न्यायालयों में रिक्तियों का संकट: देरी से न्याय वितरण के कारण एवं समाधान

न्यायालयों में रिक्तियों का संकट: देरी से न्याय वितरण के कारण एवं समाधान

भारतीय न्यायपालिका विश्व की सबसे बड़ी न्यायिक प्रणालियों में से एक है, जो देश के प्रत्येक नागरिक को न्याय दिलाने का दायित्व निभाती है। परंतु न्यायपालिका में लंबे समय से चल रही न्यायालयों में पद रिक्तियों की समस्या ने न्याय वितरण प्रणाली को गंभीर संकट में डाल दिया है। न्याय में देरी की समस्या आज भारतीय समाज में सबसे बड़ी चुनौतियों में गिनी जाती है, जिसका सीधा कारण न्यायाधीशों और सहायक स्टाफ के पदों पर भारी रिक्तियां हैं। यह न केवल न्यायपालिका की कार्यक्षमता को प्रभावित करता है बल्कि संविधान में प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों, विशेषकर अनुच्छेद 21 में निहित त्वरित न्याय के अधिकार, का भी उल्लंघन करता है।

न्यायालयों में रिक्तियों की स्थिति

सुप्रीम कोर्ट, हाई कोर्ट और निचली अदालतों में न्यायाधीशों की भारी कमी है। सुप्रीम कोर्ट में स्वीकृत न्यायाधीशों की संख्या 34 है, परंतु कई बार इनमें भी पद रिक्त रहते हैं। उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों के 1,108 स्वीकृत पदों में से लगभग 300 से अधिक पद रिक्त रहते हैं। वहीं, निचली अदालतों में स्वीकृत पदों की संख्या लगभग 25,000 है, जिनमें से 20% से अधिक पद खाली पड़े रहते हैं। यह स्थिति लाखों लंबित मामलों को और बढ़ाने का कारण बनती है।

देरी से न्याय वितरण के कारण

  1. न्यायाधीशों की कमी: सबसे प्रमुख कारण है समय पर नियुक्तियां न होना। कॉलेजियम प्रणाली के अंतर्गत न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया लंबी, जटिल और कई बार विवादित होती है, जिसके कारण पद लंबे समय तक रिक्त रहते हैं।
  2. बढ़ते मामले और सीमित संसाधन: जनसंख्या वृद्धि और सामाजिक-आर्थिक जटिलताओं के चलते न्यायालयों में मामलों का दबाव निरंतर बढ़ रहा है। परंतु न्यायिक संसाधन (न्यायाधीश, सहायक स्टाफ, ढांचा) उसी अनुपात में नहीं बढ़ पाए हैं।
  3. प्रक्रियात्मक जटिलताएं: भारतीय न्याय प्रणाली में प्रक्रियाएं अत्यधिक तकनीकी और लंबी हैं, जिनमें कई बार अनावश्यक स्थगन (Adjournment) दिए जाते हैं, जिससे मामलों के निपटारे में विलंब होता है।
  4. अधोसंरचना (Infrastructure) की कमी: कई न्यायालयों में पर्याप्त कोर्टरूम, तकनीकी साधन और सहायक कर्मियों की कमी है। इससे भी लंबित मामलों की संख्या बढ़ती है।
  5. सहायक स्टाफ की कमी: केवल न्यायाधीशों की ही नहीं बल्कि रीडर, क्लर्क, स्टेनोग्राफर और अन्य स्टाफ की कमी भी मामलों की सुनवाई को धीमा करती है।
  6. सरकारी मुकदमेबाजी का बोझ: न्यायालयों में लंबित मामलों में से 50% से अधिक सरकार या सरकारी एजेंसियों से जुड़े होते हैं। सरकारी विभागों के बीच समन्वय के अभाव में ये मामले वर्षों तक लंबित रहते हैं।
  7. वैकल्पिक विवाद निपटान प्रणाली (ADR) का कम उपयोग: मध्यस्थता, सुलह और लोक अदालतों जैसी प्रणालियों का पर्याप्त उपयोग नहीं हो पाने से भी मामलों का बोझ कम नहीं हो पाता।

देरी से न्याय के परिणाम

  1. न्यायपालिका पर विश्वास में कमी: जब न्याय समय पर नहीं मिलता तो नागरिकों का न्यायपालिका में विश्वास कमजोर पड़ता है।
  2. अनुच्छेद 21 का उल्लंघन: त्वरित न्याय नागरिकों का मौलिक अधिकार है, लेकिन देरी से यह अधिकार व्यावहारिक रूप से समाप्त हो जाता है।
  3. लंबित मामलों का बढ़ता बोझ: वर्तमान में भारत में लगभग 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित हैं। पद रिक्तियां इस बोझ को लगातार बढ़ा रही हैं।
  4. आर्थिक एवं सामाजिक प्रभाव: न्याय में देरी से व्यापारिक वातावरण प्रभावित होता है, निवेश घटता है और समाज में असुरक्षा की भावना पनपती है।
  5. कारागारों में अंडरट्रायल कैदियों की अधिकता: जिनका मुकदमा समय पर पूरा नहीं हो पाता, वे वर्षों तक जेल में बंद रहते हैं, जिससे कारागारों पर भी बोझ बढ़ता है।

समाधान

  1. समयबद्ध नियुक्तियां: कॉलेजियम प्रणाली को अधिक पारदर्शी और समयबद्ध बनाया जाए। न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरने के लिए निश्चित समय सीमा निर्धारित की जानी चाहिए।
  2. न्यायिक सेवा परीक्षा का सुदृढ़ीकरण: अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) की स्थापना से निचली अदालतों में योग्य न्यायाधीशों की समय पर भर्ती सुनिश्चित की जा सकती है।
  3. अधोसंरचना में निवेश: न्यायालयों में पर्याप्त कोर्टरूम, डिजिटल सुविधाएं और सहायक स्टाफ उपलब्ध कराया जाए। ई-कोर्ट परियोजना को तेज़ी से लागू किया जाए।
  4. वैकल्पिक विवाद निपटान को बढ़ावा: लोक अदालतों, मध्यस्थता केंद्रों और सुलह समितियों को और मजबूत बनाया जाए ताकि छोटे-मोटे मामलों का निपटारा जल्दी हो सके।
  5. सरकारी मुकदमेबाजी कम करना: सरकारी विभागों में पूर्व-अपील निपटान तंत्र विकसित कर मुकदमेबाजी को घटाया जाए।
  6. प्रक्रियात्मक सुधार: अनावश्यक स्थगन पर रोक लगाई जाए और सुनवाई को समयबद्ध किया जाए।
  7. तकनीक का अधिकतम उपयोग: वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, ऑनलाइन फाइलिंग और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) आधारित केस प्रबंधन प्रणाली का उपयोग बढ़ाया जाए।
  8. न्यायाधीशों के अनुपात को बढ़ाना: वर्तमान में भारत में प्रति 10 लाख जनसंख्या पर औसतन 21 न्यायाधीश हैं, जबकि अमेरिका में यह संख्या 100 से अधिक है। इस अनुपात को बढ़ाने पर जोर दिया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

भारतीय न्यायपालिका की मजबूती लोकतंत्र की नींव है। यदि न्यायालयों में पदों की भारी रिक्तियां समय पर नहीं भरी गईं, तो “Justice delayed is justice denied” की कहावत और सटीक हो जाएगी। देरी से न्याय मिलने पर न केवल नागरिकों का न्यायपालिका पर विश्वास कमजोर होगा, बल्कि संविधान की मूल भावना भी आहत होगी। इसलिए आवश्यक है कि सरकार, न्यायपालिका और विधायिका मिलकर समयबद्ध नियुक्तियों, अधोसंरचना विकास और तकनीक के प्रयोग को प्राथमिकता दें। साथ ही, वैकल्पिक विवाद निपटान प्रणाली को मजबूत बनाकर लंबित मामलों का बोझ कम किया जाए। एक मजबूत और सक्षम न्यायपालिका ही भारत के लोकतंत्र को सुदृढ़ और नागरिकों को न्यायसंगत जीवन सुनिश्चित कर सकती है।