशेष कारण भी बताए जाएंगे।

(4) जब दोषसिद्धि ऐसे अपराध के लिए हो जो एक वर्ष या उससे अधिक की कारावास से दंडनीय हो, परंतु न्यायालय तीन महीने से कम की सजा देता है, तो उसे ऐसी सजा देने के कारण दर्ज करने होंगे, जब तक कि सजा केवल न्यायालय के उठने तक की न हो, या मामला संहिता के अंतर्गत संक्षिप्त रूप से निपटाया गया हो।

(5) जब किसी व्यक्ति को मृत्यु दंड दिया जाता है, तो निर्णय में यह निर्देश होगा कि उसे फांसी दी जाए जब तक कि उसकी मृत्यु न हो जाए।

(6) धारा 136 या धारा 157 की उपधारा (2) के अंतर्गत दिया गया हर आदेश और धारा 144, 164 या 166 के अंतर्गत दिया गया अंतिम आदेश भी निर्णयन के बिंदु, निर्णय और उसके कारणों को शामिल करेगा।

धारा 394 : पूर्व दोषसिद्ध व्यक्ति का पता सूचित करने का आदेश – Order for notifying address of previously convicted offender

(1) यदि कोई व्यक्ति, जिसे पहले भारत में किसी न्यायालय द्वारा तीन वर्ष या उससे अधिक की कारावास से दंडनीय अपराध में दोषी ठहराया गया हो, उसे फिर से तीन वर्ष या उससे अधिक की सजा से दंडनीय किसी अन्य अपराध में किसी ऐसे न्यायालय द्वारा दोषी ठहराया जाता है जो द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट का न्यायालय न हो, तो ऐसा न्यायालय, यदि उपयुक्त समझे, सजा सुनाते समय यह आदेश दे सकता है कि उस व्यक्ति का निवास स्थान और रिहाई के बाद उसमें कोई परिवर्तन या अनुपस्थिति को अधिकतम पांच वर्षों तक अधिसूचित किया जाए।

(2) यह प्रावधान ऐसे अपराधों के आपराधिक षड्यंत्र, उनके लिए उकसावे और उन्हें करने के प्रयासों पर भी लागू होंगे।

(3) यदि ऐसी दोषसिद्धि अपील या अन्य विधि द्वारा रद्द कर दी जाती है, तो यह आदेश अमान्य हो जाएगा।

(4) ऐसा आदेश अपील न्यायालय, उच्च न्यायालय, या सत्र न्यायालय, जब वे पुनरीक्षण की शक्ति का प्रयोग कर रहे हों, द्वारा भी पारित किया जा सकता है।

(5) राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा नियम बना सकती है ताकि इस धारा के अंतर्गत रिहा हुए दोषियों द्वारा निवास स्थान की सूचना देने, उसमें परिवर्तन या अनुपस्थिति की सूचना देने से संबंधित प्रावधानों को लागू किया जा सके।

(6) ऐसे नियमों में उनके उल्लंघन के लिए दंड का प्रावधान किया जा सकता है, और यदि कोई व्यक्ति ऐसे किसी नियम का उल्लंघन करता है, तो उसे उस जिले के सक्षम मजिस्ट्रेट द्वारा अभियोजित किया जा सकता है जिसमें उसके द्वारा अंतिम बार अधिसूचित निवास स्थान स्थित है।

धारा 395 : प्रतिकर (मुआवज़ा) देने का आदेश – Order to pay compensation

(1) जब किसी न्यायालय द्वारा जुर्माने की सजा या ऐसी सजा जिसमें जुर्माना शामिल हो (यहां तक कि मृत्यु दंड भी) दी जाती है, तो निर्णय पारित करते समय न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि वसूले गए जुर्माने की पूरी राशि या उसका कोई भाग निम्न उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाए—
(क) विधिवत अभियोजन में हुए खर्चों को चुकाने के लिए,
(ख) किसी व्यक्ति को उसके द्वारा झेली गई हानि या चोट के लिए मुआवज़ा देने हेतु, यदि न्यायालय की राय में वह मुआवज़ा सिविल न्यायालय से प्राप्त किया जा सकता है,
(ग) यदि कोई व्यक्ति ऐसे अपराध में दोषी ठहराया गया हो जिससे किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु हुई हो या उसने ऐसे अपराध में सहायता की हो, तो 1855 का घातक दुर्घटना अधिनियम के अनुसार मुआवज़ा पाने के पात्र व्यक्ति को मृत्यु से उत्पन्न हानि के लिए मुआवज़ा देने हेतु,
(घ) यदि कोई व्यक्ति चोरी, आपराधिक गबन, आपराधिक न्यासभंग, धोखाधड़ी, या जानबूझकर चोरी की संपत्ति प्राप्त या सुरक्षित रखने, या ऐसी संपत्ति को निपटाने में सहायता करने के अपराध में दोषी ठहराया गया हो, और यदि वह संपत्ति वास्तविक मालिक को लौटा दी जाती है, तो ऐसे ईमानदार खरीदार को उसकी हानि का मुआवज़ा देने हेतु

(2) यदि जुर्माना ऐसे मामले में लगाया गया है जो अपील योग्य हो, तो तब तक कोई भुगतान नहीं किया जाएगा जब तक कि अपील प्रस्तुत करने की समय-सीमा समाप्त न हो जाए, या यदि अपील दायर की गई हो, तो जब तक अपील का निर्णय न हो जाए

(3) यदि सजा में जुर्माना शामिल नहीं है, तो भी न्यायालय, निर्णय पारित करते समय, आदेश दे सकता है कि अभियुक्त उस व्यक्ति को मुआवज़े की वह राशि अदा करे, जिसे अभियुक्त के कृत्य से हानि या चोट हुई हो, जिसके लिए उसे सजा दी गई है।

(4) ऐसा आदेश अपील न्यायालय, उच्च न्यायालय, या सत्र न्यायालय द्वारा भी पारित किया जा सकता है, जब वे पुनरीक्षण की शक्ति का प्रयोग कर रहे हों।

(5) यदि इसी विषय से संबंधित कोई बाद की सिविल वाद में मुआवज़ा तय किया जा रहा हो, तो न्यायालय को इस धारा के अंतर्गत दी या वसूल की गई किसी राशि को ध्यान में रखना होगा

धारा 396 : पीड़ित प्रतिकर योजना – Victim compensation scheme

(1) प्रत्येक राज्य सरकार, केंद्र सरकार के सहयोग से, एक ऐसी योजना बनाएगी, जिसके तहत अपराध के कारण हानि या चोट झेलने वाले पीड़ित या उसके आश्रितों को पुनर्वास हेतु मुआवज़ा देने के लिए धन उपलब्ध कराया जा सके।

(2) जब भी न्यायालय द्वारा मुआवज़े की सिफारिश की जाती है, तो जिला विधिक सेवा प्राधिकरण या राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण, जो भी उपयुक्त हो, उपधारा (1) में उल्लिखित योजना के अंतर्गत दिए जाने वाले मुआवज़े की राशि तय करेगा।

(3) यदि विचारण समाप्त होने पर न्यायालय को यह लगता है कि धारा 395 के तहत दिया गया मुआवज़ा पुनर्वास के लिए पर्याप्त नहीं है, या मामला दोषमुक्ति या आरोपमुक्ति पर समाप्त हो जाता है लेकिन पीड़ित को पुनर्वास की आवश्यकता है, तो न्यायालय मुआवज़े की सिफारिश कर सकता है।

(4) यदि अपराधी की पहचान या पता नहीं चल पाया हो, लेकिन पीड़ित की पहचान हो चुकी हो, और विचारण न हो सके, तो पीड़ित या उसके आश्रित राज्य या जिला विधिक सेवा प्राधिकरण को मुआवज़े के लिए आवेदन कर सकते हैं।

(5) ऐसी सिफारिश मिलने पर या उपधारा (4) के तहत आवेदन मिलने पर, संबंधित प्राधिकरण उचित जांच कर दो महीने के भीतर पर्याप्त मुआवज़ा देगा।

(6) पीड़ित की पीड़ा को कम करने के लिए, संबंधित राज्य या जिला विधिक सेवा प्राधिकरण, थाना प्रभारी स्तर से नीचे नहीं होने वाले पुलिस अधिकारी या क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट के प्रमाणपत्र पर, तत्काल प्राथमिक उपचार या निःशुल्क चिकित्सा सुविधा, या कोई अन्य अंतरिम राहत प्रदान करने का आदेश दे सकता है, जैसा उचित समझा जाए।

(7) इस धारा के तहत राज्य सरकार द्वारा दिया गया मुआवज़ा, भारतीय न्याय संहिता, 2023 की धारा 65, धारा 70 और धारा 124(1) के तहत पीड़ित को दिए जाने वाले जुर्माने से अतिरिक्त होगा।

धारा 397 : पीड़ितों का उपचार – Treatment of victims
सभी अस्पताल, चाहे वे सरकारी हों या निजी, और चाहे वे केंद्र सरकार, राज्य सरकार, स्थानीय निकाय या किसी अन्य द्वारा संचालित हों, उन्हें धारा 64, 65, 66, 67, 68, 70, 71 या धारा 124(1) भारतीय न्याय संहिता, 2023 या POCSO अधिनियम, 2012 की धारा 4, 6, 8 या 10 के तहत आने वाले अपराधों के पीड़ितों को तत्काल प्राथमिक चिकित्सा या उपचार निःशुल्क प्रदान करना होगा, और घटना की सूचना तुरंत पुलिस को देनी होगी।

धारा 398 : गवाह संरक्षण योजना – Witness protection scheme
हर राज्य सरकार को यह सुनिश्चित करने के उद्देश्य से कि गवाहों की सुरक्षा हो सके, गवाह संरक्षण योजना तैयार करनी होगी और उसे अधिसूचित करना होगा।

धारा 399 : निराधार गिरफ्तारी पर मुआवज़ा – Compensation to persons groundlessly arrested
(1) यदि कोई व्यक्ति पुलिस अधिकारी से किसी दूसरे को गिरफ़्तार कराता है, और न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि ऐसी गिरफ्तारी के लिए कोई पर्याप्त कारण नहीं था, तो वह अभियुक्त व्यक्ति से गिरफ़्तार किए गए व्यक्ति को अधिकतम एक हजार रुपये तक का मुआवज़ा देने का आदेश दे सकता है।
(2) यदि एक से अधिक व्यक्ति गिरफ़्तार किए गए, तो प्रत्येक को अलग-अलग मुआवज़ा दिया जा सकता है
(3) ऐसा मुआवज़ा जुर्माने की तरह वसूला जाएगा, और यदि वसूली संभव न हो, तो अधिकतम तीस दिन की साधारण कारावास की सजा दी जा सकती है जब तक कि राशि चुका न दी जाए।

धारा 400 : गैर-संज्ञेय मामलों में खर्च चुकाने का आदेश – Order to pay costs in non-cognizable cases
(1) यदि किसी गैर-संज्ञेय अपराध की शिकायत पर अभियुक्त दोषी ठहरता है, तो न्यायालय उसे शिकायतकर्ता द्वारा अभियोजन में किए गए खर्चों का भुगतान करने का आदेश दे सकता है। इसमें प्रक्रिया शुल्क, गवाहों के खर्च और वकील की फीस शामिल हो सकती है। यदि भुगतान नहीं किया गया तो अधिकतम तीस दिन की साधारण कारावास दी जा सकती है।
(2) ऐसा आदेश अपील न्यायालय, उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय भी दे सकता है जब वह पुनरीक्षण की शक्ति का प्रयोग कर रहा हो।

धारा 401 : सदाचार पर प्रवेशन या चेतावनी देकर रिहा करने का आदेश – Order to release on probation of good conduct or after admonition
(1) यदि कोई व्यक्ति 21 वर्ष से अधिक का हो और उसे सिर्फ जुर्माने या अधिकतम 7 वर्ष की सजा वाले अपराध में दोषी ठहराया जाए, या कोई 21 वर्ष से कम का व्यक्ति या महिला ऐसा अपराध करे जो मृत्यु या आजीवन कारावास से दंडनीय न हो, और उसका कोई पूर्व दोष न हो, तो न्यायालय, यदि उपयुक्त समझे, उसे कोई सजा दिए बिना, एक बांड पर रिहा कर सकता है, जिसमें वह तीन वर्ष तक शांति बनाए रखने और अच्छा आचरण करने का वचन देता है
यदि ऐसा मामला द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट के समक्ष हो जो विशेष रूप से इस कार्य हेतु सक्षम न हो, तो वह इसे प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट को सौंपेगा
(2) ऐसा मामला जब प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट को भेजा जाए, तो वह उसी प्रकार कार्य करेगा जैसे यह मामला शुरू से उसके पास प्रस्तुत हुआ हो।
(3) यदि किसी व्यक्ति को चोरी, इमारत में चोरी, गबन, धोखाधड़ी, या दो वर्ष से कम की सजा वाले अपराध या केवल जुर्माने वाले अपराध में दोषी ठहराया जाए, और उसका कोई पूर्व दोष सिद्ध न हो, तो न्यायालय, यदि उपयुक्त समझे, उसे चेतावनी देकर रिहा कर सकता है
(4) ऐसा आदेश अपील, पुनरीक्षण या सत्र न्यायालय/उच्च न्यायालय द्वारा भी किया जा सकता है।
(5) यदि ऐसा आदेश पारित हुआ है, तो उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय अपील या पुनरीक्षण में उसे रद्द कर विधिसम्मत सजा दे सकते हैं, परंतु सजा मूल न्यायालय द्वारा दी जा सकने वाली सजा से अधिक नहीं होनी चाहिए
(6) इस धारा में दिए गए जमानती की व्यवस्था के लिए धारा 140, 143 और 414 लागू होंगी।
(7) रिहाई का आदेश देने से पहले न्यायालय को यह संतुष्टि होनी चाहिए कि अपराधी या उसके जमानती का स्थायी निवास स्थान या नियमित रोजगार उस क्षेत्र में है जहां न्यायालय कार्य करता है या जहां वह उस अवधि में रहेगा।
(8) यदि अपराधी ने अपनी शर्तों का उल्लंघन किया, तो उसे गिरफ्तार करने का वारंट जारी किया जा सकता है।
(9) गिरफ़्तारी के बाद उसे उसी न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा, जो सजा पारित कर सकता है
(10) यह धारा Probation of Offenders Act, 1958 या Juvenile Justice Act, 2015 अथवा अन्य किसी वर्तमान कानून के प्रावधानों को प्रभावित नहीं करती

धारा 402 : कुछ मामलों में विशेष कारण दर्ज करना – Special reasons to be recorded in certain cases
यदि न्यायालय किसी आरोपी को धारा 401 या Probation of Offenders Act, 1958 अथवा Juvenile Justice Act, 2015 के तहत रिहा कर सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया, तो उसे निर्णय में विशेष कारण दर्ज करने होंगे

धारा 403 : न्यायालय निर्णय में परिवर्तन नहीं करेगा – Court not to alter judgment
जब तक इस संहिता या अन्य लागू कानून में अन्यथा न हो, किसी न्यायालय द्वारा हस्ताक्षरित निर्णय या अंतिम आदेश को बदला या पुनरीक्षित नहीं किया जा सकता, सिवाय इसके कि उसमें लिपिकीय या गणनात्मक त्रुटि हो।

धारा 404 : अभियुक्त और अन्य व्यक्तियों को निर्णय की प्रति देना – Copy of judgment to be given to accused and other persons
(1) यदि अभियुक्त को कारावास की सजा दी जाती है, तो निर्णय सुनाए जाने के तुरंत बाद उसे निर्णय की एक प्रति नि:शुल्क दी जाएगी।
(2) अभियुक्त के आवेदन पर उसे निर्णय की प्रमाणित प्रति, और यदि वह चाहे, तो उसकी अपनी भाषा में (यदि संभव हो) या न्यायालय की भाषा में अनुवादित प्रति, शीघ्र प्रदान की जाएगी। यदि निर्णय अपील योग्य है, तो प्रति नि:शुल्क दी जाएगी।
फिर भी, यदि मृत्यु-दंड की सजा दी गई हो या उच्च न्यायालय द्वारा पुष्टि की गई हो, तो निर्णय की प्रमाणित प्रति अभियुक्त को बिना आवेदन के नि:शुल्क तुरंत दी जाएगी।
(3) यह प्रावधान धारा 136 के आदेशों पर भी लागू होगा, यदि वह आदेश अभियुक्त के लिए अपील योग्य हो।
(4) जब किसी व्यक्ति को मृत्यु-दंड दिया गया हो और उस पर अपील का अधिकार हो, तो न्यायालय उसे यह जानकारी देगा कि उसे कितने समय के भीतर अपील करनी चाहिए
(5) उपधारा (2) को छोड़कर, कोई भी प्रभावित व्यक्ति, आवेदन और शुल्क देने पर, निर्णय, आदेश, गवाही या अभिलेख की प्रति प्राप्त कर सकता है।
विशेष कारण होने पर, न्यायालय उसे नि:शुल्क प्रति दे सकता है। अभियोजन अधिकारी के आवेदन पर, सरकार को नि:शुल्क प्रति दी जा सकती है।
(6) उच्च न्यायालय नियम बनाकर यह निर्धारित कर सकता है कि कोई अप्रभावित व्यक्ति न्यायालय के निर्णय या आदेश की प्रति शुल्क व शर्तों के अधीन कैसे प्राप्त कर सकता है।

धारा 405 : निर्णय का अनुवाद कब किया जाएगा – Judgment when to be translated
मूल निर्णय अभिलेख के साथ संलग्न किया जाएगा। यदि वह न्यायालय की भाषा से भिन्न भाषा में लिखा गया हो, और यदि कोई पक्ष ऐसा चाहता है, तो उसे न्यायालय की भाषा में अनुवाद करके रिकॉर्ड में जोड़ा जाएगा।

धारा 406 : सत्र न्यायालय द्वारा निर्णय व दंड की प्रति जिला मजिस्ट्रेट को भेजना – Court of Session to send copy of finding and sentence to District Magistrate
सत्र न्यायालय या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा विचारित मामलों में, संबंधित न्यायालय अपना निर्णय व दंड की प्रति उस जिला मजिस्ट्रेट को भेजेगा, जिसके क्षेत्र में विचारण हुआ हो।

अध्याय XXX – मृत्यु-दंड की पुष्टि हेतु प्रेषण – Submission of Death Sentences for Confirmation

धारा 407 : सत्र न्यायालय द्वारा मृत्यु-दंड की पुष्टि के लिए प्रेषण – Sentence of death to be submitted by Court of Session for confirmation
(1) जब सत्र न्यायालय मृत्यु-दंड देता है, तो मामला तत्काल उच्च न्यायालय को भेजा जाएगा, और जब तक उच्च न्यायालय उसकी पुष्टि न करे, सजा निष्पादित नहीं की जा सकती।
(2) ऐसा निर्णय देने वाला न्यायालय अभियुक्त को जेल हिरासत में भेजेगा

धारा 408 : आगे की जांच या अतिरिक्त साक्ष्य हेतु निर्देश देने की शक्ति – Power to direct further inquiry or additional evidence
(1) यदि उच्च न्यायालय को लगता है कि किसी महत्वपूर्ण तथ्य पर आगे जांच या साक्ष्य आवश्यक है, तो वह स्वयं जांच या साक्ष्य ले सकता है, या सत्र न्यायालय को निर्देश दे सकता है
(2) जब तक उच्च न्यायालय अन्यथा न कहे, अभियुक्त की उपस्थिति अनिवार्य नहीं होगी।
(3) यदि जांच या साक्ष्य उच्च न्यायालय द्वारा नहीं लिए जाते, तो उनका परिणाम प्रमाणित रूप में उच्च न्यायालय को भेजा जाएगा।

धारा 409 : उच्च न्यायालय की पुष्टि या दोषमुक्ति की शक्ति – Power of High Court to confirm sentence or annul conviction
उच्च न्यायालय, धारा 407 के तहत प्रेषित मामलों में—
(a) सजा की पुष्टि कर सकता है या कानूनानुसार कोई अन्य सजा दे सकता है;
(b) दोष सिद्धि रद्द कर सकता है, या नई सुनवाई का आदेश दे सकता है;
(c) अभियुक्त को बरी कर सकता है।
परंतु, जब तक अपील करने की अवधि समाप्त न हो जाए या अपील का निपटारा न हो, कोई पुष्टि आदेश पारित नहीं किया जाएगा।

धारा 410 : पुष्टि या नई सजा दो न्यायाधीशों द्वारा हस्ताक्षरित हो – Confirmation or new sentence to be signed by two Judges
ऐसे मामलों में, जहां उच्च न्यायालय दो या अधिक न्यायाधीशों का पीठ हो, तो सजा की पुष्टि या नया आदेश कम से कम दो न्यायाधीशों द्वारा हस्ताक्षरित होना आवश्यक है।

धारा 411 : मतभेद की स्थिति में प्रक्रिया – Procedure in case of difference of opinion
जब किसी मामले की सुनवाई न्यायाधीशों के पीठ द्वारा की जाती है और उनके बीच मतभेद हो तथा मत बराबर हों, तो मामला धारा 433 में दिए गए प्रावधानों के अनुसार तय किया जाएगा।

धारा 412 : मृत्यु-दंड की पुष्टि हेतु प्रेषित मामलों में प्रक्रिया – Procedure in cases submitted to High Court for confirmation
सत्र न्यायालय द्वारा मृत्यु-दंड की पुष्टि हेतु उच्च न्यायालय को भेजे गए मामलों में, उच्च न्यायालय का अधिकारी जैसे ही पुष्टि या अन्य आदेश पारित करता है, उसकी प्रमाणित प्रति मुहर सहित, या तो शारीरिक रूप से या इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से, सत्र न्यायालय को शीघ्र भेजेगा।

अध्याय XXXI – अपीलें (Appeals)

धारा 413 : जब तक प्रावधान न हो, अपील नहीं – No appeal to lie unless otherwise provided
कोई भी अपील किसी आपराधिक न्यायालय के निर्णय या आदेश से नहीं की जा सकती, जब तक कि इस संहिता या अन्य किसी वर्तमान विधि में उसका प्रावधान न हो।
परन्तु, पीड़ित को यह अधिकार है कि वह अभियुक्त की बरी होने, हल्के अपराध में दोषसिद्धि या अपर्याप्त क्षतिपूर्ति के विरुद्ध अपील करे, और यह अपील उसी न्यायालय में की जाएगी, जहां से उस न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध सामान्यतः अपील होती है।

धारा 414 : सुरक्षा आदेशों या जमानत अस्वीकार/अस्वीकृति के विरुद्ध अपील – Appeal from orders requiring security or refusal to accept or rejecting surety
निम्नलिखित व्यक्ति सत्र न्यायालय में अपील कर सकते हैं—
(i) जिन्हें धारा 136 के अंतर्गत शांति बनाए रखने या सदाचार हेतु सुरक्षा देने का आदेश दिया गया हो;
(ii) जिन्हें धारा 140 के अंतर्गत जमानत अस्वीकार या अस्वीकृत की गई हो।
अपवाद: यदि मामला धारा 141(2) या 141(4) के अनुसार सत्र न्यायाधीश के समक्ष लाया गया हो, तो यह धारा लागू नहीं होगी।

धारा 415 : दोषसिद्धियों के विरुद्ध अपील – Appeals from convictions
(1) उच्च न्यायालय द्वारा अपनी असाधारण अधिकारिता में दोषसिद्ध व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकता है।
(2) यदि कोई व्यक्ति सत्र न्यायाधीश, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश या ऐसे न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध हुआ है, जिसने उसे 7 वर्ष से अधिक कारावास की सजा दी है, तो वह उच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।
(3) उपधारा (2) को छोड़कर, निम्नलिखित व्यक्ति सत्र न्यायालय में अपील कर सकते हैं—
(a) प्रथम या द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट द्वारा दोषसिद्ध व्यक्ति;
(b) धारा 364 के अंतर्गत दंडित व्यक्ति;
(c) धारा 401 के अंतर्गत आदेश या सजा पाए व्यक्ति।
(4) यदि अपील धारा 64, 65, 66, 67, 68, 70 या 71 (भारतीय न्याय संहिता, 2023) के तहत की गई हो, तो उसे 6 माह के भीतर निपटाना होगा।

धारा 416 : दोषस्वीकृति करने वाले अभियुक्त की अपील – No appeal in certain cases when accused pleads guilty
धारा 415 के बावजूद, यदि अभियुक्त ने अपराध स्वीकार किया और उस आधार पर उसे दोषसिद्ध किया गया—
(i) यदि उच्च न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध किया गया हो, तो कोई अपील नहीं होगी;
(ii) यदि सत्र न्यायालय या मजिस्ट्रेट द्वारा दोषसिद्ध किया गया हो, तो केवल सजा की सीमा या वैधता पर ही अपील हो सकती है।

धारा 417 : सामान्य व हल्के मामलों में अपील नहीं – No appeal in petty cases
धारा 415 के बावजूद, निम्न मामलों में दोषसिद्ध व्यक्ति अपील नहीं कर सकता
(a) उच्च न्यायालय द्वारा अधिकतम 3 माह की सजा या ₹1000 तक जुर्माना (या दोनों);
(b) सत्र न्यायालय द्वारा अधिकतम 3 माह की सजा या ₹200 तक जुर्माना (या दोनों);
(c) प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट द्वारा अधिकतम ₹100 जुर्माना;
(d) यदि मामला संक्षिप्त रूप में चला और मजिस्ट्रेट ने अधिकतम ₹200 जुर्माना लगाया।
परन्तु, यदि इसके साथ कोई अन्य दंड भी जुड़ा हो, तो अपील हो सकती है। केवल इन कारणों से अपील नहीं की जा सकती—
(i) दोषसिद्ध व्यक्ति को शांति बनाए रखने का आदेश मिला हो;
(ii) जुर्माना न भरने की स्थिति में कारावास की बात हो;
(iii) एक से अधिक जुर्माने हों, लेकिन कुल राशि सीमा में हो।

धारा 418 : राज्य सरकार द्वारा सजा के विरुद्ध अपील – Appeal by State Government against sentence
(1) यदि किसी न्यायालय (उच्च न्यायालय को छोड़कर) द्वारा दोषसिद्धि हुई हो, तो राज्य सरकार सार्वजनिक अभिवक्ता से यह अपील करवा सकती है कि सजा अपर्याप्त है
(a) यदि मजिस्ट्रेट द्वारा दी गई हो, तो सत्र न्यायालय में;
(b) अन्य किसी न्यायालय द्वारा, तो उच्च न्यायालय में।
(2) यदि अपराध किसी केंद्रीय अधिनियम के अंतर्गत केंद्र सरकार द्वारा जाँच में हो, तो केंद्र सरकार भी उपरोक्त अनुसार अपील करा सकती है।
(3) यदि सजा की अपर्याप्तता के आधार पर अपील की गई हो, तो अभियुक्त को अपना पक्ष रखने का पूरा अवसर दिया जाएगा, जिसमें वह दोषमुक्ति या सजा में कमी की मांग कर सकता है।
(4) यदि अपील धारा 64, 65, 66, 67, 68, 70 या 71 (भारतीय न्याय संहिता, 2023) के अंतर्गत हो, तो उसे 6 माह के भीतर निपटाना होगा।

धारा 419 : बरी किए जाने के आदेश के विरुद्ध अपील – Appeal in case of acquittal
(1) जब किसी व्यक्ति को गंभीर और गैर-जमानती अपराध में मजिस्ट्रेट द्वारा बरी किया जाता है—
(a) जिला मजिस्ट्रेट, लोक अभियोजक को निर्देश देकर सत्र न्यायालय में अपील करवा सकता है।
(b) राज्य सरकार, किसी भी अदालत (उच्च न्यायालय को छोड़कर) द्वारा दिए गए बरी करने के आदेश के विरुद्ध, लोक अभियोजक के माध्यम से उच्च न्यायालय में अपील करवा सकती है।

(2) यदि अपराध की जाँच किसी केंद्रीय अधिनियम के तहत अधिकृत एजेंसी ने की है, तो केंद्र सरकार भी, उपरोक्त अनुसार—
(a) मजिस्ट्रेट द्वारा बरी करने पर सत्र न्यायालय में;
(b) अन्य किसी अदालत द्वारा बरी करने पर उच्च न्यायालय में अपील करवा सकती है।

(3) उच्च न्यायालय में अपील तभी स्वीकार की जाएगी, जब उच्च न्यायालय पूर्व अनुमति (leave) प्रदान करे।

(4) यदि किसी शिकायत के आधार पर चलाए गए मामले में अभियुक्त को बरी कर दिया गया हो, तो शिकायतकर्ता उच्च न्यायालय से विशेष अनुमति (special leave) लेकर अपील कर सकता है।

(5) उपधारा (4) के अंतर्गत विशेष अनुमति के लिए आवेदन, लोक सेवक होने की स्थिति में 6 माह के भीतर और अन्य मामलों में 60 दिन के भीतर करना होगा।

(6) यदि विशेष अनुमति अस्वीकार कर दी गई हो, तो उस बरी के आदेश के विरुद्ध उपधारा (1) या (2) के तहत कोई अपील नहीं की जा सकती।

धारा 420 : कुछ मामलों में उच्च न्यायालय की दोषसिद्धि के विरुद्ध अपील – Appeal against conviction by High Court in certain cases
यदि उच्च न्यायालय ने अपील में बरी करने के आदेश को उलट कर किसी व्यक्ति को मृत्युदंड, आजीवन कारावास या 10 वर्ष या उससे अधिक कारावास की सजा दी हो, तो वह व्यक्ति सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।

धारा 421 : कुछ मामलों में विशेष अपील का अधिकार – Special right of appeal in certain cases
यदि एक ही सुनवाई में एक से अधिक व्यक्तियों को दोषी ठहराया गया है, और उनमें से किसी एक के लिए अपील का अधिकार है, तो सभी दोषियों को अपील करने का अधिकार होगा।

धारा 422 : सत्र न्यायालय में अपील की सुनवाई – Appeal to Court of Session how heard
(1) सत्र न्यायालय में की गई अपीलों की सुनवाई सत्र न्यायाधीश या अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश करेंगे।
प्रावधान: यदि अपील द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट के निर्णय के विरुद्ध हो, तो मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट भी उस पर सुनवाई कर सकते हैं।
(2) अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट वही अपीलें सुनेंगे जो सत्र न्यायाधीश द्वारा सामान्य या विशेष आदेश से या उच्च न्यायालय द्वारा निर्देशित की गई हों।

धारा 423 : अपील याचिका – Petition of appeal
हर अपील लिखित याचिका के रूप में की जाएगी, जिसे अपीलकर्ता या उसके अधिवक्ता द्वारा प्रस्तुत किया जाएगा, और उसके साथ निर्णय या आदेश की प्रति संलग्न होगी, जब तक कि न्यायालय अन्यथा निर्देश न दे।

धारा 424 : जब अपीलकर्ता जेल में हो – Procedure when appellant in jail
यदि अपीलकर्ता जेल में है, तो वह अपनी अपील याचिका और आवश्यक प्रतियाँ जेल अधिकारी को देगा, जो उसे संबंधित अपीलीय न्यायालय को भेजेगा।

धारा 425 : अपील का संक्षेप में खंडन – Summary dismissal of appeal
(1) यदि न्यायालय को अपील याचिका व निर्णय पढ़कर कोई पर्याप्त कारण न दिखे, तो वह संक्षेप में अपील खारिज कर सकता है, परंतु—
(a) धारा 423 के अंतर्गत की गई अपील तब तक खारिज नहीं की जाएगी जब तक कि अपीलकर्ता या उसका अधिवक्ता सुनवाई का अवसर न पा लें;
(b) धारा 424 के अंतर्गत की गई अपील तब तक खारिज नहीं की जाएगी जब तक अपीलकर्ता को सुनवाई का अवसर न मिले, जब तक कि मामला तुच्छ या अभियुक्त की पेशी अनुपयुक्त न हो;
(c) ऐसी अपील तब तक खारिज नहीं की जाएगी जब तक अपील की समय-सीमा समाप्त न हो जाए

(2) अपील खारिज करने से पहले, न्यायालय प्रकरण का रिकॉर्ड मंगा सकता है
(3) यदि अपील को सत्र न्यायालय या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा खारिज किया गया हो, तो कारण रिकॉर्ड करना अनिवार्य है।
(4) यदि धारा 424 के अंतर्गत की गई अपील संक्षेप में खारिज हो जाए और बाद में पता चले कि धारा 423 के तहत कोई और याचिका विचार में नहीं आई थी, तो न्यायालय न्यायहित में उस अपील पर सुनवाई कर सकता है।

धारा 426 : संक्षेप में खारिज न की गई अपीलों की सुनवाई की प्रक्रिया – Procedure for hearing appeals not dismissed summarily
(1) यदि अपील संक्षेप में खारिज नहीं हुई, तो न्यायालय—
(i) अपीलकर्ता या उसके अधिवक्ता,
(ii) राज्य सरकार द्वारा नियुक्त अधिकारी,
(iii) शिकायत पर आधारित मामले में शिकायतकर्ता,
(iv) धारा 418 या 419 के अंतर्गत की गई अपील में अभियुक्त को
सुनवाई की तिथि व स्थान की सूचना देगा और उन्हें अपील के आधारों की प्रति भी देगा।

(2) अपील की सुनवाई से पूर्व, यदि रिकॉर्ड न्यायालय में उपलब्ध न हो, तो उसे मंगवाया जाएगा।
प्रावधान: यदि अपील केवल सजा की वैधता या सीमा तक सीमित हो, तो रिकॉर्ड मंगवाना आवश्यक नहीं।
(3) यदि अपील का आधार केवल सजा की कठोरता हो, तो बिना अनुमति अन्य कोई आधार नहीं उठाया जा सकता।

धारा 427 : अपीलीय न्यायालय की शक्तियाँ – Powers of Appellate Court
रिकॉर्ड देखने और पक्षों को सुनने के बाद, अपीलीय न्यायालय—
(1) यदि हस्तक्षेप का कोई कारण न हो तो अपील खारिज कर सकता है;
या
(2) निम्न कार्य कर सकता है—
(a) बरी करने के आदेश पर अपील में

  • आदेश उलट कर पुनः जांच या पुनः मुकदमा चला सकता है या दोष सिद्ध कर सजा सुना सकता है।
    (b) दोषसिद्धि पर अपील में
  • निर्णय व सजा रद्द कर दोषमुक्त कर सकता है,
  • पुनः मुकदमे या अन्य सक्षम न्यायालय में विचार हेतु भेज सकता है,
  • निर्णय में बदलाव के बिना सजा यथावत रख सकता है,
  • निर्णय में बदलाव करके सजा की प्रकृति या सीमा बदल सकता है (परन्तु बढ़ा नहीं सकता)।
    (c) सजा बढ़ाने की अपील में
  • दोषमुक्त कर सकता है या पुनः मुकदमा चला सकता है,
  • निर्णय में संशोधन कर सकता है,
  • निर्णय में परिवर्तन के साथ या बिना, सजा की प्रकृति या सीमा बढ़ा या घटा सकता है।
    (d) अन्य आदेशों पर अपील में
  • आदेश को संशोधित या उलट सकता है।
    (e) कोई अन्य उपयुक्त संशोधन या सहायक आदेश पारित कर सकता है।

प्रावधान:

  • सजा को बढ़ाने से पहले, अभियुक्त को कारण बताने का अवसर दिया जाएगा।
  • अपीलीय न्यायालय, वह सजा नहीं दे सकता जो मूल न्यायालय द्वारा दी जा सकती थी उससे अधिक हो।

 

धारा 428 : अधीनस्थ अपीलीय न्यायालयों के निर्णय – Judgments of subordinate Appellate Court
सत्र न्यायालय या मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा अपील में दिए गए निर्णय पर, मूल आपराधिक न्यायालय के निर्णय संबंधी अध्याय XXIX के नियम यथासंभव लागू होंगे
प्रावधान: जब तक अपीलीय न्यायालय अन्यथा निर्देश न दे, अभियुक्त को निर्णय सुनाने के लिए उपस्थित होना आवश्यक नहीं होगा।

धारा 429 : उच्च न्यायालय के आदेश की अधीनस्थ न्यायालय को प्रमाणित सूचना – Order of High Court on appeal to be certified to lower Court
(1) उच्च न्यायालय जब अपील तय करता है, तो वह अपना निर्णय या आदेश उस न्यायालय को प्रमाणित रूप से भेजेगा जिसने प्रारंभिक आदेश या सजा दी थी।

  • यदि वह न्यायालय मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के अलावा कोई अन्य न्यायिक मजिस्ट्रेट है, तो आदेश मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के माध्यम से भेजा जाएगा।
  • यदि वह कार्यपालक मजिस्ट्रेट है, तो आदेश जिला मजिस्ट्रेट के माध्यम से भेजा जाएगा।

(2) जिसे आदेश भेजा गया है, वह उस अनुसार आवश्यक आदेश पारित करेगा और रिकॉर्ड में आवश्यक संशोधन करेगा

धारा 430 : अपील लंबित रहने पर सजा स्थगन और जमानत – Suspension of sentence pending appeal; release of appellant on bail
(1) अपीलीय न्यायालय, लिखित कारण बताते हुए—

  • सजा की अमल को स्थगित कर सकता है;
  • यदि अभियुक्त हिरासत में है, तो उसे जमानत या निजी मुचलके पर रिहा कर सकता है।
    प्रावधान: यदि अपराध की सजा मृत्यु, आजीवन कारावास या 10 वर्ष या अधिक है, तो अभियुक्त को रिहा करने से पहले लोक अभियोजक को लिखित आपत्ति का अवसर दिया जाएगा।
    दूसरा प्रावधान: यदि अभियुक्त जमानत पर रिहा किया गया हो, तो लोक अभियोजक जमानत रद्द करने का आवेदन कर सकता है।

(2) यह शक्ति उच्च न्यायालय भी उन मामलों में उपयोग कर सकता है जिनमें अपील उसकी अधीनस्थ अदालत में लंबित हो।

(3) यदि अभियुक्त अदालत को बताए कि वह अपील करेगा और—
(i) वह जमानत पर है और सजा 3 वर्ष से अधिक नहीं, या
(ii) अपराध जमानतीय है,
तो उसे जमानत दी जाएगी, जब तक कि विशेष कारण न हों, ताकि वह अपील प्रस्तुत कर सके। इस दौरान सजा स्थगित मानी जाएगी।

(4) यदि अंततः अभियुक्त को कारावास की सजा होती है, तो बेल पर रहा काल सजा की गणना से बाहर रखा जाएगा।

धारा 431 : बरी किए गए अभियुक्त की गिरफ्तारी – Arrest of accused in appeal from acquittal
जब धारा 419 के अंतर्गत अपील की जाती है, तो उच्च न्यायालय गिरफ्तारी का वारंट जारी कर सकता है और अभियुक्त को उपस्थित कराकर—

  • उसे जेल भेज सकता है, या
  • जमानत पर रिहा कर सकता है, जब तक अपील का निपटारा न हो।

धारा 432 : अपीलीय न्यायालय द्वारा अतिरिक्त साक्ष्य लेना – Appellate Court may take further evidence or direct it to be taken
(1) यदि अपीलीय न्यायालय को लगता है कि अतिरिक्त साक्ष्य आवश्यक है, तो वह कारण दर्ज कर—

  • खुद साक्ष्य ले सकता है, या
  • मजिस्ट्रेट (या यदि उच्च न्यायालय हो, तो सत्र न्यायालय या मजिस्ट्रेट) को निर्देश दे सकता है।

(2) जब साक्ष्य मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायालय द्वारा लिया जाए, तो वह उसे प्रमाणित कर अपीलीय न्यायालय को भेजेगा, जो फिर अपील का निपटारा करेगा।

(3) अभियुक्त या उसका अधिवक्ता साक्ष्य लेते समय उपस्थित होने का अधिकार रखते हैं।

(4) साक्ष्य लेना अध्याय XXV के नियमों के अधीन होगा, मानो यह एक जांच हो।

धारा 433 : जब अपीलीय पीठ के न्यायाधीशों की राय विभाजित हो – Procedure where Judges of Court of appeal are equally divided
यदि उच्च न्यायालय की पीठ में न्यायाधीशों की राय विभाजित हो, तो—

  • मामला, उनकी राय सहित, उसी न्यायालय के एक अन्य न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा,
  • वह न्यायाधीश आवश्यक सुनवाई कर अपनी राय देगा,
  • निर्णय उसी राय के अनुसार होगा

प्रावधान: यदि पीठ का कोई न्यायाधीश या वह अतिरिक्त न्यायाधीश बड़ी पीठ द्वारा पुनः सुनवाई चाहता है, तो मामला बड़ी पीठ को सौंपा जाएगा।

धारा 434 : अपील पर निर्णय अंतिम – Finality of judgments and orders on appeal
अपील पर दिए गए निर्णय और आदेश अंतिम होंगे, सिवाय—

  • धारा 418,
  • धारा 419,
  • धारा 425(4),
  • या अध्याय XXXII में वर्णित अपवादों के।

प्रावधान: यदि किसी मामले में दोषसिद्धि की अपील का अंतिम निर्णय हो गया है, फिर भी—
(a) उसी मामले में बरी के विरुद्ध धारा 419 की अपील, या
(b) सजा बढ़ाने की धारा 418 की अपील,
न्यायालय द्वारा गुण-दोष के आधार पर सुनी जा सकती है।

धारा 435 : अपील का खारिज (अवसान) होना – Abatement of appeals
(1) यदि धारा 418 या 419 के अंतर्गत अपील लंबित है और अभियुक्त की मृत्यु हो जाती है, तो अपील स्वतः समाप्त हो जाती है।

(2) अन्य अपीलें (सिर्फ जुर्माने की सजा को छोड़कर) अपीलकर्ता की मृत्यु पर समाप्त हो जाती हैं।
प्रावधान: यदि अपील मृत्युदंड या कारावास के विरुद्ध है और अपीलकर्ता की मृत्यु हो जाए, तो उसका निकट संबंधी 30 दिन में अपीलीय न्यायालय से अपील जारी रखने की अनुमति मांग सकता है। यदि अनुमति मिल जाए, तो अपील समाप्त नहीं मानी जाएगी।

स्पष्टीकरण: “निकट संबंधी” में माता-पिता, जीवनसाथी, वंशज, भाई-बहन शामिल हैं।

धारा 436 : उच्च न्यायालय को संदर्भ – Reference to High Court
(1) यदि कोई अदालत पाती है कि किसी मामले में किसी कानून, अध्यादेश या विनियम की वैधता पर प्रश्न है, और उसे वह प्रावधान अवैध या निष्प्रभावी लगता है, जबकि वह अभी तक उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त नहीं किया गया, तो वह अपनी राय के साथ मामला उच्च न्यायालय को भेजेगी

स्पष्टीकरण: “विनियम” का अर्थ सामान्य उपबंध अधिनियम, 1897 या राज्य के सामान्य उपबंध अधिनियम में वर्णित है।

(2) सत्र न्यायालय भी, यदि उचित समझे, तो किसी कानूनी प्रश्न को उच्च न्यायालय को भेज सकता है, भले ही वह उपधारा (1) के अंतर्गत न आता हो।

(3) मामला भेजते समय न्यायालय अभियुक्त को जेल भेज सकता है या जमानत पर रिहा कर सकता है, जब तक उच्च न्यायालय निर्णय न दे।

धारा 437 : उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार मामले का निपटारा – Disposal of case according to decision of High Court
(1) जब किसी प्रश्न को उच्च न्यायालय को संदर्भित किया गया हो, तो वह उपयुक्त आदेश पारित करेगा और उसकी प्रति उस न्यायालय को भेजेगा जिसने संदर्भ भेजा था। फिर वह न्यायालय उच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार मामले का निपटारा करेगा
(2) उच्च न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि संदर्भ की लागत किसे देनी होगी

धारा 438 : पुनरीक्षण की शक्तियों के प्रयोग हेतु अभिलेख मंगवाना – Calling for records to exercise powers of revision
(1) उच्च न्यायालय या सत्र न्यायाधीश किसी अधीनस्थ आपराधिक न्यायालय की कार्यवाही का अभिलेख मंगा सकते हैं ताकि वे यह सुनिश्चित कर सकें कि निर्णय, सजा या आदेश विधिसम्मत और उचित है या नहीं, और कार्यवाही नियमित है या नहीं।

  • वे सजा के कार्यान्वयन को निलंबित कर सकते हैं, और अभियुक्त को बेल या निजी मुचलके पर रिहा कर सकते हैं।
    स्पष्टीकरण: सभी कार्यपालक व न्यायिक मजिस्ट्रेट, चाहे वे मूल या अपीलीय अधिकार क्षेत्र में हों, सत्र न्यायाधीश के अधीनस्थ माने जाएंगे

(2) यह शक्ति किसी अंतरिम आदेश (interlocutory order) पर प्रयोग नहीं की जा सकती।
(3) यदि कोई व्यक्ति उच्च न्यायालय या सत्र न्यायाधीश के समक्ष आवेदन करता है, तो वही व्यक्ति फिर दूसरे के पास दोबारा आवेदन नहीं कर सकता

धारा 439 : जांच का आदेश देने की शक्ति – Power to order inquiry
यदि धारा 438 या अन्य किसी तरीके से अभिलेख की जांच के दौरान उच्च न्यायालय या सत्र न्यायाधीश को उपयुक्त लगे, तो वे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को स्वयं या अधीनस्थ मजिस्ट्रेट से आगे जांच कराने का निर्देश दे सकते हैं, जब—

  • शिकायत धारा 226 या धारा 227(4) के तहत खारिज की गई हो; या
  • अभियुक्त को आरोप से मुक्त किया गया हो।
    प्रावधान: जब अभियुक्त आरोपमुक्त किया गया हो, तो उसे कारण बताने का अवसर देना आवश्यक है, कि जांच क्यों न कराई जाए।

धारा 440 : सत्र न्यायाधीश की पुनरीक्षण शक्तियां – Sessions Judge’s powers of revision
(1) यदि किसी कार्यवाही का अभिलेख सत्र न्यायाधीश स्वयं मंगवाते हैं, तो वे धारा 442(1) के अंतर्गत उच्च न्यायालय को प्राप्त सभी पुनरीक्षण शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं।
(2) ऐसे पुनरीक्षण में, धारा 442 की उपधाराएं (2), (3), (4), (5) यथासंभव लागू होंगी।
(3) यदि किसी व्यक्ति ने सत्र न्यायाधीश के समक्ष पुनरीक्षण याचिका दायर की है, तो उस व्यक्ति के लिए कोई और पुनरीक्षण याचिका उच्च न्यायालय या किसी अन्य न्यायालय में स्वीकार नहीं की जाएगी

धारा 441 : अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश की शक्ति – Power of Additional Sessions Judge
अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश को इस अध्याय के अंतर्गत वही सभी शक्तियां प्राप्त होंगी जो सत्र न्यायाधीश को प्राप्त हैं, बशर्ते मामला उन्हें सत्र न्यायाधीश द्वारा सामान्य या विशेष आदेश के अंतर्गत सौंपा गया हो

धारा 442 : उच्च न्यायालय की पुनरीक्षण शक्तियां – High Court’s powers of revision
(1) उच्च न्यायालय, जब कोई कार्यवाही उसके संज्ञान में आती है या वह अभिलेख मंगवाता है, तो वह—

  • धारा 427, 430, 431, 432 की अपीलीय शक्तियां,
  • धारा 344 की सत्र न्यायालय की शक्तियां,
    का प्रयोग कर सकता है।
    यदि पीठ के न्यायाधीशों की राय भिन्न हो, तो धारा 433 के अनुसार निपटारा होगा।

(2) अभियुक्त या अन्य व्यक्ति के खिलाफ कोई आदेश तभी पारित किया जा सकता है जब उसे व्यक्तिगत या अधिवक्ता के माध्यम से सुनवाई का अवसर दिया गया हो

(3) उच्च न्यायालय को दोषमुक्ति (acquittal) को दोषसिद्धि में बदलने का अधिकार नहीं है।

(4) यदि किसी मामले में अपील का प्रावधान है, पर अपील दायर नहीं की गई, तो वह पक्ष पुनरीक्षण याचिका नहीं दे सकता

(5) यदि किसी ने गलती से पुनरीक्षण याचिका दाखिल कर दी जबकि अपील का प्रावधान था, और न्यायहित में जरूरी हो, तो उच्च न्यायालय उसे अपील के रूप में मानकर निपटा सकता है

धारा 443 : पुनरीक्षण याचिकाओं का स्थानांतरण या वापसी – Power of High Court to withdraw or transfer revision cases
(1) यदि एक ही मुकदमे में दोषसिद्ध लोग कुछ उच्च न्यायालय में और कुछ सत्र न्यायाधीश के समक्ष पुनरीक्षण याचिका लगाते हैं, तो—

  • उच्च न्यायालय यह निर्णय करेगा कि कौन-सा न्यायालय उन याचिकाओं का निपटारा करेगा,
  • यदि वह स्वयं निपटारे का निर्णय करता है, तो वह सत्र न्यायाधीश की लंबित याचिकाओं को अपने पास स्थानांतरित करेगा,
  • अन्यथा स्वयं लंबित याचिकाओं को सत्र न्यायाधीश को भेज देगा

(2) स्थानांतरित होने पर उच्च न्यायालय उसे ऐसे ही निपटाएगा जैसे वह उसके समक्ष दायर की गई हो
(3) स्थानांतरित होने पर सत्र न्यायाधीश भी उसी प्रकार कार्य करेगा
(4) जब याचिका सत्र न्यायाधीश को स्थानांतरित कर दी जाती है, तो उसके निपटारे के बाद वही व्यक्ति दोबारा उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण नहीं कर सकता

धारा 444 : न्यायालय द्वारा पक्षकारों को सुनने का विकल्प – Option of Court to hear parties
जब तक इस संहिता में विशेष रूप से न कहा गया हो, पुनरीक्षण की कार्यवाही में किसी पक्ष को व्यक्तिगत या अधिवक्ता द्वारा सुनवाई का अधिकार नहीं होता;
परंतु, न्यायालय चाहे तो उसे सुन सकता है, यदि वह ऐसा उचित समझे।

धारा 445 : उच्च न्यायालय के आदेश की अधीनस्थ न्यायालय को सूचना – High Court’s order to be certified to lower Court
यदि कोई मामला इस अध्याय के अंतर्गत उच्च न्यायालय या सत्र न्यायाधीश द्वारा पुनरीक्षित किया गया हो, तो वह अपनी निर्णय या आदेश की प्रमाणित प्रति उस न्यायालय को भेजेगा जिसने मूल आदेश पारित किया था।
फिर वह न्यायालय उस आदेश के अनुसार आवश्यक आदेश पारित करेगा, और यदि आवश्यक हो तो रिकॉर्ड में संशोधन करेगा

अध्याय XXXIII : आपराधिक मामलों का स्थानांतरण – Chapter XXXIII: Transfer of Criminal Cases

धारा 446 : सर्वोच्च न्यायालय की स्थानांतरण की शक्ति – Power of Supreme Court to transfer cases and appeals
(1) यदि यह सर्वोच्च न्यायालय को प्रतीत होता है कि न्यायहित में कोई मामला या अपील एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय या एक उच्च न्यायालय के अधीनस्थ आपराधिक न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालय में स्थानांतरित करना उचित है, तो वह ऐसा आदेश दे सकता है।
(2) यह शक्ति केवल भारत के महान्यायवादी या किसी हितधारी पक्ष के आवेदन पर ही प्रयोग की जा सकती है, और ऐसा आवेदन हलफनामे या प्रतिज्ञापत्र द्वारा समर्थित होना चाहिए (यदि आवेदक राज्य का महाधिवक्ता या महान्यायवादी नहीं है)।
(3) यदि आवेदन निराधार या उत्पीड़नकारी हो, तो न्यायालय विरोध करने वाले को उचित मुआवजा दिलाने हेतु आदेश दे सकता है

धारा 447 : उच्च न्यायालय की स्थानांतरण की शक्ति – Power of High Court to transfer cases and appeals
(1) यदि उच्च न्यायालय को लगे कि—

  • न्यायपूर्ण और निष्पक्ष सुनवाई संभव नहीं है,
  • कोई कठिन विधिक प्रश्न उत्पन्न होगा,
  • या यह स्थानांतरण न्यायहित में या पक्षकारों/गवाहों की सुविधा के लिए आवश्यक है,
    तो वह आदेश दे सकता है कि—
    (i) ऐसा अपराध किसी अन्य सक्षम न्यायालय द्वारा विचारित हो,
    (ii) कोई मामला/अपील एक अधीनस्थ आपराधिक न्यायालय से दूसरे समकक्ष/उच्च न्यायालय को स्थानांतरित किया जाए,
    (iii) कोई विशेष मामला सत्र न्यायालय को सौंपा जाए,
    (iv) कोई मामला/अपील स्वयं उच्च न्यायालय द्वारा सुना जाए।
    (2) यह कार्यवाही निचली अदालत की रिपोर्ट, हितधारी के आवेदन, या स्वप्रेरणा से की जा सकती है।
    (3) आवेदन हलफनामे या प्रतिज्ञापत्र द्वारा समर्थित होना चाहिए (जब आवेदक राज्य का महाधिवक्ता न हो)।
    (4) अभियुक्त से बांड या बेल बांड भरवाया जा सकता है यदि मुआवजे का आदेश देना संभव हो।
    (5) अभियुक्त को प्रक्रिया की सूचना देना अनिवार्य है और कम से कम 24 घंटे पूर्व सूचना दी जानी चाहिए
    (6) जब स्थानांतरण के लिए आवेदन लंबित हो, तो उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालय की कार्यवाही स्थगित कर सकता है
    (7) यदि आवेदन निराधार हो, तो उच्च न्यायालय प्रतिपक्ष को उचित मुआवजा दिला सकता है
    (8) जब उच्च न्यायालय स्वयं मामला सुनता है, तो वह वही प्रक्रिया अपनाएगा जो संबंधित अदालत अपनाती।
    (9) यह धारा सरकार द्वारा धारा 218 के अंतर्गत दिए आदेशों को प्रभावित नहीं करती।

धारा 448 : सत्र न्यायाधीश की स्थानांतरण की शक्ति – Power of Sessions Judge to transfer cases and appeals
(1) यदि सत्र न्यायाधीश को यह प्रतीत हो कि न्यायहित में स्थानांतरण आवश्यक है, तो वह अपने सत्र संभाग के अंतर्गत एक आपराधिक न्यायालय से दूसरे न्यायालय को मामला स्थानांतरित कर सकता है।
(2) यह कार्यवाही निचली अदालत की रिपोर्ट, पक्षकार के आवेदन, या स्वप्रेरणा से की जा सकती है।
(3) धारा 447 की उपधाराएं (3), (4), (5), (6), (7) और (9) सत्र न्यायाधीश के लिए भी लागू होंगी, परंतु मुआवजा ₹10,000 से अधिक नहीं हो सकता

धारा 449 : सत्र न्यायाधीश द्वारा मामलों की वापसी – Withdrawal of cases and appeals by Sessions Judges
(1) सत्र न्यायाधीश किसी भी मामले या अपील को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट से वापस ले सकता है, जिसे उसने सौंपा हो।
(2) यदि मामला/अपील अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश को सौंपा गया हो, और उसका परीक्षण शुरू न हुआ हो, तो सत्र न्यायाधीश उसे वापस ले सकता है
(3) ऐसा करने पर वह स्वयं सुनवाई कर सकता है या किसी अन्य न्यायालय को सौंप सकता है

धारा 450 : न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा मामलों की वापसी – Withdrawal of cases by Judicial Magistrates
(1) मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट किसी अधीनस्थ मजिस्ट्रेट को सौंपे गए किसी मामले को वापस ले सकता है और स्वयं सुनवाई कर सकता है या किसी अन्य योग्य मजिस्ट्रेट को सौंप सकता है
(2) कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट धारा 212(2) के अंतर्गत स्वयं द्वारा सौंपे गए किसी मामले को वापस ले सकता है और स्वयं उस पर सुनवाई कर सकता है।

धारा 451 : कार्यपालक मजिस्ट्रेट द्वारा मामलों का सौंपना या वापसी – Making over or withdrawal of cases by Executive Magistrates
जिला मजिस्ट्रेट या उपमंडल मजिस्ट्रेट
(a) किसी कार्यवाही को अधीनस्थ मजिस्ट्रेट को सौंप सकते हैं;
(b) किसी अधीनस्थ मजिस्ट्रेट से कोई कार्यवाही वापस लेकर स्वयं निपटा सकते हैं या किसी अन्य मजिस्ट्रेट को सौंप सकते हैं

धारा 452 : कारणों का उल्लेख – Reasons to be recorded
जब सत्र न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट धारा 448, 449, 450 या 451 के अंतर्गत कोई आदेश पारित करते हैं, तो उन्हें अपने आदेश के कारणों को दर्ज करना आवश्यक है।

अध्याय XXXIV : दंड का निष्पादन, निलंबन, क्षमा और रूपांतरण – Chapter XXXIV: Execution, Suspension, Remission and Commutation of Sentences

भाग A – मृत्युदंड (Death Sentences)

धारा 453 : धारा 409 के अंतर्गत पारित आदेश का निष्पादन
जब किसी मृत्युदंड की पुष्टि हेतु मामला उच्च न्यायालय को भेजा गया हो और सत्र न्यायालय को उच्च न्यायालय से पुष्टि या अन्य कोई आदेश प्राप्त हो, तो सत्र न्यायालय उस आदेश को लागू कराने के लिए वारंट जारी करेगा या आवश्यक कार्रवाई करेगा

धारा 454 : उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए मृत्युदंड का निष्पादन
यदि उच्च न्यायालय ने अपील या पुनरीक्षण में मृत्युदंड दिया है, तो सत्र न्यायालय को आदेश प्राप्त होने पर वारंट जारी कर दंड निष्पादित करना होगा

धारा 455 : सुप्रीम कोर्ट में अपील होने की स्थिति में मृत्युदंड के निष्पादन की स्थगन
(1) यदि किसी व्यक्ति को उच्च न्यायालय द्वारा मृत्युदंड दिया गया है और संविधान के अनुच्छेद 134(1)(a) या (b) के अंतर्गत सुप्रीम कोर्ट में अपील का अधिकार है, तो उच्च न्यायालय दंड निष्पादन तब तक स्थगित करेगा जब तक अपील करने की समय-सीमा समाप्त न हो जाए या यदि अपील की गई हो, तब तक वह अपील निपट न जाए
(2) यदि ऐसा व्यक्ति अनुच्छेद 132 या 134(1)(c) के अंतर्गत प्रमाणपत्र हेतु आवेदन करता है, तो निर्णय होने तक या प्रमाणपत्र मिलने की स्थिति में सुप्रीम कोर्ट में अपील की समयसीमा तक दंड निष्पादन स्थगित किया जाएगा
(3) यदि उच्च न्यायालय यह मानता है कि अभियुक्त अनुच्छेद 136 के अंतर्गत विशेष अनुमति याचिका दाखिल करने वाला है, तो वह उचित समय तक दंड निष्पादन स्थगित करेगा

धारा 456 : गर्भवती महिला को मृत्युदंड होने पर रूपांतरण
यदि मृत्युदंड प्राप्त महिला गर्भवती पाई जाती है, तो उच्च न्यायालय मृत्युदंड को आजीवन कारावास में परिवर्तित करेगा

भाग B – कारावास (Imprisonment)

धारा 457 : कारावास की जगह तय करने की शक्ति
(1) यदि किसी अन्य कानून में कुछ और न कहा गया हो, तो राज्य सरकार किसी दोषी को कहां बंद किया जाए, इसका निर्धारण कर सकती है
(2) यदि कोई दोषी सिविल जेल में बंद है, तो संबंधित न्यायालय या मजिस्ट्रेट उसे अपराध संबंधी (क्रिमिनल) जेल में स्थानांतरित करने का निर्देश दे सकता है
(3) अगर ऐसा व्यक्ति आपराधिक जेल से रिहा होता है, तो उसे सिविल जेल लौटाया जाएगा, जब तक:
(a) 3 वर्ष बीत न गए हों; या
(b) सिविल जेल का आदेश देने वाली अदालत ने रिहाई प्रमाणित न कर दी हो

धारा 458 : कारावास की सजा का निष्पादन
(1) जब किसी व्यक्ति को आजीवन या किसी अवधि के लिए कारावास की सजा दी गई हो (धारा 453 के मामलों को छोड़कर), तो न्यायालय जेल को वारंट भेजेगा, और यदि अभियुक्त जेल में न हो, तो उसे वहां भेजा जाएगा
परंतु यदि सजा अदालत के उठने तक की है, तो जेल वारंट आवश्यक नहीं है, और व्यक्ति को अदालत के निर्देशानुसार कहीं भी बंद किया जा सकता है।
(2) यदि अभियुक्त सजा सुनाते समय अदालत में उपस्थित नहीं था, तो उसकी गिरफ्तारी का वारंट जारी किया जाएगा, और सजा गिरफ्तारी की तारीख से लागू होगी

धारा 459 : कारावास के लिए वारंट किसे संबोधित होगा
प्रत्येक कारावास संबंधी वारंट उस जेल अधिकारी के नाम होगा जहां अभियुक्त बंद है या होने वाला है

धारा 460 : वारंट कहां जमा किया जाएगा
यदि अभियुक्त को जेल में बंद किया जाना है, तो वारंट जेलर को सौंपा जाएगा

भाग C – जुर्माना वसूल करना (Levy of Fine)

धारा 461 : जुर्माना वसूलने हेतु वारंट
(1) यदि दोषी जुर्माना अदा नहीं करता, तो अदालत निम्नलिखित तरीकों में से एक या दोनों द्वारा वसूली कर सकती है:
(a) चल संपत्ति की कुर्की और बिक्री के लिए वारंट जारी करना;
(b) कलेक्टर को जुर्माना भू-राजस्व बकाया की तरह वसूलने का आदेश देना (चल-अचल संपत्ति दोनों से)।
परंतु यदि जुर्माना न चुकाने पर अभियुक्त ने पूरी वैकल्पिक सजा काट ली हो, तो तब तक ऐसा वारंट नहीं जारी होगा जब तक विशेष कारण लिखित रूप में न दिए जाएं या जुर्माना से खर्च या क्षतिपूर्ति देने का आदेश न हुआ हो
(2) राज्य सरकार कुर्की के वारंटों की प्रक्रिया हेतु नियम बना सकती है
(3) यदि कलेक्टर को वारंट दिया जाता है, तो वह भू-राजस्व बकाया की तरह वसूली करेगा — परंतु अभियुक्त को गिरफ्तार या बंद नहीं किया जा सकता

धारा 462 : ऐसे वारंट का प्रभाव
धारा 461(1)(a) के अंतर्गत जारी वारंट स्थानीय क्षेत्र में लागू होगा, और यदि संपत्ति बाहर हो तो उस क्षेत्र के जिलाधिकारी द्वारा समर्थन के बाद उस पर भी अमल हो सकता है

धारा 463 : ऐसे क्षेत्र में जारी जुर्माना वारंट जहां यह संहिता लागू नहीं होती
जहां यह संहिता लागू नहीं होती, यदि कोई आपराधिक न्यायालय किसी अभियुक्त को जुर्माना देने का आदेश देता है और कलेक्टर को वारंट भेजता है (किसी ऐसे क्षेत्र में जहां यह संहिता लागू होती है), तो वह ऐसा माना जाएगा जैसे वह धारा 461(1)(b) के अंतर्गत जारी हुआ हो, और धारा 461(3) के प्रावधान उस पर लागू होंगे।

अध्याय XXXIV : दंड का निष्पादन, निलंबन, क्षमा और रूपांतरण – Chapter XXXIV: Execution, Suspension, Remission and Commutation of Sentences
(भाग E – सजा का निलंबन, क्षमा और रूपांतरण)

धारा 464 : कारावास की सजा के निष्पादन का स्थगन

(1) जब किसी व्यक्ति को केवल जुर्माना और भुगतान न होने पर कारावास की सजा दी गई हो, और वह तुरंत जुर्माना अदा न करे, तो न्यायालय—
(a) आदेश दे सकता है कि जुर्माना पूरा एक निश्चित दिन तक (जो आदेश की तारीख से 30 दिन से अधिक न हो) या दो या तीन किश्तों में अदा किया जाए, जिनमें पहली किश्त आदेश के 30 दिन के भीतर देनी होगी और अन्य किश्तें अधिकतम 30-30 दिन के अंतर पर होंगी;
(b) कारावास की सजा के निष्पादन को स्थगित कर सकता है और अभियुक्त को बंधपत्र या बेल बांड पर रिहा कर सकता है, ताकि वह न्यायालय में उपस्थित हो और निर्धारित तिथि तक जुर्माना या किश्त अदा करे; यदि वह निर्धारित समय तक जुर्माना अदा नहीं करता, तो अदालत तुरंत कारावास की सजा निष्पादित करने का आदेश दे सकती है
(2) यह प्रावधान ऐसे मामलों में भी लागू होगा, जहां धनराशि के भुगतान का आदेश हुआ हो और वसूली न होने पर कारावास दिया जा सकता हो; यदि अभियुक्त बंधपत्र भरने से इनकार करता है, तो अदालत तुरंत कारावास की सजा दे सकती है

धारा 465 : वारंट कौन जारी कर सकता है

कोई भी दंड निष्पादन का वारंट वह न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट जारी कर सकता है, जिसने सजा दी है या उसका पदाधिकारी उत्तराधिकारी।

धारा 466 : फरार दोषी पर सजा कब लागू होगी

(1) यदि किसी फरार दोषी को मृत्युदंड, आजीवन कारावास या जुर्माना की सजा दी जाती है, तो वह तुरंत प्रभावी होगी
(2) अगर फरार दोषी को किसी अवधि की कारावास की सजा दी जाती है:
(a) यदि यह सजा पहले से चल रही सजा से कठोर है, तो नई सजा तुरंत लागू होगी;
(b) यदि यह कम कठोर है, तो नई सजा तभी शुरू होगी जब वह पहले की बची हुई अवधि को और भुगत ले
(3) कठोर कारावास को साधारण कारावास से कठोर माना जाएगा

धारा 467 : पूर्व में सजायाफ्ता अभियुक्त पर सजा कब लागू होगी

(1) यदि कोई व्यक्ति पहले से सजा काट रहा है और उसे किसी नई सजा (अवधि की या आजीवन) का आदेश दिया जाए, तो वह पहली सजा समाप्त होने के बाद लागू होगी, जब तक अदालत दोनों को साथ-साथ चलाने का आदेश न दे
परंतु, यदि किसी व्यक्ति को धारा 141 के अंतर्गत सुरक्षा न देने पर कारावास की सजा मिली है और वह उस दौरान किसी पूर्व अपराध के लिए सजा पाता है, तो नई सजा तुरंत लागू होगी
(2) यदि कोई व्यक्ति पहले से आजीवन कारावास काट रहा है और उसे फिर से किसी सजा का आदेश दिया जाए, तो नई सजा पहले वाली के साथ-साथ चलेगी

धारा 468 : अभियुक्त द्वारा बिताया गया हिरासत का समय सजा में समायोजित होगा

यदि किसी अभियुक्त को सजा सुनाई जाती है, और जांच, पूछताछ या मुकदमे के दौरान उसने पहले से कुछ समय हिरासत में बिताया हो, तो वह अवधि उसकी सजा में समायोजित की जाएगी
परंतु, धारा 475 के मामलों में यह अवधि 14 वर्ष की अवधि में गिनी जाएगी

धारा 469 : अपवाद

(1) धारा 466 और 467 में कुछ भी ऐसा नहीं है, जिससे कोई व्यक्ति पहली या बाद की सजा से बच सके
(2) यदि जुर्माना न भरने पर कारावास की सजा किसी मुख्य सजा के साथ जुड़ी हुई है, और बाद में कोई और मुख्य सजा काटनी है, तो जुर्माना न भरने की सजा तब तक लागू नहीं होगी जब तक अन्य सजा काट न ली जाए

धारा 470 : सजा निष्पादन के बाद वारंट की वापसी

जब सजा पूरी तरह निष्पादित हो जाए, तो संबंधित अधिकारी वारंट पर निष्पादन का विवरण लिखकर उसे उस न्यायालय में वापस भेजेगा, जिसने उसे जारी किया था

धारा 471 : धनराशि की वसूली जुर्माने की तरह होगी

यदि किसी आदेश से कोई धनराशि (जो जुर्माना नहीं है) देनी है और उसकी वसूली का अन्य कोई तरीका न बताया गया हो, तो वह जुर्माने की तरह वसूली योग्य होगी
परंतु, यदि यह धारा 400 के तहत खर्च की वसूली है, तो धारा 461 का प्रावधान उस पर उसी प्रकार लागू होगा।

धारा 472 : मृत्युदंड मामलों में दया याचिका

(1) यदि किसी दोषी को मृत्युदंड मिला है, तो वह स्वयं, उसका कानूनी वारिस या कोई रिश्तेदार यदि पहले दया याचिका नहीं दी है, तो उसे राष्ट्रपति (अनु. 72) या राज्यपाल (अनु. 161) के समक्ष 30 दिन के भीतर याचिका दे सकता है, जब:
(i) जेल अधीक्षक उसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपील/पुनर्विचार/विशेष अनुमति याचिका खारिज होने की सूचना दे; या
(ii) उच्च न्यायालय द्वारा सजा की पुष्टि और सुप्रीम कोर्ट में अपील की समयसीमा समाप्त हो जाए।
(2) याचिका पहले राज्यपाल को दी जा सकती है, और यदि अस्वीकार हो जाए, तो 60 दिन के भीतर राष्ट्रपति को याचिका दी जा सकती है
(3) जेल अधीक्षक यह सुनिश्चित करेगा कि सभी सह-अभियुक्त भी याचिका दें, और यदि न दें, तो उनके नाम, पते, केस रिकॉर्ड आदि राज्य/केंद्र सरकार को भेजेगा
(4) केंद्र सरकार, राज्य सरकार से टिप्पणी लेकर और केस रिकॉर्ड के साथ 60 दिन के भीतर राष्ट्रपति को सिफारिश करेगी
(5) राष्ट्रपति, सभी अभियुक्तों की याचिकाएं एक साथ न्यायहित में निपटाएगा
(6) राष्ट्रपति के आदेश मिलते ही 48 घंटे के भीतर राज्य सरकार व जेल अधीक्षक को सूचित किया जाएगा
(7) राष्ट्रपति या राज्यपाल के आदेश के विरुद्ध कोई अपील किसी न्यायालय में नहीं की जा सकती, और उनके निर्णय को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती

धारा 473 : दंड के निलंबन या क्षमा करने की शक्ति – Power to suspend or remit sentences

सरल हिंदी व्याख्या :

यदि किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए सजा सुनाई गई है, तो उपयुक्त सरकार (राज्य सरकार या केंद्र सरकार, जैसा मामला हो) किसी भी समय, चाहे बिना शर्त या किसी ऐसी शर्त पर जिसे दोषी स्वीकार करता है, उसकी सजा को निलंबित (suspend) कर सकती है या पूरी या कुछ सजा क्षमा (remit) कर सकती है।

  1. अगर कोई व्यक्ति सजा के निलंबन या क्षमा के लिए सरकार को आवेदन देता है, तो सरकार उस न्यायाधीश की राय मांग सकती है, जिसने सजा दी थी या पुष्टि की थी, और उसे ट्रायल का रिकॉर्ड भी भेजने के लिए कह सकती है।
  2. अगर दोषी ने जिन शर्तों पर निलंबन या क्षमा पाया है, उन्हें पूरा नहीं किया, तो सरकार उस सजा को रद्द कर सकती है और दोषी को फिर से बिना वारंट गिरफ्तार करवा सकती है ताकि वह बची हुई सजा पूरी करे।
  3. शर्तें दोषी के द्वारा पूरी की जानी हों या स्वतंत्र रूप से तय की गई हों — दोनों ही प्रकार की शर्तें हो सकती हैं।
  4. सरकार यह तय करने के लिए नियम या विशेष आदेश बना सकती है कि सजा के निलंबन हेतु याचिका कैसे दी जाए और कैसे निपटाई जाए।

विशेष प्रावधान: यदि दोषी की उम्र 18 वर्ष से अधिक है और उस पर जुर्माने के अलावा कोई और सजा है, तो तब तक ऐसी याचिका स्वीकार नहीं की जाएगी जब तक वह जेल में न हो और:

  • यदि दोषी खुद याचिका देता है तो वह जेल अधिकारी के माध्यम से दी जानी चाहिए; या
  • अगर कोई और देता है, तो उसे यह घोषित करना होगा कि दोषी जेल में है
  1. इस धारा के सभी प्रावधान उन मामलों पर भी लागू होंगे जहाँ अदालत द्वारा कोई आदेश व्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करता हो या उसकी संपत्ति पर कोई दायित्व डाला गया हो
  2. “उपयुक्त सरकार” का अर्थ है:
    • यदि अपराध ऐसा है जिसमें केंद्र सरकार की कार्यकारी शक्ति लागू होती है, तो केंद्र सरकार;
    • अन्य मामलों में, राज्य सरकार

धारा 474 : सजा को परिवर्तित करने की शक्ति – Power to commute sentence

सरल हिंदी व्याख्या :

उपयुक्त सरकार बिना दोषी की सहमति के सजा को किसी कम सख्त सजा में बदल सकती है, जैसे:

  • मृत्यु दंड को आजन्म कारावास (life imprisonment) में।
  • आजन्म कारावास को कम से कम सात साल की सजा में।
  • सात साल या अधिक की कैद को कम से कम तीन साल की सजा में।
  • सात साल से कम की कैद को जुर्माने में।
  • कठोर कारावास को सादा कारावास में।

धारा 475 : कुछ मामलों में क्षमा या परिवर्तित करने की शक्ति पर प्रतिबंध – Restriction on powers of remission or commutation in certain cases

सरल हिंदी व्याख्या :

यदि किसी व्यक्ति को ऐसा अपराध करने पर आजीवन कारावास की सजा दी गई हो, जिसके लिए मृत्यु दंड भी हो सकता था, या उसकी मृत्यु दंड की सजा को आजीवन कारावास में बदला गया हो, तो उसे कम से कम 14 वर्ष की सजा भुगतनी होगी
इससे पहले उसे रिहा नहीं किया जा सकता।

धारा 476 : मृत्युदंड के मामलों में केंद्र सरकार की समान शक्ति – Concurrent power of Central Government in case of death sentences

सरल हिंदी व्याख्या :

मृत्यु दंड के मामलों में, धारा 473 और 474 के तहत जो शक्तियाँ राज्य सरकार को दी गई हैं, वे केंद्र सरकार भी इस्तेमाल कर सकती है।

धारा 477 : कुछ मामलों में राज्य सरकार को केंद्र सरकार की सहमति से कार्य करना होगा – State Government to act after concurrence with Central Government in certain cases

सरल हिंदी व्याख्या :

राज्य सरकार को धारा 473 और 474 के तहत क्षमा या सजा परिवर्तित करने की शक्ति उन मामलों में केंद्र सरकार की सहमति से ही इस्तेमाल करनी होगी:

  1. जहाँ अपराध की जाँच किसी केंद्रीय एजेंसी द्वारा की गई हो,
  2. जहाँ अपराध में केंद्र सरकार की संपत्ति को नुकसान या गबन हुआ हो,
  3. जहाँ अपराध केंद्र सरकार के कर्मचारी द्वारा अपनी ड्यूटी के दौरान किया गया हो।

और यदि किसी व्यक्ति को ऐसे कई अपराधों में सजा मिली हो जिनमें कुछ अपराध केंद्र सरकार के अधीन आते हैं, तो तब तक राज्य सरकार का आदेश प्रभावी नहीं होगा जब तक केंद्र सरकार भी उसी प्रकार का आदेश न दे।

 

आपके द्वारा दिए गए Chapter XXXV (धारा 478 से 483) के सभी प्रावधानों का मैं क्रमशः सरल हिंदी में व्याख्या करूँगा, बिना किसी कानूनी बिंदु को छोड़े। शुरुआत करते हैं:

धारा 478 : किन मामलों में ज़मानत ली जा सकती है – In what cases bail to be taken

(1) यदि कोई व्यक्ति जिसे गैर-जमानती अपराध का अभियुक्त नहीं है, उसे बिना वारंट के पुलिस अधिकारी द्वारा गिरफ्तार किया गया है या वह स्वयं कोर्ट के सामने उपस्थित हुआ है, और वह ज़मानत देने को तैयार है, तो उसे ज़मानत पर रिहा किया जाएगा।

यदि वह व्यक्ति निर्धन (indigent) है और ज़मानत नहीं दे सकता, तो कोर्ट उसे केवल उपस्थिति के लिए बॉन्ड भरवाकर रिहा कर सकता है।
व्याख्या: यदि कोई व्यक्ति गिरफ्तारी के एक सप्ताह के भीतर ज़मानत नहीं दे पाता, तो उसे निर्धन मान लिया जाएगा।

स्पष्टीकरण: यह धारा धारा 135(3) या 492 के प्रावधानों को प्रभावित नहीं करती।

(2) यदि वह व्यक्ति ज़मानत की शर्तों का पालन नहीं करता, तो कोर्ट उसे अगली बार ज़मानत देने से मना कर सकता है। इससे कोर्ट को ज़मानती बॉन्ड की राशि वसूलने का अधिकार प्रभावित नहीं होगा।

धारा 479 : विचाराधीन बंदी को अधिकतम कितने समय तक जेल में रखा जा सकता है – Maximum period for which undertrial prisoner can be detained

(1) यदि कोई व्यक्ति ऐसा अपराध कर रहा है जिसमें मृत्यु या आजीवन कारावास का प्रावधान नहीं है, और वह आधा समय जेल में बिता चुका है जितनी अधिकतम सजा हो सकती है, तो उसे ज़मानत पर रिहा किया जाएगा।

यदि वह पहली बार अपराध कर रहा है, तो केवल एक-तिहाई अवधि जेल में बिताने पर उसे बांड पर रिहा किया जाएगा।
कोर्ट विशेष कारणों से अभियोजन पक्ष की बात सुनकर उसे और अधिक समय तक जेल में रख सकता है।

परंतु कोई भी व्यक्ति अधिकतम निर्धारित सजा से अधिक समय तक विचाराधीन नहीं रखा जाएगा।

स्पष्टीकरण: यदि आरोपी के कारण कार्यवाही में देरी हुई है, तो वह अवधि गिनती में नहीं मानी जाएगी।

(2) यदि किसी व्यक्ति पर कई मामले चल रहे हैं या एक से अधिक अपराधों की जांच या ट्रायल चल रहा है, तो उसे इस धारा के तहत ज़मानत नहीं दी जाएगी।

(3) जेल अधीक्षक को एक-तिहाई या आधी अवधि पूरी होने पर कोर्ट को लिखित में आवेदन देना होगा।

धारा 480 : गैर-जमानती अपराध के मामलों में ज़मानत कब ली जा सकती है – When bail may be taken in case of non-bailable offence

(1) गैर-जमानती अपराध में ज़मानत दी जा सकती है, परंतु:

(i) यदि ऐसा प्रतीत हो कि आरोपी ने ऐसा अपराध किया है जिसकी सजा मौत या उम्रकैद है, तो उसे ज़मानत नहीं मिलेगी।
(ii) यदि वह व्यक्ति पहले ऐसे अपराधों में दोषी ठहराया जा चुका है जिनकी सजा 7 वर्ष या अधिक है, या दो से अधिक बार 3 से 7 साल के अपराधों में दोषी है, तो भी ज़मानत नहीं मिलेगी।

किन्तु यदि आरोपी बच्चा, महिला, बीमार या दुर्बल हो, तो कोर्ट उसे ज़मानत दे सकती है।

विशेष कारण होने पर, पूर्व दोषी को भी कोर्ट ज़मानत दे सकती है।

सिर्फ इसलिए कि आरोपी को पहचान के लिए पुलिस को चाहिए, यह ज़मानत देने से इनकार का कारण नहीं होगा।

यदि सजा 7 साल या अधिक की है, तो अभियोजक को सुनवाई का अवसर देना आवश्यक है।

(2) यदि प्रारंभिक रूप से ऐसा प्रतीत हो कि आरोपी ने गैर-जमानती अपराध नहीं किया, परन्तु आगे जांच जरूरी है, तो ज़मानत दी जा सकती है।

(3) यदि आरोपी को सात साल या उससे अधिक की सजा वाले अपराध या भारतीय दंड संहिता के अध्याय VI, VII या XVII के तहत ज़मानत दी जा रही हो, तो निम्न शर्तें आवश्यक होंगी:

(a) अदालत में नियमित उपस्थिति,
(b) वैसा ही अपराध दोबारा न करना,
(c) किसी गवाह को प्रभावित न करना या सबूत से छेड़छाड़ न करना,
(d) आवश्यक होने पर अन्य शर्तें।

(4) ज़मानत देने वाला अधिकारी या कोर्ट कारण लिखित में बताएगा।

(5) कोर्ट चाहे तो ज़मानत पर छूटे व्यक्ति को फिर गिरफ्तार कर सकता है।

(6) यदि मजिस्ट्रेट के समक्ष गैर-जमानती अपराध का मुकदमा 60 दिनों में पूरा नहीं हुआ और आरोपी हिरासत में रहा, तो उसे ज़मानत मिल जाएगी।

(7) यदि मुकदमे के बाद निर्णय से पहले ऐसा लगता है कि आरोपी दोषी नहीं है, तो उसे बांड पर रिहा कर दिया जाएगा।

धारा 481 : अभियुक्त को अपीलीय अदालत में उपस्थिति हेतु ज़मानती बंधपत्र देना होगा – Bail to require accused to appear before next Appellate Court

(1) मुकदमे के समापन और अपील के निर्णय से पहले, अभियुक्त को यह बांड भरना होगा कि वह उच्च अदालत में पेश होगा जब उसे नोटिस मिलेगा, और यह बांड छह महीने तक वैध रहेगा।

(2) यदि वह पेश नहीं होता, तो उसका बांड जब्त कर लिया जाएगा और धारा 491 के अनुसार कार्यवाही की जाएगी।

धारा 482 : अग्रिम ज़मानत के लिए दिशा-निर्देश – Direction for grant of bail to person apprehending arrest

(1) यदि किसी व्यक्ति को लगता है कि उसे किसी गैर-जमानती अपराध में गिरफ्तार किया जा सकता है, तो वह उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में अग्रिम ज़मानत की अर्जी दे सकता है।

(2) कोर्ट कुछ शर्तें लगा सकता है, जैसे:

(i) पूछताछ के लिए उपलब्ध रहना,
(ii) गवाह को प्रभावित न करना,
(iii) भारत से बाहर न जाना बिना अनुमति,
(iv) धारा 480(3) के अनुसार अन्य शर्तें।

(3) यदि पुलिस बिना वारंट गिरफ्तार करे और आरोपी ज़मानत देने को तैयार हो, तो उसे ज़मानत पर छोड़ा जाएगा।

(4) यह धारा धारा 65 और धारा 70(2) वाले मामलों पर लागू नहीं होती।

धारा 483 : उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय के विशेष ज़मानत संबंधी अधिकार – Special powers of High Court or Court of Session regarding bail

(1) उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय आदेश दे सकते हैं कि:

(a) किसी आरोपी को ज़मानत पर रिहा किया जाए,
(b) मजिस्ट्रेट द्वारा लगाई गई शर्तें हटाई जाएं या बदली जाएं।

परंतु यदि आरोपी ऐसा अपराध कर रहा है जो सत्र न्यायालय में विचारणीय है या आजीवन कारावास से दंडनीय है, तो अभियोजक को पहले से सूचना देना अनिवार्य है।

धारा 65 या 70(2) के मामलों में अभियोजक को सूचना 15 दिन के भीतर देनी होगी।

(2) ज़मानत पर सुनवाई के समय सूचना देने वाले व्यक्ति या उसके प्रतिनिधि की उपस्थिति अनिवार्य है।

(3) यदि आवश्यक हो, तो उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय ज़मानत पर छूटे व्यक्ति को फिर गिरफ्तार करने का आदेश दे सकता है।

शुरुआत करते हैं धारा 484 से 499 तक के सरल हिंदी रूपांतरण से। नीचे हर धारा को उसके उपधाराओं सहित एक-एक करके आसान और स्पष्ट हिंदी में समझाया गया है:

धारा 484 : ज़मानत की राशि और उसमें कटौती – Amount of bond and reduction thereof

(1) ज़मानत बांड की राशि केस की परिस्थितियों के अनुसार तय की जाएगी और यह अत्यधिक नहीं होनी चाहिए।

(2) उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय पुलिस अधिकारी या मजिस्ट्रेट द्वारा तय की गई ज़मानत की राशि को घटा सकता है।

धारा 485 : अभियुक्त और उसके ज़मानतदारों का बांड – Bond of accused and sureties

(1) ज़मानत पर रिहाई से पहले, अभियुक्त को उतनी राशि का बांड भरना होगा जितनी पुलिस या कोर्ट उचित समझे। ज़मानतदार भी ऐसा ही बांड भरेंगे जिसमें अभियुक्त की उपस्थिति की गारंटी होगी।

(2) अगर ज़मानत शर्तों के साथ दी जा रही है तो बांड में वे शर्तें भी शामिल होंगी।

(3) यदि ज़रूरी हो, तो बांड में यह भी जोड़ा जाएगा कि अभियुक्त उच्च न्यायालय या अन्य अदालत में भी पेश होगा।

(4) ज़मानतदारों की उपयुक्तता जांचने के लिए कोर्ट हलफनामे स्वीकार कर सकता है या जांच करवा सकता है।

धारा 486 : ज़मानतदार द्वारा घोषणा – Declaration by sureties

प्रत्येक ज़मानतदार को यह घोषित करना होगा कि उसने पहले कितने लोगों की ज़मानत ली है, और सभी ज़रूरी विवरण देने होंगे।

धारा 487 : हिरासत से मुक्ति – Discharge from custody

(1) जैसे ही ज़मानत बांड भरा जाएगा, व्यक्ति को रिहा कर दिया जाएगा। अगर वह जेल में है, तो कोर्ट जेल अधीक्षक को रिहाई का आदेश देगा।

(2) यह धारा, 478 और 480 इस बात की गारंटी नहीं देती कि व्यक्ति को दूसरे किसी मामले में रिहा कर दिया जाएगा।

धारा 488 : ज़मानत के अपर्याप्त होने पर नया आदेश – Power to order sufficient bail when that first taken is insufficient

अगर गलती या धोखे से या किसी कारण से लिया गया ज़मानत बांड अपर्याप्त हो जाए, तो कोर्ट व्यक्ति को फिर से पकड़कर उचित ज़मानत भरने का आदेश दे सकता है। ऐसा न करने पर उसे जेल भेजा जा सकता है।

धारा 489 : ज़मानतदारों की मुक्ति – Discharge of sureties

(1) ज़मानतदार कभी भी मजिस्ट्रेट से निवेदन कर सकते हैं कि उन्हें ज़मानत से मुक्त किया जाए।

(2) ऐसे निवेदन पर कोर्ट अभियुक्त को पकड़कर बुलाने का आदेश देगा।

(3) अभियुक्त के पेश होने पर कोर्ट पहले वाला बांड खत्म करेगा और नए ज़मानतदारों की मांग करेगा। असफल होने पर अभियुक्त को जेल भेज सकता है।

धारा 490 : बांड की जगह राशि जमा करना – Deposit instead of recognizance

किसी बांड की आवश्यकता होने पर, अदालत या अधिकारी व्यक्ति को सरकारी बॉन्ड या नकद राशि जमा करने की अनुमति दे सकता है, सिवाय “अच्छे आचरण” वाले मामलों के।

धारा 491 : बांड जब ज़ब्त हो जाए तब की प्रक्रिया – Procedure when bond has been forfeited

(1) अगर कोर्ट को यह साबित हो जाए कि बांड की शर्त का उल्लंघन हुआ है, तो वह कारण दर्ज करेगा और ज़मानतदार को जुर्माना भरने या कारण बताने का आदेश देगा।

(2) कारण न बताने या जुर्माना न भरने पर इसे कोर्ट जुर्माने की तरह वसूल करेगा, और संभव हो तो व्यक्ति को सिविल जेल में 6 माह तक भेज सकता है।

(3) कोर्ट चाहे तो जुर्माने की राशि घटा सकता है।

(4) अगर ज़मानतदार की मृत्यु बांड ज़ब्त होने से पहले हो गई हो, तो उसकी संपत्ति उत्तरदायी नहीं होगी।

(5) अगर कोई व्यक्ति ज़मानत पर है और वह अपराध कर बैठता है, तो उसके ज़मानतदार के खिलाफ कार्रवाई में उसके दोषसिद्धि का आदेश प्रमाण माना जाएगा, जब तक कि वह खुद इसे गलत साबित न करे।

धारा 492 : बांड या ज़मानत रद्द करने का प्रावधान – Cancellation of bond and bail bond

अगर किसी व्यक्ति द्वारा बांड की शर्त का उल्लंघन हो जाए, तो उसका और ज़मानतदार का बांड रद्द कर दिया जाएगा। आगे उस व्यक्ति को उसी केस में केवल अपने बांड पर रिहा नहीं किया जाएगा, जब तक कोर्ट या पुलिस अधिकारी संतुष्ट न हो कि पर्याप्त कारण था।

धारा 493 : ज़मानतदार के दिवालिया या मृत्यु होने पर कार्रवाई – Procedure in case of insolvency or death of surety or when a bond is forfeited

अगर ज़मानतदार दिवालिया हो जाए या मर जाए, या बांड ज़ब्त हो जाए, तो कोर्ट व्यक्ति से नया ज़मानत भरने को कह सकता है, अन्यथा उसे जेल भेजा जा सकता है।

धारा 494 : बच्चे से बांड की मांग – Bond required from child

अगर ज़मानत भरने वाला व्यक्ति बच्चा है, तो कोर्ट केवल ज़मानतदारों से बांड स्वीकार कर सकता है।

धारा 495 : धारा 491 के तहत आदेशों पर अपील – Appeal from orders under section 491

(1) मजिस्ट्रेट के आदेश पर सत्र न्यायाधीश के पास अपील की जा सकती है।

(2) सत्र न्यायालय के आदेश पर उस कोर्ट में अपील की जा सकती है जहां से उस कोर्ट के फैसले की अपील हो सकती है।

धारा 496 : ज़मानत राशि वसूलने का आदेश – Power to direct levy of amount due on certain recognizances

उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय किसी मजिस्ट्रेट को यह आदेश दे सकता है कि वह उपस्थिति के बांड से जुड़ी राशि की वसूली करे।

अगला अध्याय – Chapter XXXVI: संपत्ति का निपटान

धारा 497 : ट्रायल के दौरान संपत्ति की देखरेख और निपटान का आदेश – Order for custody and disposal of property pending trial in certain cases

(1) जब किसी आपराधिक मामले में संपत्ति कोर्ट के सामने लाई जाती है, तो कोर्ट जांच या ट्रायल तक उसकी देखरेख का आदेश दे सकता है। अगर संपत्ति जल्दी खराब होने वाली हो, तो कोर्ट उसका विक्रय या अन्य निपटान का आदेश दे सकता है।

व्याख्या: “संपत्ति” में वह कोई भी वस्तु या दस्तावेज शामिल है जो कोर्ट के सामने पेश किया गया हो या जिसके संबंध में अपराध हुआ हो।

(2) कोर्ट 14 दिनों के भीतर ऐसी संपत्ति का विवरण एक निश्चित प्रारूप में तैयार करेगा।

(3) ऐसी संपत्ति की फोटो या वीडियो बनाना अनिवार्य होगा।

(4) वह फोटो या वीडियो सबूत के रूप में प्रयोग किया जाएगा।

(5) 30 दिनों के भीतर ऐसी संपत्ति के निपटान, नष्ट करने, ज़ब्ती या सुपुर्दगी का आदेश देना होगा।

धारा 498 : ट्रायल के अंत में संपत्ति के निपटान का आदेश – Order for disposal of property at conclusion of trial

(1) ट्रायल के बाद कोर्ट संपत्ति को नष्ट करने, जब्त करने, असली मालिक को देने या अन्यथा निपटान का आदेश दे सकता है।

(2) संपत्ति को बिना शर्त या कुछ शर्तों पर व्यक्ति को सौंपा जा सकता है जैसे कि वह संपत्ति कोर्ट को वापस करेगा यदि आदेश बाद में पलट जाए।

(3) सत्र न्यायालय चाहें तो संपत्ति मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट को सौंप सकता है।

(4) सामान्यतः संपत्ति को ट्रायल खत्म होने के 2 महीने तक रोका जाएगा, या अपील होने पर अपील के फैसले तक।

(5) “संपत्ति” में वह भी शामिल है जो अपराध से संबंधित हो और जो बदलकर कुछ और बना दी गई हो।

धारा 499 : निर्दोष खरीदार को राशि लौटाने का प्रावधान – Payment to innocent purchaser of money found on accused

अगर कोई व्यक्ति चोरी या चोरी की संपत्ति रखने के अपराध में दोषी पाया जाए, और कोई अन्य व्यक्ति उसने वह चीज़ खरीदी हो बिना यह जाने कि वह चोरी की थी, तो उसे वह चीज़ लौटानी होगी। कोर्ट उसके आवेदन पर, अभियुक्त से बरामद पैसे में से उसे भुगतान कर सकता है, लेकिन वह रकम खरीदी गई कीमत से अधिक नहीं हो सकती — और यह आदेश 6 महीने के अंदर लागू होगा।

आपने धारा 500 से 510 तक का मूल प्रावधान साझा कर दिया है। अब मैं इन सभी धाराओं को एक-एक करके पूर्ण रूप से सरल हिंदी में समझाता हूँ, बिना किसी बिंदु को छोड़े।

धारा 500 : धारा 498 या 499 के तहत आदेशों के विरुद्ध अपील – Appeal against orders under section 498 or section 499

(1) यदि कोई व्यक्ति धारा 498 या 499 के तहत न्यायालय या मजिस्ट्रेट द्वारा पारित आदेश से असंतुष्ट है, तो वह उस न्यायालय में अपील कर सकता है जहाँ से सामान्यतः उस न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपील की जाती है।

(2) ऐसी अपील पर, अपीलीय न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि अपील का निपटारा होने तक मूल आदेश को रोका जाए, या उसे संशोधित, परिवर्तित या रद्द किया जाए, और कोई भी उचित अन्य आदेश पारित किया जा सकता है।

(3) उपधारा (2) में बताए गए अधिकार अपील, पुष्टि या पुनरीक्षण करने वाला न्यायालय भी प्रयोग कर सकता है, जब वह उस मामले पर विचार कर रहा हो जिसमें उपधारा (1) में वर्णित आदेश पारित किया गया था।

धारा 501 : निंदात्मक या अन्य आपत्तिजनक सामग्री का नष्ट किया जाना – Destruction of libellous and other matter

(1) यदि किसी व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता की धारा 294, 295 या धारा 356 की उपधारा (3) या (4) के तहत दोषी ठहराया गया हो, तो न्यायालय आदेश दे सकता है कि उस वस्तु की सभी प्रतियाँ जो अपराध से संबंधित हैं और जो न्यायालय के पास या दोषी व्यक्ति के पास हों, नष्ट कर दी जाएं।

(2) इसी प्रकार, यदि किसी व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता की धारा 274, 275, 276 या 277 के तहत दोषी ठहराया गया हो, तो न्यायालय उस खाद्य पदार्थ, पेय, औषधि या दवा को नष्ट करने का आदेश दे सकता है जिससे अपराध किया गया हो।

धारा 502 : अचल संपत्ति का कब्जा पुनर्स्थापित करने की शक्ति – Power to restore possession of immovable property

(1) यदि किसी व्यक्ति को आपराधिक बल, बल का प्रदर्शन या आपराधिक डराने-धमकाने के माध्यम से किसी अपराध का दोषी पाया जाता है, और न्यायालय को लगता है कि इस बल प्रयोग या डराने से किसी अन्य व्यक्ति को अचल संपत्ति से बेदखल किया गया है, तो वह न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि उस व्यक्ति को कब्जा पुनः प्रदान किया जाए, आवश्यकता पड़ने पर बलपूर्वक कब्जा दिलाया जा सकता है।

शर्त: ऐसा आदेश सजा के एक महीने के भीतर ही दिया जा सकता है।

(2) यदि विचारण न्यायालय ने उपधारा (1) के अंतर्गत कोई आदेश नहीं दिया, तो अपीलीय, पुष्टि या पुनरीक्षण न्यायालय ऐसा आदेश दे सकता है।

(3) यदि कोई आदेश उपधारा (1) में दिया गया है, तो धारा 500 की प्रक्रिया उस पर ऐसे ही लागू होगी जैसे धारा 499 के आदेश पर होती है।

(4) इस धारा के अंतर्गत पारित आदेश से किसी व्यक्ति के उस संपत्ति पर वैध नागरिक अधिकार या हित प्रभावित नहीं होंगे, जिन्हें वह सिविल वाद में सिद्ध कर सकता हो।

अब मैं धारा 503 से 510 तक की सभी धाराओं को पूरी तरह सरल हिंदी में समझा रहा हूँ, बिना किसी बात को छोड़े:

धारा 503 : जब्त संपत्ति के संबंध में पुलिस द्वारा की जाने वाली कार्यवाही – Procedure by police upon seizure of property

(1) जब किसी पुलिस अधिकारी द्वारा जब्त की गई संपत्ति की रिपोर्ट किसी मजिस्ट्रेट को दी जाती है, और वह संपत्ति किसी आपराधिक न्यायालय में जांच या विचारण के दौरान प्रस्तुत नहीं की जाती है, तो मजिस्ट्रेट यह आदेश दे सकता है कि उस संपत्ति का क्या किया जाए – जैसे उसे सही व्यक्ति को सौंपा जाए या किसी अन्य प्रकार से उसके बारे में निपटान किया जाए।

(2) यदि मजिस्ट्रेट को वह व्यक्ति ज्ञात हो जिसे संपत्ति का अधिकार है, तो वह उसे कुछ शर्तों पर संपत्ति सौंप सकता है। यदि ऐसा व्यक्ति अज्ञात है, तो मजिस्ट्रेट संपत्ति को अपने पास रखेगा और एक घोषणा (proclamation) जारी करेगा जिसमें संपत्ति का विवरण होगा, और यह कहा जाएगा कि कोई भी व्यक्ति जिसका उस संपत्ति पर दावा है, वह छह महीने के अंदर आकर अपना दावा सिद्ध करे।

धारा 504 : जब छह महीने में कोई दावा नहीं किया गया – Procedure where no claimant appears within six months

(1) यदि छह महीने के भीतर कोई व्यक्ति उस संपत्ति पर दावा नहीं करता और उस व्यक्ति के पास जो संपत्ति के पास से पकड़ा गया था, यह साबित नहीं कर पाता कि संपत्ति वैध रूप से उसके पास थी, तो मजिस्ट्रेट यह आदेश दे सकता है कि संपत्ति राज्य सरकार के अधीन हो जाए और राज्य सरकार उसे बेच सकती है तथा उसकी आय को अपने बनाए नियमों के अनुसार उपयोग कर सकती है।

(2) इस प्रकार के आदेश के विरुद्ध उस न्यायालय में अपील की जा सकती है जहाँ सामान्यतः मजिस्ट्रेट के निर्णयों के विरुद्ध अपील की जाती है।

धारा 505 : नाशवान वस्तु को बेचने की शक्ति – Power to sell perishable property

यदि कोई संपत्ति जल्दी खराब होने वाली है, या मजिस्ट्रेट को लगता है कि उसे बेचना मालिक के हित में होगा, या उसकी कीमत ₹10,000 से कम है, और उसका मालिक अनुपस्थित या अज्ञात है, तो मजिस्ट्रेट किसी भी समय उसे बेचने का आदेश दे सकता है। बिक्री से प्राप्त राशि के निपटान के लिए धारा 503 और 504 की प्रक्रिया लागू होगी।

अध्याय 37 : अनियमित कार्यवाहियाँ (Irregular Proceedings)

धारा 506 : वे अनियमितताएँ जो कार्यवाही को अमान्य नहीं बनातीं – Irregularities which do not vitiate proceedings

अगर कोई मजिस्ट्रेट जिसे कानूनी रूप से कोई कार्य करने की शक्ति नहीं है, फिर भी वह काम “ईमानदारी से और गलती से” कर देता है, तो उस कारण से कार्यवाही को सिर्फ इसलिए रद्द नहीं किया जाएगा। इनमें निम्नलिखित शामिल हैं:

  • तलाशी वारंट जारी करना
  • पुलिस को जांच का आदेश देना
  • मृत्यु की जांच करना
  • आरोपी की गिरफ्तारी का आदेश देना
  • अपराध का संज्ञान लेना
  • मामला अन्य मजिस्ट्रेट को सौंपना
  • माफी देना
  • मामला वापस लेकर खुद सुनवाई करना
  • संपत्ति बेचना (धारा 504 या 505 के अंतर्गत)

धारा 507 : वे अनियमितताएँ जो कार्यवाही को अमान्य बना देती हैं – Irregularities which vitiate proceedings

अगर कोई मजिस्ट्रेट जिसकी वैधानिक शक्ति नहीं है, निम्नलिखित कार्य करता है, तो वह कार्यवाही निरस्त (Void) मानी जाएगी:

  • संपत्ति संलग्न करना और बेचना
  • डाकघर में रखे दस्तावेजों की तलाशी लेना
  • शांति बनाए रखने के लिए ज़मानत मांगना
  • अच्छा व्यवहार सुनिश्चित करने के लिए ज़मानत लेना
  • ज़मानत से मुक्त करना
  • ज़मानत रद्द करना
  • भरण-पोषण का आदेश देना
  • स्थानीय उपद्रव के विरुद्ध आदेश देना
  • सार्वजनिक उपद्रव को रोकने का आदेश देना
  • अध्याय XI के भाग C या D के अंतर्गत आदेश देना
  • धारा 210(1)(c) के अंतर्गत अपराध का संज्ञान लेना
  • अपराधी का विचारण करना
  • त्वरित सुनवाई करना
  • दूसरे मजिस्ट्रेट की रिकॉर्डिंग पर सजा सुनाना
  • अपील का निर्णय देना
  • कार्यवाही मंगाना
  • धारा 491 के तहत दिए गए आदेश की समीक्षा करना

धारा 508 : गलत क्षेत्राधिकार में की गई कार्यवाही – Proceedings in wrong place

अगर कोई कार्यवाही, सुनवाई या आदेश किसी गलत क्षेत्र (जैसे गलत जिला, उपखण्ड या सत्र विभाग) में हुआ है, तो उसे केवल इस कारण से अमान्य नहीं माना जाएगा जब तक यह साबित न हो कि इससे न्याय में बाधा हुई है।

धारा 509 : धारा 183 या 316 का पालन न होना – Non-compliance with section 183 or 316

(1) अगर कोई न्यायालय यह पाता है कि किसी आरोपी के बयान या स्वीकारोक्ति को रिकॉर्ड करते समय धारा 183 या 316 का ठीक से पालन नहीं हुआ, तो वह न्यायालय इस बारे में सबूत ले सकता है और यदि यह साबित हो जाए कि इससे आरोपी के बचाव पर असर नहीं पड़ा और उसने बयान स्वेच्छा से दिया था, तो उस बयान को स्वीकार किया जा सकता है।

(2) यह प्रावधान अपीलीय, पुनरीक्षण और पुष्टि करने वाले न्यायालयों पर भी लागू होता है।

धारा 510 : आरोप पत्र का न बनना या उसमें त्रुटियाँ – Effect of omission to frame, or absence of, or error in, charge

(1) अगर किसी सक्षम न्यायालय ने कोई आरोप पत्र नहीं बनाया या उसमें कोई गलती/त्रुटि रह गई (जैसे आरोपों को गलत ढंग से जोड़ा गया), तो केवल इसी आधार पर निर्णय अमान्य नहीं होगा जब तक यह साबित न हो कि इससे न्याय में बाधा हुई।

(2) अगर अपीलीय या पुनरीक्षण न्यायालय को लगे कि वास्तव में न्याय में बाधा हुई है, तो वह:

  • आरोप न बनाए जाने की स्थिति में, आरोप बनाकर वहीं से फिर से मुकदमा शुरू करने का आदेश दे सकता है,
  • और यदि आरोप में त्रुटि या गलती हो, तो नए आरोप के आधार पर नए सिरे से मुकदमा चलाने का आदेश दे सकता है।

शर्त: अगर न्यायालय को लगे कि तथ्य ऐसे हैं जिन पर कोई वैध आरोप नहीं बन सकता, तो वह दोषसिद्धि को निरस्त कर देगा।

यह रहा धारा 511 से 519 तक का पूरा भाग, सरल हिंदी में प्रत्येक उपधारा सहित समझाया गया है, बिना कोई हिस्सा छोड़े:

धारा 511 : त्रुटि, चूक या अनियमितता के कारण निर्णय या दंड को पलटा जा सकता है – Finding or sentence when reversible by reason of error, omission or irregularity

(1) यदि किसी सक्षम न्यायालय ने कोई निर्णय, दंड या आदेश पारित किया है, तो उसे केवल इस आधार पर पलटा या बदला नहीं जाएगा कि शिकायत, समन, वारंट, उद्घोषणा, आदेश, निर्णय या अन्य कार्यवाही में कोई त्रुटि, चूक या अनियमितता थी — या अभियोजन की स्वीकृति में कोई त्रुटि या अनियमितता थी — जब तक उस न्यायालय की राय में इससे न्याय में वास्तविक हानि नहीं हुई हो।

(2) यह तय करने के लिए कि कोई त्रुटि, चूक या अनियमितता न्याय में हानि का कारण बनी है या नहीं, न्यायालय इस बात पर ध्यान देगा कि क्या वह आपत्ति कार्यवाही की पहले की अवस्था में उठाई जा सकती थी और उठाई जानी चाहिए थी।

धारा 512 : दोष या त्रुटि के कारण कुर्की अवैध नहीं मानी जाएगी – Defect or error not to make attachment unlawful

इस संहिता के अंतर्गत की गई कोई भी कुर्की (attachment) केवल इस आधार पर अवैध नहीं मानी जाएगी और न ही उसे करने वाला व्यक्ति अपराधी माना जाएगा कि समन, सजा, कुर्की आदेश या अन्य दस्तावेजों में कोई त्रुटि या औपचारिकता की कमी हो।

अध्याय XXXVIII : कुछ अपराधों के संज्ञान लेने की समय-सीमा

(Chapter XXXVIII – Limitation for Taking Cognizance of Certain Offences)

धारा 513 : परिभाषाएँ – Definitions

इस अध्याय के उद्देश्य से, जब तक संदर्भ अन्यथा न हो, “सीमित अवधि (period of limitation)” का अर्थ धारा 514 में उल्लिखित समय से है, जिसके भीतर किसी अपराध का संज्ञान लिया जा सकता है।

धारा 514 : सीमित अवधि बीत जाने के बाद संज्ञान लेने पर रोक – Bar to taking cognizance after lapse of period of limitation

(1) जब तक इस संहिता में अन्यथा न कहा गया हो, न्यायालय धारा (2) में बताए गए प्रकार के अपराधों का संज्ञान सीमित अवधि समाप्त हो जाने के बाद नहीं ले सकता।

(2) सीमित अवधि इस प्रकार होगी:

(a) केवल जुर्माने से दंडनीय अपराध — 6 माह
(b) 1 वर्ष तक की सजा वाले अपराध — 1 वर्ष
(c) 1 वर्ष से अधिक लेकिन 3 वर्ष से अधिक नहीं — 3 वर्ष

(3) यदि कई अपराध एक साथ सुनवाई योग्य हैं, तो जिस अपराध की सजा सबसे अधिक है, उसी के अनुसार सीमित अवधि मानी जाएगी।

व्याख्या: सीमित अवधि की गणना करते समय, शिकायत दायर करने की तिथि (धारा 223) या पुलिस में सूचना दर्ज होने की तिथि (धारा 173) को प्रारंभिक तिथि माना जाएगा।

धारा 515 : सीमित अवधि की शुरुआत – Commencement of period of limitation

(1) अपराध करने वाले व्यक्ति के संबंध में सीमित अवधि शुरू होगी:

(a) अपराध के दिन से; या
(b) यदि अपराध की जानकारी पीड़ित या पुलिस को नहीं थी — जब पहली बार किसी को पता चला (जो पहले हो); या
(c) यदि अपराधी की पहचान ज्ञात नहीं थी — जब पहली बार अपराधी की पहचान ज्ञात हुई (पीड़ित या जांच अधिकारी को, जो पहले हो)।

(2) गणना करते समय जिस दिन से अवधि शुरू होती है, वह दिन शामिल नहीं किया जाएगा

धारा 516 : कुछ मामलों में समय की गणना से बाहर रखना – Exclusion of time in certain cases

(1) यदि कोई व्यक्ति अपराधी के खिलाफ ईमानदारी से और परिश्रमपूर्वक अन्य कार्यवाही चला रहा था, तो उस समय को सीमित अवधि से बाहर रखा जाएगा — बशर्ते कि वह कार्यवाही उसी अपराध से संबंधित हो और जिस न्यायालय में की गई हो वह किसी त्रुटि के कारण उसे सुनने में असमर्थ था।

(2) यदि अभियोजन की प्रक्रिया किसी अदालती आदेश या निषेधाज्ञा से स्थगित रही हो, तो उसकी अवधि, निषेधाज्ञा के जारी और समाप्त होने के दिन सहित, गणना से बाहर रखी जाएगी।

(3) यदि अभियोजन के लिए सरकार या किसी अन्य प्राधिकरण की अनुमति आवश्यक हो, या अभियोजन से पहले सूचना दी गई हो, तो उस अनुमति या सूचना की अवधि भी बाहर रखी जाएगी

व्याख्या: अनुमति प्राप्त करने की तिथि और आदेश प्राप्त होने की तिथि दोनों को गणना से बाहर रखा जाएगा।

(4) यदि अपराधी:

(a) भारत से बाहर हो, या
(b) गिरफ्तारी से बचने के लिए छिपा हो —
तो उस अवधि को भी गणना से बाहर किया जाएगा।

धारा 517 : जब न्यायालय बंद हो तो अवधि समाप्त होने का प्रभाव – Exclusion of date on which Court is closed

यदि सीमित अवधि ऐसे दिन समाप्त होती है जब न्यायालय बंद हो, तो संज्ञान न्यायालय खुलने के दिन लिया जा सकता है

व्याख्या: यदि न्यायालय उस दिन सामान्य समय में बंद था, तो उसे इस धारा के तहत बंद माना जाएगा

धारा 518 : लगातार चलने वाला अपराध – Continuing offence

यदि कोई अपराध लगातार चल रहा हो (continuing offence), तो हर क्षण के लिए एक नई अवधि शुरू मानी जाएगी जब तक अपराध जारी है।

धारा 519 : विशेष मामलों में सीमित अवधि बढ़ाने की शक्ति – Extension of period of limitation in certain cases

इस अध्याय की अन्य धाराओं के बावजूद, न्यायालय अपराध का संज्ञान ले सकता है यदि वह यह मानता है कि:

  • विलंब उचित रूप से समझाया गया है, या
  • न्याय के हित में ऐसा करना आवश्यक है

यह रहा Chapter XXXIX (विविध प्रावधान / Miscellaneous) की धारा 520 से 530 तक का पूरा सरल हिंदी में उपधारा सहित अनुवाद:

धारा 520 : उच्च न्यायालयों द्वारा विचारण – Trials before High Courts

यदि कोई अपराध उच्च न्यायालय द्वारा धारा 447 के अंतर्गत नहीं बल्कि अन्यथा विचाराधीन होता है, तो उस अपराध के विचारण में उच्च न्यायालय को उसी प्रक्रिया का पालन करना होगा जैसा कि सत्र न्यायालय करता है

धारा 521 : कोर्ट मार्शल के लिए उत्तरदायी व्यक्तियों को कमांडिंग अधिकारी को सौंपना – Delivery to commanding officers of persons liable to be tried by Court-martial

(1) केंद्र सरकार, इस संहिता तथा वायु सेना अधिनियम, सेना अधिनियम, नौसेना अधिनियम या अन्य सशस्त्र बलों से संबंधित अधिनियमों के अनुरूप नियम बना सकती है, जिससे यह निर्धारित हो सके कि किन मामलों में सशस्त्र बलों के सदस्य को सिविल कोर्ट में या कोर्ट मार्शल में मुकदमा चलाया जाएगा। यदि ऐसा कोई व्यक्ति किसी मजिस्ट्रेट के सामने प्रस्तुत किया जाए, तो मजिस्ट्रेट उन नियमों का पालन करते हुए, उपयुक्त मामलों में, उसे संबंधित यूनिट के कमांडिंग ऑफिसर को सौंप सकता है।

व्याख्या:

  • “यूनिट” में रेजिमेंट, कोर, जहाज, ग्रुप, कंपनी आदि शामिल हैं।
  • “कोर्ट मार्शल” में ऐसे सभी ट्रिब्यूनल शामिल हैं जिनके पास समान शक्तियाँ हैं।

(2) यदि किसी यूनिट के कमांडिंग अधिकारी द्वारा लिखित आवेदन किया जाए, तो मजिस्ट्रेट को हरसंभव प्रयास कर उस अभियुक्त को पकड़ना होगा।

(3) उच्च न्यायालय चाहे तो जेल में बंद किसी कैदी को कोर्ट मार्शल के समक्ष पेश करने या पूछताछ हेतु बुलाने का आदेश दे सकता है।

धारा 522 : प्रपत्र – Forms

संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत प्रदत्त शक्ति के अधीन, द्वितीय अनुसूची में दिए गए प्रपत्र आवश्यकतानुसार संशोधन के साथ प्रयुक्त किए जा सकते हैं, और उनका उपयोग पर्याप्त होगा।

धारा 523 : उच्च न्यायालय को नियम बनाने की शक्ति – Power of High Court to make rules

(1) प्रत्येक उच्च न्यायालय राज्य सरकार की पूर्व अनुमति से नियम बना सकता है:

(a) फौजदारी न्यायालयों में याचिका लेखक के रूप में किन लोगों को अनुमति दी जा सकती है,
(b) उन्हें लाइसेंस देने, कार्य संचालन और शुल्क निर्धारण के संबंध में,
(c) नियमों के उल्लंघन पर दंड और जांच तथा दंड लगाने की प्रक्रिया,
(d) अन्य कोई विषय जिसे नियमों द्वारा नियंत्रित किया जाना आवश्यक हो।

(2) बनाए गए सभी नियम राजपत्र में प्रकाशित किए जाएंगे।

धारा 524 : कुछ मामलों में कार्यपालिका मजिस्ट्रेट के कार्यों को बदलने की शक्ति – Power to alter functions allocated to Executive Magistrate

यदि राज्य की विधान सभा ऐसा प्रस्ताव पारित करे, तो राज्य सरकार उच्च न्यायालय से परामर्श के बाद, अधिसूचना द्वारा, यह निर्देश दे सकती है कि धारा 127, 128, 129, 164 और 166 में कार्यपालिका मजिस्ट्रेट के स्थान पर प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट को पढ़ा जाए।

धारा 525 : जहाँ न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट की व्यक्तिगत रुचि हो – Cases in which Judge or Magistrate is personally interested

कोई न्यायाधीश या मजिस्ट्रेट, अपील करने वाले न्यायालय की अनुमति के बिना, ऐसे किसी मामले की सुनवाई या विचारण नहीं कर सकता जिसमें वह पक्षकार या व्यक्तिगत रूप से रुचि रखने वाला हो। वह खुद के द्वारा दिए गए निर्णय पर अपील भी नहीं सुन सकता।

व्याख्या: यदि न्यायाधीश किसी मामले से केवल सरकारी कर्तव्य के रूप में या घटनास्थल का निरीक्षण करने मात्र से जुड़ा है, तो इसे व्यक्तिगत रुचि नहीं माना जाएगा।

धारा 526 : अभ्यासरत अधिवक्ता मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य नहीं करेगा – Practising advocate not to sit as Magistrate in certain Courts

कोई भी अधिवक्ता जो किसी मजिस्ट्रेट की अदालत में कार्य करता है, उसी न्यायालय या उसके अधिकार क्षेत्र में स्थित किसी अन्य न्यायालय में मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य नहीं कर सकता

धारा 527 : विक्रय में लगे लोक सेवक द्वारा संपत्ति खरीदने की मनाही – Public servant concerned in sale not to purchase or bid for property

कोई भी लोक सेवक, जिसे इस संहिता के अंतर्गत किसी संपत्ति की बिक्री में कर्तव्य सौंपा गया हो, उस संपत्ति को खरीद या बोली नहीं लगा सकता

धारा 528: उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों की रक्षा – Saving of inherent powers of High Court

इस संहिता में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे उच्च न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों पर प्रभाव पड़े — जैसे कि किसी आदेश को प्रभावी बनाने, न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने या न्याय के हितों की रक्षा हेतु आदेश देने की शक्ति।

धारा 529 : अधीनस्थ न्यायालयों पर उच्च न्यायालय का निरंतर पर्यवेक्षण – Duty of High Court to exercise continuous superintendence over Courts

प्रत्येक उच्च न्यायालय को यह सुनिश्चित करने के लिए सत्र न्यायालयों और अधीनस्थ न्यायिक मजिस्ट्रेटों पर पर्यवेक्षण करना होगा कि मामलों का शीघ्र और उचित निपटारा हो रहा है।

धारा 530 : परीक्षण और कार्यवाहियाँ इलेक्ट्रॉनिक रूप से – Trial and proceedings to be held in electronic mode

इस संहिता के अंतर्गत सभी परीक्षण, जांच और कार्यवाहियाँ इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से आयोजित की जा सकती हैं, जिनमें शामिल हैं:

(i) समन और वारंट का जारी करना, सेवा और निष्पादन
(ii) शिकायतकर्ता और गवाहों की पूछताछ
(iii) जांच और विचारण में साक्ष्य की रिकॉर्डिंग
(iv) अपील संबंधी या अन्य कार्यवाहियाँ — सब कुछ ऑडियो-विजुअल इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से किया जा सकता है।

धारा 531 : निरसन और संरक्षण – Repeal and Savings

(1) दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (Code of Criminal Procedure, 1973) को इस अधिनियम द्वारा निरस्त किया जाता है

(2) इस निरसन के बावजूद:

(a) यदि इस संहिता के लागू होने की तिथि से ठीक पहले कोई अपील, आवेदन, विचारण, जांच या विवेचना लंबित है, तो वह उसी प्रकार निपटाई जाएगी या जारी रखी जाएगी जैसे कि वह पुरानी दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के अनुसार चल रही हो — अर्थात्, मानो यह नई संहिता लागू ही नहीं हुई हो।

(b) 1973 की संहिता के अंतर्गत जो भी अधिसूचनाएँ प्रकाशित हुई हैं, उद्घोषणाएँ जारी हुई हैं, शक्तियाँ प्रदान की गई हैं, नियमों द्वारा निर्धारित प्रपत्र, स्थानीय क्षेत्राधिकार, पारित दंड, आदेश, नियम, नियुक्तियाँ (विशेष मजिस्ट्रेट की नियुक्ति को छोड़कर) — यदि वे इस नई संहिता के लागू होने से ठीक पहले प्रभाव में थीं, तो माना जाएगा कि वे इस नई संहिता के समान प्रावधानों के अंतर्गत की गई हैं

(c) यदि 1973 की संहिता के अंतर्गत किसी कार्रवाई हेतु कोई अनुमोदन या सहमति दी गई थी, लेकिन उसके आधार पर कोई कार्यवाही प्रारंभ नहीं हुई थी, तो अब माना जाएगा कि वह सहमति या अनुमोदन इस नई संहिता के तहत दी गई है, और उसी के अनुसार कार्यवाही प्रारंभ की जा सकती है।

(3) यदि पुरानी संहिता (1973) के तहत किसी आवेदन या कार्यवाही के लिए निर्धारित अवधि इस नई संहिता के लागू होने से पहले समाप्त हो चुकी थी, तो इस नई संहिता की किसी भी बात को ऐसा नहीं माना जाएगा कि वह केवल इसलिए नया आवेदन करने या कार्यवाही शुरू करने की अनुमति देती है क्योंकि नई संहिता में अधिक समय या समय विस्तार की व्यवस्था है

इस प्रकार धारा 531 यह स्पष्ट करती है कि:

  • पुरानी संहिता (CrPC, 1973) अब समाप्त हो गई है,
  • लेकिन उसके अंतर्गत चल रही कार्यवाहियाँ, आदेश, अनुमतियाँ आदि वैध रूप से यथावत् जारी रहेंगे,
  • नई संहिता (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita, 2023) के आने से पूर्व समाप्त हो चुके मामलों को फिर से नहीं खोला जा सकेगा, भले ही नई संहिता अधिक समय प्रदान करती हो।

Kindly See First Schedule for checking offences details and