The Limitation Act, 1963

The Limitation Act, 1963

President Assent: 05 Oct 1963

Effective: 01 Jan 1964

 

धारा 1.   संक्षिप्त नाम, विस्तार और प्रारंभ।

(1) इस अधिनियम का संक्षिप्त नाम परिसीमा अधिनियम, 1963 है।

(2) इसका विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है ।

(3) यह उस तारीख को प्रवृत्त होगा जिसे केन्द्रीय सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, नियत करे। – 01 Jan 1964

धारा 2.   परिभाषाएँ.

इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो,–

(a) “आवेदक (Applicant)” में निम्नलिखित शामिल हैं–

(i) याचिकाकर्ता;

(ii) कोई व्यक्ति जिससे या जिसके माध्यम से आवेदक को आवेदन करने का अधिकार प्राप्त होता है;

(iii) कोई भी व्यक्ति जिसकी सम्पत्ति का प्रतिनिधित्व आवेदक द्वारा निष्पादक (Executor), प्रशासक (Administrator) या अन्य प्रतिनिधि के रूप में किया जाता है;

(b) “आवेदन” में याचिका भी शामिल है;

(c) “विनिमय पत्र (Bill of exchange)” के अंतर्गत हुण्डी और चेक भी शामिल हैं;

(d) “बंधपत्र (Bond)” में कोई भी ऐसा लिखत (instrument) शामिल है जिसके द्वारा कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को धन देने के लिए स्वयं को बाध्य करता है, इस शर्त पर कि यदि कोई निर्दिष्ट कार्य किया जाता है, या नहीं किया जाता है, तो बाध्यता शून्य हो जाएगी, जैसा भी मामला हो;

(e) “प्रतिवादी” में निम्नलिखित शामिल हैं–

(i) कोई व्यक्ति जिससे या जिसके माध्यम से प्रतिवादी को मुकदमा चलाने का दायित्व प्राप्त होता है;

(ii) कोई भी व्यक्ति जिसकी संपत्ति का प्रतिनिधित्व प्रतिवादी द्वारा निष्पादक, प्रशासक या अन्य प्रतिनिधि के रूप में किया जाता है;

(f) “सुविधा (easement)” में अनुबंध से उत्पन्न न होने वाला कोई अधिकार शामिल है, जिसके द्वारा एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की भूमि के किसी भाग को या किसी अन्य व्यक्ति की भूमि में उगने वाली, उससे जुड़ी हुई या उस पर रहने वाली किसी भी वस्तु को हटाने और अपने लाभ के लिए विनियोग (Appropriate) करने का हकदार है;

(g) “विदेशी देश” से भारत के अलावा कोई अन्य देश अभिप्रेत है;

(h) “सद्भाव (Good Faith)”–कोई भी कार्य सद्भावपूर्वक नहीं माना जाएगा जो सम्यक (due) सावधानी और ध्यान से नहीं किया गया हो;

(i) “वादी (Plaintiff)” में निम्नलिखित शामिल हैं–

(i) कोई व्यक्ति जिससे या जिसके माध्यम से वादी को वाद लाने का अधिकार प्राप्त होता है;

(ii) कोई भी व्यक्ति जिसकी सम्पत्ति (Estate) का प्रतिनिधित्व वादी द्वारा निष्पादक, प्रशासक या अन्य प्रतिनिधि के रूप में किया जाता है;

(j)परिसीमा अवधि (period of limitation)” का तात्पर्य अनुसूची द्वारा किसी वाद, अपील या आवेदन के लिए निर्धारित (prescribed) परिसीमा अवधि से है, और “निर्धारित अवधि” का तात्पर्य इस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार संगणित (Computed) परिसीमा अवधि से है;

(k) “वचन-पत्र (Promissory Note)” से ऐसा कोई लिखत अभिप्रेत है जिसके द्वारा निर्माता (maker) किसी निर्दिष्ट (specified) धनराशि को किसी अन्य व्यक्ति को सीमित समय में, या मांग पर, या दृष्टिगत (at sight) रूप से भुगतान करने के लिए पूर्णतः (absolutely) वचनबद्ध होता है;

(l) “वाद (Suit) ” में अपील या आवेदन शामिल नहीं है;

(m) “अपकृत्य (tort)” से ऐसा सिविल अपराध अभिप्रेत (means) है जो विशेष रूप से किसी संविदा का उल्लंघन या किसी न्यास का उल्लंघन नहीं है;

(o) “ट्रस्टी (trustee)” में बेनामीदार, बंधक (mortgage) की संतुष्टि के बाद भी कब्जा रखने वाला बंधकदार (mortgagee) या बिना हक के गलत कब्जे वाला व्यक्ति शामिल नहीं है

धारा 3.   परिसीमा-बंध (Bar of Limitation)

(1) धारा 4 से धारा 24 (सम्मिलित) में अंतर्विष्ट (contained) उपबंधों के अधीन रहते हुए, विहित (prescribed) अवधि के पश्चात् संस्थित (instituted) किया गया प्रत्येक वाद, प्रस्तुत की गई प्रत्येक अपील और किया गया आवेदन खारिज कर दिया जाएगा, भले ही (although) बचाव के रूप में परिसीमा स्थापित (limitation set up) की गई हो।

(2) इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए,–

(a) कोई वाद संस्थित किया जाता है,–

(i) किसी साधारण मामले में, जब वादपत्र (plaint) उचित अधिकारी (proper officer) के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है;

(ii) किसी दरिद्र (pauper) की दशा में, जब वह दरिद्र के रूप में वाद लाने की अनुमति के लिए आवेदन करता है; तथा

(iii) किसी कंपनी के विरुद्ध दावे (claim) के मामले में, जिसका न्यायालय द्वारा परिसमापन (wound up) किया जा रहा है, जब दावेदार सबसे पहले अपना दावा आधिकारिक परिसमापक (official liquidator) के पास भेजता है;

(b) मुजरा (set off) या प्रतिदावे (counter claim) के रूप में किया गया कोई दावा, पृथक वाद माना जाएगा और निम्नलिखित के रूप में संस्थित किया गया समझा जाएगा–

(i) सेट ऑफ के मामले में, उसी तारीख को जिस दिन वह वाद है जिसमें सेट ऑफ का अभिवचन (pleaded) किया गया है;

(ii) प्रतिदावे के मामले में, उस तारीख को जिस दिन प्रतिदावा (counter claim) न्यायालय में किया गया हो;

(c)  किसी उच्च न्यायालय में प्रस्ताव की सूचना (notice of motion) द्वारा आवेदन तब किया जाता है जब आवेदन उस न्यायालय के समुचित अधिकारी (proper officer) के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।

धारा 4.   न्यायालय बंद होने पर निर्धारित अवधि की समाप्ति

जहां किसी वाद, अपील या आवेदन के लिए निर्धारित अवधि उस दिन समाप्त हो जाती है जिस दिन न्यायालय बंद हो, वहां वाद, अपील या आवेदन उस दिन संस्थित किया जा सकता है, प्रस्तुत किया जा सकता है या किया जा सकता है जिस दिन न्यायालय पुनः खुले।

स्पष्टीकरण.– इस धारा के अर्थ में किसी दिन न्यायालय बंद समझा जाएगा यदि वह अपने सामान्य कार्य समय के किसी भाग के दौरान उस दिन बंद रहता है।

धारा 5.   कुछ मामलों में निर्धारित अवधि का विस्तार।

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (1908 का 5) के आदेश XXI के किसी भी प्रावधान के तहत आवेदन के अलावा कोई अपील या कोई आवेदन, निर्धारित अवधि के बाद स्वीकार किया जा सकता है यदि अपीलकर्ता या आवेदक अदालत को संतुष्ट करता है कि उसके पास ऐसी अवधि के भीतर अपील या आवेदन न करने के लिए पर्याप्त कारण था।

स्पष्टीकरण.– यह तथ्य कि अपीलार्थी या आवेदक को विहित (Prescribed) अवधि का पता लगाने या उसकी गणना करने में उच्च न्यायालय के किसी आदेश, पद्धति या निर्णय द्वारा गुमराह किया गया था, इस धारा के अर्थ में पर्याप्त कारण हो सकता है।

धारा 6. कानूनी अक्षमता (Legal Disability)

(1) जहां कोई व्यक्ति, जो वाद संस्थित करने या डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन करने का हकदार है, उस समय, जिससे विहित अवधि की गणना (Reckoned) की जानी है, अवयस्क या पागल या मूर्ख है, वहां वह वाद संस्थित कर सकेगा या आवेदन उस अवधि के भीतर कर सकेगा, जो उसकी अक्षमता समाप्त हो जाने के पश्चात् अनुसूची के तीसरे स्तम्भ में उसके लिए विनिर्दिष्ट समय से अन्यथा अनुज्ञात की जाती।

(2) जहां ऐसा व्यक्ति, उस समय से जिससे विहित अवधि की गणना की जानी है, दो ऐसी विकलांगताओं से प्रभावित है, या जहां उसकी विकलांगता समाप्त होने से पूर्व वह किसी अन्य विकलांगता से प्रभावित है, वहां वह दोनों विकलांगताओं के समाप्त हो जाने के पश्चात् उसी अवधि के भीतर वाद संस्थित कर सकेगा या आवेदन कर सकेगा, जैसा कि अन्यथा इस प्रकार विनिर्दिष्ट समय से अनुज्ञात किया जाता।

(3) जहां विकलांगता उस व्यक्ति की मृत्यु तक जारी रहती है, वहां उसका विधिक प्रतिनिधि मृत्यु के पश्चात उसी अवधि के भीतर वाद प्रवर्तित (instituted) कर सकता है या आवेदन कर सकता है, जैसा कि अन्यथा विनिर्दिष्ट समय से अनुज्ञात किया जाता।

(4) जहां उपधारा (3) में निर्दिष्ट विधिक प्रतिनिधि, उस व्यक्ति की मृत्यु की तारीख को, जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है, किसी ऐसी निर्योग्यता से प्रभावित है, वहां उपधारा (1) और (2) में अंतर्विष्ट नियम लागू होंगे।

(5) जहां विकलांगता के अधीन कोई व्यक्ति विकलांगता समाप्त होने के पश्चात्, किन्तु इस धारा के अधीन उसे दी गई अवधि के भीतर मर जाता है, तो उसका विधिक प्रतिनिधि मृत्यु के पश्चात् उसी अवधि के भीतर वाद संस्थित कर सकता है या आवेदन कर सकता है, जो अन्यथा उस व्यक्ति को उपलब्ध होती यदि उसकी मृत्यु नहीं हुई होती।

स्पष्टीकरण: इस धारा के प्रयोजनों के लिए, “नाबालिग” में गर्भ (Womb) में पल रहा बच्चा भी शामिल है।

धारा 7.  कई व्यक्तियों में से एक की निःशक्तता

जहां वाद संस्थित करने या डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन करने के लिए संयुक्त रूप से हकदार कई व्यक्तियों में से एक व्यक्ति किसी ऐसी निर्योग्यता के अधीन है और ऐसे व्यक्ति की सहमति के बिना उन्मोचन  (discharge)दिया जा सकता है, वहां उन सबके विरुद्ध समय चलेगा; किन्तु जहां ऐसा उन्मोचन नहीं दिया जा सकता, वहां उनमें से किसी के विरुद्ध तब तक समय नहीं चलेगा जब तक उनमें से कोई अन्य व्यक्तियों की सहमति के बिना ऐसा उन्मोचन देने में समर्थ न हो जाए या जब तक निर्योग्यता समाप्त न हो जाए।

स्पष्टीकरण 1 .–यह धारा प्रत्येक प्रकार के दायित्व से उन्मोचन को लागू होती है, जिसके अंतर्गत किसी स्थावर संपत्ति के संबंध में दायित्व भी है।

स्पष्टीकरण 2 – इस धारा के प्रयोजनों के लिए, मिताक्षरा कानून द्वारा शासित हिंदू अविभाजित परिवार का प्रबंधक परिवार के अन्य सदस्यों की सहमति के बिना तभी उन्मोचन देने में सक्षम समझा जाएगा, जब वह संयुक्त परिवार की संपत्ति का प्रबंधन करता हो।

धारा 8.   विशेष अपवाद

धारा 6 या धारा 7 की कोई बात पूर्वाधिकार (pre-emption)के अधिकारों को लागू करने के मुकदमों पर लागू नहीं होगी, या किसी वाद या आवेदन के लिए परिसीमा अवधि को निर्योग्यता की समाप्ति या उससे प्रभावित व्यक्ति की मृत्यु से तीन वर्ष से अधिक के लिए बढ़ाने वाली नहीं समझी जाएगी

धारा 9.   समय का निरन्तर चलना

जहां एक बार समय चलना शुरू हो गया है, वहां मुकदमा चलाने या आवेदन करने में कोई बाद की अक्षमता या असमर्थता उसे रोक नहीं सकती:

परंतु, जहां किसी ऋणदाता (creditor) की संपदा के लिए प्रशासन-पत्र उसके देनदार (debtor) को प्रदान कर दिए गए हैं, वहां ऋण वसूलने के लिए वाद की सीमा-अवधि का चलना, प्रशासन जारी रहने तक निलंबित कर दिया जाएगा।

धारा 10. ट्रस्टियों और उनके प्रतिनिधियों के विरुद्ध मुकदमा

अगर किसी व्यक्ति की संपत्ति किसी खास (विशेष) काम के लिए ट्रस्ट (न्यास) के रूप में रख दी गई है, तो उस व्यक्ति के खिलाफ — या उसके कानूनी वारिसों या ऐसे लोगों के खिलाफ जिन्हें वो संपत्ति मुफ्त में मिली हो —

कोई भी मुकदमा इस बात को लेकर नहीं रोका जाएगा कि:

उन्होंने वो संपत्ति अपने पास रखी हुई है, या वे उस संपत्ति या उसकी कमाई (आय) का हिसाब-किताब नहीं दे रहे हैं।

मतलब: ट्रस्ट की संपत्ति या उसकी कमाई के मामले में मुकदमा करने की समयसीमा (limitation period) लागू नहीं होगी। चाहे जितना भी समय बीत गया हो, मुकदमा किया जा सकता है।

 

स्पष्टीकरण (Explanation):

अगर कोई संपत्ति हिंदू, मुस्लिम या बौद्ध धर्म की पूजा, धर्म या दान (charity) से जुड़ी है, तो वह मानी जाएगी कि वह एक “न्यासी” (trust) संपत्ति है।

और उसका देखभाल करने वाला (manager) व्यक्ति “न्यासी” (trustee) माना जाएगा।

याद रखने के लिए मुख्य बिंदु:

कोई समयसीमा नहीं – धार्मिक या दान की संपत्ति के लिए मुकदमा करने पर कोई रोक नहीं, चाहे कितना भी समय बीत जाए।

न्यासी कौन? – जो संपत्ति का देखभाल करता है, वह न्यासी कहलाएगा।

धार्मिक ट्रस्ट की संपत्ति शामिल – हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध धर्म की दान संपत्ति इसमें आती है।

धारा 11 – उन राज्यक्षेत्रों के बाहर की गई संविदाओं (contracts) पर वाद (cases), जिन पर यह अधिनियम लागू होता है।

(1) अगर कोई अनुबंध (contract) जम्मू-कश्मीर या किसी विदेशी देश में किया गया हो, और उसके बारे में भारत के उस हिस्से में केस किया गया हो जहाँ यह अधिनियम लागू होता है, तो ऐसे केस इस अधिनियम के टाइम लिमिट (परिसीमा) के नियमों के अनुसार ही देखे जाएंगे।

(2) अगर जम्मू-कश्मीर या किसी विदेशी देश में कोई अन्य लिमिटेशन कानून लागू है,
तो उस कानून को भारत में केस रोकने के लिए तब तक इस्तेमाल नहीं किया जा सकता जब तक:

(a) उस विदेशी/राज्य के कानून ने अनुबंध को खत्म (terminate) कर दिया हो, और

(b) केस करने वाले पार्टियाँ (लोग) उस समय उसी राज्य या विदेशी देश में रह रहे थे (adhibit = residing)

धारा 12.   विधिक कार्यवाही में समय का बहिष्करण (Exclusion)

 

(1) किसी वाद, अपील या आवेदन के लिए परिसीमा अवधि की गणना करते समय, वह दिन जिससे ऐसी अवधि की गणना की जानी है, निकाल दिया जाएगा।

 

(2) किसी अपील या अपील की इजाजत के लिए या किसी निर्णय के पुनरीक्षण या पुनर्विलोकन के लिए आवेदन के लिए परिसीमा अवधि की संगणना  (computing) करने में, वह दिन जिसको परिवादित (Complained) निर्णय सुनाया गया था और उस डिक्री, दण्डादेश या आदेश की प्रति प्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय, जिसके बारे में अपील की गई है या जिसका पुनरीक्षण या पुनर्विलोकन चाहा गया है, अपवर्जित (excluded) कर दिया जाएगा।

 

(3) जहां किसी डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील की जाती है या उसका पुनरीक्षण या पुनर्विलोकन अपेक्षित (sought) होता है, या जहां किसी डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील करने की इजाजत के लिए आवेदन किया जाता है, वहां निर्णय की प्रति प्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय भी अपवर्जित कर दिया जाएगा।

 

(4) किसी निर्णय (Award) को अपास्त (set aside) करने के लिए आवेदन की परिसीमा अवधि की गणना करते समय, निर्णय की प्रति प्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय को छोड़ दिया जाएगा।

 

स्पष्टीकरण –इस धारा के अधीन किसी डिक्री या आदेश की प्रतिलिपि प्राप्त करने के लिए अपेक्षित समय की गणना करते समय, प्रतिलिपि के लिए आवेदन किए जाने के पूर्व डिक्री या आदेश को तैयार करने में न्यायालय द्वारा लिया गया समय अपवर्जित नहीं किया जाएगा

याद रखने वाले मुख्य बिंदु:

  1. गिनती का पहला दिन नहीं गिनते।
  2. फैसले की तारीख और उसकी कॉपी लेने का समय – लिमिटेशन से बाहर।
  3. Review / Revision / Appeal में – निर्णय की प्रति मिलने का समय लिमिटेशन में नहीं आएगा।
  4. कोर्ट द्वारा निर्णय तैयार करने में लगा समय लिमिटेशन से बाहर नहीं होगा।

 

धारा 13.   ऐसे मामलों में समय का बहिष्करण जहां निर्धन के रूप में वाद लाने या अपील करने की अनुमति के लिए आवेदन किया गया हो

अगर कोई व्यक्ति:

निर्धन (गरीब) के रूप में केस (वाद) या अपील करने की अनुमति मांगता है, और कोर्ट उसकी यह अनुमति अस्वीकार (reject) कर देता है,

तो: जितना समय उस व्यक्ति ने ईमानदारी से (सद्भावपूर्वक) यह अनुमति पाने में लगाया, वह समय लिमिटेशन (परिसीमा) की गणना में नहीं जोड़ा जाएगा

अगर वह व्यक्ति बाद में न्यायालय शुल्क (court fees) देकर वही वाद या अपील दोबारा दायर करता है,

तो कोर्ट उस वाद/अपील को ऐसा मान सकता है जैसे शुरुआत में ही फीस दी गई थी, यानी केस वैध (valid) माना जाएगा, समय सीमा की वजह से खारिज नहीं किया जाएगा।

याद रखने लायक मुख्य बातें:

  • निर्धन व्यक्ति की याचिका (permission to sue as poor) अगर खारिज हो जाए, तो उस याचिका में लगे समय को परिसीमा से बाहर माना जाएगा,
  • और जब वो व्यक्ति बाद में फीस देकर केस करे, कोर्ट उसे ऐसा मानेगा जैसे फीस पहले ही दी गई थी।

 

धारा 14. अधिकारिता के बिना न्यायालय में सद्भावपूर्वक कार्यवाही के समय का बहिष्करण।

 

(1) वाद (suit) के मामले में:

अगर वादी (plaintiff) ने कोई सिविल केस (चाहे वह पहले कोर्ट में हो, अपील में या रिविज़न में) किसी और कोर्ट में किया:

  • जो उसी विवाद पर आधारित हो,
  • और उसने वो केस ईमानदारी (सद्भावपूर्वक) और मेहनत से चलाया हो,
  • लेकिन वह कोर्ट उस केस को सुनने के अधिकार (jurisdiction) के बिना हो, या इसी तरह की कोई कमी हो,

तो उस पूरे समय को लिमिटेशन से बाहर माना जाएगा।     

(2) आवेदन (application) के मामले में:

अगर कोई व्यक्ति किसी अन्य कोर्ट में वही राहत (relief) मांग रहा था:

  • उसी प्रतिवादी के खिलाफ,
  • और वो केस ईमानदारी से चलाया गया था,
  • पर वो कोर्ट अधिकार के अभाव या उसी तरह की किसी कमी की वजह से केस नहीं सुन सका,

तो उस समय को भी लिमिटेशन से बाहर कर दिया जाएगा।

(3) जहाँ पुराना केस वापस लेकर नया केस डाला गया हो (CPC Order 23, Rule 1 और 2):

अगर पुराना केस कोर्ट ने यह मानकर वापस लेने दिया कि उसमें jurisdiction की गलती है, तो जब नया केस डाला जाए,

तब भी धारा 14 लागू होगी, और पुराना केस चलने का समय लिमिटेशन से बाहर गिना जाएगा।

स्पष्टीकरण (Explanation):

(a) केस की शुरुआत और अंत की तारीखें गिनी जाएंगी,
बाकी जो समय केस कोर्ट में लंबित (pending) रहा, वो लिमिटेशन से बाहर गिना जाएगा।

(b) अगर कोई वादी अपील का विरोध कर रहा है, तो उसे भी ऐसा माना जाएगा कि वह कार्यवाही चला रहा था।

(c) अगर पक्षकार (parties) या कारण (cause of action) का गलत संयोजन हुआ है,
तो वह भी jurisdiction की तरह की गलती मानी जाएगी।

मुख्य बातें याद रखने के लिए:

  1. अगर केस गलत कोर्ट में चला और वह कोर्ट jurisdiction के कारण केस नहीं सुन सका, तो वह समय लिमिटेशन से बाहर कर दिया जाएगा।
  2. वादी को ईमानदारी और तत्परता से केस चलाना चाहिए था।
  3. Order 23 Rule 2 of CPC के तहत वापस लिया गया केस भी इस धारा के तहत कवर होगा।

धारा 15 – कुछ अन्य मामलों में समय का बहिष्करण

(1) अगर कोई मुकदमा या आवेदन किसी डिक्री (court order) को लागू (execute) करने के लिए किया गया हो और कोर्ट ने उसे रोक रखा हो (stay order), तो वो समय नहीं गिना जाएगा जब तक वो रोक जारी रही। यानी जिस दिन रोक लगी और जिस दिन हटाई गई दोनों दिन मिलाकर उस पूरी अवधि को हटा दो।

(2) अगर किसी मुकदमे के लिए पहले सरकार या किसी प्राधिकारी से मंजूरी या अनुमति (approval/sanction) लेनी जरूरी हो,
तो वो समय नहीं गिना जाएगा जो उस मंजूरी को लेने में लगा।
स्पष्टीकरण (Explanation)
मंजूरी लेने के लिए जिस दिन आवेदन किया गया और जिस दिन मंजूरी मिली, दोनों दिन गिने जाएंगे, बाकी का समय निकाल देंगे।

(3) अगर किसी व्यक्ति को दिवालिया (insolvent) घोषित किया गया हो या किसी कंपनी की लिक्विडेशन (परिसमापन) चल रही हो, और रिसीवर या परिसमापक मुकदमा या डिक्री लागू करने की कोशिश कर रहा हो, तो उसकी नियुक्ति की तारीख से तीन महीने तक का समय हटा दिया जाएगा

(4) अगर कोई डिक्री के आधार पर खरीदार कब्जा लेना चाहता है और बीच में विक्रय को रद्द (sale cancellation) करने की प्रक्रिया चली है, तो वो समय नहीं गिना जाएगा जब तक वो प्रक्रिया चलती रही।

(5) अगर जिस पर मुकदमा चलाना है (Defendant), वह भारत से बाहर चला गया हो,
तो उसके बाहर रहने का समय नहीं गिना जाएगा

याद रखने योग्य बातें

(1) Court Stay Order – जब तक कोर्ट की रोक (Stay) जारी, वो समय गिनना नहीं है।

(2) Government Approval – जहाँ सरकारी मंजूरी चाहिए, मंजूरी लेने का समय नहीं गिनना।

Explanation – मंजूरी के लिए आवेदन और मंजूरी मिलने वाले दिन – दोनों गिने जाएंगे।

(3) Insolvency/Liquidation Cases – रिसीवर/परिसमापक की नियुक्ति से 3 महीने तक का समय हटाना है।

(4) Sale Cancellation Cases – जब तक विक्रय रद्द करने की कार्रवाई चल रही हो, वो समय गिनना नहीं।

(5) Defendant Outside India – जब प्रतिवादी भारत से बाहर रहा, वो समय भी नहीं गिनना।

धारा 16 – वाद लाने के अधिकार के उपार्जन पर या उससे पूर्व मृत्यु का प्रभाव (Effect of death before right to sue accrues)

(1) Plaintiff की मृत्यु पहले हो जाए

अगर वह व्यक्ति जिसकी मौत हो गई, अगर जीवित होता तो मुकदमा कर सकता था,
या मुकदमे का अधिकार उसकी मौत से ही शुरू होता, तो लिमिटेशन तब से गिने जब उसका legal representative मुकदमा करने लायक हो।

(2) Defendant की मृत्यु पहले हो जाए

अगर वह व्यक्ति जिसकी मौत हो गई, अगर जीवित होता तो उसके खिलाफ मुकदमा हो सकता था, या उसकी मौत पर ही मुकदमे का अधिकार उत्पन्न होता,
तो लिमिटेशन तब से गिने जब ऐसा legal representative मौजूद हो जिसके खिलाफ मुकदमा हो सके।

(3) अपवाद (Exception):

यह धारा तीन मामलों पर लागू नहीं होती:

पूर्वक्रय अधिकार (Right of pre-emption) के वाद
स्थावर संपत्ति (Immovable property) के कब्जे के वाद
वंशानुगत पद (Hereditary office) के कब्जे के वाद

धारा 17 – कपट या भूल का प्रभाव (Effect of Fraud or Mistake)

(1) लिमिटेशन तब नहीं शुरू होती जब तक…

निम्नलिखित स्थितियों में परिसीमा (Limitation) की गणना तब से होगी जब वादी को असली स्थिति पता चले, या उसे पता चल जाना चाहिए था:

(a) मुकदमा/आवेदन धोखाधड़ी (fraud) पर आधारित है।

(b) जिस अधिकार पर मुकदमा है, धोखे से छिपाया गया हो।

(c) मुकदमा किसी भूल (mistake) को सुधारने के लिए हो।

(d) जरूरी दस्तावेज कपटपूर्वक छिपाया गया हो।

Note: छिपे हुए दस्तावेज़ के मामले में लिमिटेशन तब तक नहीं चलेगी जब तक वादी के पास दस्तावेज को पेश करने या मजबूर करने का साधन ना हो।

परंतु (Exception):

नीचे दी गई परिस्थितियों में यह धारा मदद नहीं करेगी – यानी वाद नहीं किया जा सकता:

अगर संपत्ति या लेन-देन:

(i) धोखाधड़ी के बावजूद किसी ऐसे व्यक्ति ने खरीदी हो जिसने धोखाधड़ी नहीं की, और खरीदते समय उसे धोखे का पता ना हो

(ii) भूल के बाद, अगर किसी व्यक्ति ने कीमत देकर खरीदी हो, और उसे गलती के बारे में पता ना हो

(iii) छिपे हुए दस्तावेज के मामले में, अगर दस्तावेज़ ऐसे व्यक्ति ने खरीदा हो जिसने उसे छिपाया नहीं था, और उसे छिपाए जाने की जानकारी ना हो

(2) डिक्री के निष्पादन में धोखाधड़ी या बल

अगर डिक्री के निष्पादन (execution) को धोखाधड़ी या बल से रोका गया हो, तो कोर्ट लिमिटेशन के बाद भी execution की अनुमति दे सकती है, बशर्ते वादी एक साल के अंदर आवेदन करे जब उसे धोखाधड़ी या बल का पता चले।

धारा 18 – लिखित में पावती का प्रभाव

(1) जहां कोई व्यक्ति किसी संपत्ति या अधिकार के बारे में मुकदमा (वाद) या आवेदन करने वाला हो, और उसके लिए जो परिसीमा (limitation) की समय-सीमा तय की गई है, अगर उस समय-सीमा के खत्म होने से पहले उस संपत्ति या अधिकार के दायित्व (liability) को
 उस व्यक्ति द्वारा जिसके खिलाफ दावा है,
या  ऐसे किसी व्यक्ति द्वारा जिससे वह अधिकार या दायित्व प्राप्त करता है,
हस्ताक्षर करके लिखित रूप में स्वीकार (acknowledge) कर दिया गया है,
तो नई लिमिटेशन की गिनती उस तारीख से होगी जब पावती पर हस्ताक्षर किए गए थे।

(2) अगर वह अभिस्वीकृति (acknowledgment) वाला पत्र दिनांकित नहीं है,
तो यह साबित करने के लिए मौखिक गवाही दी जा सकती है कि उस पर कब हस्ताक्षर हुआ था,
लेकिन, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के अनुसार,
उस पत्र में जो लिखा है, उसका मौखिक प्रमाण (oral evidence) नहीं दिया जा सकता

 स्पष्टीकरण – (Explanation):

(a) एक पावती तब भी मान्य (valid) मानी जाएगी, भले ही उसमें:

  • संपत्ति या अधिकार की सही प्रकृति (exact nature) ना लिखी हो,
  • यह लिखा हो कि भुगतान, सुपुर्दगी, निष्पादन या उपभोग का समय अभी नहीं आया है,
  • यह लिखा हो कि भुगतान, सुपुर्दगी आदि की अनुमति नहीं दी जा रही है,
  • वह सेट-ऑफ (adjustment/मुआवजा) की शर्त के साथ जुड़ी हो,
  • वह किसी अन्य व्यक्ति को संबोधित की गई हो, न कि असली हकदार को।

(b) “हस्ताक्षरित (signed)” का मतलब है:

  • या तो स्वयं उस व्यक्ति ने हस्ताक्षर किए हों,
  • या कानून के अनुसार अधिकृत उसके एजेंट (agent) ने

(c) अगर कोई आवेदन किसी डिक्री या आदेश के निष्पादन (execution) के लिए किया गया है, तो उसे इस धारा के अनुसार संपत्ति या अधिकार के संबंध में आवेदन नहीं माना जाएगा।

याद रखने की ट्रिक:

लिखित + हस्ताक्षरित पावती = लिमिटेशन फिर से शुरू होती है।

धारा 19 – ऋण या विरासत पर ब्याज के भुगतान का प्रभाव

मुख्य बात (Main Provision):

जहां किसी ऋण (loan) या विरासत (inheritance) पर जो ब्याज (interest) देय है,
उसका कोई भुगतान उस व्यक्ति द्वारा किया जाता है
जो उस ऋण या विरासत का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी (liable) है,
या  उसके विधिवत् प्राधिकृत (legally authorized) एजेंट द्वारा,
और यह भुगतान परिसीमा अवधि खत्म होने से पहले किया गया हो,
तो फिर नई परिसीमा अवधि की गिनती उस तारीख से की जाएगी जब भुगतान किया गया था।

बशर्ते (Proviso):

1 जनवरी 1928 से पहले किए गए ब्याज के भुगतान को छोड़कर,
भुगतान की पावती (acknowledgment)
 या तो भुगतान करने वाले के अपने हाथ के लेख में हो,
 या उसके द्वारा हस्ताक्षरित लिखित दस्तावेज में होनी चाहिए।

स्पष्टीकरण (Explanation):

(a) अगर कोई बंधक (mortgaged) भूमि
 बंधकदार (mortgagee) के कब्जे में है,
तो उस भूमि के किराये (rent) या उपज (produce) की प्राप्ति को
 ब्याज का भुगतान माना जाएगा।

(b) “ऋण (loan)” में
 ऐसा कोई धन शामिल नहीं है जो
 न्यायालय के आदेश या डिक्री के तहत देय हो।

याद रखने का सूत्र:

ब्याज का भुगतान अगर समय पर किया गया हो + उसकी लिखित पावती हो = नई लिमिटेशन शुरू होती है।

धारा 20 – किसी अन्य व्यक्ति द्वारा पावती या भुगतान का प्रभाव

मुख्य बातें (Main Provisions):

(1) धारा 18 और 19 में जो “इस निमित्त विधिवत् प्राधिकृत अभिकर्ता” (legally authorized agent) शब्द आता है,
 यदि कोई व्यक्ति विकलांग (disabled) है, तो उसकी जगह उसका विधिक संरक्षक (legal guardian), समिति (committee), या प्रबंधक (manager)
 ऐसे संरक्षक, समिति या प्रबंधक द्वारा अभिस्वीकृति (acknowledgment) पर हस्ताक्षर करने या भुगतान करने के लिए विधिवत् प्राधिकृत अभिकर्ता माना जाएगा।

(2) उपर्युक्त धाराओं में यह नहीं कहा गया कि किसी व्यक्ति को केवल संयुक्त ठेकेदारों, भागीदारों, निष्पादकों या बंधकदारों में से किसी एक को
केवल इस आधार पर प्रभार्य (liable) बना दिया जाए
 कि किसी अन्य व्यक्ति द्वारा या उनके एजेंट द्वारा हस्ताक्षरित लिखित अभिस्वीकृति या भुगतान किया गया है।

स्पष्टीकरण (Explanation):

(3) उपर्युक्त धाराओं के प्रयोजनों के लिए:

(a) अगर कोई संपत्ति का सीमित स्वामी (limited owner) है, या उसका विधिवत् प्राधिकृत एजेंट (legally authorized agent) है, जो कि हिंदू विधि (Hindu law) द्वारा शासित है,
 तो उस स्वामी या एजेंट द्वारा हस्ताक्षरित अभिस्वीकृति या भुगतान उस दायित्व के लिए वैध (valid) माना जाएगा, और यदि कोई उत्तरवर्ती प्रत्यावर्तक (successor) है, तो उसके खिलाफ भी वैध माना जाएगा।

(ख) अगर कोई हिंदू अविभाजित परिवार (Hindu undivided family) किसी दायित्व को स्वीकार करता है, तो उस परिवार का प्रबंधक (manager) या उसका समीप रूप से प्राधिकृत एजेंट (properly authorized agent)
 द्वारा की गई पावती या भुगतान पूरे परिवार की ओर से किया गया माना जाएगा।

 याद रखने का सूत्र:

विकलांग व्यक्ति का संरक्षक = पावती/भुगतान पर हस्ताक्षर कर सकता है।
हिंदू परिवार के प्रबंधक की पावती = पूरे परिवार की पावती।

धारा 21 – नये वादी या प्रतिवादी को प्रतिस्थापित करने या जोड़ने का प्रभाव

 

 मुख्य बात (Main Provision):

(1) अगर कोई वाद (case) वाद दायर होने के बाद,
कोई नया वादी (plaintiff) या नया प्रतिवादी (defendant) जोड़ा या प्रतिस्थापित (replaced) किया जाता है,
 तो उस नए व्यक्ति के संबंध में वाद वही दिन माना जाएगा
जिस दिन वह व्यक्ति पक्षकार (party) बनाया गया।

परंतु, अगर न्यायालय को यह लगे कि
 नए वादी या प्रतिवादी को जोड़ने में देरी या चूक सच्ची और ईमानदार गलती (good faith mistake) के कारण हुई थी,
 तो न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि
उस वादी या प्रतिवादी के संबंध में वाद को पहले की किसी तारीख को दाखिल किया गया माना जाए।

जहां यह धारा लागू नहीं होती:

(2) उपधारा (1) की कोई बात उन मामलों में लागू नहीं होती, जहां—

 वाद के लंबित रहने के दौरान (while pending),
 किसी पक्ष का हित किसी और को स्थानांतरित किया गया हो (assignment of interest)
या
 जहां वादी को प्रतिवादी बनाया गया हो, या प्रतिवादी को वादी बनाया गया हो।

 याद रखने का सूत्र:

नया पक्षकार जोड़े जाने पर → वाद उसी दिन से माना जाएगा जब उसे जोड़ा गया।
परंतु अगर चूक ईमानदार गलती थी → कोर्ट कह सकता है कि पहले की तारीख से मानो।
लेकिन जब बीच वाद में स्वामित्व बदला या वादी-प्रतिवादी आपस में बदले → ये धारा नहीं लगेगी।

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धारा 22 – निरंतर उल्लंघन और अपकृत्य

अगर कोई संविदा (contract) बार-बार तोड़ी जाती है या
कोई नुकसान (injury) लगातार किया जाता है,
तो:
हर उस क्षण (moment) पर जब उल्लंघन या नुकसान जारी रहता है,
 एक नई परिसीमा अवधि (new limitation period) शुरू होती है

 याद रखने का सूत्र:

जब तक तोड़ना या नुकसान चल रहा है, तब तक हर पल नई गिनती शुरू!

धारा 23 – विशेष क्षति के बिना कार्यवाही योग्य न होने वाले कार्यों के लिए प्रतिकर के लिए वाद

अगर कोई ऐसा काम है जो तब तक वाद (case) का कारण नहीं बनता, जब तक उससे कोई स्पष्ट और खास (specific) हानि (damage) न हो जाए,
तो:
 परिसीमा की अवधि की गिनती तब से होगी
 जब वह विशिष्ट हानि वास्तव में हो जाती है

 याद रखने का सूत्र:

खास नुकसान हुआ तभी केस बनता है, और उसी दिन से गिनती शुरू होती है।

धारा 24 – लिखतों में उल्लिखित समय की गणना

इस अधिनियम (Limitation Act) के अंतर्गत,
 सभी लिखतों (documents) में जो भी तारीखें हों,
 उन्हें Gregorian Calendar के अनुसार माना जाएगा।

 याद रखने का सूत्र:

सारी तारीखें ग्रेगोरियन कैलेंडर से गिनी जाएंगी — देसी पंचांग नहीं चलेगा।

धारा 25 – नुस्खे द्वारा सुखाचार का अर्जन

(1) यदि कोई व्यक्ति किसी भवन में प्रकाश (रोशनी) या वायु (हवा) की पहुंच और उपयोग को सुखभोग के रूप में और अधिकार के रूप में, कोई रुकावट न होते हुए, शांतिपूर्वक, लगातार बीस वर्षों तक उपयोग करता है,
और यदि कोई व्यक्ति किसी मार्ग, जलमार्ग, जल या अन्य किसी सुखभोग का उपयोग चाहे वह सकारात्मक हो या नकारात्मक, शांतिपूर्वक, खुले रूप से, सुखभोग के रूप में और अधिकार के रूप में, बिना किसी रुकावट के, बीस वर्षों तक करता है,
तो ऐसे प्रकाश, वायु, मार्ग, जलमार्ग, जल या अन्य सुखभोग तक पहुंच और उपयोग का अधिकार पूर्ण और नाशरहित (जिसे खत्म नहीं किया जा सकता) हो जाता है।

(2) ऊपर बताई गई बीस वर्ष की अवधि में से हर अवधि, उस वाद (मुकदमे) के दायर होने से ठीक पहले दो वर्ष के भीतर समाप्त होने वाली अवधि मानी जाएगी, जिसमें उस दावे को चुनौती दी गई है जिससे वह अवधि जुड़ी है।

(3) यदि वह संपत्ति जिस पर उपधारा (1) के अनुसार अधिकार का दावा किया गया है, सरकार की संपत्ति है, तो उस उपधारा को ऐसा माना जाएगा मानो “बीस वर्ष” शब्दों की जगह “तीस वर्ष” शब्द रखे गए हों।

स्पष्टीकरण

इस धारा के अनुसार कोई भी बात रुकावट नहीं मानी जाएगी, जब तक कि
(1) कब्जा या उपयोग में असली रुकावट किसी ऐसे व्यक्ति के कार्य से न हुई हो जो दावेदार के अलावा है,
और
(2) जब तक कि ऐसी रुकावट को, दावेदार और वह व्यक्ति जिसने रुकावट बनाई या उसे बनाने का अधिकार दिया, उन्हें सूचित करने के बाद, एक वर्ष के भीतर अदालत में लाया न गया हो या स्वीकार न कर लिया गया हो

धारा 26 – अनुसेवक आवास के प्रत्यावर्तक (reversioner) के पक्ष में अपवर्जन

यदि कोई भूमि या जल, जिस पर या जिसके ऊपर या जिससे कोई सुखभोग लिया गया हो या जो उससे उत्पन्न हुआ हो,
किसी अधिकार के अधीन या उसके आधार पर, आजीवन या तीन वर्षों से अधिक समय के लिए किसी को दिया गया हो, तो उस सुखभोग का उपभोग करने का समय,
जब तक वह अधिकार या अवधि चलती है, बीस वर्षों की अवधि की गणना में शामिल नहीं किया जाएगा, यदि उस दावे का विरोध, उस अधिकार या अवधि के समाप्त होने के बाद, अगले तीन वर्षों के भीतर, ऐसे समाप्त होने के आधार पर उस भूमि या जल के असली हकदार द्वारा किया जाए

धारा 27 – संपत्ति के अधिकार का उन्मूलन

यदि कोई व्यक्ति किसी संपत्ति पर कब्जा लेने के लिए इस अधिनियम द्वारा तय की गई सीमा अवधि में वाद (मुकदमा) नहीं करता, तो उस व्यक्ति का उस संपत्ति पर अधिकार समाप्त हो जाएगा

धारा 28 – कुछ अधिनियमों का संशोधन

निरसन और संशोधन अधिनियम, 1974 (1974 का 56) की धारा 2 और प्रथम अनुसूची द्वारा यह धारा हटा दी गई है।

धारा 29 – बचाव  (Saving)

(1) इस अधिनियम की कोई बात भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (1872 का 9) की धारा 25 को प्रभावित नहीं करेगी।

(2) जहाँ कोई विशेष या स्थानीय विधि, किसी वाद, अपील या आवेदन के लिए अनुसूची में दी गई अवधि से अलग कोई सीमा अवधि तय करती है, वहाँ धारा 3 ऐसे लागू होगी जैसे वह अवधि अनुसूची में दी गई हो, और धारा 4 से 24 (समावेश सहित) तक की बातें केवल वहीं लागू होंगी, और उतनी ही हद तक लागू होंगी, जहाँ तक विशेष या स्थानीय विधि उन्हें साफ-साफ नहीं हटाती।

(3) विवाह और तलाक से जुड़ी जो विधि उस समय लागू हो, यदि उसमें कुछ और कहा गया हो, तो इस अधिनियम की कोई बात, उस विधि के तहत किसी वाद या कार्यवाही पर लागू नहीं होगी।

(4) धारा 25, 26 और धारा 2 में “सुविधा” की परिभाषा उन इलाकों में लागू नहीं होगी,
जहाँ भारतीय सुखाधिकार अधिनियम, 1882 (1882 का 5) पहले से लागू है।

धारा 30 – ऐसे वादों आदि के लिए उपबंध जिनके लिए पूर्व अधिनियम,1908 से कम समय है

इस अधिनियम में कुछ भी हो,

(a) यदि कोई ऐसा वाद है, जिसकी सीमा अवधि भारतीय परिसीमा अधिनियम, 1908 के अनुसार, इस अधिनियम के तहत तय सीमा अवधि से कम है,
तो वह वाद:

या तो इस अधिनियम के लागू होने के बाद 7 वर्षों के अंदर

या भारतीय परिसीमा अधिनियम, 1908 के तहत तय सीमा अवधि के अंदर
जो भी पहले समाप्त हो, उस के अंदर दायर किया जा सकता है।

परंतु
यदि वह 7 साल की अवधि, 1908 अधिनियम के अनुसार वाद के लिए तय अवधि से पहले खत्म हो जाती है,
और वह 7 साल की अवधि, उस वाद की अधिनियम के लागू होने से पहले बीत चुकी समयावधि को जोड़ने पर,
इस अधिनियम के तहत तय अवधि से कम हो,
तो वह वाद इस अधिनियम के तहत तय पूरी अवधि में दायर किया जा सकेगा।

(b) यदि कोई अपील या आवेदन है, जिसकी सीमा अवधि 1908 अधिनियम के अनुसार इस अधिनियम से कम है,
तो वह:

    • या तो इस अधिनियम के लागू होने के बाद 90 दिनों के अंदर
    • या 1908 अधिनियम के अनुसार तय सीमा अवधि में
      जो भी पहले खत्म हो, उसमें दायर किया जा सकेगा।

राज्य संशोधन (सिक्किम)
धारा 30 की जगह यह होगी:

इस अधिनियम में कुछ भी हो, कोई वाद, अपील या आवेदन जो इस अधिनियम के लागू होने से पहले दायर किया जा सकता था, और जिसकी सीमा अवधि सिक्किम में लागू विधि द्वारा तय की गई अवधि से कम है, उसे उसी अवधि में दायर किया जा सकेगा।

धारा 31 – वर्जित या लंबित वादों आदि के संबंध में उपबंध

इस अधिनियम की कोई बात:-

(a)  किसी ऐसे वाद, अपील या आवेदन को दोबारा दायर करने की इजाजत नहीं देगी
जिसकी सीमा अवधि भारतीय परिसीमा अधिनियम, 1908 के तहत, इस अधिनियम के लागू होने से पहले ही खत्म हो चुकी है

(b)  जो वाद, अपील या आवेदन इस अधिनियम के लागू होने से पहले दायर हो चुके थे और उस समय लंबित थे, उन पर कोई असर नहीं पड़ेगा।

राज्य संशोधन (सिक्किम)
धारा 31 के (a) में “भारतीय परिसीमा अधिनियम, 1908 के तहत समाप्त हो गया” की जगह “सिक्किम में इस अधिनियम के लागू होने से पहले लागू विधि के अनुसार समाप्त हो गया” पढ़ा जाएगा।

 

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