The Code of Civil Procedure, 1908
Act No. 05/1908
Effective: 01.01.1909
धारा 1 – संक्षिप्त नाम, प्रारंभ और विस्तार
(1) इस अधिनियम को “सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908” कहा जाएगा।
(2) यह 1 जनवरी, 1909 को लागू हुआ।
(3) यह संहिता संपूर्ण भारत में लागू होती है, लेकिन निम्नलिखित क्षेत्रों को छोड़कर:
• (ख) नागालैंड राज्य और जनजातीय क्षेत्र
बशर्ते कि संबंधित राज्य सरकार, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा, इस संहिता के कुछ या सभी प्रावधानों को:
o पूरे नागालैंड या उसके किसी भाग में
o जनजातीय क्षेत्रों में
लागू कर सकती है,
अनुपूरक (supplementary)
आनुषंगिक (incidental)
पारिणामिक (consequential)
उपांतरणों (modifications) के साथ।
स्पष्टीकरण:
“जनजातीय क्षेत्र” का मतलब वे क्षेत्र हैं जो 21 जनवरी, 1972 से पहले संविधान की छठी अनुसूची के पैरा 20 में बताए गए असम के जनजातीय क्षेत्रों में आते थे।
(4) आंध्र प्रदेश राज्य, लक्षद्वीप का अमीनदीवी द्वीप समूह, और
पूर्वी गोदावरी, पश्चिमी गोदावरी व विशाखापत्तनम अभिकरणों के संबंध में:
संहिता के लागू होने से पहले जो भी नियम या विनियम वहां लागू थे, उन पर इस संहिता का कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।
परीक्षा के लिए मुख्य बातें याद रखने हेतु संक्षेप में:
1. नाम – सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908
2. प्रवृत्त तिथि – 1 जनवरी, 1909
3. पूरे भारत में लागू, लेकिन नागालैंड और जनजातीय क्षेत्र छूट में हैं
4. राज्य सरकार चाहे तो अधिसूचना द्वारा वहां लागू कर सकती है
5. जनजातीय क्षेत्र – असम के वे क्षेत्र जो 21 जनवरी, 1972 से पहले छठी अनुसूची के तहत थे
6. कुछ क्षेत्र जैसे आंध्र प्रदेश और अमीनदीवी – पहले से लागू नियमों पर असर नहीं पड़ेगा
धारा 2 – परिभाषाएँ (Definitions)
(1) “संहिता” – इसमें नियम भी शामिल हैं।
मतलब: जहां “संहिता” लिखा है, वहाँ नियम भी आते हैं।
(2) “डिक्री” – न्यायालय द्वारा दी गई आधिकारिक घोषणा, जिसमें वाद के विवादित मुद्दों पर दोनों पक्षों के अधिकारों का अंतिम फैसला होता है।
यह प्रारंभिक या अंतिम हो सकती है।
इसमें ये भी शामिल हैं :
• वाद पत्र की अस्वीकृति
• धारा 144 के अंतर्गत कोई प्रश्न का निर्णय
लेकिन इसमें ये शामिल नहीं हैं:
• आदेश जिसके खिलाफ अपील हो सकती है
• चूक के कारण वाद खारिज करना
📝 स्पष्टीकरण:
• यदि आगे और कार्यवाही बाकी है → प्रारंभिक डिक्री
• यदि पूरा मामला निपट गया → अंतिम डिक्री
• आंशिक दोनों भी हो सकती है
(3) “डिक्री-धारक” – वह व्यक्ति जिसके पक्ष में डिक्री पारित हुई हो या जिसे कोई आदेश निष्पादन योग्य मिला हो।
(4) “जिला” – उस क्षेत्र को कहते हैं जहाँ कोई मुख्य सिविल न्यायालय (जिला न्यायालय) अधिकार रखता है।
(5) “विदेशी न्यायालय” – भारत के बाहर का ऐसा न्यायालय जो केंद्र सरकार ने स्थापित नहीं किया है।
(6) “विदेशी निर्णय” – ऐसा निर्णय जो विदेशी न्यायालय ने दिया हो।
(7) “सरकारी वकील” – राज्य सरकार द्वारा नियुक्त वह व्यक्ति जो इस संहिता के तहत सरकारी कार्य करता है या सरकारी वकील के अधीन कार्य करता है।
(7A) “उच्च न्यायालय” (अंडमान निकोबार हेतु) – मतलब कलकत्ता उच्च न्यायालय।
(7B) “भारत” – जम्मू-कश्मीर को छोड़कर भारत का क्षेत्र, लेकिन कुछ धाराओं (जैसे 1, 29, 43, 44…) के लिए अलग समझा जाएगा।
(8) “न्यायाधीश” – सिविल न्यायालय का पीठासीन अधिकारी।
(9) “निर्णय” – वह कथन, जो डिक्री या आदेश के आधारों पर न्यायाधीश द्वारा दिया जाता है।
(10) “निर्णायक ऋणी” – वह व्यक्ति जिसके विरुद्ध डिक्री या आदेश पारित हुआ हो।
(11) “कानूनी प्रतिनिधि” – जो व्यक्ति कानून के अनुसार मृत व्यक्ति की संपत्ति को संभालता या हस्तक्षेप करता है।
(12) “अन्तरस्थ लाभ (mesne profits)” – वह लाभ जो किसी ने गलत तरीके से कब्जाई संपत्ति से कमाया या कमा सकता था, सुधारों से हुआ लाभ इसमें नहीं आता।
(13) “चल संपत्ति” – इसमें खड़ी फसलें भी आती हैं।
(14) “आदेश” – सिविल न्यायालय के ऐसे निर्णय की औपचारिक अभिव्यक्ति, जो डिक्री नहीं है।
(15) “वकील” – जो न्यायालय में पेश होकर किसी और के लिए बहस कर सकता है, चाहे वह अधिवक्ता, वकील या एटॉर्नी हो।
(16) “निर्धारित” – जो नियमों द्वारा निर्धारित किया गया हो।
(17) “लोक अधिकारी” – निम्नलिखित लोग:
• (क) न्यायाधीश
• (ख) अखिल भारतीय सेवा के सदस्य
• (ग) सेना/नौसेना/वायु सेना के राजपत्रित अधिकारी
• (घ) अदालतों में रिपोर्ट या दस्तावेज बनाने, प्रमाणित करने, संपत्ति संभालने वाले
• (ङ) जो किसी को हिरासत में रखने का अधिकार रखते हों
• (च) जो अपराध रोकने या कानून व्यवस्था बनाए रखने का कार्य करते हों
• (छ) जो सरकारी संपत्ति, खर्च, सर्वे आदि का कार्य करें
• (ज) जो सरकार की सेवा में हैं या वेतन/फीस/कमीशन पाते हैं
(18) “नियम” – वे नियम जो:
• प्रथम अनुसूची में हैं, या
• धारा 122 या 125 के तहत बनाए गए हैं।
(19) “निगम में शेयर” – इसमें शेयर, स्टॉक, डिबेंचर, बांड आदि शामिल हैं।
(20) “हस्ताक्षरित” – इसमें (निर्णय या डिक्री छोड़कर) स्टांपित भी शामिल है।
परीक्षा के लिए मुख्य बातें याद करने की टिप्स:
• डिक्री vs आदेश → बहुत महत्वपूर्ण अंतर
• डिक्री-धारक vs निर्णय ऋणी
• लोक अधिकारी के 8 प्रकार – याद रखें!
• “विदेशी न्यायालय/निर्णय” का मतलब
• “कानूनी प्रतिनिधि” – संपत्ति का संभालने वाला
• “अंतरस्थ लाभ” – गलत कब्जे से प्राप्त लाभ
धारा 3 – न्यायालयों की अधीनता (Section 3 – Subordination of Courts)
इस संहिता के उद्देश्यों के लिए:
• जिला न्यायालय, उच्च न्यायालय के अधीनस्थ (नीचे) होगा।
• और जिला न्यायालय से नीचे के सभी सिविल न्यायालय तथा हर लघु वाद न्यायालय —
➤ उच्च न्यायालय और जिला न्यायालय, दोनों के अधीनस्थ होंगे।
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सरल याद रखने का तरीका:
• उच्च न्यायालय > जिला न्यायालय > अधीनस्थ सिविल/लघुवाद न्यायालय
• मतलब सभी छोटे न्यायालय दोनों से नीचे माने जाएंगे — उच्च और जिला दोनों।
धारा 4 – बचत (Saving) (Section 4 – Saving)
(1) अगर इस संहिता में कोई विशेष (Specific) नियम नहीं है,
तो इसे ऐसा नहीं समझा जाएगा कि –
• यह संहिता किसी वर्तमान में लागू (currently in force) विशेष या स्थानीय कानून को,
• या दी गई किसी विशेष अधिकारिता या शक्ति को,
• या किसी अन्य लागू कानून के तहत अपनाई गई खास प्रक्रिया को
सीमित करती है या प्रभावित करती है।
सरल शब्दों में:
अगर किसी और कानून में पहले से कोई विशेष प्रावधान है, तो यह संहिता उसे हटाएगी नहीं — जब तक इसमें खुद साफ-साफ न कहा गया हो।
(2) पहली उपधारा में जो बात कही गई है, उसकी व्यापकता (breadth) को कम किए बिना —
यह भी कहा गया है कि:
• यह संहिता किसी भूमिधारक (tenant) या जमींदार (landlord) को
• कृषि भूमि के किराए की वसूली
• ऐसी भूमि की उपज (produce) से करने के अधिकार को, जो उन्हें किसी वर्तमान कानून के तहत मिला है, सीमित नहीं करेगी या उस पर असर नहीं डालेगी।
सरल याद रखने का तरीका:
• इस धारा का उद्देश्य है – पुराने कानून, स्थानीय कानून, या खास अधिकार को बचाना।
• CPC किसी विशेष या क्षेत्रीय प्रक्रिया या अधिकार को खत्म नहीं करता।
• खासकर – जमींदार को फसल से किराया वसूलने के अधिकार पर कोई असर नहीं।
धारा 5 – राजस्व न्यायालयों में संहिता का लागू होना (Section 5 – Application of the Code to Revenue Courts)
(1)
• जहाँ कोई राजस्व न्यायालय (Revenue Court)
• ऐसे विषयों पर काम कर रहा हो,
• जिन पर कोई विशेष अधिनियम (Special Act) कुछ नहीं कहता हो (मौन हो),
• लेकिन इस संहिता (CPC) में नियम बने हुए हैं —
तो:
राज्य सरकार
राजपत्र (Official Gazette) में घोषणा कर सकती है कि:
• CPC के वे भाग,
जो सीधे इन राजस्व न्यायालयों पर लागू नहीं हैं,
उन्हें या तो:
o लागू नहीं किया जाएगा, या
o कुछ बदलावों (modifications) के साथ लागू किया जाएगा,
जो राज्य सरकार द्वारा तय (विहित) किए जाएँगे।
(2) “राजस्व न्यायालय” का मतलब:
• ऐसा न्यायालय जिसे
• स्थानीय कानून के तहत
• कृषि प्रयोजन (agricultural purpose) की भूमि से जुड़े —
o किराया,
o राजस्व, या
o लाभ (profit)
से संबंधित वादों या कार्यवाहियों (cases or proceedings) पर विचार करने का अधिकार मिला हो।
लेकिन ध्यान दें:
• इसका मतलब सिविल न्यायालय नहीं है,
• भले ही वह सिविल प्रकृति के ऐसे वादों पर अधिकार रखता हो।
सरल याद रखने के लिए मुख्य बातें:
1. CPC सीधे राजस्व न्यायालयों पर लागू नहीं होती, जब तक कि कोई विशेष कानून मौन हो।
2. राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा तय कर सकती है कि कौनसे हिस्से लागू होंगे और कौनसे नहीं।
3. राजस्व न्यायालय का मतलब है – ऐसा न्यायालय जो खेती से जुड़ी भूमि के किराया, राजस्व आदि के मामले देखता है, लेकिन सिविल न्यायालय नहीं।
धारा 6 – आर्थिक अधिकारिता (Section 6 – Pecuniary Jurisdiction)
मूल अर्थ:
• जब तक किसी जगह पर स्पष्ट रूप से कुछ और नहीं कहा गया हो,
• तब तक इस संहिता (CPC) में जो भी बातें लिखी हैं,
• वे किसी न्यायालय को ऐसे मुकदमों पर निर्णय देने का अधिकार नहीं देतीं,
• जिनकी राशि (Amount) या मूल्य (Value) उस न्यायालय की
आर्थिक (धन संबंधी) सीमाओं से ज्यादा हो।
सरल शब्दों में समझें:
“अगर किसी मुकदमे में माँगी गई रकम किसी कोर्ट की सीमा से ज्यादा है,
तो वह कोर्ट उस मुकदमे को नहीं सुन सकता – जब तक कि कोई कानून खास तौर पर उसकी अनुमति न दे।”
मुख्य बिंदु (For Memorization):
1. CPC खुद से कोर्ट को आर्थिक अधिकार नहीं देती।
2. कोर्ट की धन संबंधी सीमा से ज़्यादा रकम वाले मुकदमे उसी कोर्ट में नहीं चल सकते।
3. अगर कोई विशेष प्रावधान नहीं है, तो कोर्ट अपने तय आर्थिक दायरे तक ही केस सुन सकता है।
धारा 7 – प्रांतीय लघु वाद न्यायालय (Provincial Small Cause Courts)
सरल हिंदी अनुवाद व व्याख्या:
यह धारा बताती है कि सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) का कौन-सा भाग ‘प्रांतीय लघु वाद न्यायालय’ (Provincial Small Cause Courts) पर लागू होता है और कौन-सा नहीं।
यह नियम लागू होते हैं—
उन न्यायालयों पर जो गठित हुए हैं:
• प्रांतीय लघुवाद न्यायालय अधिनियम, 1887 के तहत, या
• बरार लघुवाद न्यायालय कानून, 1905 के तहत, या
• भारत के ऐसे हिस्सों में जो उपरोक्त अधिनियमों के अंतर्गत नहीं आते, लेकिन उसी तरह का अधिकार क्षेत्र रखते हैं।
CPC के कौन-से हिस्से इन न्यायालयों पर लागू होते हैं –
(क) CPC का वो भाग जो निम्न से संबंधित है:
1. ऐसे मुकदमे, जो लघु वाद न्यायालय की सुनवाई से बाहर हैं।
2. उन मुकदमों में डिक्री का निष्पादन (Execution of decree)।
3. अचल संपत्ति (Immovable Property) के विरुद्ध डिक्री का निष्पादन।
(ख) नीचे दी गई विशेष धाराएं:
• धारा 9 (सिविल प्रकृति के वादों की सुनवाई का अधिकार),
• धारा 91 और 92 (सार्वजनिक अधिकारों के उल्लंघन व जनहित संबंधी वाद),
• धारा 94 और 95 (जहां तक वे इन विषयों से संबंधित हों):
o (i) अचल संपत्ति की कुर्की का आदेश (attachment),
o (ii) निषेधाज्ञा (injunction),
o (iii) रिसीवर की नियुक्ति (appointment of receiver),
o (iv) धारा 94 के खंड (ई) में दिया गया अंतरिम आदेश (interim order)।
• धारा 96 से 112 तक (Appeals यानी अपीलें) और
• धारा 115 (Revision यानी पुनरीक्षण)।
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मुख्य बिंदु (Exam Point of View):
1. लघु वाद न्यायालयों पर CPC के केवल कुछ ही प्रावधान लागू होते हैं।
2. जो वाद इन न्यायालयों के दायरे से बाहर हैं, उन पर विशेष ध्यान।
3. केवल निश्चित धाराएं ही इन न्यायालयों पर लागू होती हैं — जैसे धारा 9, 91-92, 94-95, 96-112, 115।
4. अचल संपत्ति से जुड़े execution, injunction, receiver से जुड़े provisions विशेष रूप से लागू होते हैं।
धारा 8 – प्रेसीडेंसी लघु वाद न्यायालय
मुख्य बात:
यह धारा बताती है कि CPC (सिविल प्रक्रिया संहिता) के कौन-से प्रावधान कलकत्ता, मद्रास और बंबई के लघुवाद न्यायालयों (Small Cause Courts) पर लागू नहीं होते, और किस हद तक लागू हो सकते हैं।
मुख्य संकल्पना:
सामान्य नियम:
कलकत्ता, मद्रास और बंबई नगरों में जो लघुवाद न्यायालय स्थापित हैं, उन पर CPC का मुख्य भाग लागू नहीं होगा,
सिवाय इन धाराओं के:
• धारा 24 (मुकदमों का स्थानांतरण और वापस लेना),
• धारा 38 से 41 (डिक्री का निष्पादन),
• धारा 75, खंड (a), (b), और (c) (आदेश देने की अतिरिक्त शक्तियाँ),
• धारा 76,
• धारा 77, 157 और 158,
और
• प्रेसिडेंसी लघुवाद न्यायालय अधिनियम, 1882 (अधिनियम संख्या 15) के अनुसार जो कुछ भी पहले से तय किया गया है।
बशर्ते (Proviso):
(1) फोर्ट विलियम (कोलकाता), मद्रास और बंबई में स्थित उच्च न्यायालय ये कर सकते हैं:
• राजपत्र (Official Gazette) में अधिसूचना द्वारा यह निर्देश दे सकते हैं कि CPC के कुछ ऐसे उपबंध, जो 1882 के अधिनियम से टकराते नहीं हैं, उन लघु वाद न्यायालयों पर आवश्यक संशोधन (modifications) और अनुकूलन (adaptations) के साथ लागू होंगे।
(2) प्रेसिडेंसी लघुवाद न्यायालय अधिनियम, 1882 की धारा 9 के अंतर्गत
• जो नियम अब तक उच्च न्यायालयों द्वारा बनाए गए हैं, वे वैध (lawful) माने जाएंगे।
मुख्य बिंदु (Exam View से):
1. CPC का मुख्य भाग – प्रेसिडेंसी लघु वाद न्यायालयों पर सामान्यतः लागू नहीं होता।
2. केवल कुछ धाराएं (जैसे 24, 38–41, 75(a)(b)(c), 76, 77, 157, 158) और
1882 अधिनियम लागू होते हैं।
3. उच्च न्यायालय कुछ उपबंधों को अधिसूचना के माध्यम से लागू कर सकते हैं,
बशर्ते वे अधिनियम 1882 से विरोधाभासी न हों।
4. पहले से बनाए गए नियम वैध माने जाते हैं (धारा 9 के अनुसार)।
धारा 9 – न्यायालयों द्वारा सभी सिविल मुकदमों की सुनवाई की जाएगी, जब तक कि उन पर रोक न लगाई गई हो।
मुख्य नियम:
“हर सिविल (देवानी) प्रकृति के मुकदमे पर न्यायालय सुनवाई करेगा, जब तक कि उस मुकदमे पर रोक (bar) स्पष्ट रूप से या छुपे तौर पर न लगाई गई हो।”
अर्थात्:
• सिविल प्रकृति का कोई भी वाद (मुकदमा) हो न्यायालय उस पर विचार करेगा।
• केवल उन्हीं वादों को न्यायालय नहीं सुनेगा जिन पर स्पष्ट रूप से (expressly) या
छुपे हुए ढंग से (impliedly) रोक लगी हो।
स्पष्टीकरण 1:
“अगर किसी वाद में संपत्ति (property) या किसी पद (office/post) के अधिकार (right) को लेकर विवाद है, तो वह सिविल प्रकृति का वाद माना जाएगा,
भले ही उस अधिकार का फैसला धार्मिक अनुष्ठानों या समारोहों (rituals or ceremonies) पर निर्भर करता हो।”
सरल शब्दों में:
→ धार्मिक मुद्दे अगर संपत्ति या अधिकार से जुड़े हों, तो वे भी सिविल वाद माने जाएंगे।
स्पष्टीकरण 2:
यह बात कोई फर्क नहीं डालती कि:
• उस पद (post/office) के लिए कोई फीस (payment) मिलती है या नहीं।
• वह पद किसी विशेष स्थान से जुड़ा है या नहीं।
मतलब:
→ चाहे पद बिना वेतन का हो या कहीं से भी जुड़ा हो, फिर भी अगर विवाद “अधिकार” से जुड़ा है, तो वह सिविल वाद माना जाएगा।
मुख्य बातें याद रखने के लिए (एक नजर में):
बिंदु विवरण
सामान्य नियम हर सिविल प्रकृति का वाद न्यायालय सुनेगा
अपवाद जिन वादों पर स्पष्ट या छुपी रोक हो
स्पष्टीकरण 1 संपत्ति/पद का विवाद सिविल वाद है, भले ही धार्मिक हो
स्पष्टीकरण 2 पद की फीस या स्थान कोई फर्क नहीं डाल
धारा 10 – वाद का स्थगन (Stay of Suit)
मुख्य नियम:
कोई भी न्यायालय ऐसा वाद नहीं सुनेगा,
जिसमें जो मुद्दा (विवाद्यक विषय) है, वही मुद्दा पहले से किसी अन्य वाद में लंबित (pending) है, और उस पहले वाद में:
• पक्षकार (parties) वही हैं,
या वे हैं जो उन्हीं पक्षकारों के अधीन या उसी अधिकार के तहत मुकदमा कर रहे हैं।
शर्तें जब वाद स्थगित किया जाएगा:
1. दोनों मुकदमों (वादों) में विवाद्य विषय (issue in dispute) सही में वही हो –
यानी प्रत्यक्षतः और सारतः (directly and substantially) वही हो।
2. पहला मुकदमा उसी या किसी अन्य ऐसे न्यायालय में लंबित हो:
o जिसे उस वाद का फैसला करने का अधिकार है (jurisdiction है)
o या भारत की सीमाओं से बाहर स्थित ऐसा न्यायालय हो जो:
केन्द्रीय सरकार द्वारा स्थापित या चालू किया गया हो,
और उसकी अधिकारिता वैसी ही हो।
3. या वह मुकदमा भारत के उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) में लंबित हो।
🟨 स्पष्टीकरण (Explanation):
अगर कोई वाद किसी विदेशी न्यायालय (foreign court) में लंबित है,
तो उसका भारत के न्यायालयों पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
भारतीय न्यायालय उस वाद पर सुनवाई कर सकते हैं।
मुख्य बातें याद रखने के लिए (एक नजर में):
🔢 क्रम शर्तें
1 दोनों मुकदमों का विवाद्य विषय एक जैसा हो
2 पक्षकार वही हों या उन्हीं के अधीन मुकदमा चल रहा हो
3 पहला मुकदमा भारत के किसी सक्षम न्यायालय, केन्द्रीय सरकार के बाहर स्थापित न्यायालय, या उच्चतम न्यायालय में लंबित हो
विदेशी न्यायालय में लंबित वाद का कोई प्रभाव नहीं
धारा 11 – रेस जुडिकाटा (Res Judicata) (अर्थ – पहले से तय हो चुके मामले को दोबारा नहीं सुना जाएगा)
मुख्य नियम:
कोई भी न्यायालय किसी ऐसे वाद या विवाद (issue) को फिर से नहीं सुनेगा,
जिसमें:
• विवाद का विषय प्रत्यक्षतः और सारतः (directly and substantially) वही हो,
• पक्षकार वही हों, या
ऐसे हों जो उन्हीं के अधीन मुकदमा कर रहे हों (under whom they claim),
• और वह विषय पहले किसी मुकदमे में उठाया गया हो,
• और उसी या सक्षम न्यायालय द्वारा उसका अंतिम निर्णय (final judgment) हो चुका हो।
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स्पष्टीकरण (Explanations):
स्पष्टीकरण 1:
“पूर्व वाद” (former suit) का मतलब वह वाद है जो पहले निपट चुका हो,
चाहे वह बाद में दर्ज (instituted) हुआ हो।
स्पष्टीकरण 2:
किसी न्यायालय की सक्षमता (jurisdiction) यह देखने से तय होगी
कि वह मुद्दा उस न्यायालय के अधिकार में था या नहीं,
भले ही उस निर्णय पर अपील करने का अधिकार हो या न हो।
स्पष्टीकरण 3:
पहले वाद में वह विवाद इस प्रकार होना चाहिए:
• एक पक्ष ने कोई बात कही (allegation),
• दूसरा पक्ष या तो उसे स्पष्ट रूप से (expressly) या छिपे तौर पर (impliedly) स्वीकार या अस्वीकार करे।
स्पष्टीकरण 4:
कोई ऐसा मुद्दा जो पहले वाद में उठाया जा सकता था और उठाया जाना चाहिए था,
उसे भी वही विवाद (same issue) माना जाएगा।
स्पष्टीकरण 5:
वाद पत्र में माँगा गया कोई राहत (relief), जो डिक्री में स्पष्ट रूप से नहीं दी गई,
उसे इंकार किया गया (deemed to be refused) माना जाएगा।
स्पष्टीकरण 6:
अगर कोई व्यक्ति स्वयं और दूसरों के लिए संयुक्त रूप से किसी लोक अधिकार या निजी अधिकार के लिए सच्ची नीयत से मुकदमा करता है,
तो ऐसा माना जाएगा कि बाकी लोग भी उसी के अधीन दावा कर रहे हैं।
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स्पष्टीकरण 7:
इस धारा के नियम डिक्री के निष्पादन (execution) की कार्यवाहियों पर भी लागू होंगे।
“वाद”, “मुद्दा” और “पूर्व वाद” जैसे शब्दों का अर्थ होगा:
• क्रमशः – निष्पादन की कार्यवाही,
• उसमें उठने वाला प्रश्न,
• और पहले की निष्पादन कार्यवाही।
स्पष्टीकरण 8:
अगर कोई मुद्दा किसी सीमित अधिकारिता (limited jurisdiction) वाले न्यायालय द्वारा
सुना और अंतिम रूप से तय किया गया है,
तो वह मुद्दा बाद के वाद में भी Res Judicata के रूप में लागू होगा,
भले ही वह सीमित न्यायालय उस बाद के वाद को सुनने में असमर्थ (incapable) रहा हो।
एक लाइन में सार:
एक ही विषय पर, उन्हीं पक्षों के बीच, जो पहले मुकदमे में तय हो चुका है, उसे दोबारा नहीं सुना जाएगा।
धारा 12 – आगे वाद लाने पर प्रतिबंध
(अर्थ: जहाँ वादी को दोबारा वही वाद लाने से नियमों ने मना किया हो, तो वह वाद किसी और न्यायालय में नहीं ला सकता)
मूल बात:
जहां किसी वादी को किसी नियम (rules) के तहत किसी खास वाद हेतुक (cause of action) के लिए कोई और मुकदमा दोबारा दायर करने से रोका गया हो (barred),
वहां वह वादी ऐसे ही वाद हेतुक के लिए इस संहिता (CPC) के अधीन आने वाले
किसी भी न्यायालय में वह वाद नहीं कर सकता।
सरल उदाहरण:
अगर किसी वादी ने अपना वाद गलती से गलत तरीके से दायर किया और उसे नियमों के कारण आगे वही वाद दोबारा लाने की इजाजत नहीं दी गई, तो वह वादी उसे किसी और कोर्ट में दोबारा नहीं ला सकता।
यह नियम वादियों की लापरवाही और अनावश्यक मुकदमेबाजी को रोकने के लिए है।
धारा 13 – जब विदेशी निर्णय निर्णायक (final & binding) नहीं माना जाएगा
कोई विदेशी निर्णय (foreign judgment), उसी मामले में, उन्हीं पक्षकारों (parties) के बीच या उनके अधीन मुकदमा करने वाले किसी व्यक्ति के बीच, निर्णायक माना जाएगा – सिवाय इन परिस्थितियों के, जब वह निर्णायक नहीं माना जाएगा:
(क)
जहां निर्णय उस न्यायालय ने दिया हो जो सक्षम (competent) अधिकारिता वाला नहीं था।
यानी ऐसा कोर्ट जिसके पास उस वाद को सुनने का अधिकार ही नहीं था।
(ख)
जहां फैसला मामले के गुण-दोष (merits) पर नहीं दिया गया हो।
मतलब कोर्ट ने सिर्फ तकनीकी कारणों से फैसला किया, असली मुद्दों पर नहीं।
(ग)
जहां फैसला अंतर्राष्ट्रीय कानून की गलत व्याख्या पर आधारित हो, या
जहां भारत के लागू कानून को मान्यता देने से इनकार कर दिया गया हो।
(घ)
जहां विदेशी कोर्ट की कार्यवाही प्राकृतिक न्याय (natural justice) के खिलाफ हो।
जैसे पक्षकारों को सुना न गया हो, या निष्पक्ष मौका न दिया गया हो।
(ई)
जहां निर्णय धोखाधड़ी (fraud) से प्राप्त किया गया हो।
(च)
जहां उस निर्णय में जो दावा स्वीकार किया गया हो वह भारत के किसी प्रचलित कानून (existing Indian law) का उल्लंघन करता हो।
संक्षेप में याद रखने के लिए (Mnemonic):
“क-ख-ग-घ-ई-च” = निर्णय रद्द
(क) = अधिकारिता नहीं
(ख) = गुण-दोष पर नहीं
(ग) = अंतर्राष्ट्रीय कानून गलत
(घ) = प्राकृतिक न्याय का उल्लंघन
(ई) = धोखाधड़ी
(च) = भारत के कानून के खिलाफ
धारा 14 – विदेशी निर्णयों के बारे में उपधारणा
जब न्यायालय के सामने ऐसा दस्तावेज प्रस्तुत किया जाता है, जो यह दर्शाता है कि वह किसी विदेशी निर्णय (foreign judgment) की प्रमाणित (certified) प्रति (copy) है, तो न्यायालय मान लेगा कि:
❝यह निर्णय सक्षम अधिकारिता (competent jurisdiction) वाले न्यायालय द्वारा दिया गया था❞
जब तक कि रिकॉर्ड (दस्तावेज़) से इसके विपरीत कोई बात साफ न हो जाए।
लेकिन एक बात और:
यह जो उपधारणा है —
इसे खत्म (rebut) किया जा सकता है, अगर यह साबित कर दिया जाए कि विदेशी कोर्ट के पास अधिकारिता नहीं थी।
मुख्य बातें याद रखने के लिए:
• दस्तावेज = विदेशी निर्णय की प्रमाणित प्रति होनी चाहिए।
• कोर्ट मान लेगा कि निर्णय सही कोर्ट ने दिया है।
• जब तक रिकॉर्ड से उल्टा न दिखे।
• पर कोई यह सिद्ध कर दे कि कोर्ट के पास अधिकारिता नहीं थी तो यह उपधारणा खत्म की जा सकती है।
धारा 15 – वह न्यायालय जिसमें वाद संस्थित किया जाएगा
हर वाद (suit) को उस न्यायालय (court) में दर्ज (instituted) किया जाएगा,
जो कि:
उस वाद का परीक्षण (trial) करने में
सक्षम (competent) है, और
सबसे नीचे की श्रेणी (lowest grade) का है।
स्मरणीय बिंदु (Key Points):
• हमेशा पहले नीचे के कोर्ट में वाद दाखिल करना चाहिए।
• अगर वही कोर्ट सक्षम (jurisdictional capacity) है तो ऊपर के कोर्ट में नहीं जाना चाहिए।
• इसका उद्देश्य है – उच्च न्यायालयों पर बोझ कम करना।
धारा 16 – जहां विषय-वस्तु स्थित है, वहां वाद संस्थित किया जाना
किसी भी कानून में जो आर्थिक या अन्य सीमाएं (financial / pecuniary or other limits) तय की गई हों, उनके अधीन:
निम्नलिखित प्रकार के वाद, उस न्यायालय में दाखिल (instituted) किए जाएंगे, जिसकी स्थानीय सीमा (local jurisdiction) में वह संपत्ति (property) स्थित है:
(a) बिना किराया या किराया सहित अचल संपत्ति की वसूली के लिए।
(b) अचल संपत्ति के विभाजन (partition) के लिए।
(c) अचल संपत्ति के बंधक (mortgage), उस पर भार (charge), उसकी पुरोबंद (foreclosure), बिक्री (sale) या मोचन (redemption) के लिए।
(d) अचल संपत्ति में किसी अन्य अधिकार या हित (right or interest) के निर्धारण के लिए।
(e) अचल संपत्ति के प्रति किए गए नुकसान की भरपाई (compensation for wrong) के लिए।
(f) जब कोई चल संपत्ति वास्तव में जब्त (seized) या कुर्क (attached) कर ली गई हो,उसकी वापसी (recovery) के लिए।
ऐसे सभी वाद उस न्यायालय में दाखिल होंगे जहां वह संपत्ति स्थित है।
परन्तु (Proviso):
यदि प्रतिवादी (defendant) के पास कोई अचल संपत्ति है, और वादी उस संपत्ति से जुड़ी गलती या नुकसान (wrong or injury) के लिए मुआवजा (compensation) चाहता है, और जब यह मुआवजा प्रतिवादी की व्यक्तिगत आज्ञाकारिता (personal obedience) से ही पूरा हो सकता है—
तो वादी वाद दाखिल कर सकता है:
उस न्यायालय में जहां संपत्ति है या
उस न्यायालय में जहां प्रतिवादी वास्तव में रहता है,
या कारोबार करता है,
या व्यक्तिगत लाभ के लिए कार्य करता है।
स्पष्टीकरण:
इस धारा में “संपत्ति” से मतलब केवल भारत में स्थित संपत्ति से है।
स्मरणीय बिंदु (Key Points for Memory):
• अचल संपत्ति से जुड़े अधिकतर वाद जहां संपत्ति स्थित है, वहीं दाखिल किए जाते हैं।
• व्यक्तिगत आज्ञाकारिता से यदि राहत मिल सकती है, तो प्रतिवादी के निवास स्थान वाला न्यायालय भी चलेगा।
• सिर्फ भारत में स्थित संपत्ति पर लागू होती है ये धारा।
धारा 17 – विभिन्न न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र में स्थित अचल संपत्ति के लिए वाद
जब कोई वाद ऐसी अचल संपत्ति के बारे में हो, जो अलग-अलग न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र (jurisdiction) में स्थित हो—
और वह वाद हो:
उस संपत्ति से जुड़ी राहत (relief) पाने के लिए
या
उसमें हुए नुकसान के लिए मुआवजा (compensation) पाने के लिए—
तो ऐसा वाद उस किसी भी न्यायालय में दाखिल किया जा सकता है, जिसकी स्थानीय सीमा में उस संपत्ति का कोई भी हिस्सा आता हो।
बशर्ते (Provided that):
वाद की पूरी कीमत (value of subject-matter) उस न्यायालय की सीमाओं के अंदर आती हो (यानी वह न्यायालय उस मूल्य के दावे को सुन सकता हो)।
स्मरणीय बिंदु (Key Points for Memory):
• यदि संपत्ति दो या अधिक न्यायालयों की सीमा में हो, तो किसी भी एक न्यायालय में वाद दाखिल किया जा सकता है, जहां संपत्ति का कुछ हिस्सा आता हो।
• लेकिन उस वाद का मूल्य उस न्यायालय की अधिकार सीमा में आना चाहिए।
धारा 18 – जब यह स्पष्ट न हो कि संपत्ति किस न्यायालय की सीमा में है, तो वाद कहां दाखिल होगा
(1) अगर यह कहा जाए (अभिकथन किया जाए) कि कोई स्थावर संपत्ति (immovable property) दो या दो से अधिक न्यायालयों में से किसकी सीमा में है, यह स्पष्ट नहीं है (अनिश्चितता है)—
तो उन न्यायालयों में से कोई एक न्यायालय, अगर उसे लगता है कि वास्तव में अनिश्चितता का कारण है, तो वह एक लिखित कथन (written statement) दर्ज कर सकता है कि वास्तव में यह संपत्ति किसकी सीमा में है, यह स्पष्ट नहीं है।
ऐसा करने के बाद, वह न्यायालय उस संपत्ति से संबंधित वाद को सुन सकता है और निपटा सकता है। और उसकी डिक्री (decree) का वैसा ही प्रभाव होगा
जैसे मानो वह संपत्ति उसी न्यायालय की सीमा में आती हो।
बशर्ते (Provided that):
ऐसा वाद वही हो, जिसे वह न्यायालय कीमत और प्रकार की दृष्टि से सुन सकता हो।
(2) अगर ऐसा कोई लिखित कथन (statement) नहीं दिया गया है,
और किसी अपील या पुनरीक्षण न्यायालय के सामने यह आपत्ति उठती है कि—
“जिस न्यायालय ने डिक्री या आदेश दिया, उसे तो उस संपत्ति के संबंध में कोई अधिकारिता ही नहीं थी”—
तो वह अपील या पुनरीक्षण न्यायालय इस आपत्ति को तब तक स्वीकार नहीं करेगा,
जब तक कि: उसकी राय में, वाद दाखिल करते समय यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता था कि कौन सा न्यायालय अधिकार रखता है (यानी वास्तव में अनिश्चितता थी),
और
इससे न्याय में असफलता (failure of justice) हुई हो।
याद रखने योग्य बिंदु (Memory Points):
• जब संपत्ति के स्थान को लेकर न्यायालय की सीमा स्पष्ट नहीं हो, तो कोई भी संभावित न्यायालय वाद सुन सकता है, अगर वह लिखकर कहे कि स्थिति अनिश्चित है।
• अपील में आपत्ति तभी मानी जाएगी जब सिद्ध हो कि कोई अनिश्चितता नहीं थी
और न्याय में नुकसान हुआ।
धारा 19 – शरीर या चल संपत्ति के प्रति हुए अन्याय (wrong) के लिए मुआवजा पाने हेतु वाद
अगर कोई वाद किसी व्यक्ति के शरीर या चल संपत्ति (movable property) के प्रति किए गए अन्याय (wrong) के लिए मुआवजा (compensation) पाने हेतु है,
और अगर वह अन्याय (wrong) किसी न्यायालय की सीमा में हुआ है,
और प्रतिवादी (जिस पर वाद किया गया है) किसी अन्य न्यायालय की सीमा में रहता है, या व्यवसाय करता है, या काम करता है,
तो वादी को यह विकल्प (choice) है कि—
वह वाद या तो उस न्यायालय में कर सकता है
जहां अन्याय हुआ,
या उस न्यायालय में जहां प्रतिवादी रहता है / व्यवसाय करता है / काम करता है।
रेखांकन (Illustrations):
(क) A, जो दिल्ली में रहता है, B को कलकत्ता में मारता है (यानि शारीरिक नुकसान करता है)। B, A के खिलाफ वाद कलकत्ता या दिल्ली, दोनों में से कहीं भी कर सकता है।
(ख) A, जो दिल्ली में रहता है, B के खिलाफ कलकत्ता में एक अपमानजनक लेख (defamatory statement) छापता है। B वाद A के विरुद्ध कलकत्ता या दिल्ली, दोनों में से कहीं भी कर सकता है।
मुख्य बातें (Key Points for Memorization):
• यह धारा दो विकल्प देती है –
❖ जहाँ अन्याय हुआ
❖ जहाँ प्रतिवादी रहता/काम करता है
• यह धारा शरीर और चल संपत्ति दोनों के प्रति अन्याय के मामलों पर लागू होती है।
• स्थावर संपत्ति (immovable) पर लागू नहीं होती।
धारा 20 – अन्य वाद वहां संस्थित किए जाएंगे जहां प्रतिवादी रहते हैं या जहां वाद का कारण उत्पन्न होता है
ऊपर दी गई सीमाओं (जैसे धारा 15 से 19) के अधीन रहते हुए, प्रत्येक वाद उस न्यायालय में संस्थापित किया जाएगा, जिसकी स्थानीय सीमाओं के भीतर निम्न में से कोई एक स्थिति मौजूद हो:
(क)
प्रतिवादी, या यदि एक से अधिक प्रतिवादी हैं तो हर एक प्रतिवादी, वाद शुरू होने के समय वास्तव में (actually) और स्वेच्छा से (voluntarily) निवास करता है,
या व्यवसाय करता है,
या लाभ कमाने के लिए व्यक्तिगत रूप से कार्य करता है;
(ख)
यदि प्रतिवादी एक से अधिक हैं, और उन में से कोई एक वाद के आरंभ में वास्तव में और स्वेच्छा से निवास करता है, व्यवसाय करता है या काम करता है,
तो भी वाद वहीं दायर किया जा सकता है
बशर्ते कि (provided that) —
• या तो न्यायालय की अनुमति ली जाए,
• या जो प्रतिवादी वहां नहीं रहते या काम नहीं करते,
वे ऐसी संस्था (proceeding) में सम्मिलित होने को सहमत हों।
(ग)
जहां वाद का कारण (cause of action) पूरी तरह या आंशिक रूप से उत्पन्न होता है,
वहां का न्यायालय भी वाद सुन सकता है।
________________________________________
[स्पष्टीकरण]
अगर कोई कंपनी (corporation) है,
तो उसे भारत में :-
• उसके मुख्य कार्यालय (principal office) से,
• या उस स्थान से भी जहाँ उसका शाखा कार्यालय (subordinate office) है
और वहीं वाद का कारण उत्पन्न हुआ है उस स्थान पर उसे कारोबार करता हुआ माना जाएगा।
रेखांकन (Illustrations):
(क)
क कलकत्ता में व्यापारी है।
ख दिल्ली में व्यापार करता है।
ख, कलकत्ता में एजेंट के ज़रिए क से माल खरीदता है
और कहता है कि माल ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी को दे दो।
क, माल कलकत्ता में सौंप देता है।
अब क, ख के खिलाफ वाद:
• या तो कलकत्ता में कर सकता है (जहां वाद का कारण उत्पन्न हुआ),
• या दिल्ली में कर सकता है (जहां ख व्यापार करता है)।
________________________________________
(ख)
क शिमला में रहता है,
ख कलकत्ता में,
ग दिल्ली में।
तीनों एक साथ बनारस में मिलते हैं।
ख और ग, संयुक्त वचन पत्र बनाकर
क को बनारस में देते हैं।
क वाद कर सकता है:
• बनारस में (जहां वाद का कारण उत्पन्न हुआ),
• कलकत्ता में (जहां ख रहता है),
• दिल्ली में (जहां ग रहता है)।
लेकिन कलकत्ता या दिल्ली में वाद तभी चल सकता है, अगर जो प्रतिवादी वहां नहीं रहते,
वे आपत्ति नहीं करते,
या फिर न्यायालय अनुमति देता है।
मुख्य बातें (Quick Summary for Memorization):
• यह धारा अन्य सामान्य वादों पर लागू होती है (जो धारा 15–19 में कवर नहीं हैं)।
• 3 विकल्प दिए गए हैं वाद की स्थापना के लिए:
(1) जहां प्रतिवादी रहता/काम करता है,
(2) जहां वाद का कारण उत्पन्न होता है,
(3) या कुछ प्रतिवादियों के आधार पर न्यायालय की अनुमति या सहमति से।
• कंपनियों के लिए, स्थान तय करने का तरीका अलग से स्पष्टीकरण में दिया गया है।
धारा 21 – अधिकारिता (Jurisdiction) पर आपत्तियां
(1)
अगर कोई व्यक्ति यह आपत्ति करता है कि वाद गलत स्थान (wrong place of suing) पर दायर किया गया है,
तो कोई भी अपीलीय (appeal) या पुनरीक्षण (revision) न्यायालय
तब तक उस आपत्ति को स्वीकार नहीं करेगा,
जब तक कि:
• वह आपत्ति पहले (trial) न्यायालय में जितनी जल्दी हो सके (at the earliest possible opportunity) उठाई नहीं गई हो,
और
• जब तक कि वाद के फैसले के समय तक, वह विवाद (issue) निर्धारित (decided) न हो चुका हो,
और
• जब तक यह साबित न हो जाए कि इस कारण से न्याय में असफलता (failure of justice) हुई है।
(2)
यदि आपत्ति किसी न्यायालय की आर्थिक अधिकारिता (pecuniary jurisdiction) को लेकर है —
जैसे कि कहा जाए कि यह न्यायालय इतने मूल्य का वाद सुन ही नहीं सकता था —
तो ऐसी आपत्ति भी तब तक स्वीकार नहीं की जाएगी,
जब तक कि:
• वह आपत्ति प्रथम न्यायालय में यथाशीघ्र संभव समय पर नहीं की गई हो,
• और सभी मामलों में जहां विवाद तय हो गए हों,
वह आपत्ति उस तय होने से पहले की गई हो,
• और यह दिखाया जाए कि इससे न्याय में असफलता हुई है।
(3)
अगर आपत्ति निष्पादन न्यायालय (executing court) की स्थानीय अधिकारिता (territorial jurisdiction) को लेकर है —
यानी कहा जाए कि यह न्यायालय उस डिक्री को निष्पादित करने का अधिकारी नहीं था —
तो ऐसी आपत्ति भी अपील या पुनरीक्षण में तब तक नहीं मानी जाएगी,
जब तक कि:
• वह आपत्ति निष्पादन न्यायालय में यथाशीघ्र संभव अवसर पर न की गई हो,
• और यह भी न दिखाया जाए कि इसके कारण न्याय में असफलता हुई है।
मुख्य बातें (Quick Summary for Memorization):
• कोई भी अधिकारिता की आपत्ति (स्थान, आर्थिक या क्षेत्रीय) शीघ्र और उचित समय पर उठाना जरूरी है।
• अगर समय रहते आपत्ति नहीं की गई, और न्याय में असफलता साबित नहीं होती, तो बाद में अपील या पुनरीक्षण में वह आपत्ति नहीं सुनी जाएगी।
धारा 21A – वाद लाने के स्थान की आपत्ति पर डिक्री को अपास्त करने के लिए वाद पर प्रतिबंध (Bar to suit to set aside decree on objection as to place of suing)
मुख्य प्रावधान:
• अगर एक ही पक्षकारों के बीच,
या ऐसे पक्षकारों के बीच जिनके अंतर्गत वे या उनमें से कोई दावा करता है,
और वे एक ही शीर्षक (same title) के अंतर्गत मुकदमा कर रहे हैं,
तो:
➤ किसी पिछले वाद (previous suit) में जो डिक्री (decree) पारित की गई है,
उसकी वैधता (validity) को सिर्फ इस आधार पर कि
वह गलत स्थान (place of suing) पर लाया गया था,
चुनौती देने वाला नया वाद (new suit) नहीं लाया जा सकता।
स्पष्टीकरण (Explanation):
• “पूर्व वाद (previous suit)” का मतलब है:
ऐसा वाद जो उस वाद के निर्णय से पहले ही निपटा दिया गया था
जिसमें डिक्री की वैधता पर प्रश्न उठाया गया है, चाहे वह वाद पहले दायर किया गया हो या बाद में।
सरल शब्दों में समझिए:
अगर पहले कोई केस तय हो चुका है और उसमें डिक्री पास हो चुकी है, तो आप सिर्फ यह कहकर कि वह गलत जगह दायर हुआ था,
उस डिक्री को रद्द (invalidate) करने के लिए नया मुकदमा नहीं चला सकते।
🧠 याद रखने के लिए मुख्य बिंदु:
• डिक्री को गलत स्थान (jurisdiction) के आधार पर बाद में चुनौती नहीं दी जा सकती, अगर:
o पहले ही फैसला हो चुका है।
o वही पक्षकार हैं या उनके उत्तराधिकारी।
o मुकदमा एक ही अधिकार/शीर्षक पर आधारित है।
धारा 22 – एक से अधिक न्यायालयों में संस्थित किए जा सकने वाले वादों को अंतरित करने की शक्ति (Power to transfer suits which may be instituted in more than one Court)
मूल प्रावधान:
• जहां कोई वाद (case) ऐसा है जो दो या अधिक न्यायालयों में से किसी एक में संस्थित (file) किया जा सकता है,
और वास्तव में वह ऐसे किसी एक न्यायालय में संस्थित कर दिया गया है,
वहां—
➤ कोई भी प्रतिवादी (defendant)
➤ अन्य पक्षकारों को नोटिस देने के बाद,
➤ और यथाशीघ्र संभव अवसर पर (as soon as possible),
➤ तथा उन सभी मामलों में जहां विवाद्यक मुद्दे (issues in dispute) ऐसे आवेदन के समय या उससे पहले तय हो चुके हैं,
➤ वह वाद को किसी अन्य न्यायालय में स्थानांतरित (transfer) करने के लिए आवेदन कर सकता है।
न्यायालय की भूमिका:
• वह न्यायालय, जिसमें ऐसा स्थानांतरण (transfer) का आवेदन किया गया है,
➤ अन्य पक्षकारों की आपत्तियों (objections) (अगर हों) पर विचार करेगा,
➤ और फिर यह निर्धारित करेगा कि
✔ उन सभी सक्षम न्यायालयों में से कौन-सा न्यायालय
✔ वाद को आगे बढ़ाने के लिए उचित (appropriate) है।
सरल भाषा में समझें:
अगर कोई मुकदमा ऐसा है जो किसी भी एक से अधिक जगहों पर चल सकता है,
और वह एक जगह दायर कर दिया गया है,
तो प्रतिवादी कह सकता है कि यहां नहीं, दूसरे न्यायालय में चलाओ।
पर वह यह बात तभी कह सकता है:
• जब वह जल्द से जल्द आवेदन करे,
• और दूसरे पक्ष को नोटिस दे दे,
• और न्यायालय दोनों पक्षों की बातें सुनकर तय करेगा कि कहां वाद चलेगा।
🧠 याद रखने के बिंदु (Key Points):
• वाद ऐसा हो जो कई न्यायालयों में चल सकता हो।
• प्रतिवादी को:
o शीघ्र आवेदन करना होगा।
o अन्य पक्षकारों को नोटिस देना होगा।
• अदालत:
o आपत्तियाँ सुनकर निर्णय लेगी कि उचित न्यायालय कौन-सा है।
धारा 23 – आवेदन किस न्यायालय में होगा (To what Court application lies)
(1)
जहां वह सभी न्यायालय, जिनमें वाद संस्थित किया जा सकता था, एक ही अपील न्यायालय (appellate court) के अधीन हैं, तो धारा 22 के अंतर्गत स्थानांतरण (transfer) के लिए आवेदन उसी अपील न्यायालय में किया जाएगा।
(2)
जहां वे न्यायालय अलग-अलग अपील न्यायालयों के अधीन हैं, लेकिन एक ही उच्च न्यायालय (High Court) के अधीन हैं, तो आवेदन उस उच्च न्यायालय में किया जाएगा।
(3)
जहां वे न्यायालय अलग-अलग उच्च न्यायालयों के अधीन हैं, तो आवेदन उस उच्च न्यायालय को किया जाएगा जिसकी अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमा में वह न्यायालय स्थित है, जिसमें वाद संस्थित (filed) किया गया है।
सरल शब्दों में समझें:
अगर कोई वाद ऐसा है जो कई जगह चल सकता है, और
धारा 22 के तहत आप वाद को दूसरी जगह स्थानांतरित करना चाहते हैं—
तो आपको आवेदन कहां करना है, यह इस बात पर निर्भर करता है कि
वो सब संभावित न्यायालय किसके अधीन आते हैं:
न्यायालयों की स्थिति आवेदन कहां करें
सभी न्यायालय एक ही अपील न्यायालय के अधीन हैं उसी अपील न्यायालय में
न्यायालय अलग-अलग अपील न्यायालयों के अधीन हैं लेकिन एक ही हाई कोर्ट के अधीन हैं हाई कोर्ट में
न्यायालय अलग-अलग हाई कोर्ट के अधीन हैं उसी हाई कोर्ट में जहां वाद दाखिल किया गया है
🧠 याद रखने के बिंदु (Key Points):
• एक ही अपील न्यायालय → उसी अपील न्यायालय में आवेदन
• अलग अपील कोर्ट, लेकिन एक ही हाई कोर्ट → हाई कोर्ट में आवेदन
• अलग-अलग हाई कोर्ट → वाद जहां दायर किया गया है, वहां के हाई कोर्ट में आवेदन
धारा 24 – अंतरण और वापसी की सामान्य शक्ति
(1)
किसी भी पक्षकार के आवेदन पर,
और अन्य पक्षकारों को नोटिस देकर
और जो पक्षकार सुनवाई की इच्छा रखते हैं, उन्हें सुनने के बाद,
या बिना किसी सूचना के भी, स्वप्रेरणा (suo motu) से,
उच्च न्यायालय या जिला न्यायालय किसी भी कार्यवाही के बारे में:
(क)
अपने सामने लंबित (pending)
किसी भी वाद, अपील या अन्य कार्यवाही को
अपने अधीनस्थ किसी ऐसे न्यायालय को
जिसमें वह वाद चलाने की क्षमता (jurisdiction) हो,
भेज सकता है (स्थानांतरित कर सकता है);
(ख)
अपने अधीनस्थ न्यायालय में लंबित
किसी भी वाद, अपील या अन्य कार्यवाही को
वापस ले सकता है, और फिर:
• (i) स्वयं उसका ट्रायल (विचारण) या निपटारा कर सकता है; या
• (ii) उसे किसी अन्य अधीनस्थ न्यायालय को भेज सकता है,
जो उसका विचारण या निपटारा कर सके; या
• (iii) उसे वापस उसी न्यायालय में भेज सकता है
जहां से उसे लिया गया था।
(2)
जहां कोई वाद या कार्यवाही
उपधारा (1) के तहत स्थानांतरित या वापस ली गई है,
तो जिस न्यायालय को अब वह वाद/कार्यवाही सौंपा गया है,
वह या तो:
• अंतरण आदेश में दिए गए विशेष निर्देशों के अनुसार,
• या तो फिर से सुनवाई शुरू कर सकता है,
• या जहां से छोड़ा गया था, वहीं से आगे बढ़ा सकता है।
(3) इस धारा के प्रयोजन के लिए:
(क)
अतिरिक्त और सहायक न्यायाधीशों के न्यायालय
को भी जिला न्यायालय के अधीनस्थ माना जाएगा;
(ख)
“कार्यवाही” में
किसी डिक्री (decree) या आदेश (order) के निष्पादन की प्रक्रिया भी शामिल है।
(4)
अगर कोई वाद लघुवाद न्यायालय (Small Cause Court) से
इस धारा के तहत स्थानांतरित या वापस लिया गया है,
तो जिस न्यायालय को वह भेजा गया है,
उसे ऐसे वाद के लिए लघुवाद न्यायालय माना जाएगा।
(5)
इस धारा के तहत,
ऐसे न्यायालय को भी वाद स्थानांतरित किया जा सकता है,
जिसे सामान्यतः उस वाद को सुनने की अधिकारिता नहीं है।
सरल भाषा में याद रखने के लिए मुख्य बिंदु:
विषय सरल व्याख्या
कौन स्थानांतरित कर सकता है? उच्च न्यायालय या जिला न्यायालय
किसे स्थानांतरित कर सकता है? अधीनस्थ न्यायालय को, जो सक्षम हो
क्या वापस ले सकता है? वाद, अपील या अन्य कार्यवाही
वापसी के बाद विकल्प खुद सुनना, अन्य न्यायालय को भेजना, या मूल न्यायालय को वापस भेजना
बिना अधिकारिता वाले कोर्ट को भेजना संभव है (धारा 24(5))
धारा 25 – मुकदमों आदि को अन्तरित करने की उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) की शक्ति
(1)
अगर कोई पक्षकार आवेदन करता है,
और अन्य पक्षकारों को नोटिस देकर,
उनमें से जो पक्षकार सुनवाई चाहते हैं, उन्हें सुनने के बाद,
उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) किसी भी मुकदमे, अपील या अन्य कार्यवाही को
एक राज्य के उच्च न्यायालय या सिविल न्यायालय से
दूसरे राज्य के उच्च न्यायालय या सिविल न्यायालय को
स्थानांतरित (transfer) करने का आदेश दे सकता है –
यदि सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि ऐसा करना “न्याय के हित” में उचित है।
(2)
इस धारा के अंतर्गत किया गया हर आवेदन
प्रस्ताव (petition) के रूप में किया जाएगा,
और वह शपथपत्र (affidavit) द्वारा समर्थित होना चाहिए।
(3)
जिस न्यायालय को वाद, अपील या कार्यवाही भेजी गई है,
वह न्यायालय:
• अगर कोई विशेष निर्देश दिए गए हैं, तो उनके अनुसार,
• या तो पुनः विचारण (retrial) करेगा,
• या जहां से छोड़ा गया था, वहीं से आगे बढ़ेगा।
(4)
अगर सुप्रीम कोर्ट को लगता है कि:
• आवेदन तुच्छ (frivolous) या
• तंग करने वाला (vexatious) था,
तो वह आदेश दे सकता है कि
आवेदक, विरोध करने वाले व्यक्ति को
2,000 रुपये तक का हर्जाना/प्रतिकर दे –
जितना कोर्ट को उचित लगे।
(5)
जो वाद, अपील या कार्यवाही
इस धारा के तहत स्थानांतरित की गई है,
उस पर वही कानून लागू होगा
जो उस मूल न्यायालय में लागू होता जहाँ वाद पहले दाखिल हुआ था।
याद रखने के लिए मुख्य बिंदु सारणी:
अनुच्छेद सरल अर्थ
(1) सुप्रीम कोर्ट एक राज्य से दूसरे राज्य में केस ट्रांसफर कर सकता है – अगर न्याय के उद्देश्य से जरूरी हो
(2) आवेदन प्रस्ताव के रूप में और शपथपत्र के साथ होगा
(3) जिसे केस ट्रांसफर किया गया है – वह फिर से सुन सकता है या वहीं से आगे बढ़ा सकता है
(4) तुच्छ आवेदन पर कोर्ट 2,000 रुपये तक जुर्माना लगा सकता है
(5) जो कानून मूल कोर्ट में लागू था, वही ट्रांसफर कोर्ट में भी लागू होगा
धारा 26 – वाद प्रस्तुत करना (Institution of suits)
(1) हर वाद (suit) को वादपत्र (plaint) के जरिए, या ऐसी अन्य विधि (other manner) से,
जैसे नियमों में तय की गई हो, दाखिल (instituted) किया जाएगा।
(2) हर वादपत्र में लिखे गए तथ्यों (facts) को शपथपत्र (affidavit) द्वारा
साबित (prove) किया जाएगा।
☑ बशर्ते (provided that): यह शपथपत्र, आदेश VI के नियम 15A में निर्धारित प्रारूप (prescribed format) और तरीके (manner) के अनुसार ही होगा।
याद रखने के लिए संक्षेप बिंदु:
अनुच्छेद सरल अर्थ
(1) हर वाद वादपत्र या नियमों में बताई गई विधि से दाखिल किया जाएगा।
(2) वादपत्र में लिखे तथ्य शपथपत्र द्वारा सिद्ध होंगे।
बशर्ते शपथपत्र आदेश VI, नियम 15A में दिए प्रारूप व तरीके के अनुसार होगा।
धारा 27 – प्रतिवादियों को सम्मन
जहां कोई वाद सम्यक रूप से (properly) संस्थित किया गया है, वहां प्रतिवादी को,
उपस्थित होने (to appear) और दावे का उत्तर देने (to answer the claim) के लिए
सम्मन (summons) जारी (issue) किया जा सकता है।
और यह सम्मन नियमों में तय विधि (prescribed manner) से तामील (serve) किया जा सकता है, वाद दाखिल (institution of suit) किए जाने की तारीख से तीस दिन (30 days) से अधिक नहीं की अवधि में।
________________________________________
याद रखने योग्य प्रमुख बिंदु:
बिंदु सरल अर्थ
वाद सम्यक रूप से संस्थित हो वाद नियमों के अनुसार सही ढंग से दायर हुआ हो।
प्रतिवादी को सम्मन प्रतिवादी को अदालत बुलाने का नोटिस।
30 दिन की समय सीमा वाद दाखिल होने की तारीख से अधिकतम 30 दिन में सम्मन तामील होना चाहिए।
धारा 28 – समन की तामील, जब प्रतिवादी दूसरे राज्य में रहता है
(1)
अगर प्रतिवादी किसी दूसरे राज्य में रहता है, तो समन की तामील (service of summons) के लिए वह समन उस राज्य के नियमों के अनुसार वहां के न्यायालय को भेजा जा सकता है।
सरल शब्दों में: दूसरे राज्य में रहने वाले प्रतिवादी को बुलाने के लिए, उस राज्य के नियमों के हिसाब से समन वहां भेजा जाएगा।
(2)
जिस न्यायालय को समन भेजा गया है, वह उसे मिलने के बाद ऐसे कार्य करेगा जैसे वह खुद वह समन जारी कर रहा हो, और फिर उस समन को अपने कार्रवाई के रिकॉर्ड (record of proceedings), अगर कोई हो, के साथ वापस उसी न्यायालय को भेज देगा,
जिसने समन जारी किया था।
सरल शब्दों में:
दूसरे राज्य का न्यायालय समन की तामील करेगा और फिर उसे वापस भेजने वाले न्यायालय को लौटाएगा।
(3)
अगर समन और उस पर बनी रिपोर्ट (अभिलेख) की भाषाएं अलग हैं, तो रिपोर्ट का अनुवाद साथ भेजना होगा:
• (a) अगर समन देने वाले न्यायालय की भाषा हिन्दी है,
तो रिपोर्ट का अनुवाद भी हिन्दी में होगा।
• (b) अगर रिपोर्ट की भाषा हिन्दी या अंग्रेज़ी से अलग है,
तो उसका अनुवाद हिन्दी या अंग्रेज़ी में साथ भेजा जाएगा।
सरल शब्दों में:
अगर समन और रिपोर्ट की भाषा अलग-अलग है,
तो उसका हिन्दी या अंग्रेजी अनुवाद भी भेजना जरूरी है।
मुख्य बातें याद रखने के लिए:
बिंदु मतलब
समन दूसरे राज्य में उस राज्य के नियमों के अनुसार तामील
तामील करने वाला न्यायालय उसे अपना ही समन मानकर कार्यवाही करेगा
रिपोर्ट की भाषा अलग हो तो हिन्दी या अंग्रेज़ी में अनुवाद भेजना होगा
धारा 29 – विदेशी समन की तामील (Foreign summons की सेवा का नियम)
मूल बात:
अगर कोई समन या आदेश (summons or other process) किसी विदेशी न्यायालय द्वारा जारी हुआ है, तो वह भारत में लागू किया जा सकता है,
मानो वह भारतीय न्यायालय द्वारा ही जारी किया गया हो — कुछ शर्तों के अधीन।
________________________________________
ऐसे कौन से विदेशी समन लागू हो सकते हैं?
(इनमें से किसी के द्वारा जारी किया गया हो:)
(a)
भारत के ऐसे हिस्से में स्थित सिविल या राजस्व न्यायालय द्वारा, जहां CPC (दीवानी प्रक्रिया संहिता) लागू नहीं होती। जैसे कि कुछ स्वायत्त क्षेत्र या विशेष राज्य।
(b)
भारत के बाहर, भारत सरकार द्वारा स्थापित या स्वीकृत कोई सिविल या राजस्व न्यायालय।
(c)
भारत के बाहर का कोई और सिविल या राजस्व न्यायालय, जिसे भारत सरकार ने राजपत्र (Official Gazette) में अधिसूचना जारी करके मान्यता दी हो।
________________________________________
क्या होगा?
ऐसे समन या आदेशिकाएँ, भारत के उन क्षेत्रों में भेजी जा सकती हैं जहां CPC लागू होती है,
और उनकी तामील वैसे ही की जाएगी जैसे भारतीय न्यायालय के समन की होती है।
________________________________________
मुख्य बातें याद रखने के लिए (संक्षेप में):
बिंदु मतलब
विदेशी समन की तामील भारत में संभव है
शर्त 1 विदेश या भारत के ऐसे भाग से आया हो जहां CPC लागू नहीं है
शर्त 2 भारत सरकार द्वारा स्थापित या मान्यता प्राप्त न्यायालय हो
शर्त 3 भारत सरकार ने उसे Official Gazette में अधिसूचित किया हो
परिणाम ऐसे समन की सेवा भारत में उसी तरह होगी जैसे भारतीय समन
धारा 30 – खोज और इसी प्रकार के आदेश देने की शक्ति (Power to order discovery and related acts)
मुख्य बात:
न्यायालय, कुछ शर्तों और सीमाओं के अधीन, किसी भी समय, अपने आप से (स्वप्रेरणा से) या किसी पक्ष के आवेदन पर, नीचे दिए गए कार्यों के लिए आदेश दे सकता है:
________________________________________
(क)
ऐसे आदेश देना जो आवश्यक या उचित हों –
इन बातों से संबंधित:
• सवालों को पूछना और उनके उत्तर देना (interrogatories),
• दस्तावेजों या तथ्यों को मानना (admissions),
• दस्तावेजों या भौतिक वस्तुओं की:
▪ खोज (discovery),
▪ निरीक्षण (inspection),
▪ उत्पादन (production),
▪ परिग्रहण (impounding – जब्त करना),
▪ वापसी (return)।
जो भी वस्तुएँ बाद में साक्ष्य के रूप में पेश की जा सकती हैं, उन पर ये आदेश लागू होंगे।
(ख)
ऐसे व्यक्तियों को समन भेजना (summon करना) जिनकी उपस्थिति ज़रूरी है:
• साक्ष्य देने (evidence),
• दस्तावेज़ लाने,
• या ऊपर बताए गए किसी और उद्देश्य के लिए।
(ग)
यह आदेश देना कि कोई तथ्य शपथपत्र द्वारा प्रमाणित किया जाए (यानि affidavit द्वारा किसी तथ्य को सिद्ध करने की अनुमति देना)।
याद रखने के लिए सारांश:
उपखंड न्यायालय क्या कर सकता है
(क) दस्तावेजों, सवालों, और वस्तुओं की खोज-परिक्षण-जब्ती से जुड़ा आदेश
(ख) गवाहों या दस्तावेज़ प्रस्तुत करने वाले व्यक्तियों को बुलाने का आदेश
(ग) किसी तथ्य को affidavit द्वारा प्रमाणित करने का आदेश
धारा 31 – साक्षी को सम्मन (Summons to Witness)
मुख्य बात:
धारा 27, 28 और 29 में जो नियम दिए गए हैं, वे साक्ष्य देने या दस्तावेज या अन्य भौतिक वस्तुएं (physical objects) पेश करने के लिए जारी किए गए साक्षियों के समन (witness summons) पर भी लागू होंगे।
सरल शब्दों में मतलब:
• जैसे धारा 27: प्रतिवादी को समन भेजने का तरीका बताती है,
• धारा 28: जब प्रतिवादी दूसरे राज्य में हो, तब समन कैसे भेजा जाए,
• धारा 29: जब समन विदेश से आए हों, तब क्या किया जाए —
ठीक वैसे ही नियम साक्षी को बुलाने (गवाही या दस्तावेज लाने के लिए) पर भी लागू होंगे।
🔍 याद रखने का आसान तरीका:
जो नियम प्रतिवादी को समन देने पर लागू होते हैं, वही नियम गवाह (साक्षी) को भी समन देने पर लागू होते हैं।
धारा 32 – चूक के लिए जुर्माना (Penalty for default)
मूल बात:
अगर किसी व्यक्ति को धारा 30 के अंतर्गत समन (summons) जारी किया गया है और वह नहीं आता, तो न्यायालय उसे आने के लिए मजबूर कर सकता है और इसके लिए निम्न कार्य कर सकता है:
सरल शब्दों में उपाय (उपस्थित न होने पर कोर्ट क्या कर सकता है) —
(क) गिरफ्तारी वारंट जारी कर सकता है।
(यानि उस व्यक्ति को पकड़ने के लिए पुलिस को आदेश दे सकता है)
(ख) उसकी संपत्ति कुर्क और बेच सकता है।
(यानि ज़ब्त करके नीलाम कर सकता है)
(ग) उस पर अधिकतम ₹5,000 तक का जुर्माना लगा सकता है।
(कोर्ट कहेगा — तुम नहीं आए, जुर्माना भरो)
(घ) उसे उपस्थिति के लिए सुरक्षा (bond/security) देने को कह सकता है,
और अगर वह ऐसा नहीं करता, तो उसे सिविल जेल भेज सकता है।
🎯 याद रखने की ट्रिक:
समन के बाद न आना मतलब कोर्ट से टकराना —
तो कोर्ट कर सकता है: पकड़ना (गिरफ्तारी), ज़ब्त करना (संपत्ति), जुर्माना ठोकना, जेल भेजना!
धारा 33 – निर्णय और डिक्री (Judgment and Decree)
सरल भाषा में:
जब केस की सुनवाई पूरी हो जाती है, तो न्यायालय निर्णय (Judgment) सुनाएगा।
और उस निर्णय के आधार पर डिक्री (Decree) जारी की जाएगी।
याद रखें:
• सुनवाई के बाद → पहले आता है निर्णय (Judgment)
• फिर उसी के आधार पर बनती है डिक्री (Decree)
🎯 एक पंक्ति में याद रखने की ट्रिक:
“पहले न्यायालय कहता है (निर्णय), फिर लिखता है (डिक्री)।”
धारा 34 – ब्याज (Interest)
🔷 मुख्य बात:
अगर डिक्री पैसे की अदायगी (payment) के लिए है,
तो कोर्ट ब्याज का आदेश दे सकता है –
तीन अलग-अलग अवधियों के लिए:
(1) वाद की तारीख से डिक्री की तारीख तक:
• कोर्ट तय करेगा कि कितने प्रतिशत दर से ब्याज देना उचित है।
• ये ब्याज मूल रकम (principal amount) पर लगेगा।
• वाद दायर होने से पहले अगर कोई ब्याज बनता है (जैसे अनुबंध में तय हुआ हो), तो वो अलग रहेगा।
(2) डिक्री की तारीख से भुगतान की तारीख तक (या जो तारीख कोर्ट तय करे):
• अतिरिक्त ब्याज (Further Interest) मिल सकता है।
• यह ब्याज अधिकतम 6% प्रति वर्ष तक हो सकता है।
परन्तु (बशर्ते):
अगर यह मामला वाणिज्यिक संव्यवहार (commercial transaction) से जुड़ा है,
तो 6% से अधिक ब्याज भी मिल सकता है –
लेकिन दो शर्तें हैं:
1. वह संविदा में तय दर (contractual rate) से ज़्यादा नहीं होना चाहिए।
2. और अगर कोई संविदा दर नहीं है,
तो वह राष्ट्रीयकृत बैंकों की उधारी दर से ज़्यादा नहीं हो सकता।
________________________________________
स्पष्टीकरण:
• “राष्ट्रीयकृत बैंक” = बैंकिंग कंपनी (उपक्रमों का अर्जन और अंतरण) अधिनियम, 1970 में परिभाषित बैंकों को कहते हैं।
• “वाणिज्यिक संव्यवहार” = जब दायित्व उद्योग, व्यापार या व्यवसाय से जुड़ा हो।
❌ उपधारा (2):
अगर कोर्ट डिक्री में डिक्री की तारीख से आगे का ब्याज नहीं देता, तो माना जाएगा कि कोर्ट ने इसे मना कर दिया, और इसके लिए अलग से कोई वाद नहीं लाया जा सकता।
याद रखने की ट्रिक:
“वाद → डिक्री तक = कोर्ट जैसा उचित समझे**
डिक्री → भुगतान तक = अधिकतम 6% (या बिज़नेस केस में ज़्यादा हो सकता है)**
कुछ नहीं लिखा डिक्री में? → ब्याज मना माना जाएगा”
धारा 35 – लागत (Costs)
🔷 मुख्य बात:
मुकदमे में खर्च (लागत) किसे भरना है, कितना भरना है, और कब भरना है – इसका निर्णय कोर्ट के विवेक (discretion) पर निर्भर करता है।
(1) सामान्य प्रावधान (Non-commercial cases):
• न्यायालय के पास पूर्ण अधिकार है कि वह तय करे:
o किसे लागत चुकानी है।
o कितनी लागत चुकानी है।
o किस संपत्ति से चुकानी है।
• कोर्ट जरूरी निर्देश दे सकता है।
• अगर कोर्ट को वाद सुनने का अधिकार नहीं भी है, तब भी लागत के आदेश दिए जा सकते हैं।
📝 अगर कोर्ट कहता है कि घटना के बाद कोई लागत नहीं ली जाएगी,
तो लिखित कारण देना अनिवार्य है।
(2) वाणिज्यिक विवादों (Commercial Disputes) में विशेष प्रावधान:
कोर्ट यह तय कर सकता है:
• (क) क्या एक पक्ष दूसरे पक्ष को लागत देगा?
• (ख) कितनी लागत देनी है?
• (ग) कब देनी है?
स्पष्टीकरण:
“लागत” में शामिल है:
• गवाहों की फीस और खर्च,
• वकीलों की फीस और खर्च,
• अन्य सभी कानूनी कार्यवाही से जुड़े खर्च।
(3) सामान्य नियम:
• हारने वाला पक्ष (unsuccessful party) को जीतने वाले पक्ष (successful party) की लागत चुकानी होती है।
• ❗ लेकिन कोर्ट उचित कारण बताते हुए इस नियम से हट सकता है।
🖼️ उदाहरण:
अगर वादी ने अनुबंध के उल्लंघन पर मुआवजा मांगा,
कोर्ट ने पैसा तो दे दिया लेकिन पाया कि मुआवजा माँगना तंग करने वाला था —
तो कोर्ट वादी पर भी जुर्माना लगा सकता है।
(4) कोर्ट किन बातों पर गौर करेगा (जब लागत तय करेगा):
• (क) पक्षों का आचरण।
• (ख) क्या कोई पक्ष आंशिक रूप से सफल हुआ?
• (ग) क्या किसी ने तुच्छ प्रतिदावा किया जिससे विलम्ब हुआ?
• (घ) क्या समझौते का कोई अच्छा प्रस्ताव था जिसे अनुचित रूप से ठुकराया गया?
• (ई) क्या वादी ने जानबूझकर तंग करने के लिए दावा किया?
(5) कोर्ट कैसे-कैसे आदेश दे सकता है:
• (क) किसी अन्य पक्ष की लागत का एक हिस्सा चुकाओ।
• (ख) लागत के लिए एक निश्चित राशि चुकाओ।
• (ग) किसी तारीख से या उस तक लागत दो।
• (घ) मुकदमा शुरू होने से पहले के खर्च दो।
• (ई) किसी खास प्रक्रिया (step) के लिए खर्च दो।
• (च) मुकदमे के किसी खास हिस्से की लागत दो।
• (छ) लागत पर ब्याज भी दो।
याद रखने की ट्रिक:
“क्लासिक नियम = हारने वाला खर्च देगा।
कोर्ट का विवेक = स्थिति देखकर अलग आदेश भी हो सकता है।
वाणिज्यिक केस = कोर्ट पूरी तरह से खर्च पर विस्तार से आदेश दे सकता है।”
धारा 35A – झूठे या तंग करने वाले दावों या बचावों के लिए प्रतिकर लागत (Compensatory Costs)
🔷 मुख्य उद्देश्य:
अगर कोई व्यक्ति अदालत में जानबूझकर झूठा या तंग करने वाला दावा या बचाव करता है, और वह दावा अस्वीकृत, छोड़ा या वापस लिया जाता है — तो कोर्ट उस पर जुर्माना (प्रतिकर लागत) लगा सकता है।
(1) प्रतिकर लागत लगाने की स्थिति:
यदि –
• किसी पक्षकार ने कोर्ट में यह आपत्ति उठाई कि दूसरा पक्ष जानबूझकर झूठा या तंग करने वाला दावा या बचाव कर रहा है;
• और बाद में वह दावा या बचाव पूरा या कुछ हिस्सा रद्द, छोड़ या वापस ले लिया गया;
• तो कोर्ट, अगर उचित समझे, और अपने कारण लिखकर, प्रतिकर लागत का आदेश दे सकता है।
इसमें निष्पादन कार्यवाही (Execution proceedings) भी शामिल हैं।
❌ लेकिन अपील और पुनरीक्षण (appeal or revision) इसमें शामिल नहीं हैं।
(2) प्रतिकर लागत की अधिकतम सीमा:
कोई भी कोर्ट निम्नलिखित में से जो कम हो, उससे अधिक लागत का आदेश नहीं देगा:
• ₹3,000
• उस कोर्ट की आर्थिक अधिकार सीमा (pecuniary jurisdiction)
विशेष नियम (Small Cause Courts या जहां उनकी जगह कोई कोर्ट नहीं है):
• यदि उस कोर्ट की धनसीमा ₹250 से कम है, तो उच्च न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि वह कोर्ट ₹250 तक प्रतिकर लागत का आदेश दे सकता है।
• और उच्च न्यायालय किसी कोर्ट या कोर्टों के समूह की सीमा भी तय कर सकता है कि वे इस धारा के तहत अधिकतम कितना प्रतिकर तय कर सकते हैं।
(3) आपराधिक जिम्मेदारी से छूट नहीं:
• अगर किसी पर इस धारा के तहत जुर्माना लगाया गया है,
तो इसका मतलब यह नहीं कि वह व्यक्ति फौजदारी (criminal) जिम्मेदारी से बच जाएगा।
🛑 उदाहरण: अगर किसी ने झूठा दावा किया है, और कोर्ट ने जुर्माना लगाया,
फिर भी वह व्यक्ति झूठे हलफनामे आदि के लिए आपराधिक कार्यवाही से नहीं बचेगा।
(4) यह जुर्माना भविष्य में नुकसान की भरपाई में गिना जाएगा:
• अगर झूठे दावे के लिए बाद में कोई मुकदमा चलाया जाए (जैसे मानहानि या हर्जाना),
तो इस धारा के तहत दी गई प्रतिकर रकम को उस मुकदमे में समायोजित किया जा सकता है।
याद रखने का सूत्र:
❗ झूठे या तंग करने वाले दावों पर –
💰 जुर्माना लग सकता है (₹3,000 तक या कोर्ट सीमा तक)
✍ कोर्ट को कारण लिखने होंगे
⚖ आपराधिक केस से छूट नहीं मिलेगी
🧮 जुर्माना, बाद के हर्जाने में गिना जा सकता है
धारा 35B – विलम्ब करने पर व्यय (Cost for Causing Delay)
🔷 मुख्य उद्देश्य:
अगर कोई पक्षकार मुकदमे को अनावश्यक रूप से विलम्बित करता है (delay करता है), तो कोर्ट उसे दूसरे पक्ष को खर्च देने का आदेश दे सकता है।
(1) विलम्ब करने की स्थिति में क्या होगा:
अगर वाद की सुनवाई या किसी कदम के लिए तय तारीख को कोई पक्षकार:
• (a) वह काम नहीं करता जो उसे इस संहिता के अनुसार उस दिन करना चाहिए था,
जैसे – दस्तावेज़ दाखिल करना, गवाही लाना आदि;
या
• (b) उस दिन के लिए स्थगन (adjournment) लेता है किसी कारण से,
जैसे – गवाह न लाना, तैयारी न होना आदि;
तो अदालत आदेश दे सकती है कि:
वह पक्षकार दूसरे पक्ष को उस तारीख पर उपस्थिति के लिए हुए खर्चों की भरपाई करे।
कोर्ट को कारण लिखना जरूरी है।
यह भुगतान तुरंत करना होगा – तभी अगली कार्यवाही हो सकेगी।
यानी: खर्च दिए बिना मुकदमा आगे नहीं बढ़ेगा।
किस पर लागू होगा:
• (i) यदि वादी को भुगतान का आदेश दिया गया, तो वह आगे मुकदमा नहीं चला सकता जब तक खर्च न दे।
• (ii) यदि प्रतिवादी को आदेश दिया गया, तो उसका बचाव (defense) आगे नहीं सुना जाएगा जब तक खर्च न दे।
स्पष्टीकरण:
अगर कई प्रतिवादी हैं और सभी ने अलग-अलग बचाव पेश किया है, तो जिस प्रतिवादी को खर्च देने का आदेश मिला है, वही बाध्य होगा — बाकी नहीं।
(2) खर्च की वसूली और प्रभाव:
• अगर वो खर्च दे दिया गया,
तो उसे मुकदमे की अंतिम डिक्री (final decree) में शामिल नहीं किया जाएगा।
• लेकिन अगर खर्च नहीं दिया गया,
तो कोर्ट एक अलग आदेश तैयार करेगा जिसमें:
💰 खर्च की रकम +
🙋 कौन-कौन व्यक्ति (नाम व पता) वह खर्च देगा
• और यह आदेश सीधे निष्पादित (executed) किया जा सकता है, जैसे कोई डिक्री।
________________________________________
याद रखने का सूत्र:
❗ कोई पक्षकार मुकदमा लटकाए =
💰 दूसरे पक्ष को खर्च दो
✍ कोर्ट कारण लिखेगा
🔒 खर्च दिए बिना आगे कार्यवाही नहीं होगी
🔗 न देने पर आदेश निष्पादन योग्य होगा
धारा 36 – आदेशों पर भी वही नियम लागू होंगे जो डिक्री पर होते हैं
मूल बात:
इस संहिता में जो भी नियम डिक्री के निष्पादन (execution of decree) के बारे में हैं –
वे ही नियम आदेश (order) के निष्पादन पर भी लागू माने जाएंगे, अगर वे उस पर लागू हो सकते हों।
सरल शब्दों में समझें:
• “डिक्री” = कोर्ट का अंतिम निर्णय
• “आदेश” = कोर्ट की कोई निर्देशात्मक या प्रक्रियात्मक बात
डिक्री को लागू (execute) करने के जो तरीके हैं –
जैसे: कुर्की, गिरफ्तारी, संपत्ति की नीलामी आदि —
वही तरीके आदेश पर भी लागू माने जाएंगे।
उदाहरण:
अगर कोर्ट ने आदेश दिया कि कोई पैसा भरे, और वह न भरे,
तो उस आदेश को लागू कराने के लिए भी वही प्रक्रिया अपनाई जाएगी
जो डिक्री लागू कराने के लिए अपनाई जाती है।
याद रखने का सूत्र:
📜 डिक्री वाला नियम = आदेश पर भी लागू
🔁 जब तक वह उस पर लागू हो सकता हो
धारा 37 – “न्यायालय जिसने डिक्री पारित की” की परिभाषा
मुख्य बात:
“न्यायालय जिसने डिक्री पारित की” (court which passed the decree)
का मतलब क्या होता है, जब हम डिक्री के निष्पादन (execution) की बात करते हैं?
इसका मतलब निम्नलिखित न्यायालयों में से कोई भी हो सकता है, अगर संदर्भ या विषय कुछ और न कहे —
(a) अपीलीय डिक्री के मामले में:
जहां डिक्री appeal (अपील) में पारित की गई हो,
वहां “न्यायालय जिसने डिक्री पारित की” का अर्थ होगा:
मूल (प्रथम) न्यायालय (original court) — यानी जहां केस पहले शुरू हुआ था।
(b) जब मूल न्यायालय (original court):
• या तो अब अस्तित्व में नहीं है (abolished),
• या उसके पास अब execution की power नहीं है,
तो उस स्थिति में वह न्यायालय,
जिसे अगर उसी समय (execution application के समय) केस शुरू किया गया होता,
तो वह न्यायालय उसे सुन सकता था —
वही “न्यायालय जिसने डिक्री पारित की” माना जाएगा।
🔍 स्पष्टीकरण:
मूल न्यायालय (original court) की डिक्री निष्पादित करने की शक्ति सिर्फ इसलिए खत्म नहीं मानी जाएगी कि:
• डिक्री पारित होने के बाद या
• केस दाखिल होने के बाद
• क्षेत्र (jurisdiction) किसी और कोर्ट को दे दिया गया।
लेकिन जिस नए क्षेत्र में केस गया है,
वह नया न्यायालय भी डिक्री निष्पादित कर सकता है
अगर उस समय वह उस वाद को सुनने का अधिकार रखता हो।
याद रखने का सार:
स्थिति “न्यायालय जिसने डिक्री पारित की” माना जाएगा
अपील में डिक्री पारित प्रथम न्यायालय (original court)
मूल न्यायालय मौजूद नहीं / शक्ति नहीं रही वह कोर्ट जो अब केस सुन सकता हो
क्षेत्र बदला है दोनों कोर्ट निष्पादित कर सकते हैं
धारा 38 – वह न्यायालय जिसके द्वारा डिक्री निष्पादित की जा सकेगी
मूल प्रावधान का सरल भावार्थ:
किस कोर्ट के पास अधिकार है किसी डिक्री (decree) को निष्पादित (execute) करने का?
डिक्री का निष्पादन दो तरीकों से हो सकता है:
(a) उसी न्यायालय द्वारा:
जिसने डिक्री पास की थी (Court which passed the decree)।
(b) किसी अन्य न्यायालय द्वारा:
जिसे वह डिक्री निष्पादन (execution) के लिए भेजी गई है।
याद रखने का सरल सूत्र:
डिक्री पास करने वाला न्यायालय ➕ जिसे डिक्री भेजी गई हो निष्पादन के लिए —
दोनों में से कोई भी कोर्ट डिक्री निष्पादित कर सकता है।
धारा 39 – डिक्री का अन्तरण
(1) जिस न्यायालय ने डिक्री पास की है, वह डिक्रीदार (decree-holder) के आवेदन पर डिक्री को निष्पादन के लिए किसी अन्य सक्षम अधिकारिता वाले न्यायालय को भेज सकता है, अगर—
• (a) वह व्यक्ति जिसके खिलाफ डिक्री पास की गई है:
वास्तव में और स्वेच्छा से उस दूसरे न्यायालय की सीमाओं में
रहता है, या कारोबार करता है, या निजी लाभ के लिए काम करता है, या
• (b) उस व्यक्ति के पास डिक्री पास करने वाले न्यायालय की सीमा में
डिक्री चुकाने लायक पर्याप्त संपत्ति नहीं है, लेकिन
दूसरे न्यायालय की सीमा में संपत्ति है, या
• (c) डिक्री में किसी अचल संपत्ति (immovable property) की बिक्री या परिदान (delivery) का निर्देश है
और वह संपत्ति उस कोर्ट की सीमा के बाहर है जिसने डिक्री पास की है, या
• (d) वह न्यायालय जिसने डिक्री पास की है, कोई और कारण, जिसे वह लिखकर बताएगा, के आधार पर माने
कि डिक्री का निष्पादन दूसरे न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए।
(2) डिक्री पारित करने वाला न्यायालय स्वतः (स्वप्रेरणा से) भी डिक्री को अपने अधीनस्थ किसी सक्षम न्यायालय को निष्पादन के लिए भेज सकता है।
(3) “सक्षम अधिकारिता वाला न्यायालय” का मतलब:
वह न्यायालय जहां डिक्री भेजी जा रही है,
डिक्री के अंतरण के समय, उसे ऐसा वाद (जिसमें डिक्री बनी) सुनने का अधिकार होता।
(4) यह धारा इस बात की अनुमति नहीं देती कि जिस न्यायालय ने डिक्री पास की है, वह—
अपनी सीमा के बाहर
किसी व्यक्ति या संपत्ति के खिलाफ डिक्री का निष्पादन कर सके।
✳ यानी: बिना डिक्री ट्रांसफर किए सीमा के बाहर निष्पादन नहीं किया जा सकता।
याद रखने का आसान सूत्र:
डिक्री जिस कोर्ट ने पास की, वो उसे निष्पादन के लिए भेज सकता है:
अगर व्यक्ति/संपत्ति बाहर है
या संपत्ति दूसरी जगह है
या खुद कोर्ट ऐसा उपयुक्त माने
लेकिन उसे तभी भेजे जहां उस समय वाद चलाने का अधिकार हो
और वह खुद अपनी सीमा के बाहर निष्पादन नहीं कर सकता।
धारा 40 – डिक्री का दूसरे राज्य को स्थानांतरण
जब कोई डिक्री निष्पादन (execution) के लिए किसी अन्य राज्य में भेजी जाती है,
तब:
• उसे उस राज्य के उस न्यायालय को भेजा जाएगा, जो वहाँ की प्रक्रिया के अनुसार उपयुक्त (उचित) हो।
• उस डिक्री को उस राज्य में लागू नियमों के अनुसार निष्पादित किया जाएगा।
सारांश में याद रखें:
जब डिक्री दूसरे राज्य में भेजी जाए,
तो वहाँ के नियमों और प्रक्रिया से निष्पादित होगी,
और डिक्री उसी राज्य के उपयुक्त न्यायालय को भेजी जाएगी।
धारा 41 – निष्पादन कार्यवाही का परिणाम प्रमाणित किया जाना (Result of execution proceeding to be certified)
जिस न्यायालय के पास डिक्री को निष्पादन (execution) के लिए भेजा गया है,
उसे करना होगा:
• उस डिक्री को पारित करने वाले न्यायालय को यह प्रमाणित (certify) करना कि:
डिक्री का निष्पादन किया गया है, या यदि निष्पादन नहीं हुआ है, तो
निष्पादन में असफल रहने के कारणों (reasons of failure) को प्रमाणित करना होगा।
संक्षेप में याद रखने योग्य बिंदु:
निष्पादन के बाद रिपोर्ट देना ज़रूरी है –
जहाँ डिक्री भेजी गई है, वह न्यायालय निष्पादन का परिणाम (result) या असफलता की वजह (reason) को मूल न्यायालय को लिखकर बताएगा।
धारा 42 – अन्तरित डिक्री के निष्पादन में न्यायालय की शक्तियाँ (Powers of Court in executing transferred decree)
(1)
जिस न्यायालय को डिक्री निष्पादन के लिए भेजी गई है, उसे डिक्री के निष्पादन में वैसी ही शक्तियाँ होंगी जैसे डिक्री उसी न्यायालय ने पारित की हो।
यदि कोई व्यक्ति डिक्री का उल्लंघन करता है (डिक्री की अवहेलना करता है)
या उसके निष्पादन में बाधा डालता है,
तो उसे वही दंड (punishment) मिल सकता है
जैसे कि डिक्री उस न्यायालय ने खुद दी हो।
उस न्यायालय के निष्पादन संबंधी आदेशों पर अपील के नियम भी उसी तरह लागू होंगे, जैसे डिक्री उसी द्वारा दी गई हो।
(2)
(1) में दी गई शक्तियों को सीमित किए बिना,
निम्नलिखित विशेष शक्तियाँ भी मानी जाएंगी:
(क) धारा 39 के तहत डिक्री को किसी अन्य न्यायालय को भेजने की शक्ति।
(ख) धारा 50 के तहत मृतक निर्णय-ऋणी के कानूनी प्रतिनिधियों के विरुद्ध डिक्री निष्पादन की शक्ति।
(ग) डिक्री के अंतर्गत कुर्की (attachment) का आदेश देने की शक्ति।
(3)
जब उपरोक्त शक्तियों का प्रयोग करके कोई आदेश पारित किया जाए,
तो उसकी एक प्रति उस मूल न्यायालय को भेजी जाएगी
जिसने डिक्री पारित की थी।
(4)
न्यायालय को, जिसे डिक्री निष्पादन के लिए भेजी गई है,
निम्न शक्तियाँ नहीं समझी जाएंगी:
(क) डिक्री अन्तरिती (transferee-decree holder) के अनुरोध पर निष्पादन का आदेश देने की शक्ति।
(ख) फर्म के विरुद्ध पारित डिक्री के मामले में,
Order 21 Rule 50(1)(b) या (c) में बताए गए व्यक्तियों के अलावा किसी और व्यक्ति के खिलाफ निष्पादन की अनुमति देने की शक्ति।
🧠 स्मरण हेतु विशेष बिंदु (Exam Point Summary):
जिस न्यायालय को डिक्री भेजी जाती है, उसे मूल न्यायालय जैसी ही शक्तियाँ मिलती हैं,
पर कुछ शक्तियाँ प्रतिबंधित होती हैं।
धारा 43 – उन स्थानों में सिविल न्यायालयों द्वारा पारित डिक्री का निष्पादन, जिन पर इस संहिता का विस्तार नहीं है(Execution of decrees passed by Civil Courts in places to which this Code does not extend)
सरल शब्दों में अर्थ:
भारत के किसी ऐसे भाग में स्थापित सिविल न्यायालय, जिस पर यह सिविल प्रक्रिया संहिता (CPC) लागू नहीं होती,
या
भारत के बाहर, केन्द्रीय सरकार के अधिकार से स्थापित या चालू किसी न्यायालय द्वारा पारित की गई डिक्री,
यदि उस डिक्री को उसी न्यायालय के क्षेत्र में निष्पादित नहीं किया जा सकता,
तो वह डिक्री,
भारत के ऐसे क्षेत्र में स्थित किसी न्यायालय द्वारा निष्पादित की जा सकती है,
जहां CPC लागू होती है,
और वह निष्पादन इस संहिता (CPC) में दी गई प्रक्रिया के अनुसार किया जाएगा।
स्मरण हेतु विशेष बिंदु (Exam Point Summary):
यह धारा भारत के बाहर या CPC से बाहर के क्षेत्र में बनी डिक्री को भारत में लागू न्यायालयों द्वारा निष्पादित करने की व्यवस्था देती है।
निष्पादन CPC के अनुसार ही होगा,
यदि वह डिक्री उसी न्यायालय में निष्पादित नहीं की जा सकती जहां वह पारित हुई।
धारा 44 – राजस्व न्यायालयों द्वारा उन स्थानों में पारित डिक्रियों का निष्पादन, जिन पर इस संहिता का विस्तार नहीं है (Execution of decrees passed by Revenue Courts in places to which this Code does not extend)
यदि भारत के किसी भाग में स्थित कोई राजस्व न्यायालय, जहां यह CPC संहिता लागू नहीं होती, कोई डिक्री (या डिक्री का कोई वर्ग) पारित करता है,
तो राज्य सरकार एक राजपत्र (Official Gazette) में अधिसूचना (Notification) जारी करके यह घोषणा कर सकती है कि ऐसी डिक्री या डिक्रियों का वह वर्ग, उस राज्य के न्यायालयों द्वारा पारित डिक्री की तरह निष्पादित किया जाएगा।
स्मरण हेतु विशेष बिंदु (Exam Point Summary):
यह धारा राजस्व न्यायालयों की डिक्री से संबंधित है,
और तब लागू होती है जब CPC उस क्षेत्र में लागू नहीं होती।
राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा ऐसी डिक्री को वैध निष्पादन का अधिकार देती है।
इसके तहत, ऐसी डिक्री को राज्य के न्यायालय की डिक्री माना जाएगा निष्पादन हेतु।
धारा 44A – पारस्परिक क्षेत्र (Reciprocating Territory) में न्यायालयों द्वारा पारित डिक्री का निष्पादन (Execution of decrees passed by Courts in reciprocating territory)
(1)
यदि किसी पारस्परिक क्षेत्र (reciprocating territory) के किसी उच्च न्यायालय (Superior Court) की डिक्री की प्रमाणित प्रति (certified copy) भारत के किसी जिला न्यायालय (District Court) में फाइल की जाती है,
तो ऐसी डिक्री को ऐसे निष्पादित किया जाएगा, जैसे वह डिक्री उसी जिला न्यायालय द्वारा पारित की गई हो।
(2)
डिक्री की प्रमाणित प्रति के साथ-साथ,
उस उच्च न्यायालय द्वारा जारी एक प्रमाणपत्र भी दाखिल किया जाएगा—
जिसमें बताया गया होगा कि—
डिक्री किस हद तक पूरी हो चुकी है (satisfied)
या उसमें क्या समायोजन हुआ है (adjusted)।
यह प्रमाणपत्र ही निष्पादन कार्यवाही में अंतिम प्रमाण (conclusive proof) माना जाएगा।
(3)
जैसे ही डिक्री की प्रमाणित प्रति दाखिल कर दी जाती है,
तब धारा 47 लागू होगी, यानी—
जिला न्यायालय को उसी तरह से निष्पादन से संबंधित विवादों का निर्णय करना होगा।
और यदि यह प्रमाणित कर दिया जाए कि वह डिक्री—
धारा 13 के क्लॉज (a) से (e) तक के किसी अपवाद में आती है,
तो जिला न्यायालय ऐसी डिक्री के निष्पादन से इनकार करेगा।
स्पष्टीकरण 1
“पारस्परिक क्षेत्र” (Reciprocating Territory)
वह देश या क्षेत्र है जो भारत से बाहर स्थित है,
और जिसे भारत की केंद्र सरकार ने राजपत्र में अधिसूचना द्वारा घोषित किया हो
कि वह इस धारा के लिए पारस्परिक क्षेत्र माना जाएगा।
और वहाँ के “उच्च न्यायालय” वे होंगे जो अधिसूचना में विशेष रूप से बताए गए हैं।
स्पष्टीकरण 2
“डिक्री” का मतलब है—
ऐसा आदेश या निर्णय जिसके तहत कोई रकम देय हो,
❌ लेकिन यह रकम कर (taxes),
❌ सरचार्ज या जुर्माना (penalty),
❌ या दंडात्मक रकम (punitive amount) न होनी चाहिए।
❌ मध्यस्थता पंचाट (arbitration award) को इसमें शामिल नहीं किया गया है,
चाहे वह डिक्री के रूप में प्रवर्तनीय ही क्यों न हो।
स्मरण के लिए विशेष बातें (Exam Point Summary):
केवल वित्तीय डिक्री निष्पादित की जा सकती है – टैक्स, जुर्माना, या पंचाट नहीं।
प्रमाणपत्र जरूरी है, जो यह दिखाए कि डिक्री कितनी संतुष्ट हुई है।
धारा 13 के क्लॉज (a)–(e) यदि लागू हो जाएं, तो निष्पादन नहीं होगा।
केंद्र सरकार राजपत्र में “Reciprocating Territory” घोषित करती है।
निष्पादन मानो डिक्री भारतीय जिला न्यायालय द्वारा पारित हुई हो।
धारा 45 – भारत के बाहर डिक्रियों का निष्पादन (Execution of Decrees outside India)
मुख्य भावार्थ (Main Idea) :
इस धारा में कहा गया है कि –
जिन धाराओं में किसी न्यायालय को यह अधिकार दिया गया है कि वह किसी डिक्री को दूसरे न्यायालय को निष्पादन के लिए भेज सकता है,
उन धाराओं का अर्थ यह भी माना जाएगा कि—
कोई राज्य का न्यायालय,
भारत से बाहर स्थित किसी ऐसे न्यायालय को भी डिक्री भेज सकता है,
जो न्यायालय—
केंद्र सरकार के प्राधिकार से स्थापित हुआ हो, और
जिसे राज्य सरकार ने राजपत्र में अधिसूचना द्वारा यह घोषित किया हो
कि उस पर यह धारा लागू होती है।
स्मरण हेतु मुख्य बिंदु (Exam-Point Notes):
यह धारा भारत के बाहर डिक्री भेजने की अनुमति देती है।
परन्तु केवल उन्हीं विदेशी न्यायालयों को,
जो केंद्र सरकार के प्राधिकार से स्थापित हैं, और
जिन्हें राज्य सरकार द्वारा अधिसूचना में सूचीबद्ध किया गया हो।
इस धारा को पढ़ते समय आपको ध्यान रखना होगा कि यह पहले की धाराओं की व्याख्या का काम करती है।
धारा 46 – उपदेश (Precept)
(1)
जब डिक्रीधारक (decree-holder) आवेदन करे, तो वह न्यायालय जिसने डिक्री पारित की है, जब भी उसे उचित लगे, वह किसी दूसरे न्यायालय को, जो उस डिक्री को निष्पादित करने में सक्षम हो, निर्णीत-ऋणी (judgment-debtor) की उस संपत्ति को,
जो डिक्री में बताई गई है, कुर्क (attach) करने का आदेश भेज सकता है।
________________________________________
(2)
वह न्यायालय जिसे यह आदेश (उपदेश) भेजा गया है, वह नियत विधि के अनुसार (as per rules) उस संपत्ति की कुर्की करेगा।
परंतु (बशर्ते):
ऐसी कुर्की अधिकतम 2 माह तक ही जारी रहेगी, जब तक—
(a) डिक्री पारित करने वाला न्यायालय उस अवधि को बढ़ा न दे, या
(b) कुर्की की अवधि समाप्त होने से पहले—
• डिक्री उस न्यायालय को स्थानांतरित (transfer) न कर दी जाए
जिसने कुर्की की है, और
• डिक्रीधारक ने उस संपत्ति की बिक्री के लिए आदेश की मांग न कर दी हो।
🧠 स्मरण हेतु सूत्रबद्ध बिंदु (Memory Notes):
डिक्री पारित करने वाला न्यायालय दूसरे न्यायालय को “उपदेश” के रूप में संपत्ति कुर्क करने का आदेश भेज सकता है।
यह तब होता है जब डिक्री उस न्यायालय को अभी स्थानांतरित नहीं की गई होती।
कुर्की की अधिकतम अवधि 2 माह है, बशर्ते (unless) उसे बढ़ाया न जाए या
बिक्री हेतु डिक्री स्थानांतरित न हो जाए।
यह तत्काल अस्थायी संरक्षण (interim attachment) का उपाय है।
धारा 47 – डिक्री निष्पादन संबंधी प्रश्नों का निर्णय
(1)
जिस वाद (case) में डिक्री पारित की गई थी, उसके पक्षकारों (parties) या उनके प्रतिनिधियों के बीच, जो भी प्रश्न (questions) उत्पन्न होते हैं—
जो डिक्री के निष्पादन (execution), उन्मोचन (discharge) या तुष्टि (satisfaction) से संबंधित हों,
वे उसी न्यायालय द्वारा तय किए जाएंगे, जो डिक्री का निष्पादन कर रहा है।
❌ ऐसे प्रश्नों के लिए नया वाद (separate suit) नहीं चलाया जाएगा।
(2) ❌ (विलोपित कर दिया गया है) – इस उपखंड को हटा दिया गया है।
(3)
अगर यह प्रश्न उठता है कि कोई व्यक्ति किसी पक्षकार का प्रतिनिधि (representative) है या नहीं, तो इस प्रश्न का निर्णय भी न्यायालय द्वारा ही किया जाएगा इस धारा के प्रयोजन हेतु।
स्पष्टीकरण 1
इस धारा के प्रयोजन हेतु,
• वह वादी (plaintiff) जिसका वाद खारिज कर दिया गया हो,
• और वह प्रतिवादी (defendant) जिसके विरुद्ध वाद खारिज हुआ हो, वे इस वाद के पक्षकार माने जाएंगे।
स्पष्टीकरण 2
(क) डिक्री के निष्पादन में अगर संपत्ति की नीलामी में कोई खरीदार (auction purchaser) है, तो उसे भी उस वाद का पक्षकार माना जाएगा जिसमें डिक्री पारित हुई।
(ख) ऐसी संपत्ति का कब्जा उस क्रेता या उसके प्रतिनिधि को देने से जुड़े सभी प्रश्न, इस धारा के अंतर्गत निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से संबंधित माने जाएंगे।
स्मरण हेतु मुख्य बिंदु (Memory Points):
डिक्री से जुड़े सभी निष्पादन संबंधी प्रश्न उसी न्यायालय द्वारा तय किए जाएंगे, नया वाद नहीं चलेगा।
“प्रतिनिधि” होने का विवाद भी इसी न्यायालय द्वारा तय होगा।
नीलामी-क्रेता भी वाद का पक्षकार माना जाएगा।
कब्जा सौंपने से जुड़े विवाद भी इसी धारा के अंतर्गत आएंगे।
Section 48: Repealed
धारा 49 – हस्तांतरिती (Transferee)
यदि कोई डिक्री किसी व्यक्ति को हस्तांतरित (transfer) की जाती है, तो वह व्यक्ति यानी हस्तांतरिती उस डिक्री को उसी स्थिति (same position) में धारण करेगा जैसे कि मूल डिक्रीधारक ने उसे धारण किया होता।
मतलब यह कि:
डिक्री का निर्णीत-ऋणी (judgment-debtor) अगर मूल डिक्रीधारक के विरुद्ध
कोई समता (equity – जैसे कोई कानूनी अधिकार, कटौती, समायोजन आदि) लागू कर सकता था, तो वह उसी प्रकार की समता हस्तांतरिती (transferee) के विरुद्ध भी लागू कर सकेगा।
स्मरण हेतु सरल बिंदु (Memory Tips):
अगर डिक्री किसी को ट्रांसफर हुई है, तो वह नए व्यक्ति (हस्तांतरिती) को
उसी स्थिति में माना जाएगा जैसे कि मूल डिक्रीधारक।
निर्णीत-ऋणी को जितने अधिकार पहले थे, वही अधिकार हस्तांतरिती के विरुद्ध भी मान्य होंगे।
धारा 50 – विधिक प्रतिनिधि (Legal Representative)
(1)
यदि निर्णीत-ऋणी (judgment-debtor) की मृत्यु डिक्री के पूरी तरह संतुष्ट (fulfilled) होने से पहले हो जाती है, तो डिक्रीधारक उस न्यायालय से जिसने डिक्री पारित की थी, निर्णीत-ऋणी के विधिक प्रतिनिधि के खिलाफ डिक्री को निष्पादित (execute) करने के लिए आवेदन कर सकता है।
(2)
यदि डिक्री को विधिक प्रतिनिधि (legal representative) के विरुद्ध निष्पादित किया जाता है, तो वह विधिक प्रतिनिधि केवल मृतक की उस संपत्ति की सीमा तक ही जिम्मेदार (liable) होगा जो उसके हाथ में आई है और जिसका उसने अभी तक ठीक से निपटारा नहीं किया है।
और इस जिम्मेदारी (liability) को निर्धारित करने के लिए, डिक्री निष्पादित करने वाला न्यायालय –
अपनी मर्जी से या
डिक्रीधारक के आवेदन पर –
विधिक प्रतिनिधि से लेखा (account) देने को कह सकता है, जैसा वह न्यायालय ठीक समझे।
🧠 स्मरण हेतु सरल बिंदु (Memory Tips):
अगर judgment-debtor मर गया है, तो डिक्री legal representative के खिलाफ चलेगी।
लेकिन वह सिर्फ उतनी ही संपत्ति के लिए जिम्मेदार होगा, जितनी उसे मिली है और जिसका अभी तक उसने निपटान नहीं किया है।
कोर्ट उससे लेखा देने (accounting) को कह सकता है।
धारा 51 – निष्पादन को लागू करने की न्यायालय की शक्तियाँ
कुछ शर्तों और सीमाओं के अंतर्गत (जो तय की जा सकती हैं), न्यायालय, डिक्रीधारक के आवेदन पर, डिक्री के निष्पादन का आदेश दे सकता है:
(क)
किसी खास संपत्ति के वितरण (distribution) द्वारा, जिसका डिक्री में विशेष रूप से आदेश दिया गया हो।
(ख)
किसी संपत्ति की कुर्की (attachment) और बिक्री द्वारा, या बिना कुर्की के सीधे बिक्री द्वारा।
(ग)
गिरफ्तारी (arrest) और जेल में भेजने (detention in prison) द्वारा, बशर्ते यह अवधि धारा 58 में निर्धारित अधिकतम अवधि से अधिक न हो, जहां गिरफ्तारी और निरुद्धि की अनुमति है।
(घ)
Receiver की नियुक्ति करके।
(ई)
ऐसी किसी और विधि से, जो डिक्री में दी गई राहत (relief) की प्रकृति के अनुसार जरूरी हो।
⚠️ परन्तु (Important Proviso):
अगर डिक्री धनराशि चुकाने (money decree) के लिए है, तो जेल भेजकर निष्पादन का आदेश तब तक नहीं दिया जाएगा,
जब तक कि:
– निर्णीत-ऋणी को यह मौका न दिया जाए कि वह यह कारण बताए कि उसे जेल क्यों न भेजा जाए, और
– न्यायालय को लिखित कारणों से यह संतोष न हो जाए कि:
(क)
निर्णीत-ऋणी ने डिक्री के निष्पादन में बाधा डालने या विलंब करने के उद्देश्य से:
• (i) न्यायालय की सीमा से भागने या बाहर जाने की संभावना बनाई है, या
• (ii) मुकदमा दाखिल होने के बाद अपनी संपत्ति को बेईमानी से बेचा, छिपाया या हटा दिया है, या अन्य कोई दुर्भावनापूर्ण कार्य किया है।
(ख)
निर्णीत-ऋणी के पास डिक्री की राशि या उसका कोई पर्याप्त हिस्सा चुकाने का साधन है (या डिक्री की तारीख से था) और वह उसे चुकाने से इनकार करता है या उपेक्षा करता है।
(ग)
डिक्री उस राशि के लिए है, जिसे देने के लिए निर्णीत-ऋणी trustee (प्रत्ययी हैसियत) में बाध्य था।
✍️ स्पष्टीकरण:
उप-खंड (ख) के लिए, निर्णीत-ऋणी की आय की गणना करते समय,
ऐसी संपत्ति को नहीं छोड़ा जाएगा जो किसी क़ानून या परंपरा के तहत डिक्री के निष्पादन में कुर्की से छूट प्राप्त है।
🧠 स्मरण बिंदु (Memory Tips):
निष्पादन के 5 तरीके: वितरण, कुर्की-बिक्री, गिरफ्तारी, रिसीवर, अन्य तरीका।
धन वाली डिक्री में जेल भेजने से पहले अवसर देना ज़रूरी है।
कोर्ट को लिखित रूप से यह मानना पड़ेगा कि डिफॉल्टर ने भागने, संपत्ति छिपाने, या भुगतान से इनकार करने जैसा कुछ किया है।
धारा 52 – विधिक प्रतिनिधि के विरुद्ध डिक्री का प्रवर्तन
(1)
जब किसी मृत व्यक्ति के विधिक प्रतिनिधि के रूप में किसी व्यक्ति के विरुद्ध डिक्री पारित की जाती है, और वह डिक्री मृतक की संपत्ति से धन चुकाने (payment of money) से संबंधित होती है, तब वह डिक्री ऐसी संपत्ति की कुर्की (attachment) और बिक्री (sale) द्वारा निष्पादित की जा सकती है।
(2)
अगर उस निर्णीत-ऋणी (judgment-debtor) के पास अब ऐसी कोई संपत्ति नहीं बची,
और वह न्यायालय को यह संतुष्ट (satisfy) कराने में असफल रहता है कि उसने जो मृतक की संपत्ति अपने पास ली थी, उसे उसने उचित तरीके (properly) से खर्च (dispose) कर दिया,
तब, न्यायालय यह मान सकता है कि निर्णीत-ऋणी के खिलाफ डिक्री उसी संपत्ति की सीमा तक लागू की जाए, जैसे कि डिक्री उसके खिलाफ व्यक्तिगत रूप से (personally) पारित हुई हो।
🧠 स्मरण बिंदु (Memory Tips):
विधिक प्रतिनिधि पर डिक्री = केवल मृतक की संपत्ति से भुगतान।
यदि संपत्ति नहीं बची और न्यायालय को संतोष नहीं होता कि उपयोग ठीक से हुआ,
तब प्रतिनिधि व्यक्तिगत जिम्मेदार माना जाएगा उतनी संपत्ति की सीमा तक।
धारा 53 – पैतृक संपत्ति का दायित्व
धारा 50 और धारा 52 के प्रयोजनों (purposes) के लिए, जो संपत्ति पुत्र या अन्य वंशज (descendant) के पास है,
और जो हिंदू विधि (Hindu Law) के अनुसार मृतक पूर्वज (deceased ancestor) के ऋण (loan/debt) के भुगतान (payment) के लिए दायी (liable) है, उसे ऐसा माना जाएगा कि वह मृतक की संपत्ति (property of the deceased) है,
जो कि विधिक प्रतिनिधि (legal representative) के रूप में उस पुत्र या वंशज के पास आई है।
🧠 स्मरण बिंदु (Memory Tip):
हिंदू विधि के तहत पुत्र या वंशज की पास जो पैतृक संपत्ति है,
वह डिक्री के ऋण के लिए उत्तरदायी मानी जाएगी
और उसे ऐसा माना जाएगा मानो मृतक की संपत्ति विधिक प्रतिनिधि के पास आई हो।
धारा 54 – संपदा का विभाजन या हिस्से का पृथक्करण
जब कोई डिक्री इस बात के लिए हो —
(क) कि सरकार को राजस्व (revenue) चुकाने के लिए अविभाजित संपत्ति (undivided estate) का विभाजन (partition) किया जाए,
या
(ख) ऐसी संपत्ति में से किसी हिस्से (share) का पृथक कब्जा (separate possession) दिया जाए,
तब यह कार्य किया जाएगा — कलेक्टर (Collector) द्वारा या कलेक्टर के किसी राजपत्रित (gazetted) अधीनस्थ अधिकारी द्वारा, जिसे इस उद्देश्य के लिए नियुक्त किया गया हो।
और यह कार्य उन नियमों/कानूनों के अनुसार किया जाएगा,
जो ऐसी संपत्ति के विभाजन या हिस्से के पृथक्करण से संबंधित उस समय प्रवृत्त विधि (existing law) हो।
🧠 स्मरण बिंदु (Memory Tip):
अगर डिक्री में सरकार को पैसा चुकाने के लिए संपत्ति का विभाजन या किसी हिस्से का अलग कब्जा देना है,
तो यह राजस्व अधिकारी (Collector या उसका अधीनस्थ) करेगा,
और जो कानून उस समय लागू होगा, उसी के अनुसार करेगा।
धारा 55 – गिरफ्तारी और नजरबंदी
(1) गिरफ्तारी और नजरबंदी की प्रक्रिया:
• निर्णीत-ऋणी (decree-debtor) को किसी भी दिन और किसी भी समय डिक्री के निष्पादन में गिरफ्तार किया जा सकता है और उसे जल्द से जल्द न्यायालय के सामने लाया जाएगा।
• उसे उस जिले के सिविल कारागार में बंद किया जाएगा:
o जहां न्यायालय स्थित है, जिसने गिरफ्तारी का आदेश दिया है, या
o यदि उस जिले में उपयुक्त सिविल कारागार नहीं है, तो राज्य सरकार द्वारा निर्धारित किसी अन्य स्थान में।
⚠️ चार “परन्तु” – विशेष सावधानियाँ:
1. पहला परन्तु:
सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले किसी निवास-गृह में प्रवेश नहीं किया जाएगा।
2. दूसरा परन्तु:
निवास-गृह का दरवाजा तब तक नहीं तोड़ा जाएगा,जब तक:
o वह निर्णीत-ऋणी के कब्जे में न हो, और
o वह प्रवेश से मना न करे या रोके नहीं।
परन्तु, यदि अधिकारी अंदर प्रवेश कर गया,
तो वह उस कमरे का दरवाजा तोड़ सकता है,
जहाँ उसे विश्वास है कि निर्णीत-ऋणी मौजूद हो सकता है।
3. तीसरा परन्तु:
यदि वह कमरा ऐसी महिला के कब्जे में है,
o जो निर्णीत-ऋणी नहीं है, और
o जो देश की परंपरा अनुसार सार्वजनिक रूप से नहीं दिखती,
तो अधिकारी:
o उसे सूचित करेगा कि वह हट सकती है,
o उचित समय और सुविधा देगा,
o और फिर कमरे में प्रवेश करेगा।
4. चौथा परन्तु:
यदि डिक्री धन के भुगतान की है, और
निर्णीत-ऋणी तुरंत डिक्री की रकम और गिरफ्तारी खर्चा
गिरफ्तारी करने वाले अधिकारी को दे देता है,
तो उसे तुरंत छोड़ दिया जाएगा।
(2) राज्य सरकार की शक्ति:
राज्य सरकार राजपत्र अधिसूचना द्वारा यह घोषित कर सकती है कि:
• किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के वर्ग,
• जिनकी गिरफ्तारी से जनता को खतरा या असुविधा हो सकती है,
उन्हें केवल सरकार द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही गिरफ्तार किया जा सकता है।
________________________________________
(3) दिवालियापन की सूचना:
यदि निर्णीत-ऋणी को डिक्री के तहत गिरफ्तार करके न्यायालय में लाया गया है,
तो न्यायालय उसे बताएगा कि:
• वह दिवालिया घोषित होने के लिए आवेदन कर सकता है,
• और अगर उसने कोई गलत/दुरुपयोग का कार्य नहीं किया है,
• तथा दिवालिया कानून के प्रावधानों का पालन करता है,
तो उसे छोड़ा जा सकता है।
(4) दिवालिया बनने का आशय और जमानत:
यदि निर्णीत-ऋणी कहता है कि वह एक माह में दिवालियापन का आवेदन करेगा,
और यह भी कि वह जब बुलाया जाएगा, उपस्थित रहेगा,
और वह उचित जमानत देता है,
तो न्यायालय उसे छोड़ सकता है।
🔴 यदि वह:
• समय पर आवेदन नहीं करता, या
• हाजिर नहीं होता,
तो न्यायालय:
• जमानत वसूल करेगा, या
• उसे फिर से गिरफ्तार कर सिविल जेल भेज देगा।
सारांश में याद रखें:
• गिरफ्तारी किसी भी समय हो सकती है लेकिन रात को घर में नहीं घुसा जाएगा।
• महिलाओं की सुरक्षा और गोपनीयता का ध्यान रखा जाएगा।
• पैसा चुका देने पर तुरंत छोड़ दिया जाएगा।
• दिवालिया बनने का विकल्प भी उपलब्ध है।
धारा 56 – महिलाओं की गिरफ्तारी का निषेध (Prohibition on Arrest of Women)
📜 मुख्य बात:
इस भाग में कुछ भी लिखा हो, फिर भी न्यायालय यह आदेश नहीं देगा कि कोई महिला,
को धन के भुगतान वाली डिक्री के निष्पादन में गिरफ्तार की जाए या सिविल जेल में डाला जाए।
सरल भाषा में समझें:
• अगर किसी महिला के खिलाफ कोई डिक्री (court order) पास हुआ है कि वह किसी को पैसे चुकाए,
तब भी उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, और उसे जेल में नहीं डाला जा सकता, सिर्फ इस वजह से कि उसने पैसे नहीं चुकाए।
मुख्य बात याद रखने के लिए:
पैसे की डिक्री में महिला को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता – यह पूरी तरह मना (प्रतिषेधित) है।
धारा 57 – निर्वाह भत्ता
(Section 57 – Subsistence Allowance)
राज्य सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह:
• निर्णीत ऋणियों (जिनके खिलाफ ऋण संबंधी निर्णय दिया जा चुका है)
• उनके जीवन निर्वाह (living expenses) के लिए
• देय मासिक भत्ते (monthly allowance) को निर्धारित कर सकती है —
और यह निर्धारण निम्नलिखित बातों के आधार पर किया जाएगा:
• वेतनमान (pay scale),
• पद (position or designation),
• मूलवंश (descent or origin), और
• राष्ट्रीयता (nationality)।
मुख्य बिंदु (Revision Point Format)
• यह धारा निर्णयित ऋणियों के लिए है।
• राज्य सरकार मासिक निर्वाह भत्ता तय कर सकती है।
• भत्ता तय करते समय ध्यान में रखे जाएंगे – वेतनमान, पद, मूलवंश और राष्ट्रीयता।
• यह भत्ता जीवन-निर्वाह के लिए होता है।
धारा 58 – नजरबंदी और रिहाई (Section 58 – Detention and Release)
(1) डिक्री के निष्पादन में सिविल जेल में बंद किए गए व्यक्ति के लिए अवधि की सीमा:
• (क) जहां डिक्री की राशि ₹5,000 से अधिक है
➤ वहां 3 महीने से अधिक समय के लिए नजरबंद नहीं किया जा सकता।
• (ख) जहां डिक्री की राशि ₹2,000 से अधिक लेकिन ₹5,000 से कम है
➤ वहां 6 सप्ताह से अधिक नजरबंदी नहीं की जा सकती।
(1A) स्पष्टीकरण:
• यदि डिक्री की कुल राशि ₹2,000 या उससे कम है,
➤ तो नजरबंदी (जेल भेजने) का आदेश नहीं दिया जाएगा।
यानी इतनी छोटी रकम के लिए किसी को जेल में नहीं डाला जा सकता।
(2) रिहाई का प्रभाव:
• यदि कोई डिक्री-ऋणी इस धारा के तहत जेल से रिहा हो जाता है:
➤ तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसका कर्ज माफ हो गया है।
➤ लेकिन उसे उसी डिक्री के लिए फिर से गिरफ्तार नहीं किया जा सकता जिसके लिए वह पहले जेल में था।
मुख्य बिंदु (Revision Format):
• ₹5,000 से ऊपर की डिक्री – 3 महीने तक नजरबंदी।
• ₹2,000–5,000 की डिक्री – 6 हफ्ते तक नजरबंदी।
• ₹2,000 या कम राशि की डिक्री – नजरबंदी नहीं हो सकती।
• रिहा होने का मतलब ऋण से छुटकारा नहीं।
• लेकिन उसी डिक्री पर दोबारा जेल नहीं हो सकती।
धारा 59 – बीमारी के आधार पर रिहाई (Section 59 – Release on the ground of illness)
(1) गिरफ्तारी से पहले बीमारी के आधार पर राहत:
• यदि निर्णीत ऋणी (judgment-debtor) के खिलाफ गिरफ्तारी का वारंट जारी हो चुका हो,
➤ तब भी कोई भी समय, न्यायालय उसे उसकी गंभीर बीमारी के कारण गिरफ्तार न करने का आदेश (वारंट रद्द) कर सकता है।
(2) गिरफ्तारी हो चुकी हो, लेकिन स्वास्थ्य ठीक न हो:
• यदि निर्णीत ऋणी को गिरफ्तार किया गया है,
➤ और न्यायालय की राय में उसका स्वास्थ्य जेल में रहने लायक नहीं है,
➤ तो न्यायालय उसे रिहा कर सकता है।
(3) यदि ऋणी जेल में पहले से बंद है, तो उसकी रिहाई के दो आधार हो सकते हैं:
• (क) यदि जेल में कोई संक्रामक या फैलने वाला रोग है,तो राज्य सरकार उसे रिहा कर सकती है।
• (ख) यदि वह गंभीर बीमारी से पीड़ित है, तो उसे प्रतिबद्ध न्यायालय या
➤ उस न्यायालय द्वारा, जिसके अधीन वह न्यायालय आता है, रिहा किया जा सकता है।
(4) रिहाई के बाद पुनः गिरफ्तारी की संभावना:
• अगर किसी निर्णीत ऋणी को बीमारी के आधार पर रिहा किया गया हो,
➤ तो उसे फिर से गिरफ्तार किया जा सकता है।
लेकिन उसे सिविल कारागार में कुल मिलाकर उतनी ही अवधि तक रखा जा सकता है
➤ जितनी धारा 58 के तहत अधिकतम नजरबंदी अवधि तय की गई है।
________________________________________
संक्षेप में मुख्य बिंदु (Revision Friendly):
• गिरफ्तारी से पहले गंभीर बीमारी – वारंट रद्द हो सकता है।
• गिरफ्तार हो चुका हो, स्वास्थ्य ठीक नहीं – रिहाई संभव।
• जेल में है, तब:
o संक्रामक रोग – राज्य सरकार रिहा कर सकती है।
o गंभीर बीमारी – न्यायालय रिहा कर सकता है।
• रिहा किए गए ऋणी को फिर से गिरफ्तार किया जा सकता है,
➤ लेकिन कुल जेल अवधि धारा 58 के अनुसार सीमित रहेगी।
धारा 60. डिक्री के निष्पादन में कुर्की और बिक्री के लिए उत्तरदायी संपत्ति।
(1) निम्नलिखित संपत्ति डिक्री के निष्पादन में कुर्की (जब्त) और बिक्री के लिए उत्तरदायी है –
यानी –
भूमि, मकान, अन्य इमारतें, सामान (goods), नकद (cash), बैंक नोट, चेक, बिल ऑफ एक्सचेंज (विनिमय पत्र), हुंडी, वचन-पत्र (promissory note), सरकारी सिक्योरिटीज़ (प्रतिभूतियाँ), धन के लिए बांड या अन्य सिक्योरिटीज़, कर्ज (loan), किसी कंपनी में शेयर,
और इसके अलावा, अन्य सभी संपत्तियाँ जो बिक सकती हैं, चल (movable) या अचल (immovable),
जो —
• निर्णीत-ऋणी (जिसके खिलाफ डिक्री है) की हैं,
• या जिन पर उसे ऐसा अधिकार है कि वह उसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल कर सकता है —
चाहे वह उसके नाम पर हो या किसी और के नाम पर उसके लिए ट्रस्ट में रखी गई हो।
बशर्ते कि (Provided that) निम्नलिखित चीजें कुर्की या बिक्री के लिए उत्तरदायी नहीं होंगी — यानी इन्हें जब्त या बेचा नहीं जा सकता:
• (a) जरूरी वस्त्र, खाना पकाने के बर्तन, बिस्तर और बिछावन, और ऐसे व्यक्तिगत गहने जिन्हें धार्मिक परंपरा के अनुसार कोई महिला नहीं छोड़ सकती — निर्णीत-ऋणी, उसकी पत्नी और बच्चों के लिए।
• (b) कारीगरों के औजार,
और यदि ऋणी किसान है —
उसके खेती के औजार, ऐसे जानवर और बीज-अनाज जो कोर्ट की राय में उसकी आजीविका के लिए जरूरी हैं,
और वह फसल (या फसल का हिस्सा) जिसे अगली धारा (Section 61) में छूट प्राप्त है।
• (c) मकान और इमारतें (उनकी सामग्री, भूमि और जरूरत की ज़मीन समेत) जो किसी किसान, मजदूर या घरेलू नौकर की हों और उसके कब्जे में हों।
• (d) खाता-बही की किताबें।
• (e) सिर्फ हर्जाने (damages) के लिए मुकदमा करने का अधिकार।
• (f) व्यक्तिगत सेवा (personal service) करने का अधिकार।
• (g) सरकार, स्थानीय निकाय या अन्य नियोक्ता द्वारा दी जाने वाली पेंशन, वजीफा या सेवा परिवार पेंशन फंड से मिलने वाली धनराशि — अगर उसे राजपत्र में घोषित किया गया हो — और राजनीतिक पेंशन।
• (j) मजदूरों और घरेलू नौकरों की मजदूरी — चाहे नकद हो या वस्तु में।
• (i) वेतन — पहले ₹1,000 और उसके ऊपर का दो-तिहाई भाग, भरण-पोषण की डिक्री को छोड़कर, अन्य किसी डिक्री के लिए।
बशर्ते: अगर किसी कर्मचारी के वेतन का जो हिस्सा कुर्क हो सकता है, वह लगातार या रुक-रुक कर 24 महीने तक कुर्क किया गया है,
तो वह हिस्सा अगले 12 महीनों तक कुर्की से मुक्त रहेगा।
और अगर यह कुर्की एक ही डिक्री के तहत की गई है, तो 24 महीने के बाद वह हिस्सा पूरी तरह छूट जाएगा।
• (i-A) भरण-पोषण की डिक्री में वेतन का एक-तिहाई कुर्क किया जा सकता है।
• (j) उन लोगों का वेतन और भत्ते जिन पर —
o वायुसेना अधिनियम, 1950,
o सेना अधिनियम, 1950,
o या नौसेना अधिनियम, 1957 — लागू होता है।
• (t) वे सब जमा और रकम जो —
o भविष्य निधि अधिनियम, 1925
o या लोक भविष्य निधि अधिनियम, 1968
के तहत कुर्की से छूट प्राप्त हों।
• (tkh) बीमा पॉलिसी के अंतर्गत मिलने वाली सारी धनराशि।
• (tg) ऐसे किराएदार का हक जो उस मकान पर रहता हो, जिस पर किराया नियंत्रण कानून लागू हो।
• (l) सरकार, रेलवे या स्थानीय निकाय के कर्मचारी को मिलने वाला ऐसा भत्ता जिसे राजपत्र में अधिसूचित किया गया हो, और सस्पेंशन (निलंबन) के समय मिलने वाला निर्वाह भत्ता।
• (m) ऐसा हक या संभावना जो सिर्फ उत्तरजीविता या किसी संभावना पर आधारित हो।
• (dh) भविष्य के भरण-पोषण का हक।
• (o) कोई भत्ता जिसे कानून द्वारा कुर्की से मुक्त घोषित किया गया हो।
• (t) अगर ऋणी भू-राजस्व का देनदार है, तो ऐसी चल संपत्ति जो उस कानून के अनुसार विक्रय से छूट में आती है।
स्पष्टीकरण (Explanations):
Explanation I: ऊपर जिन क्लॉज़ (g), (h), (i), (i-A), (j), (l), और (o) में जिन धनराशियों का ज़िक्र हुआ है, वे चाहे वेतन या अन्य रूप में, देय हो या अभी न हुई हो, कुर्की से मुक्त मानी जाएंगी। लेकिन वेतन का जो हिस्सा कुर्क हो सकता है, वह देय होने से पहले या बाद में भी कुर्क किया जा सकता है।
Explanation II: क्लॉज़ (i) और (i-A) में “वेतन” का मतलब है — मासिक परिलब्धियाँ (Monthly Emoluments),
लेकिन उनमें वे भत्ते शामिल नहीं होंगे जिन्हें सरकार ने राजपत्र में कुर्की से छूट दी है।
Explanation III: “समुचित सरकार” का अर्थ:
• केंद्रीय सेवा, रेलवे, छावनी बोर्ड, पत्तन प्राधिकरण – केंद्र सरकार
• अन्य सभी सरकारी या स्थानीय निकाय के कर्मचारी – राज्य सरकार
Explanation IV: “मजदूरी” में बोनस शामिल है, और “श्रमिक” में कुशल, अकुशल, अर्ध-कुशल सभी।
Explanation V: “कृषक” का मतलब ऐसा व्यक्ति जो खुद खेती करता है और खेती की आमदनी से ही जीविका चलाता है — चाहे वह मालिक, काश्तकार, साझेदार, या मजदूर हो।
Explanation VI: “व्यक्तिगत रूप से खेती” करने का अर्थ है —
• अपने श्रम से,
• परिवार के किसी सदस्य के श्रम से,
• या मजदूरी पर रखे लोगों से (जो उत्पादन में हिस्सा नहीं लेते)।
Explanation VII (आइए): यदि कोई व्यक्ति ऐसा समझौता करता है कि वह इस धारा में दी गई छूटों का लाभ नहीं लेगा, तो वह समझौता अमान्य (Void) होगा।
(2) इस धारा में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे यह समझा जाए कि कोई मकान या इमारत, सामग्री या ज़मीन — जो किसी डिक्री के तहत किराया वसूलने के लिए जब्त हो रही हो — छूट में आ जाएगी।
धारा 61. कृषि उपज की आंशिक छूट।
राज्य सरकार –
राजपत्र में प्रकाशित (यानि Gazette में छपी हुई) साधारण (general) या विशेष (special) आदेश द्वारा यह घोषणा कर सकती है —
कि:
कृषि उपज या कृषि उपज के किसी वर्ग का कोई भाग,
जो सरकार को ऐसा लगता है कि —
• अगली फसल तक भूमि की सम्यक् (ठीक से) खेती के लिए
• और निर्णीतऋणी (जिसके खिलाफ डिक्री है) तथा उसके परिवार के भरण-पोषण के लिए आवश्यक है,
तो —
वह कृषि उपज का भाग —
सभी कृषकों (किसानों) या किसानों के किसी विशेष वर्ग के मामले में —
डिक्री के निष्पादन में कुर्की (जब्त) या विक्रय (बिक्री) के दायित्व से छूट प्राप्त करेगा।
मुख्य बिंदु याद रखने के लिए (Exam Notes Style):
• यह राज्य सरकार की शक्ति है।
• कृषि उपज या उसके किसी हिस्से को कुर्की/बिक्री से छूट दी जा सकती है।
• यह छूट तभी दी जाएगी जब वह हिस्सा:
o भूमि की अगली फसल तक सही खेती के लिए जरूरी हो,
o और निर्णीतऋणी और उसके परिवार के भरण-पोषण के लिए जरूरी हो।
• यह छूट:
o सभी किसानों या
o किसानों के किसी विशेष वर्ग को दी जा सकती है।
• इसके लिए राजपत्र में आदेश प्रकाशित करना अनिवार्य है।
धारा 62. आवास-गृह में संपत्ति का अभिग्रहण।
(1)
इस संहिता के अधीन चल संपत्ति की जब्ती का निर्देश देने या उसे प्राधिकृत करने वाला कोई भी व्यक्ति –
सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले किसी आवास-गृह में प्रवेश नहीं करेगा।
मतलब: जब्त करने का आदेश लेकर कोई अधिकारी रात में (सूरज डूबने के बाद और उगने से पहले) किसी के घर में नहीं घुस सकता।
(2)
किसी निवास-गृह का कोई बाहरी द्वार तब तक नहीं तोड़ा जाएगा जब तक कि —
• वह निवास-गृह निर्णीत-ऋणी के अधिभोग (कब्जे) में न हो, और
• वह अंदर प्रवेश करने से मना कर दे या किसी भी प्रकार से रोक लगाए।
लेकिन, अगर आदेश लेकर आया व्यक्ति
निवास-गृह में सम्यक् रूप से (सही तरीके से) प्रवेश कर चुका है,
तो वह किसी ऐसे कमरे का द्वार तोड़ सकता है
जिसके बारे में उसे यह विश्वास करने का कारण हो कि उसमें जब्त की जाने वाली संपत्ति है।
मतलब: घर का मुख्य दरवाज़ा तभी तोड़ा जा सकता है जब डिक्री वाला व्यक्ति अंदर घुसने से रोके। लेकिन एक बार घर के अंदर घुस गए, तो संदेह वाले कमरे का दरवाजा तोड़ा जा सकता है।
(3)
अगर किसी आवास-गृह में कोई कमरा ऐसी स्त्री के वास्तविक अधिभोग में है,
जो देश की प्रथाओं के अनुसार सार्वजनिक रूप से नहीं दिखती,
तो:
• आदेश निष्पादित करने वाला व्यक्ति उस स्त्री को नोटिस देगा कि वह हटने के लिए स्वतंत्र है।
• उसे हटने के लिए उचित समय और उचित सुविधा देगा।
• फिर वह संपत्ति जब्त करने के उद्देश्य से ऐसे कमरे में प्रवेश कर सकता है।
• साथ ही यह सुनिश्चित करेगा कि —
कोई संपत्ति गुप्त रूप से न हटाई जा सके, इसके लिए हर जरूरी सावधानी बरतेगा।
मतलब: अगर कमरे में परदे में रहने वाली महिला हो, तो पहले उसे हटने का समय व सुविधा देनी होगी, फिर कमरे में घुसकर संपत्ति जब्त की जा सकती है — लेकिन पूरी मर्यादा और सावधानी के साथ।
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मुख्य बिंदु (Revision Friendly Format):
1. रात में घर में घुसकर जब्ती नहीं हो सकती।
2. मुख्य दरवाज़ा तभी तोड़ा जाएगा जब अंदर जाने से रोका जाए।
3. घर के अंदर पहुंचने के बाद, संदेह होने पर कमरे का दरवाज़ा तोड़ा जा सकता है।
4. परदे में रहने वाली महिला के मामले में, उसे हटने का समय और सुविधा दी जाएगी, फिर अंदर प्रवेश होगा।,
धारा 63. विभिन्न न्यायालयों की डिक्री के निष्पादन में कुर्क की गई संपत्ति
(1)
जहां कोई संपत्ति
जो किसी न्यायालय की अभिरक्षा (custody) में नहीं है, एक से अधिक न्यायालयों द्वारा डिक्री के निष्पादन में कुर्क की गई है,
तो:
• वह न्यायालय जो उस संपत्ति को प्राप्त करेगा या वसूल करेगा,
• तथा जिसके समक्ष उस संपत्ति पर
o कोई दावा (claim) या
o कोई आक्षेप (objection) किया जाएगा,
• “सर्वोच्च कोटि का न्यायालय” माना जाएगा।
अगर उन सभी न्यायालयों की कोटि (grade) समान है, तो वह न्यायालय सर्वोच्च माना जाएगा, जिसकी डिक्री के अधीन वह संपत्ति सबसे पहले कुर्क की गई थी।
मतलब: एक ही संपत्ति अगर कई कोर्ट की डिक्री से कुर्क हो रही है, तो जो कोर्ट उस संपत्ति को वसूल करेगा या उस पर दावा/आक्षेप सुनेगा – वह सबसे ऊपर माना जाएगा। अगर सभी कोर्ट एक जैसी हैं, तो जो पहले कुर्क करता है, वही प्रमुख होगा।
(2)
इस धारा की कोई बात ऐसी डिक्री में से किसी भी डिक्री को निष्पादित करने वाले न्यायालय द्वारा की गई किसी भी कार्यवाही को अवैध (illegal) नहीं बनाएगी।
मतलब: अगर कोई कोर्ट अपनी डिक्री के अनुसार कार्यवाही कर रहा है, तो यह धारा उस पर कोई रोक नहीं लगाती।
[स्पष्टीकरण]
उपधारा (2) के उद्देश्य से, “न्यायालय द्वारा की गई कार्यवाही” में वह आदेश शामिल नहीं है,
जो डिक्रीधारक (decree-holder) को, जिसने डिक्री के निष्पादन में संपत्ति खरीदी है,
मुजरा (adjustment/settlement) करने की अनुमति देता है उस क्रय मूल्य (purchase price) की सीमा तक, जो उसे देना है।
मतलब: अगर कोर्ट ने खरीदार डिक्रीधारक को उसकी देय रकम को एडजस्ट करने का आदेश दिया है, तो वह इस धारा के “valid action” में नहीं माना जाएगा।
मुख्य बिंदु (Revision-Friendly):
1. एक ही संपत्ति पर कई कोर्ट की डिक्री लागू हो सकती है।
2. जो कोर्ट संपत्ति वसूल करेगा या दावा/आपत्ति सुनेगा, वह प्रमुख (सर्वोच्च कोटि) माना जाएगा।
3. अगर सभी कोर्ट समान स्तर के हैं, तो जो पहले कुर्क करे – वही मुख्य होगा।
4. इस धारा से किसी कोर्ट की निष्पादन संबंधी कार्यवाही अमान्य नहीं होती।
5. लेकिन खरीदार डिक्रीधारक को क्रय मूल्य का मुजरा करने वाला आदेश इस सुरक्षा में नहीं आता।
धारा 64. कुर्की के पश्चात संपत्ति का निजी हस्तांतरण शून्य होगा
(1)
जहाँ संपत्ति की कुर्की (attachment) की गई है,
वहाँ—
• उस कुर्क की गई संपत्ति या
• उसमें किसी भी हित (interest) का
• कोई भी निजी अंतरण (private transfer) या परिदान (delivery/gift/transfer)
• और निर्णीत-ऋणी (judgment-debtor) को
o कोई ऋण (debt),
o लाभांश (dividend) या
o अन्य कोई धनराशि (money) का कोई भुगतान (payment)
अगर वह ऐसा है जो उस कुर्की के खिलाफ (in contravention of the attachment) है,
तो—
ऐसे सभी अंतरण, परिदान या भुगतान, जो कुर्की के प्रतिकूल हों,
वे उस कुर्की के अधीन प्रवर्तनीय (enforceable) सभी दावों के विरुद्ध शून्य (void/अमान्य) होंगे।
मतलब: जब संपत्ति कुर्क हो गई है, तब वह निर्णय-ऋणी उसे निजी तौर पर किसी को न तो दे सकता है, न बेच सकता है, न उस पर किसी का हक बना सकता है। अगर ऐसा करता है, तो वह ट्रांसफर अमान्य होगा।
(2)
इस धारा की कोई बात लागू नहीं होगी—
• उस कुर्क की गई संपत्ति या उसमें हित के किसी निजी ट्रांसफर या परिदान पर, जो ऐसी रजिस्टर्ड संविदा (registered contract) के अनुसार किया गया हो, जो उस कुर्की से पहले (before attachment) की गई हो।
मतलब: अगर कुर्की से पहले कोई रजिस्टर्ड एग्रीमेंट हो चुका था और उसी के आधार पर ट्रांसफर किया जा रहा है, तो वह वैध होगा।
[स्पष्टीकरण]
इस धारा के उद्देश्य से, “कुर्की के अधीन प्रवर्तनीय दावे” में आस्तियों (assets) के दर-आधारित वितरण (rateable distribution) के दावे भी शामिल माने जाएंगे।
मतलब: एक से ज़्यादा डिक्रीधारकों को उनके अनुपात में बांटी जाने वाली राशि के दावे भी इस धारा की सुरक्षा में आते हैं।
मुख्य बिंदु (Revision Notes):
1. कुर्की के बाद संपत्ति का कोई निजी ट्रांसफर या भुगतान – अमान्य (void) होगा।
2. यह अमान्यता उन सभी दावेदारों के लिए लागू होगी जो कुर्की के तहत संपत्ति से वसूली कर सकते हैं।
3. अगर कुर्की से पहले रजिस्टर्ड एग्रीमेंट था, तो ट्रांसफर वैध होगा।
4. दर-आधारित (rateable) वितरण वाले सभी दावे भी इसमें शामिल हैं।
धारा 65. क्रेता का हक (Rights of purchaser)
जहाँ—
• अचल संपत्ति (immovable property) किसी डिक्री के निष्पादन (execution of decree) में बेची जाती है, और वह बिक्री पूर्ण (complete) हो जाती है,
वहाँ—
वह संपत्ति क्रेता (purchaser) में
• उसी समय से निहित (vested / स्वामित्व स्थानांतरित) मानी जाएगी जिस समय वह संपत्ति बेची गई थी, ना कि उस समय से जब बिक्री पूर्ण हुई थी।
मुख्य बिंदु (Revision Notes):
1. जब डिक्री के अंतर्गत अचल संपत्ति बेची जाती है और बिक्री पूरी हो जाती है —
2. तो क्रेता (buyer) का हक उस तारीख से माना जाएगा जब बिक्री हुई थी, न कि जब वह पूरी तरह संपन्न हुई थी।
3. इससे क्रेता को पूर्व समय से कानूनी स्वामित्व (retrospective ownership) मिल जाता है।
“बेची गई थी” का मतलब होता है: नीलामी में बोली स्वीकार हो गई थी या आदेश पारित हो गया था।
“बिक्री पूर्ण हुई थी” का मतलब होता है: जब अदालत ने पुष्टि कर दी थी या रजिस्ट्रेशन आदि प्रक्रिया पूरी हो गई थी।
Section – 66: Repealed
धारा 67 – धन के भुगतान के लिए डिक्री के निष्पादन में भूमि की बिक्री के बारे में नियम बनाने की राज्य सरकार की शक्ति।
• (1) राज्य सरकार, राजपत्र (Official Gazette) में अधिसूचना (Notification) द्वारा, किसी स्थानीय क्षेत्र के लिए नियम बना सकती है।
इन नियमों में यह बताया जाएगा कि जब किसी डिक्री (court decree) के तहत पैसे की वसूली के लिए भूमि के किसी खास प्रकार के हित (interests) को बेचा जाना हो, और
वे हित इतने अनिश्चित (uncertain) या अनिर्धारित (undefined) हों कि उनका मूल्य तय करना राज्य सरकार की राय में संभव नहीं है —
तब ऐसी स्थितियों में किस शर्त पर वह बिक्री होगी, यह नियम बताएंगे।
• (2) यदि किसी क्षेत्र में, इस कोड के लागू होने की तारीख पर, पहले से ही भूमि की बिक्री से संबंधित कोई विशेष नियम प्रचलन में थे,
तो राज्य सरकार राजपत्र में अधिसूचना के द्वारा:
o उन पुराने नियमों को फिर से लागू कर सकती है, या
o अधिसूचना के माध्यम से संशोधित (amend) कर सकती है।
इस उपधारा के अंतर्गत राज्य सरकार जो भी अधिसूचना निकालेगी, उसमें यह साफ-साफ लिखा होगा कि कौन-से नियम जारी किए जा रहे हैं या संशोधित किए जा रहे हैं।
• (3) इस धारा के तहत राज्य सरकार जो भी नियम बनाएगी, उन्हें बनाने के बाद यथाशीघ्र (as soon as possible) राज्य विधान-मंडल (State Legislature) के सामने रखा जाएगा।
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मुख्य बिंदु (Exam के लिए):
• यह धारा राज्य सरकार को भूमि की बिक्री से जुड़े नियम बनाने की शक्ति देती है।
• तब लागू होती है जब डिक्री के तहत पैसे की वसूली के लिए भूमि का कोई अनिश्चित हित बेचा जाना हो।
• राज्य सरकार पुराने नियमों को फिर से लागू या संशोधित कर सकती है।
• बनाए गए नियमों को राज्य विधान-मंडल के सामने रखना अनिवार्य है।
Section – 68, 69, 70, 71, 72 : Repealed
धारा 73 – निष्पादन विक्रय की आय का डिक्रीधारकों के बीच समान रूप से वितरण
सरल अर्थ:
अगर किसी व्यक्ति के खिलाफ कई लोग पैसे की वसूली के लिए कोर्ट में डिक्री ले आए हैं, और उसकी संपत्ति कोर्ट द्वारा बेची जाती है,
तो जो भी पैसे (विक्रय की आय) मिलते हैं, उन्हें सभी डिक्रीधारकों में बराबर-बराबर बांटा जाएगा, कुछ खास नियमों के साथ।
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(1) मुख्य नियम:
• जब किसी कोर्ट के पास कोई संपत्ति हो (आस्ति धारण हो), और
• एक से अधिक व्यक्ति उसी डिफॉल्टर (निर्णीत-ऋणी) के खिलाफ पैसे वसूलने के लिए डिक्री ले आए हों, और
• अभी तक किसी को भुगतान नहीं हुआ हो,
तो ऐसे में, जब संपत्ति बेच दी जाए:
• तो वसूली की लागत (recovery cost) घटाने के बाद,
• जो पैसा बचेगा, वह सभी डिक्रीधारकों को समान रूप से (equally) बांटा जाएगा।
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लेकिन निम्नलिखित अपवाद (प्रावधान) लागू होंगे:
(क)
अगर कोई संपत्ति बंधक (mortgaged) या भारग्रस्त (charged) है और ऐसी ही स्थिति में उसे बेचा जाए, तो जो व्यक्ति बंधक या भार के कारण उसमें हित रखता है, वह केवल बचे हुए अधिशेष (surplus) में हिस्सा नहीं मांग सकता।
(ख)
अगर कोई संपत्ति बंधक या भार के अधीन है, और वह डिक्री के निष्पादन में बेची जा रही है,
तो कोर्ट, बंधकदार या भारग्रस्त व्यक्ति की सहमति से,
• संपत्ति को बंधक/भार से मुक्त करके बेचने का आदेश दे सकता है, और
• उस व्यक्ति को उसी अनुपात में पैसा देगा, जितना उसका हक उस संपत्ति पर था।
(ग)
अगर कोई स्थावर (immovable) संपत्ति बेची जाती है, और उसका उद्देश्य उस पर से भार (charge) हटाना है (जैसे कोर्ट ने ऐसे ही डिक्री दी हो), तो उस बिक्री से मिले पैसे का इस्तेमाल होगा:
1. सबसे पहले, बिक्री के खर्च चुकाने में।
2. दूसरे, डिक्री के तहत देय राशि का भुगतान करने में।
3. तीसरे, यदि कोई बाद वाला भारग्रस्त हो, तो उसके मूलधन और ब्याज के भुगतान में।
4. चौथे, उन डिक्रीधारकों को पैसा देने में जिन्होंने बिक्री से पहले उसी कोर्ट में डिक्री निष्पादन का आवेदन किया हो, और उन्हें अभी तक संतुष्टि (payment) न मिली हो।
(2) ग़लत व्यक्ति को पैसा मिल जाए तो क्या?
अगर इस धारा के अंतर्गत बंटने वाली कोई संपत्ति ऐसे व्यक्ति को दे दी गई जो वास्तव में उसका हकदार नहीं था,
तो जो असली हकदार हैं, वे कोर्ट में मुकदमा दायर करके:
• संपत्ति वापस पाने की मांग कर सकते हैं।
(3) सरकार के अधिकार सुरक्षित हैं:
इस धारा में कुछ भी ऐसा नहीं है जो सरकार के किसी अधिकार को प्रभावित करे।
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🎯 Revision के लिए Key Points (Exam Purpose):
बिंदु विवरण
किस स्थिति में लागू जब एक से अधिक लोग एक ही निर्णीत-ऋणी से डिक्री के जरिए पैसा वसूलना चाहें
वितरण कैसे होगा समान रूप से, वसूली लागत घटाकर
अपवाद बंधक, भारग्रस्त संपत्ति, अधिशेष पर अधिकार नहीं
कोर्ट क्या कर सकता है बंधक को मुक्त कर बिक्री कर सकता है
संपत्ति बेचने से मिला पैसा पहले कहां जाएगा बिक्री खर्च, डिक्री भुगतान, भारग्रस्त व्यक्ति का भुगतान, फिर अन्य डिक्रीधारक
ग़लत व्यक्ति को पैसे मिलें तो असली हकदार वाद दाखिल कर सकते हैं
सरकार का प्रभाव सरकार के अधिकार इस धारा से प्रभावित नहीं
धारा 74 – निष्पादन का प्रतिरोध (Obstruction in Execution)
सरल शब्दों में अर्थ:
अगर कोर्ट को यह लगता है कि:
• डिक्री-धारक (जिसके पक्ष में कोर्ट ने निर्णय दिया है) को, या
• क्रेता (जिसने निष्पादन में अचल संपत्ति खरीदी है) को
• निर्णीत-ऋणी (judgment-debtor) या
• उसकी तरफ से किसी और व्यक्ति द्वारा,
• संपत्ति का कब्जा लेने में जानबूझकर रोक या बाधा डाली गई है,
• और यह रोक या बाधा बिना किसी उचित कारण (justifiable reason) के थी,
तो:
कोर्ट क्या कर सकता है?
• कोर्ट, डिक्री-धारक या क्रेता के कहने पर, उस निर्णीत-ऋणी या अन्य व्यक्ति को,
• सिविल जेल (civil prison) में अधिकतम 30 दिन तक के लिए कैद कर सकता है।
और
• कोर्ट यह भी आदेश दे सकता है कि डिक्री-धारक या क्रेता को संपत्ति का कब्जा दिला दिया जाए।
🎯 मुख्य बिंदु (Exam के लिए Important):
बिंदु विवरण
लागू कब होता है जब अचल संपत्ति के कब्जे में जानबूझकर बाधा डाली जाए
कौन बाधा डाल सकता है निर्णीत-ऋणी या उसकी ओर से कोई व्यक्ति
कब्जा किसे मिलना है डिक्री-धारक या निष्पादन में खरीदार को
अगर बाधा बिना उचित कारण के हो कोर्ट सजा और कब्जा देने दोनों का आदेश दे सकता है
अधिकतम सजा 30 दिन तक की सिविल जेल
धारा 75 – न्यायालय की कमीशन जारी करने की शक्ति
(Power of Court to Issue Commissions)
सरल शब्दों में अर्थ:
कोर्ट, कुछ नियत शर्तों और सीमाओं के अंतर्गत, विभिन्न कामों के लिए “कमीशन” (commission) जारी कर सकता है।
यह कमीशन किसी अधिकारी या विशेषज्ञ को नियुक्त करने जैसा होता है ताकि वह अदालत के निर्देश पर कोई काम करके रिपोर्ट दे।
🎯 कोर्ट निम्नलिखित कार्यों के लिए कमीशन जारी कर सकता है:
(क) किसी व्यक्ति की गवाही लेना (Examine a person)
जैसे कि अगर कोई गवाह अदालत में उपस्थित नहीं हो सकता, तो कमीशन भेजकर उसकी गवाही ली जा सकती है।
(ख) स्थानीय जांच करना (Make a local investigation)
जैसे ज़मीन पर जाकर जांच करना कि विवादित संपत्ति किस हाल में है।
(ग) खातों की जांच या समायोजन करना (Examine or adjust accounts)
जैसे व्यापारिक विवाद में लेन-देन के खातों की जांच कराना।
(घ) विभाजन करना (Make a partition)
जैसे किसी संयुक्त संपत्ति का बंटवारा (partition) कराना।
(ङ)/(ई) वैज्ञानिक, तकनीकी या विशेषज्ञ जांच कराना (Hold scientific, technical or expert investigation)
जैसे किसी निर्माण में खराबी, डॉक्टरी रिपोर्ट, मशीन की जांच आदि।
(च) ऐसी संपत्ति को बेचना जो जल्दी खराब हो सकती है और जो वाद (case) खत्म होने तक कोर्ट की निगरानी में है।
जैसे फल, सब्जी, दूध, आदि जो जल्दी खराब हो जाएं।
(छ) कोई मंत्रालय संबंधी कार्य (Ministerial act) करना
जैसे रिकॉर्ड कॉपी करना, दस्तावेज़ इकट्ठा करना आदि – जो प्रशासनिक प्रकृति का कार्य हो।
🧠 Revision Key Points (Exam Purpose):
उपबिंदु कार्य का प्रकार
(क) व्यक्ति की गवाही लेना
(ख) स्थानीय स्थल जांच
(ग) खातों की जांच या समायोजन
(घ) संपत्ति का विभाजन
(ई) वैज्ञानिक/तकनीकी/विशेषज्ञ जांच
(च) जल्दी खराब होने वाली संपत्ति की बिक्री
(छ) मंत्री संबंधी (प्रशासनिक) कार्य
धारा 76 – किसी अन्य न्यायालय को कमीशन (Commission to Another Court)
सरल शब्दों में अर्थ:
जब किसी व्यक्ति की गवाही (परीक्षा) लेनी हो, और वह व्यक्ति दूसरे राज्य में रहता हो, तो:
(1) कमीशन जारी करने का नियम:
• कोर्ट किसी व्यक्ति की गवाही के लिए कमीशन (commission) उस न्यायालय को भेज सकता है:
o जो उस राज्य में है जहाँ वह व्यक्ति रहता है,
o और जिसकी उस इलाके पर अधिकारिता (jurisdiction) है,
o परंतु वह न्यायालय उच्च न्यायालय (High Court) नहीं होना चाहिए।
मतलब – विवाद का कोर्ट एक दूसरे राज्य के सक्षम निचले कोर्ट को कमीशन भेज सकता है गवाही के लिए।
(2) उस न्यायालय का कर्तव्य क्या होगा?
• ऐसा न्यायालय जो यह कमीशन प्राप्त करता है, वह:
o उस व्यक्ति की गवाही लेगा या लेवाएगा,
o और जब कमीशन पूरी तरह से पूरा हो जाए,
o तो उसे उस मूल कोर्ट में वापस भेज देगा जहाँ से कमीशन आया था।
लेकिन, अगर कमीशन के आदेश में कुछ अलग लिखा गया है, तो उसी के अनुसार उसे वापस भेजा जाएगा।
🧠 Revision Key Points (Exam Purpose):
बिंदु विवरण
कब लागू होता है जब गवाही देने वाला व्यक्ति दूसरे राज्य में रहता हो
कौन-सा न्यायालय उस व्यक्ति के निवास स्थान का निचला न्यायालय (High Court नहीं)
उस न्यायालय की शक्ति व्यक्ति की गवाही लेना या कराना
क्या करना है बाद में कमीशन पूरा करके मूल कोर्ट को लौटाना
यदि आदेश में अलग लिखा हो उसी के अनुसार कमीशन लौटाया जाएगा
धारा 77 – अनुरोध पत्र (Letter of Request)
सरल शब्दों में अर्थ:
जब कोई गवाह (witness) भारत के बाहर किसी देश में रहता है और उसकी गवाही ज़रूरी है, तो:
• कोर्ट “कमीशन (Commission)” जारी करने के बजाय उस विदेशी स्थान के उपयुक्त न्यायिक प्राधिकारी (judicial authority) को एक “अनुरोध पत्र (Letter of Request)” भेज सकता है, जिसमें उस गवाह से गवाही लेने का निवेदन किया जाएगा।
🧠 Revision Key Points (Exam Purpose):
बिंदु विवरण
कब लागू होती है जब गवाह भारत से बाहर रहता हो
कोर्ट क्या करता है कमीशन के बजाय अनुरोध पत्र (Letter of Request) जारी करता है
किसे भेजता है उस देश की उचित न्यायिक अथॉरिटी को
उद्देश्य उस गवाह से गवाही (examination) कराना
धारा 78 – विदेशी न्यायालयों द्वारा जारी कमीशन (Commissions Issued by Foreign Courts)
सरल शब्दों में अर्थ:
जो नियम गवाहों की गवाही लेने के लिए कमीशन (Commission) से संबंधित होते हैं — जैसे:
• कमीशन कैसे निष्पादित (executed) किया जाए,
• और उसे कैसे वापस भेजा जाए,
वे नियम निम्नलिखित प्रकार के विदेशी न्यायालयों द्वारा जारी किए गए कमीशनों पर भी लागू होंगे:
तीन प्रकार के न्यायालय जिन पर यह लागू होता है:
(क)
भारत के किसी ऐसे भाग में स्थित न्यायालय, जहां CPC (दीवानी प्रक्रिया संहिता) लागू नहीं होती। उदाहरण: जैसे कोई विशेष स्वायत्त क्षेत्र।
(ख)
भारत के बाहर कोई न्यायालय, जो केंद्रीय सरकार के अधिकार से स्थापित या नियुक्त किया गया हो। जैसे – भारतीय दूतावास या विदेश में भारतीय मिशन द्वारा संचालित कोर्ट।
(ग)
भारत से बाहर किसी राज्य या देश का न्यायालय।
मतलब – पूर्ण विदेशी न्यायालय।
🧠 Revision Key Points (Exam Purpose):
बिंदु विवरण
लागू होता है विदेशी या विशेष न्यायालयों से आए कमीशनों पर
किन नियमों का पालन होगा जैसे भारत में कमीशन निष्पादित और लौटाया जाता है, वैसा ही
तीन प्रकार के न्यायालय (क) CPC लागू नहीं होता, (ख) भारत से बाहर केंद्र सरकार द्वारा स्थापित, (ग) अन्य विदेशी राज्य/देश के न्यायालय
धारा 79 – सरकार द्वारा या उसके विरुद्ध वाद (Suits by or against Government)
सरल शब्दों में अर्थ:
जब कोई वाद (Case/Suit):
• सरकार द्वारा दायर किया जाता है, या
• सरकार के खिलाफ दायर किया जाता है,
तो उस वाद में, वादी (Plaintiff) या प्रतिवादी (Defendant) के रूप में किसका नाम होगा, यह इस प्रकार होगा:
दो स्थिति:
(क)
अगर वाद भारत संघ (Union of India) द्वारा या उसके विरुद्ध है,
तो “भारत संघ (Union of India)” को ही वादी या प्रतिवादी के रूप में नामित किया जाएगा।
(ख)
अगर वाद राज्य सरकार द्वारा या उसके विरुद्ध है,
तो उस राज्य का नाम (State) ही वादी या प्रतिवादी के रूप में लिखा जाएगा।
🧠 Revision Key Points (Exam Purpose):
वाद की प्रकृति नामित प्राधिकारी
भारत सरकार द्वारा/विरुद्ध भारत संघ (Union of India)
राज्य सरकार द्वारा/विरुद्ध संबंधित राज्य (State)
धारा 80 – नोटिस (Notice)
(1) सामान्य नियम: पहले नोटिस दो, फिर वाद करो
यदि कोई व्यक्ति:
• सरकार (केंद्र, राज्य या जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार) के खिलाफ या
• किसी सरकारी अधिकारी के खिलाफ,
उसके अधिकारिक कार्य के लिए वाद (Case) करना चाहता है,
तो 2 महीने पहले लिखित नोटिस देना अनिवार्य है। जब तक यह नोटिस दिए 2 महीने पूरे न हो जाएं, कोई वाद दायर नहीं किया जा सकता।
नोटिस किसे देना होगा?
वाद किसके खिलाफ नोटिस किसे दिया जाए
केंद्र सरकार (रेलवे से संबंधित नहीं) केंद्र सरकार का सचिव
केंद्र सरकार (रेलवे से संबंधित) संबंधित रेलवे का महाप्रबंधक
जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार उसका मुख्य सचिव या अधिकृत अधिकारी
अन्य राज्य सरकार उस राज्य का सचिव या जिलाधिकारी (कलेक्टर)
लोक अधिकारी उस अधिकारी को या उसके कार्यालय में छोड़ा जाए
नोटिस में यह जानकारी होनी चाहिए:
• वादी (Plaintiff) का नाम, पता, विवरण
• वाद का कारण (Cause of Action)
• कौन सा राहत (Relief) माँगा जा रहा है
• वादपत्र में लिखा होगा कि ऐसा नोटिस दिया गया था
(2) यदि मामला अत्यावश्यक (Emergency) हो तो क्या?
अगर:
• कोई बहुत जरूरी / आपात स्थिति है,
• तुरंत राहत (Interim Relief) चाहिए,
तो न्यायालय की अनुमति से बिना नोटिस दिए भी वाद दायर किया जा सकता है।
लेकिन:
• तब भी न्यायालय सरकार या लोक अधिकारी को सुनने का मौका देगा,
• यदि न्यायालय को लगे कि तुरंत राहत जरूरी नहीं है, तो वह वाद लौटा देगा, और कहेगा कि पहले नोटिस देकर फिर दोबारा दाखिल करो।
(3) नोटिस में कोई गलती हो जाए तो क्या वाद खारिज हो जाएगा?
नहीं, यदि:
(क) वादी का नाम, पता वगैरह इतना स्पष्ट है कि अधिकारी पहचान सके
और
(ख) वाद का कारण और माँगी गई राहत (relief) भी समझ में आ रही है,
तो केवल छोटी-मोटी गलती (जैसे टाइपिंग की गलती) से वाद खारिज नहीं होगा।
🧠 Revision Summary (Exam Focused):
पॉइंट याद रखने योग्य बात
नोटिस देना कब जरूरी सरकार या लोक अधिकारी के खिलाफ वाद में, जब कार्य उसकी सरकारी हैसियत में हुआ हो
नोटिस देने की अवधि कम से कम 2 महीने पहले
नोटिस जरूरी नहीं कब जब मामला अत्यावश्यक (urgent) हो, न्यायालय की अनुमति से
गलती से नोटिस में दोष हो तो अगर जानकारी पर्याप्त है, तो वाद खारिज नहीं होगा
धारा 81 – गिरफ्तारी और व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट (Section 81 – Exemption from arrest and personal appearance)
जब किसी लोक अधिकारी (Public Officer) के खिलाफ कोई वाद (case) उसकी सरकारी ड्यूटी (official capacity) में किए गए कार्य के कारण किया गया हो, तो:
(a)
उस अधिकारी को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता, और न ही उसकी संपत्ति जब्त (कुर्क) की जा सकती है, सिवाय डिक्री के निष्पादन (execution of decree) के मामलों को छोड़कर।
[मतलब: केवल डिक्री लागू करवाने के लिए गिरफ्तारी/कुर्की संभव है, अन्य किसी कारण से नहीं]
(b)
अगर न्यायालय यह समझे कि उस लोक अधिकारी को अगर कोर्ट बुलाया गया तो वह अपनी सरकारी सेवा में नुकसान करेगा, तो कोर्ट उसे व्यक्तिगत रूप से पेश होने से छूट दे सकता है।
[मतलब: अगर कोर्ट माने कि कोर्ट आना सरकारी काम में बाधा डालेगा, तो छूट मिल सकती है]
धारा 82 – सरकारों के विरुद्ध डिक्री का निष्पादन (Execution of decree against Government)
(1) अगर डिक्री (court order) किसी राज्य सरकार या केंद्र सरकार के खिलाफ पारित की गई हो, तो उसका निष्पादन (execution) इस प्रकार किया जाएगा:
(a) कोई भी निष्पादन की कार्रवाई (जैसे कुर्की या भुगतान की मांग) तब तक शुरू नहीं की जाएगी,
जब तक कि डिक्री पारित होने के दो महीने पूरे न हो जाएं।
[मतलब: सरकार को पालन करने के लिए 2 महीने का समय दिया जाएगा]
(b) अगर डिक्री राज्य सरकार के खिलाफ है, तब उस राज्य के जिला कलेक्टर को न्यायालय द्वारा एक प्रति भेजी जाएगी।
(c)
अगर डिक्री केंद्र सरकार के खिलाफ है, तब उसे संबंधित सचिवालय (Secretariat) या प्रशासनिक अधिकारी को भेजा जाएगा।
(2) अगर डिक्री केंद्र या राज्य सरकार के खिलाफ है, तो उसका पालन (execution) सिर्फ उसी तरह होगा जैसे सामान्य व्यक्ति के खिलाफ डिक्री का पालन होता है, लेकिन यह दो महीने की प्रतीक्षा अवधि (waiting period) की शर्त के अधीन होगा।
धारा 83 – विदेशी कब मुकदमा कर सकते हैं (Section 83 – When aliens may sue)
मुख्य नियम:
अगर कोई विदेशी नागरिक (Alien) भारत में रह रहा है, वह भारत में मुकदमा कर सकता है, मानो वह भारतीय नागरिक हो, लेकिन यह तभी होगा जब: उसे केंद्र सरकार से अनुमति (permission) मिली हो।
❌ नियम का अपवाद – विदेशी शत्रु (Enemy Alien):
विदेशी शत्रु (Enemy Alien)
जो या तो भारत में रह रहा हो या किसी विदेशी देश में रह रहा हो, अगर उसके पास केंद्र सरकार की अनुमति नहीं है, तो वह भारत की किसी अदालत में मुकदमा नहीं कर सकता।
स्पष्टीकरण:
अगर कोई व्यक्ति उस विदेशी देश में रहता है जिसकी सरकार भारत से युद्ध कर रही है,
और वह व्यक्ति उस देश में व्यापार (business) कर रहा है बिना केंद्र सरकार की अनुमति के, तो वह माना जाएगा – “विदेशी शत्रु” जो विदेशी देश में निवास करता है
(मतलब: ऐसा व्यक्ति भारत में मुकदमा नहीं कर सकता)
धारा 84 – विदेशी राज्य कब मुकदमा कर सकते हैं (Section 84 – When foreign State may sue)
मुख्य नियम:
• कोई विदेशी राज्य भारत में किसी सक्षम न्यायालय में मुकदमा दायर कर सकता है।
⚠️ बशर्ते (Proviso):
• मुकदमा तभी दायर किया जा सकता है जब—
o वाद (case) का उद्देश्य हो उस विदेशी राज्य के:
शासक (Ruler) या
अधिकारी (Officer) द्वारा
o उनकी सार्वजनिक हैसियत (public capacity) में निहित किसी निजी अधिकार (private right) को लागू (enforce) कराना।
Revision Tip (साधारण बिंदुओं में):
• विदेशी राज्य भारत में मुकदमा कर सकता है।
• मुकदमा तभी किया जा सकता है जब:
o विदेशी राज्य का शासक या अधिकारी हो।
o अधिकार उनकी सरकारी (public) स्थिति से जुड़ा हो।
o अधिकार निजी (personal right) हो जिसे enforce करना हो।
• सक्षम न्यायालय में ही मुकदमा किया जा सकता है।
धारा 85 – विदेशी शासकों की ओर से अभियोजन या बचाव हेतु नियुक्त व्यक्ति (Section 85 – Government appointed person to prosecute or defend on behalf of foreign Rulers)
(1) केंद्रीय सरकार की नियुक्ति की शक्ति:
• केंद्रीय सरकार:
o किसी विदेशी शासक के अनुरोध पर, या
o सरकार की स्वयं की राय में यदि कोई व्यक्ति ऐसे शासक की ओर से कार्य करने में सक्षम हो,
• तो वह आदेश द्वारा:
o उस शासक की ओर से वाद (case) का अभियोजन या बचाव करने के लिए किसी व्यक्ति को नियुक्त कर सकती है।
ऐसा व्यक्ति होगा – मान्यताप्राप्त अभिकर्ता (recognized agent)
जो उस विदेशी शासक की ओर से इस संहिता (CPC) के अंतर्गत:
• उपस्थितियां,
• कार्यवाही, और
• आवेदन कर सकता है।
(2) नियुक्ति के प्रकार:
• यह नियुक्ति की जा सकती है:
o किसी विशेष वाद (specific case) के लिए, या
o एकाधिक विशेष वादों के लिए, या
o सभी वादों के लिए जिनमें उस शासक की ओर से अभियोजन या बचाव आवश्यक हो।
(3) उप-प्राधिकरण की अनुमति:
• जो व्यक्ति सरकार द्वारा नियुक्त किया गया है, वह:
o किसी अन्य व्यक्ति को भी नियुक्त कर सकता है,
o ताकि वह व्यक्ति:
वाद में उपस्थित हो,
आवेदन करे, या
कार्यवाही करे
o मानो वह स्वयं (government-appointed person) वाद में पक्षकार हो।
🧠 Revision Tip (याद रखने के लिए सरल बिंदु):
• केंद्र सरकार विदेशी शासक के अनुरोध पर किसी व्यक्ति को मुकदमा लड़ने के लिए नियुक्त कर सकती है।
• वह व्यक्ति मान्य अभिकर्ता (recognized agent) माना जाएगा।
• नियुक्ति एक केस, कई केस या सभी केसों के लिए हो सकती है।
• वह व्यक्ति किसी और को भी केस में काम करने के लिए नियुक्त कर सकता है।
धारा 86 – विदेशी शासकों, राजदूतों और दूतों के विरुद्ध वाद
(1) मुकदमा कब हो सकता है?
• यदि कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य (foreign state) के खिलाफ मुकदमा करना चाहता है तो—
मुकदमा केवल तभी किया जा सकता है जब:
o केन्द्रीय सरकार की लिखित सहमति हो, और
o वह सहमति सरकार के सचिव द्वारा प्रमाणित की गई हो।
अपवाद:
• अगर कोई व्यक्ति किरायेदार (tenant) है किसी स्थावर संपत्ति (immovable property) का,
तो वह सरकार की अनुमति के बिना भी उस विदेशी राज्य के खिलाफ मुकदमा कर सकता है।
(2) सहमति किस प्रकार दी जा सकती है?
• सहमति निम्न में से किसी के लिए दी जा सकती है:
o किसी एक विशिष्ट वाद के लिए,
o कई विशिष्ट वादों के लिए,
o किसी विशिष्ट वर्ग या वर्गों के वादों के लिए।
• साथ ही, यह भी बताया जा सकता है कि मुकदमा किस न्यायालय में चलेगा।
लेकिन सरकार तब तक सहमति नहीं देगी, जब तक उसे न लगे कि विदेशी राज्य ने:
• (a) उस व्यक्ति के खिलाफ पहले से वाद किया है, या
• (b) भारत की सीमाओं में व्यापार करता है, या
• (c) भारत में उसकी कोई अचल संपत्ति है, जिस पर वाद होना है, या
• (d) उसने अपने विशेषाधिकार को त्याग दिया है (expressly या impliedly)।
(3) डिक्री निष्पादन पर रोक
• सरकार की लिखित सहमति के बिना,
किसी विदेशी राज्य की संपत्ति के खिलाफ कोई डिक्री निष्पादित नहीं की जा सकती।
(4) किन व्यक्तियों पर यह नियम लागू होते हैं?
• (a) विदेशी राज्य का शासक
• (aa) विदेशी राज्य का राजदूत या दूत
• (b) राष्ट्रमंडल देश का उच्चायुक्त
• (c) उपरोक्त सभी के स्टाफ / अनुचर दल के सदस्य,
यदि केन्द्रीय सरकार उन्हें सामान्य या विशेष आदेश द्वारा विनिर्दिष्ट करे।
(5) किन्हें गिरफ़्तार नहीं किया जा सकता?
• निम्नलिखित व्यक्तियों को CPC के अधीन गिरफ्तार नहीं किया जा सकता:
o (a) विदेशी राज्य का शासक
o (b) विदेशी राज्य का राजदूत या दूत
o (c) राष्ट्रमंडल देश का उच्चायुक्त
o (d) उपरोक्त सभी के स्टाफ / अनुचर (यदि सरकार ने विनिर्दिष्ट किया हो)
(6) सरकार से अनुमति मांगने की प्रक्रिया
• अगर कोई व्यक्ति सरकार से सहमति मांगता है:
सरकार को उस व्यक्ति को सुनवाई का अवसर देना होगा,
फिर ही सहमति देना या मना करना तय किया जाएगा।
Revision Points Summary:
1. विदेशी राज्य के खिलाफ मुकदमा तभी जब केंद्र सरकार की लिखित अनुमति हो (सचिव द्वारा प्रमाणित)।
2. किरायेदार को छूट – वह बिना अनुमति मुकदमा कर सकता है।
3. सहमति एक वाद, कई वादों या वादों के वर्ग के लिए दी जा सकती है।
4. सहमति तभी दी जाएगी जब विदेशी राज्य – वाद कर चुका हो, व्यापार करता हो, संपत्ति हो, या विशेषाधिकार छोड़ा हो।
5. बिना अनुमति विदेशी राज्य की संपत्ति पर डिक्री निष्पादन नहीं हो सकता।
6. यह प्रावधान विदेशी शासक, राजदूत, उच्चायुक्त और उनके स्टाफ पर भी लागू होते हैं (यदि सरकार विनिर्दिष्ट करे)।
7. इन सभी को CPC के तहत गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
8. सरकार अनुमति देने से पहले सुनवाई का अवसर देगी।
धारा 87 – मुकदमों में विदेशी शासकों की शैली (Style/Name)
मुख्य नियम:
• कोई विदेशी राज्य का शासक यदि मुकदमा (वाद) करना चाहता है,
➤ तो वह अपने राज्य के नाम से मुकदमा कर सकता है,
➤ और यदि उस पर मुकदमा किया जाना है, तो उसी राज्य के नाम से किया जाएगा।
अपवाद (Exception):
• जब धारा 86 के तहत केन्द्रीय सरकार सहमति देती है (कि शासक पर मुकदमा चलाया जा सकता है),
➤ तो वह सरकार यह भी निर्देश दे सकती है कि उस शासक पर मुकदमा:
o किसी अभिकर्ता (agent) के नाम से,
o या किसी अन्य नाम से चलाया जाए।
Revision Points Summary:
1. विदेशी शासक मुकदमा अपने राज्य के नाम से कर सकता है और उस पर मुकदमा भी राज्य के नाम से चलेगा।
2. धारा 86 के तहत सहमति देते समय केंद्र सरकार निर्देश दे सकती है कि मुकदमा किसी और नाम से (जैसे अभिकर्ता) चलाया जाए।
धारा 87A – विदेशी राज्य और शासक की परिभाषाएँ
(1) इस भाग (Part) में:
• (a) “विदेशी राज्य” का मतलब:
➤ ऐसा कोई राज्य जो भारत के बाहर स्थित है,
➤ और जिसे केन्द्रीय सरकार द्वारा मान्यता (recognition) दी गई है।
• (b) “शासक” का मतलब:
➤ ऐसा व्यक्ति जो उस विदेशी राज्य का प्रमुख (head) है,
➤ और जिसे केन्द्रीय सरकार ने उस समय उस राज्य का प्रमुख माना है।
(2) न्यायालय का कर्तव्य (Judicial Notice):
➤ हर न्यायालय यह बात मानेगा (Judicially Notice करेगा) कि—
• (a) किसी राज्य को केन्द्रीय सरकार ने मान्यता दी है या नहीं, और
• (b) किसी व्यक्ति को उस राज्य का शासक (प्रमुख) माना गया है या नहीं।
Revision Points Summary:
1. विदेशी राज्य = भारत के बाहर का राज्य + केन्द्रीय सरकार की मान्यता।
2. शासक = वह व्यक्ति जिसे केंद्र सरकार ने उस राज्य का प्रमुख माना।
3. हर न्यायालय को यह बात माननी होगी कि मान्यता मिली है या नहीं – यह साबित नहीं करना होगा।
धारा 87B – भूतपूर्व देशी राज्यों के शासकों पर धारा 85 और 86 का लागू होना
(1) यदि किसी पूर्ववर्ती भारतीय राज्य के शासक द्वारा या उसके विरुद्ध कोई वाद हो:
• जो संविधान लागू होने से पहले उत्पन्न किसी अधिकार या कार्यवाही पर आधारित हो,
• तब उस वाद में धारा 85 और धारा 86 की उपधारा (1) और (3) के नियम,
• ऐसे भूतपूर्व शासक पर वैसे ही लागू होंगे,
जैसे कि वे किसी विदेशी राज्य के शासक पर लागू होते हैं।
________________________________________
(2) इस धारा में प्रयुक्त शब्दों का अर्थ:
• (a) “पूर्ववर्ती भारतीय राज्य” = ऐसा भारतीय राज्य जिसे केन्द्रीय सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा घोषित करे कि यह धारा उस पर लागू होगी।
• (b) “संविधान का प्रारंभ” = 26 जनवरी, 1950 (गणतंत्र दिवस)।
• (c) “शासक” = वही अर्थ जो संविधान के अनुच्छेद 363 में दिया गया है (यानी उस राज्य का तत्कालीन मान्यता प्राप्त प्रमुख)।
Revision Summary:
1. यदि मामला संविधान लागू होने से पहले के अधिकार पर आधारित हो ⇒ धारा 85 व 86 लागू होंगे।
2. केवल उन्हीं पूर्व देशी राज्यों के लिए लागू होगी जिन्हें केंद्र सरकार राजपत्र द्वारा अधिसूचित करेगी।
3. “संविधान प्रारंभ” = 26 जनवरी 1950।
4. “शासक” = संविधान अनुच्छेद 363 में दिया गया परिभाषित व्यक्ति।
धारा 88 – जहां अंतर-वकील वाद संस्थित किया जा सकेगा
मुख्य भाव:
अगर दो या अधिक व्यक्ति आपस में एक ही वस्तु (जैसे – पैसा, ऋण, चल/अचल संपत्ति) पर दावा कर रहे हों, और:
• वह वस्तु तीसरे व्यक्ति के पास हो,
• और वह तीसरा व्यक्ति:
o उसमें किसी प्रकार का हित नहीं रखता (सिवाय लागत या खर्च के),
o और वह उसे सही व्यक्ति को सौंपने को तैयार हो,
तब वह तीसरा व्यक्ति Interpleader Suit (अंतर-वकील वाद) सभी दावेदारों के खिलाफ न्यायालय में दायर कर सकता है।
उद्देश्य:
• यह तय करने के लिए कि वह वस्तु किसे सौंपी जाए,
• और वह व्यक्ति अपनी सुरक्षा (क्षतिपूर्ति) सुनिश्चित कर सके।
बशर्ते (Proviso):
अगर पहले से ऐसा कोई वाद (मुकदमा) लंबित है जिसमें:
• सभी पक्षकारों के अधिकारों का निर्णय किया जा सकता है,
तो फिर कोई नया अंतर-वकील वाद दायर नहीं किया जाएगा।
Revision Points:
1. तीसरे व्यक्ति के पास संपत्ति है, उस पर दो या अधिक लोग दावा करते हैं।
2. तीसरे व्यक्ति को केवल लागत या खर्च की भरपाई चाहिए, वह बाकी चीज़ में हितहीन है।
3. वह तीसरा व्यक्ति Interpleader Suit डाल सकता है ताकि न्यायालय तय करे कि वस्तु किसे देनी है।
4. अगर पहले से मुकदमा लंबित है जो इस विवाद को सुलझा सकता है ⇒ नया वाद नहीं चलेगा।
धारा 89 – न्यायालय के बाहर विवादों का निपटारा
(1) जब न्यायालय को लगे कि समझौता हो सकता है:
• अगर न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि:
o ऐसा समझौता संभव है जो पक्षकारों को स्वीकार हो सकता है,
तब न्यायालय:
• एक संभावित समझौते की शर्तें तैयार करेगा,
• वह शर्तें पक्षकारों को टिप्पणियों के लिए देगा,
• फिर उनकी टिप्पणियाँ लेकर समझौते की शर्तों को फिर से संशोधित कर सकता है,
🔽 और फिर उसे निम्न में से किसी प्रक्रिया के लिए निर्देशित करेगा:
(a) Arbitration – मध्यस्थता
(b) Conciliation – सुलह
(c) Judicial Settlement – न्यायिक समाधान, जिसमें लोक अदालत के माध्यम से समाधान शामिल है
(d) Mediation – मध्यस्थता
(2) यदि विवाद को उपरोक्त में से किसी प्रक्रिया के लिए भेजा जाए:
तब नीचे दिए गए कानून लागू होंगे—
• (a) मध्यस्थता या सुलह के लिए:
o मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 के नियम लागू होंगे,
o जैसे यह कार्यवाही उसी अधिनियम के अंतर्गत की जा रही हो।
• (b) लोक अदालत को भेजे गए मामले में:
o विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 की धारा 20(1) के अनुसार मामला लोक अदालत को भेजा जाएगा,
o और उस अधिनियम के सभी अन्य नियम भी लागू होंगे।
• (c) न्यायिक समाधान के लिए:
o मामला उपयुक्त संस्था या व्यक्ति को भेजा जाएगा,
o वह संस्था/व्यक्ति लोक अदालत मानी जाएगी,
o और विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987 के सभी नियम लागू होंगे,
o जैसे वह मामला लोक अदालत को विधिवत भेजा गया हो।
• (d) मध्यस्थता के लिए:
o न्यायालय स्वयं समझौता कराने का प्रयास करेगा,
o और विहित प्रक्रिया का पालन किया जाएगा।
________________________________________
Revision Summary:
भाग प्रक्रिया लागू कानून
(क) मध्यस्थता मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996
(ख) सुलह वही अधिनियम
(ग) लोक अदालत विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम, 1987
(घ) न्यायिक समाधान संस्था/व्यक्ति को लोक अदालत माना जाएगा
धारा 90 – न्यायालय की राय हेतु मामला बताने की शक्ति
आसान शब्दों में:
• जब कोई व्यक्ति लिखित रूप में यह सहमति देता है कि वह न्यायालय से राय प्राप्त करना चाहता है,
• तो न्यायालय उस मामले को, जो उसे प्रस्तुत किया गया है,
o नियमों के अनुसार विचार करेगा,
o और उस पर निर्णय (फैसला) देगा।
मुख्य बातें याद रखने के लिए:
1. शर्त: व्यक्ति को लिखित में सहमति देनी होती है।
2. उद्देश्य: न्यायालय से कानूनी राय प्राप्त करना।
3. न्यायालय क्या करेगा:
o नियमित प्रक्रिया के अनुसार
o उस मामले को विचारित करेगा और
o निर्णय देगा।
धारा 91 – सार्वजनिक उपद्रव और जनता को प्रभावित करने वाले अन्य गलत कार्य
(1) जब कोई सार्वजनिक उपद्रव (public nuisance) या कोई अन्य गलत कार्य (wrongful act) हो,
• जो जनता को प्रभावित करता है या प्रभावित करने की संभावना रखता है,
• तब निम्नलिखित लोग ऐसा वाद (case) कर सकते हैं:
(a) महाधिवक्ता (Advocate General) द्वारा,
(b) या दो या अधिक व्यक्ति,
• न्यायालय की अनुमति (permission) से,
• भले ही उन्हें कोई विशेष हानि (special damage) न हुई हो उस उपद्रव या गलत कार्य से।
इसका मतलब ये है कि किसी व्यक्ति को खुद नुकसान हुआ हो यह जरूरी नहीं है, अगर जनता पर असर पड़ रहा है तो भी वे न्यायालय की इजाजत लेकर वाद दायर कर सकते हैं।
________________________________________
(2) इस धारा में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे—
• किसी व्यक्ति के पास जो पहले से ही वाद करने का अधिकार है,
• वह सीमित हो जाए या प्रभावित हो जाए।
अर्थात् – अगर किसी को पहले से कानूनन वाद करने का अधिकार है, तो यह धारा उसका नुकसान नहीं करती।
संक्षेप में याद रखने योग्य बातें:
• जनहित में वाद: जनता को प्रभावित करने वाले मामलों में भी वाद संभव है।
• कौन कर सकता है वाद:
o महाधिवक्ता
o दो या अधिक व्यक्ति (न्यायालय की इजाजत से)
• व्यक्तिगत हानि जरूरी नहीं है।
• पहले से जो वाद का अधिकार है, वह बरकरार रहेगा।
धारा 92 – सार्वजनिक दान
(1) यदि कोई ट्रस्ट (Trust) जो —
• धर्मार्थ (charitable) या धार्मिक प्रकृति (religious nature) के सार्वजनिक उद्देश्य के लिए बनाया गया हो,
• और उसमें कोई भंग (violation/breach) हो गया हो,
• या उसके प्रशासन (management) के लिए न्यायालय के निर्देश की आवश्यकता हो,
तब निम्नलिखित लोग न्यायालय में वाद (case) दायर कर सकते हैं—
(a) महाधिवक्ता (Advocate General),
(b) या ऐसे ट्रस्ट में हित रखने वाले दो या अधिक व्यक्ति,
• जिन्होंने न्यायालय की अनुमति प्राप्त कर ली हो।
वे यह वाद निम्न में कर सकते हैं:
• प्रधान सिविल न्यायालय (Principal Civil Court) में, जिसकी प्रारंभिक अधिकारिता हो, या
• राज्य सरकार द्वारा सशक्त कोई अन्य न्यायालय,
o बशर्ते ट्रस्ट की संपत्ति (पूरी या आंशिक) उस न्यायालय की स्थानीय सीमा में हो।
यह वाद डिक्री (decree) प्राप्त करने के लिए हो सकता है – चाहे विवादपूर्ण हो या नहीं – निम्नलिखित प्रयोजनों के लिए:
• (क) किसी ट्रस्टी को हटाना
• (ख) नया ट्रस्टी नियुक्त करना
• (ग) किसी संपत्ति को ट्रस्टी के नाम निहित करना
• (गग) हटाए गए ट्रस्टी या पूर्व ट्रस्टी को आदेश देना कि वह ट्रस्ट की संपत्ति सही व्यक्ति को सौंप दे
• (घ) लेखा-जांच (accounts) और पूछताछ का आदेश देना
• (ई) यह तय करना कि ट्रस्ट की संपत्ति का कितना भाग किस उद्देश्य को जाएगा
• (च) संपत्ति को किराए पर देना, बेचना, गिरवी रखना या विनिमय की अनुमति देना
• (छ) किसी योजना का निर्धारण करना
• (ज) अन्य कोई उचित या अतिरिक्त राहत देना
🔷 (2) विशेष नियम:
• यदि कोई मामला ऐसे राज्य से संबंधित है जिसमें धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम, 1863 या कोई अन्य समतुल्य कानून पहले से लागू है,
• और वह राज्य 1 नवम्बर, 1956 से ठीक पहले भाग ख राज्य (Part B State) था,
तब उस स्थिति में वाद उपरोक्त उपधारा (1) के अनुसार ही दायर किया जा सकता है, अन्यथा नहीं।
🔷 (3) न्यायालय ट्रस्ट के उद्देश्य बदल सकता है, यदि निम्न में से कोई स्थिति हो:
(क) ट्रस्ट के मूल उद्देश्य:
• (i) पूरे हो गए हों
• (ii) पूरे नहीं किए जा सकते
• (iii) ट्रस्ट की भावना के अनुसार भी पूरे नहीं हो सकते
(ख) ट्रस्ट की संपत्ति का उपयोग केवल एक भाग के लिए निर्धारित हो
(ग) ट्रस्ट की संपत्ति और अन्य समान उद्देश्यों वाली संपत्ति को मिलाकर अधिक उपयोगी तरीके से उपयोग किया जा सकता हो
(घ) ट्रस्ट के उद्देश्य उस क्षेत्र से संबंधित हों जो अब वैसा नहीं रहा
(ई) उद्देश्य:
• (i) अन्य साधनों से पूरे हो चुके हों
• (ii) अब अनुपयोगी या हानिकारक हों
• (iii) अब कानून अनुसार धर्मार्थ न माने जाएं
• (iv) ट्रस्ट की भावना के अनुसार अब कोई और उपयुक्त तरीका हो उपयोग का
संक्षेप में याद रखने योग्य मुख्य बिंदु:
• ट्रस्ट में गड़बड़ी या सुधार हेतु वाद संभव है।
• कौन कर सकता है वाद: महाधिवक्ता या 2+ हितधारक न्यायालय की अनुमति से।
• ट्रस्टी को हटाने, नया नियुक्त करने, लेखा जांच, योजना बनाने जैसे 9 विशेष प्रयोजनों के लिए वाद किया जा सकता है।
• कुछ राज्यों में विशेष कानून लागू होने पर वही प्रक्रिया अपनानी होगी।
• ट्रस्ट के उद्देश्य जरूरत अनुसार बदले जा सकते हैं।
धारा 93 – प्रेसिडेंसी नगरों के बाहर महाधिवक्ता की शक्तियों का प्रयोग
जहां बात प्रेसिडेंसी नगरों (जैसे कोलकाता, मुंबई, चेन्नई) के बाहर की हो, वहां—
धारा 91 और 92 में जो शक्तियाँ महाधिवक्ता (Advocate General) को दी गई हैं,
उन्हें निम्न व्यक्ति भी प्रयोग कर सकते हैं, राज्य सरकार की पूर्व अनुमति (prior approval) से:
• (1) कलेक्टर (Collector), या
• (2) कोई अन्य अधिकारी जिसे राज्य सरकार विशेष रूप से नियुक्त करे इस कार्य हेतु।
संक्षेप में याद रखने योग्य मुख्य बिंदु:
• धारा 91 और 92 में जो शक्ति महाधिवक्ता को है, वह प्रेसिडेंसी नगरों के बाहर कलेक्टर या राज्य द्वारा नियुक्त अधिकारी भी प्रयोग कर सकता है।
• लेकिन केवल राज्य सरकार की पूर्व मंजूरी से।
• इसका उद्देश्य: स्थानीय स्तर पर ट्रस्ट या सार्वजनिक हित के मामलों में कार्रवाई संभव बनाना।
धारा 94 – अनुपूरक कार्यवाही
न्याय के उद्देश्यों (justice) को विफल (fail) होने से बचाने के लिए,
जब ऐसा विधान (law) में लिखा गया हो,
तो न्यायालय निम्नलिखित कार्यवाही कर सकता है—
(क)
प्रतिवादी (Defendant) को गिरफ्तार करने और न्यायालय में लाने का वारंट (Warrant) जारी कर सकता है,
ताकि वह यह बताए कि उसे अपनी उपस्थिति (presence) के लिए सुरक्षा (security) क्यों न देनी चाहिए।
और यदि वह न्यायालय के सुरक्षा संबंधी आदेश का पालन नहीं करता,
तो उसे सिविल जेल (civil prison) भेजा जा सकता है।
(ख)
प्रतिवादी को आदेश दिया जा सकता है कि वह
अपनी किसी संपत्ति को प्रस्तुत करने के लिए गारंटी (security) दे,
और उसे न्यायालय के अधीन रखा जाए,
या उस संपत्ति की कुर्की (attachment) का आदेश दिया जा सकता है।
(ग)
अस्थायी निषेधाज्ञा (Temporary Injunction) दी जा सकती है,
और यदि कोई अवज्ञा (disobedience) करता है,
तो उसे सिविल जेल भेजा जा सकता है और
उसकी संपत्ति कुर्क कर बेचने का आदेश दिया जा सकता है।
(घ)
किसी संपत्ति के लिए रिसीवर (Receiver) नियुक्त किया जा सकता है,
और यदि आवश्यक हो,
तो उसकी संपत्ति कुर्क कर के बेच कर रिसीवर के कर्तव्यों को पूरा करवाया जा सकता है।
(ई)
ऐसे अन्य अंतरिम आदेश (interim orders) भी दिए जा सकते हैं,
जो न्यायालय को न्यायोचित (just) और सुविधाजनक (convenient) प्रतीत हों।
सारांश / मुख्य बातें याद रखने हेतु:
• यह धारा न्यायालय को तुरंत और प्रभावी कदम उठाने की शक्ति देती है, ताकि न्याय बाधित न हो।
• इसमें गिरफ्तारी, संपत्ति की सुरक्षा, अस्थायी आदेश, निषेधाज्ञा, रिसीवर की नियुक्ति आदि शामिल हैं।
• यह कार्यवाही मुकदमे के दौरान न्याय की रक्षा के लिए होती है।
धारा 95 – अपर्याप्त आधार पर गिरफ्तारी, कुर्की या व्यादेश (Injunction) प्राप्त करने के लिए प्रतिकर (Compensation)
(1)
जब किसी ऐसे वाद (case) में,
जिसमें पिछली धारा (धारा 94) के अनुसार गिरफ्तारी, कुर्की (attachment) या अस्थायी व्यादेश (temporary injunction) दी गई हो—
(क)
न्यायालय को यह लगे किगिरफ्तारी, कुर्की या व्यादेश अपर्याप्त आधारों (insufficient grounds) पर की गई थी; या
(ख)
वादी का वाद असफल (fail) हो जाता है,और न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि
वाद शुरू करने का कोई उचित (reasonable) या संभावित (probable) आधार नहीं था,
तब प्रतिवादी (Defendant) न्यायालय में आवेदन कर सकता है, और न्यायालय ऐसे आवेदन पर आदेश द्वारा, वादी के विरुद्ध एक राशि (जो ₹50,000 से अधिक नहीं होगी) निर्धारित कर सकता है,
जो प्रतिवादी को हुए खर्च (expenses) या हानि (damages) के लिए उचित प्रतिकर (compensation) होगी।
इसमें प्रतिष्ठा को हुई क्षति (damage to reputation) भी शामिल है।
परंतु:
कोई भी न्यायालय इस धारा के अंतर्गत अपनी आर्थिक अधिकारिता (pecuniary jurisdiction) से अधिक की राशि नहीं दे सकता।
(2)
जब ऐसा आवेदन तय (decided) हो जाता है, तो उसके बाद वही गिरफ्तारी, कुर्की, या निषेधाज्ञा को लेकर किसी अलग मुकदमे में मुआवजे की मांग नहीं की जा सकेगी।
मुख्य बातें याद रखने हेतु:
• अगर किसी व्यक्ति के खिलाफ गलत या बिना ठोस आधार के अस्थायी आदेश लिए गए हैं,
तो वह मुआवजा (compensation) मांग सकता है।
• अधिकतम राशि ₹50,000 है।
• एक बार जब अदालत ने इस धारा के तहत निर्णय कर दिया,
तो फिर से मुकदमा नहीं चलाया जा सकता।
धारा 96 – मूल डिक्री (Original Decree) से अपील (Appeal)
(1)
जब तक इस संहिता (CPC) के मूल भाग या किसी अन्य लागू कानून में स्पष्ट रूप से कुछ और नहीं कहा गया हो,
तब तक प्रथम (First) स्तर के किसी न्यायालय द्वारा पारित हर डिक्री (Final Decision) के खिलाफ अपील की जा सकती है।
यह अपील उस उच्चतर न्यायालय में की जाएगी, जो उस निचले न्यायालय के निर्णयों की अपील सुनने के लिए अधिकार-प्राप्त (authorized) है।
(2)
एकपक्षीय रूप से (ex parte) पारित की गई मूल डिक्री के विरुद्ध भी अपील की जा सकती है।
( यानी जब किसी एक पक्ष की गैर-हाजिरी में फैसला हुआ हो, तब भी अपील संभव है।)
(3)
अगर दोनों पक्षों की सहमति (consent) से न्यायालय ने कोई डिक्री पास की है,
तो उस डिक्री के खिलाफ कोई अपील नहीं की जा सकती।
(4)
लघु वाद न्यायालय (Court of Small Causes) द्वारा देखे गए किसी वाद में
डिक्री के विरुद्ध अपील केवल विधि के प्रश्न (question of law) पर ही होगी,
जब तक कि: मूल वाद की विषय-वस्तु की राशि या मूल्य ₹10,000 से अधिक न हो।
मुख्य बातें याद रखने हेतु:
• लगभग हर डिक्री के खिलाफ अपील संभव है, जब तक कोई विशेष कानून मना न करे।
• एकपक्षीय निर्णय के खिलाफ भी अपील हो सकती है।
• अगर दोनों पक्षों की सहमति से फैसला हुआ, तो अपील नहीं होगी।
• लघु वादों में केवल कानूनी गलती (legal error) पर ही अपील की जा सकती है – वो भी जब मामला ₹10,000 से अधिक का न हो।
धारा 97 – अंतिम डिक्री से अपील, यदि प्रारंभिक डिक्री से अपील नहीं की गई हो
यदि कोई प्रारंभिक डिक्री (preliminary decree) इस संहिता (CPC) के लागू होने के बाद पारित की गई हो,
और उस डिक्री से असंतुष्ट कोई पक्षकार (party) उसके खिलाफ अपील नहीं करता,
तो वह व्यक्ति बाद में जब अंतिम डिक्री (final decree) के खिलाफ अपील करेगा,
तो उसे प्रारंभिक डिक्री की वैधता (validity) को चुनौती देने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
सरल शब्दों में समझें:
• अगर कोर्ट ने पहले एक प्रारंभिक फैसला (preliminary decree) दिया और आपको वह पसंद नहीं आया,
• फिर भी आपने उस समय अपील नहीं की,
• और जब अंतिम फैसला (final decree) आया, तब आप अपील करने पहुँचते हैं —
तब आप यह नहीं कह सकते कि प्रारंभिक फैसला गलत था।
ध्यान रखने योग्य बात:
यह धारा यह सुनिश्चित करती है कि:
• जो व्यक्ति किसी निर्णय से असहमत है, वह समय रहते अपील करे।
• कोई भी पक्षकार कोर्ट का समय बाद में इस आधार पर न ले कि “पहला निर्णय गलत था”, जब उसने पहले अपील का अधिकार नहीं अपनाया।
धारा 98 – जहां अपील दो या अधिक न्यायाधीशों द्वारा सुनी जाती है, वहां निर्णय
(1) सामान्य नियम:
जब कोई अपील दो या अधिक न्यायाधीशों की पीठ (bench) द्वारा सुनी जाती है,
तो उसका निर्णय बहुमत (majority) के अनुसार किया जाएगा यानी जितने न्यायाधीश एक राय में हों, वही निर्णय माना जाएगा।
(2) अगर बहुमत नहीं बनता है:
यदि न्यायाधीशों में कोई बहुमत नहीं बनता, जिससे कि अपील की गई डिक्री को बदला या पलटा जा सके —
तो पुरानी डिक्री (original decree) को बरकरार रखा जाएगा।
परंतु:
यदि:
• अपील दो या अन्य सम संख्या (even number) के न्यायाधीशों द्वारा सुनी जा रही हो, और
• वे सभी उसी न्यायालय के हों, जिसमें और भी न्यायाधीश हों (जो उस पीठ का हिस्सा नहीं हैं), और
• न्यायाधीशों के बीच मतभेद केवल विधि (question of law) के संबंध में हो —
तो वे उस कानूनी प्रश्न को लिखित रूप में निर्दिष्ट कर सकते हैं और वह प्रश्न फिर एक या अधिक अन्य न्यायाधीशों को भेजा जाएगा
और उसका निर्णय बहुमत की राय से होगा — जिसमें वे न्यायाधीश भी शामिल होंगे जिन्होंने पहले अपील सुनी थी।
(3) स्पष्टीकरण:
इस धारा में दी गई कोई बात, किसी उच्च न्यायालय के पेटेंट (स्वविधानिक) अधिकारों को न तो बदलती है, और न ही उस पर कोई प्रभाव डालती है।
सरल शब्दों में समझें:
• जब अपील एक से अधिक जज सुनते हैं, तो जो ज्यादा जज जिस पक्ष में हों, वही निर्णय माना जाएगा।
• अगर जजों में बराबर-बराबर राय बंट जाती है, और कोई स्पष्ट बहुमत नहीं बनता, तो पुराना निर्णय बरकरार रहता है।
• लेकिन अगर विवाद कानून के बिंदु पर है, और और भी जज उपलब्ध हैं, तो उस कानूनी प्रश्न को दूसरों को भेजा जा सकता है — और तब बहुमत से फैसला लिया जाता है।
धारा 99 – त्रुटियों के कारण डिक्री को उलटने या बदलने पर रोक
मुख्य बात:
अगर कोई त्रुटि (mistake), दोष (defect) या अनियमितता (irregularity)
किसी वाद (case) में पक्षकारों के गलत संयोजन या गैर-संयोजन (wrong joinder or non-joinder),
या वाद के कारणों (cause of action) या कार्यवाही (procedure) में हुई हो —
और वह त्रुटि न तो मामले के गुण-दोष (merits) पर असर डालती हो,
और न ही न्यायालय की अधिकारिता (jurisdiction) पर असर डालती हो —
तो ऐसी स्थिति में:
अपील में उस डिक्री को न तो पलटा (reverse) जाएगा,
न ही उसमें कोई गंभीर संशोधन (modification) किया जाएगा,
और न ही उस मामले को फिर से निचली अदालत में वापस भेजा जाएगा (remand)।
⚠️ परन्तु (बशर्ते):
यह धारा “आवश्यक पक्षकार (necessary party)” के असंयोजन (non-joinder) पर लागू नहीं होगी।
यानी अगर कोई जरूरी पक्षकार (जिसके बिना फैसला नहीं हो सकता) वाद में जोड़ा ही नहीं गया हो,
तो यह धारा ऐसे मामले में राहत नहीं देती उस पर अपील में असर हो सकता है।
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📝 सरल शब्दों में याद रखें:
• छोटी-मोटी प्रक्रिया की गलती (जैसे किसी गलत व्यक्ति को पक्षकार बनाना या कोई नियम की अनदेखी) से
अगर न तो केस के मूल मुद्दे पर असर पड़ा हो,
और न ही कोर्ट की पावर (jurisdiction) पर,
तो डिक्री को पलटा या बदला नहीं जाएगा।
• लेकिन, अगर कोई ज़रूरी व्यक्ति (necessary party) ही वाद में जोड़ा नहीं गया,
तो ये नियम नहीं चलेगा — उस पर डिक्री असरित हो सकती है
धारा 99A – धारा 47 के आदेशों में त्रुटि के बावजूद डिक्री पर असर न हो तो नहीं बदलेगी
मुख्य बात:
धारा 47 के अंतर्गत पारित कोई भी आदेश —
सिर्फ इसलिए उलटा (reversed) या सारतः परिवर्तित (substantially modified) नहीं किया जाएगा,
क्योंकि उसमें कोई त्रुटि (mistake), दोष (defect) या अनियमितता (irregularity) हो।
ऐसा तब तक नहीं किया जाएगा जब तक:
वह त्रुटि, दोष या अनियमितता ने मामले के निर्णय पर प्रतिकूल प्रभाव (adversely affect) न डाला हो।
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🔍 यह धारा क्यों जोड़ी गई है?
• यह धारा धारा 99 की भावना को आगे बढ़ाती है, लेकिन इसे धारा 47 के आदेशों पर लागू करती है।
• मकसद यह है कि सिर्फ तकनीकी खामियों (technical errors) के कारण फैसलों को उलटने या मामले को दोबारा शुरू करने की जरूरत न पड़े, जब तक कि असली न्याय पर असर न हो।
⚠️ महत्वपूर्ण बिंदु:
• यह धारा धारा 99 के प्रावधानों को प्रभावित नहीं करती — यानी दोनों धाराएं स्वतंत्र हैं लेकिन एक जैसी भावना रखती हैं।
• इसका मतलब: धारा 47 में हुई त्रुटियां भी तभी मायने रखेंगी जब उनका असर निर्णय पर पड़े।
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📝 सरल शब्दों में याद रखें:
• धारा 47 का आदेश = अमल (execution) संबंधी आदेश।
• उसमें अगर कोई गलती है, लेकिन उस गलती से फैसले पर कोई असर नहीं पड़ा,
तो वह आदेश न तो बदला जाएगा, न ही रद्द होगा।
धारा 100 – द्वितीय अपील
(1) मुख्य उपबंध:
जब तक इस संहिता या किसी अन्य लागू कानून में कुछ और स्पष्ट रूप से न कहा गया हो,
उच्च न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालय द्वारा अपील में पारित हर डिक्री के विरुद्ध
उच्च न्यायालय में अपील (द्वितीय अपील) की जा सकती है यदि:
उच्च न्यायालय को यह विश्वास (संतोष) हो जाए कि उस मामले में “विधि का कोई सारवान (substantial) प्रश्न” शामिल है।
(2) एकपक्षीय अपील योग्य है:
यदि पहली अपील एकपक्षीय रूप से (ex parte) निर्णय द्वारा निपटाई गई हो,
तो भी उसके विरुद्ध द्वितीय अपील की जा सकती है।
(3) अपील के ज्ञापन (memorandum of appeal) में यह लिखना जरूरी है कि:
अपील में कौन सा विधि का सारवान प्रश्न (substantial question of law) शामिल है –
इसे स्पष्ट रूप से (clearly) बताया जाए।
(4) उच्च न्यायालय यदि संतुष्ट हो जाए कि कोई विधिक प्रश्न है, तो:
वह उस विधि के प्रश्न का निरूपण (formulation) करेगा यानी यह बताएगा कि वह प्रश्न क्या है जिस पर अपील सुनी जाएगी।
(5) अपील की सुनवाई निम्नलिखित अनुसार होगी:
अपील उसी प्रश्न पर सुनी जाएगी, जिसे न्यायालय ने तैयार किया है।
लेकिन प्रत्यर्थी (respondent) को यह कहने की छूट होगी कि ऐसा कोई विधिक प्रश्न मामला में है ही नहीं।
परंतु:
यदि न्यायालय को लगता है कि कोई दूसरा महत्वपूर्ण विधिक प्रश्न है जिसे अपील सुनते समय वह देखना उचित समझता है,
तो वह ऐसा कर सकता है (कारण लिख कर),भले ही वह प्रश्न पहले तैयार न किया गया हो।
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🔍 सरल शब्दों में याद रखें:
बात अर्थ
द्वितीय अपील अपील में पारित डिक्री के विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील
केवल तभी जब “विधि का कोई सारवान प्रश्न” शामिल हो
ज्ञापन में यह प्रश्न स्पष्ट रूप से लिखा हो
उच्च न्यायालय पहले उस प्रश्न की पहचान करता है
सुनवाई पहले से तय प्रश्न पर होती है, पर दूसरे प्रश्नों पर भी हो सकती है अगर उचित लगे
धारा 100A – कुछ मामलों में आगे कोई अपील नहीं होगी
मुख्य उपबंध:
भले ही:
• उच्च न्यायालय के लेटर्स पेटेंट (Letters Patent) में कुछ कहा गया हो, या
• किसी भी अन्य विधिक दस्तावेज में कुछ कहा गया हो,
• या किसी अन्य लागू कानून में कुछ भी प्रावधान हो,
फिर भी, यदि:
किसी मूल डिक्री (original decree) या अपील में पारित डिक्री/आदेश को उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश (Single Judge) द्वारा सुना और निर्णय (निर्णीत) किया गया है, तो उस निर्णय या डिक्री के विरुद्ध कोई आगे अपील नहीं की जा सकेगी।
मुख्य बात याद रखने के लिए:
• यह धारा कहती है कि अगर उच्च न्यायालय का कोई एकल न्यायाधीश किसी अपील या मूल वाद को सुनकर फैसला देता है,
तो उस फैसले के खिलाफ अब कोई दूसरी अपील नहीं की जा सकती,
भले ही कोई अन्य कानून या लेटर्स पेटेंट अपील की अनुमति देता हो।
धारा 101 – किसी अन्य आधार पर द्वितीय अपील नहीं की जा सकेगी
सिर्फ वही व्यक्ति द्वितीय अपील कर सकता है और वो भी सिर्फ उसी आधार पर,
जो धारा 100 में बताया गया है –
यानी – जब उसमें कोई महत्वपूर्ण कानून का प्रश्न (substantial question of law) शामिल हो।
इसके अलावा किसी भी और आधार पर जैसे – तथ्यों की गलती, गवाहों की गलत समझ, या दस्तावेजों की व्याख्या – द्वितीय अपील नहीं की जा सकती।
🧠 एक लाइन में याद करें:
“धारा 101 कहती है – दूसरी अपील सिर्फ कानून के बड़े प्रश्न पर ही हो सकती है, किसी और कारण पर नहीं।”
धारा 102 – कुछ मामलों में द्वितीय अपील नहीं होगी
अगर मूल वाद (original suit) में जो चीज मांगी गई है वह सिर्फ ₹25,000 या उससे कम की रकम की वसूली से जुड़ी है,
तो उस वाद में द्वितीय अपील नहीं की जा सकती।
🧠 याद रखने की ट्रिक:
“धारा 102 कहती है – ₹25,000 तक के मामलों में दूसरी अपील नहीं मिलेगी।”
धारा 103 – तथ्य के विवाद्यक (मुद्दे) को निर्धारित करने की उच्च न्यायालय की शक्ति
जब कोई द्वितीय अपील (second appeal) की जाती है,
और रिकॉर्ड में (अभिलेख पर) पहले से ही पर्याप्त साक्ष्य (evidence) मौजूद है,
तब उच्च न्यायालय खुद ही किसी तथ्य के विवाद्य मुद्दे (fact in dispute) को निर्धारित कर सकता है, अगर:
(a) उस मुद्दे का निर्धारण न तो निचली अपीली अदालत ने किया, और न ही प्रथम दृष्टया (trial) अदालत ने किया, या
(b) अगर वह मुद्दा गलत तरीके से अवधारित (wrongly decided) किया गया हो,
और यह गलती धारा 100 में बताए गए विधि के प्रश्न (substantial question of law) के कारण हुई हो।
🧠 याद रखने की ट्रिक:
“धारा 103 – अगर रिकॉर्ड में साक्ष्य हो, तो हाई कोर्ट खुद फैक्ट तय कर सकता है –
जब नीचली अदालतों ने वो मुद्दा नहीं तय किया हो, या विधि की गलती से गलत तय किया हो।”
धारा 104 – किन आदेशों के खिलाफ अपील हो सकती है
(1) सिर्फ कुछ खास आदेशों के खिलाफ ही अपील हो सकती है।
सिवाय इसके कि इस संहिता (CPC) में या किसी और कानून में स्पष्ट रूप से कुछ और कहा गया हो, सिर्फ नीचे दिए गए आदेशों के खिलाफ अपील की जा सकती है:
मुख्य आदेश जिनसे अपील हो सकती है:
• (चच) धारा 35-A के तहत झूठे या अनुचित मुकदमे पर खर्च या हर्जाना देने का आदेश।
• (चच) धारा 91 या 92 के तहत अगर वाद (case) दाखिल करने की अनुमति देने से इंकार कर दिया गया हो (Public nuisance या charitable trust से संबंधित वाद)।
• (छ) धारा 95 के तहत ग़लत गिरफ्तारी, कुर्की या निषेधाज्ञा पर मुआवजे का आदेश।
• (ज) ऐसा आदेश जिसमें किसी व्यक्ति को:
o जुर्माना लगाया गया हो,
o या गिरफ्तार करने का आदेश हो,
o या सिविल जेल में रखने का निर्देश हो
(लेकिन अगर यह किसी डिक्री को लागू करने के लिए किया गया हो, तो अपील नहीं हो सकती)।
• (i) CPC के नियमों के तहत किया गया कोई ऐसा आदेश जिसके विरुद्ध नियमों में स्पष्ट रूप से अपील का प्रावधान है।
विशेष proviso (बशर्ते):
धारा 35-A (झूठे मुकदमे वाले) आदेश के खिलाफ सिर्फ तब अपील हो सकती है जब यह कहा जाए कि
कोई आदेश दिया ही नहीं जाना चाहिए था, या
कम रकम का आदेश दिया जाना चाहिए था।
(2) इस धारा (104) के तहत अपील में जो आदेश पारित होगा, उसके खिलाफ फिर से कोई अपील नहीं होगी।
🧠 याद रखने की ट्रिक:
“104 – सिर्फ कुछ खास आदेशों से ही अपील;
जैसे 35-A, 91/92 की अनुमति से मना, 95 मुआवजा, जुर्माना/गिरफ्तारी आदेश आदि।
इनमें से अपील के बाद फिर आगे कोई अपील नहीं।”
धारा 105 – अन्य आदेश
(1) सामान्य नियम:
• जब तक कोई कानून स्पष्ट रूप से अनुमति न दे,
➤ किसी आदेश के खिलाफ सीधी अपील नहीं की जा सकती,
चाहे वो आदेश किसी कोर्ट ने original या appellate jurisdiction में दिया हो।
• लेकिन अगर डिक्री के खिलाफ अपील की गई है,
➤ तो उसमें पहले दिए गए आदेशों में कोई गलती, दोष या procedural irregularity,
जो फैसले को प्रभावित करती हो,
➤ उसे अपील में आक्षेप (objection) के रूप में लिया जा सकता है।
(2) विशेष नियम:
• अगर कोई पक्षकार ऐसे रिमांड आदेश (remand order) से पीड़ित है जिसके खिलाफ अपील की जा सकती थी, लेकिन वह अपील नहीं करता, तो बाद में उस आदेश की वैधता को चुनौती नहीं दे सकता।
Revision Tips (for Quick Recall):
1. सभी आदेशों पर अपील नहीं होती – सिर्फ डिक्री पर अपील में आदेशों की गलती उठाई जा सकती है।
2. आदेश में त्रुटि तभी मायने रखती है अगर वो final decision को प्रभावित करती हो।
3. ⚠️ अगर remand order से दुखी होकर अपील नहीं की, तो बाद में उस पर आपत्ति नहीं चलेगी।
4. ❌ धारा 105 सिर्फ procedural orders को कवर करती है, substantial rights को नहीं।
5. याद रखें: Section 105 = Procedural errors + Remand rules.
धारा 106 – कौन से न्यायालय अपील सुनेंगे
यदि किसी आदेश (Order) के विरुद्ध अपील करने की अनुमति है, तो वह अपील उसी न्यायालय में की जाएगी:
पहला नियम:
• जिस वाद (case) में वह आदेश पारित हुआ था,
➤ उस वाद की डिक्री के खिलाफ जो कोर्ट अपील सुनता,
➤ उसी कोर्ट में उस आदेश की भी अपील होगी।
दूसरा नियम:
• यदि वह आदेश किसी निचली अदालत (not High Court) ने अपील सुनते समय दिया है,
➤ तब उसकी अपील सीधे उच्च न्यायालय (High Court) में होगी।
Revision Tips (for Quick Recall):
1. Order की अपील = डिक्री की अपील वाला ही कोर्ट।
2. अगर आदेश किसी Appellate Court (lower than HC) ने दिया है →
➤ अपील High Court में होगी।
3. High Court के आदेश के लिए इस धारा की व्यवस्था लागू नहीं होती।
4. 💡 याद रखने की Trick:
➤ “जहां डिक्री जाती, वहीं आदेश जाएगा”
➤ और अगर आदेश Appellate Court ने दिया हो, तो High Court ही सुनवाई करेगा।
धारा 107 – अपील न्यायालय की शक्तियाँ
(1) अपीलीय न्यायालय के पास निम्नलिखित शक्तियाँ होती हैं, कुछ शर्तों और सीमाओं के अधीन:
(क) किसी मामले का अंतिम निर्णय करना (Final Decision देना)
(ख) किसी मामले को फिर से निचली अदालत को वापस भेजना (Remand करना)
(ग) मुद्दे (Issues) तय करना और उन्हें निचली अदालत को परीक्षण के लिए भेजना
(घ) अतिरिक्त साक्ष्य लेना या किसी पक्ष से ऐसे साक्ष्य मंगवाना
(2) इसके अलावा:
• अपीलीय अदालत के पास वही शक्तियाँ और कर्तव्य होते हैं जो निचली अदालत (Original Court) को दिए गए हैं।
• वह यथासंभव वैसी ही प्रक्रिया अपनाएगी जैसी निचली अदालतों को अपनानी होती है।
Revision Tips (Quick Memory Points):
1. याद रखने की Trick:
“FAIR” = Finalise, Again send, Issue frame, Record extra evidence
➤ F = Final Decision (क)
➤ A = Again Send (ख)
➤ I = Issues frame (ग)
➤ R = Record Evidence (घ)
2. अपील न्यायालय = Lower Court जैसी ही Power + Extra Supervisory Power
3. अपीलीय न्यायालय खुद भी फैसला कर सकता है या मामला निचली अदालत को वापस भी भेज सकता है।
4. 🧠 ध्यान रखें:
➤ ये सब कुछ शर्तों और सीमाओं के अधीन होता है।
धारा 108 – अपीलीय डिक्री और आदेशों पर प्रक्रिया
इस धारा में कहा गया है कि जो प्रक्रिया मूल डिक्री (Original Decree) के खिलाफ अपील में अपनाई जाती है, उसी प्रक्रिया को—जहां तक संभव हो—इन दो स्थितियों में भी अपनाया जाएगा:
(क) जब अपील अपीलीय डिक्री (Appellate Decree) के खिलाफ हो।
(ख) जब अपील ऐसे आदेशों के खिलाफ हो जो—
• इस संहिता (CPC) के तहत आए हों, या
• किसी विशेष (Special) या स्थानीय कानून (Local Law) के तहत आए हों,
बशर्ते कि उस विशेष कानून में कोई अलग प्रक्रिया (Procedure) न दी गई हो।
Revision Tips (Quick Memory Points):
1. Trick: “Same Procedure – Again”
➤ जो तरीका पहली अपील में अपनाया जाता है,
➤ वही तरीका दूसरी अपील या आदेशों पर भी लागू होगा (जहां तक संभव हो)।
2. 🏛️ दो स्थिति याद रखें:
➤ (क) Appellate Decree
➤ (ख) Special/Local Law के आदेश
3. ❌ अगर Special Law में अलग प्रोसेस लिखा हो, तो CPC की प्रक्रिया लागू नहीं होगी।
4. 🧠 यह धारा केवल प्रक्रिया (Procedure) से जुड़ी है, न कि अधिकारों (Rights) से।
धारा 109 – जब अपील सर्वोच्च न्यायालय में की जाती है
🧠 सरल हिंदी में समझें:
धारा 109 कहती है कि:
संविधान (Part V, Chapter IV) और सुप्रीम कोर्ट के नियमों के अनुसार
किसी सिविल मामले में
यदि किसी उच्च न्यायालय ने कोई निर्णय (judgment), डिक्री (decree) या अंतिम आदेश (final order) दिया है
तो उसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में अपील की जा सकती है…
लेकिन कब ?
जब उच्च न्यायालय खुद यह प्रमाणित (certify) कर दे कि:
1. (i) उस मामले में कोई सारवान (important) और सामान्य महत्व का (of general importance) विधिक प्रश्न (legal question) शामिल है,
और
2. (ii) उस विधिक प्रश्न का निर्णय करना सुप्रीम कोर्ट के लिए आवश्यक है।
📝 Revision Tips (100% Content Covered):
1. 🎯 S.C. जाने के लिए चाहिए – 2 जरूरी बातें (2Q Rule)
o (i) Substantial Question of Law
o (ii) SC द्वारा उसका निर्णय आवश्यक हो – HC को ऐसा लगे
2. 📖 अपील केवल सिविल कार्यवाही में दी जा सकती है।
(ध्यान रहे – आपराधिक मामलों में अलग प्रक्रिया होती है)
3. 🏛️ यह सब कुछ संविधान के भाग V, अध्याय IV और सुप्रीम कोर्ट के नियमों के तहत होता है।
4. 📜 उच्च न्यायालय को प्रमाण पत्र देना जरूरी है – जिसे Certificate for Appeal to Supreme Court कहते हैं।
5. 🔁 यह धारा धारा 112 और Order XLV के अधीन नियमों से जुड़ी हुई है।
Section: 110-111: Omitted
धारा 112 – बचत (Saving Clause)
धारा 112 (1):
इस संहिता (CPC) में जो भी लिखा है, वह इन दो बातों को प्रभावित नहीं करता:
• (क) भारत के संविधान के अनुच्छेद 136 या किसी अन्य प्रावधान के तहत सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियों पर कोई असर नहीं डालेगा।
मतलब: सुप्रीम कोर्ट की विशेष शक्तियाँ वैसी की वैसी रहेंगी, CPC से उन पर कोई असर नहीं होगा।
• (ख) सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाए गए नियम (जो अपील को दाखिल करने या वहाँ उसके संचालन से जुड़े हैं), उन नियमों में CPC कोई हस्तक्षेप नहीं करता।
मतलब: सुप्रीम कोर्ट के खुद के बनाए हुए नियम, CPC से अलग और सुरक्षित हैं।
धारा 112 (2):
CPC की बातें इन मामलों पर लागू नहीं होती:
• आपराधिक क्षेत्राधिकार (Criminal Jurisdiction)
• एडमिरल्टी या वाइस एडमिरल्टी क्षेत्राधिकार (समुद्री कानून से जुड़े मामलों का क्षेत्राधिकार)
• पुरस्कार न्यायालयों (Prize Courts) के आदेश और डिक्री से अपील
🧠 Revision Tips
CPC सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों को छू नहीं सकता – चाहे वो
o Art. 136 के तहत हो या
o कोई और constitutional power हो।
2. 📜 SC के अपने नियम (जैसे अपील दायर करने या संचालन के नियम) को CPC बदल नहीं सकता।
3. ❌ CPC लागू नहीं होती इन पर:
o Criminal matters
o Admiralty / Vice-Admiralty jurisdiction
o Prize Courts
4. 🔐 यह धारा एक सेफ्टी क्लॉज (saving clause) है, जिससे सुप्रीम कोर्ट की constitutional independence बनी रहती है।
5. याद रखने का ट्रिक:
o “CPC can’t touch SC’s powers or rules”
o “CPC not for Criminal, Admiralty & Prize matters”
धारा 113 – उच्च न्यायालय को संदर्भ (Reference to High Court)
📝 सरल हिन्दी में पूरी धारा का सारांश:
• किसी भी न्यायालय को, कुछ शर्तों और सीमाओं के तहत, किसी मामले को उच्च न्यायालय को राय के लिए भेजने (reference करने) का अधिकार है।
• जब किसी न्यायालय को लगता है कि कोई मामला ऐसा है जिस पर निर्णय देने से पहले उच्च न्यायालय की राय जरूरी है, तो वह मामला उच्च न्यायालय को राय के लिए भेज सकता है।
⚠️ परन्तु (Proviso):
यदि न्यायालय को यह विश्वास हो कि उसके सामने जो मामला लंबित है, उसमें कोई ऐसा प्रश्न है:
• जो किसी अधिनियम, अध्यादेश या विनियम या उसके किसी उपबंध की वैधता (validity) से जुड़ा है,
• और उस वैधता का निर्णय उस मामले के निपटारे के लिए जरूरी है,
• और उस न्यायालय को लगता है कि वह अधिनियम / अध्यादेश / विनियम / उपबंध अवैध (invalid) या अप्रभावी (ineffective) है,
• लेकिन उस उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय ने अभी तक इसे अवैध घोषित नहीं किया है,
तो उस न्यायालय को मामला उच्च न्यायालय को भेजना (reference करना) अनिवार्य है – अपनी राय और कारण सहित।
स्पष्टीकरण (Explanation):
“विनियम (Regulation)” का अर्थ है:
• बंगाल, बम्बई या मद्रास संहिता का कोई विनियम,
• या साधारण खण्ड अधिनियम, 1897 या किसी राज्य के साधारण खण्ड अधिनियम में परिभाषित विनियम।
🧠 Revision Tips
1. Lower courts – कुछ मामलों में High Court की राय ले सकते हैं, जब केस में कोई कानूनी जटिलता हो।
2. अगर कोई कानून या उसका हिस्सा invalid लगता है, और उस पर अभी तक HC या SC का फैसला नहीं है,
तो Lower Court को वो मामला High Court को भेजना ही पड़ेगा।
3. याद रखने का ट्रिक:
o “Doubt in validity → Must refer to HC”
o “No power to declare law invalid unless HC/SC has done so”
4. ⚠️ ये power सिर्फ non-HC subordinate courts के लिए है, खुद High Court के लिए नहीं।
5. “Regulation” = पुराने बंगाल/बम्बई/मद्रास के नियम + General Clauses Act में जो Regulation है।
धारा 114 – समीक्षा (Review)
यदि कोई व्यक्ति किसी निर्णय, डिक्री या आदेश से व्यथित (aggrieved) है, तो वह उसी न्यायालय से पुनर्विचार (समीक्षा) के लिए आवेदन कर सकता है जिसने वह डिक्री या आदेश पारित किया था, इन स्थितियों में:-
तीन स्थितियाँ जिनमें समीक्षा (Review) की जा सकती है:
(a) यदि डिक्री या आदेश ऐसा है:-
• जिसके खिलाफ अपील की जा सकती थी, लेकिन अपील नहीं की गई है।
(b) यदि डिक्री या आदेश ऐसा है:
• जिसके खिलाफ इस संहिता में कोई अपील की अनुमति ही नहीं है।
(c) यदि वह निर्णय लघु वाद न्यायालय (Small Cause Court) से reference (संदर्भ) पर मिला है।
इन तीनों में से किसी भी स्थिति में,
व्यक्ति review (समीक्षा) के लिए उसी न्यायालय में आवेदन कर सकता है,और न्यायालय उचित आदेश पारित कर सकता है।
Revision Tips
1. Review का मतलब: उसी न्यायालय से अपने ही निर्णय पर पुनर्विचार कराने की प्रक्रिया।
2. 3 Conditions to Review:
o Appealable order है पर appeal नहीं की गई
o Non-appealable order
o Reference से मिला decision
3. ❌ अगर appeal कर दी गई है, तो review नहीं होगा।
4. 🏛 Review वही न्यायालय करेगा जिसने डिक्री या आदेश पास किया था।
5. 🎯 Trick to remember: “A-B-C of Review”
o A – Appeal lie करती है, पर की नहीं (Clause a)
o B – Appeal lie ही नहीं करती (Clause b)
o C – Came from Small Cause Court reference (Clause c)
धारा 115 – संशोधन (Revision)
धारा 115(1): उच्च न्यायालय की संशोधन शक्ति
उच्च न्यायालय, उसके अधीनस्थ किसी न्यायालय द्वारा निर्णय किए गए ऐसे मामले का अभिलेख (record) मंगा सकता है,
जिसमें कोई अपील नहीं हो सकती और यदि वह पाता है कि वह अधीनस्थ न्यायालय—
• (a) ऐसे अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर रहा है जो कानून ने नहीं दिया है, या
• (b) उसे जो अधिकार मिला था, उसका प्रयोग करने में असफल रहा है, या
• (c) उसने अपने अधिकार का प्रयोग गलत तरीके से या प्रक्रिया में भारी गड़बड़ी के साथ किया है,
तो उच्च न्यायालय ऐसा आदेश पारित कर सकता है जैसा वह उचित समझे।
⚠️ पहला परन्तु (Important Condition):
उच्च न्यायालय किसी वाद या अन्य कार्यवाही के दौरान दिए गए आदेश को तब तक संशोधित या पलट नहीं सकता,
जब तक कि यह न हो कि अगर वह आदेश आवेदनकर्ता के पक्ष में होता, तो पूरा मामला ही समाप्त हो जाता।
❌ धारा 115(2): अपीलीय आदेशों पर संशोधन नहीं
यदि कोई डिक्री या आदेश ऐसा है जिसके विरुद्ध अपील की जा सकती है,
तो उसे संशोधन (Revision) के तहत नहीं लाया जा सकता।
धारा 115(3): वाद पर रोक नहीं
पुनरीक्षण का आवेदन करने मात्र से वाद या कार्यवाही पर स्वतः रोक (Stay) नहीं लगेगी,
जब तक कि उच्च न्यायालय द्वारा स्पष्ट रूप से रोक नहीं लगाई जाए।
स्पष्टीकरण:
“किसी मामले का जिसका विनिश्चय हो चुका है” में यह भी शामिल है:
• कोई आदेश,
• या वाद/कार्यवाही के दौरान किसी विवाद्यक का निर्णय।
🧠 Revision Tips
Revision का मतलब:
– जब appeal का रास्ता बंद हो, तो High Court को limited power मिलती है गलत आदेश को सुधारने की।
High Court कब Revision ले सकता है? (तीन Condition – A, B, C)
1. (a) Jurisdiction नहीं था फिर भी इस्तेमाल किया – अति-शक्ति (Excess of Jurisdiction)
2. (b) Jurisdiction था, पर इस्तेमाल ही नहीं किया – चूक (Failure of Jurisdiction)
3. (c) Jurisdiction का गलत या अनियमित प्रयोग – Procedural Error / Illegality
❌ Important Restrictions:
• Revision तब ही होगा जब उस आदेश से पूरा वाद समाप्त हो सकता था, अगर वह विपरीत होता।
• Appealable आदेश पर Revision नहीं होगा।
• Stay नहीं लगेगा जब तक High Court स्वयं न रोके।
धारा 116 – केवल कुछ उच्च न्यायालयों पर लागू
यह भाग (Part) केवल उन उच्च न्यायालयों पर लागू होता है —
जो “न्यायिक आयुक्त का न्यायालय” नहीं हैं।
🧠 Revision Tips in Points:
Point-wise Simplification:
1. धारा 116 केवल High Courts पर लागू होती है।
2. परंतु यह Judicial Commissioner के Courts पर लागू नहीं होती।
3. यह अपील संबंधी भाग की सीमा निर्धारित करती है — कि किन न्यायालयों पर यह भाग लागू होगा।
धारा 117 – संहिता का उच्च न्यायालयों पर लागू होना
जब तक इस भाग, भाग 10 या नियमों में कुछ और न कहा गया हो, तब तक यह संहिता उच्च न्यायालयों पर लागू होगी।
धारा 118 – लागत निश्चित करने से पूर्व डिक्री का निष्पादन
अगर कोई उच्च न्यायालय यह जरूरी समझे कि उसके द्वारा आरंभिक सिविल अधिकार में दी गई डिक्री को, खर्च (लागत) की राशि तय होने से पहले ही लागू (निष्पादित) किया जाना चाहिए, तो वह ऐसा आदेश दे सकता है।
बशर्ते:
• डिक्री का वह हिस्सा जो लागत (व्यय) से जुड़ा है, तब तक लागू नहीं होगा जब तक खर्च की राशि तय (कराधान द्वारा) न हो जाए।
• जैसे ही खर्च की राशि तय हो जाएगी, उस हिस्से की भी निष्पादन (अमल) की अनुमति दी जा सकती है।
धारा 119 – अनाधिकृत व्यक्तियों का न्यायालय में उपस्थित न होना
इस संहिता में कुछ भी ऐसा नहीं माना जाएगा जिससे कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की ओर से:
• न्यायालय को संबोधित कर सके, या
• साक्षियों से जिरह (परीक्षा) कर सके,
जब तक:
• उसे न्यायालय ने अपने चार्टर की शक्ति के अंतर्गत ऐसा करने की अनुमति (प्राधिकृत) न दी हो, या
• यह उच्च न्यायालय की उस शक्ति में हस्तक्षेप करने वाला न हो जो अधिवक्ताओं, वकीलों और एटर्नियों के बारे में नियम बनाने के लिए है।
धारा 120 – मूल सिविल अधिकारिता में उच्च न्यायालय पर लागू न होने वाले प्रावधान
(1) निम्नलिखित धाराएं उच्च न्यायालय पर उसकी मूल (Original) सिविल अधिकारिता के प्रयोग में लागू नहीं होंगी:
• धारा 16
• धारा 17
• धारा 20
धारा 121 – प्रथम अनुसूची के नियमों का प्रभाव
प्रथम अनुसूची के जो नियम हैं, वे ऐसे प्रभावी माने जाएंगे जैसे कि वे इस संहिता के मुख्य भाग में ही बनाए गए हों,
और जब तक उन्हें इस भाग के उपबंधों के अनुसार रद्द या बदला (परिवर्तित) नहीं किया जाता, तब तक वे लागू रहेंगे।
धारा 122 – कुछ उच्च न्यायालयों की नियम बनाने की शक्ति
1. उच्च न्यायालय (जो न्यायिक आयुक्त का न्यायालय नहीं है) पूर्व प्रकाशन के बाद समय-समय पर अपनी प्रक्रिया और अपने अधीन सिविल न्यायालयों की प्रक्रिया को विनियमित करने वाले नियम बना सकेंगे।
2. ऐसे नियमों द्वारा वे प्रथम अनुसूची के सभी या किसी नियम को
• रद्द (बातिल) annul कर सकेंगे,
• परिवर्तित (alter) कर सकेंगे, या
• उनमें परिवर्तन (परिवर्धन) add कर सकेंगे।
धारा 123 – कुछ राज्यों में नियम समितियों का गठन
(1) नियम समिति नाम की एक समिति उस नगर में बनाई जाएगी जो धारा 122 में बताये गए हर उच्च न्यायालय की बैठक का मुख्य स्थान हो।
(2) हर ऐसी समिति में ये लोग होंगे:
• (क) उस नगर में बने उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीश, जिनमें से एक ने कम से कम तीन साल जिला न्यायाधीश या संभागीय न्यायाधीश के रूप में काम किया हो।
• (ख) उस न्यायालय में नामांकित दो विधि व्यवसायी।
• (ग) उच्च न्यायालय के अधीनस्थ किसी सिविल न्यायालय का न्यायाधीश।
(3) समिति के सदस्यों की नियुक्ति उच्च न्यायालय करेगा और उनमें से एक को अध्यक्ष बनाएगा।
(4) हर सदस्य उतनी अवधि के लिए काम करेगा जितनी उच्च न्यायालय तय करेगा; अगर कोई सदस्य सेवानिवृत्त हो जाए, इस्तीफा दे दे, मर जाए, उस राज्य में रहना छोड़ दे, या काम करने में असमर्थ हो जाए, तो उच्च न्यायालय उसका स्थान कोई दूसरा व्यक्ति नियुक्त करेगा।
(5) समिति का एक सचिव होगा, जिसे उच्च न्यायालय नियुक्त करेगा, और वह सचिव राज्य सरकार द्वारा तय पारिश्रमिक पायेगा।
धारा 124 – समिति का उच्च न्यायालय को रिपोर्ट देना
हर नियम समिति, यदि वह प्रथम अनुसूची के नियमों को रद्द करने, बदलने या कुछ नया जोड़ने, या नए नियम बनाने का कोई प्रस्ताव तैयार करती है, तो वह उस नगर में स्थित उच्च न्यायालय को रिपोर्ट देगी जहाँ समिति बनाई गई है।
और धारा 122 के अंतर्गत कोई भी नियम बनाने से पहले, उच्च न्यायालय को उस रिपोर्ट पर विचार करना होगा।
धारा 125 – अन्य उच्च न्यायालयों की नियम बनाने की शक्ति
धारा 122 में बताए गए उच्च न्यायालयों को छोड़कर, अन्य उच्च न्यायालय भी उस धारा में दी गई शक्तियों का प्रयोग कर सकते हैं —
लेकिन वे ऐसा उस तरीके और शर्तों के अनुसार करेंगे जैसा राज्य सरकार तय करेगी।
परन्तु, ऐसा कोई अन्य उच्च न्यायालय, पूर्व प्रकाशन के बाद, ऐसा नियम बना सकता है जो किसी दूसरे उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियम को, अपनी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं में लागू कर दे।
धारा 126 – नियमों का अनुमोदन के अधीन होना
ऊपर बताए गए उपबंधों (जैसे धारा 122, 125 आदि) के अधीन बनाए गए नियम, उस राज्य सरकार की पूर्व मंजूरी (approval) से ही मान्य होंगे जहां वह न्यायालय स्थित है जिसकी प्रक्रिया को ये नियम नियंत्रित (विनियमित) करते हैं।
और अगर वह न्यायालय किसी राज्य में स्थित नहीं है, तो केन्द्रीय सरकार की पूर्व मंजूरी लेनी होगी।
धारा 127 – नियमों का प्रकाशन
जो नियम बनाए गए हों और सरकार द्वारा अनुमोदित (मंजूर) कर दिए गए हों, उन्हें राजपत्र (Official Gazette) में प्रकाशित (publish) किया जाएगा।
और जिस दिन उनका प्रकाशन होगा, या जो तारीख उसमें विशेष रूप से लिखी गई हो,
उस दिन से वे नियम उसी प्रभाव और बल के साथ लागू होंगे, जैसे कि वे प्रथम अनुसूची (First Schedule) में लिखे गए हों, पर केवल उस उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर, जिसने वह नियम बनाए हैं।
धारा 128 – वे मामले जिनके लिए नियमों में प्रावधान किया जा सकेगा
(1) जो नियम बनाए जाएँगे, वे इस संहिता के मूल भाग के प्रावधानों के विरुद्ध (असंगत) नहीं होंगे, लेकिन उनके अधीन रहते हुए, सिविल न्यायालयों की प्रक्रिया से जुड़े किसी भी विषय पर प्रावधान कर सकते हैं।
(2) और विशेष रूप से, (लेकिन उप-धारा (1) में दी गई शक्ति की व्यापकता को कम किए बिना), ऐसे नियम निम्नलिखित सभी या किसी विषय पर प्रावधान कर सकते हैं:
• (क) डाक या अन्य तरीकों से समन, नोटिस और आदेशों की तामील (service) और उस तामील का सबूत, सामान्य रूप से या किसी खास क्षेत्र के लिए।
• (ख) कुर्की के दौरान पशुधन और अन्य चल संपत्ति का भरण-पोषण व रख-रखाव,
इसके लिए देय शुल्क (fees),
उनकी बिक्री, और बिक्री से प्राप्त आय (proceeds)।
• (ग) प्रतिदावे (counterclaim) की प्रक्रिया, और ऐसे प्रतिदावों का मूल्यांकन (valuation) अधिकारिता तय करने के लिए।
• (घ) जब कुर्की और बिक्री न हो, तो जब्ती (attachment) और चार्जिंग आदेश (charging order) की प्रक्रिया।
• (ङ) ऐसी प्रक्रिया, जब प्रतिवादी किसी अन्य व्यक्ति के खिलाफ अंशदान (contribution) या क्षतिपूर्ति (indemnity) का दावा करे,
चाहे वह व्यक्ति उस वाद का पक्षकार हो या न हो।
• (च) सारांश प्रक्रिया (summary procedure):
o (i) उन मामलों में जहाँ वादी प्रतिवादी से सिर्फ देय ऋण या निर्धारित मांग वसूल करना चाहता है (ब्याज सहित या बिना ब्याज के),
जो कि –
किसी व्यक्त या निहित अनुबंध पर आधारित हो; या
किसी अधिनियम के अंतर्गत हो, जहाँ वसूली की जाने वाली राशि निर्धारित रकम या दंड के अतिरिक्त ऋण हो; या
किसी गारंटी पर आधारित हो, जो केवल ऋण या परिसमाप्त मांग से संबंधित हो; या
किसी ट्रस्ट पर आधारित हो।
o (ii) मकान मालिक द्वारा ऐसे किरायेदार या उसके अधीन दावा करने वाले व्यक्ति के विरुद्ध वसूली का मुकदमा –
जिसका कार्यकाल खत्म हो गया हो,
जिसे नोटिस देकर हटाया गया हो,
या जिसने किराया न देने के कारण जब्ती योग्य स्थिति उत्पन्न कर दी हो –
जिसमें किराया या किसी अंतःलाभ (mesne profits) की वसूली का दावा भी हो सकता है।
• (छ) आरंभिक समन (summons) से संबंधित प्रक्रिया।
• (ज) वादों, अपीलों और अन्य कार्यवाहियों का समेकन (consolidation)।
• (झ) किसी न्यायालय के रजिस्ट्रार, प्रोथोनोटरी, मास्टर या किसी अन्य अधिकारी को
न्यायिक, अर्ध-न्यायिक, और गैर-न्यायिक कार्य सौंपना।
• (ञ) वे प्ररूप (forms), रजिस्टर, पुस्तकें, प्रविष्टियाँ और लेखे,
जो सिविल न्यायालयों के कार्यों को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए आवश्यक या वांछनीय हों।
धारा 129 – उच्च न्यायालयों की अपनी मूल सिविल प्रक्रिया के बारे में नियम बनाने की शक्ति
इस संहिता में कुछ भी लिखा हो, फिर भी —
कोई भी उच्च न्यायालय (अगर वह न्यायिक आयुक्त का न्यायालय नहीं है),
अपनी मूल सिविल अधिकारिता (original civil jurisdiction) के प्रयोग में,
अपनी खुद की प्रक्रिया विनियमित (regulate) करने के लिए
ऐसे नियम बना सकता है जो —
• उसे स्थापित करने वाले लेटर्स पेटेंट,
या आदेश (order),
या कोई अन्य विधि (law) से असंगत न हों (not inconsistent) —
और जैसा वह उचित समझे।
और संहिता में दी गई कोई भी बात संहिता लागू होने से पहले बनाए गए ऐसे नियमों की वैधता (validity) को प्रभावित नहीं करेगी।
मुख्य बिंदु याद रखने के लिए:
• उच्च न्यायालय अपनी original civil jurisdiction में खुद के rules बना सकता है।
• ये नियम Letters Patent या अन्य applicable laws के खिलाफ नहीं होने चाहिए।
• CPC की कोई बात इन पुराने नियमों को अमान्य नहीं बनाएगी।
धारा 130 – प्रक्रिया से भिन्न विषयों के बारे में नियम बनाने की अन्य उच्च न्यायालयों की शक्ति
जो उच्च न्यायालय ऐसा उच्च न्यायालय नहीं है जिस पर धारा 129 लागू होती है, वह राज्य सरकार की पूर्व अनुमति से, प्रक्रिया के अलावा किसी भी विषय में नियम बना सकता है, जैसा कोई उच्च न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 227 के तहत अपने क्षेत्राधिकार में किसी ऐसे राज्य क्षेत्र के लिए बना सकता है जो प्रेसिडेंसी नगर की सीमाओं के भीतर नहीं आता।
धारा 131 – नियमों का प्रकाशन
धारा 129 या धारा 130 के अनुसार जो नियम बनाए जाएंगे, वे राजपत्र (Gazette) में प्रकाशित किए जाएंगे और जिस तारीख को वे प्रकाशित हों या जो अन्य तारीख उसमें लिखी हो, उस तारीख से वे कानून की तरह प्रभावी होंगे।
धारा 132 – कुछ महिलाओं को व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट
(1) ऐसी महिलाएं जिनको देश की परंपराओं और रीति-रिवाजों के अनुसार सार्वजनिक रूप से आने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए, उन्हें न्यायालय में खुद उपस्थित होने से छूट दी जाएगी।
(2) इस धारा में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे यह समझा जाए कि ऐसी महिलाओं को सिविल प्रक्रिया के तहत गिरफ्तारी से भी छूट मिलती है, यदि किसी मामले में उनकी गिरफ्तारी इस संहिता में निषिद्ध (मना) नहीं है।
धारा 133 – अन्य व्यक्तियों को छूट
(1) नीचे लिखे गए व्यक्ति न्यायालय में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने से छूट के हकदार होंगे—
(i) भारत के राष्ट्रपति।
(ii) भारत के उपराष्ट्रपति।
(iii) लोकसभा के अध्यक्ष।
(iv) भारत सरकार के मंत्री।
(v) सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश।
(vi) राज्यों के राज्यपाल और संघ राज्य क्षेत्रों के प्रशासक।
(vii) राज्य विधान सभाओं के अध्यक्ष।
(viii) राज्य विधान परिषदों के सभापति।
(ix) राज्य सरकारों के मंत्री।
(x) उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश।
(xi) वे व्यक्ति जिन पर धारा 87ख लागू होती है।
(3) यदि कोई व्यक्ति इस छूट का दावा करता है और इसलिए उसे कमीशन के माध्यम से जिरह या बयान देना होता है, तो वह व्यक्ति उस कमीशन का खर्च देगा – जब तक कि उसका बयान मांगने वाला पक्षकार वह खर्च न दे दे।
धारा 134 – डिक्री के निष्पादन के अलावा गिरफ्तारी
धारा 55, 57 और 59 के जो प्रावधान हैं, वे जहाँ तक संभव हो, इस संहिता के तहत गिरफ्तार किए गए सभी व्यक्तियों पर लागू होंगे — चाहे गिरफ्तारी डिक्री के निष्पादन के अलावा किसी और कारण से की गई हो।
धारा 135 – सिविल प्रक्रिया के अन्तर्गत गिरफ्तारी से छूट
(1) कोई भी न्यायाधीश, मजिस्ट्रेट या अन्य न्यायिक अधिकारी को, जब वह अपने न्यायालय में जा रहा हो, उसकी अध्यक्षता कर रहा हो या वहां से लौट रहा हो, सिविल प्रक्रिया के तहत गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
(2) जब कोई मामला किसी अधिकरण (tribunal) के समक्ष लंबित हो, जो अधिकारिता रखता है या ऐसा विश्वास करता है, तब उस मामले के:
• पक्षकार (parties),
• वकील, मुख्तार, राजस्व एजेंट और मान्यताप्राप्त एजेंट, तथा
• उनके गवाह (जो समन के अनुसार कार्य कर रहे हों),
उन्हें, ऐसे अधिकरण में आते समय, उपस्थित रहते समय या लौटते समय,
न्यायालय की अवमानना से संबंधित आदेशों को छोड़कर, सिविल आदेशों के अधीन गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
(3) उप-धारा (2) में दी गई कोई बात, निर्णीत-ऋणी (decree-debtor) को:
• तुरंत निष्पादन के आदेश के तहत गिरफ्तारी से छूट का दावा करने का हक नहीं देती, और
• यह कहने का आधार नहीं देती कि उसे डिक्री के निष्पादन में कारावास क्यों न दिया जाए, भले ही वह न्यायालय में उपस्थित हो।
धारा 135A – विधायी निकायों के सदस्यों को सिविल प्रक्रिया के तहत गिरफ्तारी और नजरबंदी से छूट
(1) कोई भी व्यक्ति सिविल प्रक्रिया के तहत गिरफ्तार या निरुद्ध (नजरबंद) नहीं किया जा सकता यदि:
(क) वह निम्नलिखित में से किसी का सदस्य है –
• (i) संसद का कोई भी सदन,
• (ii) किसी राज्य की विधान सभा या विधान परिषद,
• (iii) किसी संघ राज्य क्षेत्र की विधान सभा,
और उस सदन की किसी बैठक के जारी रहने के दौरान।
(ख) वह निम्नलिखित में से किसी समिति का सदस्य है –
• (i) संसद के किसी सदन की समिति,
• (ii) राज्य या संघ राज्य क्षेत्र की विधान सभा की समिति,
• (iii) राज्य की विधान परिषद की समिति,
और ऐसी समिति की बैठक के दौरान।
(ग) वह निम्नलिखित में से किसी का सदस्य है –
• (i) संसद का कोई भी सदन,
• (ii) राज्य की विधान सभा या विधान परिषद (जहां दोनों हों),
और उस संसद या राज्य विधानमंडल की संयुक्त बैठक, सम्मेलन या संयुक्त समिति के दौरान,तथा ऐसी बैठक या सम्मेलन से पहले और बाद के चालीस दिन तक।
(2) जिसे उपधारा (1) के अनुसार छोड़ा गया हो, वह व्यक्ति उसी उपधारा के अनुसार फिर से गिरफ्तार किया जा सकता है और उसे उतने अतिरिक्त समय के लिए नजरबंद किया जा सकता है जितने के लिए वह नजरबंद होता अगर उसे पहले छोड़ा नहीं गया होता।
धारा 136 – जहां गिरफ्तार किया जाने वाला व्यक्ति या कुर्क की जाने वाली संपत्ति जिले से बाहर हो वहां प्रक्रिया
(1) अगर किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने या किसी संपत्ति को कुर्क करने के लिए आवेदन किया जाता है (पर डिक्री निष्पादन से संबंधित नहीं है),
और वह व्यक्ति या संपत्ति उस न्यायालय की स्थानीय अधिकार सीमा से बाहर है,
तो वह न्यायालय:
• गिरफ्तारी का वारंट या कुर्की का आदेश जारी कर सकता है,
• और उस जिले के जिला न्यायालय को भेज सकता है जहां वह व्यक्ति या संपत्ति स्थित है,
• साथ में भेजेगा वारंट/आदेश की प्रति और गिरफ्तारी/कुर्की के संभावित खर्च की रकम।
(2) जब वह जिला न्यायालय प्रति और रकम प्राप्त कर लेता है,तो वह:
• अपने अधिकारियों या अधीनस्थ न्यायालय के द्वारा
• गिरफ्तारी या कुर्की कराएगा,
• और जिसने आदेश दिया था उसे सूचित करेगा।
(3) जिसने व्यक्ति को गिरफ्तार किया, वह न्यायालय:
• उस व्यक्ति को उस मूल न्यायालय के पास भेजेगा,
• सिवाय इसके कि वह संतोषजनक कारण बता दे कि व्यक्ति को वहीं (अपने पास) क्यों न भेजा जाए,
• या यदि व्यक्ति:
o उसी न्यायालय में हाजिर होने की गारंटी देता है,
o या डिक्री के समाधान के लिए पर्याप्त जमानत देता है,
तो उसे रिहा कर दिया जाएगा।
(4) यदि गिरफ्तार किया जाने वाला व्यक्ति या कुर्क की जाने वाली चल संपत्ति फोर्ट विलियम (कोलकाता), मद्रास या बंबई के उच्च न्यायालय की स्थानीय सीमाओं के अंदर है,
तो:
• गिरफ्तारी वारंट/कुर्की आदेश की प्रति और खर्च की संभावित रकम संबंधित लघुवाद न्यायालय (कलकत्ता, मद्रास या बंबई) को भेजी जाएगी,
• और वह ऐसे कार्य करेगा जैसे वह जिला न्यायालय हो।
धारा 137 – अधीनस्थ न्यायालयों की भाषा
(1) जिस भाषा का उपयोग इस संहिता के प्रारंभ के समय किसी उच्च न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालय में हो रहा था, वही भाषा तब तक उस न्यायालय की भाषा बनी रहेगी, जब तक राज्य सरकार कुछ और निर्देश न दे।
(2) राज्य सरकार यह घोषित कर सकती है कि:
• किसी न्यायालय की भाषा क्या होगी,
• और उसमें आवेदन व कार्यवाहियाँ किस प्रकार लिखी जाएंगी।
(3) यदि कोई न्यायालय साक्ष्य को लिखित रूप में दर्ज करने की अपेक्षा करता है या अनुमति देता है, तो वह अंग्रेज़ी में भी किया जा सकता है;
लेकिन, अगर कोई पक्षकार या उसका वकील अंग्रेज़ी नहीं जानता, तो उसके अनुरोध पर, उसे न्यायालय की भाषा में अनुवाद दिया जाएगा; और न्यायालय अनुवाद के खर्च का भुगतान किसे करना होगा, इस बारे में आवश्यक आदेश देगा।
राजस्थान राज्य संशोधन – विशेष उप-धारा (3):
(केन्द्रीय धारा 137 के स्थान पर राजस्थान में लागू)
(3) जहां यह संहिता साक्ष्य के अभिलेखन से इतर किसी बात को लिखित रूप में करने की अपेक्षा करती है या अनुमति देती है, तो वह लेखन होगा:
• हिन्दी में (देवनागरी लिपि में)
• और उसमें भारतीय अंकों का अंतर्राष्ट्रीय रूप होगा।
परन्तु, न्यायालय अपने विवेक से ऐसे दस्तावेज़ को अंग्रेज़ी में भी स्वीकार कर सकता है,
बशर्ते कि दस्तावेज़ दाखिल करने वाला पक्षकार यह प्रतिज्ञा करे कि वह उसका हिन्दी अनुवाद न्यायालय द्वारा तय समय में देगा, और विपक्षी पक्ष को उस दस्तावेज़ की हिन्दी प्रति प्राप्त करने का अधिकार होगा।
धारा 138 – साक्ष्य को अंग्रेज़ी में अभिलिखित करने की उच्च न्यायालय की शक्ति
(1) उच्च न्यायालय, राजपत्र में अधिसूचना द्वारा यह निर्देश दे सकता है कि:
– अधिसूचना में बताए गए न्यायाधीशों के संबंध में,
– उन मामलों में जिनमें अपील स्वीकार की जाती है,
– साक्ष्य को वह न्यायाधीश अंग्रेज़ी भाषा में और निर्धारित तरीके (विहित रीति) से अभिलिखित (लिखित रूप में दर्ज) करेगा।
(2) यदि कोई न्यायाधीश उचित कारण से उपधारा (1) के अनुसार दिए गए निर्देश का पालन नहीं कर पाता, तो वह उस कारण को लिखित रूप में दर्ज करेगा,
और फिर खुले न्यायालय में, स्वयं द्वारा बोले गए कथन के आधार पर साक्ष्य को लिखवाएगा।
धारा 139 – शपथपत्र पर शपथ किसके द्वारा दिलाई जाएगी
[
इस संहिता के अंतर्गत किसी शपथपत्र के मामले में, शपथ (या प्रतिज्ञा) निम्न में से कोई भी व्यक्ति दिलवा सकता है:
(क) कोई न्यायालय या मजिस्ट्रेट।
(कक) नोटरी अधिनियम, 1952 के तहत नियुक्त कोई नोटरी।
(ख) कोई ऐसा अधिकारी या व्यक्ति, जिसे उच्च न्यायालय ने इस कार्य के लिए नियुक्त किया हो।
(ग) कोई ऐसा अधिकारी, जिसे किसी अन्य न्यायालय द्वारा नियुक्त किया गया हो और जिसे राज्य सरकार ने इस प्रयोजन के लिए सामान्य रूप से या विशेष रूप से अधिकृत किया हो।
धारा 140 – बचाव आदि के कारणों में मूल्यांकनकर्ता
(1) यदि कोई मामला नौवाहनविभाग (Admiralty) या उपनौवाहनविभाग (Vice-Admiralty) से संबंधित विवाद या टकराव का है, तो न्यायालय—चाहे वह मूल (original) या अपील (appeal) का अधिकार प्रयोग कर रहा हो—अगर उचित समझे, और यदि किसी पक्षकार के अनुरोध पर ऐसा हो, तो वह अपनी सहायता के लिए दो सक्षम मूल्यांकनकर्ताओं (assessors) को ऐसी विधि से बुला सकता है जैसा वह निर्दिष्ट करे या जैसा कानून में तय हो। ये मूल्यांकनकर्ता न्यायालय में उपस्थित होकर उसकी सहायता करेंगे।
(2) हर ऐसा मूल्यांकनकर्ता, उसकी उपस्थिति के लिए फीस प्राप्त करेगा, जिसका भुगतान संबंधित पक्षकारों द्वारा किया जाएगा, जैसा न्यायालय तय करे या जैसा कानून में विहित हो।
धारा 141 – विविध कार्यवाहियां
वादों से संबंधित जो प्रक्रिया इस संहिता में दी गई है, वह प्रक्रिया, जहां तक संभव हो सके, किसी भी सिविल अधिकारिता वाले न्यायालय में सभी कार्यवाहियों में अपनाई जाएगी।
स्पष्टीकरण — इस धारा में “कार्यवाही” शब्द में आदेश IX के अधीन कार्यवाहियां शामिल हैं, लेकिन इसमें संविधान के अनुच्छेद 226 के अधीन कोई कार्यवाही शामिल नहीं है।
धारा 142 – आदेश और सूचनाएं लिखित रूप में होंगी
इस संहिता के अंतर्गत किसी भी व्यक्ति को जो भी आदेश या सूचनाएं दी जाती हैं, वे सभी लिखित रूप में दी जाएंगी।
धारा 143 – डाक शुल्क
इस संहिता के तहत जो नोटिस, सम्मन या पत्र जारी होकर डाक द्वारा भेजे जाते हैं, उन पर यदि:
• डाक शुल्क देना होता है, और
• पंजीकरण के लिए शुल्क देना होता है,
तो ये शुल्क नियत समय के भीतर, नोटिस भेजने से पहले चुका दिया जाएगा।
परन्तु, राज्य सरकार यह कर सकती है:
• डाक शुल्क या फीस या दोनों माफ कर सकती है, या
• उनके बदले में न्यायालय फीस का एक निश्चित मान (amount) निर्धारित कर सकती है।
धारा 144 – प्रतिपूर्ति के लिए आवेदन (Application for restitution)
(1) यदि कोई डिक्री या आदेश:-
• किसी अपील, पुनरीक्षण या अन्य कार्यवाही में
परिवर्तित (changed), उलट (reversed), अपास्त (set aside) या उपांतरित (varied) कर दी जाती है,
या
• उस प्रयोजन के लिए दायर वाद में अपास्त या उपांतरित (Modified) कर दी जाती है
तो जिस न्यायालय ने डिक्री या आदेश पारित किया था, वह :-
पक्षकार के आवेदन पर ऐसी प्रतिपूर्ति (restitution) करेगा, जिससे पक्षकारों को यथासंभव उसी स्थिति में लाया जा सके
जैसे वे रहते यदि ऐसी डिक्री या आदेश (या उसका परिवर्तित/उलटा भाग) कभी होता ही नहीं।
इसके लिए न्यायालय कोई भी आदेश दे सकता है, जिसमें शामिल हो सकते हैं:
• लागत (costs) की वापसी,
• ब्याज (interest),
• नुकसानी (loss),
• प्रतिकर (compensation),
• अंतःस्थ लाभ (mesne profits) का भुगतान,
यदि ये सभी चीज़ें डिक्री/आदेश के परिवर्तन, उलटने, अपास्त करने या उपांतरित करने के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुई हों।
[स्पष्टीकरण] – “वह न्यायालय जिसने डिक्री या आदेश पारित किया” का अर्थ:
• (क) यदि अपील या पुनरीक्षण में डिक्री/आदेश बदला या उलटा गया हो तो प्रथम अवस्था का न्यायालय (original court)
• (ख) यदि पृथक वाद से डिक्री/आदेश को अपास्त किया गया हो तो वह प्रथम न्यायालय जिसने डिक्री/आदेश पारित किया था
• (ग) यदि वह प्रथम न्यायालय अब अस्तित्व में नहीं है या उसे निष्पादन की अधिकारिता नहीं है तो वह न्यायालय जिसे, यदि वाद अब किया गया होता, विचारण की शक्ति होती
(2) उप-धारा (1) के तहत जो प्रतिपूर्ति (या अन्य राहत) आवेदन देकर मिल सकती है,
उसके लिए कोई अलग वाद (suit) दायर नहीं किया जा सकता।
धारा 145 – ज़मानत के दायित्व का प्रवर्तन (Enforcement of liability of surety)
जहां कोई व्यक्ति—
(क) किसी डिक्री या उसके किसी भाग के निष्पादन के लिए,
या (ख) किसी डिक्री के निष्पादन में ली गई संपत्ति की वापसी के लिए,
या (ग) किसी धन के भुगतान के लिए, या किसी वाद में या उसके फलस्वरूप किसी कार्यवाही में न्यायालय द्वारा लगाई गई किसी भी शर्त की पूर्ति के लिए,
सुरक्षा प्रदान करता है या गारंटी देता है,
तो—
डिक्री या आदेश को इस प्रकार निष्पादित किया जा सकेगा जैसे सामान्य डिक्री के निष्पादन के लिए उपबंध है, अर्थात्:
• (i) यदि उस व्यक्ति ने स्वयं को व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी बनाया है तो उसके विरुद्ध उस सीमा तक निष्पादन किया जा सकता है।
• (ii) यदि उसने कोई संपत्ति प्रतिभूति (security) के रूप में दी है तो उस संपत्ति की बिक्री द्वारा, प्रतिभूति की सीमा तक निष्पादन किया जा सकता है।
• (iii) यदि मामला दोनों ही स्थिति में आता है (i और ii) तो दोनों के अनुसार, उस सीमा तक निष्पादन किया जा सकता है।
ऐसा व्यक्ति धारा 47 के अंतर्गत पक्षकार (party) माना जाएगा।
बशर्ते कि प्रत्येक मामले में न्यायालय द्वारा जमानतदार को पर्याप्त सूचना दी गई हो, जिसे न्यायालय उचित समझे।
धारा 146 – प्रतिनिधियों द्वारा या उनके विरुद्ध कार्यवाही (Proceedings by or against representatives)
अगर कोई विशेष प्रावधान इस संहिता या किसी अन्य उस समय लागू कानून में नहीं है,
तो—
जहां किसी व्यक्ति द्वारा या उसके विरुद्ध कोई कार्यवाही की जा सकती है या आवेदन किया जा सकता है,
वहीं—
उसके अधीन दावा करने वाले (यानी उसका उत्तराधिकारी, प्रतिनिधि, अधिकार पाने वाला व्यक्ति) उसके स्थान पर कार्यवाही कर सकता है या उसके विरुद्ध की जा सकती है।
सरल शब्दों में – जो कोई किसी व्यक्ति के अधिकार में दावा करता है, वो उसी तरह मुकदमा कर सकता है या उस पर मुकदमा चल सकता है जैसे मूल व्यक्ति पर होता।
धारा 147 – विकलांग व्यक्तियों द्वारा सहमति या करार (Consent or Agreement by persons under disability)
अगर कोई विकलांग व्यक्ति (जैसे – नाबालिग, पागल, आदि) किसी वाद (case) का पक्षकार है,
तो : –
उस वाद में कोई सहमति (consent) या करार (agreement) जो न्यायालय मित्र (friend of the court) या संरक्षक (guardian) द्वारा न्यायालय की स्पष्ट अनुमति से किया गया हो, तो उसे वैसा ही वैध (valid) और प्रभावी (effective) माना जाएगा I जैसे वह व्यक्ति विकलांग न होता और खुद वह सहमति देता या करार करता।
धारा 148 – समय का विस्तार (Enlargement of Time)
अगर इस संहिता (CPC) के अंतर्गत किसी काम को करने के लिए न्यायालय ने कोई समय-सीमा तय की है या अनुमति दी है, तो—
न्यायालय अपने विवेक से (as per its discretion) उस समय-सीमा को बढ़ा सकता है,
लेकिन कुल मिलाकर 30 दिन से अधिक नहीं बढ़ाया जा सकता, चाहे मूल समय-सीमा समाप्त हो चुकी हो।
धारा 148A – कैविएट दाखिल करने का अधिकार (Right to Lodge a Caveat)
(1) अगर किसी व्यक्ति को लगता है कि किसी वाद (case) या कार्यवाही (proceeding) में
कोई आवेदन (application) दायर होने वाला है या हो चुका है, और वह व्यक्ति उस पर सुनवाई का अधिकार चाहता है,तो वह कैविएट (Caveat) दाखिल कर सकता है।
(2) कैविएट दाखिल करने वाला व्यक्ति (जिसे कैविएटर कहा जाएगा) उसे पावती (acknowledgment) सहित पंजीकृत डाक से उस व्यक्ति को भेजेगा, जिसने आवेदन किया है या करने वाला है।
(3) अगर कैविएट दाखिल होने के बाद कोई आवेदन दाखिल होता है, तो न्यायालय कैविएटर को उसकी सूचना देगा।
(4) अगर आवेदक को कैविएट की सूचना मिल गई है, तो वह अपने खर्च पर कैविएटर को
• आवेदन की प्रति
• और समर्थन में दाखिल सभी कागज़ों की प्रतियां देगा।
(5) कैविएट दाखिल करने की अवधि 90 दिन होती है। अगर 90 दिन के अंदर आवेदन नहीं हुआ, तो कैविएट निष्क्रिय हो जाएगी
धारा 149 – न्यायालय फीस की कमी को पूरा करने की शक्ति (Power to make up deficiency in court-fees)
अगर किसी दस्तावेज़ (document) के लिए विधि (law) के अनुसार निर्धारित पूरी न्यायालय फीस (court fee) या उसका कोई हिस्सा नहीं दिया गया है, तो न्यायालय अपने विवेक से
उस व्यक्ति को, जो फीस देने का उत्तरदायी है, बाद में पूरी या आंशिक फीस भरने की अनुमति दे सकता है।
और जब वह फीस भर दी जाती है, तो उस दस्तावेज़ को वैसा ही प्रभाव और वैधता (validity) प्राप्त होगी, जैसे कि वह फीस शुरुआत में ही भर दी गई होती।
धारा 150 – व्यवसाय का अंतरण (Transfer of Business)
अगर कोई न्यायालय किसी अन्य न्यायालय को अपना कामकाज (business/work) सौंप देता है, और जब तक कोई दूसरा प्रावधान (otherwise provided) न हो, तो जिस न्यायालय को काम सौंपा गया है,
उसके पास भी वही शक्तियाँ (powers) होंगी, और वह उन्हीं कर्तव्यों (duties) का पालन करेगा, जो इस संहिता (Code) के तहत उस पहले न्यायालय को दिए गए थे जिससे कामकाज अंतरित (transferred) किया गया था।
धारा 151 – न्यायालय की अंतर्निहित शक्तियों की व्यावृत्ति (Saving of Inherent Powers of Court)
इस संहिता (CPC) में ऐसा कुछ भी नहीं माना जाएगा, जो न्यायालय की अंतर्निहित शक्ति (inherent power) को कम करे या प्रभावित करे, अगर वह शक्ति न्याय के उद्देश्य (ends of justice) के लिए या न्यायालय की प्रक्रिया के दुरुपयोग (abuse of process of the court) को रोकने के लिए जरूरी हो।
धारा 152 – निर्णयों, डिक्री या आदेशों का संशोधन (Amendment of judgments, decrees or orders)
निर्णय (judgment), डिक्री (decree) या आदेश (order) में अगर—
• लिपिकीय (clerical) गलती हो,
• अंकगणितीय (arithmetical) गलती हो,
• या कोई अकस्मात छूट (accidental slip) या चूक (omission) से कोई त्रुटि हुई हो,
तो न्यायालय उसे—
• कभी भी,
• स्वप्रेरणा से (on its own motion) या
• किसी पक्षकार के आवेदन पर, – सुधार (correct) सकता है।
धारा 153 – संशोधन करने की सामान्य शक्ति (General power to amend)
न्यायालय को यह शक्ति है कि वह—
• किसी भी समय,
• खर्चे या अन्य किसी शर्त पर, जिसे वह उचित समझे,
वाद की कार्यवाही में किसी भी त्रुटि (error) या भूल (mistake) को संशोधित (amend) कर सके।
और—
• उस कार्यवाही से जुड़े या उस पर निर्भर किसी वास्तविक प्रश्न (real question) या मुद्दे (issue) को ठीक से निर्धारित करने के लिए, सभी आवश्यक संशोधन किए जाएंगे।
धारा 153A – जहां अपील संक्षेप में खारिज कर दी गई हो वहां डिक्री या आदेश को संशोधित करने की शक्ति (Power to amend decree/order when appeal is dismissed summarily)
• अगर अपील न्यायालय ने आदेश 41 नियम 11 के तहत अपील संक्षेप में खारिज कर दी है,
• तब भी धारा 152 के अंतर्गत जिस डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील की गई थी,
• उसे संशोधित करने की शक्ति उसी मूल (original) न्यायालय के पास रहेगी जिसने वह डिक्री या आदेश पहले पारित किया था।
भले ही—
• अपील की खारिज़गी का प्रभाव उस मूल डिक्री या आदेश की पुष्टि करने जैसा ही क्यों न हो।
धारा 153B – विचारण का स्थान खुला न्यायालय समझा जाएगा (Place of trial to be deemed an open court)
• वह स्थान, जहाँ किसी सिविल न्यायालय में वाद की सुनवाई होती है,
• वह खुला न्यायालय (open court) माना जाएगा,
• जहाँ आम जनता को आने की अनुमति होगी,
• जब तक कि वह स्थान उन्हें सुविधा से समाहित कर सके (i.e., जगह हो)।
परंतु—
• न्यायाधीश, यदि वह उचित समझे,
• तो किसी विशेष मामले की सुनवाई या प्रक्रिया के दौरान यह आदेश दे सकता है कि—
o सामान्य जनता, या
o कोई विशेष व्यक्ति,
o न्यायालय कक्ष में प्रवेश न करे या
o उपस्थित न रहे।
Section – 154-155-156 Repealed
धारा 157 – निरसित अधिनियमों के अधीन आदेशों का जारी रहना
(Continuance of orders under repealed enactments)
सरल हिन्दी में अर्थ:
• जो भी अधिसूचनाएं (notifications), घोषणाएं (proclamations), नियम (rules),
• स्थानों की नियुक्ति (appointment of places), दाखिल करार (contracts filed),
• वेतनमान निर्धारित (scales fixed), प्ररूप (forms) तैयार,
• नियुक्तियां (appointments made), और शक्तियां (powers) प्रदत्त की गई थीं—
इन अधिनियमों के अधीन:
• 1859 का अधिनियम VIII,
• या कोई पूर्ववर्ती सिविल प्रक्रिया संहिता,
• या कोई संशोधन अधिनियम,
• या कोई अन्य ऐसा अधिनियम जिसे इस संहिता द्वारा निरसित (repealed) कर दिया गया है—
वे सब, जहाँ तक वे इस संहिता से मेल खाती हैं, उसी प्रकार प्रभावशाली और वैध रहेंगी,
जैसे कि वे इसी संहिता के अधीन और इसके अनुसार बनाए गए हों, और जैसे कि वे किसी सशक्त प्राधिकारी द्वारा:
धारा 158 – सिविल प्रक्रिया संहिता और अन्य निरसित अधिनियमों के प्रति संदर्भ
(Reference to Code of Civil Procedure and other repealed enactments)
यदि इस संहिता (CPC) के लागू होने से पहले कोई अधिनियम (Act) या अधिसूचना (Notification) पास या जारी की गई है,
और उसमें यदि नीचे लिखे किसी की ओर संदर्भ (reference) दिया गया है—
• 1859 का अधिनियम VIII,
• उसकी कोई धारा या अध्याय,
• या कोई पूर्ववर्ती सिविल प्रक्रिया संहिता,
• या उसे संशोधित करने वाला कोई अधिनियम,
• या ऐसा कोई अधिनियम जिसे इस संहिता द्वारा निरसित (repealed) किया गया है—
तो ऐसा संदर्भ, जहाँ तक संभव हो, अब माना जाएगा कि वह इस नई संहिता (CPC, 1908) के
उसी अर्थ वाले भाग, आदेश (Order), धारा (Section) या नियम (Rule) की ओर किया गया है।
सरल शब्दों में:पुराने अधिनियमों में यदि किसी पुरानी सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा या नियम का ज़िक्र किया गया है, तो अब वह ज़िक्र नई सिविल प्रक्रिया संहिता की मिलती-जुलती धारा या नियम की ओर माना जाएगा। यानी पुराने संदर्भ अब नए कानून की संबंधित जगहों पर लागू माने जाएंगे।
FIRST SCHEDULE
आदेश I: मुकदमों के पक्ष (Parties to Suits)
ऑर्डर I — वाद में पक्षकार
नियम 1: वादी के रूप में किन्हें जोड़ा जा सकता है
एक ही वाद में सभी व्यक्तियों को वादी के रूप में जोड़ा जा सकता है जब –
(a) ऐसा कोई अधिकार, जो एक ही कार्य या लेन-देन या कार्यों/लेन-देन की श्रृंखला से संबंधित हो या उत्पन्न हुआ हो, उन व्यक्तियों में मौजूद बताया गया हो — चाहे संयुक्त रूप से, पृथक रूप से या विकल्प रूप में; और
(b) यदि वे व्यक्ति अलग-अलग वाद लाते, तो कोई सामान्य विधिक या तथ्यात्मक प्रश्न उत्पन्न होता।
नियम 2: अलग-अलग सुनवाई का आदेश देने की न्यायालय की शक्ति
अगर न्यायालय को लगे कि वादियों का एक साथ होना मुकदमे की सुनवाई में बाधा या विलम्ब कर सकता है, तो न्यायालय वादियों को विकल्प दे सकता है, या अलग-अलग सुनवाई का आदेश दे सकता है या ऐसा कोई अन्य आदेश दे सकता है जो उपयुक्त हो।
नियम 3: प्रतिवादी के रूप में किन्हें जोड़ा जा सकता है
एक ही वाद में सभी व्यक्तियों को प्रतिवादी के रूप में जोड़ा जा सकता है जब –
(a) ऐसा कोई अधिकार, जो एक ही कार्य या लेन-देन या कार्यों/लेन-देन की श्रृंखला से संबंधित हो या उत्पन्न हुआ हो, उन व्यक्तियों के विरुद्ध मौजूद बताया गया हो — चाहे संयुक्त रूप से, पृथक रूप से या विकल्प रूप में; और
(b) यदि उनके विरुद्ध अलग-अलग वाद लाए जाते, तो कोई सामान्य विधिक या तथ्यात्मक प्रश्न उत्पन्न होता।
नियम 3A: यदि प्रतिवादियों का सम्मिलन सुनवाई में बाधा डालता हो, तो न्यायालय द्वारा अलग सुनवाई का आदेश देने की शक्ति
यदि न्यायालय को लगे कि प्रतिवादियों का सम्मिलन सुनवाई में बाधा डालता है या उसे विलम्बित करता है, तो वह अलग-अलग सुनवाई का आदेश दे सकता है या कोई अन्य उचित आदेश दे सकता है।
नियम 4: न्यायालय एक या अधिक पक्षकारों के विरुद्ध या पक्ष में निर्णय दे सकता है
बिना किसी संशोधन के निर्णय दिया जा सकता है –
(a) उन एक या अधिक वादियों के पक्ष में जो राहत पाने के पात्र हों;
(b) उन एक या अधिक प्रतिवादियों के विरुद्ध जो उनकी अपनी जिम्मेदारी अनुसार उत्तरदायी हों।
नियम 5: प्रत्येक प्रतिवादी को सभी राहतों में रुचि होना आवश्यक नहीं
किसी वाद में प्रत्येक प्रतिवादी का उसमें मांगी गई सभी राहतों में रुचि होना आवश्यक नहीं है।
नियम 6: एक ही अनुबंध पर उत्तरदायी व्यक्तियों का सम्मिलन
वादकर्ता अपनी इच्छा से ऐसे सभी या किसी भी व्यक्ति को सम्मिलित कर सकता है जो किसी एक अनुबंध पर पृथक या संयुक्त रूप से उत्तरदायी हों, जैसे कि विनिमय विधेयक, हुंडी या प्रॉमिसरी नोट के पक्षकार।
नियम 7: जब वादी को यह संदेह हो कि उससे प्रतिकर किससे लिया जाए
अगर वादी को संदेह हो कि किससे प्रतिकर प्राप्त किया जाए, तो वह दो या अधिक प्रतिवादियों को सम्मिलित कर सकता है ताकि यह तय किया जा सके कि कौन उत्तरदायी है और किस हद तक।
नियम 8: समान हित वाले सभी व्यक्तियों की ओर से एक व्यक्ति मुकदमा कर सकता है या लड़ सकता है
(1) जब बहुत सारे व्यक्तियों का एक ही हित हो –
(a) तो उन व्यक्तियों में से एक या अधिक व्यक्ति न्यायालय की अनुमति से, या
(b) न्यायालय के निर्देश पर, सभी की ओर से या लाभ के लिए मुकदमा कर सकते हैं, या उसका प्रतिवाद कर सकते हैं।
(2) ऐसे मुकदमे की सूचना सभी को दी जाएगी, व्यक्तिगत सेवा द्वारा या यदि संभव न हो तो सार्वजनिक विज्ञापन द्वारा।
(3) जिसकी ओर से मुकदमा हो रहा है, वह न्यायालय से स्वयं को पक्षकार बनाने का आवेदन कर सकता है।
(4) ऐसा मुकदमा बिना सूचना के वापस नहीं लिया जा सकता, कोई दावा छोड़ा नहीं जा सकता, और समझौता भी तभी किया जा सकता है जब सभी को सूचना दी गई हो।
(5) अगर वादी या प्रतिवादी ठीक से मुकदमा नहीं चला रहा, तो न्यायालय उसकी जगह किसी और को नियुक्त कर सकता है।
(6) इस नियम के अंतर्गत दिया गया डिक्री सभी संबंधित व्यक्तियों पर बाध्यकारी होगा।
व्याख्या: यह आवश्यक नहीं कि मुकदमा करने या बचाव करने वाले व्यक्तियों का कारण एक हो, केवल यह आवश्यक है कि उनका हित एक जैसा हो।
नियम 8A: न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति या संस्था को विधिक प्रश्नों पर राय रखने की अनुमति देने की शक्ति
अगर कोई व्यक्ति या संस्था किसी महत्वपूर्ण विधिक प्रश्न में रुचि रखता है और न्यायालय को लगता है कि जनहित में उसकी राय सुनना जरूरी है, तो वह उसे राय देने या कार्यवाही में भाग लेने की अनुमति दे सकता है।
नियम 9: गलत या आवश्यक पक्षकार न होने से वाद असफल नहीं होगा
केवल गलत पक्षकार या आवश्यक पक्षकार न होने से वाद विफल नहीं होगा।
बशर्ते यह नियम आवश्यक पक्षकार के न होने पर लागू नहीं होगा।
नियम 10: गलत व्यक्ति के नाम से वाद दाखिल होने पर सुधार
(1) अगर गलत व्यक्ति के नाम से वाद दाखिल हो गया हो, और यह एक सच्ची भूल हो, तो न्यायालय उचित शर्तों पर सही व्यक्ति को वादी बना सकता है।
(2) न्यायालय किसी भी पक्षकार को हटाने या जोड़ने का आदेश दे सकता है।
(3) कोई व्यक्ति वादी या उसका next friend (अभिभावक) बिना उसकी सहमति के नहीं बनाया जाएगा।
(4) नया प्रतिवादी जोड़े जाने पर, वादपत्र (plaint) संशोधित कर उसे और सम्मन भेजे जाएंगे।
(5) सीमित अवधि अधिनियम के अनुसार, नया प्रतिवादी जब सम्मन प्राप्त करता है तभी से कार्यवाही मानी जाएगी।
नियम 10A: न्यायालय किसी अधिवक्ता को पक्षकार के हित पर राय देने के लिए आमंत्रित कर सकता है
अगर कोई पक्षकार प्रस्तुत नहीं है, तो न्यायालय उसकी ओर से किसी अधिवक्ता को बुलाकर उसकी संभावित हानि या हित पर राय ले सकता है।
नियम 11: मुकदमे का संचालन
न्यायालय जिसे उपयुक्त माने उसे मुकदमे का संचालन सौंप सकता है।
नियम 12: एक या एक से अधिक वादी या प्रतिवादी की ओर से उपस्थिति
(1) जब एक से अधिक वादी या प्रतिवादी हों, तो कोई एक दूसरे की ओर से कार्यवाही कर सकता है, अगर उसे लिखित अनुमति दी गई हो।
(2) यह अनुमति लिखित में होगी और न्यायालय में जमा करनी होगी।
नियम 13: गलत या आवश्यक पक्षकारों से संबंधित आपत्तियाँ
गलत या आवश्यक पक्षकारों के संबंध में आपत्तियाँ जल्दी से जल्दी, और मुद्दे तय होने से पहले की जानी चाहिए। अन्यथा माना जाएगा कि वह आपत्ति छोड़ दी गई है।
आदेश II – वाद का ढाँचा (frame of suit)
1. वाद का ढाँचा –
प्रत्येक वाद को, जहाँ तक संभव हो, ऐसे ढंग से तैयार किया जाएगा जिससे विवादास्पद विषयों पर अंतिम निर्णय दिया जा सके और उनके संबंध में आगे कोई मुकदमा न चले।
2. वाद में पूरे दावे को शामिल करना –
(1) प्रत्येक वाद में वह पूरा दावा शामिल किया जाएगा जिसे वादी (Plaintiff) कारण-कारज (Cause of Action) के संबंध में करने का अधिकारी है; लेकिन वादी, किसी न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र में वाद लाने के लिए, अपने दावे का कोई भाग छोड़ सकता है।
(2) यदि वादी अपने दावे के किसी भाग के लिए वाद करने में चूक जाता है या जानबूझकर उसे छोड़ देता है, तो वह उस छोड़े गए भाग के लिए बाद में वाद नहीं कर सकेगा।
(3) कोई व्यक्ति जो एक ही कारण-कारज के संबंध में एक से अधिक प्रतिकर (Relief) प्राप्त करने का अधिकारी है, वह उन सभी या किसी के लिए वाद कर सकता है; लेकिन यदि वह, न्यायालय की अनुमति के बिना, उन सभी प्रतिकरों के लिए वाद नहीं करता, तो वह बाद में छोड़े गए किसी भी प्रतिकर के लिए वाद नहीं कर सकेगा।
स्पष्टीकरण – इस नियम के प्रयोजन के लिए कोई दायित्व (Obligation), उसके पालन की कोलेटरल सुरक्षा (Collateral Security), और उसी दायित्व से उत्पन्न होने वाले क्रमिक दावे (Successive Claims), एक ही कारण-कारज माने जाएंगे।
उदाहरण –
A ने B को एक मकान वार्षिक ₹1200 किराए पर दिया। वर्ष 1905, 1906 और 1907 का किराया बकाया है। A ने वर्ष 1908 में केवल 1906 का किराया वसूलने के लिए B पर वाद किया। A फिर 1905 या 1907 का किराया वसूलने के लिए वाद नहीं कर सकेगा।
3. कारण-कारजों (Cause of Actions) का संयोजन (Joinder) –
(1) जब तक अन्यथा न कहा गया हो, वादी एक ही वाद में एक ही प्रतिवादी या संयुक्त प्रतिवादियों के विरुद्ध एकाधिक कारण-कारजों को जोड़ सकता है; और ऐसे वादी जिनके कारण-कारज किसी एक प्रतिवादी या संयुक्त प्रतिवादियों के विरुद्ध संयुक्त रूप से संबंधित हों, वे उन्हें एक ही वाद में जोड़ सकते हैं।
(2) जब कारण-कारज जोड़े जाते हैं, तो वाद के संबंध में न्यायालय का अधिकार-क्षेत्र उस दिन की कुल विषय-वस्तु के मूल्य पर निर्भर करेगा जब वाद संस्थापित किया गया हो।
4. केवल कुछ दावे ही अचल संपत्ति की वसूली के लिए किए गए वाद में जोड़े जा सकते हैं –
जब तक न्यायालय से अनुमति न ली जाए, अचल संपत्ति की वसूली के वाद के साथ निम्नलिखित को छोड़कर अन्य कोई कारण-कारज नहीं जोड़ा जाएगा:
(a) उस संपत्ति या उसके किसी भाग के संबंध में मध्यवर्ती लाभ (mesne profits) या बकाया किराए के दावे;
(b) उस अनुबंध के उल्लंघन के लिए क्षतिपूर्ति (damages) के दावे जिसके अधीन संपत्ति रखी गई थी;
(c) वे दावे जिनमें माँगा गया प्रतिकर (relief) उसी कारण-कारज पर आधारित हो।
बशर्ते कि, इस नियम से किसी भी पक्ष को फोरक्लोज़र (foreclosure) या विमोचन (redemption) के वाद में बंधक संपत्ति के कब्जे की मांग करने से नहीं रोका जाएगा।
5. कार्यपालक, प्रशासक या उत्तराधिकारी के दावे –
कोई भी दावा जो किसी कार्यपालक (executor), प्रशासक (administrator) या उत्तराधिकारी (heir) के विरुद्ध या उसकी ओर से उस हैसियत में किया गया हो, उसके व्यक्तिगत दावों के साथ तब तक नहीं जोड़ा जाएगा जब तक:
• वह दावा उस संपत्ति से संबंधित न हो जिसके लिए वह कार्यपालक, प्रशासक या उत्तराधिकारी के रूप में कार्य कर रहा है, या
• वह ऐसा दावा न हो जो मृत व्यक्ति के साथ संयुक्त रूप से अधिकार या दायित्व वाला रहा हो।
6. न्यायालय द्वारा पृथक विचारण का आदेश देने की शक्ति –
यदि न्यायालय को प्रतीत हो कि एक ही वाद में कई कारण-कारजों का संयोजन विचारण में अड़चन या विलंब उत्पन्न कर सकता है या अन्यथा असुविधाजनक है, तो न्यायालय पृथक विचारण का आदेश दे सकता है या न्याय के हित में अन्य कोई उपयुक्त आदेश पारित कर सकता है।
7. अनुचित संयोजन (Misjoinder) के विरुद्ध आपत्ति –
कारण-कारजों के अनुचित संयोजन के विरुद्ध आपत्तियाँ यथाशीघ्र ली जानी चाहिए और जब वाद के मुद्दे निर्धारित किए जा रहे हों, उस समय या उससे पहले ली जानी चाहिए, जब तक कि आपत्ति का आधार बाद में उत्पन्न न हुआ हो। यदि समय पर आपत्ति नहीं ली गई तो उसे त्याग दिया गया माना जाएगा।
ORDER III – मान्यता प्राप्त अभिकर्ता और वकील
1. पेशी आदि स्वयं, मान्यता प्राप्त अभिकर्ता या वकील द्वारा की जा सकती है।
कोई भी पेशी, आवेदन या कार्य जो किसी पक्षकार द्वारा किसी न्यायालय में कानून अनुसार किया जाना आवश्यक या अनुमत है, वह – जब तक कोई अन्य विशेष प्रावधान किसी लागू कानून में न हो –
• पक्षकार स्वयं,
• उसके मान्यता प्राप्त अभिकर्ता,
• या उसके लिए कार्य कर रहे वकील द्वारा किया जा सकता है।
बशर्ते कि यदि न्यायालय आदेश दे, तो ऐसी पेशी पक्षकार द्वारा स्वयं की जाएगी।
2. मान्यता प्राप्त अभिकर्ता कौन होते हैं:
ऐसे अभिकर्ता जिनके द्वारा पेशी, आवेदन और कार्य किए जा सकते हैं:
(a) जिनके पास पॉवर ऑफ अटॉर्नी हो, जो उन्हें पक्षकारों की ओर से कार्य करने का अधिकार देता हो।
(b) जो लोग ऐसे पक्षकारों के लिए व्यापार कर रहे हों जो न्यायालय की क्षेत्राधिकार सीमा में नहीं रहते हों – सिर्फ व्यापार से संबंधित मामलों में – और जब कोई अन्य अभिकर्ता विशेष रूप से नियुक्त न किया गया हो।
3. मान्यता प्राप्त अभिकर्ता पर प्रक्रिया की सेवा (Service):
(1) जो प्रक्रिया मान्यता प्राप्त अभिकर्ता को दी जाती है, वह ऐसा माना जाएगा जैसे पक्षकार को स्वयं दी गई हो, जब तक न्यायालय अन्यथा न कहे।
(2) जो नियम पक्षकार को प्रक्रिया देने के लिए हैं, वही उसके मान्यता प्राप्त अभिकर्ता पर भी लागू होंगे।
4. वकील की नियुक्ति (Appointment of Pleader) :
(1) कोई भी वकील किसी व्यक्ति के लिए तब तक कार्य नहीं करेगा जब तक उसे लिखित रूप से उस व्यक्ति, उसके मान्यता प्राप्त अभिकर्ता, या किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा नियुक्त न किया गया हो, जिसे ऐसा करने का अधिकार पॉवर ऑफ अटॉर्नी द्वारा दिया गया हो।
(2) ऐसी नियुक्ति अदालत में दाखिल की जाएगी और तब तक प्रभावी मानी जाएगी जब तक:
• उसे पक्षकार या वकील द्वारा लिखित रूप में समाप्त न किया जाए (कोर्ट की अनुमति से),
• या जब तक पक्षकार या वकील की मृत्यु न हो जाए,
• या जब तक वाद की सभी कार्यवाहियां समाप्त न हो जाएं।
स्पष्टीकरण: “वाद की कार्यवाही” में निम्न शामिल हैं:
(a) डिक्री या आदेश की पुनरावलोकन याचिका,
(b) धारा 144 या 152 के अंतर्गत आवेदन,
(c) वाद में डिक्री या आदेश के विरुद्ध अपील,
(d) दस्तावेजों की प्रतियां, वापसी या धनवापसी के लिए आवेदन।
(3) उप-नियम (2) को इस रूप में नहीं पढ़ा जाएगा:
(a) कि यह वकील और पक्षकार के बीच नियुक्ति की अवधि को बढ़ाता है;
(b) कि यह वकील को अन्य किसी न्यायालय द्वारा नोटिस या दस्तावेज की सेवा स्वीकार करने का अधिकार देता है, जब तक ऐसा स्पष्ट रूप से पक्षकार ने नियुक्ति पत्र में सहमति न दी हो।
(4) उच्च न्यायालय सामान्य आदेश द्वारा यह निर्देश दे सकता है कि जब नियुक्ति करने वाला व्यक्ति हस्ताक्षर करने में असमर्थ हो, तो उसका निशान किसी विशेष तरीके से प्रमाणित किया जाए।
(5) कोई वकील जो केवल बहस के लिए नियुक्त है, वह तब तक बहस नहीं करेगा जब तक वह स्वयं द्वारा हस्ताक्षरित एक appearance memorandum (उपस्थिति ज्ञापन) दाखिल न करे, जिसमें शामिल हो:
(a) वाद के पक्षकारों के नाम,
(b) वह किस पक्षकार की ओर से उपस्थित है,
(c) उसे किसने अधिकृत किया है।
बशर्ते कि यह उपनियम उस वकील पर लागू नहीं होगा जो किसी अन्य वकील द्वारा बहस के लिए नियुक्त किया गया है, जो पहले से पक्षकार की ओर से अदालत में कार्य करने के लिए नियुक्त है।
5. वकील पर प्रक्रिया की सेवा (Service of Process) :
जो प्रक्रिया उस वकील को दी गई है जो पक्षकार की ओर से न्यायालय में कार्य करने के लिए विधिपूर्वक नियुक्त है, या उसके कार्यालय या निवास स्थान पर छोड़ी गई है – चाहे वह पक्षकार की व्यक्तिगत पेशी के लिए हो या नहीं – माना जाएगा कि वह पक्षकार को विधिपूर्वक सूचित की गई है, और जब तक न्यायालय अन्यथा न कहे, वैसी सेवा व्यक्तिगत सेवा के समान प्रभावशाली होगी।
6. सेवा स्वीकार करने के लिए अभिकर्ता:
(1) नियम 2 में वर्णित मान्यता प्राप्त अभिकर्ताओं के अलावा, कोई भी व्यक्ति जो न्यायालय की क्षेत्राधिकार सीमा में रहता है, सेवा स्वीकार करने के लिए अभिकर्ता नियुक्त किया जा सकता है।
(2) यह नियुक्ति लिखित रूप में होगी और न्यायालय में दाखिल की जाएगी – यह विशेष या सामान्य हो सकती है। यदि यह सामान्य हो, तो उसकी प्रमाणित प्रति दाखिल की जाएगी।
(3) न्यायालय किसी भी चरण पर यह आदेश दे सकता है कि ऐसा पक्षकार जिसके पास न तो कोई मान्यता प्राप्त अभिकर्ता है और न ही कोई वकील, उसे एक ऐसा अभिकर्ता नियुक्त करना होगा जो न्यायालय की क्षेत्राधिकार सीमा में रहता हो और प्रक्रिया की सेवा को स्वीकार कर सके।
Order IV – वादों का संस्थापन (Institution of Suites)
1. वाद प्रारंभ किया जाएगा प्लेंट द्वारा (Suit to be commenced by plaint):
(1) प्रत्येक वाद न्यायालय में या उसके द्वारा इस प्रयोजन के लिए नियुक्त किसी अधिकारी के समक्ष दो प्रतियों में प्लेंट प्रस्तुत करके प्रारंभ किया जाएगा।
(2) प्रत्येक प्लेंट को Order VI और Order VII में दिए गए नियमों के अनुसार तैयार किया जाना चाहिए, जहाँ तक वे लागू होते हैं।
(3) प्लेंट को तब तक विधिवत संस्थापित (instituted) नहीं माना जाएगा जब तक वह उप-नियम (1) और (2) की आवश्यकताओं का पालन न करता हो।
2. वादों की रजिस्ट्री (Register of suits):
न्यायालय प्रत्येक वाद के विवरण को एक रजिस्टर में दर्ज कराएगा, जो इस उद्देश्य के लिए रखा जाएगा और उसे “सिविल वादों का रजिस्टर” कहा जाएगा।
इन प्रविष्टियों को प्रत्येक वर्ष उस क्रम में क्रमांकित किया जाएगा जिस क्रम में प्लेंट स्वीकार किए जाते हैं।
3. वादों और कार्यवाहियों का संयुक्त परीक्षण (Consolidation of suits and proceedings):
जब दो या अधिक वाद या कार्यवाहियाँ एक ही न्यायालय में लंबित हों, और न्यायालय यह माने कि न्यायहित में यह उचित है, तो वह आदेश द्वारा उनके संयुक्त परीक्षण (joint trial) का निर्देश दे सकता है।
ऐसे में, वे सभी वाद और कार्यवाहियाँ उनमें से किसी एक या अधिक वादों या कार्यवाहियों में प्रस्तुत साक्ष्य के आधार पर निपटाए जा सकते हैं।
आदेश 5 (Issue and Service of summon)
समन जारी करना और सेवा
नियम 1: समन
(1) जब कोई मुकदमा ठीक प्रकार से दाखिल किया गया हो, तो प्रतिवादी को समन जारी किया जा सकता है कि वह उपस्थित हो और दावे का जवाब दे तथा अपनी लिखित प्रतिवाद (यदि कोई हो) समन की सेवा की तिथि से तीस दिनों के भीतर दाखिल करे।
बशर्ते कि जब प्रतिवादी याचिका प्रस्तुत करते समय उपस्थित हो और वादी के दावे को स्वीकार कर ले, तो ऐसा समन जारी नहीं किया जाएगा।
बशर्ते आगे कि यदि प्रतिवादी उक्त तीस दिनों के भीतर लिखित प्रतिवाद दाखिल करने में असफल रहता है, तो उसे ऐसा लिखित प्रतिवाद उस अन्य दिन दाखिल करने की अनुमति दी जाएगी जो न्यायालय द्वारा लिखित में कारण बताते हुए और उचित लागत के भुगतान पर निर्दिष्ट किया जाएगा, पर वह दिन समन सेवा की तिथि से अधिकतम 120 दिनों के बाद का नहीं होगा। और समन सेवा की तिथि से 120 दिनों के बाद लिखित प्रतिवाद दाखिल करने का अधिकार प्रतिवादी खो देगा और न्यायालय लिखित प्रतिवाद को अभिलेख में स्वीकार नहीं करेगा।
(2) जिसे नियम (1) के तहत समन जारी किया गया है, वह उपस्थित हो सकता है-
(a) स्वयं, या
(b) एक अधिवक्ता के द्वारा जिसे मुकदमे से संबंधित सभी आवश्यक प्रश्नों के उत्तर देने के लिए उचित रूप से निर्देशित किया गया हो, या
(c) एक अधिवक्ता के साथ ऐसा कोई व्यक्ति जो उन सभी प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम हो।
(3) हर ऐसा समन न्यायाधीश या उसके द्वारा नियुक्त अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित होगा और न्यायालय की मुहर लगी होगी।
नियम 2
समन के साथ शिकायत-पत्र की प्रति संलग्न होगी।]
नियम 3
अदालत प्रतिवादी या वादी को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का आदेश दे सकती है-
(1) जब अदालत को लगे कि प्रतिवादी को स्वयं उपस्थित होना चाहिए, तो समन में उस दिन उपस्थित होने का आदेश दिया जाएगा।
(2) जब अदालत को लगे कि वादी को भी उसी दिन व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होना चाहिए, तो वह आदेश देगा।
नियम 4
कोई पक्षकार तब तक व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का आदेश नहीं दिया जाएगा जब तक वह रहता हो-
(a) अदालत के सामान्य क्षेत्राधिकार के अंदर, या
(b) यदि बाहर रहता है तो अदालत से 50 मील से कम दूरी पर, या जहाँ रेल या नाव या अन्य सार्वजनिक यातायात हो, उस स्थिति में 200 मील से कम दूरी पर।
नियम 5 : समन केवल मुद्दों के निर्धारण या अंतिम निर्णय के लिए होगा।
अदालत समन जारी करते समय यह तय करेगी कि वह केवल मुद्दों के निर्धारण के लिए होगा या वाद के अंतिम निर्णय के लिए। समन में इस संबंध में निर्देश दिया जाएगा।
बशर्ते कि लघु कारणों की न्यायालय (Court of Small Causes) द्वारा सुने जाने वाले हर वाद में समन वाद के अंतिम निर्णय के लिए ही होगा।
नियम 6. प्रतिवादी की उपस्थिति की तिथि निर्धारित करना।
समन की तिथि [नियम 1 की उप-नियम (1) के तहत] अदालत के वर्तमान कार्य, प्रतिवादी के निवास स्थान और समन की सेवा के लिए आवश्यक समय को ध्यान में रखकर निर्धारित की जाएगी। यह तिथि ऐसी रखी जाएगी कि प्रतिवादी को पर्याप्त समय मिल सके ताकि वह उस दिन उपस्थित होकर उत्तर दे सके।
नियम 7. प्रतिवादी को अपने दस्तावेज प्रस्तुत करने का आदेश देना।
उत्तर देने हेतु समन में यह आदेश होगा कि प्रतिवादी अपने पास या अधिकार में मौजूद वे सभी दस्तावेज या उनकी प्रतियां, जिन पर वह अपने पक्ष में भरोसा करता है (जैसा कि आदेश 8 के नियम 1A में निर्दिष्ट है), उपस्थित होने के दिन प्रस्तुत करे।
नियम 8. अंतिम निर्णय हेतु समन होने पर प्रतिवादी को अपने गवाह लाने का निर्देश।
जब समन वाद के अंतिम निर्णय के लिए हो, तब उसमें यह निर्देश भी होगा कि प्रतिवादी उस दिन अपने वे सभी गवाह लाए जिनकी गवाही पर वह अपने पक्ष में भरोसा करता है।
नियम 9. समन का वितरण अदालत द्वारा—
(1) यदि प्रतिवादी उसी न्यायालय की अधिकार-सीमा में रहता है जहाँ वाद दाखिल हुआ है, या उसका कोई एजेंट वहाँ रहता है जो समन स्वीकार करने के लिए अधिकृत है, तो समन, जब तक अदालत अन्यथा निर्देश न दे—
➤ उचित अधिकारी या उसके अधीनस्थ द्वारा सेवा हेतु प्रेषित किया जाएगा, या
➤ अदालत द्वारा अनुमोदित कूरियर सेवा को भेजा जाएगा।
(2) उचित अधिकारी कोई अन्य न्यायालय का अधिकारी भी हो सकता है, और ऐसे मामले में समन उसे अदालत के निर्देश अनुसार भेजा जाएगा।
(3) समन की सेवा निम्न माध्यमों से की जा सकती है—
➤ रजिस्टर्ड पोस्ट (पावती सहित),
➤ स्पीड पोस्ट,
➤ अनुमोदित कूरियर सेवा,
➤ फैक्स या ई-मेल जैसे इलेक्ट्रॉनिक साधन
बशर्ते कि यह सेवा वादी के खर्चे पर होगी।
(4) यदि प्रतिवादी अदालत की अधिकार-सीमा से बाहर रहता है, और समन की सेवा उप-नियम (3) के किसी भी माध्यम से (सिवाय रजिस्टर्ड पोस्ट पावती सहित) की जाए, तो नियम 21 लागू नहीं होगा।
(5) यदि अदालत को यह प्राप्त हो—
➤ प्रतिवादी या उसके एजेंट द्वारा हस्ताक्षरित पावती, या
➤ डाक या कूरियर कर्मचारी द्वारा यह समर्थन कि प्रतिवादी ने समन लेने से इनकार किया—
तो अदालत यह घोषित करेगी कि समन विधिपूर्वक सेवा हो गया।
बशर्ते कि समन सही पते पर, अग्रिम भुगतान के साथ और रजिस्टर्ड पोस्ट द्वारा भेजा गया हो, भले ही पावती खो गई हो या न पहुँची हो, यदि 30 दिन में नहीं आई हो तब भी समन सेवा माना जाएगा।
(6) उच्च न्यायालय या जिला न्यायाधीश अनुमोदित कूरियर एजेंसियों की सूची तैयार करेगा।
नियम 9A. समन की सेवा वादी द्वारा करना
(1) अदालत, नियम 9 के अतिरिक्त, यदि वादी आवेदन करे तो वादी को प्रतिवादी पर समन की सेवा स्वयं करने की अनुमति दे सकती है, और समन उसे सौंपेगी।
(2) समन की सेवा वादी द्वारा या उसके behalf पर की जाएगी, जो निम्न रूप में होगी—
➤ समन की एक प्रति प्रतिवादी को व्यक्तिगत रूप से देना, जो न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षरित और अदालत की मुहर सहित हो, या
➤ नियम 9 के उप-नियम (3) में बताई गई विधियों से सेवा करना।
(3) इस नियम के तहत व्यक्तिगत सेवा पर नियम 16 और 18 लागू होंगे, जैसे सेवा अधिकारी कर रहा हो।
(4) यदि समन देने पर—
➤ प्रतिवादी ने लेने से मना कर दिया, या
➤ पावती पर हस्ताक्षर करने से इनकार किया, या
➤ किसी कारणवश व्यक्तिगत सेवा नहीं हो पाई—
तो अदालत वादी के आवेदन पर समन को पुनः जारी करेगी और न्यायालय द्वारा सेवा करवाई जाएगी।
Rule 10 – सेवा का तरीका
समन की सेवा उस प्रतिलिपि (copy) को देने या प्रस्तुत करने से की जाएगी जो न्यायाधीश (Judge) या उसके द्वारा इस उद्देश्य के लिए नियुक्त अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित (signed) हो, और न्यायालय की मुहर (seal) लगी हो।
Rule 11 – अनेक प्रतिवादियों पर सेवा
जहाँ एक से अधिक प्रतिवादी हों, और कुछ अलग न बताया गया हो, वहाँ प्रत्येक प्रतिवादी पर समन की सेवा की जाएगी।
Rule 12 – जहाँ संभव हो प्रतिवादी को व्यक्तिगत सेवा या उसके अभिकर्ता को सेवा
जहाँ भी संभव हो, सेवा प्रतिवादी को व्यक्तिगत रूप से की जाएगी। लेकिन यदि उसके पास कोई ऐसा अभिकर्ता है जो सेवा स्वीकार करने के लिए अधिकृत है, तो उस अभिकर्ता पर सेवा पर्याप्त होगी।
Rule 13 – व्यवसाय करने वाले अभिकर्ता पर सेवा
(1) यदि वाद किसी ऐसे व्यक्ति के विरुद्ध है जो न्यायालय की स्थानीय सीमा में नहीं रहता, और वह व्यक्ति किसी व्यवसाय या काम के सिलसिले में कार्यरत है, तो ऐसे व्यक्ति की ओर से उस सीमा में व्यक्तिगत रूप से कार्यरत कोई प्रबंधक या अभिकर्ता पर सेवा करना उचित सेवा मानी जाएगी।
(2) इस नियम के लिए जहाज का कप्तान जहाज के मालिक या चार्टरकर्ता का अभिकर्ता माना जाएगा।
Rule 14 – अचल संपत्ति के मामले में संपत्ति के प्रभारी अभिकर्ता पर सेवा
जहाँ अचल संपत्ति से संबंधित राहत पाने के वाद में प्रतिवादी को व्यक्तिगत सेवा नहीं हो सकती और उसके पास कोई अधिकृत अभिकर्ता नहीं है, तो उस संपत्ति के प्रभारी अभिकर्ता पर सेवा की जा सकती है।
Rule 15 – प्रतिवादी की अनुपस्थिति में उसके परिवार के वयस्क सदस्य पर सेवा
जहाँ प्रतिवादी अपने निवास स्थान पर अनुपस्थित है और उसके शीघ्र लौटने की संभावना नहीं है, तथा उसके पास कोई अधिकृत अभिकर्ता नहीं है, तो सेवा उसके साथ निवास कर रहे किसी वयस्क परिवार सदस्य (चाहे पुरुष या महिला) पर की जा सकती है।
स्पष्टीकरण – नौकर इस नियम के अनुसार परिवार का सदस्य नहीं माना जाएगा।
Rule 16 – सेवा प्राप्त करने वाले व्यक्ति से प्राप्ति की रसीद पर हस्ताक्षर
जहाँ सेवा करने वाला अधिकारी समन की प्रति प्रतिवादी, उसके अभिकर्ता या अन्य प्रतिनिधि को देता है, तो उसे उस व्यक्ति से मूल समन पर सेवा की प्राप्ति की रसीद पर हस्ताक्षर करवाने होंगे।
Rule 17 – जब प्रतिवादी सेवा लेने से मना करे या मिल न सके
यदि प्रतिवादी, उसका अभिकर्ता या अन्य प्रतिनिधि समन स्वीकार करने या उस पर हस्ताक्षर करने से मना करता है, या यदि सेवा करने वाला अधिकारी पूरी सावधानी के बाद भी उसे नहीं पा सके, और कोई अन्य व्यक्ति नहीं है जिस पर सेवा की जा सके, तो वह समन की एक प्रति प्रतिवादी के निवास, व्यवसाय, या कार्य स्थल पर बाहर के दरवाज़े या किसी स्पष्ट स्थान पर चिपकाएगा और समन की मूल प्रति न्यायालय को वापिस लौटाकर पूरी रिपोर्ट देगा कि उसने समन कैसे और किसकी उपस्थिति में चिपकाया।
Rule 18 – सेवा के समय और तरीके की पुष्टि
जहाँ समन की सेवा Rule 16 के तहत हुई हो, वहाँ सेवा अधिकारी को यह स्पष्ट रूप से लिखना होगा कि समन किस दिन और किस तरीके से सेवा हुआ, और किस व्यक्ति ने प्रतिवादी की पहचान की और सेवा को देखा।
Rule 19 – सेवा अधिकारी की जाँच
जहाँ समन Rule 17 के तहत लौटा हो, और उस रिपोर्ट पर सेवा अधिकारी का हलफ़नामा नहीं हो, तो न्यायालय को सेवा अधिकारी को शपथ पर बुलाकर पूछताछ करनी होगी, और यदि हलफ़नामा है तो भी वह पूछताछ कर सकता है, और फिर यह तय करेगा कि समन विधिवत सेवा हुआ या फिर नये तरीके से सेवा का आदेश देगा।
Rule 20 – वैकल्पिक (Substituted) सेवा
(1) यदि न्यायालय को लगता है कि प्रतिवादी जानबूझकर सेवा से बच रहा है या किसी अन्य कारण से समन सामान्य तरीके से सेवा नहीं हो सकता, तो न्यायालय आदेश देगा कि समन की एक प्रति न्यायालय भवन के किसी स्पष्ट स्थान और उस घर (जहाँ प्रतिवादी अंतिम बार रहा, व्यवसाय किया, या काम किया) के स्पष्ट हिस्से पर चिपकाई जाए, या फिर न्यायालय द्वारा उचित समझे जाने वाले किसी अन्य तरीके से सेवा की जाए।
(1A) यदि न्यायालय आदेश दे कि समाचार पत्र में विज्ञापन के माध्यम से सेवा की जाए, तो वह अखबार उस क्षेत्र में प्रसारित होने वाला दैनिक समाचार पत्र होना चाहिए जहाँ प्रतिवादी अंतिम बार स्वेच्छा से रहा, व्यवसाय किया या काम किया।
(2) न्यायालय द्वारा किया गया वैकल्पिक सेवा का आदेश ऐसा ही प्रभावी होगा जैसे कि सेवा व्यक्तिगत रूप से की गई हो।
(3) जहाँ सेवा वैकल्पिक रूप से की जाए, वहाँ न्यायालय प्रतिवादी की उपस्थिति के लिए आवश्यक समय तय करेगा।
21. जब प्रतिवादी किसी अन्य न्यायालय की सीमा में रहता है, तब समन की सेवा –
वह न्यायालय जिसने समन जारी किया है, चाहे वह राज्य के भीतर हो या बाहर, वह समन अपने किसी अधिकारी द्वारा या डाक द्वारा, या उच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित किसी कूरियर सेवा द्वारा, या फैक्स सन्देश द्वारा, या ईमेल सेवा द्वारा, या उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार किसी अन्य माध्यम से, किसी ऐसे न्यायालय (जो उच्च न्यायालय नहीं हो) को भेज सकता है जिसके अधिकार क्षेत्र में प्रतिवादी रहता है।
22. प्रेसीडेंसी नगरों में, बाहर के न्यायालयों द्वारा जारी समन की सेवा –
जब कोई समन ऐसे न्यायालय द्वारा जारी किया गया हो जो कलकत्ता, मद्रास और बॉम्बे नगरों की सीमा के बाहर स्थित हो, और उस समन की सेवा इन नगरों की सीमाओं के भीतर होनी हो, तो वह समन उस स्मॉल कॉज़ेज़ न्यायालय को भेजा जाएगा जिसकी सीमा में सेवा की जानी है।
23. जिस न्यायालय को समन भेजा गया है उसका कर्तव्य –
जिस न्यायालय को समन rule 21 या rule 22 के अंतर्गत भेजा गया है, उसे समन प्राप्त होने के बाद ऐसा व्यवहार करना होगा मानो वह समन उसी न्यायालय द्वारा जारी किया गया हो, और फिर उस समन को, अपनी कार्यवाही (यदि कोई हो) के रिकार्ड के साथ, जारी करने वाले न्यायालय को वापस भेजना होगा।
24. जेल में बंद प्रतिवादी पर समन की सेवा –
जब प्रतिवादी जेल में बंद हो, तो समन को जेल अधिकारी को सेवा के लिए दिया या भेजा जाएगा, या डाक द्वारा, या उच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित कूरियर सेवा द्वारा, या फैक्स सन्देश द्वारा, या ईमेल सेवा द्वारा, या उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार अन्य किसी माध्यम द्वारा भेजा जाएगा।
25. जब प्रतिवादी भारत के बाहर रहता है और उसका कोई अभिकर्ता नहीं है –
जब प्रतिवादी भारत के बाहर रहता है और भारत में उसका कोई सेवा स्वीकार करने के लिए अधिकृत अभिकर्ता नहीं है, तब समन प्रतिवादी के निवास स्थान पर उसे संबोधित कर भेजा जाएगा, या डाक द्वारा, या उच्च न्यायालय द्वारा अनुमोदित कूरियर सेवा द्वारा, या फैक्स सन्देश द्वारा, या ईमेल सेवा द्वारा, या उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार किसी अन्य माध्यम द्वारा, यदि वहाँ और न्यायालय के स्थान के बीच डाक संपर्क हो।
बशर्ते कि यदि ऐसा प्रतिवादी बांग्लादेश या पाकिस्तान में रहता है, तो समन और उसकी प्रति वहाँ की किसी अदालत (जो उच्च न्यायालय न हो) को भेजा जा सकता है, जहाँ प्रतिवादी रहता है।
बशर्ते आगे कि यदि ऐसा प्रतिवादी बांग्लादेश या पाकिस्तान में कोई सरकारी अधिकारी (जो सैन्य, नौसैनिक या वायुसेना से संबंधित न हो), या वहाँ की रेलवे कंपनी या स्थानीय प्राधिकरण का कर्मचारी हो, तो समन और उसकी प्रति वहाँ किसी ऐसे अधिकारी या प्राधिकरण को भेजा जा सकता है जिसे भारत सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा इस हेतु निर्दिष्ट करे।
26. विदेशी क्षेत्र में राजनीतिक एजेंट या न्यायालय के माध्यम से सेवा –
जब—
(a) भारत सरकार को विदेशी क्षेत्र में न्यायिक अधिकार प्राप्त हो और वहाँ कोई राजनीतिक एजेंट नियुक्त हो, या कोई न्यायालय स्थापित या बनाए रखा गया हो, जिसके पास इस संहिता के अंतर्गत समन की सेवा करने का अधिकार हो,
या
(b) भारत सरकार ने राजपत्र में अधिसूचना द्वारा घोषित किया हो कि किसी विदेशी क्षेत्र की अदालत द्वारा समन की सेवा वैध मानी जाएगी,
तब समन उस राजनीतिक एजेंट या न्यायालय को डाक द्वारा या अन्य माध्यम से, या भारत सरकार के विदेश मामलों से संबंधित मंत्रालय के माध्यम से, या सरकार द्वारा निर्दिष्ट किसी अन्य तरीके से भेजा जा सकता है। और यदि वह एजेंट या न्यायालय यह समर्थन करता है कि समन प्रतिवादी को सेवा कर दिया गया है, तो वह समर्थन सेवा का प्रमाण माना जाएगा।
26A. विदेशी देशों में अधिकारियों को समन भेजे जाने का प्रावधान –
जब भारत सरकार ने राजपत्र में अधिसूचना द्वारा घोषित किया हो कि किसी विदेशी क्षेत्र में प्रतिवादी को समन सेवा की अनुमति दी जा सकती है, और उस क्षेत्र में कोई अधिकारी निर्दिष्ट किया गया हो, तब वह समन उस अधिकारी को भारत सरकार के विदेश मामलों के मंत्रालय के माध्यम से या सरकार द्वारा निर्दिष्ट किसी अन्य माध्यम से भेजा जा सकता है। और यदि वह अधिकारी यह समर्थन करता है कि समन सेवा कर दिया गया है, तो वह समर्थन सेवा का प्रमाण माना जाएगा।
नियम 27 – नागरिक लोक सेवक या रेलवे कंपनी या स्थानीय प्राधिकरण के सेवक पर समन की तामील
जहाँ प्रतिवादी एक लोक सेवक (public officer) है (जो भारतीय थलसेना, नौसेना या वायुसेना से संबंधित नहीं है), या वह किसी रेलवे कंपनी या स्थानीय प्राधिकरण का सेवक है, वहाँ न्यायालय, यदि उसे ऐसा प्रतीत होता है कि समन उस पर इस प्रकार सबसे सुविधाजनक रूप से तामील किया जा सकता है, तो समन को उस कार्यालय के प्रधान को भेज सकता है जहाँ वह कार्यरत है, और उसके साथ समन की एक प्रति भेजी जाएगी जिसे प्रतिवादी द्वारा रखा जा सके।
नियम 28 – सैनिक, नाविक या वायुसैनिक पर समन की तामील
जहाँ प्रतिवादी कोई सैनिक (soldier), नाविक (sailor) या वायुसैनिक (airman) है, वहाँ न्यायालय समन को उसकी कमान अधिकारी (commanding officer) को भेजेगा, और समन की एक प्रति साथ में भेजी जाएगी जिसे प्रतिवादी अपने पास रखे।
नियम 29 – उस व्यक्ति का कर्तव्य जिसे समन तामील के लिए दिया या भेजा गया हो
(1) जहाँ समन को नियम 24, 27 या 28 के अंतर्गत किसी व्यक्ति को तामील के लिए सौंपा या भेजा जाता है, वह व्यक्ति इसे, यदि संभव हो, तामील करने का बाध्य होगा, और समन को अपने हस्ताक्षर सहित, प्रतिवादी की लिखित प्राप्ति के साथ लौटाएगा, और ऐसा हस्ताक्षर सेवा का प्रमाण माना जाएगा।
(2) यदि किसी कारण से सेवा असंभव हो जाती है, तो समन को न्यायालय को लौटाया जाएगा, साथ में उस कारण का पूरा विवरण और सेवा प्राप्त करने हेतु उठाए गए कदमों का उल्लेख होगा, और ऐसा विवरण सेवा न होने का प्रमाण माना जाएगा।
नियम 30 – समन के स्थान पर पत्र भेजा जाना
(1) न्यायालय, ऊपर कही किसी भी बात के होते हुए भी, समन के स्थान पर एक पत्र जो न्यायाधीश या उसके द्वारा नियुक्त अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित हो, भेज सकता है, यदि न्यायालय की राय में प्रतिवादी ऐसा व्यक्ति है जिसकी प्रतिष्ठा ऐसी विशेष सम्मान की पात्र है।
(2) ऐसा पत्र, समन में दिए जाने वाले सभी विवरण को सम्मिलित करेगा, और उप-नियम (3) के अधीन, हर प्रकार से समन के समान माना जाएगा।
(3) ऐसा पत्र प्रतिवादी को डाक से, न्यायालय द्वारा चुने गए विशेष संदेशवाहक द्वारा, या न्यायालय जिस प्रकार उपयुक्त माने, उस प्रकार भेजा जा सकता है; और जहाँ प्रतिवादी का ऐसा अभिकर्ता है जो सेवा स्वीकार करने के लिए अधिकृत है, तो वह पत्र उस अभिकर्ता को भी दिया या भेजा जा सकता है।
ORDER VI – PLEADINGS GENERALLY
आदेश VI – वाद-पत्र सामान्यतः
1. Pleading / वाद-पत्र
“वाद-पत्र” का अर्थ होगा, वाद-पत्रिका (plaint) या लिखित कथन (written statement)।
2. Pleading to state material facts and not evidence / वाद-पत्र में आवश्यक तथ्य हों, साक्ष्य नहीं
(1) हर वाद-पत्र में केवल संक्षिप्त रूप में आवश्यक तथ्य होने चाहिए जिन पर पक्षकार अपना दावा या प्रतिरक्षा आधारित करता है, परंतु ऐसे साक्ष्य नहीं जिनसे उन्हें सिद्ध किया जाएगा।
(2) हर वाद-पत्र को, जब आवश्यक हो, अनुच्छेदों में बाँटा जाएगा, जो क्रम में अंकित होंगे और प्रत्येक कथन अलग अनुच्छेद में रहेगा।
(3) दिनांक, रकम और संख्याएँ वाद-पत्र में अंकों और शब्दों दोनों में लिखी जाएँगी।
3. Forms of pleading / वाद-पत्रों के प्रपत्र
अनुक्रमणिका (Appendix ‘A’) में दिए गए प्रपत्र, जहाँ लागू हों, तथा जहाँ लागू न हों वहाँ उसी प्रकार के समान प्रपत्र, जितना संभव हो, सभी वाद-पत्रों के लिए प्रयोग किए जाएँगे।
3A. Forms of pleading in Commercial Courts / वाणिज्यिक न्यायालयों में वाद-पत्रों के प्रपत्र
जहाँ वाणिज्यिक विवादों के लिए उच्च न्यायालय के नियम या निर्देश अनुसार वाद-पत्र के प्रपत्र निर्धारित हैं, वहाँ वाद-पत्र उन्हीं प्रपत्रों में दिए जाएँगे।
4. Particulars to be given where necessary / जहाँ आवश्यक हो वहाँ विशेष विवरण दिए जाएँ
जहाँ कोई पक्षकार किसी झूठे कथन, धोखाधड़ी, विश्वासभंग, जानबूझकर चूक या अनुचित प्रभाव पर निर्भर करता हो, वहाँ तिथियाँ और विवरण सहित विशेष विवरण वाद-पत्र में दिए जाएँ।
5. [Further and better statement, or particulars] / [और अधिक विवरण]
(हटा दिया गया है)।
6. Condition precedent / पूर्व शर्त
कोई पूर्व शर्त जिसके होने या पूरा होने का विरोध किया जाना है, उसे वादी या प्रतिवादी द्वारा स्पष्ट रूप से वाद-पत्र में लिखा जाएगा। बाकी सभी पूर्व शर्तों के पूरे होने का दावा वाद-पत्र में माना जाएगा जब तक अन्यथा न कहा जाए।
7. Departure / भिन्न कथन
कोई भी वाद-पत्र, संशोधन को छोड़कर, कोई नया दावा नहीं करेगा या पहले दिए गए तथ्यों से विरोधाभासी तथ्य नहीं जोड़ेगा।
8. Denial of contract / अनुबंध का अस्वीकार
यदि किसी वाद-पत्र में अनुबंध का कथन है, तो उसका केवल सामान्य अस्वीकार यह माना जाएगा कि केवल उस अनुबंध के तथ्यात्मक पहलू का अस्वीकार किया गया है, न कि उसकी वैधता या पर्याप्तता का।
9. Effect of document to be stated / दस्तावेज़ के प्रभाव का उल्लेख
जहाँ किसी दस्तावेज़ की सामग्री महत्वपूर्ण हो, वहाँ उसका संक्षेप में प्रभाव बताना पर्याप्त होगा, पूरा विवरण देना आवश्यक नहीं होगा।
10. Malice, knowledge, etc. / द्वेष, जानकारी आदि
जहाँ द्वेष, धोखाधड़ी की मंशा, जानकारी या अन्य मानसिक अवस्था को दर्शाना आवश्यक हो, वहाँ केवल तथ्य के रूप में उसका उल्लेख पर्याप्त होगा, विस्तृत परिस्थितियाँ देना आवश्यक नहीं।
11. Notice / सूचना
जहाँ किसी तथ्य की सूचना का उल्लेख आवश्यक हो, वहाँ केवल यह बताना पर्याप्त होगा कि सूचना दी गई थी, जब तक कि उसकी भाषा या शर्तें महत्वपूर्ण न हों।
12. Implied contract, or relation / निहित अनुबंध या संबंध
यदि पत्रों, बातचीत या परिस्थितियों से अनुबंध या संबंध अनुमानित हो, तो उसका केवल सामान्य उल्लेख पर्याप्त होगा। यदि पक्षकार एक से अधिक विकल्पों पर निर्भर रहना चाहता हो, तो वह उन्हें विकल्प रूप में भी प्रस्तुत कर सकता है।
13. Presumptions of law / क़ानूनी अनुमानों का उल्लेख नहीं आवश्यक
कोई भी पक्ष वह तथ्य नहीं बताएगा जिसे क़ानून पहले से उसके पक्ष में मानता है, जब तक दूसरा पक्ष उसे विशेष रूप से न नकारे।
14. Pleading to be signed / वाद-पत्र पर हस्ताक्षर होना आवश्यक
हर वाद-पत्र पर पक्षकार और उसका वकील (यदि हो) हस्ताक्षर करेगा। यदि पक्षकार अनुपस्थित हो, तो उसका अधिकृत व्यक्ति हस्ताक्षर कर सकता है।
14A. Address for service of notice / नोटिस भेजने हेतु पता
(1) हर वाद-पत्र के साथ पक्षकार द्वारा हस्ताक्षरित एक प्रपत्र लगेगा जिसमें उसका पता दिया जाएगा।
(2) यह पता बाद में बदला जा सकता है, कोर्ट में नया पता देकर और याचिका प्रस्तुत कर।
(3) यह पता “पंजीकृत पता” कहलाएगा और सभी नोटिसों के लिए मान्य रहेगा।
(4) नोटिस इसी पते पर भेजा जा सकता है जैसे वह वहीं रहता हो।
(5) यदि यह पता झूठा या अधूरा हो तो कोर्ट द्वारा—
(a) वादी हो तो वाद स्थगित किया जाएगा।
(b) प्रतिवादी हो तो उसका बचाव हटाया जाएगा।
(6) यदि बचाव हट गया हो तो सच्चा पता देने पर फिर से आवेदन कर सकते हैं।
(7) यदि उचित कारण सिद्ध हो, तो कोर्ट बचाव/वाद को पुनः चालू कर सकती है।
(8) कोर्ट किसी अन्य पते पर भी सेवा का आदेश दे सकती है।
15. Verification of pleadings / वाद-पत्र का सत्यापन
(1) हर वाद-पत्र का सत्यापन उस पक्षकार या उसके किसी अन्य परिचित व्यक्ति द्वारा किया जाएगा।
(2) सत्यापनकर्ता बताएगा कि कौन से अनुच्छेद की बातें उसे खुद ज्ञात हैं और कौन सी जानकारी पर आधारित हैं।
(3) सत्यापनकर्ता हस्ताक्षर करेगा और तारीख तथा स्थान बताएगा।
(4) सत्यापनकर्ता एक हलफ़नामा भी देगा।
15A. Verification of pleadings in a commercial dispute / वाणिज्यिक विवादों में वाद-पत्र का सत्यापन
(1) वाणिज्यिक विवादों में सत्यापन “स्टेटमेंट ऑफ ट्रुथ” नामक हलफ़नामे द्वारा होगा।
(2) यह हलफ़नामा पक्षकार या उसके अधिकृत व्यक्ति द्वारा दिया जाएगा।
(3) संशोधित वाद-पत्र भी इसी प्रकार सत्यापित होंगे।
(4) बिना सत्यापन वाले वाद-पत्र को साक्ष्य नहीं माना जाएगा।
(5) कोर्ट ऐसा वाद-पत्र हटा सकती है जो सत्यापित न हो।
16. Striking out pleadings / वाद-पत्र हटाना
कोर्ट किसी भी वाद-पत्र के ऐसे हिस्से को कभी भी हटा सकती है—
(a) जो अनावश्यक (Unncessary), अपमानजनक (Scandalous), निरर्थक (frivolous) या तंग करने वाला हो।
(b) जो मुकदमे में रुकावट या पक्षपात पैदा करे।
(c) जो कोर्ट की प्रक्रिया का दुरुपयोग हो।
17. Amendment of pleadings / वाद-पत्र में संशोधन
कोर्ट किसी भी पक्ष को उसके वाद-पत्र में कभी भी उचित शर्तों पर संशोधन की अनुमति दे सकती है यदि वह विवाद के मूल प्रश्नों के समाधान के लिए आवश्यक हो।
बशर्ते, यदि सुनवाई शुरू हो चुकी हो तो संशोधन केवल तभी होगा जब कोर्ट माने कि पर्याप्त परिश्रम के बाद भी वह पहले नहीं किया जा सकता था।
18. Failure to amend after Order / आदेश के बाद संशोधन न करने का परिणाम
यदि पक्षकार को संशोधन की अनुमति मिली हो और वह तय समय में संशोधन न करे, तो बाद में बिना कोर्ट की अनुमति के संशोधन नहीं कर सकेगा।
ORDER VII – PLAINT / आदेश VII – वाद-पत्रिका
1. Particulars to be contained in plaint / वाद-पत्रिका में जो विवरण होने चाहिए –
वाद-पत्रिका में निम्नलिखित विवरण होने चाहिए:
(a) उस न्यायालय का नाम जिसमें वाद लाया गया है।
(b) वादी का नाम, विवरण (वर्णन) और निवास स्थान।
(c) प्रतिवादी का नाम, विवरण और निवास स्थान, जितना ज्ञात किया जा सके।
(d) यदि वादी या प्रतिवादी कोई अवयस्क (minor) या असंवेदनशील मस्तिष्क (unsound mind) वाला व्यक्ति हो, तो उसका स्पष्ट कथन।
(e) वे तथ्य जिनसे वाद का कारण (cause of action) बनता है और वह कारण कब उत्पन्न हुआ।
(f) वे तथ्य जो यह दर्शाएं कि न्यायालय को इस वाद पर अधिकार है (jurisdiction)।
(g) वह प्रतिकर (relief) जो वादी चाहता है।
(h) यदि वादी ने कोई समनुलग्न दावा (set-off) स्वीकार किया हो या अपने दावे का कोई भाग छोड़ा हो, तो उस छोड़े गए या स्वीकार किए गए भाग की राशि।
(i) वाद की विषय-वस्तु (subject-matter) का मूल्य, जो क्षेत्राधिकार (jurisdiction) और न्यायालय शुल्क (court-fee) के उद्देश्य से आवश्यक है, जितना मामला अनुमति देता है।
2. In money suits / धन के वादों में –
जब वादी धन की वसूली चाहता हो, तो वाद-पत्रिका में स्पष्ट रूप से मांगी गई राशि का उल्लेख किया जाएगा।
बशर्ते, यदि वादी लाभांश (mesne profits), या ऐसा धन चाहता हो जो प्रतिवादी के साथ अनिर्धारित लेखा (unsettled accounts) के हिसाब से बकाया हो,
या प्रतिवादी के पास रखी कोई चल संपत्ति (movable),
या कोई ऋण (debt) जिसकी अनुमानित राशि वादी उचित परिश्रम के बाद भी निश्चित नहीं कर सका हो —
तो वाद-पत्रिका में लगभग अनुमानित राशि या मूल्य का उल्लेख किया जाएगा।
________________________________________
2A. Where interest is sought in the suit / जहाँ वाद में ब्याज की मांग की गई हो –
(1) यदि वादी ब्याज की मांग करता है, तो वाद-पत्रिका में इसका स्पष्ट उल्लेख होगा और नीचे दिए गए उप-नियम (2) और (3) के अनुसार विवरण होंगे।
(2) यदि वादी ब्याज की मांग करता है, तो वाद-पत्रिका में यह कहा जाएगा कि:
– क्या वादी ऐसा ब्याज वाणिज्यिक लेन-देन (commercial transaction) के संबंध में मांग रहा है जैसा कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 34 में वर्णित है,
– और यदि वह अनुबंध (contract) की शर्तों के अंतर्गत या किसी अधिनियम (Act) के अधीन ऐसा कर रहा है, तो उस अधिनियम का नाम स्पष्ट रूप से वाद-पत्रिका में लिखा जाएगा,
– या यदि किसी अन्य आधार पर ब्याज की मांग की जा रही है, तो वह आधार भी स्पष्ट रूप से लिखा जाएगा।
(3) वाद-पत्र में निम्नलिखित ब्यौरे भी दिए जाएँगे:
(a) वह दर (rate) जिस पर ब्याज मांगा जा रहा है।
(b) वह तारीख जिससे ब्याज मांगा जा रहा है।
(c) वह तारीख तक जिसके लिए ब्याज की गणना की गई है।
(d) उस तारीख तक गणना किया गया कुल ब्याज।
(e) उस तारीख के बाद प्रतिदिन जुड़ने वाली ब्याज की दैनिक दर।
3. जहाँ वाद की विषय-वस्तु अचल संपत्ति हो –
जहाँ वाद की विषय-वस्तु अचल संपत्ति हो, वहाँ वाद-पत्रिका में उस संपत्ति का ऐसा विवरण होना चाहिए जिससे उसे पहचाना जा सके।
और यदि वह संपत्ति बंदोबस्त (settlement) या सर्वे रिकॉर्ड में सीमाओं (boundaries) या नंबरों से पहचानी जा सकती हो, तो वाद-पत्रिका में वे सीमाएँ या नंबर विशेष रूप से दिए जाने चाहिए।
4. जब वादी प्रतिनिधि रूप में वाद करता हो –
जब वादी प्रतिनिधि स्वरूप (representative character) में वाद करता है, तो वाद-पत्रिका में यह दिखाया जाना चाहिए कि:
– उसका उस विषय-वस्तु में वर्तमान और वास्तविक हित है, और
– उसने उस विषय में वाद लाने के लिए आवश्यक कदम (यदि कोई हों) उठाए हैं।
5. प्रतिवादी का हित और उत्तरदायित्व दिखाया जाना चाहिए –
वाद-पत्रिका में यह दिखाया जाना चाहिए कि:
– प्रतिवादी उस विषय-वस्तु में रुचि रखता है या दावा करता है कि वह उसमें रुचि रखता है, और
– वह वादी की मांग का उत्तर देने हेतु उत्तरदायी है।
6. सीमा-विधि (Limitation Law) से छूट के आधार –
यदि वाद सीमा-अवधि समाप्त होने के बाद दायर किया गया है, तो वाद-पत्रिका में उस छूट (exemption) का आधार दिखाया जाना चाहिए:
बशर्ते कि, न्यायालय वादी को ऐसा कोई और आधार लेने की अनुमति दे सकता है जो वाद-पत्रिका में नहीं लिखा गया हो,
यदि वह आधार वाद-पत्रिका में दिए गए आधारों से विरोधाभासी (inconsistent) न हो।
7. प्रतिकर (relief) स्पष्ट रूप से लिखा जाना चाहिए –
प्रत्येक वाद-पत्रिका में वादी द्वारा मांगे गए प्रतिकर को विशेष रूप से लिखा जाना चाहिए, चाहे वह सीधे तौर पर मांगा गया हो या वैकल्पिक रूप में।
सामान्य या अन्य कोई प्रतिकर माँगना आवश्यक नहीं है जिसे न्यायालय उचित समझे तो वैसे भी दिया जा सकता है, मानो उसे मांगा गया हो।
यही नियम प्रतिवादी द्वारा उसकी लिखित उत्तर-पत्रिका (written statement) में मांगे गए प्रतिकर पर भी लागू होगा।
8. पृथक आधारों पर आधारित प्रतिकर –
जहाँ वादी अलग-अलग दावों या कारणों के आधार पर प्रतिकर चाहता है,
जो अलग और स्वतंत्र (distinct and separate) हों,
तो उन्हें वाद-पत्रिका में यथासंभव अलग-अलग और स्पष्ट रूप से लिखा जाएगा।
9. वाद-पत्रिका को स्वीकार (Admit) करने की प्रक्रिया –
जब न्यायालय यह आदेश देता है कि समन (summons) प्रतिवादी को Order V के नियम 9 के अनुसार दिया जाए,
तो न्यायालय वादी को निर्देश देगा कि वह आदेश की तिथि से सात दिनों के भीतर
– जितने प्रतिवादी हों, उतनी प्रतियाँ वाद-पत्रिका की सादे कागज़ पर, तथा समन सेवा शुल्क (summons fee) प्रस्तुत करे।
10. वाद-पत्रिका को लौटाना (Return) –
(1) [नियम 10A के प्रावधानों के अधीन रहते हुए] वाद-पत्रिका को वाद के किसी भी चरण में उस न्यायालय में प्रस्तुत करने हेतु लौटाया जा सकता है, जहाँ वाद लाया जाना चाहिए था।
स्पष्टीकरण – संदेह दूर करने के लिए यह स्पष्ट किया जाता है कि अपील या पुनरीक्षण (revision) की अदालत, वाद में पारित डिक्री को निरस्त करने के बाद वाद-पत्रिका को लौटाने का निर्देश दे सकती है।
(2) वाद-पत्रिका को लौटाने की प्रक्रिया –
जब वाद-पत्रिका लौटाई जाती है, तो न्यायाधीश उसमें यह लिखेगा:
– प्रस्तुत करने और लौटाने की तिथि,
– प्रस्तुत करने वाले पक्ष का नाम, और
– वाद-पत्रिका लौटाने के संक्षिप्त कारण।
10A. जहाँ वाद-पत्रिका लौटाई जाती है, वहाँ उपस्थिति की तिथि तय करने की शक्ति –
(1) यदि किसी वाद में प्रतिवादी की उपस्थिति के बाद, न्यायालय यह माने कि वाद-पत्रिका लौटाई जानी चाहिए, तो उसे वादी को अपना निर्णय सूचित करना होगा।
(2) इस सूचना के बाद, वादी न्यायालय से आवेदन कर सकता है:
(a) यह बताने हेतु कि वह वाद-पत्रिका किस न्यायालय में प्रस्तुत करना चाहता है,
(b) प्रार्थना करने हेतु कि उस न्यायालय में पक्षकारों की उपस्थिति के लिए एक तिथि तय की जाए, और
(c) यह अनुरोध करने हेतु कि वह तिथि वादी व प्रतिवादी दोनों को सूचित की जाए।
(3) यदि वादी द्वारा उपरोक्त आवेदन किया गया हो, तो न्यायालय, वाद-पत्रिका लौटाने से पूर्व और भले ही उसने अधिकार क्षेत्र के अभाव में वाद लौटाने का आदेश दिया हो:
(a) उस न्यायालय में उपस्थिति की एक तिथि तय करेगा जहाँ वाद-पत्रिका प्रस्तुत की जानी है, और
(b) वादी व प्रतिवादी दोनों को वह तिथि सूचित करेगा।
(4) जब उपस्थिति की तिथि की सूचना दी गई हो:
(a) उस न्यायालय को जहाँ वाद-पत्रिका प्रस्तुत की जा रही है, प्रतिवादी को फिर से समन देने की आवश्यकता नहीं होगी,
जब तक वह न्यायालय कारण दर्शाकर ऐसा निर्देश न दे।
(b) वह सूचना ही समन मानी जाएगी।
(5) यदि न्यायालय द्वारा वादी का आवेदन (उप-नियम 2 के अंतर्गत) स्वीकार कर लिया गया,
तो वादी वाद-पत्रिका लौटाने के आदेश के विरुद्ध अपील करने का अधिकारी नहीं होगा।
10B. अपीलीय न्यायालय द्वारा वाद को उचित न्यायालय में स्थानांतरित करने की शक्ति।
(1) जब किसी वादपत्र को लौटाने के आदेश के विरुद्ध की गई अपील में वह आदेश न्यायालय द्वारा पुष्टि कर दिया जाता है, तो यदि वादी ऐसा आवेदन करता है, तो अपीलीय न्यायालय वादपत्र को लौटाते समय यह निर्देश दे सकता है कि वादी वादपत्र को उस न्यायालय में प्रस्तुत करे जिसमें वह वाद दायर किया जाना चाहिए था, (चाहे वह न्यायालय उस राज्य में हो या बाहर जहाँ अपील सुनी जा रही है) और वह न्यायालय पक्षकारों के उस न्यायालय में उपस्थिति की तिथि निश्चित कर सकता है। जब ऐसी तिथि निश्चित कर दी जाती है, तब उस न्यायालय द्वारा प्रतिवादी को उपस्थिति हेतु समन भेजना आवश्यक नहीं होगा, जब तक कि वह न्यायालय कारण सहित ऐसा निर्देश न दे।
(2) उप-नियम (1) के अंतर्गत न्यायालय द्वारा दिया गया निर्देश, उस न्यायालय की अधिकारिता को चुनौती देने के पक्षकारों के अधिकार को प्रभावित नहीं करेगा जिसमें वादपत्र प्रस्तुत किया गया है।
11. वादपत्र अस्वीकार किया जाएगा यदि—
(a) उसमें कोई कारण-कार्रवाई (cause of action) प्रकट नहीं होता है।
(b) राहत की माँग कम मूल्य की की गई हो और न्यायालय द्वारा सही मूल्य निर्धारण के लिए कहा गया हो और वादी समयसीमा में मूल्य ठीक नहीं करता है।
(c) राहत का मूल्यांकन सही है, परंतु वादपत्र अपर्याप्त मुद्रांकित कागज (stamp paper) पर प्रस्तुत किया गया हो और वादी, न्यायालय द्वारा उचित stamp लगाने को कहे जाने पर, वह stamp समयसीमा में नहीं लगाता है।
(d) वाद ऐसा प्रतीत होता है कि वह किसी विधि द्वारा प्रतिबंधित है।
(e) वादपत्र duplicate में दाखिल नहीं किया गया है।
(f) वादी ने नियम 9 के प्रावधानों का पालन नहीं किया है।
बशर्ते कि न्यायालय द्वारा मूल्य या stamp-paper की पूर्ति के लिए दी गई समयसीमा तब तक नहीं बढ़ाई जाएगी जब तक कि न्यायालय यह संतुष्ट न हो जाए कि वादी असाधारण कारण से समय में पूर्ति नहीं कर पाया और समय न बढ़ाने से वादी को गंभीर अन्याय होगा।
12. वादपत्र अस्वीकार करने की प्रक्रिया।
जब वादपत्र अस्वीकार किया जाता है, न्यायाधीश को ऐसा आदेश और उसके कारण दर्ज करने होंगे।
13. वादपत्र की अस्वीकृति नए वाद की प्रस्तुति को नहीं रोकती।
पूर्व में बताए गए किसी भी कारण से वादपत्र की अस्वीकृति, वादी को उसी कारण-कार्रवाई के लिए नया वादपत्र दाखिल करने से नहीं रोकती।
14. जिन दस्तावेजों पर वादी निर्भर करता है उनका उत्पादन (Production)
(1) यदि वादी किसी दस्तावेज़ के आधार पर वाद करता है या किसी दस्तावेज़ पर भरोसा करता है जो उसकी शक्ति या कब्जे में है, तो उसे वादपत्र प्रस्तुत करते समय दस्तावेज़ों की सूची बनाकर, वह दस्तावेज़ और उसकी एक प्रति न्यायालय में प्रस्तुत करनी होगी।
(2) यदि दस्तावेज़ वादी के पास नहीं है, तो उसे यह बताना होगा कि वह दस्तावेज़ किसके पास है (जहाँ तक संभव हो)।
(3) ऐसा कोई दस्तावेज़ जो वादपत्र के साथ प्रस्तुत किया जाना चाहिए था, पर नहीं किया गया, वह न्यायालय की अनुमति के बिना साक्ष्य में स्वीकार नहीं किया जाएगा।
(4) यह नियम उन दस्तावेजों पर लागू नहीं होगा जो केवल गवाही के दौरान प्रतिपरीक्षा (cross-examination) हेतु या गवाह को याद दिलाने के लिए दिखाए जाते हैं।
15. [वादी के पास न होने वाले दस्तावेज़ों की स्थिति का विवरण]— निरस्त कर दिया गया है।
16. खोए हुए परक्राम्य लिखपत्र (negotiable instrument) पर वाद।
यदि वाद किसी परक्राम्य लिखपत्र पर आधारित है और यह सिद्ध हो जाता है कि वह लिखपत्र खो गया है, और वादी न्यायालय को संतोषजनक प्रतिभूति (indemnity) देता है कि कोई अन्य व्यक्ति उस पर दावा नहीं करेगा, तो न्यायालय ऐसा डिक्री पारित कर सकता है मानो वादी ने वह लिखपत्र वादपत्र के साथ प्रस्तुत किया हो और उसकी प्रति दी हो।
17. दुकान-बही (shop-book) का प्रस्तुत करना।
(1) बैंकर्स बुक्स एविडेंस एक्ट के अंतर्गत दिए गए प्रावधानों को छोड़कर, यदि वादी जिस दस्तावेज़ पर वाद करता है वह उसकी दुकान-बही या खाता-बही में प्रविष्टि है, तो उसे वादपत्र के साथ वह बही और प्रविष्टि की प्रति प्रस्तुत करनी होगी।
(2) मूल प्रविष्टि को पहचान के लिए चिह्नित किया जाएगा और जाँचकर यदि प्रति सही पाई जाती है तो प्रमाणित की जाएगी और मूल बही वादी को लौटा दी जाएगी तथा प्रति न्यायालय में फाइल की जाएगी।
18. [वादपत्र के साथ प्रस्तुत न किए गए दस्तावेजों की अस्वीकार्यता]— निरस्त कर दिया गया है।
Order VIII – लिखित कथन,
सम-प्रतिदाय (set-off) और प्रति-दावा (counter-claim)
नियम 1 – लिखित कथन (Written Statement)
प्रतिवादी (Defendant) को, उस पर समन (summons) की सेवा (service) की तारीख से तीस दिनों (30 days) के भीतर, अपने बचाव का एक लिखित कथन (written statement) प्रस्तुत करना होगा।
बशर्ते कि यदि प्रतिवादी उक्त तीस दिनों की अवधि के भीतर लिखित कथन प्रस्तुत करने में विफल रहता है, तो उसे ऐसी अन्य तारीख पर लिखित कथन प्रस्तुत करने की अनुमति दी जा सकती है, जो न्यायालय द्वारा, लिखित रूप में कारण दर्ज करके और ऐसे खर्चे (costs) के भुगतान पर जो न्यायालय उपयुक्त समझे, निर्धारित की जाए; लेकिन वह तारीख समन की सेवा की तारीख से एक सौ बीस दिन (120 days) से अधिक नहीं हो सकती, और समन की सेवा की तारीख से एक सौ बीस दिन पूरे हो जाने पर, प्रतिवादी लिखित कथन प्रस्तुत करने का अधिकार खो देगा, और न्यायालय उसके लिखित कथन को अभिलेख पर लेने की अनुमति नहीं देगा।
नियम 1A – प्रतिवादी का कर्तव्य कि वह वे दस्तावेज प्रस्तुत करे जिन पर वह राहत (relief) का दावा करता है या जिन पर वह भरोसा करता है
(1) जब प्रतिवादी अपने बचाव (defence) को किसी दस्तावेज़ पर आधारित करता है या अपने पास या अधिकार (possession or power) में किसी दस्तावेज़ पर भरोसा करता है, अपने बचाव, सम-प्रतिदाय (set-off) या प्रति-दावा (counter-claim) के समर्थन में, तो उसे ऐसे दस्तावेज़ को एक सूची में दर्ज करना होगा, और जब वह लिखित कथन प्रस्तुत करता है, तो उसे न्यायालय में प्रस्तुत करना होगा, और उसी समय, उस दस्तावेज़ और उसकी एक प्रति को लिखित कथन के साथ दाखिल करना होगा।
(2) यदि ऐसा कोई दस्तावेज़ प्रतिवादी के पास या अधिकार में नहीं है, तो उसे जहाँ तक संभव हो, यह बताना होगा कि वह दस्तावेज़ किसके पास या अधिकार में है।
(3) कोई ऐसा दस्तावेज़ जो इस नियम के अंतर्गत प्रतिवादी द्वारा न्यायालय में प्रस्तुत किया जाना चाहिए था, लेकिन प्रस्तुत नहीं किया गया, तो बिना न्यायालय की अनुमति के, उस दस्तावेज़ को मुकदमे की सुनवाई में प्रतिवादी के पक्ष में साक्ष्य (evidence) के रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा।
(4) इस नियम की कोई भी बात निम्नलिखित दस्तावेज़ों पर लागू नहीं होगी–
(a) ऐसे दस्तावेज़ जो वादी के गवाहों से जिरह (cross-examination) के लिए प्रस्तुत किए गए हों; या
(b) ऐसे दस्तावेज़ जो केवल किसी गवाह की स्मृति ताज़ा (refresh memory) करने के लिए उसे दिए गए हों।
नियम 2 – नए तथ्य (new facts) विशेष रूप से कथित (pleaded) किए जाने चाहिए
प्रतिवादी को अपने उत्तरपत्र (written statement) में उन सभी बातों को स्पष्ट रूप से उठाना होगा जो दिखाती हैं कि–
• वाद (suit) स्वीकृत नहीं किया जा सकता (not maintainable), या
• लेन-देन (transaction) कानून की दृष्टि से शून्य (void) या शून्यकरणीय (voidable) है, और
• वे सभी प्रतिरक्षा के आधार (grounds of defence) जो अगर नहीं उठाए गए, तो सामने वाले पक्ष को अचानक (surprise) में डाल सकते हैं, या
• वे तथ्य जो वाद-पत्र (plaint) में नहीं उठाए गए तथ्यों से संबंधित मुद्दों को जन्म देते हों,
जैसे कि: धोखाधड़ी (fraud), सीमा-काल (limitation), विमोचन (release), भुगतान (payment), पालन (performance), या अवैधता (illegality) दिखाने वाले तथ्य।
नियम 3 – अस्वीकार (denial) विशिष्ट (specific) होना चाहिए
प्रतिवादी के लिए यह पर्याप्त नहीं है कि वह सामान्य रूप से वादी द्वारा लगाए गए तथ्यों का खंडन (denial) कर दे। उसे हर एक तथ्यात्मक आरोप (allegation of fact) के साथ विशेष रूप से (specifically) निपटना होगा, जिसकी सच्चाई वह स्वीकार नहीं करता, सिवाय हानि-क्षति (damages) के आरोपों को छोड़कर।
नियम 3A – वाणिज्यिक प्रभाग (Commercial Division) या वाणिज्यिक न्यायालय (Commercial Court) में वादों में प्रतिवादी द्वारा अस्वीकार
(यह नियम केवल “वाणिज्यिक विवादों की निर्दिष्ट मूल्य” वाले मामलों में लागू होता है – अधिनियम 4, 2016 द्वारा)
(1) अस्वीकार (denial) को इस नियम के उप-नियम (2), (3), (4), और (5) में दिए गए तरीके से करना होगा।
(2) प्रतिवादी को अपने लिखित कथन में यह स्पष्ट करना होगा कि:
• वाद-पत्र (plaint) के किन तथ्यों को वह अस्वीकार करता है (denies),
• किन तथ्यों को वह स्वीकार या अस्वीकार करने में असमर्थ है, लेकिन जिनके लिए वह वादी से प्रमाण (proof) चाहता है, और
• किन तथ्यों को वह स्वीकार करता है (admits)।
(3) यदि प्रतिवादी वाद-पत्र में किसी तथ्य को अस्वीकार करता है, तो उसे इसके कारण (reasons) बताने होंगे, और यदि वह वादी द्वारा दी गई घटनाओं की अलग कहानी प्रस्तुत करना चाहता है, तो उसे अपनी कहानी भी बतानी होगी।
(4) यदि प्रतिवादी न्यायालय के क्षेत्राधिकार (jurisdiction) को चुनौती देता है, तो उसे इसके कारण बताने होंगे, और यदि संभव हो, तो यह भी बताना होगा कि कौन-सा न्यायालय उपयुक्त है।
(5) यदि प्रतिवादी वादी द्वारा दी गई वाद-की-प्रस्तुति (valuation of the suit) को चुनौती देता है, तो उसे इसके कारण बताने होंगे, और यदि संभव हो, तो वह अपनी मूल्यांकन राशि (own valuation) भी दे।
नियम 4 – बचाव स्वरूप का अस्वीकार (Evasive denial)
यदि प्रतिवादी वाद-पत्र (plaint) में किए गए किसी तथ्यात्मक आरोप (allegation of fact) को अस्वीकार करता है, तो वह बहानेबाज़ी (evasive) तरीके से ऐसा नहीं कर सकता, बल्कि मुख्य बिंदु (point of substance) का उत्तर देना होगा।
उदाहरण के लिए: यदि यह आरोप लगाया गया है कि प्रतिवादी ने कोई निश्चित राशि प्राप्त की है, तो यह कहना पर्याप्त नहीं होगा कि उसने उसी निश्चित राशि को प्राप्त नहीं किया, बल्कि उसे यह कहना होगा कि उसने वह राशि या उसका कोई भी भाग प्राप्त नहीं किया, या फिर यह स्पष्ट करना होगा कि उसने कितनी राशि प्राप्त की।
और यदि कोई आरोप विविध परिस्थितियों (diverse circumstances) के साथ लगाया गया है, तो केवल उन परिस्थितियों सहित आरोप का खंडन (denial) कर देना पर्याप्त नहीं होगा।
नियम 5 – विशिष्ट अस्वीकार (Specific denial)
(1) वाद-पत्र (plaint) में किया गया हर तथ्यात्मक आरोप (allegation of fact) यदि प्रतिवादी द्वारा–
• विशेष रूप से (specifically) या
• आवश्यक निष्कर्ष (necessary implication) द्वारा या
• स्वीकार नहीं किया गया (not admitted) कहकर,
उत्तर में अस्वीकार नहीं किया जाता, तो उसे स्वीकार किया हुआ (admitted) माना जाएगा, जब तक कि वह किसी अशक्त व्यक्ति (person under disability) के विरुद्ध न हो।
बशर्ते कि न्यायालय अपने विवेक से यह निर्देश दे सकता है कि ऐसा कोई स्वीकृत तथ्य केवल स्वीकृति के आधार पर सिद्ध न माना जाए, बल्कि उसे अन्य साधनों से सिद्ध किया जाए।
बशर्ते आगे यह भी कि, यदि वाद-पत्र का कोई भी तथ्य नियम 3A में निर्धारित तरीके से अस्वीकार नहीं किया गया है, तो उसे स्वीकार किया हुआ माना जाएगा, सिवाय उस स्थिति के जब वह किसी अशक्त व्यक्ति के विरुद्ध हो।
(2) यदि प्रतिवादी ने कोई उत्तरपत्र (pleading) दाखिल नहीं किया है, तो न्यायालय को यह अधिकार होगा कि वह वाद-पत्र में वर्णित तथ्यों के आधार पर निर्णय (judgment) दे सके, सिवाय अशक्त व्यक्ति के विरुद्ध, परंतु न्यायालय अपने विवेक से यह निर्देश दे सकता है कि ऐसे तथ्यों को सिद्ध किया जाए।
(3) उप-नियम (1) के बशर्ते खंड या उप-नियम (2) के तहत विवेक का प्रयोग करते समय, न्यायालय इस तथ्य पर ध्यान देगा कि क्या प्रतिवादी ने कोई वकील (pleader) नियुक्त किया हो सकता था या किया है।
(4) जब भी इस नियम के अंतर्गत कोई निर्णय (judgment) सुनाया जाए, तो उसके अनुसार एक डिक्री (decree) तैयार की जाएगी, और उस डिक्री की तिथि वही होगी जिस दिन निर्णय सुनाया गया हो।
नियम 6 – सेट ऑफ (Set-off) का विवरण लिखित कथन में देना होगा
(1) जब धन की वसूली का दावा किया गया हो और प्रतिवादी, वादी से प्राप्त होने वाली कोई सुनिश्चित और वैध राशि प्रतिशोध (set-off) के रूप में दावा करे, जो न्यायालय की अधिकार सीमा से अधिक न हो, और दोनों पक्ष वही स्थिति रखते हों जो वादी के दावे में है, तब प्रतिवादी पहले सुनवाई में (बाद में केवल न्यायालय की अनुमति से) लिखित कथन में उस set off राशि का पूरा विवरण दे सकता है।
(2) Set off का प्रभाव – ऐसा लिखित कथन प्रतिवाद के रूप में दायर याचिका के समान प्रभावी होगा ताकि न्यायालय मूल दावे और प्रतिशोध दोनों पर अंतिम निर्णय दे सके। लेकिन इससे अधिवक्ता का डिक्री की गई राशि पर, अपने खर्चों की वसूली के अधिकार (lien) पर कोई असर नहीं होगा।
(3) प्रतिशोध के उत्तर में दायर लिखित कथन पर वही नियम लागू होंगे जो सामान्य लिखित कथन पर होते हैं।
उदाहरण:
(a) C, B को 2000 रु. की वसीयत देता है। B की मृत्यु के बाद D उसका उत्तराधिकारी बनता है। C, D के लिए 1000 रु. की जमानत देता है। D फिर C से विरासत की राशि मांगता है। C set off नहीं ले सकता क्योंकि दोनों एक समान स्थिति में नहीं हैं।
(b) A की मृत्यु के बाद B को कर्ज देना बाकी है। C उसकी संपत्ति का प्रबंध करता है और B को कुछ वस्तुएं बेचता है। C खरीद मूल्य का दावा करता है, B अपने कर्ज का प्रतिशोध नहीं ले सकता क्योंकि C दो अलग भूमिकाओं में है – A का प्रतिनिधि और विक्रेता।
(c) A, B पर बिल ऑफ एक्सचेंज के लिए मुकदमा करता है। B कहता है कि A ने बीमा नहीं कराया जिससे नुकसान हुआ। क्षतिपूर्ति की राशि निश्चित नहीं है, अतः प्रतिशोध नहीं किया जा सकता।
(d) A, B से 500 रु. के बिल ऑफ एक्सचेंज पर मुकदमा करता है। B के पास A के खिलाफ 1000 रु. की डिक्री है। दोनों दावे निश्चित हैं, इसलिए set off किया जा सकता है।
(e) A, B पर अतिक्रमण (trespass) के लिए हर्जाना चाहता है। B के पास A का 1000 रु. का वचन पत्र है। B set off कर सकता है।
(f) A और B, C पर 1000 रु. का दावा करते हैं। C A से अपनी वसूली का set off नहीं ले सकता।
(g) A, B और C से 1000 रु. का दावा करता है। B, A से अपने व्यक्तिगत ऋण का set off हीं ले सकता।
(h) A, B और C की साझेदारी फर्म को 1000 रु. देना है। B की मृत्यु के बाद A, C से 1500 रु. का दावा करता है। C 1000 रु. का set off ले सकता है।
नियम 6A – प्रतिवादी द्वारा प्रत्यावेदन (Counter-claim)
(1) प्रतिवादी, set-off के अतिरिक्त, वादी के खिलाफ अपनी कोई भी वैध मांग (damages सहित या बिना) जो उसे वादी के खिलाफ प्राप्त हो, जो कि वाद दायर करने से पहले या बाद में उत्पन्न हुई हो लेकिन अपने लिखित कथन देने से पहले उत्पन्न हुई हो, को counter-claim के रूप में पेश कर सकता है।
बशर्ते वह दावा न्यायालय की अधिकार सीमा से अधिक न हो।
(2) ऐसा counter-claim प्रतिवादी की ओर से दायर याचिका के समान माना जाएगा जिससे कि न्यायालय मूल वाद और counter-claim दोनों पर एक साथ निर्णय दे सके।
(3) वादी counter-claim के उत्तर में निर्धारित समय में लिखित कथन दे सकता है।
(4) Counter-claim को याचिका के रूप में माना जाएगा और उस पर वही नियम लागू होंगे।
नियम 6B – प्रत्यावेदन counter-claim का उल्लेख
अगर प्रतिवादी counter-claim का आधार बनाना चाहता है, तो उसे अपने लिखित कथन में स्पष्ट रूप से उल्लेख करना होगा कि वह इसे counter-claim के रूप में पेश कर रहा है।
नियम 6C – प्रत्यावेदन counter-claim को हटाना
अगर वादी का मानना हो कि counter-claim स्वतंत्र वाद में निपटाया जाना चाहिए, तो वह मुद्दों के तय होने से पहले न्यायालय से प्रार्थना कर सकता है। न्यायालय उचित आदेश पारित कर सकता है।
नियम 6D – वाद समाप्त होने पर भी प्रत्यावेदन counter-claim जारी रह सकता है
अगर वादी का वाद स्थगित, समाप्त या खारिज हो जाता है, फिर भी प्रतिवादी का counter-claim आगे बढ़ाया जा सकता है।
नियम 6E – वादी प्रत्यावेदन counter-claim का उत्तर न दे तो
यदि वादी counter-claim का उत्तर नहीं देता, तो न्यायालय उसके विरुद्ध निर्णय दे सकता है या अन्य उचित आदेश दे सकता है।
नियम 6F – प्रत्यावेदन counter-claim सफल होने पर राहत
अगर वाद में set-off या counter-claim को सिद्ध कर दिया जाता है और किसी पक्ष के पक्ष में कोई शेष राशि निकलती है, तो न्यायालय उस पक्ष के पक्ष में निर्णय दे सकता है।
नियम 6G – प्रत्यावेदन counter-claim के उत्तर पर वही नियम
counter-claim के उत्तर में दायर लिखित कथन पर वही नियम लागू होंगे जो प्रतिवादी के लिखित कथन पर होते हैं।
नियम 7 – पृथक आधार पर रक्षा या प्रतिशोध
अगर प्रतिवादी अलग-अलग तथ्यों पर आधारित कई रक्षा या set-off या counter-claim का आधार लेता है, तो उसे उन्हें अलग-अलग और स्पष्ट रूप से बताना होगा।
नियम 8 – नया बचाव का आधार
यदि कोई नया बचाव का आधार वाद दायर होने के बाद या लिखित कथन के बाद उत्पन्न होता है, तो उसे भी प्रतिवादी (या वादी, जैसा मामला हो) अपने लिखित कथन में पेश कर सकता है।
नियम 8A – हटाया गया है।
नियम 9 – आगे कोई याचिका (Subsequent Pleading) केवल अनुमति से
प्रतिवादी के लिखित कथन के बाद कोई और याचिका (set-off या counter-claim के उत्तर को छोड़कर) तभी दी जा सकती है जब न्यायालय अनुमति दे। न्यायालय किसी भी पक्ष से आगे का या अतिरिक्त लिखित कथन मांग सकता है और अधिकतम 30 दिन का समय दे सकता है।
नियम 10 – लिखित कथन (Written Statement) न देने पर प्रक्रिया
अगर कोई पक्ष, नियम 1 या 9 के अंतर्गत लिखित कथन समय पर नहीं देता, तो न्यायालय उसके विरुद्ध निर्णय दे सकता है या उचित आदेश पारित कर सकता है और निर्णय के साथ डिक्री बनाई जाएगी।
बशर्ते न्यायालय नियम 1 के अंतर्गत लिखित कथन के लिए समय नहीं बढ़ा सकता।
आदेश – 9
पक्षकारों की उपस्थिति और अनुपस्थिति के परिणाम
1. समन में जो तारीख दी गई हो, उस दिन पक्षकारों की उपस्थिति अनिवार्य है।
जिस दिन के लिए प्रतिवादी को समन दिया गया है, उस दिन दोनों पक्ष (या उनके वकील) अदालत में उपस्थित रहेंगे और उस दिन मुकदमे की सुनवाई होगी, जब तक कि अदालत कोई अगली तारीख न दे।
2. वाद खारिज जब समन नहीं भेजा गया हो वादी की गलती से।
अगर यह पाया जाए कि समन प्रतिवादी को नहीं भेजा गया क्योंकि वादी ने न्याय शुल्क या डाक शुल्क जमा नहीं किया या आदेश VII नियम 9 के अनुसार प्रतिलिपियाँ नहीं दीं, तो अदालत वाद खारिज कर सकती है।
बशर्ते कि अगर प्रतिवादी उस दिन स्वयं या अधिकृत एजेंट के माध्यम से उपस्थित हो जाए, तो वाद खारिज नहीं किया जाएगा।
3. जब दोनों पक्ष उपस्थित न हों तो वाद खारिज।
अगर जब वाद सुनवाई के लिए बुलाया जाए और दोनों पक्ष उपस्थित न हों, तो अदालत वाद खारिज कर सकती है।
4. वादी नया वाद कर सकता है या वाद बहाल (restore) करा सकता है।
अगर वाद नियम 2 या 3 के तहत खारिज हो गया हो, तो वादी नया वाद कर सकता है (सीमा कानून के अनुसार) या खारिजी रद्द करने का आवेदन दे सकता है। अगर वह अदालत को उचित कारण बताता है, तो अदालत वाद बहाल कर सकती है और अगली तारीख तय करेगी।
5. समन लौट आने के बाद 7 दिन में नया समन न माँगने पर वाद खारिज।
अगर समन प्रतिवादी को नहीं दिया गया और वादी ने समन लौट आने के 7 दिन में नया समन माँगने का आवेदन नहीं किया, तो अदालत वाद खारिज कर देगी।
बशर्ते कि वादी यह साबित कर दे:
(a) उसने प्रतिवादी का पता जानने की पूरी कोशिश की
(b) प्रतिवादी जानबूझकर समन लेने से बच रहा है
(c) कोई अन्य उचित कारण हो
तो अदालत समय बढ़ा सकती है।
वादी नया वाद कर सकता है (सीमा अधिनियम के अनुसार)।
6. जब वादी उपस्थित हो और प्रतिवादी अनुपस्थित हो।
(1)
(a) अगर समन सही ढंग से दिया गया है, तो अदालत एकतरफा (ex parte) कार्यवाही करेगी।
(b) अगर समन सही ढंग से नहीं दिया गया, तो अदालत दूसरा समन जारी करेगी।
(c) अगर समन दिया गया लेकिन समय पर नहीं, तो अदालत सुनवाई आगे बढ़ाएगी और प्रतिवादी को सूचना देगी।
(2) अगर यह वादी की गलती से हुआ हो, तो वादी को खर्च भरने का आदेश दिया जाएगा।
7. प्रतिवादी की गैरहाज़िरी का कारण अच्छा हो तो उसे सुना जाएगा।
अगर एकतरफा सुनवाई के लिए तारीख तय हो गई हो और प्रतिवादी उस तारीख से पहले या उस दिन उपस्थित हो जाए और अपनी गैरहाज़िरी का अच्छा कारण बताए, तो अदालत उसे सुन सकती है जैसे कि वह पहले ही उपस्थित रहा हो।
8. जब प्रतिवादी आए लेकिन वादी अनुपस्थित हो।
अगर वादी उपस्थित न हो और प्रतिवादी आए:
→ अदालत वाद खारिज करेगी
→ लेकिन अगर प्रतिवादी दावे को पूरा या कुछ हिस्सा मान ले, तो उसी के अनुसार डिक्री पारित की जाएगी
→ बाकी दावे के लिए वाद खारिज होगा।
9. उपर्युक्त खारिजी के बाद वादी दोबारा वही वाद नहीं कर सकता।
(1) अगर वाद नियम 8 के तहत खारिज हो गया हो, तो वादी दोबारा वही वाद नहीं कर सकता।
→ लेकिन वह खारिजी रद्द कराने के लिए आवेदन कर सकता है।
→ अगर वह अपनी अनुपस्थिति का उचित कारण बताए, तो अदालत वाद बहाल कर सकती है और अगली तारीख देगी।
(2) ऐसा कोई आदेश तब तक नहीं होगा जब तक कि इसका नोटिस विपक्षी पक्ष को न दिया गया हो।
10. कई वादियों में से कुछ न आएं तो कार्यवाही आगे बढ़ सकती है।
अगर एक से ज्यादा वादी हैं और कुछ नहीं आते, तो अदालत उपस्थित वादी की इच्छा पर कार्यवाही आगे बढ़ा सकती है या उचित आदेश दे सकती है।
11. कई प्रतिवादियों में से कुछ न आएं तो कार्यवाही आगे बढ़ेगी।
अगर एक से ज्यादा प्रतिवादी हैं और कुछ नहीं आते, तो कार्यवाही चलेगी और जो अनुपस्थित हैं उनके खिलाफ उपयुक्त आदेश होगा।
12. जिसे व्यक्तिगत रूप से आने का आदेश दिया गया हो और न आए, तो नियम लागू होंगे।
अगर कोई वादी या प्रतिवादी जिसे व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का आदेश दिया गया था, न आए और उचित कारण न बताए, तो उसके ऊपर वही नियम लागू होंगे जो अन्य अनुपस्थित पक्षों पर लागू होते हैं।
एकतरफा डिक्री हटाना (Setting aside ex parte decrees)
13. एकतरफा डिक्री हटाने का नियम।
अगर प्रतिवादी के खिलाफ एकतरफा डिक्री पारित हो गई हो, तो वह अदालत में आवेदन कर सकता है डिक्री हटाने के लिए।
→ अगर वह साबित करता है कि समन सही से नहीं दिया गया था या उचित कारण से वह उपस्थित नहीं हो सका,
→ तो अदालत डिक्री हटाएगी और अगली तारीख देगी।
बशर्ते कि अगर डिक्री को केवल उस प्रतिवादी के विरुद्ध नहीं हटाया जा सकता, तो अन्य प्रतिवादियों के खिलाफ भी हटाया जा सकता है।
बशर्ते भी कि केवल समन देने में त्रुटि होने के कारण डिक्री नहीं हटेगी अगर प्रतिवादी को सुनवाई की जानकारी और पर्याप्त समय था।
व्याख्या – अगर उस एकतरफा डिक्री के खिलाफ अपील की गई थी और वह खारिज हो गई थी (सिवाय इसके कि अपील वापस ले ली गई हो), तो नया आवेदन स्वीकार नहीं होगा।
14. बिना नोटिस के डिक्री नहीं हटेगी।
कोई भी डिक्री तब तक नहीं हटाई जाएगी जब तक कि विपक्षी पक्ष को उसके आवेदन का नोटिस न दे दिया गया हो।
आदेश 10
Examination of parties by the court
न्यायालय द्वारा पक्षकारों की परीक्षा
1. यह पता लगाना कि याचिका में दिए गए कथनों को स्वीकार किया गया है या नहीं किया गया है –
मुकदमे की पहली सुनवाई पर, न्यायालय प्रत्येक पक्षकार या उसके वकील से यह पता लगाएगा कि वह प्रतिपक्ष द्वारा वादपत्र (plaint) या लिखित कथन (written statement) में किए गए उन तथ्यों के कथनों को स्वीकार करता है या नहीं, जिन्हें न तो स्पष्ट रूप से और न ही आवश्यक निहितार्थ (necessary implication) से उस पक्षकार द्वारा स्वीकार या अस्वीकार किया गया है जिसके विरुद्ध वे कथन किए गए हैं।
न्यायालय ऐसे स्वीकृतियों (admissions) और अस्वीकृतियों (denials) को अभिलिखित (record) करेगा।
1A. न्यायालय द्वारा वैकल्पिक विवाद समाधान (ADR) के किसी एक प्रकार को चुनने का निर्देश –
स्वीकृतियों और अस्वीकृतियों को अभिलिखित करने के बाद, न्यायालय मुकदमे के पक्षकारों को धारा 89 की उपधारा (1) में निर्दिष्ट, न्यायालय के बाहर समाधान के किसी एक तरीके को चुनने का निर्देश देगा।
पक्षकारों द्वारा विकल्प चुने जाने पर, न्यायालय पक्षकारों की उपस्थिति की तिथि उस मंच (forum) या प्राधिकरण (authority) के समक्ष निर्धारित करेगा जिसे उन्होंने चुना है।
[धारा 89 के अनुसार: मध्यस्थता (arbitration), सुलह (conciliation), न्यायालयीन सुलह (judicial settlement), लोक अदालत (Lok Adalat) या मध्यस्थता (mediation)]
1B. सुलह मंच (concialiation forum) या प्राधिकरण के समक्ष उपस्थिति :–
जहाँ किसी मुकदमे को नियम 1A के अंतर्गत भेजा गया है, वहाँ पक्षकार उस मंच या प्राधिकरण के समक्ष उपस्थिति देंगे ताकि मुकदमे का सुलह (conciliation) किया जा सके।
1C. सुलह की कोशिश असफल होने के बाद न्यायालय के समक्ष उपस्थिति –
जहाँ कोई मुकदमा नियम 1A के तहत भेजा गया है, और सुलह मंच या प्राधिकरण का अध्यक्ष यह संतुष्ट होता है कि न्याय के हित में आगे बढ़ना उचित नहीं है, तो वह उस मामले को फिर से न्यायालय को वापस भेज देगा और पक्षकारों को उस दिन न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने का निर्देश देगा जो वह तय करेगा।
2. पक्षकार या उसके साथ आए व्यक्ति की मौखिक परीक्षा –
(1) मुकदमे की पहली सुनवाई पर, न्यायालय : –
(a) वाद में विवादित विषयों को स्पष्ट करने के उद्देश्य से, ऐसे पक्षकारों को जो स्वयं उपस्थित हैं या न्यायालय में मौजूद हैं, न्यायालय उचित समझे तो मौखिक रूप से परीक्षा करेगा; और
(b) ऐसे किसी भी व्यक्ति को, जो वाद से संबंधित कोई महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम हो और जो उपस्थित पक्षकार या उसके वकील के साथ आया हो, मौखिक रूप से परीक्षा कर सकता है।
(2) किसी भी बाद की सुनवाई में, न्यायालय ऐसे किसी भी पक्षकार को जो स्वयं उपस्थित हो या न्यायालय में मौजूद हो, या ऐसे किसी भी व्यक्ति को जो महत्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम हो, मौखिक रूप से परीक्षा कर सकता है।
(3) न्यायालय, यदि उचित समझे, तो इस नियम के अंतर्गत परीक्षा के दौरान, किसी भी पक्ष द्वारा सुझाए गए प्रश्न पूछ सकता है।
3. परीक्षा का सार लेखबद्ध किया जाएगा –
परीक्षा (examination) का सार (substance) न्यायाधीश द्वारा लिखित रूप में अभिलिखित (reduce to writing) किया जाएगा और वह रिकार्ड का हिस्सा बनेगा।
4. यदि वकील उत्तर देने में असमर्थ हो या मना करे तो परिणाम –
(1) जहाँ कोई पक्षकार वकील द्वारा प्रस्तुत होता है या उसके साथ कोई ऐसा व्यक्ति होता है जैसा नियम 2 में उल्लेखित है, और वह कोई ऐसा महत्वपूर्ण प्रश्न जो न्यायालय की राय में उस पक्षकार को उत्तर देना चाहिए और वह स्वयं उत्तर दे सकता है, उसका उत्तर देने में असमर्थ हो या मना कर दे, तो न्यायालय –
[मुकदमे की सुनवाई को पहली सुनवाई की तारीख से अधिकतम सात दिन बाद की तिथि तक स्थगित कर सकता है]
और ऐसा निर्देश दे सकता है कि वह पक्षकार स्वयं उस दिन न्यायालय में उपस्थित हो।
(2) यदि वह पक्षकार बिना वैध कारण उस दिन स्वयं उपस्थित नहीं होता, तो न्यायालय उसके विरुद्ध निर्णय (judgment) दे सकता है, या मुकदमे से संबंधित ऐसा आदेश दे सकता है जैसा वह उचित समझे।
Order-11
वाणिज्यिक मुकदमों में दस्तावेजों का प्रकटीकरण
(Disclosure), पूछताछ (Discovery) और निरीक्षण (Inspection)
Rule 1 – दस्तावेजों का प्रकटीकरण और पूछताछ
(1) वादी (Plaintiff) को यह करना होगा:
• अपनी शक्तियों, कब्जे, नियंत्रण या संरक्षा (custody) में मौजूद सभी दस्तावेजों की सूची और उनकी फोटोप्रति (photocopies), जो वाद (Suit) से संबंधित हों, वाद-पत्र (plaint) के साथ दाखिल करनी होगी, जिसमें निम्नलिखित दस्तावेज़ शामिल होंगे:
(a) वे दस्तावेज़ जिनका वादी ने वाद-पत्र में उल्लेख किया है और जिनपर वह भरोसा करता है।
(b) वे दस्तावेज़ जो वाद में विवादित विषय से संबंधित हैं और जो वादी के पास, कब्जे, नियंत्रण या संरक्षा में वाद दायर करने की तारीख को थे, चाहे वे वादी के पक्ष में हों या खिलाफ।
(c) इस नियम का लागू होना आवश्यक नहीं है उन दस्तावेजों पर जो:
(i) प्रतिवादी के गवाहों की जिरह (cross-examination) के लिए लाए गए हों,
(ii) प्रतिवादी द्वारा वाद-पत्र दाखिल करने के बाद प्रस्तुत किए गए मामले के उत्तर में हों,
(iii) केवल किसी गवाह की स्मृति ताज़ा करने के लिए उसे दिखाए गए हों।
(2) वाद-पत्र के साथ दाखिल दस्तावेजों की सूची में यह उल्लेख करना होगा कि दस्तावेज़ मूल (original), कार्यालय प्रति (office copy) या फोटोप्रति (photocopy) हैं, और यह भी कि:
• प्रत्येक दस्तावेज में किन पक्षों का नाम है,
• दस्तावेज कैसे निष्पादित (executed), जारी (issued) या प्राप्त (received) हुआ,
• और वह किसके पास रहा है (custody की रेखा)।
(3) वादी को शपथपत्र में यह घोषणा करनी होगी कि:
• उसकी शक्ति, कब्जे, नियंत्रण या संरक्षा में जो भी दस्तावेज वाद से संबंधित हैं, वे सभी प्रकटीकरण में दिए गए हैं,
• और उनकी प्रति वाद-पत्र के साथ संलग्न की गई है,
• और उसके पास कोई अन्य संबंधित दस्तावेज नहीं है।
स्पष्टीकरण: यह शपथ “सत्य का कथन” (Statement of Truth) के रूप में दी जाएगी जैसा परिशिष्ट (Appendix) में दर्शाया गया है।
(4) अगर वादी को किसी अर्जेंसी में वाद दायर करना हो, तो वह कोर्ट से अनुमति लेकर शपथपत्र में यह कह सकता है कि वह अतिरिक्त दस्तावेजों पर भरोसा करना चाहता है। ऐसी अनुमति मिलने पर, वादी को वाद दायर करने के 30 दिनों के भीतर:
• वे अतिरिक्त दस्तावेज कोर्ट में दाखिल करने होंगे,
• और शपथपत्र में यह घोषित करना होगा कि उसके पास वाद से संबंधित सभी दस्तावेज दाखिल कर दिए गए हैं और अन्य कोई दस्तावेज उसके पास नहीं है।
(5) वादी को ऐसे दस्तावेजों पर भरोसा करने की अनुमति नहीं होगी जो:
• वाद-पत्र के साथ या उपरोक्त समय सीमा में दाखिल नहीं किए गए हों,
बशर्ते, कोर्ट अनुमति दे और वादी यह सिद्ध करे कि दस्तावेज़ पहले क्यों नहीं दाखिल किए गए, इसका युक्तियुक्त कारण (reasonable cause) था।
(6) वादी को वाद-पत्र में यह भी लिखना होगा कि:
• वे कौन से दस्तावेज़ हैं जो वादी को लगता है कि प्रतिवादी के पास, कब्जे, नियंत्रण या संरक्षा में हैं,
• और जिनपर वादी भरोसा करना चाहता है,
• और वह कोर्ट से अनुरोध करता है कि प्रतिवादी को वे दस्तावेज पेश करने का आदेश दे।
(7) प्रतिवादी को यह करना होगा:
• अपनी शक्तियों, कब्जे, नियंत्रण या संरक्षा में मौजूद सभी दस्तावेजों की सूची और फोटोप्रति लिखित बयान (written statement) या प्रतिदावा (counter-claim) के साथ दाखिल करनी होगी, जिनमें शामिल होंगे:
(a) वे दस्तावेज जिनका प्रतिवादी ने लिखित बयान में उल्लेख किया है और जिनपर वह भरोसा करता है।
(b) वे दस्तावेज जो वाद से संबंधित हैं, चाहे वे प्रतिवादी के पक्ष में हों या खिलाफ।
(c) इस नियम का लागू होना आवश्यक नहीं है उन दस्तावेजों पर जो:
(i) वादी के गवाहों की जिरह (cross-examination) के लिए हों,
(ii) वादी द्वारा वाद-पत्र दायर करने के बाद प्रस्तुत मामले के उत्तर में हों,
(iii) केवल किसी गवाह की स्मृति ताज़ा करने के लिए उसे दिखाए गए हों।
(8) प्रतिवादी द्वारा दाखिल दस्तावेजों की सूची में यह उल्लेख होगा कि:
• दस्तावेज़ मूल, कार्यालय प्रति या फोटोप्रति हैं,
• और संक्षेप में यह विवरण भी दिया जाएगा कि दस्तावेज़ किन पक्षों के बीच है,
• वह कैसे निष्पादित, जारी या प्राप्त हुआ,
• और वह किन-किन के पास रहा है।
(9) लिखित बयान या प्रतिदावा में प्रतिवादी को शपथपत्र में यह घोषणा करनी होगी कि:
• उसकी शक्ति, कब्जे, नियंत्रण या संरक्षा में जो भी दस्तावेज़ वाद से संबंधित हैं (उप-नियम 7(c)(iii) को छोड़कर), वे सभी प्रकटीकरण में दिए गए हैं,
• उनकी प्रतियाँ संलग्न की गई हैं,
• और उसके पास अन्य कोई दस्तावेज नहीं है।
(10) उप-नियम 7(c)(iii) को छोड़कर, प्रतिवादी को ऐसे दस्तावेज़ों पर भरोसा करने की अनुमति नहीं होगी जो:
• लिखित बयान या प्रतिदावा के साथ दाखिल नहीं किए गए हों,
बशर्ते, कोर्ट यह अनुमति दे और प्रतिवादी यह सिद्ध करे कि ऐसा न करने का कोई युक्तियुक्त कारण था।
(11) प्रतिवादी को लिखित बयान या प्रतिदावा में यह विवरण देना होगा:
• वे दस्तावेज़ जो वादी के कब्जे, नियंत्रण, संरक्षा या शक्ति में हैं,
• और जिनपर प्रतिवादी भरोसा करना चाहता है,
• और वादी से उन्हें पेश करने का अनुरोध करेगा।
(12) दस्तावेज़ों का प्रकटीकरण करने का कर्तव्य वाद के निपटारे तक जारी रहेगा।
Rule 2 Discovery by Interrogatories – प्रश्नावली द्वारा खोज
(1) किसी भी मुकदमे में, याचिका की अनुमति से, मुकदमे के वादी (Plaintiff) या प्रतिवादी (Defendant) लिखित रूप में प्रश्नावली (Interrogatories) दे सकते हैं,
जिसमें विरोधी पक्ष या उनके एक या अधिक सदस्यों से परीक्षा के लिए प्रश्न पूछे जाते हैं,
और ऐसी प्रश्नावली में नीचे एक नोट होगा जिसमें बताया जाएगा कि किस व्यक्ति को कौन-कौन से प्रश्नों के उत्तर देने हैं:
बशर्ते कि कोई भी पक्ष एक ही पक्ष को एक से अधिक सेट की प्रश्नावली बिना विशेष आदेश के नहीं दे सकता।
बशर्ते आगे कि जो प्रश्न मुकदमे के विषय से संबंधित नहीं होंगे, वे प्रासंगिक नहीं माने जाएंगे, भले ही वे गवाह की मौखिक परीक्षा में स्वीकार्य हों।
(2) प्रश्नावली देने की अनुमति के लिए आवेदन पर, प्रस्तावित प्रश्नावली न्यायालय को प्रस्तुत की जाएगी,
और न्यायालय आवेदन दर्ज होने के दिन से सात दिनों के अंदर निर्णय देगा,
इस निर्णय में न्यायालय उस पक्ष द्वारा किये गये किसी भी प्रस्ताव को ध्यान में रखेगा जिसमें विवरण देने, स्वीकार करने या मामले से संबंधित दस्तावेज दिखाने की पेशकश हो,
और अनुमति केवल उन्हीं प्रश्नावली के लिए दी जाएगी जिन्हें न्यायालय उचित समझे या मुकदमे के न्यायसंगत निपटारे या खर्च बचाने के लिए आवश्यक समझे।
(3) मुकदमे के खर्च के निर्धारण में, किसी भी पक्ष के अनुरोध पर यह जांच होगी कि प्रश्नावली क्यों दिखाई गई, और यदि जांच अधिकारी या न्यायालय के विचार में यह अनुचित, परेशान करने वाली, या अत्यधिक लंबी हो, तो प्रश्नावली और उसके उत्तरों से हुए खर्च की भरपाई गलती करने वाले पक्ष द्वारा की जाएगी।
(4) प्रश्नावली फॉर्म नंबर 2, परिशिष्ट C में निर्धारित रूप में दी जाएगी, परिस्थिति के अनुसार आवश्यक परिवर्तन के साथ।
(5) यदि मुकदमे में कोई पक्ष कोई कंपनी या व्यक्ति समूह है, चाहे वह पंजीकृत हो या नहीं, और उसे कानून के तहत मुकदमा करने या सामना करने का अधिकार हो,
तो विरोधी पक्ष उस कंपनी या समूह के किसी सदस्य या अधिकारी को प्रश्नावली देने के आदेश के लिए आवेदन कर सकता है, और न्यायालय ऐसा आदेश दे सकता है।
(6) किसी प्रश्न का उत्तर देने से मना करने का कारण हो सकता है कि वह अपमानजनक, अप्रासंगिक, मुकदमे के लिए बायोना फाइदे के लिए नहीं है, या वह उस समय पर्याप्त महत्वपूर्ण नहीं है, या वह गोपनीयता का मामला है, या अन्य कोई कारण,
और ये आपत्तियां उत्तर में हलफनामे (Affidavit) में प्रस्तुत की जा सकती हैं।
(7) प्रश्नावली को हटाया (Set aside) जा सकता है यदि वे अनुचित, परेशान करने वाली, लंबी, अत्यधिक, अनावश्यक या अपमानजनक हों,
और इसके लिए आवेदन प्रश्नावली सेवा के सात दिनों के भीतर किया जा सकता है।
(8) प्रश्नावली के उत्तर हलफनामा (Affidavit) के रूप में दायर किए जाएंगे, जो दस दिनों के भीतर या न्यायालय द्वारा निर्धारित अन्य समय में दायर होंगे।
(9) उत्तर के हलफनामे का फॉर्म नंबर 3, परिशिष्ट C में निर्धारित होगा, परिस्थिति के अनुसार आवश्यक परिवर्तन के साथ।
(10) उत्तर वाले हलफनामे पर कोई आपत्ति (exceptions) नहीं की जाएगी,
लेकिन उनकी पर्याप्तता या अपर्याप्तता न्यायालय निर्धारित करेगा।
(11) यदि कोई व्यक्ति उत्तर देने में चूक करता है या अपर्याप्त उत्तर देता है,
तो प्रश्न पूछने वाला पक्ष न्यायालय से आदेश मांग सकता है कि उस व्यक्ति को उत्तर देना या और उत्तर देना होगा,
और न्यायालय आदेश दे सकता है कि वह उत्तर हलफनामे से दे या मौखिक परीक्षा (viva voce) से, जैसा न्यायालय निर्देशित करे।
Rule – 3 Inspection/ निरीक्षण
(1) सभी पक्षों को उन सभी दस्तावेजों का निरीक्षण मुकदमे में लिखित बयान या जवाबी दावा के लिखित बयान की तिथि से तीस दिनों के अंदर पूरा करना होगा, जो बाद वाला हो,
न्यायालय अपनी मर्जी से इस समय सीमा को आवेदन पर बढ़ा सकता है, लेकिन किसी भी स्थिति में यह सीमा तीस दिनों से अधिक नहीं होगी।
(2) मुकदमे के किसी भी पक्ष को, मुकदमे की किसी भी अवस्था में, न्यायालय से आदेश मांगने का अधिकार होगा कि वह उस दूसरे पक्ष के दस्तावेजों का निरीक्षण करे या वे दस्तावेज प्रस्तुत करे, जिनका निरीक्षण मना किया गया हो या जो नोटिस जारी होने के बावजूद प्रस्तुत नहीं किए गए हों।
(3) ऐसे आवेदन का निपटारा आवेदन के दाखिल होने के तीस दिनों के भीतर किया जाएगा, जिसमें जवाब और पुनरुत्तर (यदि न्यायालय अनुमति दे) और सुनवाई शामिल है।
(4) यदि ऊपर का आवेदन मंजूर हो जाता है, तो आदेश मिलने के पाँच दिनों के अंदर निरीक्षण और उसकी प्रतियां उस पक्ष को दी जाएंगी जो उसे चाहता है।
(5) कोई पक्ष उस दस्तावेज़ पर निर्भर नहीं कर सकता, जिसे उसने प्रकट नहीं किया है या जिसका निरीक्षण नहीं दिया गया है, सिवाय इसके कि न्यायालय की अनुमति हो।
(6) न्यायालय उस पक्ष के विरुद्ध दंडात्मक लागत लगा सकता है, जिसने जानबूझकर या लापरवाही से मुकदमे से संबंधित सभी दस्तावेज़ प्रकट नहीं किए, जो उसके पास, नियंत्रण या रखरखाव में हैं, या जहां न्यायालय यह मानता है कि निरीक्षण या प्रतियां गलत या अनुचित रूप से रोकी या मना की गई हैं।
Rule 5 – Admission and Denial of Documents
दस्तावेज़ों की स्वीकृति और इनकार
(1) प्रत्येक पक्ष निरीक्षण पूरा होने के पंद्रह दिनों के अंदर या न्यायालय द्वारा निर्धारित बाद की तिथि तक, सभी प्रकट किए गए दस्तावेज़ों के स्वीकृति या इनकार का विवरण प्रस्तुत करेगा।
(2) स्वीकृति और इनकार के विवरण में स्पष्ट रूप से बताना होगा कि पक्ष दस्तावेज के निम्नलिखित विषयों को स्वीकार कर रहा है या अस्वीकार कर रहा है:
(a) दस्तावेज की सामग्री की सटीकता;
(b) दस्तावेज का अस्तित्व;
(c) दस्तावेज़ का निष्पादन;
(d) दस्तावेज़ का जारी होना या प्राप्त होना;
(e) दस्तावेज़ की देखभाल।
स्पष्टीकरण: उप-धारा (2)(b) के अनुसार दस्तावेज के अस्तित्व का स्वीकृति या इनकार दस्तावेज की सामग्री के स्वीकृति या इनकार को भी शामिल करेगा।
(3) प्रत्येक पक्ष दस्तावेज के इनकार का कारण बताएगा, और केवल बिना कारण का इनकार दस्तावेज का इनकार नहीं माना जाएगा, और न्यायालय के आदेश पर ऐसे दस्तावेज़ का प्रमाण प्रस्तुत नहीं करना होगा।
(4) हालांकि, कोई भी पक्ष तीसरे पक्ष के दस्तावेजों के लिए केवल बिना कारण के इनकार प्रस्तुत कर सकता है, जिनके बारे में उसे व्यक्तिगत जानकारी नहीं है और जिसमें वह पक्ष नहीं है।
(5) स्वीकृति और इनकार के विवरण के समर्थन में हलफनामा दायर किया जाएगा, जिसमें विवरण की सटीकता की पुष्टि होगी।
(6) यदि न्यायालय पाए कि किसी पक्ष ने अनुचित रूप से दस्तावेज स्वीकार करने से इनकार किया है, तो न्यायालय उस पक्ष पर दस्तावेज की स्वीकार्यता के निर्णय के लिए लागत (दंडात्मक लागत सहित) लगा सकता है।
(7) न्यायालय स्वीकृत दस्तावेजों के संबंध में आदेश दे सकता है, जिसमें आगे प्रमाण की छूट या दस्तावेजों को खारिज करना शामिल है।
Rule 6 Electronic Records – इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख
(1) अगर इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख (जैसा कि सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (21/2000) में परिभाषित है) का खुलासा और निरीक्षण होता है, तो प्रिंटआउट देना ऊपर बताई गई शर्तों की पूर्ति के लिए पर्याप्त होगा।
(2) पक्षों की मर्जी से या जब आवश्यक हो (जैसे जब पक्ष ऑडियो या वीडियो सामग्री पर निर्भर करना चाहते हों), इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख की प्रतियां इलेक्ट्रॉनिक रूप में भी प्रिंटआउट के अलावा या उसकी जगह दी जा सकती हैं।
(3) जहां इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख दस्तावेजों का हिस्सा हों, पक्ष द्वारा दायर शपथ पत्र में निम्नलिखित बातें स्पष्ट होनी चाहिए–
(a) उस इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख के पक्ष;
(b) वह तरीका जिससे वह इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख तैयार किया गया और किसने बनाया;
(c) प्रत्येक इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख के तैयार करने, संग्रहित करने, जारी करने या प्राप्त करने की तारीख और समय;
(d) उस इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख का स्रोत और जिस दिन और समय इसे प्रिंट किया गया;
(e) ईमेल आईडी होने पर, उसकी स्वामित्व, रखरखाव और पहुँच का विवरण;
(f) कंप्यूटर या कंप्यूटर संसाधन (जिसमें बाहरी सर्वर या क्लाउड भी शामिल हैं) पर संग्रहित दस्तावेज़ होने पर, उस डेटा के स्वामित्व, रखरखाव और पहुँच का विवरण;
(g) शपथकर्ता का अभिलेख की सामग्री की जानकारी और उसकी सटीकता;
(h) कंप्यूटर या संसाधन जो अभिलेख बनाने, प्राप्त करने या संग्रहित करने के लिए उपयोग हुआ, क्या सही तरीके से कार्य कर रहा था या खराबी होने पर वह अभिलेख की सामग्री को प्रभावित नहीं करता;
(i) प्रिंटआउट या प्रति मूल कंप्यूटर या संसाधन से ली गई हो।
(4) जो पक्ष प्रिंटआउट या इलेक्ट्रॉनिक रूप में प्रतियों पर निर्भर करता है, उसे इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख का निरीक्षण देने की आवश्यकता नहीं होगी, बशर्ते कि वह पक्ष यह घोषणा करे कि प्रत्येक प्रति मूल इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख से बनाई गई है।
(5) न्यायालय किसी भी मुकदमे की किसी भी अवस्था में इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख की स्वीकृति के लिए निर्देश दे सकता है।
(6) कोई भी पक्ष न्यायालय से निर्देश मांग सकता है और न्यायालय स्वयं कोई भी इलेक्ट्रॉनिक अभिलेख, मेटाडेटा या लॉग की और प्रमाण की मांग कर सकता है, इसके स्वीकृति से पहले।
Rule 7
Certain Provisions of the Code of Civil Procedure, 1908 Not to Apply
न्यायिक प्रक्रिया संहिता, 1908 के कुछ प्रावधान लागू नहीं होंगे
यह स्पष्ट किया जाता है कि संदेह से बचने के लिए, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (5/1908) के ऑर्डर XIII नियम 1, ऑर्डर VII नियम 14, और ऑर्डर VIII नियम 1A वाणिज्यिक उच्च न्यायालय या वाणिज्यिक न्यायालयों में चल रहे मुकदमों या आवेदन में लागू नहीं होंगे।
Order 12 – Admissions (स्वीकृति)
Rule 1 – Notice of admission of case (मामले की स्वीकृति का नोटिस)
कोई भी पक्ष लिखित में या अपनी याचिका में यह सूचित कर सकता है कि वह अन्य पक्ष के पूरे या किसी भाग को सही मानता है।
Rule 2 – Notice to admit documents (दस्तावेजों को स्वीकार करने का नोटिस)
• कोई भी पक्ष अन्य पक्ष को नोटिस दे सकता है कि वह नोटिस की सेवा से 7 दिन के अंदर दस्तावेज को स्वीकार करे।
• यदि पक्ष स्वीकृति से इनकार करता है या लापरवाही करता है, तो उस दस्तावेज को सिद्ध करने का खर्च वही पक्ष देगा, चाहे मुकदमे का परिणाम कुछ भी हो, जब तक कि न्यायालय अन्यथा निर्देश न दे।
• यदि नोटिस नहीं दिया गया है, तो दस्तावेज़ सिद्ध करने की लागत नहीं मिलेगी, जब तक कि कोर्ट यह न माने कि नोटिस न देने से खर्च की बचत हुई।
Rule 2A – Document deemed admitted if not denied (यदि इंकार नहीं किया तो दस्तावेज़ को स्वीकृत माना जाएगा)
(1) यदि कोई दस्तावेज़ स्पष्ट रूप से इंकार नहीं किया गया या “स्वीकार नहीं है” नहीं कहा गया, तो उसे स्वीकृत माना जाएगा सिवाय किसी अक्षम व्यक्ति के।
बशर्ते न्यायालय चाहे तो ऐसे स्वीकृत दस्तावेज को अन्य तरीके से भी सिद्ध करने को कह सकता है।
(2) यदि कोई पक्ष अनावश्यक रूप से इनकार करता है, तो न्यायालय अन्य पक्ष को हर्जाना देने का आदेश दे सकता है।
Rule 3 – Form of notice (नोटिस का प्रारूप)
दस्तावेज़ स्वीकार कराने के लिए नोटिस Form No. 9 (Appendix C) में होगा, परिस्थितियों के अनुसार बदलाव संभव।
Rule 3A – Power of Court to record admission (कोर्ट द्वारा स्वीकृति दर्ज करने की शक्ति)
चाहे Rule 2 के अंतर्गत कोई नोटिस न दिया गया हो, कोर्ट किसी भी पक्ष को किसी दस्तावेज को स्वीकार करने के लिए कह सकता है, और यह दर्ज करेगा कि पक्ष ने स्वीकृति दी, इनकार किया या उपेक्षा की।
Rule 4 – Notice to admit facts (तथ्यों को स्वीकार करने का नोटिस)
• कोई भी पक्ष, सुनवाई की तारीख से 9 दिन पहले तक, अन्य पक्ष को किसी तथ्य को स्वीकार करने के लिए लिखित नोटिस दे सकता है।
• यदि 6 दिन में उत्तर नहीं दिया गया, तो सिद्ध करने का खर्च उसी पक्ष को देना होगा, जब तक कि कोर्ट अन्यथा न कहे।
बशर्ते यह स्वीकृति केवल उस मुकदमे के लिए मानी जाएगी, अन्य किसी मामले में नहीं।
Rule 5 – Form of admissions (स्वीकृति का प्रारूप)
तथ्यों की स्वीकृति हेतु नोटिस – Form No. 10, स्वीकृति का उत्तर – Form No. 11,
परिस्थिति अनुसार बदलाव संभव।
Rule 6 – Judgment on admissions (स्वीकृति के आधार पर निर्णय)
(1) यदि तथ्य की स्वीकृति याचिका या अन्य किसी रूप में हुई हो (मौखिक या लिखित), तो न्यायालय किसी भी स्तर पर निर्णय पारित कर सकता है चाहे अन्य प्रश्नों का निर्णय लंबित हो।
(2) ऐसे निर्णय के अनुसार डिक्री (decree) बनाई जाएगी और उसमें वही तारीख होगी जिस दिन निर्णय दिया गया।
Rule 7 – Affidavit of signature (हस्ताक्षर का शपथ-पत्र)
पक्षकार या उसके लिपिक का शपथ-पत्र कि दस्तावेज/तथ्य की स्वीकृति पर हस्ताक्षर सही हैं, पर्याप्त साक्ष्य माना जाएगा, यदि प्रमाण की आवश्यकता हो।
Rule 8 – Notice to produce documents (दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का नोटिस)
• Form No. 12 (Appendix C) में नोटिस होगा।
• नोटिस की सेवा और समय का शपथ-पत्र, प्रमाण के लिए पर्याप्त होगा।
Rule 9 – Costs (खर्च)
यदि नोटिस में अनावश्यक दस्तावेज़ या तथ्य शामिल हों, तो उसके खर्च की जिम्मेदारी नोटिस देने वाले की होगी।
ORDER XIII – दस्तावेजों का उत्पादन, जब्ती और वापसी
1. मूल दस्तावेजों का मुद्दों के निर्धारण पर या उससे पहले प्रस्तुत किया जाना
महत्वपूर्ण:
• दस्तावेज मूल रूप में प्रस्तुत होने चाहिए।
• यह कार्य मुद्दों के निर्धारण पर या उससे पहले किया जाना चाहिए।
• प्रस्तुति एक सूची के साथ होनी चाहिए।
• अपवाद:
(a) दूसरे पक्ष के गवाहों की जिरह के लिए
(b) स्मृति ताज़ा करने के लिए
[नोट: नियम 2 को हटा दिया गया है]
3. अप्रासंगिक या अप्रामाणिक दस्तावेजों की अस्वीकृति
महत्वपूर्ण:
• न्यायालय किसी भी दस्तावेज को किसी भी चरण पर अस्वीकार कर सकता है।
• अस्वीकृति के कारण को लिखना आवश्यक है।
4. साक्ष्य के रूप में स्वीकृत दस्तावेजों पर अंकन
महत्वपूर्ण:
• दस्तावेज पर निम्न जानकारी लिखी जाएगी:
(a) वाद संख्या व शीर्षक
(b) प्रस्तुतकर्ता का नाम
(c) प्रस्तुत करने की दिनांक
(d) स्वीकृति का उल्लेख
• न्यायाधीश को हस्ताक्षर/आरंभाक्षर करने होते हैं।
• यदि प्रतिलिपि दी गई हो, तो उसी पर अंकन होगा।
5. पुस्तकों, लेखों और अभिलेखों में प्रविष्टियों की प्रतिलिपियाँ
महत्वपूर्ण:
• प्रतिलिपि दी जा सकती है मूल के स्थान पर।
• न्यायालय को प्रतिलिपि को जाँचना, मिलाना और प्रमाणित करना होगा।
• फिर मूल दस्तावेज वापस किया जा सकता है।
6. अस्वीकृत दस्तावेजों पर अंकन
महत्वपूर्ण:
• ऐसे दस्तावेज पर लिखा जाएगा कि वह अस्वीकृत किया गया है।
• अन्य विवरण भी होंगे (वाद संख्या, नाम आदि)।
• न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षर आवश्यक।
7. दस्तावेजों की अभिलेख में रखने या वापसी का प्रावधान
महत्वपूर्ण:
• स्वीकृत दस्तावेज अभिलेख का भाग बनते हैं।
• अस्वीकृत दस्तावेज वापस कर दिए जाते हैं।
8. दस्तावेज को जब्त करने का अधिकार
महत्वपूर्ण:
• न्यायालय उचित कारण हो तो दस्तावेज को impound (जब्त) कर सकता है।
9. दस्तावेजों की वापसी
महत्वपूर्ण:
• वाद निपटने के बाद दस्तावेज वापसी योग्य है।
• अपील की स्थिति में:
o या तो अपील की समयसीमा समाप्त हो जाए,
o या अपील का निपटारा हो जाए।
• प्रमाणित प्रति देने और मूल दस्तावेज की जरूरत पड़ने पर पेश करने का वचन देना होगा।
• एक रसीद अनिवार्य है।
10. न्यायालय पत्रावली मंगा सकता है
महत्वपूर्ण:
• न्यायालय स्वयं या आवेदन पर पत्रावली मंगवा सकता है।
• आवेदन हलफनामे द्वारा समर्थित होना चाहिए।
• मूल तभी स्वीकार होगा जब प्रमाणित प्रति उपलब्ध नहीं हो।
11. भौतिक वस्तुओं पर भी यही नियम लागू
महत्वपूर्ण:
• जो नियम दस्तावेजों पर लागू हैं, वही साक्ष्य के रूप में दी जाने वाली भौतिक वस्तुओं पर भी लागू होंगे।
ORDER XIII-A – सार निर्णय (Summary Judgment)
1. इस आदेश का क्षेत्र और जिन वादों पर यह लागू होता है –
(1) यह आदेश ऐसी प्रक्रिया बताता है जिसके द्वारा न्यायालय किसी वाणिज्यिक विवाद (commercial dispute) से संबंधित दावा बिना मौखिक साक्ष्य (oral evidence) लिए तय कर सकता है।
(2) इस आदेश के लिए “दावा (claim)” में शामिल होंगे:
(a) दावे का कोई भाग;
(b) वह विशेष प्रश्न जिस पर पूरा या कोई भाग दावे का निर्भर करता है;
(c) प्रतिदावा (counterclaim), जो लागू हो।
(3) अगर कोई वाणिज्यिक विवाद Order XXXVII के तहत संक्षिप्त वाद (summary suit) के रूप में दर्ज किया गया है, तो उस पर इस आदेश के तहत सार निर्णय का आवेदन नहीं किया जा सकता।
यह आदेश विशिष्ट मूल्य (specified value) के वाणिज्यिक विवादों पर लागू होगा (Act 4 of 2016, s.16 & Schedule, 23-10-2015 से प्रभावी)।
2. सार निर्णय के लिए आवेदन का चरण –
प्रतिवादी को समन (summons) भेजे जाने के बाद, किसी भी समय आवेदन किया जा सकता है।
बशर्ते, न्यायालय द्वारा मुद्दे (issues) तय कर दिए जाने के बाद, कोई भी सार निर्णय का आवेदन नहीं किया जा सकता।
3. सार निर्णय के आधार –
न्यायालय वादी या प्रतिवादी के खिलाफ सार निर्णय दे सकता है, यदि:
(a) वादकार (plaintiff) के सफल होने की कोई वास्तविक संभावना नहीं है, या प्रतिवादी की सफलतापूर्वक बचाव करने की कोई वास्तविक संभावना नहीं है; और
(b) ऐसा कोई अन्य ठोस कारण नहीं है कि दावे को मौखिक साक्ष्य दर्ज होने से पहले न निपटाया जाए।
4. प्रक्रिया –
(1) सार निर्णय के लिए आवेदन में निम्नलिखित बातें होनी चाहिए:
(a) यह स्पष्ट रूप से लिखा हो कि यह आवेदन इस आदेश के अंतर्गत सार निर्णय के लिए है;
(b) सभी मुख्य तथ्यों और यदि कोई हो, तो कानून के मुद्दों को स्पष्ट रूप से बताया गया हो;
(c) यदि कोई दस्तावेजी साक्ष्य है, तो:
(i) उसे आवेदन में शामिल किया गया हो;
(ii) उसके प्रासंगिक अंश स्पष्ट किए गए हों;
(d) यह कारण बताया गया हो कि क्यों दावे के सफल होने की कोई संभावना नहीं है;
(e) वांछित राहत और उसके आधार बताए गए हों।
(2) न्यायालय जब सुनवाई की तिथि तय करे, तो प्रतिवादी को कम से कम 30 दिन पूर्व नोटिस देना आवश्यक है।
(3) प्रतिवादी इस नोटिस के 30 दिन के भीतर जवाब दाखिल कर सकता है जिसमें शामिल हो:
(a) सभी आवश्यक तथ्य, कानूनी मुद्दे और कारण कि राहत क्यों न दी जाए;
(b) कोई दस्तावेज हो तो उसे भी जवाब में शामिल करना होगा;
(c) क्यों दावे की सफलता की वास्तविक संभावना है;
(d) कौन से मुद्दे मुकदमे के लिए तय किए जाने चाहिए;
(e) कौन से अतिरिक्त साक्ष्य आगे प्रस्तुत किए जाएंगे;
(f) क्यों न्यायालय को सार निर्णय की प्रक्रिया नहीं अपनानी चाहिए।
5. सार निर्णय की सुनवाई के लिए साक्ष्य –
(1) प्रतिवादी अतिरिक्त दस्तावेजी साक्ष्य पर भरोसा करना चाहता है, तो उसे सुनवाई से 15 दिन पहले दाखिल करना और प्रतिलिपि सभी पक्षों को देना आवश्यक है।
(2) वादी जवाब में साक्ष्य देना चाहता है, तो सुनवाई से 5 दिन पहले जमा करना और प्रतिवादी को देना होगा।
(3) अगर पहले ही कोई दस्तावेज दाखिल या प्रदान किया जा चुका है, तो दोबारा देने की जरूरत नहीं।
6. न्यायालय द्वारा दिए जाने वाले आदेश –
(1) न्यायालय निम्नलिखित आदेश दे सकता है:-
(a) दावे पर निर्णय;
(b) शर्तों के साथ आदेश (Conditional order);
(c) आवेदन खारिज करना;
(d) दावे का कुछ भाग खारिज करना, बाकी भाग पर निर्णय देना;
(e) दलीलों को हटाना (पूरी या आंशिक रूप से);
(f) Order XV-A के तहत आगे कार्यवाही के निर्देश देना।
(2) हर आदेश के लिए न्यायालय को कारण लिखना अनिवार्य है।
7. शर्त वाला आदेश (Conditional Order) –
(1) यदि न्यायालय को लगता है कि दावे या बचाव के सफल होने की संभावना कम है लेकिन संभव है, तो वह शर्तों के साथ आदेश दे सकता है।
(2) यह शर्तें हो सकती हैं:
(a) पक्ष को धनराशि जमा करने का निर्देश देना;
(b) दावे या बचाव के संबंध में कोई विशेष कदम उठाने को कहना;
(c) नुकसान की भरपाई के लिए सुरक्षा या जमानत देने का निर्देश;
(d) कोई अन्य शर्त जो न्यायालय उचित समझे।
(b) यदि इन शर्तों का पालन नहीं किया गया, तो उसके परिणामस्वरूप न्यायालय संबंधित पक्ष के खिलाफ निर्णय दे सकता है।
8. खर्चा लगाने की शक्ति –
न्यायालय सार निर्णय के आवेदन में CPC की धारा 35 और 35A के अनुसार खर्चा लगाने का आदेश दे सकता है।
Order 14 – मुद्दों का निर्धारण और विधिक मुद्दों या सहमत मुद्दों पर वाद का निर्णय
नियम 1 – मुद्दों का निर्धारण
(1) मुद्दे तब उत्पन्न होते हैं जब किसी तथ्य या विधि (कानून) के महत्वपूर्ण कथन को एक पक्ष स्वीकार करता है और दूसरा पक्ष उसका खंडन करता है।
(2) महत्वपूर्ण कथन (material proposition) वे तथ्य या विधिक कथन हैं जिन्हें वादी को यह दिखाने के लिए कहना होता है कि उसे वाद दायर करने का अधिकार है, या प्रतिवादी को यह दिखाने के लिए कहना होता है कि उसका प्रतिरक्षा है।
(3) हर ऐसा महत्वपूर्ण कथन जिसे एक पक्ष स्वीकार करे और दूसरा इनकार करे, एक अलग मुद्दे (issue) का विषय बनेगा।
(4) मुद्दे दो प्रकार के होते हैं:
(a) तथ्य के मुद्दे (issues of fact)
(b) विधि के मुद्दे (issues of law)
(5) वाद की पहली सुनवाई में न्यायालय, वाद-पत्र (plaint) और लेखबद्ध उत्तर (written statement), अगर हो, पढ़ने के बाद, और आदेश 10 के नियम 2 के तहत परीक्षा लेने के बाद तथा पक्षकारों या उनके वकीलों को सुनकर यह पता लगाएगा कि किन महत्वपूर्ण तथ्यों या विधिक बातों पर पक्षकारों में मतभेद है, और फिर ऐसे मुद्दों को निर्धारित कर लिखित रूप में दर्ज करेगा, जिन पर मामले के सही निर्णय की आवश्यकता प्रतीत होती है।
(6) यदि प्रतिवादी वाद की पहली सुनवाई में कोई प्रतिरक्षा (defence) नहीं करता, तो न्यायालय को इस नियम के अंतर्गत कोई मुद्दा तय करने या दर्ज करने की आवश्यकता नहीं है।
नियम 2 – न्यायालय द्वारा सभी मुद्दों पर निर्णय दिया जाना
(1) यद्यपि कोई मामला किसी प्रारंभिक मुद्दे (preliminary issue) पर निपटाया जा सकता है, फिर भी न्यायालय को, उपनियम (2) के अधीन रहते हुए, सभी मुद्दों पर निर्णय देना होगा।
(2) जहां किसी वाद में विधि और तथ्य दोनों के मुद्दे उठते हैं, और न्यायालय की यह राय हो कि मामला या उसका कोई भाग केवल विधिक मुद्दे पर ही निपटाया जा सकता है, तब वह पहले उस विधिक मुद्दे की सुनवाई कर सकता है यदि वह मुद्दा संबंधित हो:
(a) न्यायालय के अधिकार क्षेत्र (jurisdiction) से
(b) किसी प्रचलित विधि द्वारा लगाए गए वाद पर किसी निषेध (bar) से
और इस उद्देश्य के लिए वह अन्य मुद्दों के निर्धारण को तब तक स्थगित कर सकता है जब तक उस विधिक मुद्दे का निर्णय नहीं हो जाता, और उस निर्णय के अनुसार वाद का निपटारा कर सकता है।
नियम 3 – जिन बातों से मुद्दे तय किए जा सकते हैं
न्यायालय निम्न में से किसी एक या सभी बातों से मुद्दे तय कर सकता है:
(a) पक्षकारों या उनकी ओर से उपस्थित किसी व्यक्ति द्वारा या उनके वकीलों द्वारा शपथ पर किए गए कथन;
(b) दलीलों (pleadings) में किए गए कथन या वाद में पूछे गए प्रश्नों (interrogatories) के उत्तर;
(c) किसी भी पक्ष द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों की विषयवस्तु।
नियम 4 – मुद्दे तय करने से पहले न्यायालय गवाह या दस्तावेजों की जांच कर सकता है
यदि न्यायालय की राय हो कि मुद्दे उचित रूप से तब तक तय नहीं हो सकते जब तक कि कोई व्यक्ति जो न्यायालय के समक्ष नहीं है, की परीक्षा न की जाए, या कोई दस्तावेज जिसे वाद में प्रस्तुत नहीं किया गया है, की जांच न की जाए, तो न्यायालय मुद्दों के निर्धारण को अधिकतम सात दिन तक स्थगित कर सकता है और लागू विधि के अधीन रहते हुए, किसी भी व्यक्ति को उपस्थित करने या दस्तावेज प्रस्तुत करने हेतु सम्मन या अन्य प्रक्रिया के द्वारा बाध्य कर सकता है।
नियम 5 – मुद्दों में संशोधन करने या हटाने की शक्ति
(1) न्यायालय किसी भी समय, जब तक डिक्री पारित नहीं हो जाती, ऐसे शर्तों पर जो उसे उचित लगें, मुद्दों में संशोधन या अतिरिक्त मुद्दे तय कर सकता है, और ऐसा कोई भी संशोधन या अतिरिक्त मुद्दा जो पक्षकारों के बीच के विवाद का समाधान करने के लिए आवश्यक हो, किया जाएगा।
(2) न्यायालय किसी भी समय, जब तक डिक्री पारित नहीं हुई हो, ऐसे मुद्दों को जो उसे गलत रूप से तय या प्रविष्ट किए गए प्रतीत हों, हटा सकता है।
नियम 6 – तथ्य या विधिक प्रश्नों को सहमति से मुद्दे के रूप में पेश किया जा सकता है
(1) जहां पक्षकार इस बात पर सहमत हों कि उनके बीच कौन सा तथ्य या विधिक प्रश्न तय किया जाना है, तो वे उसे एक मुद्दे के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं और एक लिखित समझौता कर सकते हैं कि उस मुद्दे पर न्यायालय की पुष्टि या खंडन की स्थिति में:
(a) समझौते में उल्लेखित राशि या न्यायालय द्वारा निर्धारित की जाने वाली राशि, एक पक्ष से दूसरे को दी जाएगी, या उनमें से किसी को कोई अधिकार या दायित्व प्राप्त होगा;
(b) कोई संपत्ति, जो समझौते में बताई गई है और वाद में विवादित है, एक पक्ष से दूसरे को दी जाएगी;
(c) एक या अधिक पक्ष कुछ विशेष कार्य करेंगे या उससे विरत रहेंगे, जो समझौते में बताया गया है और विवादित विषय से संबंधित है।
नियम 7 – न्यायालय यदि संतुष्ट हो कि समझौता सद्भावना से हुआ है, तो निर्णय दे सकता है
यदि न्यायालय उचित जांच के बाद संतुष्ट हो कि –
(a) पक्षकारों द्वारा समझौता विधिपूर्वक निष्पादित किया गया है;
(b) वे प्रश्न के निर्णय में वास्तविक रुचि रखते हैं;
(c) वह प्रश्न सुनवाई और निर्णय के योग्य है;
तो वह उस मुद्दे को दर्ज करेगा, उस पर सुनवाई करेगा और उसी प्रकार निर्णय देगा जैसे कि वह मुद्दा न्यायालय द्वारा तय किया गया हो, और उस निर्णय के अनुसार न्यायालय निर्णय देगा, तथा ऐसे निर्णय के अनुसार डिक्री पारित की जाएगी।
ORDER XV – वाद का प्रथम सुनवाई में निपटारा
यह आदेश “Act 4 of 2016, section 16 and Schedule” द्वारा निर्दिष्ट मूल्य वाले वाणिज्यिक विवादों (commercial disputes of specified value) पर भी लागू होगा (प्रभावी तिथि: 23-10-2015 से)।
Rule 1 – पक्षकार विवाद में नहीं हैं
1. पक्षकार विवाद में नहीं हैं –
(1) जब वाद की प्रथम सुनवाई में यह प्रतीत हो कि पक्षकारों के बीच किसी विधिक (कानून) या तथ्यात्मक प्रश्न पर कोई विवाद (issue) नहीं है, तो न्यायालय तुरंत निर्णय (judgment) दे सकता है।]
Rule 2 – अनेक प्रतिवादियों में से कोई एक विवाद में नहीं है
(1) जब प्रतिवादी एक से अधिक हों, और उन में से कोई एक प्रतिवादी वादी के साथ किसी विधिक या तथ्यात्मक प्रश्न पर विवाद में न हो, तो न्यायालय ऐसे प्रतिवादी के पक्ष या विपक्ष में तुरंत निर्णय दे सकता है और वाद केवल अन्य प्रतिवादियों के विरुद्ध ही आगे बढ़ेगा।
(2) जब इस नियम के अंतर्गत कोई निर्णय (judgment) दिया जाता है, तो ऐसा निर्णय के अनुसार डिक्री (decree) तैयार की जाएगी, और उस डिक्री पर वही तिथि अंकित होगी जिस दिन निर्णय सुनाया गया था।]
Rule 3 – पक्षकार विवाद में हैं
(1) जब पक्षकार किसी विधिक या तथ्यात्मक प्रश्न पर विवाद में हों, और न्यायालय द्वारा नियमों के अनुसार मुद्दे (issues) निर्धारित कर दिए गए हों, और यदि न्यायालय यह संतुष्ट हो कि जिन मुद्दों पर विवाद है, उन पर तुरंत पक्षकारों द्वारा कोई और दलील (argument) या साक्ष्य (evidence) प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है, और तत्काल वाद को आगे बढ़ाने से कोई अन्याय नहीं होगा, तो न्यायालय ऐसे मुद्दों का तुरंत निर्णय कर सकता है। और यदि उन मुद्दों पर निर्णय वाद के निपटारे के लिए पर्याप्त हो, तो न्यायालय उसी अनुसार निर्णय (judgment) दे सकता है — चाहे समन केवल मुद्दों के निर्धारण के लिए भेजा गया हो या वाद के अंतिम निपटारे के लिए।
बशर्ते कि, जब समन केवल मुद्दों के निर्धारण हेतु भेजा गया हो, पक्षकार या उनके वकील उपस्थित हों और कोई भी आपत्ति न करे।
(2) यदि वह निर्णय वाद के निपटारे के लिए पर्याप्त न हो, तो न्यायालय आगे की सुनवाई स्थगित करेगा और आगे साक्ष्य प्रस्तुत करने या अतिरिक्त दलीलों हेतु तिथि निश्चित करेगा।]
Rule 4 – साक्ष्य प्रस्तुत करने में विफलता
जब समन वाद के अंतिम निपटारे के लिए भेजा गया हो और कोई भी पक्ष बिना उचित कारण के उन साक्ष्यों को प्रस्तुत करने में असफल हो जिन पर वह निर्भर करता है, तो न्यायालय तुरंत निर्णय दे सकता है, या यदि न्यायालय उचित समझे, तो मुद्दों को निर्धारित कर उन्हें रिकॉर्ड करने के बाद वाद को स्थगित कर सकता है ताकि आवश्यक साक्ष्य प्रस्तुत किए जा सकें और उन मुद्दों पर निर्णय हो सके।]
Order 15-A – मुकदमे के प्रबंधन (Case Management) की सुनवाई
(यह वाणिज्यिक वादों पर लागू होता है जिनकी विशिष्ट मूल्य सीमा हो – वाणिज्यिक न्यायालय अधिनियम, 2015 के अनुसार)
Rule 1. पहली केस प्रबंधन सुनवाई (First Case Management Hearing)
जहाँ सभी पक्षों द्वारा दस्तावेज़ों को स्वीकार या अस्वीकार करने का शपथ-पत्र दाखिल हो गया है, वहाँ न्यायालय को चार सप्ताह के भीतर पहली केस प्रबंधन सुनवाई करनी होगी।
Rule 2. केस प्रबंधन सुनवाई में दिए जाने वाले आदेश (Orders in Case Management Hearing)
जब न्यायालय यह माने कि तथ्य या कानून से जुड़े कुछ मुद्दे (issues) हैं जिनका परीक्षण (trial) आवश्यक है, तो वह निम्नलिखित आदेश दे सकता है:
(a) पक्षकारों के बीच विवाद के मुद्दे (issues) तय करना (Order XIV के अनुसार)
(b) जिन गवाहों की जांच होनी है, उनकी सूची तय करना
(c) प्रत्येक पक्ष द्वारा साक्ष्य के शपथ-पत्र दाखिल करने की अंतिम तिथि तय करना
(d) गवाहों की गवाही दर्ज करने की तिथि तय करना
(e) लिखित तर्क (written arguments) दाखिल करने की तिथि तय करना
(f) मौखिक बहस (oral arguments) सुनने की तिथि तय करना
(g) मौखिक बहस में वक्तव्य के लिए समय-सीमा तय करना
Rule 3. परीक्षण पूरा करने की समय-सीमा (Time Limit for Completion)
पहली केस प्रबंधन सुनवाई की तिथि से छह महीने के भीतर बहस समाप्त होनी चाहिए।
Rule 4. मौखिक साक्ष्य का दिन-प्रतिदिन रिकॉर्डिंग (Day-to-Day Evidence Recording)
जहाँ तक संभव हो, न्यायालय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सभी गवाहों की जिरह लगातार (day-to-day) चले जब तक पूरी न हो जाए।
Rule 5. परीक्षण के दौरान केस प्रबंधन सुनवाई (Case Management During Trial)
न्यायालय आवश्यक होने पर परीक्षण के बीच भी केस प्रबंधन सुनवाई कर सकता है ताकि पूर्वनिर्धारित तिथियों का पालन सुनिश्चित हो और मुकदमा शीघ्र निपटे।
Rule 6. केस प्रबंधन सुनवाई में न्यायालय की शक्तियाँ (Powers of Court)
(1) केस प्रबंधन सुनवाई में न्यायालय को ये शक्तियाँ होंगी:
(a) मुद्दे तय करने से पहले Order XIII-A की याचिका तय करना
(b) मुद्दे तय करने के लिए आवश्यक दस्तावेज़ों या याचिकाओं की प्रतियाँ जमा करवाना
(c) आदेशों की पालना की समय-सीमा बढ़ाना या घटाना
(d) सुनवाई आगे करना या पहले करना
(e) पक्षकार को Order X Rule 2 के तहत न्यायालय में बुलाना
(f) कार्यवाहियों को एकसाथ करना (consolidate)
(g) अनावश्यक गवाहों या साक्ष्यों को हटाना
(h) किसी मुद्दे का पृथक परीक्षण कराना
(i) किन मुद्दों की पहले सुनवाई हो, यह तय करना
(j) किसी मुद्दे को सुनवाई से बाहर करना
(k) प्रारंभिक मुद्दे पर निर्णय के बाद दावे पर निर्णय देना या खारिज करना
(l) आवश्यकता होने पर आयोग (Commission) के माध्यम से साक्ष्य दर्ज कराना (Order XXVI)
(m) यदि कोई शपथ-पत्र अप्रासंगिक या तर्कपूर्ण है तो उसे अस्वीकार करना
(n) शपथ-पत्र के अप्रासंगिक भाग को हटाना
(o) साक्ष्य दर्ज करने की जिम्मेदारी किसी अधिकारी को सौंपना
(p) आयोग या अधिकारी द्वारा साक्ष्य की निगरानी हेतु आदेश देना
(q) पक्षकारों को खर्चों का बजट दाखिल करने और एक-दूसरे को देने का आदेश देना
(r) मुकदमे के प्रभावी निपटान के लिए कोई भी निर्देश या आदेश देना
(2) जब न्यायालय कोई आदेश दे, वह:
(a) उसमें कोई शर्त जोड़ सकता है, जैसे राशि न्यायालय में जमा करना
(b) आदेश का पालन न करने पर क्या परिणाम होंगे, यह बता सकता है
(3) यदि न्यायालय को लगे कि पक्षकारों में समझौते की संभावना है, तो वह केस प्रबंधन सुनवाई की तिथि तय करते समय पक्षकारों की उपस्थिति का आदेश दे सकता है।
Rule 7. केस प्रबंधन सुनवाई की स्थगन (Adjournment)
(1) केवल इस कारण से केस प्रबंधन सुनवाई स्थगित नहीं की जाएगी कि वकील उपस्थित नहीं है।
बशर्ते पहले से आवेदन देकर स्थगन मांगा गया हो, न्यायालय उचित लागत (costs) पर सुनवाई स्थगित कर सकता है।
(2) अगर न्यायालय को वकील की अनुपस्थिति का उचित कारण लगे, तो वह शर्तों सहित स्थगन दे सकता है।
Rule 8. आदेशों की अवहेलना के परिणाम (Consequences of Non-compliance)
अगर कोई पक्ष न्यायालय के आदेश का पालन नहीं करता, तो न्यायालय को यह अधिकार होगा:
(a) उचित लागत पर उस चूक को माफ करना
(b) ऐसे पक्ष का अधिकार समाप्त करना जैसे– शपथ-पत्र दाखिल करना, जिरह करना, तर्क प्रस्तुत करना आदि
(c) अगर चूक जानबूझकर और बार-बार हो तथा लागत लगाना पर्याप्त न हो तो, मुकदमा खारिज करना या दावा स्वीकृत करना
ORDER 16 – गवाहों को बुलाने और उपस्थित करवाने के बारे में
1. गवाहों की सूची और समन जारी करना
(1) जिस दिन न्यायालय निश्चित करे और मुद्दों के तय होने की तारीख से अधिकतम 15 दिनों के भीतर, प्रत्येक पक्ष न्यायालय में उन गवाहों की सूची पेश करेगा जिन्हें वह या तो साक्ष्य देने या दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के लिए बुलाना चाहता है, और ऐसे व्यक्तियों के लिए समन प्राप्त करेगा।
(2) जो पक्ष किसी व्यक्ति को समन भेजवाना चाहता है, उसे एक आवेदन देना होगा जिसमें यह लिखा हो कि उस गवाह को किस उद्देश्य से बुलाया जा रहा है।
(3) यदि कोई पक्ष यह दिखा दे कि उसने किसी गवाह का नाम पहले सूची में शामिल न करने के लिए उचित कारण है, तो न्यायालय लिखित कारण दर्ज करके उसे ऐसे गवाह को (चाहे समन द्वारा या अन्यथा) बुलाने की अनुमति दे सकता है।
(4) उप-नियम (2) के अधीन होने के बावजूद, समन प्राप्त करने के लिए गवाहों की सूची प्रस्तुत करने की तारीख से 5 दिनों के भीतर, पक्ष न्यायालय या उसके द्वारा नियुक्त अधिकारी से आवेदन करके समन प्राप्त कर सकते हैं।
1A. बिना समन के गवाह प्रस्तुत करना
उप-नियम (3) नियम 1 के अधीन रहते हुए, कोई भी पक्ष समन के लिए आवेदन किए बिना भी किसी गवाह को साक्ष्य देने या दस्तावेज़ लाने के लिए स्वयं ला सकता है।
2. समन के लिए आवेदन करते समय गवाह की फीस जमा करना
(1) जो पक्ष समन के लिए आवेदन करता है, उसे आवेदन के 7 दिनों के भीतर न्यायालय में उतनी राशि जमा करनी होगी जितनी गवाह के आने-जाने और एक दिन की उपस्थिति के खर्च के लिए पर्याप्त हो।
(2) यदि गवाह विशेषज्ञ (expert) है, तो न्यायालय उसके विशेषज्ञ कार्य और समय का उचित मेहनताना जोड़ सकता है।
(3) यदि न्यायालय किसी उच्च न्यायालय के अधीन है, तो खर्च का निर्धारण संबंधित नियमों के अनुसार होगा।
(4) यदि समन सीधे पक्ष द्वारा गवाह को दिया गया है, तो उपर्युक्त खर्च पक्ष या उसका अभिकर्ता सीधे गवाह को देगा।
3. समन की सेवा करते समय खर्च देना
न्यायालय में जमा की गई राशि गवाह को समन की सेवा के समय दी जाएगी, यदि समन व्यक्तिगत रूप से दिया जा रहा है।
4. यदि जमा राशि पर्याप्त नहीं है तो प्रक्रिया
(1) यदि जमा की गई राशि पर्याप्त नहीं है, तो न्यायालय अतिरिक्त राशि जमा करने का निर्देश दे सकता है। यदि भुगतान न किया जाए, तो समन प्राप्त करने वाले पक्ष की चल संपत्ति को कुर्क कर बेचा जा सकता है या गवाह को साक्ष्य देने से मुक्त किया जा सकता है या दोनों कार्य किए जा सकते हैं।
(2) यदि गवाह को एक दिन से अधिक रोकना आवश्यक है, तो संबंधित पक्ष को अतिरिक्त खर्च न्यायालय में जमा करना होगा; अन्यथा कुर्की की कार्यवाही हो सकती है या गवाह को साक्ष्य देने से मुक्त किया जा सकता है या दोनों कार्य किए जा सकते हैं।
5. समन में उपस्थिति का समय, स्थान और उद्देश्य लिखा जाना चाहिए
हर समन में यह लिखा होना चाहिए कि गवाह को कब और कहां उपस्थित होना है और किस उद्देश्य (साक्ष्य देना या दस्तावेज़ प्रस्तुत करना या दोनों) से बुलाया गया है। यदि कोई विशेष दस्तावेज़ लाने को कहा गया है, तो उसे स्पष्ट रूप से वर्णित किया जाना चाहिए।
6. केवल दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के लिए समन
किसी व्यक्ति को केवल दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के लिए भी समन भेजा जा सकता है, और वह स्वयं उपस्थित हुए बिना भी दस्तावेज़ भेजकर समन की पूर्ति कर सकता है।
7. न्यायालय में उपस्थित किसी व्यक्ति को साक्ष्य देने या दस्तावेज़ प्रस्तुत करने को कहा जा सकता है
जो व्यक्ति न्यायालय में उपस्थित हो, उससे न्यायालय वहीं पर साक्ष्य देने या दस्तावेज़ प्रस्तुत करने को कह सकता है।
7A. पक्ष को समन की सेवा के लिए देना
(1) यदि पक्ष समन की सेवा स्वयं करना चाहे तो न्यायालय उसे समन सेवा हेतु दे सकता है।
(2) ऐसी सेवा गवाह को व्यक्तिगत रूप से समन की हस्ताक्षरित प्रति देकर की जाएगी।
(3) इस नियम के तहत सेवा की गई समन पर Order V के नियम 16 और 18 लागू होंगे।
(4) यदि गवाह समन लेने से इनकार कर दे या हस्ताक्षर न करे या व्यक्तिगत सेवा संभव न हो, तो न्यायालय उस समन को पुनः न्यायालय द्वारा सेवा के लिए जारी करेगा।
(5) ऐसे मामलों में पक्ष को समन सेवा की सामान्य फीस नहीं देनी होगी।
8. समन कैसे दिया जाएगा
Order V के अनुसार, समन की सेवा वैसे ही होगी जैसे प्रतिवादी को दी जाती है; और सेवा का प्रमाण उसी प्रकार लिया जाएगा।
9. समन की सेवा का समय
गवाह को समन इस तरह से देना होगा कि उसे तैयारी और यात्रा के लिए उचित समय मिल सके।
10. यदि गवाह समन का पालन न करे
(1) यदि गवाह समन का पालन नहीं करता तो –
(a) यदि समन की सेवा का प्रमाण हलफनामे से नहीं है, या सेवा पक्ष या उसके अभिकर्ता ने की है, तो
(b) या, यदि सेवा अधिकारी का प्रमाण हलफनामे से है,
तो न्यायालय सेवा करने वाले को शपथ पर पूछताछ कर सकता है या किसी अन्य न्यायालय से पूछवा सकता है।
(2) यदि न्यायालय को लगे कि गवाह की उपस्थिति आवश्यक है और वह जानबूझकर या बिना वैध कारण के नहीं आया, तो वह गवाह के नाम एक उद्घोषणा (proclamation) जारी कर सकता है जो उसके घर पर चिपकाई जाएगी।
(3) उद्घोषणा के साथ या बाद में न्यायालय गिरफ्तारी वारंट (Bail के साथ या बिना) और संपत्ति की कुर्की का आदेश दे सकता है, परन्तु Small Cause Court अचल संपत्ति की कुर्की का आदेश नहीं दे सकती।
11. यदि गवाह उपस्थित हो जाए तो कुर्की हटाई जा सकती है
यदि गवाह यह साबित कर दे कि वह वैध कारण से समन का पालन न कर सका या उद्घोषणा की जानकारी समय पर नहीं मिली, तो न्यायालय कुर्की हटाने और लागत का निर्णय दे सकता है।
12. यदि गवाह उपस्थित न हो
(1) यदि गवाह उपस्थित नहीं होता या न्यायालय को संतुष्ट नहीं कर पाता, तो उसे अधिकतम ₹500 तक का जुर्माना लगाया जा सकता है और उसकी संपत्ति कुर्क की जा सकती है; यदि पहले ही कुर्क हो चुकी है, तो उसे जुर्माना और लागत की वसूली हेतु बेचा जा सकता है। बशर्ते, यदि वह व्यक्ति लागत और जुर्माना जमा कर देता है, तो संपत्ति मुक्त की जाएगी।
(2) न्यायालय उद्घोषणा या वारंट जारी किए बिना भी, उचित नोटिस देकर गवाह पर सीधे जुर्माना लगा सकता है।
13. कुर्की की प्रक्रिया
संपत्ति की कुर्की और बिक्री की प्रक्रिया, जैसे डिक्री के निष्पादन में होती है, वैसे ही इस आदेश के तहत भी लागू होगी।
14. न्यायालय किसी भी व्यक्ति को गवाही या दस्तावेज़ के लिए बुला सकता है
न्यायालय, अपनी इच्छा से, किसी भी व्यक्ति को समन भेज सकता है चाहे वह गवाह की सूची में शामिल न हो, यदि उसे लगे कि उस व्यक्ति की गवाही या दस्तावेज़ न्यायसंगत है।
15. पार्टी को गवाह के तौर पर बुलाना
पक्षकार अपने विरोधी पक्ष को गवाह के रूप में बुला सकता है। यदि ऐसा किया जाए, तो वह विरोधी भी अपने ही गवाह के तौर पर साक्ष्य दे सकता है।
16. जिस गवाह को विशेष रूप से न बुलाया गया हो, वह नहीं बुलाया जाएगा
यदि किसी गवाह को गवाही देने के लिए समन नहीं भेजा गया है, तो वह तब तक नहीं बुलाया जाएगा जब तक न्यायालय यह न माने कि उसे बुलाना आवश्यक है।
17. यदि समन प्राप्त करने वाला गवाह उपस्थित न हो
यदि समन प्राप्त करने वाला गवाह, जिसने उपस्थिति के लिए खर्च प्राप्त किया है, फिर भी उपस्थित नहीं होता या समन का पालन नहीं करता, तो उसे उसी तरह दंडित किया जा सकता है जैसे समन की अवहेलना करने वाले किसी भी अन्य व्यक्ति को।
18. सरकारी कर्मचारी की गवाही या दस्तावेज़
(1) यदि समन सरकारी अधिकारी को भेजा गया हो और वह नहीं आता या दस्तावेज़ नहीं लाता, तो उसकी शिकायत संबंधित उच्च अधिकारी को भेजी जा सकती है।
(2) ऐसा अधिकारी तब तक दंड से बचा रहेगा जब तक संबंधित अधिकारी संतुष्ट न हो जाए कि अनुपस्थिति उचित कारण से थी।
19. न्यायालय में उपस्थित गवाह को रोकने या उसका मज़ाक उड़ाने पर दंड
कोई भी व्यक्ति जो न्यायालय में उपस्थित गवाह को धमकाता है, उसका अपमान करता है, या उसका मज़ाक उड़ाता है, तो न्यायालय उसे सीधे दंडित कर सकता है —
बशर्ते कि गवाह ने शिकायत की हो और दंड न्यायालय की कार्यवाही के दिन ही दिया जाए।
20. गवाहों को बुलाने का खर्च बाद में वसूल किया जा सकता है
यदि किसी पक्ष को अपने गवाहों को बुलाने या पेश करने में कोई खर्च हुआ है (चाहे गवाह आया हो या नहीं), तो वह खर्च संबंधित पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष से वसूला जा सकता है यदि न्यायालय आदेश दे।
21. गवाहों के लिए न्यायालय में बैठने की व्यवस्था
न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि गवाहों के लिए अलग से बैठने की व्यवस्था हो और उन्हें अनावश्यक रूप से प्रतीक्षा न करनी पड़े।
ORDER 17 – स्थगन (Adjournment)
1. न्यायालय समय दे सकता है और सुनवाई स्थगित कर सकता है
(1) यदि किसी भी चरण पर उचित कारण दिखाया जाता है, तो न्यायालय पक्षकारों को (या उनमें से किसी को) समय दे सकता है, और समय-समय पर मामले की सुनवाई को स्थगित कर सकता है, परंतु स्थगन देने का कारण लिखित रूप में रिकॉर्ड किया जाएगा।
बशर्ते कि सुनवाई के दौरान किसी एक पक्षकार को तीन बार से अधिक स्थगन नहीं दिया जाएगा।
(2) स्थगन की लागत (Cost of adjournment)
हर ऐसी स्थिति में, न्यायालय मामले की आगे की सुनवाई की तारीख तय करेगा, और
स्थगन से उत्पन्न लागत या यदि आवश्यक समझे तो उच्च लागत लगाने का आदेश देगा।
बशर्ते कि—
(a) यदि मामले की सुनवाई शुरू हो गई है, तो गवाहों की उपस्थिति होने पर सुनवाई रोज़ाना (day-to-day) चलेगी, जब तक सभी गवाहों की जाँच नहीं हो जाती,
बशर्ते कि न्यायालय किसी असाधारण कारण को रिकॉर्ड करके यह माने कि अगली तारीख देना आवश्यक है।
(b) कोई स्थगन केवल तब दिया जाएगा जब परिस्थितियाँ उस पक्ष के नियंत्रण से बाहर हों।
(c) यदि किसी पक्ष का वकील किसी अन्य न्यायालय में व्यस्त है, तो यह स्थगन का कारण नहीं होगा।
(d) यदि वकील की बीमारी या अन्य कारण (सिवाय अन्य न्यायालय में व्यस्त होने के) से वह मामला नहीं चला सकता, तो न्यायालय तभी स्थगन देगा जब वह संतुष्ट हो कि वह पक्ष समय पर कोई दूसरा वकील नहीं कर सका।
(e) यदि गवाह न्यायालय में उपस्थित है, परंतु पक्ष या उसका वकील अनुपस्थित है या तैयार नहीं है, तो न्यायालय यदि उचित समझे तो गवाह का कथन दर्ज कर सकता है और उपयुक्त आदेश दे सकता है, चाहे वह मुख्य-परीक्षण (examination-in-chief) हो या जिरह (cross-examination), ऐसे पक्ष या उसके वकील की अनुपस्थिति या तैयारी न होने के कारण।
2. यदि स्थगित दिन पर पक्षकार उपस्थित न हों तब की प्रक्रिया
यदि उस दिन जिस दिन मामला स्थगित किया गया था, पक्षकार या उनमें से कोई भी उपस्थित नहीं होता, तो न्यायालय Order IX के अनुसार कार्यवाही कर सकता है, या जो उपयुक्त समझे, वैसा अन्य आदेश दे सकता है।
स्पष्टीकरण:
यदि किसी पक्ष का साक्ष्य या उसका महत्वपूर्ण भाग पहले से दर्ज हो चुका है और वह पक्ष स्थगित तारीख को उपस्थित नहीं होता, तो न्यायालय अपनी विवेकबुद्धि से ऐसे मामले की कार्यवाही ऐसे कर सकता है मानो वह पक्ष उपस्थित है।
3. जब कोई पक्ष साक्ष्य आदि प्रस्तुत करने में विफल हो
यदि किसी पक्ष को समय दिया गया हो, परंतु वह —
• अपना साक्ष्य प्रस्तुत नहीं करता,
• गवाहों को उपस्थित नहीं कराता, या
• मामले की प्रगति के लिए आवश्यक कोई अन्य कार्य नहीं करता,
तो न्यायालय, ऐसी चूक के बावजूद —
(a) यदि पक्षकार उपस्थित हों, तुरंत मामले का निर्णय कर सकता है; या
(b) यदि पक्षकार या उनमें से कोई अनुपस्थित हो, तो नियम 2 के अंतर्गत कार्यवाही कर सकता है।
आदेश 18 – वाद की सुनवाई और गवाहों की परीक्षा
1. प्रारंभ करने का अधिकार
वादकर्ता (Plaintiff) को पहले प्रारंभ करने का अधिकार है,
बशर्ते प्रतिवादी (Defendant) वादकर्ता द्वारा कथित तथ्यों को स्वीकार कर ले और यह कहे कि
• कानून के अनुसार, या
• अपने द्वारा कथित अतिरिक्त तथ्यों के आधार पर,
वादकर्ता उस राहत (relief) का हकदार नहीं है जो वह मांग रहा है,
तो उस स्थिति में प्रतिवादी को पहले प्रारंभ करने का अधिकार होगा।
2. कथन और साक्ष्य प्रस्तुत करना
(1) जिस पक्ष को पहले प्रारंभ करने का अधिकार है, वह:
अपने वाद का कथन देगा और
उन मुद्दों पर साक्ष्य प्रस्तुत करेगा जिन्हें उसे सिद्ध करना है।
(2) फिर दूसरा पक्ष:
अपना कथन देगा,
(यदि हो तो) अपना साक्ष्य प्रस्तुत करेगा, और
फिर पूरे मामले पर न्यायालय को संबोधित कर सकता है।
(3) फिर प्रारंभ करने वाला पक्ष:
पूरे मामले पर सामान्य उत्तर (reply) दे सकता है।
(3A) से (3F) तक विशेष प्रावधान – लिखित तर्कों (Written Arguments) से संबंधित
(केवल निर्दिष्ट मूल्य वाले वाणिज्यिक विवादों (Commercial Disputes of Specified Value) पर लागू)
(3A) प्रत्येक पक्ष मौखिक बहस (oral arguments) से 4 सप्ताह पूर्व:
• संक्षेप में और अलग-अलग शीर्षकों में लिखित तर्क प्रस्तुत करेगा।
• ये तर्क रिकॉर्ड का हिस्सा बनेंगे।
(3B) लिखित तर्कों में स्पष्ट रूप से:
• कानून की धाराएँ,
• निर्णयों (judgments) के हवाले,
• और उन निर्णयों की प्रतियां शामिल होंगी।
(3C) ऐसे लिखित तर्कों की प्रति:
• एक साथ विपक्षी पक्ष को भी दी जाएगी।
(3D) न्यायालय, यदि उचित समझे तो:
• बहस की समाप्ति के 1 सप्ताह के भीतर संशोधित तर्कों की अनुमति दे सकता है।
(3E) लिखित तर्क प्रस्तुत करने के लिए स्थगन (adjournment) नहीं दिया जाएगा,
जब तक कि न्यायालय इसे आवश्यक न माने और इसका कारण लिखित में दर्ज न करे।
(3F) न्यायालय:
• मौखिक बहस के लिए समय की सीमा तय कर सकता है,
• मामले की प्रकृति और जटिलता को ध्यान में रखते हुए।
नियम 4: साक्ष्य का अभिलेखन (Recording of Evidence)
(1) मुख्य परीक्षण (Examination-in-Chief):
• हर मामले में, गवाह का मुख्य परीक्षण हलफनामे (affidavit) के माध्यम से होगा।
• जिस पक्ष ने गवाह प्रस्तुत किया है, वह इस हलफनामे की प्रतिलिपि विपक्षी पक्ष को देगा।
अपवाद: यदि दस्तावेज़ों पर भरोसा किया गया है, तो उनकी स्वीकृति न्यायालय के आदेशों पर निर्भर करेगी।
(1A) गवाहों के हलफनामे:
• पहली केस प्रबंधन सुनवाई (Case Management Hearing) में निर्धारित समय पर, सभी गवाहों के हलफनामे एक साथ दाखिल किए जाएंगे।
(1B) अतिरिक्त साक्ष्य:
• कोई अतिरिक्त साक्ष्य तभी प्रस्तुत किया जा सकता है जब:
o पर्याप्त कारण दर्शाया गया हो, और
o न्यायालय द्वारा अनुमोदित आदेश प्राप्त हो।
(1C) हलफनामे की वापसी:
• गवाह की जिरह शुरू होने से पहले, कोई भी पक्ष हलफनामा वापस ले सकता है, और इससे कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ेगा।
अपवाद: अन्य पक्ष ऐसे हलफनामे में किए गए किसी भी स्वीकारोक्ति (admission) का उपयोग कर सकता है।
(2) जिरह और पुनः परीक्षा:
• गवाह की जिरह और पुनः परीक्षा:
o न्यायालय या
o न्यायालय द्वारा नियुक्त आयुक्त (Commissioner)
द्वारा की जाएगी।
नोट: न्यायालय आयुक्त नियुक्त करते समय उचित कारकों पर विचार करेगा।
(3) साक्ष्य का अभिलेखन:
• न्यायालय या आयुक्त साक्ष्य को:
o लिखित रूप में या
o यांत्रिक रूप में
जज या आयुक्त की उपस्थिति में अभिलेखित करेगा।
• यदि आयुक्त द्वारा अभिलेखित किया गया है, तो वह:
o साक्ष्य के साथ अपनी रिपोर्ट, और
o अपने हस्ताक्षर सहित
न्यायालय को सौंपेगा।
नोट: यह साक्ष्य वाद के अभिलेख का हिस्सा बनेगा।
(4) गवाह के व्यवहार पर टिप्पणी:
• आयुक्त, परीक्षा के दौरान गवाह के व्यवहार पर महत्वपूर्ण टिप्पणियाँ दर्ज कर सकता है।
नोट: साक्ष्य अभिलेखन के दौरान उठाई गई कोई भी आपत्ति आयुक्त द्वारा दर्ज की जाएगी और न्यायालय द्वारा बहस के चरण में निर्णय लिया जाएगा।
(5) आयुक्त की रिपोर्ट:
• आयुक्त को अपनी रिपोर्ट 60 दिनों के भीतर न्यायालय को सौंपनी होगी।
अपवाद: न्यायालय, लिखित कारणों के आधार पर, समय बढ़ा सकता है।
(6) आयुक्तों की सूची:
• उच्च न्यायालय या जिला न्यायाधीश साक्ष्य अभिलेखन के लिए आयुक्तों की एक सूची तैयार करेंगे।
(7) आयुक्त का पारिश्रमिक:
• न्यायालय, सामान्य या विशेष आदेश द्वारा, आयुक्त के पारिश्रमिक की राशि निर्धारित कर सकता है।
(8) आदेश XXVI के नियमों का अनुप्रयोग:
• आदेश XXVI के नियम 16, 16A, 17 और 18 इस नियम के अंतर्गत आयुक्त की नियुक्ति, कार्यवाही और रिपोर्ट पर लागू होंगे।
Rule 5 – अपील योग्य मामलों में साक्ष्य कैसे लिया जाएगा
ऐसे मामले में जिसमें अपील की अनुमति है, प्रत्येक गवाह की गवाही इस प्रकार ली जाएगी –
(a) न्यायालय की भाषा में ली जाएगी –
(i) न्यायाधीश द्वारा स्वयं, या न्यायाधीश की उपस्थिति में और उनके व्यक्तिगत निर्देशन व निरीक्षण में लिखकर ली जाएगी; या
(ii) न्यायाधीश के मुख से बोले गए शब्दों को सीधे टाइपराइटर पर लिखकर ली जाएगी; या
(b) यदि न्यायाधीश कारणों को रिकॉर्ड करते हुए निर्देश दे, तो न्यायालय की भाषा में, न्यायाधीश की उपस्थिति में, यंत्र द्वारा रिकॉर्ड की जा सकती है।
Rule 6 – कब बयान का अनुवाद किया जाएगा
यदि गवाही उस भाषा में ली जाती है जो उस भाषा से अलग है जिसमें गवाह ने गवाही दी, और गवाह उस भाषा को नहीं समझता जिसमें गवाही लिखी गई है, तो गवाही को उस भाषा में गवाह को सुनाया जाएगा जिसमें उसने गवाही दी थी।
Rule 7 – धारा 138 के अंतर्गत साक्ष्य
धारा 138 के अंतर्गत जो साक्ष्य लिया गया है, वह Rule 5 में बताए गए तरीके के अनुसार ही लिखा जाएगा, पढ़कर सुनाया जाएगा, हस्ताक्षर किया जाएगा और आवश्यकतानुसार अनुवाद व सुधार भी किया जाएगा जैसे कि Rule 5 के अंतर्गत होता है।
Rule 8 – जब न्यायाधीश द्वारा साक्ष्य नहीं लिखा गया हो
यदि साक्ष्य न तो न्यायाधीश द्वारा लिखा गया है, न उनके द्वारा खुले न्यायालय में बोला गया है, और न ही उनकी उपस्थिति में यंत्र द्वारा रिकॉर्ड किया गया है, तो उन्हें प्रत्येक गवाह की गवाही के दौरान उसके सार (substance) का मेमोरेंडम लिखना होगा, उस पर हस्ताक्षर करना होगा और वह रिकॉर्ड का हिस्सा बनेगा।
Rule 39 – कब साक्ष्य अंग्रेजी में लिया जा सकता है
(1) अगर अंग्रेजी न्यायालय की भाषा नहीं है, लेकिन सभी पक्षकार (जो व्यक्तिगत रूप से उपस्थित हैं) और उनके वकील अंग्रेजी में साक्ष्य लिए जाने पर आपत्ति नहीं करते, तो न्यायाधीश उसे अंग्रेजी में लिख सकता है या लिखवा सकता है।
(2) अगर गवाही अंग्रेजी में नहीं दी गई, फिर भी यदि सभी पक्षकार और उनके वकील आपत्ति नहीं करते, तो न्यायाधीश उस साक्ष्य को अंग्रेजी में लिख सकता है या लिखवा सकता है।
Rule 10 – कोई विशेष प्रश्न और उत्तर को लिखा जा सकता है
न्यायालय स्वयं या किसी पक्षकार या उसके वकील के अनुरोध पर किसी विशेष प्रश्न और उत्तर, या किसी प्रश्न पर आपत्ति को, यदि विशेष कारण हो, तो लिख सकता है।
Rule 11 – आपत्ति की गई और न्यायालय द्वारा अनुमति दी गई प्रश्न
यदि किसी प्रश्न पर किसी पक्षकार या वकील द्वारा आपत्ति की जाती है, और न्यायालय उसे पूछने की अनुमति देता है, तो न्यायाधीश को वह प्रश्न, उत्तर, आपत्ति, आपत्ति करने वाले का नाम और न्यायालय का निर्णय सब कुछ लिखना होगा।
Rule 12 – गवाह के व्यवहार पर टिप्पणी
न्यायालय किसी गवाह की जिरह के दौरान उसके व्यवहार के बारे में जो भी बातें महत्वपूर्ण समझे, उन्हें रिकॉर्ड कर सकता है।
Rule 13 – अपील योग्य नहीं होने वाले मामलों में साक्ष्य का सार लेख
जहाँ अपील की अनुमति नहीं है, वहाँ प्रत्येक गवाह की गवाही का पूरा लेख आवश्यक नहीं है। न्यायाधीश को गवाही के दौरान उसका सार लिखना, टाइपराइटर पर बोलकर लिखवाना या यंत्र द्वारा रिकॉर्ड करवाना होगा। यह मेमोरेंडम न्यायाधीश के हस्ताक्षर से प्रमाणित किया जाएगा और रिकॉर्ड का हिस्सा बनेगा।
Rule 14 – [हटाया गया]
Rule 15 – किसी अन्य न्यायाधीश के सामने लिया गया साक्ष्य
(1) यदि कोई न्यायाधीश मृत्यु, स्थानांतरण या अन्य कारण से मुकदमे की सुनवाई पूरी नहीं कर पाता, तो उसका उत्तराधिकारी पूर्ववर्ती नियमों के अनुसार लिए गए साक्ष्य या मेमोरेंडम से कार्यवाही को आगे बढ़ा सकता है।
(2) यह नियम स्थानांतरित मुकदमों (section 24 के अंतर्गत) पर भी लागू होगा।
Rule 16 – तत्काल साक्ष्य लेने की शक्ति
(1) यदि कोई गवाह न्यायालय की क्षेत्राधिकार से बाहर जाने वाला हो, या अन्य पर्याप्त कारण हो जिससे उसकी गवाही तुरंत लेना आवश्यक हो, तो न्यायालय उसके साक्ष्य को कभी भी, मुकदमे की स्थापना के बाद, नियमों के अनुसार ले सकता है।
(2) यदि गवाही तुरंत न ली जाए तो पक्षकारों को परीक्षा की तिथि का पर्याप्त सूचना देना आवश्यक है।
(3) गवाही गवाह को पढ़कर सुनाई जाएगी, यदि वह सही माने तो उस पर गवाह के हस्ताक्षर होंगे, न्यायाधीश उसमें आवश्यक सुधार कर हस्ताक्षर करेगा, और यह साक्ष्य मुकदमे की सुनवाई में पढ़ा जा सकता है।
Rule 17 – गवाह को पुनः बुलाकर पूछताछ की शक्ति
न्यायालय किसी भी समय पहले से पूछे गए गवाह को वापस बुलाकर (जो भी साक्ष्य कानून लागू हो उस अनुसार) उससे उपयुक्त प्रश्न पूछ सकता है।
Rule 17A – [हटाया गया]
Rule 18 – निरीक्षण करने की शक्ति
न्यायालय किसी भी समय उस संपत्ति या वस्तु का निरीक्षण कर सकता है जिससे संबंधित कोई प्रश्न उठता है। निरीक्षण के तुरंत बाद न्यायालय उस निरीक्षण में देखे गए तथ्यों का एक मेमोरेंडम बनाएगा, जो मुकदमे के रिकॉर्ड का हिस्सा बनेगा।
Rule 19 – कमीशन पर बयान रिकॉर्ड करवाने की शक्ति
इन नियमों के होते हुए भी, न्यायालय गवाहों को खुले न्यायालय में बुलाकर बयान लेने के बजाय उनके बयान कमीशन पर Rule 4A of Order XXVI के अनुसार रिकॉर्ड करवाने का आदेश दे सकता है।
ORDER 19 – AFFIDAVITS -शपथपत्र
1. Power to order any point to be proved by affidavit –
1. किसी बिंदु को शपथपत्र द्वारा सिद्ध करने का आदेश देने की शक्ति –
कोई भी न्यायालय, जब पर्याप्त कारण हो, कभी भी यह आदेश दे सकता है कि कोई विशेष तथ्य या तथ्य शपथपत्र (affidavit) द्वारा सिद्ध किए जाएं, या कि किसी गवाह का शपथपत्र सुनवाई के समय पढ़ा जाए, न्यायालय जो उचित शर्तें समझे उनके अनुसार।
बशर्ते कि यदि न्यायालय को यह प्रतीत हो कि कोई पक्ष सच्चे मन (bona fide) से उस गवाह को जिरह (cross-examination) के लिए बुलाना चाहता है और वह गवाह उपलब्ध हो सकता है, तो ऐसा आदेश नहीं दिया जाएगा जिससे उस गवाह की गवाही केवल शपथपत्र द्वारा दी जाए।
2. Power to order attendance of deponent for cross-examination –
2. शपथ देने वाले व्यक्ति (deponent) की जिरह के लिए उपस्थिति का आदेश देने की शक्ति –
(1) किसी भी आवेदन पर साक्ष्य शपथपत्र द्वारा दिए जा सकते हैं, परंतु न्यायालय, किसी भी पक्ष के अनुरोध पर, उस व्यक्ति की जिरह के लिए उपस्थिति का आदेश दे सकता है।
(2) ऐसी उपस्थिति न्यायालय में होगी, जब तक कि वह व्यक्ति व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट प्राप्त न हो या न्यायालय कोई अन्य निर्देश न दे।
3. Matters to which affidavits shall be confined –
3. शपथपत्र किन बातों तक सीमित होंगे –
(1) शपथपत्र उन तथ्यों तक सीमित होंगे जिन्हें शपथ देने वाला व्यक्ति अपने व्यक्तिगत ज्ञान से प्रमाणित कर सके, सिवाय मध्यवर्ती (interlocutory) आवेदनों के मामलों में, जिनमें विश्वास (belief) की बातें मानी जा सकती हैं बशर्ते कि उनका आधार स्पष्ट रूप से बताया गया हो।
(2) हर उस शपथपत्र का खर्च, जिसमें अनावश्यक रूप से सुन-सुन कर सुनी गई बातें (hearsay), तर्कपूर्ण बातें (argumentative matter), या दस्तावेजों की प्रतियां या अंश शामिल हों, उस पक्ष को देना होगा जिसने वह शपथपत्र दाखिल किया हो जब तक कि न्यायालय अन्यथा निर्देश न दे।
Rule 4 – Court may control evidence
(न्यायालय साक्ष्य को नियंत्रित कर सकता है)
• कोर्ट तय कर सकता है कि किस मुद्दे पर साक्ष्य चाहिए और कैसे पेश हो।
• कोर्ट लिखित कारण देकर किसी पक्ष का साक्ष्य अस्वीकार कर सकता है।
महत्वपूर्ण: कोर्ट को साक्ष्य को सीमित या नियंत्रित करने की शक्ति है।
Rule 5 – Redacting or rejecting evidence
(साक्ष्य को हटाना या अस्वीकार करना)
• कोर्ट लिखित कारण देकर:
(i) हलफनामे के गैर-प्रासंगिक हिस्से हटा सकता है।
(ii) पूरा हलफनामा अस्वीकार कर सकता है अगर वह ग्राह्य साक्ष्य न हो।
महत्वपूर्ण: कोर्ट अप्रासंगिक साक्ष्य को हटाने या अस्वीकार करने का अधिकार रखता है।
6. Format and guidelines of affidavit of evidence
साक्ष्य की शपथ-पत्र की रूपरेखा और दिशा-निर्देश
(a) शपथ पत्र केवल उन तारीखों और घटनाओं तक सीमित होना चाहिए जो किसी तथ्य को साबित करने के लिए ज़रूरी हैं, और घटनाओं का समयक्रम (chronological order) होना चाहिए।
(b) अगर कोर्ट माने कि शपथ पत्र सिर्फ़ प्लीडिंग (याचिका) की नकल है या उसमें केवल कानूनी आधार हैं, तो कोर्ट उसे या उसके कुछ हिस्से को हटा सकती है।
(c) प्रत्येक पैराग्राफ एक अलग विषय से संबंधित होना चाहिए।
(d) शपथ पत्र में बताया जाए कि–
(i) कौन-कौन से बयान डिपोनेंट (शपथकर्ता) के निजी ज्ञान पर आधारित हैं और कौन-कौन सी बातें सूचना या विश्वास पर आधारित हैं।
(ii) सूचना या विश्वास का स्रोत क्या है।
(e) शपथ पत्र में होना चाहिए–
(i) सभी पन्नों की क्रम संख्या हो।
(ii) सभी पैराग्राफ क्रमांकित हों।
(iii) सभी संख्याएं और तारीखें अंकों (figures) में हों।
(iv) जिन दस्तावेजों का उल्लेख किया गया हो, वे शपथ पत्र या अन्य प्लीडिंग के साथ संलग्न हों और उनका पृष्ठ क्रमांक बताया गया हो।
Order 20 – Judgment and Decree (निर्णय और डिक्री)
Rule 1: Judgment कब और कैसे सुनाया जाएगा
• न्यायालय को सुनवाई पूरी होने के बाद खुले न्यायालय में तुरंत या यथासंभव शीघ्र निर्णय सुनाना होगा।
• यदि निर्णय बाद में सुनाया जाना है, तो दिनांक तय की जाएगी और पक्षकारों को सूचना दी जाएगी।
• प्रावधान (Proviso):
o निर्णय 30 दिन के भीतर सुनाने का प्रयास होगा।
o विशेष परिस्थिति में अधिकतम 60 दिन के भीतर निर्णय की तिथि तय होगी और इसकी सूचना दी जाएगी।
• व्यवसायिक मामलों (Commercial Disputes) में, न्यायालय 90 दिनों में निर्णय सुनाएगा और ईमेल या अन्य माध्यम से उसकी प्रतियां प्रदान की जाएँगी।
Rule 2: पूर्ववर्ती न्यायाधीश द्वारा लिखा गया निर्णय
• वर्तमान न्यायाधीश अपने पूर्ववर्ती द्वारा लिखा गया लेकिन न सुनाया गया निर्णय सुना सकता है।
Rule 3: निर्णय पर हस्ताक्षर
• निर्णय पर उसी दिन हस्ताक्षर होगा जब वह सुनाया जाएगा।
• एक बार हस्ताक्षर हो जाने के बाद, सिर्फ सेक्शन 152 या पुनर्विचार में ही बदलाव संभव है।
Rule 4: लघु वाद न्यायालय के निर्णय
• लघु वाद अदालतें केवल मुद्दे और निर्णय लिखेंगी।
• अन्य अदालतें – मामला संक्षेप में, मुद्दे, निर्णय और कारण बताएंगी।
Rule 5: हर मुद्दे पर निर्णय आवश्यक
• जहाँ मुद्दे निर्धारित किए गए हैं, प्रत्येक मुद्दे पर निर्णय और कारण दिए जाने चाहिए, जब तक कि एक ही मुद्दा निर्णय के लिए पर्याप्त न हो।
Rule 5A: अपील की जानकारी
• यदि दोनों पक्ष वकील द्वारा प्रस्तुत नहीं हैं, तो न्यायालय को यह बताना होगा कि अपील कहाँ और कितने समय में दायर की जा सकती है।
Rule 6: डिक्री की सामग्री
• डिक्री को निर्णय से मेल खाना चाहिए, जिसमें सूट संख्या, पक्षकारों के विवरण, पता, दावे और राहत का विवरण हो।
• लागत का विवरण और उसका भुगतान कौन करेगा, यह भी डिक्री में लिखा जाएगा।
• लागत को किसी अन्य देनदारी से समायोजित किया जा सकता है।
Rule 6A: डिक्री तैयार करने की समय-सीमा
• डिक्री 15 दिनों के अंदर तैयार की जानी चाहिए।
• अपील डिक्री की प्रतिलिपि के बिना भी की जा सकती है।
• एक बार डिक्री बन जाने पर, निर्णय का डिक्री के रूप में प्रभाव समाप्त हो जाएगा।
Rule 6B: निर्णय की प्रतिलिपि
• निर्णय सुनाए जाने के तुरंत बाद, उसकी प्रतियां पक्षकारों को उपलब्ध कराई जाएँगी (निर्धारित शुल्क पर)।
Rule 7: डिक्री की दिनांक
• डिक्री पर वही तारीख होगी जिस दिन निर्णय सुनाया गया।
• डिक्री न्यायाधीश द्वारा तभी हस्ताक्षरित होगी जब वह सुनिश्चित हो कि वह निर्णय के अनुसार है।
Rule 8: न्यायाधीश के कार्यालय छोड़ने के बाद डिक्री
• यदि न्यायाधीश ने निर्णय सुना दिया हो लेकिन डिक्री पर हस्ताक्षर न किया हो, तो उसका उत्तराधिकारी हस्ताक्षर कर सकता है।
Rule 9: अचल संपत्ति की डिक्री
• डिक्री में संपत्ति की पहचान के लिए सीमाएँ या रिकॉर्ड की संख्या दी जानी चाहिए।
Rule 10: चल संपत्ति की डिक्री
• चल संपत्ति के मामले में, यदि संपत्ति नहीं मिलती, तो वैकल्पिक राशि का उल्लेख डिक्री में होगा।
Rule 11: किस्तों में भुगतान
• न्यायालय उचित कारणों से निर्णय में या बाद में आदेश दे सकता है कि राशि किस्तों में चुकाई जाए (ब्याज सहित या बिना)।
• बाद में, डिक्री-धारी की सहमति से भी किस्तों का आदेश दिया जा सकता है।
Rule 12: कब्ज़ा और मेस्ने लाभ
• अचल संपत्ति के कब्ज़े और मेस्ने लाभ (mesne profits) की मांग पर डिक्री में निम्नलिखित शामिल हो सकते हैं:
o संपत्ति पर कब्ज़ा
o मुकदमा दायर होने से पहले का किराया या मेस्ने लाभ (या उसकी जांच)
o मुकदमे के बाद से कब्ज़ा मिलने तक, छोड़े जाने तक, या डिक्री के 3 वर्ष तक का किराया/लाभ (या उसकी जांच)
• जांच के बाद अंतिम डिक्री पास की जाएगी।
Rule 12A: विशेष निष्पादन (Specific performance) की डिक्री
• यदि डिक्री संपत्ति की बिक्री/पट्टे के विशेष निष्पादन की है, तो उसमें भुगतान की समय सीमा अवश्य निर्दिष्ट होगी।
Rule 13 – प्रशासन संबंधी वाद में डिक्री:
अगर संपत्ति का हिसाब और न्यायालय के आदेश से उसका प्रशासन माँगा गया है, तो अंतिम डिक्री से पहले प्रारंभिक डिक्री दी जाएगी जिसमें हिसाब और जांच के आदेश होंगे।
Rule 14 – प्राथमिकता (pre-emption) के वाद में डिक्री:
अगर बिक्री पर वादी का प्राथमिकता का दावा माना जाता है और कीमत जमा नहीं की गई है:
(a) कोर्ट अंतिम तिथि बताएगा जब तक राशि जमा करनी होगी।
(b) जमा होने पर कब्जा दिया जाएगा और वादी का अधिकार उस दिन से माना जाएगा; नहीं जमा होने पर वाद खारिज होगा।
अगर एक से अधिक दावेदार हों, तो जो नियम पहले पालन करे, उसी के अनुसार हिस्सा मिलेगा।
Rule 15 – साझेदारी भंग करने के वाद में डिक्री:
साझेदारी समाप्त करने या हिसाब लेने के वाद में कोर्ट प्रारंभिक डिक्री देगा जिसमें हिस्सेदारी, समाप्ति की तारीख और आवश्यक जांच के निर्देश होंगे।
Rule 16 – प्रधान और अभिकर्ता (agent) के बीच हिसाब के वाद में डिक्री:
अगर पैसे के लेनदेन का हिसाब जरूरी हो, तो कोर्ट अंतिम डिक्री से पहले प्रारंभिक डिक्री देगा और जरूरी हिसाब के निर्देश देगा।
Rule 17 – हिसाब संबंधी विशेष निर्देश:
कोर्ट डिक्री या बाद के आदेश में यह बता सकता है कि हिसाब कैसे लिया जाए और रिकॉर्ड को कैसे प्रमाण माना जाए। खाता-बही को प्राथमिक साक्ष्य माना जा सकता है।
Rule 18 – विभाजन या पृथक कब्जे के वाद में डिक्री:
(1) अगर संपत्ति सरकार को लगान देती हो, तो कोर्ट सिर्फ अधिकार बताएगा और विभाजन कलेक्टर करेगा।
(2) अन्य संपत्ति के मामले में, कोर्ट प्रारंभिक डिक्री देगा जिसमें पक्षों के अधिकार और आगे की कार्यवाही के निर्देश होंगे।
Rule 19 – सेट-ऑफ या प्रतिदावा (counter-claim) के मामलों में डिक्री:
(1) डिक्री में वादी और प्रतिवादी दोनों को कितना पैसा मिलना है, यह बताया जाएगा और जिसकी राशि बनती हो, उसे दी जाएगी।
(2) ऐसे डिक्री अपील के लिए वैसे ही मानी जाएगी जैसे सामान्य डिक्री।
(3) यह नियम हर तरह के सेट-ऑफ और प्रतिदावा पर लागू होगा।
Rule 20 – निर्णय और डिक्री की प्रमाणित प्रति:
अगर पक्षकार मांगे और खर्च दें, तो न्यायालय उन्हें निर्णय और डिक्री की प्रमाणित प्रतियाँ देगा।
Order 20A – खर्च (Costs)
Rule 1 – कुछ विशेष खर्चों का प्रावधान:
कोर्ट निम्नलिखित खर्च देने का आदेश दे सकता है:
(a) मुकदमा दाखिल करने से पहले कानूनन आवश्यक नोटिस का खर्च,
(b) कानूनन जरूरी न होते हुए भी दिया गया नोटिस,
(c) दस्तावेजों को टाइप/प्रिंट करने का खर्च,
(d) रिकॉर्ड देखने के लिए दिया गया शुल्क,
(e) गवाह लाने का खर्च (चाहे कोर्ट से समन न हुआ हो),
(f) अपील में, निर्णय/डिक्री की प्रति लेने का खर्च।
Rule 2 – खर्च उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार:
इन खर्चों का निर्धारण उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार होगा।
Order 21 – डिक्री और आदेशों का निष्पादन
(Execution of Decrees and Orders)
Rule 1 – डिक्री के अंतर्गत धनराशि चुकाने के तरीके
(1) डिक्री के अंतर्गत देय धन इस प्रकार चुकाया जा सकता है:
(a) उस न्यायालय में जमा करके जिसे डिक्री निष्पादित करनी है, या पोस्टल मनी ऑर्डर या बैंक के माध्यम से उस न्यायालय को भेजकर।
(b) न्यायालय के बाहर, डिक्री-धारक को पोस्टल मनी ऑर्डर या बैंक या किसी अन्य लिखित प्रमाण वाले तरीके से।
(c) या फिर उस न्यायालय के निर्देश अनुसार जिसने डिक्री पारित की है।
(2) अगर (a) या (c) तरीके से भुगतान किया जाए, तो न्यायालय या पंजीकृत डाक से डिक्री-धारक को इसकी सूचना देना अनिवार्य है।
(3) अगर पोस्टल मनी ऑर्डर या बैंक के जरिए भुगतान हो, तो उसमें ये बातें स्पष्ट होनी चाहिए:
(a) मूल वाद संख्या,
(b) पक्षकारों के नाम (कम से कम पहले दो वादी व पहले दो प्रतिवादी),
(c) पैसा किस मद (मूलधन, ब्याज या खर्च) में समायोजित करना है,
(d) निष्पादन मामला संख्या,
(e) भुगतान करने वाले का नाम व पता।
(4) यदि (a) या (c) तरीके से भुगतान हो और उपर्युक्त सूचना दी गई हो, तो ब्याज उस सूचना की सेवा तिथि से बंद हो जाएगा।
(5) अगर (b) तरीके से भुगतान हो, तो भुगतान की तिथि से ब्याज बंद हो जाएगा।
बशर्ते यदि डिक्री-धारक मनी ऑर्डर या बैंक भुगतान स्वीकार न करे या टालमटोल करे, तो जिस दिन सामान्य प्रक्रिया में पैसा उसके पास पहुंच जाता, उसी दिन से ब्याज बंद मान लिया जाएगा।
Rule 2 – न्यायालय के बाहर डिक्री-धारक को भुगतान
(1) अगर डिक्री के अंतर्गत कोई राशि न्यायालय के बाहर चुकाई जाती है या कोई समझौता हो जाता है, तो डिक्री-धारक को यह अदालत को प्रमाणित करना होगा और अदालत इसे रिकॉर्ड करेगी।
(2) निर्णय-ऋणी (judgment-debtor) या उसका जमानती भी अदालत को सूचित कर सकता है और डिक्री-धारक को नोटिस जारी करने के लिए आवेदन कर सकता है। अगर डिक्री-धारक कोई आपत्ति नहीं करता, तो अदालत इसे रिकॉर्ड कर लेगी।
(2A) निर्णय-ऋणी के आवेदन पर केवल तब ही भुगतान या समझौता रिकॉर्ड किया जाएगा, जब:
(a) Rule 1 में बताए गए तरीके से भुगतान हुआ हो, या
(b) समझौते का कोई दस्तावेजी प्रमाण हो, या
(c) डिक्री-धारक द्वारा इसे स्वीकार किया गया हो।
(3) कोई भी ऐसा भुगतान या समायोजन जो ऊपर के अनुसार प्रमाणित या रिकॉर्ड नहीं किया गया हो, निष्पादन अदालत उसे मान्यता नहीं देगी।
Rule 3 – जब संपत्ति दो या अधिक क्षेत्राधिकार में हो
यदि कोई अचल संपत्ति दो या अधिक न्यायालय क्षेत्रों में आती हो, तो उनमें से कोई भी न्यायालय पूरी संपत्ति को कुर्क व नीलाम कर सकता है।
Rule 4 – स्मॉल कॉज कोर्ट को भेजना
यदि किसी वाद में पारित डिक्री की कीमत दो हजार रुपये से अधिक न हो, और वह ऐसा विषय न हो जो स्मॉल कॉज कोर्ट के अधिकार से बाहर हो, तो उसे कोलकाता, मद्रास या बॉम्बे के स्मॉल कॉज कोर्ट में भेजा जा सकता है, और वह कोर्ट उसे ऐसे निष्पादित करेगा जैसे वह डिक्री उसी ने दी हो।
Rule 5 – डिक्री भेजने का तरीका
यदि किसी डिक्री को निष्पादन के लिए किसी अन्य न्यायालय को भेजना है, तो वह न्यायालय जिसने डिक्री पारित की है, सीधे उस दूसरे न्यायालय को डिक्री भेजेगा, चाहे वह दूसरे राज्य में ही क्यों न हो।
बशर्ते कि यदि वह दूसरा न्यायालय डिक्री निष्पादित करने का अधिकार नहीं रखता, तो वह उसे उस न्यायालय को भेज देगा जिसके पास ऐसा अधिकार है।
Rule 6 – जब कोई न्यायालय चाहता है कि उसकी डिक्री कोई दूसरा न्यायालय निष्पादित करे
ऐसे में भेजने वाला न्यायालय निम्नलिखित चीजें भेजेगा:
(a) डिक्री की प्रति,
(b) एक प्रमाणपत्र जिसमें बताया गया हो कि डिक्री की पूर्ति उस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में नहीं हो पाई, या आंशिक हुई है तो कितनी हुई और कितना शेष है,
(c) निष्पादन आदेश की प्रति, या यदि ऐसा कोई आदेश नहीं है तो उसका प्रमाणपत्र।
Rule 7 – प्राप्त न्यायालय द्वारा प्रतियों को बिना साक्ष्य के दर्ज करना
जिस न्यायालय को डिक्री भेजी गई है, वह इन प्रतियों व प्रमाणपत्रों को बिना किसी अतिरिक्त प्रमाण के दर्ज करेगा,
जब तक कि विशेष कारणों से न्यायाधीश लिखित रूप में ऐसा प्रमाण मांगने का आदेश न दे।
Rule 8 – डिक्री का निष्पादन जिस न्यायालय को भेजा गया है, उसके द्वारा
जब उपरोक्त प्रतियां दर्ज कर ली जाती हैं, और यदि प्राप्त न्यायालय जिला न्यायालय है, तो वह स्वयं निष्पादित कर सकता है या किसी अधीनस्थ सक्षम न्यायालय को निष्पादन के लिए भेज सकता है।
Rule 9 – उच्च न्यायालय द्वारा निष्पादन
यदि डिक्री निष्पादन के लिए उच्च न्यायालय को भेजी गई है, तो वह ऐसे निष्पादित करेगा जैसे वह डिक्री उसी उच्च न्यायालय द्वारा उसके सामान्य दीवानी क्षेत्राधिकार में पारित की गई हो।
आवेदन (Application for Execution)
Rule 10 – निष्पादन के लिए आवेदन
जब डिक्री-धारक डिक्री का निष्पादन चाहता है, तो वह आवेदन करेगा:
• उस न्यायालय में जिसने डिक्री दी है, या
• वहां के नियुक्त अधिकारी को, या
• यदि डिक्री किसी अन्य न्यायालय को भेजी गई है, तो उस न्यायालय में या उसके उचित अधिकारी को।
Rule 11 – मौखिक आवेदन
(1) मौखिक आवेदन:
यदि डिक्री धनराशि के भुगतान की है, तो डिक्री पारित करते समय, डिक्री-धारक के मौखिक आवेदन पर न्यायालय तत्काल गिरफ्तारी का आदेश दे सकता है,
यदि निर्णय-ऋणी (judgment-debtor) न्यायालय परिसर के भीतर है, तो वारंट तैयार होने से पहले ही।
(2) लिखित आवेदन:
उप-नियम (1) को छोड़कर, प्रत्येक निष्पादन आवेदन लिखित होगा, आवेदक द्वारा या किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित व सत्यापित होगा जो उस वाद की जानकारी रखता हो, और उसमंद निम्नलिखित विवरण तालिका रूप में होंगे:
(a) वाद संख्या,
(b) पक्षकारों के नाम,
(c) डिक्री की तिथि,
(d) क्या डिक्री के खिलाफ अपील हुई है,
(e) क्या कोई भुगतान या समझौता हुआ है डिक्री के बाद,
(f) क्या पूर्व में कोई निष्पादन आवेदन हुआ है, उनकी तिथियाँ व परिणाम,
(g) डिक्री के तहत देय राशि व ब्याज, कोई क्रॉस-डिक्री हो तो उसका विवरण,
(h) खर्च की राशि (यदि हो),
(i) वह व्यक्ति जिसके खिलाफ निष्पादन चाहा गया है,
(j) अदालत की सहायता किस प्रकार चाहिए:
• (i) किसी संपत्ति की सुपुर्दगी द्वारा,
• (ii) कुर्की, या कुर्की और बिक्री, या बिना कुर्की के बिक्री द्वारा,
• (iii) किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी और कारावास द्वारा,
• (iv) रिसीवर की नियुक्ति द्वारा,
• (v) अन्य किसी भी प्रकार जैसा राहत की प्रकृति हो।
(3) आवेदन करने वाले से न्यायालय प्रमाणित डिक्री प्रति प्रस्तुत करने को कह सकता है।
Rule 11A – गिरफ्तारी के लिए आवेदन में आधार बताना अनिवार्य
यदि निर्णय-ऋणी की गिरफ्तारी और कारावास के लिए आवेदन किया गया है, तो उसमें गिरफ्तारी के आधार स्पष्ट रूप से दिए जाएं या फिर साथ में शपथपत्र (affidavit) हो जिसमें वे आधार लिखे हों।
Rule 12. ऐसा चल-अचल संपत्ति जो निर्णय-ऋणी (judgment-debtor) के कब्जे में नहीं हो, उसके कुर्की के लिए आवेदन
अगर किसी चल संपत्ति की कुर्की के लिए आवेदन किया जाता है जो निर्णय-ऋणी के कब्जे में नहीं है, तो डिक्री-धारक को आवेदन के साथ उस संपत्ति की सूची (inventory) लगानी होगी जिसमें उस संपत्ति का ठीक-ठीक विवरण (description) हो।
Rule 13. अचल संपत्ति की कुर्की के लिए आवेदन में कुछ विशेष बातें होनी चाहिए
जब निर्णय-ऋणी की अचल संपत्ति की कुर्की के लिए आवेदन किया जाता है, तो आवेदन के अंत में नीचे दी गई बातें होनी चाहिए:
(a) उस संपत्ति का ऐसा विवरण जिससे उसकी पहचान हो सके, और अगर वह संपत्ति सीमाओं या सर्वे के रिकॉर्ड में नंबर द्वारा पहचानी जा सकती है, तो उन सीमाओं या नंबरों का उल्लेख।
(b) उस संपत्ति में निर्णय-ऋणी की हिस्सेदारी या रुचि का वर्णन, जितना आवेदनकर्ता की जानकारी और विश्वास के अनुसार संभव हो।
Rule 14. कुछ मामलों में कलेक्टर के रजिस्टर से प्रमाणित प्रति माँगने की शक्ति
अगर ऐसे ज़मीन की कुर्की के लिए आवेदन किया जाए जो कलेक्टर के कार्यालय में पंजीकृत है, तो न्यायालय आवेदनकर्ता से उस रजिस्टर से प्रमाणित प्रति माँग सकता है जिसमें यह बताया गया हो कि कौन लोग उस ज़मीन के मालिक हैं या उसमें हस्तांतरणीय अधिकार रखते हैं या राजस्व देने के लिए जिम्मेदार हैं, और उनके हिस्सों का विवरण।
Rule 15. संयुक्त डिक्री-धारकों द्वारा निष्पादन के लिए आवेदन
(1) अगर कोई डिक्री दो या अधिक व्यक्तियों के पक्ष में संयुक्त रूप से पारित हुई है, तो उन में से कोई एक या अधिक व्यक्ति, अगर डिक्री में कोई विपरीत शर्त नहीं है, उस पूरी डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन कर सकते हैं, अपने सभी के लाभ के लिए या अगर किसी की मृत्यु हो गई है, तो जीवित व्यक्तियों और मृतक के कानूनी प्रतिनिधियों के लाभ के लिए।
(2) अगर न्यायालय को ऐसा करने का उचित कारण दिखे, तो जो व्यक्ति आवेदन में शामिल नहीं हैं, उनके हितों की रक्षा के लिए उचित आदेश पारित करेगा।
Rule 16. डिक्री के स्थानांतरित व्यक्ति द्वारा निष्पादन का आवेदन
अगर कोई डिक्री या किसी डिक्री-धारक का उस डिक्री में हित लिखित हस्तांतरण या क़ानून द्वारा किसी और को स्थानांतरित किया गया है, तो वह स्थानांतरण प्राप्तकर्ता उस डिक्री के निष्पादन के लिए उसी न्यायालय में आवेदन कर सकता है जिसने वह डिक्री पारित की थी; और वह डिक्री उसी प्रकार निष्पादित की जा सकती है जैसे कि वह आवेदन स्वयं डिक्री-धारक ने किया हो:
बशर्ते कि, अगर डिक्री या उसमें हित का स्थानांतरण हस्तांतरण द्वारा हुआ हो, तो ऐसे आवेदन की सूचना स्थानांतरण करने वाले और निर्णय-ऋणी को दी जाएगी, और तब तक डिक्री निष्पादित नहीं की जाएगी जब तक न्यायालय उनके आपत्तियों (अगर हों) को नहीं सुन लेता।
बशर्ते भी कि, अगर किसी डिक्री के अंतर्गत दो या अधिक व्यक्तियों से पैसे की वसूली की बात है और वह डिक्री उनमें से किसी एक को स्थानांतरित की जाती है, तो वह व्यक्ति बाकी लोगों के खिलाफ उस डिक्री को निष्पादित नहीं कर सकता।
स्पष्टीकरण: इस नियम में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे धारा 146 के प्रावधानों पर प्रभाव पड़े, और संपत्ति में अधिकार प्राप्त करने वाला व्यक्ति जो मुकदमे का विषय है, बिना इस नियम के तहत अलग से डिक्री के हस्तांतरण के भी निष्पादन के लिए आवेदन कर सकता है।
Rule 17. डिक्री के निष्पादन के आवेदन को प्राप्त करने पर प्रक्रिया
(1) जब नियम 11 के उप-नियम (2) के अनुसार डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन मिलता है, तो न्यायालय यह देखेगा कि नियम 11 से 14 तक की प्रासंगिक आवश्यकताओं का पालन किया गया है या नहीं; और अगर पालन नहीं किया गया हो, तो न्यायालय तुरंत या नियत समय में उस दोष को सुधारने की अनुमति देगा।
(1A) अगर दोष को नहीं सुधारा गया, तो न्यायालय आवेदन को खारिज कर देगा:
बशर्ते कि, अगर न्यायालय को लगे कि नियम 11 के उप-नियम (2) की धाराओं (g) और (h) में दी गई राशि में कुछ त्रुटि है, तो न्यायालय आवेदन को खारिज करने की बजाय अंतरिम रूप से उस राशि का निर्णय लेगा और उसी के अनुसार निष्पादन का आदेश देगा, बिना पक्षकारों के अंतिम अधिकारों पर प्रभाव डाले।
(2) जब कोई आवेदन उप-नियम (1) के अंतर्गत संशोधित किया जाता है, तो उसे वही माना जाएगा जैसे वह कानून के अनुसार उसी तारीख़ को प्रस्तुत किया गया था जिस दिन वह पहले प्रस्तुत किया गया था।
(3) हर संशोधन को न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षरित या आरंभाक्षरित किया जाएगा।
(4) जब आवेदन स्वीकृत हो जाता है, तो न्यायालय रजिस्टर में उस आवेदन और उसकी तिथि का नोट बनाएगा और आगे के नियमों के अधीन रहते हुए, आवेदन की प्रकृति के अनुसार डिक्री के निष्पादन का आदेश देगा:
बशर्ते कि, अगर वह डिक्री पैसे के भुगतान से संबंधित है, तो कुर्क की गई संपत्ति का मूल्य डिक्री के बकाया रकम के जितना हो सके उतना होना चाहिए।
Rule 18. परस्पर डिक्रीयों (Cross-Decrees) के मामलों में निष्पादन
(1) जब एक ही न्यायालय में दो अलग मुकदमों में परस्पर डिक्री दी गई हो जो पैसे के भुगतान से संबंधित हो और दोनों एक ही समय पर निष्पादन योग्य हों, तो—
(a) अगर दोनों राशि समान हैं, तो दोनों डिक्रीयों में संतोष (satisfaction) दर्ज कर दी जाएगी।
(b) अगर दोनों राशि असमान हैं, तो केवल बड़ी राशि की डिक्री का धारक ही उतनी राशि के लिए निष्पादन ले सकता है जो छोटी राशि घटाकर बचती है, और बड़ी राशि की डिक्री में उतनी ही संतोष दर्ज की जाएगी जितनी छोटी राशि है, तथा छोटी डिक्री में पूरी संतोष दर्ज की जाएगी।
(2) यह नियम तब भी लागू होगा जब पक्षों में से कोई एक किसी डिक्री का प्राप्तकर्ता (assignee) हो और मूल देनदार या स्वयं प्राप्तकर्ता पर वह बकाया हो।
(3) यह नियम तभी लागू होगा जब—
(a) एक डिक्री में डिक्री-धारक, दूसरी डिक्री में निर्णय-ऋणी हो और दोनों मामलों में वही भूमिका निभा रहा हो; और
(b) डिक्रीयों में बकाया राशि निश्चित (definite) हो।
(4) अगर किसी डिक्री में कई व्यक्तियों पर संयुक्त और पृथक रूप से (jointly and severally) बकाया हो और उनमें से एक ने अकेले एक डिक्री प्राप्त की हो, तो वह उसे परस्पर डिक्री के रूप में ले सकता है।
उदाहरण:
(a) A के पास B के खिलाफ ₹1,000 की डिक्री है। B के पास A के खिलाफ ₹1,000 की डिक्री है जो केवल तभी लागू होगी जब A कुछ माल भविष्य में न दे। B इस डिक्री को इस नियम के अंतर्गत परस्पर डिक्री नहीं मान सकता।
(b) A और B ने मिलकर C के खिलाफ ₹1,000 की डिक्री प्राप्त की। C के पास B के खिलाफ ₹1,000 की डिक्री है। C इसे परस्पर डिक्री नहीं मान सकता।
(c) A के पास B के खिलाफ ₹1,000 की डिक्री है। C, जो B का ट्रस्टी है, B की ओर से A के खिलाफ ₹1,000 की डिक्री प्राप्त करता है। B, C की डिक्री को इस नियम के अंतर्गत परस्पर डिक्री नहीं मान सकता।
(d) A, B, C, D और E पर F ने ₹1,000 की संयुक्त और पृथक डिक्री प्राप्त की। A ने अकेले F के खिलाफ ₹1,000 की डिक्री प्राप्त की। A, उस डिक्री को परस्पर डिक्री के रूप में प्रस्तुत कर सकता है।
19. Execution in case of cross-claims under same decree
एक ही डिक्री के अंतर्गत पारस्परिक दावों में निष्पादन
• (a) यदि दोनों पक्षों को एक-दूसरे से वसूल की जाने वाली धनराशियाँ बराबर हैं, तो डिक्री पर दोनों की तृप्ति (satisfaction) दर्ज की जाएगी।
• (b) यदि दोनों रक़में असमान हैं, तो निष्पादन केवल उस पक्ष द्वारा लिया जा सकता है जो बड़ी राशि का हकदार है, और केवल उतनी राशि के लिए जो छोटी राशि घटाने के बाद बचती है; और छोटी राशि की तृप्ति डिक्री पर दर्ज की जाएगी।
20. Cross-decrees and cross-claims in mortgage suits
बंधक वादों में पारस्परिक डिक्री और दावे
• नियम 18 और 19 के प्रावधान बंधक या प्रभार लागू कराने हेतु बिक्री की डिक्री पर भी लागू होंगे।
21. Simultaneous execution
एक साथ निष्पादन
• न्यायालय अपने विवेक से निर्णय दे सकता है कि डिक्री के अनुसार एक ही समय में निर्णय-ऋणी (judgment-debtor) के व्यक्ति और संपत्ति दोनों के विरुद्ध निष्पादन न किया जाए।
22. Notice to show cause against execution in certain cases
कुछ मामलों में निष्पादन के विरुद्ध कारण बताने हेतु नोटिस
• (1) जब निष्पादन के लिए आवेदन किया जाए—
(a) डिक्री की तारीख के दो वर्ष से अधिक समय के बाद, या
(b) डिक्री के किसी पक्ष के कानूनी प्रतिनिधि के विरुद्ध, या
(c) जब वह पक्ष दिवालिया घोषित हो गया हो और आवेदन दिवालियापन के प्राप्तकर्ता या नियुक्त व्यक्ति (assignee/receiver) के विरुद्ध हो, या
(d) जब आवेदन धारा 44A के अंतर्गत दाखिल की गई डिक्री के निष्पादन हेतु किया गया हो—
—तो न्यायालय उस व्यक्ति को कारण बताने हेतु नोटिस जारी करेगा कि डिक्री उसके विरुद्ध क्यों निष्पादित न की जाए।
बशर्ते कि:
o यदि पिछले निष्पादन आवेदन पर न्यायालय द्वारा आदेश दिया गया हो और वर्तमान आवेदन उस आदेश की तारीख से दो वर्ष के भीतर किया गया हो, तो केवल समय (दो वर्ष) के कारण नोटिस आवश्यक नहीं होगा।
o यदि पिछले निष्पादन आवेदन में उसी व्यक्ति के विरुद्ध निष्पादन का आदेश हो चुका है, तो उत्तराधिकारी के विरुद्ध पुनः नोटिस आवश्यक नहीं होगा।
• (2) ऊपर दिए गए उप-नियम के बावजूद, यदि न्यायालय कारण दर्ज करते हुए माने कि नोटिस देने से अनुचित विलंब होगा या न्याय का उद्देश्य विफल होगा, तो वह बिना नोटिस के निष्पादन की प्रक्रिया जारी कर सकता है।
महत्वपूर्ण बिंदु संक्षेप में:
• बराबर दावों में दोनों पक्षों की तृप्ति दर्ज होगी।
• असमान दावों में केवल बड़े दावे वाला पक्ष निष्पादन कर सकता है।
• बंधक वादों में भी यही नियम लागू होंगे।
• एक साथ व्यक्ति व संपत्ति के विरुद्ध निष्पादन न किया जा सके — यह न्यायालय के विवेक पर है।
• 2 वर्ष से अधिक समय बीत जाने पर, या उत्तराधिकारी/दिवालिया व्यक्ति के विरुद्ध निष्पादन हो — तो कारण बताओ नोटिस जरूरी है, कुछ अपवादों को छोड़कर।
Rule 22A – मृत्यु होने पर विक्रय रद्द नहीं होगा
जब डिक्री के तहत किसी संपत्ति की बिक्री की जाती है, तो सिर्फ इस कारण से वह बिक्री रद्द नहीं की जाएगी कि डिक्री-देबी की मृत्यु विक्रय की उद्घोषणा (प्रोक्लेमेशन) जारी होने और विक्रय होने के बीच हो गई, चाहे डिक्री-धारक मृतक डिक्री-देबी के विधिक उत्तराधिकारी (legal representative) को पक्षकार न भी बनाए।
बशर्ते कि यदि विधिक उत्तराधिकारी को बिक्री से हानि (prejudice) हुई है, तो न्यायालय विक्रय को रद्द कर सकता है।
Rule 23 – नोटिस जारी करने के बाद की प्रक्रिया
(1) यदि नोटिस पाने वाला व्यक्ति (rule 22 के तहत) पेश नहीं होता या न्यायालय को संतुष्ट नहीं करता, तो न्यायालय डिक्री के निष्पादन का आदेश देगा।
(2) यदि वह व्यक्ति कोई आपत्ति (objection) करता है, तो न्यायालय उस पर विचार कर उचित आदेश देगा।
Rule 24 – निष्पादन की प्रक्रिया
(1) जब पूर्व आवश्यक कार्रवाइयाँ पूरी हो जाती हैं, तो न्यायालय निष्पादन हेतु प्रक्रिया (process) जारी करेगा।
(2) हर प्रक्रिया पर तारीख अंकित होगी, न्यायाधीश या नियुक्त अधिकारी द्वारा हस्ताक्षरित होगी, मुहर लगी होगी और उचित अधिकारी को निष्पादन हेतु दी जाएगी।
(3) हर प्रक्रिया में एक दिन लिखा होगा जिससे पहले उसे निष्पादित करना है, और एक दिन लिखा होगा जिससे पहले उसे न्यायालय में लौटाना है।
लेकिन अगर लौटाने की तारीख न दी गई हो, तो वह प्रक्रिया अमान्य (void) नहीं मानी जाएगी।
Rule 25 – प्रक्रिया पर टिप्पणी (Endorsement)
(1) प्रक्रिया को निष्पादित करने वाले अधिकारी को यह लिखना होगा कि कब और कैसे निष्पादन किया, और यदि देरी हुई हो तो कारण बताना होगा। यदि निष्पादन नहीं हुआ हो तो वजह देनी होगी।
(2) अगर अधिकारी कहे कि वह निष्पादन नहीं कर सका, तो न्यायालय उसे बुलाकर पूछताछ करेगा, चाहे तो गवाह भी बुला सकता है और परिणाम रिकॉर्ड करेगा।
Stay of Execution
Rule 26 – कब निष्पादन रोका जा सकता है
(1) यदि डिक्री निष्पादन के लिए किसी अन्य न्यायालय को भेजी गई है, तो वह न्यायालय, पर्याप्त कारण दिखने पर, डिक्री का निष्पादन कुछ समय के लिए रोक सकता है, ताकि डिक्री-देबी मूल न्यायालय या अपीलीय न्यायालय में स्थगन (stay) हेतु आवेदन कर सके।
(2) यदि डिक्री-देबी (निर्णित रिणीं) की संपत्ति या व्यक्ति को जब्त किया गया है, तो उस न्यायालय द्वारा उसे वापस दिया जा सकता है या रिहा किया जा सकता है जब तक आवेदन का परिणाम न आ जाए।
(3) ऐसा आदेश देने से पहले न्यायालय डिक्री-देबी से सुरक्षा (security) या कुछ शर्तें लागू करेगा जैसा उचित समझे।
Rule 27 – मुक्ति का असर नहीं
Rule 26 के तहत संपत्ति की वापसी या व्यक्ति की रिहाई से यह नहीं रोका जाएगा कि डिक्री का फिर से निष्पादन करके संपत्ति या व्यक्ति को फिर से जब्त किया जाए।
Rule 28 – मूल न्यायालय या अपीलीय न्यायालय का आदेश बाध्यकारी होगा
जिस न्यायालय ने डिक्री पारित की है या अपीलीय न्यायालय ने निष्पादन संबंधी जो आदेश दिया है, वह उस न्यायालय पर बाध्यकारी होगा जिसे डिक्री निष्पादन के लिए भेजी गई है।
Rule 29 – डिक्री-धारक और डिक्री-देबी के बीच लंबित वाद होने पर निष्पादन रोका जा सकता है
यदि डिक्री-धारक के खिलाफ डिक्री-देबी ने कोई मुकदमा (suit) दायर किया है और वह लंबित है, तो न्यायालय सुरक्षा या अन्य शर्तों के अधीन डिक्री का निष्पादन रोक सकता है जब तक वह मुकदमा तय न हो जाए।
बशर्ते यदि डिक्री धनराशि के भुगतान की है और बिना सुरक्षा के स्थगन (stay) दिया गया है, तो न्यायालय को उसके लिए कारण दर्ज करने होंगे।
Rule 30 – धनराशि की डिक्री का निष्पादन
धन भुगतान की डिक्री, जिसमें वैकल्पिक राहत के रूप में धन देना लिखा हो, उसका निष्पादन निर्णय-ऋणी को सिविल जेल में भेजकर, या उसकी संपत्ति कुर्क कर के, या दोनों तरीकों से किया जा सकता है।
नियम 31. किसी निश्चित चल संपत्ति के लिए डिक्री –
(1) जहाँ डिक्री किसी निश्चित चल संपत्ति या उसमें किसी हिस्से के लिए है, वहाँ उसका पालन (यदि संभव हो) उस चल संपत्ति या हिस्से की ज़ब्ती और उसे उस पक्ष को, जिसे वह दी गई है, या उसके द्वारा नियुक्त किसी व्यक्ति को सुपुर्द करके, या निर्णय-ऋणी को सिविल जेल में निरुद्ध करके, या उसकी संपत्ति को कुर्क करके, या दोनों तरीकों से किया जा सकता है।
(2) यदि उप-नियम (1) के अंतर्गत कोई कुर्की तीन माह तक प्रभाव में रही है, और निर्णय-ऋणी ने डिक्री का पालन नहीं किया है, और निर्णय-प्राप्तकर्ता ने कुर्क की गई संपत्ति की बिक्री के लिए आवेदन किया है, तो ऐसी संपत्ति बेची जा सकती है, और उसकी प्राप्त राशि में से न्यायालय निर्णय-प्राप्तकर्ता को —
यदि डिक्री में चल संपत्ति के बदले कोई राशि निश्चित की गई है — वह राशि दे सकता है; और अन्य मामलों में, जो प्रतिकर न्यायालय उचित समझे, वह दे सकता है; और शेष राशि (यदि कोई हो) निर्णय-ऋणी को उसके आवेदन पर दे दी जाएगी।
(3) यदि निर्णय-ऋणी ने डिक्री का पालन कर लिया हो और उस डिक्री के पालन की समस्त लागत चुका दी हो, जो वह देने के लिए बाध्य हो, या यदि कुर्की की तिथि से तीन माह बीत जाने के पश्चात न तो संपत्ति बेचने के लिए कोई आवेदन किया गया हो, या यदि किया गया हो तो उसे अस्वीकार कर दिया गया हो, तो कुर्की समाप्त हो जाएगी।
नियम 32. विशेष निष्पादन, दांपत्य अधिकारों की पुनः प्राप्ति, या निषेधाज्ञा के लिए डिक्री –
(1) यदि उस पक्ष को, जिसके विरुद्ध अनुबंध के विशेष निष्पादन, या दांपत्य अधिकारों की पुनः प्राप्ति, या निषेधाज्ञा की डिक्री पारित हुई है, डिक्री का पालन करने का अवसर दिया गया हो और उसने जानबूझकर उसका पालन नहीं किया हो, तो डिक्री को —
दांपत्य अधिकारों की पुनः प्राप्ति की डिक्री के मामले में उसकी संपत्ति की कुर्की द्वारा, और अनुबंध के विशेष निष्पादन या निषेधाज्ञा की डिक्री के मामले में — सिविल जेल में निरुद्ध करके, या संपत्ति कुर्क करके, या दोनों से लागू किया जा सकता है।
(2) यदि जिस पक्ष के विरुद्ध विशेष निष्पादन या निषेधाज्ञा की डिक्री पारित हुई है वह कोई निगम (corporation) है, तो डिक्री को उसकी संपत्ति की कुर्की द्वारा या न्यायालय की अनुमति से उसके निदेशकों या प्रमुख अधिकारियों को सिविल जेल में निरुद्ध करके, या दोनों तरीकों से लागू किया जा सकता है।
(3) यदि उप-नियम (1) या (2) के अंतर्गत कोई कुर्की छह माह तक प्रभावी रही है, और निर्णय-ऋणी ने डिक्री का पालन नहीं किया है, और निर्णय-प्राप्तकर्ता ने संपत्ति की बिक्री के लिए आवेदन किया है, तो संपत्ति बेची जा सकती है और उससे प्राप्त राशि में से न्यायालय निर्णय-प्राप्तकर्ता को उचित प्रतिकर प्रदान कर सकता है और शेष राशि निर्णय-ऋणी को उसके आवेदन पर दे सकता है।
(4) यदि निर्णय-ऋणी ने डिक्री का पालन किया हो और पालन की सभी लागतें चुका दी हों, या छह माह की अवधि बीत जाने पर कोई बिक्री का आवेदन नहीं किया गया हो, या किया गया हो पर अस्वीकार कर दिया गया हो, तो कुर्की समाप्त हो जाएगी।
(5) जहाँ अनुबंध के विशेष निष्पादन या निषेधाज्ञा की डिक्री का पालन नहीं किया गया है, वहाँ न्यायालय — उपरोक्त उपायों के अतिरिक्त या उनके स्थान पर — यह निर्देश दे सकता है कि आवश्यक कार्य को, जहाँ तक संभव हो, निर्णय-प्राप्तकर्ता या न्यायालय द्वारा नियुक्त कोई व्यक्ति, निर्णय-ऋणी की लागत पर संपादित करे; और कार्य के हो जाने पर, खर्च का निर्धारण न्यायालय द्वारा किया जाएगा और उसे उसी प्रकार वसूल किया जाएगा जैसे वह डिक्री में सम्मिलित हो।
स्पष्टीकरण – संदेह दूर करने के लिए यह स्पष्ट किया जाता है कि “जो कार्य किया जाना है” में निषेधात्मक (prohibitory) तथा आदेशात्मक (mandatory) दोनों प्रकार की निषेधाज्ञाएं शामिल हैं।
उदाहरण – A, जो गरीब है, एक इमारत बना देता है जिससे B की पुश्तैनी हवेली रहने योग्य नहीं रहती। B ने A के विरुद्ध वह इमारत हटाने की डिक्री प्राप्त की, पर A न तो जेल जाने से डरता है और न ही उसकी संपत्ति की कुर्की से। चूँकि A की संपत्ति बेचकर B को पर्याप्त प्रतिकर नहीं मिल सकता, इसलिए B न्यायालय से कह सकता है कि वह इमारत स्वयं हटाए और उसकी लागत A से वसूल की जाए।
नियम 33. दांपत्य अधिकारों की पुनः प्राप्ति हेतु डिक्री के पालन में न्यायालय का विवेकाधिकार –
(1) नियम 32 के बावजूद, न्यायालय —
जब पति के विरुद्ध दांपत्य अधिकारों की पुनः प्राप्ति की डिक्री पारित करता है या उसके बाद किसी भी समय — यह आदेश दे सकता है कि डिक्री इस नियम में बताए गए तरीके से लागू की जाएगी।
(2) यदि न्यायालय ने उप-नियम (1) के अंतर्गत ऐसा आदेश पारित किया है, तो वह यह आदेश भी दे सकता है कि यदि निर्णय-ऋणी निश्चित समय में डिक्री का पालन नहीं करता, तो वह निर्णय-प्राप्तकर्ता को उचित समयांतराल पर भुगतान करेगा; और यदि न्यायालय उचित समझे, तो वह आदेश दे सकता है कि निर्णय-ऋणी इस भुगतान को सुरक्षित करने की व्यवस्था करे।
(3) न्यायालय समय-समय पर उप-नियम (2) के अंतर्गत दिए गए भुगतान आदेशों में परिवर्तन कर सकता है —
भुगतान की तिथियाँ बदल सकता है, राशि घटा या बढ़ा सकता है, या अस्थायी रूप से आंशिक या पूर्ण स्थगन कर सकता है, और फिर से समीक्षा कर सकता है।
(4) इस नियम के अंतर्गत आदेशित कोई भी राशि ऐसे वसूली योग्य मानी जाएगी जैसे वह धन-डिक्री के अंतर्गत देय हो।
नियम 34. दस्तावेज निष्पादन या चलन योग्य लिखत पर अनुलेखन के लिए डिक्री –
(1) जहाँ डिक्री किसी दस्तावेज के निष्पादन या किसी चलन योग्य लिखत (negotiable instrument) के अनुलेखन के लिए हो, और निर्णय-ऋणी उसे करने से इनकार कर दे, तो निर्णय-प्राप्तकर्ता डिक्री की शर्तों के अनुसार उसका मसौदा तैयार कर न्यायालय को देगा।
(2) न्यायालय उस मसौदे को निर्णय-ऋणी को नोटिस सहित भेजेगा और उसमें आपत्ति करने का समय देगा।
(3) यदि निर्णय-ऋणी को आपत्ति हो, तो वह लिखित रूप में समय के भीतर प्रस्तुत करेगा, और न्यायालय मसौदे को स्वीकृति या परिवर्तन सहित पारित करेगा।
(4) निर्णय-प्राप्तकर्ता अंतिम मसौदा, यदि आवश्यक हो तो स्टाम्प-पेपर पर, न्यायालय को देगा, और न्यायाधीश या अधिकृत अधिकारी उसे निष्पादित करेगा।
(5) ऐसे दस्तावेज की निष्पादन की भाषा होगी —
“C. D., न्यायाधीश, (या जैसा लागू हो), A. B. की ओर से, E. F. द्वारा A. B. के विरुद्ध वाद में”, और यह उसी प्रकार प्रभावशाली होगा जैसे पक्ष द्वारा निष्पादित किया गया हो।
(6) (a) यदि दस्तावेज का पंजीकरण किसी कानून द्वारा आवश्यक है, तो न्यायालय या उसका अधिकारी उसका पंजीकरण कराएगा।
(b) यदि पंजीकरण आवश्यक नहीं है पर निर्णय-प्राप्तकर्ता चाहता है, तो न्यायालय आदेश दे सकता है।
(c) यदि न्यायालय पंजीकरण का आदेश देता है, तो वह पंजीकरण की लागत के संबंध में आदेश दे सकता है।
नियम 35. अचल संपत्ति के लिए डिक्री –
(1) जहाँ डिक्री किसी अचल संपत्ति के सुपुर्दगी के लिए हो, तो उस संपत्ति को डिक्रीधारी या उसके द्वारा नियुक्त व्यक्ति को, यदि आवश्यक हो तो कब्जा न छोड़ने वाले व्यक्ति को हटाकर, सुपुर्द किया जाएगा।
(2) यदि डिक्री संयुक्त कब्जे की हो, तो कब्जा देने के लिए डिक्री की प्रति संपत्ति पर चिपका दी जाएगी और ढोल बजाकर या अन्य प्रचलित तरीके से वहाँ इसकी घोषणा की जाएगी।
(3) यदि कोई भवन या घेरा सुपुर्द करना हो और कब्जाधारी (जो डिक्री से बाध्य है) रास्ता न दे, तो न्यायालय का अधिकारी — उचित चेतावनी और परदे में रहने वाली महिलाओं को हटाने की सुविधा देकर — ताला तोड़ सकता है, दरवाजा खोल सकता है या अन्य आवश्यक कार्य कर सकता है ताकि डिक्रीधारी को कब्जा मिल सके।
Rule 36 – जब अचल संपत्ति किरायेदार के कब्जे में हो
यदि डिक्री किसी अचल संपत्ति की सुपुर्दगी के लिए है और वह संपत्ति ऐसे किरायेदार या अन्य व्यक्ति के कब्जे में है जो उसे छोड़ने के लिए डिक्री से बाध्य नहीं है, तो:
• न्यायालय संपत्ति पर वारंट की प्रति चिपकाएगा,
• ढोल या किसी प्रचलित तरीके से डिक्री का सार उस व्यक्ति को सुनाया जाएगा।
Rule 37 – निर्णय-ऋणी को जेल भेजने से पहले कारण बताने का अवसर देना
(1) यदि डिक्री धन वसूली के लिए है और निर्णय-ऋणी को जेल भेजने का आवेदन किया गया है, तो:
• न्यायालय सीधे गिरफ्तारी का वारंट जारी करने की बजाय नोटिस देगा,
• जिसमें निर्णय-ऋणी को बुलाकर कारण बताने का मौका दिया जाएगा कि उसे जेल क्यों न भेजा जाए।
बशर्ते: यदि न्यायालय को लगे कि निर्णय-ऋणी भाग सकता है या क्षेत्र छोड़ सकता है, तो नोटिस देना जरूरी नहीं।
(2) अगर निर्णय-ऋणी नोटिस के बावजूद पेश नहीं होता और डिक्री-धारी मांग करता है, तो न्यायालय गिरफ्तारी का वारंट जारी कर सकता है।
Rule 38: गिरफ्तारी वारंट में न्यायालय में पेश करने का निर्देश
• हर गिरफ्तारी वारंट में यह निर्देश होगा कि अधिकारी निर्णय-ऋणी को यथाशीघ्र न्यायालय में पेश करे,
• जब तक वह वह धनराशि (सूद और लागत सहित) न चुका दे जिसे वह देने के लिए डिक्री द्वारा बाध्य है।
Rule 39 – निर्वाह भत्ता (Subsistence Allowance)
(1) निर्णय-ऋणी को तब तक गिरफ्तार नहीं किया जाएगा जब तक डिक्री-धारी न्यायालय में उसका निर्वाह भत्ता जमा न करे (जितना न्यायाधीश उचित समझे)।
(2) यदि निर्णय-ऋणी को जेल भेजा जाता है, तो न्यायालय उसका मासिक निर्वाह भत्ता निर्धारित करेगा —
• या तो Section 57 के तहत तय मानकों के अनुसार,
• या, यदि मानक तय नहीं हैं, तो निर्णय-ऋणी की सामाजिक श्रेणी के अनुसार उचित राशि तय करेगा।
(3) यह मासिक भत्ता अग्रिम में, हर महीने की पहली तारीख से पहले, डिक्री-धारी द्वारा जमा किया जाएगा।
(4) पहला भुगतान उस माह के शेष बचे हुए दिनों के लिए न्यायालय अधिकारी को और आगे के भुगतान जेल अधिकारी को किए जाएंगे।
(5) डिक्री-धारी द्वारा दिए गए निर्वाह भत्ते की राशि को वाद की लागत (costs) माना जाएगा,
बशर्ते: इस राशि की वजह से निर्णय-ऋणी को जेल में नहीं रखा जा सकता और न ही दुबारा गिरफ्तार किया जा सकता।
Rule 40 – निर्णय-ऋणी की पेशी के बाद की कार्यवाही
(1) यदि निर्णय-ऋणी Rule 37 के नोटिस के अनुसार उपस्थित होता है या गिरफ्तारी के बाद पेश किया जाता है, तो:
• न्यायालय डिक्री-धारी की सुनवाई करेगा,
• उसके साक्ष्य लेगा,
• और निर्णय-ऋणी को यह कारण बताने का अवसर देगा कि उसे जेल क्यों न भेजा जाए।
(2) जब तक जांच पूरी न हो:
• न्यायालय निर्णय-ऋणी को अपने किसी अधिकारी की हिरासत में रख सकता है,
• या उसे सुरक्षा (bail) देने पर छोड़ सकता है।
(3) जांच पूरी होने के बाद, यदि उचित लगे, तो न्यायालय:
• Section 51 और अन्य विधियों के अनुसार, निर्णय-ऋणी को जेल भेजने का आदेश देगा,
• और यदि वह पहले से गिरफ्तार न हो तो उसकी गिरफ्तारी करवाई जाएगी।
बशर्ते: यदि न्यायालय चाहे कि निर्णय-ऋणी को भुगतान करने का अवसर दिया जाए, तो वह:
• उसे 15 दिन तक न्यायालय अधिकारी की हिरासत में रख सकता है,
• या उसे सुरक्षा देने पर छोड़ सकता है।
(4) यदि ऐसा व्यक्ति छोड़ा गया हो, तो उसे फिर से गिरफ्तार किया जा सकता है।
(5) यदि न्यायालय जेल भेजने का आदेश नहीं देता, तो:
• डिक्री-धारी का आवेदन खारिज किया जाएगा,
• और यदि निर्णय-ऋणी गिरफ्तार हो तो उसे रिहा कर दिया जाएगा।
ATTACHMENT OF PROPERTY
नियम 41 – निर्णय-ऋणी से उसकी संपत्ति के संबंध में जाँच
(1) जब डिक्री (decree) धनराशि के भुगतान के लिए होती है, तब डिक्री-धारक (decree-holder) न्यायालय से यह आदेश देने का आवेदन कर सकता है कि–
(a) निर्णय-ऋणी (judgment-debtor), या
(b) यदि निर्णय-ऋणी कोई निगम (corporation) है, तो उसका कोई अधिकारी (officer), या
(c) कोई अन्य व्यक्ति, यह मुँहजुबानी (oral) पूछताछ की जाए कि क्या कोई ऋण (debt) निर्णय-ऋणी को देना बाकी है और क्या निर्णय-ऋणी के पास कोई और संपत्ति या साधन हैं जिससे वह डिक्री पूरी कर सके;
और न्यायालय ऐसे निर्णय-ऋणी, अधिकारी या अन्य व्यक्ति की उपस्थिति और पूछताछ तथा किसी भी किताब या दस्तावेज के प्रस्तुत करने का आदेश दे सकता है।
(2) यदि धनराशि की डिक्री 30 दिनों तक बिना संतोष (unsatisfied) रहे, तो न्यायालय डिक्री-धारक के आवेदन पर, और उप-नियम (1) के अधिकारों को प्रभावित किए बिना, यह आदेश दे सकता है कि निर्णय-ऋणी (या यदि वह निगम है तो उसका कोई अधिकारी) एक हलफनामा (affidavit) दे जिसमें उसकी संपत्ति का पूरा विवरण हो।
(3) यदि उप-नियम (2) के अंतर्गत दिए गए आदेश की अवहेलना (disobedience) की जाए, तो वह न्यायालय जिसने आदेश दिया या जिसे प्रक्रिया सौंपी गई है, यह निर्देश दे सकता है कि आदेश न मानने वाले व्यक्ति को अधिकतम तीन माह के लिए सिविल कारागार (civil prison) में रखा जाए, जब तक कि न्यायालय उसकी रिहाई का निर्देश न दे।
नियम 42 – किराया, मेस्ने मुनाफा या अन्य बातों की डिक्री में संलग्नी (attatment)
जब डिक्री किराया, मेस्ने मुनाफा (mesne profits) या किसी अन्य विषय में जाँच का निर्देश देती है, तो निर्णय-ऋणी की संपत्ति को, उसके ऊपर देय राशि तय होने से पहले ही, ऐसे धन-डिक्री की भाँति संलग्न किया जा सकता है।
नियम 43 – निर्णय-ऋणी के कब्जे में चल संपत्ति की संलग्नी (कृषि उपज छोड़कर)
यदि संलग्न (attach) की जाने वाली संपत्ति कृषि उपज को छोड़कर कोई चल संपत्ति है जो निर्णय-ऋणी के पास है, तो संलग्नी वास्तविक जब्ती (actual seizure) द्वारा की जाएगी और संलग्न अधिकारी संपत्ति को स्वयं या अपने अधीनस्थ के पास रखेगा और उसकी उचित देखरेख के लिए उत्तरदायी रहेगा।
बशर्ते, यदि संपत्ति जल्दी खराब होने वाली हो या उसकी रखवाली का खर्च उसके मूल्य से अधिक हो, तो संलग्न अधिकारी उसे तुरन्त बेच सकता है।
नियम 43A – चल संपत्ति की अभिरक्षा
(1) यदि संपत्ति में पशु, कृषि उपकरण या ऐसी वस्तुएँ हों जिन्हें हटाना आसान नहीं है और संलग्न अधिकारी नियम 43 की शर्त के अनुसार कार्य नहीं करता, तो वह निर्णय-ऋणी, डिक्री-धारक या किसी अन्य हितधारी व्यक्ति के अनुरोध पर संपत्ति को वहीं छोड़ सकता है और किसी सम्मानजनक व्यक्ति (custodian) के पास उसकी अभिरक्षा दे सकता है।
(2) यदि कस्टोडियन न्यायालय के आदेशानुसार संपत्ति प्रस्तुत या वापस करने में चूक करता है, या वह संपत्ति पहले जैसी अवस्था में न हो, तो–
(a) उसे हानि के लिए क्षतिपूर्ति देनी होगी, और
(b) उसकी जिम्मेदारी निम्न प्रकार लागू की जा सकती है:
(i) डिक्री-धारक की ओर से, जैसे वह धारा 145 के अंतर्गत जमानतदार (surety) हो;
(ii) निर्णय-ऋणी या अन्य व्यक्ति की ओर से, निष्पादन में आवेदन द्वारा;
(c) जिम्मेदारी निर्धारण का आदेश डिक्री के रूप में अपील योग्य होगा।
नियम 44 – कृषि उपज की संलग्नी
यदि संलग्न की जाने वाली संपत्ति कृषि उपज है, तो संलग्नी का तरीका होगा–
(a) यदि वह उगती फसल है, तो उस भूमि पर जहाँ वह उगी है, संलग्न आदेश की प्रति लगाकर;
(b) यदि वह काटी या इकट्ठी की गई है, तो उसे जहाँ रखा गया है जैसे थ्रेसिंग फ्लोर, चारे का ढेर आदि पर प्रति लगाकर;
और दूसरी प्रति निर्णय-ऋणी के निवास या व्यवसाय स्थल के मुख्य द्वार या प्रमुख भाग पर लगाकर। इसके बाद उपज न्यायालय की अभिरक्षा में मानी जाएगी।
नियम 45 – संलग्न कृषि उपज से संबंधित प्रावधान
(1) न्यायालय को कृषि उपज की अभिरक्षा के लिए आवश्यक व्यवस्था करनी होगी, और इसके लिए जब कोई उगती फसल संलग्न करने का आवेदन होता है, तो उसमें यह बताना होगा कि वह कब काटने योग्य होगी।
(2) न्यायालय की शर्तों के अनुसार निर्णय-ऋणी उपज की देखभाल, कटाई, संग्रहण आदि कर सकता है। यदि वह ऐसा न करे, तो न्यायालय की अनुमति से डिक्री-धारक या उसका नियुक्त व्यक्ति ऐसा कर सकता है, और उसका खर्च निर्णय-ऋणी से वसूल किया जाएगा।
(3) उगती फसल जब तक मिट्टी से पूरी तरह अलग नहीं होती, तब तक संलग्न मानी जाएगी, और पुनः संलग्नी आवश्यक नहीं होगी।
(4) यदि फसल काटने योग्य होने में अभी काफी समय है, तो न्यायालय संलग्नी का कार्य स्थगित कर सकता है और फसल हटाने पर रोक का आदेश भी दे सकता है।
(5) जो फसल अपने स्वभाव से संग्रहण योग्य नहीं है, उसकी संलग्नी काटने योग्य होने से कम से कम 20 दिन पहले नहीं की जाएगी।
नियम 46 – ऋण, शेयर और अन्य ऐसी संपत्ति की संलग्नी जो निर्णय-ऋणी के कब्जे में नहीं है
(1) निम्न मामलों में–
(a) बिना नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट द्वारा सुरक्षित ऋण,
(b) किसी निगम के पूंजी में शेयर,
(c) अन्य चल संपत्ति जो निर्णय-ऋणी के कब्जे में नहीं है (न्यायालय में जमा या न्यायालय की अभिरक्षा वाली संपत्ति को छोड़कर),
संलग्नी एक लिखित आदेश द्वारा की जाएगी, जो निम्न को प्रतिबंधित करेगा–
(i) ऋण के मामले में, देनदार को भुगतान से और ऋणदाता को वसूली से रोका जाएगा,
(ii) शेयर के मामले में, उस व्यक्ति को जिससे शेयर दर्ज है, हस्तांतरण या डिविडेंड प्राप्त करने से रोका जाएगा,
(iii) अन्य संपत्ति के मामले में, जो व्यक्ति उसे रखे है, उसे निर्णय-ऋणी को देने से रोका जाएगा।
(2) इस आदेश की एक प्रति न्यायालय भवन के किसी प्रमुख भाग में लगाई जाएगी और–
• ऋण के मामले में, देनदार को भेजी जाएगी,
• शेयर के मामले में, निगम के उपयुक्त अधिकारी को भेजी जाएगी,
• अन्य संपत्ति के मामले में, उसे रखने वाले व्यक्ति को भेजी जाएगी।
(3) जिस देनदार को उप-नियम (1)(i) के अनुसार रोका गया है, वह न्यायालय में राशि जमा कर सकता है, और ऐसा करना वैसा ही प्रभाव देगा जैसे वह पात्र व्यक्ति को भुगतान हुआ हो।
नियम 46A – गार्निशी को नोटिस
(1) जब ऋण (जो बंधक या चार्ज द्वारा सुरक्षित नहीं है) को नियम 46 के अंतर्गत संलग्न किया गया है, तो न्यायालय डिक्री-धारक के आवेदन पर गार्निशी (जो निर्णय-ऋणी को भुगतान करने वाला है) को नोटिस दे सकता है कि वह–
• या तो अदालत में वह राशि जमा करे,
• या अदालत में उपस्थित होकर कारण बताए कि वह ऐसा क्यों न करे।
(2) ऐसा आवेदन हलफनामे पर होगा जिसमें तथ्य सत्यापित होंगे और यह कहा जाएगा कि गार्निशी निर्णय-ऋणी का देनदार है।
(3) यदि गार्निशी राशि अदालत में जमा करता है, तो न्यायालय उस राशि को डिक्री और निष्पादन व्यय की पूर्ति हेतु डिक्री-धारक को दे सकता है।
नियम 46B – गार्निशी के विरुद्ध आदेश
यदि गार्निशी न तो अदालत में राशि जमा करता है और न ही नोटिस का उत्तर देने हेतु उपस्थित होता है, तो न्यायालय उसे नोटिस की शर्तों का पालन करने का आदेश दे सकता है और ऐसा आदेश डिक्री के समान निष्पादन योग्य होगा।
नियम 46C – विवादास्पद प्रश्नों का परीक्षण
यदि गार्निशी उत्तरदायित्व से इनकार करता है, तो न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि विवादित प्रश्नों का परीक्षण ऐसे किया जाए जैसे वह वाद में मुद्दा हो, और निर्णय होने पर उपयुक्त आदेश पारित करे।
बशर्ते, यदि ऋण की राशि उस न्यायालय की मौद्रिक अधिकार-सीमा (pecuniary jurisdiction) से अधिक हो, तो वह मामला उस जिला न्यायालय को भेजा जाएगा जिसके अधीन वह न्यायालय है, और जिला न्यायालय या कोई अन्य सक्षम न्यायालय उस मामले को ऐसे निपटाएगा जैसे वह मूलतः उसी न्यायालय में दायर हुआ हो।
नियम 46D – गार्निशी आदेश का तीसरे पक्ष पर प्रभाव नहीं
जो आदेश गार्निशी (debt देने वाला व्यक्ति) के विरुद्ध पारित होता है, वह किसी ऐसे व्यक्ति के अधिकार को प्रभावित नहीं करता जो यह दावा करता है कि वह निर्णय-ऋणी की संपत्ति या उस ऋण का असली हकदार है।
✔ यह आदेश केवल गार्निशी और निर्णय-ऋणी के बीच प्रभावी है।
नियम 46E – गार्निशी आदेश से राशि पर स्थगन (stay)
नियम 46A या 46B के तहत पारित आदेश के बाद, संबंधित धनराशि को तब तक न्यायालय की अभिरक्षा (custody) में माना जाएगा जब तक कि अदालत उसे लेकर कोई और आदेश न दे।
✔ इससे राशि सुरक्षित रहती है, और निर्णय-ऋणी या अन्य उसे तब तक नहीं निकाल सकते।
नियम 46F – गार्निशी आदेश का निष्पादन
ऐसा आदेश, जो गार्निशी के विरुद्ध पारित हुआ हो, वैसे ही निष्पादित किया जा सकता है जैसे सामान्य डिक्री निष्पादित की जाती है।
✔ गार्निशी से जबरन वसूली संभव है।
नियम 46G – निष्पादन का स्थगन, संशोधन या निरस्तीकरण
न्यायालय, उचित कारणों पर, किसी गार्निशी आदेश को–
• स्थगित (stay),
• संशोधित (modify), या
• निरस्त (set aside)
कर सकता है।
✔ अगर आदेश अनुचित हो या नई जानकारी मिले, तो उसे बदला जा सकता है।
नियम 46H – गार्निशी आदेश पर अपील का प्रावधान
यदि कोई आदेश है जिससे कोई व्यक्ति सीधे रूप से प्रभावित हो, तो वह आदेश डिक्री की तरह अपील योग्य (appealable) होगा।
✔ गार्निशी को अपील का अधिकार मिलता है।
नियम 46I – जमा की गई राशि का उपयोग
गारणिशी के जरिए न्यायालय में जमा की गई राशि को, डिक्री की पूर्ति (satisfaction) के लिए डिक्री-धारक को दी जा सकती है।
✔ यह राशि सीधे डिक्री चुकाने में काम आती है।
Rule 48 – Attachment of Salary of Government, Railway or Local Authority or Corporation Servant – सरकारी, रेलवे या स्थानीय प्राधिकरण या निगम कर्मचारी के वेतन की कुर्की
• सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारी का वेतन अटैच किया जा सकता है।
• section 60 CPC के तहत, किश्तों में या एकमुश्त भुगतान के लिए अधिकारी को नोटिस भेजा जाता है।
• अगर पहले से अटैचमेंट आदेश लंबित है, तो नया आदेश अस्वीकृत होगा।
• वेतन अटैचमेंट तब तक लागू रहेगा जब तक वह व्यक्ति भारत में वेतन पा रहा है।
• उल्लंघन पर संबंधित संस्था उत्तरदायी होगी।
• 📝 Explanation: “उचित सरकार” – केंद्र/राज्य परिभाषित।
Rule 48A – Attachment of Salary of Private Employee – निजी कर्मचारी के वेतन की कुर्की
• निजी क्षेत्र के कर्मचारियों के वेतन की कुर्की का प्रावधान।
• वेतन वितरण अधिकारी को नोटिस द्वारा आदेशित किया जाएगा कि वह निर्धारित राशि कोर्ट को भेजे।
• पहले से आदेश लंबित होने पर नया आदेश नहीं माना जाएगा।
• आदेश तब तक प्रभावी रहेगा जब तक निर्णय-ऋणी भारत में कार्यरत है।
• उल्लंघन पर नियोक्ता जिम्मेदार।
Rule 49 – Attachment of Partnership Property – साझेदारी संपत्ति की कुर्की
• फर्म या साझेदारों के खिलाफ डिक्री होने पर ही साझेदारी संपत्ति अटैच की जा सकती है।
• निर्णय-ऋणी साझेदार के लाभ, हिस्से आदि पर कोर्ट चार्ज डाल सकती है।
• कोर्ट रिसीवर नियुक्त कर सकती है, बिक्री का आदेश दे सकती है।
• अन्य साझेदार उस हिस्से को खरीद सकते हैं।
• आवेदन की सेवा सभी साझेदारों पर अनिवार्य है – और यह सभी पर सेवा मानी जाएगी।
Rule 50 – Execution of Decree Against Firm – फर्म के विरुद्ध डिक्री का निष्पादन
• डिक्री फर्म के विरुद्ध हो तो निष्पादन हो सकता है:
o (a) फर्म की संपत्ति पर,
o (b) ऐसे व्यक्ति पर जो स्वयं कोर्ट में पेश हुआ या पार्टनर माना गया,
o (c) जिसे समन हुआ और वह अनुपस्थित रहा।
• अन्य साझेदारों के विरुद्ध निष्पादन के लिए कोर्ट की अनुमति आवश्यक है।
• यदि विवाद है, तो कोर्ट मुद्दे की तरह ट्रायल करके फैसला करेगा।
• ऐसा आदेश डिक्री के समान प्रभाव रखेगा।
• बिना समन के किसी साझेदार को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।
• 🆕 Sub-rule (5): यह नियम Hindu Undivided Family पर लागू नहीं होगा (Order 30 Rule 10 की डिक्री हो तो)।
Rule 51 – Attachment of Negotiable Instruments – परक्राम्य लिखत (Negotiable Instrument) की कुर्की
• अगर परक्राम्य लिखत (जैसे चेक, बी.ओ.ई.) कोर्ट में जमा नहीं है या किसी सरकारी अधिकारी के पास नहीं है,
• तो वास्तविक जब्ती (actual seizure) द्वारा कुर्की होगी।
• लिखत को कोर्ट में लाकर रखा जाएगा, और आगे के आदेशों तक वहीँ रखा जाएगा।
Rule 52 – Attachment of Property in Custody of Court or Public Officer – कोर्ट या सार्वजनिक अधिकारी की अभिरक्षा में संपत्ति की कुर्की
• अगर संपत्ति किसी कोर्ट या सार्वजनिक अधिकारी के पास है:
o तो संबंधित कोर्ट/अधिकारी को सूचना (notice) दी जाएगी,
o और अनुरोध किया जाएगा कि वह संपत्ति और उस पर प्राप्त होने वाला लाभ/डिविडेंड कोर्ट के आदेश तक सुरक्षित रखें।
• बशर्ते कि अगर संपत्ति कोर्ट की अभिरक्षा में है और कोई तीसरा पक्ष उस पर दावा करता है, तो विवाद उसी कोर्ट द्वारा तय किया जाएगा।
Rule 53 – Attachment of Decrees – डिक्री की कुर्की
(1) अगर अटैच की जाने वाली संपत्ति कोई डिक्री है (पैसे की वसूली या बंधक/चार्ज के प्रवर्तन हेतु),
• (a) यदि दोनों डिक्री एक ही कोर्ट की हैं, तो उसी कोर्ट के आदेश से अटैचमेंट होगा।
• (b) यदि डिक्री दूसरी कोर्ट की है, तो उस कोर्ट को नोटिस भेजा जाएगा कि वह निष्पादन रोके जब तक:
o (i) मूल कोर्ट द्वारा नोटिस रद्द न किया जाए, या
o (ii)(a) डिक्रीधारक, या
(b) निर्णय-ऋणी (डिक्रीधारक की लिखित सहमति या कोर्ट की अनुमति से),
अटैच की गई डिक्री के निष्पादन के लिए आवेदन न कर दे।
(2) ऐसा होने पर, अटैच करने वाला लेनदार अटैच की गई डिक्री का निष्पादन कर सकता है।
(3) अटैचमेंट हेतु निष्पादनकर्ता डिक्रीधारक, अटैच की गई डिक्री के प्रतिनिधि माना जाएगा।
(4) यदि अटैच की जाने वाली डिक्री उपर्युक्त प्रकार की न हो, तो डिक्रीधारक को नोटिस भेजकर ट्रांसफर/चार्ज से रोका जाएगा।
(5) अटैच की गई डिक्री का धारक कोर्ट को आवश्यक सहायता देगा।
(6) डिक्रीधारक के आवेदन पर निर्णय-ऋणी को नोटिस दिया जाएगा।
• आदेश की जानकारी मिलने के बाद कोई भी भुगतान/समायोजन अमान्य होगा जब तक अटैचमेंट जारी है।
Rule 54 – Attachment of Immovable Property – अचल संपत्ति की कुर्की
(1) अचल संपत्ति की कुर्की एक आदेश द्वारा की जाती है,
• जिसमें निर्णय-ऋणी को ट्रांसफर/चार्ज करने से मना किया जाता है,
• और सभी को उस ट्रांसफर/चार्ज का लाभ लेने से रोका जाता है।
(1A) निर्णय-ऋणी को कोर्ट में हाजिर होकर बिक्री उद्घोषणा के नियम तय करने की तारीख की जानकारी लेनी होगी।
(2) आदेश को:
• संपत्ति पर ढोल या पारंपरिक माध्यम से उद्घोषित किया जाएगा,
• संपत्ति पर, कोर्ट भवन पर, जिलाधीश के दफ्तर में, और अगर गांव की ज़मीन हो तो ग्राम पंचायत के दफ्तर में चिपकाया जाएगा।
Rule 55 – Removal of Attachment after Satisfaction of Decree – डिक्री की तुष्टि के बाद कुर्की हटाना
कुर्की हटाई जाएगी यदि:
(a) डिक्री की राशि, खर्च और कुर्की व्यय कोर्ट में जमा हो जाए,
(b) डिक्री की तुष्टि कोर्ट में हो या प्रमाणित हो जाए,
(c) डिक्री को निरस्त/रद्द कर दिया जाए।
• यदि संपत्ति अचल है, तो निर्णय-ऋणी के कहने पर प्रसारण (proclamation) द्वारा हटाने की सूचना दी जा सकती है।
Rule 56 – Order for Payment of Coin or Currency Notes to Party Entitled under Decree – सिक्कों या मुद्रा नोटों का भुगतान डिक्रीधारी को
• अगर कुर्क की गई संपत्ति सिक्के या नोट हैं,
• तो कोर्ट आदेश दे सकता है कि डिक्रीधारी को पूरी या आंशिक राशि दी जाए।
• यह आदेश अटैचमेंट के दौरान कभी भी दिया जा सकता है।
Rule 57 – कुर्की की समाप्ति
यदि निष्पादन आवेदन खारिज हो जाए, तो अदालत तय करेगी कि कुर्की जारी रहेगी या समाप्त होगी। यदि कुछ नहीं कहा गया, तो कुर्की स्वतः समाप्त मानी जाएगी।
Rule 58 – कुर्क की गई संपत्ति पर दावा या आपत्ति
➤ कोई भी दावा या आपत्ति की जा सकती है कि संपत्ति कुर्की योग्य नहीं है।
➤ अदालत इस पर फैसला करेगी।
➤ पक्षों के बीच सभी विवाद इसी निष्पादन प्रक्रिया में निपटाए जाएंगे।
➤ संपत्ति को कुर्की से मुक्त किया जा सकता है, कुर्की जारी रखी जा सकती है या दावा अस्वीकार किया जा सकता है।
➤ अगर दावा समय से नहीं किया गया या संपत्ति बिक चुकी है, तो अदालत उसे नहीं मानेगी।
➤ अगर दावा खारिज हो जाए, तो स्वतंत्र वाद किया जा सकता है।
Rule 59 – बिक्री पर रोक
अगर संपत्ति की बिक्री घोषित हो गई है लेकिन दावा/आपत्ति आ गई है, तो—
(a) चल संपत्ति की बिक्री रोकी जा सकती है।
(b) अचल संपत्ति बेची जा सकती है पर पुष्टि नहीं होगी।
(कोर्ट शर्तें लगा सकती है जैसे सुरक्षा राशि जमा करना।)
Rules 60–63 – हटाए गए
Rule 64 – केवल उतनी संपत्ति बेची जाएगी जितनी डिक्री संतोष के लिए ज़रूरी हो।
Rule 65 – बिक्री अदालत के अधिकारी या नियुक्त व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक नीलामी से की जाएगी।
Rule 66 – बिक्री की उद्घोषणा (Proclamation)
➤ अदालत नीलामी के लिए सूचना निकालेगी जिसमें संपत्ति का विवरण, उस पर कोई बंधन, मूल्य, डिक्री राशि आदि शामिल होंगे।
➤ पक्षकारों को सुनकर उद्घोषणा बनाई जाएगी।
➤ उद्घोषणा में संपत्ति का मूल्य केवल तभी डाला जाएगा यदि पक्षकारों ने बताया हो।
Rule 67 – उद्घोषणा का तरीका
➤ उद्घोषणा अदालत परिसर में चिपकाई जाएगी।
➤ यदि आवश्यक हो, तो अखबार या राजपत्र में प्रकाशित की जा सकती है।
➤ संपत्ति के अलग हिस्सों के लिए अलग-अलग उद्घोषणा जरूरी नहीं जब तक आवश्यक न हो।
Rule 68 – न्यूनतम समय
➤ चल संपत्ति की बिक्री उद्घोषणा के 7 दिन बाद,
➤ अचल संपत्ति की बिक्री 15 दिन बाद हो सकती है।
(जब तक निर्णय-ऋणी लिखित रूप से सहमत न हो।)
Rule 69 – बिक्री की स्थगन और रुकावट
➤ बिक्री तय समय तक टाली जा सकती है, लेकिन कारण रिकॉर्ड करना होगा।
➤ 30 दिन से अधिक टालने पर नई उद्घोषणा जरूरी होगी (जब तक निर्णय-ऋणी छूट न दे)।
➤ यदि डिक्री राशि और खर्च चुका दिए जाएं तो बिक्री रोकी जाएगी।
Rule 70 – कुछ बिक्री की रक्षा
❌ हटा दिया गया (1956 के संशोधन द्वारा)
Rule 71 – खरीदार की चूक पर पुनः बिक्री में हानि की वसूली
➤ अगर खरीदार की गलती से संपत्ति दोबारा बेची जाती है और कम कीमत मिलती है या अतिरिक्त खर्च आता है, तो यह राशि न्यायालय को सूचित की जाएगी।
➤ यह राशि डिक्री-धारक या निर्णय-ऋणी के अनुरोध पर डिक्री की तरह वसूल की जा सकती है।
Rule 72 – डिक्री-धारक बिना अनुमति के बोली नहीं लगा सकता
(1) डिक्री-धारक न्यायालय की अनुमति के बिना कुर्क की गई संपत्ति की बोली नहीं लगा सकता
(2) अनुमति मिलने पर, डिक्री की राशि को खरीद मूल्य में समायोजित किया जा सकता है।
(3) यदि बिना अनुमति के स्वयं किसी और या के माध्यम से खरीदे, तो निर्णय-ऋणी या प्रभावित व्यक्ति की अर्जी पर न्यायालय बिक्री रद्द कर सकता है, और फिर से बिक्री में नुकसान की भरपाई व खर्च डिक्री-धारक से वसूल सकता है।
Rule 72A – बंधकधारी (mortgagee) बिना अनुमति बोली नहीं लगा सकता
(1) बंधकधारी भी बिना न्यायालय की अनुमति के बोली नहीं लगा सकता।
(2) अनुमति मिलने पर, न्यायालय आरक्षित मूल्य (reserve price) तय करेगा—
(a) यदि संपत्ति एकल रूप में बेची जाए, तो न्यूनतम मूल्य = मूलधन + ब्याज + खर्च।
(b) यदि संपत्ति टुकड़ों में बेची जाए, तो प्रत्येक भाग का उचित हिस्सा तय किया जाएगा।
(3) बाकी प्रावधान Rule 72 की तरह लागू होंगे।
Rule 73 – बिक्री से जुड़े अधिकारी बोली नहीं लगा सकते
➤ जो कोई व्यक्ति बिक्री प्रक्रिया से संबंधित है, वह सीधे या परोक्ष रूप से संपत्ति में रुचि नहीं ले सकता, बोली नहीं लगा सकता।
चल संपत्ति की बिक्री ( Sale of Movable Property)
Rule 74 – कृषि उपज की बिक्री
(1) यदि कृषि उपज बिक्री योग्य है—
(a) अगर फसल खड़ी है, तो वहीं या पास में बिक्री होगी।
(b) अगर फसल कट चुकी है, तो पास के खलिहान या भंडारण स्थान पर बिक्री होगी।
बशर्ते न्यायालय यह तय करे कि पास के सार्वजनिक स्थान पर बेचने से अधिक लाभ होगा।
(2) यदि उचित मूल्य नहीं मिल रहा और मालिक/प्रतिनिधि कहे तो बिक्री अगले दिन या अगले बाजार दिन तक टाली जाएगी और फिर जो भी मूल्य मिले, उसमें पूरी की जाएगी।
Rule 75 – खड़ी फसल से जुड़े विशेष प्रावधान
(1) यदि फसल को संग्रहित किया जा सकता है लेकिन संग्रह नहीं हुआ, तो बिक्री की तारीख ऐसी रखी जाएगी कि संग्रह हो जाए।
(2) अगर फसल संग्रह योग्य नहीं है, तो उसे कटाई से पहले भी बेचा जा सकता है, और खरीदार जमीन पर जाकर उसे काट सकता है।
Rule 76 – नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट और कंपनियों के शेयर
➤ अगर संपत्ति कोई नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट या कंपनी का शेयर है, तो न्यायालय उसे दलाल (broker) के माध्यम से बेचने की अनुमति दे सकता है, न कि नीलामी से।
Rule 77 – सार्वजनिक नीलामी द्वारा चल संपत्ति की बिक्री
(1) प्रत्येक लॉट की कीमत तुरंत या अधिकारी द्वारा तय समय में देनी होगी, नहीं देने पर फौरन फिर से बिक्री होगी।
(2) कीमत मिलने पर रसीद दी जाएगी और बिक्री अविकर्तनीय (absolute) हो जाएगी।
(3) यदि चल संपत्ति पर निर्णय-ऋणी और सह-मालिक दोनों के अधिकार हों और दोनों समान बोली लगाएं, तो सह-मालिक की बोली मानी जाएगी।
78. त्रुटि से बिक्री अमान्य नहीं – Irregularity not to vitiate sale
चल संपत्ति की बिक्री में कोई त्रुटि (irregularity) यदि हो जाए तो उससे बिक्री अमान्य (invalidate) नहीं होगी। लेकिन यदि किसी व्यक्ति को ऐसी त्रुटि के कारण नुकसान (injury) हुआ हो, तो वह नुकसान पहुँचाने वाले व्यक्ति के विरुद्ध हर्जाने (compensation) का दावा कर सकता है, और यदि वह व्यक्ति खरीदार है तो विशेष संपत्ति की पुनः प्राप्ति (recovery) तथा पुनः प्राप्ति न होने की दशा में हर्जाना मांग सकता है।
79. चल संपत्ति, ऋण व शेयर की सुपुर्दगी – Delivery of movable property, debts and shares
(1) जब चल संपत्ति जब्त (seized) हो चुकी हो, तो खरीदार को वास्तविक सुपुर्दगी (delivery) दी जाएगी।
(2) यदि संपत्ति किसी अन्य व्यक्ति के कब्जे में हो, तो उसे नोटिस देकर कहा जाएगा कि वह संपत्ति किसी और को न दे, केवल खरीदार को दे।
(3) यदि संपत्ति कोई ऋण (debt) या कंपनी का शेयर (share) हो, तो कोर्ट द्वारा लिखित आदेश (written order) के माध्यम से देनदार को केवल खरीदार को भुगतान करने और शेयरधारक को किसी और को ट्रांसफर न करने हेतु प्रतिबंधित किया जाएगा।
80. परक्राम्य लिखत व शेयरों का अंतरण – Transfer of negotiable instruments and shares
(1) यदि परक्राम्य लिखत (negotiable instrument) या शेयर का अंतरण किसी दस्तावेज़ के निष्पादन (execution) या हस्ताक्षर (endorsement) से हो सकता है, तो न्यायाधीश या उसका नियुक्त अधिकारी वह निष्पादन कर सकता है, जो उसी प्रकार वैध होगा जैसे वास्तविक हस्ताक्षर।
(2) निष्पादन इस प्रकार हो सकता है – “A.B. द्वारा C.D., न्यायाधीश…”
(3) अंतरण से पहले कोर्ट किसी व्यक्ति को ब्याज/लाभांश (interest/dividend) लेने व रसीद पर हस्ताक्षर करने हेतु नियुक्त कर सकती है।
81. अन्य चल संपत्ति के लिए संपत्ति आरोपण आदेश – Vesting order for other property
जो चल संपत्ति ऊपर वर्णित नहीं है, उसके लिए कोर्ट खरीदार के पक्ष में आरोपण (vesting) आदेश दे सकती है, और वह संपत्ति उसी अनुसार आरोपित मानी जाएगी।
अचल संपत्ति की बिक्री – Sale of Immovable Property
82. कौन-सी अदालत बिक्री का आदेश दे सकती है – What Court may order sale
सिवाय लघु वाद न्यायालय (Small Causes Court) के, अन्य कोई भी अदालत डिक्री की पालना में अचल संपत्ति की बिक्री का आदेश दे सकती है।
83. डिक्री-ऋणी को राशि एकत्र करने हेतु बिक्री स्थगन – Postponement of sale
(1) यदि डिक्री-ऋणी यह साबित करे कि गिरवी (mortgage), पट्टा (lease) या निजी बिक्री से डिक्री की राशि प्राप्त हो सकती है, तो कोर्ट बिक्री को समय व शर्तों सहित स्थगित कर सकती है।
(2) कोर्ट प्रमाणपत्र जारी करेगी जिससे डिक्री-ऋणी उक्त कार्य कर सकेगा, लेकिन प्राप्त धनराशि कोर्ट में जमा करनी होगी।
बशर्ते वह लेन-देन तब तक पूर्ण नहीं माना जाएगा जब तक कोर्ट से पुष्टि (confirmation) न हो।
(3) यह प्रावधान बंधक प्रवर्तन से संबंधित डिक्री पर लागू नहीं होगा।
84. खरीदार द्वारा जमा और डिफॉल्ट पर पुनः बिक्री – Deposit and re-sale
(1) अचल संपत्ति की बिक्री में घोषित खरीदार को तुरंत 25% रकम जमा करनी होगी, अन्यथा तत्काल पुनः बिक्री होगी।
(2) यदि डिक्रीधारी खरीदार है और उसे समायोजन (set-off) का अधिकार है, तो कोर्ट इस शर्त को हटाने का आदेश दे सकती है।
85. शेष रकम जमा करने की समय-सीमा – Time for full payment
पूरी खरीद राशि बिक्री के 15वें दिन कोर्ट बंद होने से पहले कोर्ट में जमा करनी होगी।
बशर्ते खरीदार को set-off की सुविधा मिल सकती है।
86. समय पर भुगतान न करने की स्थिति में प्रक्रिया – Procedure on default
निर्धारित समय में भुगतान न होने पर, जमा राशि कोर्ट की इच्छा पर खर्च काटकर सरकार के पक्ष में ज़ब्त (forfeit) की जा सकती है। संपत्ति फिर से बेची जाएगी और पूर्व खरीदार का उस पर कोई दावा नहीं रहेगा।
87. पुनः बिक्री हेतु अधिसूचना – Notification on re-sale
पुनः बिक्री के लिए नयी उद्घोषणा (proclamation) पूर्ववत प्रक्रिया के अनुसार की जाएगी।
88. सह-स्वामी को वरीयता – Co-sharer’s bid to have preference
यदि अचल संपत्ति का अंश (share) बेचा जा रहा हो और सह-स्वामी (co-sharer) सहित दो या अधिक व्यक्तियों ने समान बोली लगाई हो, तो सह-स्वामी की बोली को वरीयता दी जाएगी।
89. जमा के आधार पर बिक्री रद्द करने का आवेदन – Application to set aside sale on deposit
(1) बिक्री में रुचि रखने वाला कोई व्यक्ति आवेदन कर सकता है यदि वह –
(a) खरीदार को कुल कीमत का 5% कोर्ट में जमा करे, और
(b) डिक्रीधारी को वह राशि जमा करे जो बिक्री उद्घोषणा में दर्शाई गई हो (घटाकर वह राशि जो पहले ही मिल चुकी हो)।
(2) यदि किसी ने नियम 90 के तहत बिक्री रद्दीकरण का आवेदन कर रखा है, तो वह इस नियम का लाभ नहीं ले सकता जब तक अपना पूर्व आवेदन वापस न ले।
(3) यह नियम डिक्री-ऋणी की अन्य देयताओं को समाप्त नहीं करता।
Rule 90 – बिक्री को अनियमितता या धोखाधड़ी के आधार पर रद्द करने के लिए आवेदन
(1) यदि किसी डिक्री के तहत कोई अचल संपत्ति बेची गई है, तो डिक्री-धारी, खरीदार, कोई भी ऐसा व्यक्ति जो संपत्ति की अनुपातिक वितरण में हिस्सा पाने का अधिकारी हो, या जिसकी रुचि उस बिक्री से प्रभावित हुई हो, वह यह कहते हुए न्यायालय में आवेदन कर सकता है कि बिक्री के प्रकाशन या संचालन में कोई गंभीर अनियमितता या धोखाधड़ी हुई है।
(2) परंतु, कोई भी बिक्री केवल अनियमितता या धोखाधड़ी के आधार पर रद्द नहीं की जाएगी जब तक न्यायालय यह न माने कि आवेदक को इससे गंभीर नुकसान हुआ है।
(3) यदि कोई ऐसा आधार जिस पर आवेदन किया गया है, बिक्री की उद्घोषणा तैयार होने से पहले लिया जा सकता था, तो ऐसे आधार पर आवेदन स्वीकार नहीं किया जाएगा।
स्पष्टीकरण – केवल यह कारण कि संपत्ति की अटैचमेंट नहीं हुई या उसमें कोई कमी थी, अपने आप में बिक्री रद्द करने का आधार नहीं माना जाएगा।
Rule 91 – खरीदार द्वारा यह कहते हुए बिक्री रद्द करने का आवेदन कि निर्णय-ऋणी के पास बिक्री योग्य स्वत्व (interest) नहीं था
खरीदार यह कहकर आवेदन कर सकता है कि निर्णय-ऋणी के पास उस संपत्ति में कोई बिक्री योग्य अधिकार नहीं था।
Rule 92 – बिक्री कब पूर्ण होगी या रद्द मानी जाएगी
(1) यदि Rule 89, 90 या 91 के तहत कोई आवेदन नहीं किया गया या किया गया और खारिज हो गया, तो न्यायालय बिक्री की पुष्टि करेगा और वह बिक्री पूर्ण मानी जाएगी।
बशर्ते यदि बिक्री के समय संपत्ति पर कोई दावा या अटैचमेंट के विरुद्ध आपत्ति लंबित हो, तो जब तक उसका निपटारा न हो जाए, बिक्री की पुष्टि नहीं होगी।
(2) यदि Rule 89 के तहत आवेदन किया गया और स्वीकार किया गया और आवश्यक जमा 60 दिन के भीतर कर दिया गया (या यदि कोई गलती से जमा राशि कम थी और वह समय पर पूरी कर दी गई), तो न्यायालय बिक्री रद्द कर देगा।
बशर्ते कि सभी संबंधित व्यक्तियों को नोटिस दिया गया हो।
बशर्ते और भी कि जहां 30 दिन की समयसीमा समाप्त नहीं हुई थी (2002 संशोधन अधिनियम लागू होने से पहले), वहां 60 दिन की समयसीमा लागू होगी।
(3) इस नियम के तहत किए गए आदेश को चुनौती देने के लिए अलग से कोई वाद नहीं किया जा सकता।
(4) यदि कोई तीसरा पक्ष खरीदार के खिलाफ वाद करता है, तो निर्णय-ऋणी और डिक्रीधारी आवश्यक पक्ष होंगे।
(5) यदि ऐसा वाद सफल हो जाए, तो न्यायालय खरीदार को पैसा लौटाने का निर्देश देगा और उसी स्तर से निष्पादन फिर शुरू किया जाएगा जहाँ से बिक्री हुई थी।
Rule 93 – खरीद राशि की वापसी
यदि बिक्री Rule 92 के तहत रद्द होती है, तो खरीदार को उसका पैसा (सूद सहित या बिना) वापस मिलेगा।
Rule 94 – खरीदार को प्रमाणपत्र
जब बिक्री पूर्ण हो जाए, तो न्यायालय खरीदार को प्रमाणपत्र देगा जिसमें संपत्ति और खरीदार का नाम होगा। यह प्रमाणपत्र उसी दिनांक का होगा जिस दिन बिक्री पूर्ण मानी गई।
Rule 95 – निर्णय-ऋणी के कब्जे वाली संपत्ति का कब्जा दिलाना
यदि संपत्ति निर्णय-ऋणी या उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति के कब्जे में है, और Rule 94 का प्रमाणपत्र दिया जा चुका है, तो खरीदार को कब्जा दिलाया जाएगा और ज़रूरत हो तो कब्जा न छोड़ने वाले को हटाया जाएगा।
Rule 96 – किरायेदार के कब्जे वाली संपत्ति का कब्जा दिलाना
यदि संपत्ति किरायेदार या ऐसे व्यक्ति के कब्जे में है जो वैध रूप से कब्जे का अधिकारी है, तो खरीदार को कब्जा दिलाने के लिए प्रमाणपत्र की प्रति संपत्ति पर चिपकाई जाएगी और ढोल या अन्य रिवाज से घोषणा की जाएगी कि स्वत्व खरीदार को हस्तांतरित हो गया है।
विरोध या कब्जे में बाधा के मामले
Rule 97 – कब्जे में रुकावट या विरोध
(1) यदि डिक्रीधारी या खरीदार को कब्जा लेने में कोई व्यक्ति विरोध करता है, तो वह न्यायालय में शिकायत कर सकता है।
(2) न्यायालय उस शिकायत पर नियमानुसार निर्णय देगा।
Rule 98 – निर्णय के बाद आदेश
(1) यदि न्यायालय Rule 101 के अंतर्गत फैसला कर देता है, तो वह इस प्रकार आदेश देगा:
(a) आवेदन स्वीकार कर कब्जा दिलाने का आदेश देगा या
(b) परिस्थितियों अनुसार अन्य आदेश देगा।
(2) यदि विरोध न्यायालय को अनुचित लगे और यह निर्णय-ऋणी या उसके प्रतिनिधि द्वारा किया गया हो, तो न्यायालय जबरन कब्जा दिलाने का आदेश देगा और आवश्यक हो तो संबंधित व्यक्ति को 30 दिन तक जेल भेज सकता है।
Rule 99 – जब कोई तीसरा व्यक्ति बेदखल हो जाए
(1) यदि कोई व्यक्ति (जो निर्णय-ऋणी नहीं है) को डिक्रीधारी या खरीदार ने बेदखल किया हो, तो वह न्यायालय में शिकायत कर सकता है।
(2) न्यायालय आवेदन पर नियमों के अनुसार निर्णय करेगा।
Rule 100 – बेदखली की शिकायत पर आदेश
Rule 101 के अनुसार मुद्दों के निर्णय के बाद:
(a) आवेदन स्वीकार कर कब्जा दिलाने का आदेश देगा या
(b) अन्य उपयुक्त आदेश देगा।
Rule 101 – प्रश्नों का निर्धारण
Rule 97 या 99 के तहत किए गए आवेदन में उत्पन्न सभी प्रश्न (स्वत्व, अधिकार, रुचि आदि सहित) का निर्णय उसी न्यायालय द्वारा किया जाएगा, अलग वाद की आवश्यकता नहीं है।
Rule 102 – लिटिस पेंडेंस (lit pendens) के दौरान खरीदार को संरक्षण नहीं
Rule 98 और 100 ऐसे व्यक्ति पर लागू नहीं होंगे जिसे निर्णय-ऋणी ने मुकदमा लंबित रहते हुए संपत्ति स्थानांतरित कर दी हो।
स्पष्टीकरण – “स्थानांतरण” में कानून द्वारा हुआ स्थानांतरण भी शामिल है।
Rule 103 – आदेशों को डिक्री माना जाएगा
Rule 98 या 100 के तहत दिए गए आदेश डिक्री माने जाएंगे और वैसा ही प्रभाव होगा।
Rule 104 – Rule 101 या 103 के आदेश लंबित वाद के अधीन रहेंगे
यदि कोई वाद पहले से लंबित है जिसमें प्रतिवादी स्वत्व का दावा कर रहा है, तो Rule 101 या 103 के तहत दिए गए आदेश उस वाद के अंतिम निर्णय के अधीन होंगे।
Rule 105 – आवेदन की सुनवाई
(1) न्यायालय आवेदन की सुनवाई के लिए तिथि निश्चित करेगा।
(2) यदि तय दिन पर आवेदक अनुपस्थित हो, तो आवेदन खारिज किया जा सकता है।
(3) यदि केवल आवेदक उपस्थित हो और प्रतिवादी अनुपस्थित हो, तो एकतरफा आदेश पारित किया जा सकता है।
स्पष्टीकरण – इस नियम के तहत “आवेदन” में Rule 58 के तहत आपत्ति या दावा भी शामिल है।
ORDER 23 : मृत्यु, विवाह और दिवालियापन या पक्ष
1. No abatement by party’s death if right to sue survives – यदि वाद करने का अधिकार बना रहता है तो पक्षकार की मृत्यु से वाद समाप्त नहीं होता
यदि वाद करने का अधिकार जीवित रहता है, तो पक्षकार की मृत्यु से वाद समाप्त (abatement) नहीं होता।
2. Procedure where one of several plaintiffs or defendants dies and right to sue survives – जब अनेक वादियों या प्रतिवादियों में से एक मर जाए और वाद करने का अधिकार बना रहे, तब प्रक्रिया
ऐसी स्थिति में, वाद शेष जीवित पक्षकारों द्वारा या उनके विरुद्ध जारी रहेगा।
3. Procedure in case of death of one of several plaintiffs or of sole plaintiff – जब एक या सभी वादियों की मृत्यु हो, तब प्रक्रिया
(1) यदि एकमात्र वादी मर जाए और वाद करने का अधिकार बना रहे, तो उसके कानूनी प्रतिनिधि को पक्षकार बनाया जाएगा।
(2) यदि निर्धारित समय में आवेदन न हो, तो वाद उस वादी के संबंध में समाप्त हो जाएगा।
4. Procedure in case of death of one of several defendants or of sole defendanT – जब एक या सभी प्रतिवादियों की मृत्यु हो, तब प्रक्रिया
(1) मृत प्रतिवादी के कानूनी प्रतिनिधि को पक्षकार बनाया जाएगा।
(2) प्रतिनिधि अपना पक्ष रख सकता है।
(3) यदि समय पर आवेदन न हो, तो वाद समाप्त हो जाएगा।
(4) कुछ मामलों में, कोर्ट मृत पक्षकार के विरुद्ध निर्णय दे सकता है।
(5) यदि वादी को मृत्यु की जानकारी न थी, तो विलंब क्षमा किया जा सकता है।
4A. Procedure where there is no legal representative – जब मृतक का कोई कानूनी प्रतिनिधि न हो, तब प्रक्रिया
(1) कोर्ट किसी उपयुक्त व्यक्ति को नियुक्त कर सकता है जो मृतक की संपत्ति का प्रतिनिधित्व करे।
(2) नियुक्त व्यक्ति की निष्पक्षता सुनिश्चित की जाएगी।
5. Determination of question as to legal representative – कानूनी प्रतिनिधि का निर्धारण करने का प्रश्न
कोर्ट यह तय करेगा कि कोई व्यक्ति कानूनी प्रतिनिधि है या नहीं।
बशर्ते: अपीलीय न्यायालय अधीनस्थ न्यायालय को इस संबंध में निर्देश दे सकता है।
6. No abatement by reason of death after hearing – सुनवाई के बाद मृत्यु होने से वाद समाप्त नहीं होता
यदि बहस पूरी हो चुकी है और निर्णय लंबित है, तो मृत्यु से वाद समाप्त नहीं होगा।
7. Suit not abated by marriage of female party – महिला पक्षकार के विवाह से वाद समाप्त नहीं होता
(1) विवाह से वाद प्रभावित नहीं होता।
(2) पति पर निर्णय लागू हो सकता है यदि वह पत्नी के ऋणों के लिए जिम्मेदार हो।
8. When plaintiff’s insolvency bars suit – वादी के दिवालिया होने पर वाद कब समाप्त होता है
(1) रिसीवर/एसाइनी यदि वाद जारी न रखे या सुरक्षा राशि न दे, तो वाद समाप्त किया जा सकता है।
(2) प्रतिवादी इसके लिए आवेदन कर सकता है।
9. Effect of abatement or dismissal – वाद समाप्त होने या खारिज होने का प्रभाव
(1) नया वाद उसी विषय पर नहीं हो सकता।
(2) समाप्ति हटवाने हेतु आवेदन किया जा सकता है।
(3) विलंब की क्षमा लिमिटेशन अधिनियम की धारा 5 के अनुसार दी जाएगी।
स्पष्टीकरण: नया वाद तथ्यों पर आधारित बचाव की अनुमति देता है।
10. Procedure in case of assignment before final order in suit – अंतिम आदेश से पहले हित के स्थानांतरण पर प्रक्रिया
(1) हित प्राप्त करने वाला व्यक्ति न्यायालय की अनुमति से वाद में जोड़ा जा सकता है।
(2) डिक्री की अटैचमेंट को भी ऐसा हित माना जाएगा।
10A. Duty of pleader to communicate to Court death of a party – पक्षकार की मृत्यु की सूचना कोर्ट को देना वकील का कर्तव्य है
(1) यदि वकील को मृत्यु की जानकारी हो, तो वह कोर्ट को सूचित करेगा।
(2) कोर्ट उस मृत्यु की सूचना अन्य पक्षकारों को देगा।
11. Application of Order to appeals – इस आदेश का अपीलों पर प्रयोग
“वादी” का अर्थ “अपीलार्थी”, “प्रतिवादी” का अर्थ “उत्तरवादी”, और “वाद” का अर्थ “अपील” माना जाएगा।
12. Application of Order to proceedings – इस आदेश का निष्पादन कार्यवाहियों पर प्रयोग नहीं होता
नियम 3, 4 और 8 निष्पादन कार्यवाहियों पर लागू नहीं होते।
Order 23 – Withdrawal and Adjustment of Suits
वाद की वापसी और समझौता
Rule 1 – Withdrawal of Suit or Abandonment of Part of Claim – वाद या दावे के भाग को छोड़ना
• वाद दायर करने के बाद, वादी किसी या सभी प्रतिवादियों के विरुद्ध:
o पूरा वाद या उसका कोई भाग छोड़ सकता है।
• बशर्ते, यदि वादी नाबालिग है या Order 32 के नियम 1 से 14 के अंतर्गत आता है, तो बिना न्यायालय की अनुमति के वाद या उसका कोई भाग नहीं छोड़ा जा सकता।
• ऐसी अनुमति हेतु आवेदन में:
o अभिभावक का हलफनामा, और
o यदि वकील प्रतिनिधित्व कर रहा है, तो वकील का प्रमाण पत्र अनिवार्य है कि यह परित्याग नाबालिग के हित में है।
• यदि न्यायालय संतुष्ट हो कि:
o (a) कोई औपचारिक दोष है जिससे वाद विफल होगा, या
o (b) नया वाद दायर करने के लिए पर्याप्त कारण हैं,
o तो न्यायालय शर्तों सहित वाद छोड़ने और नया वाद दायर करने की अनुमति दे सकता है।
• यदि वादी:
o (a) वाद या उसके भाग को उप-नियम (1) के तहत छोड़ता है, या
o (b) उप-नियम (3) की अनुमति के बिना वाद छोड़ता है,
→ तो वह:
व्यय के लिए उत्तरदायी होगा, और
फिर से वही वाद नहीं दायर कर सकता।
• यदि वाद कई वादियों द्वारा दायर है, तो अन्य वादियों की सहमति के बिना कोई एक वादी वाद या उसका कोई भाग नहीं छोड़ सकता।
Rule 1A – Transposition of Defendant as Plaintiff – नियम 1A – प्रतिवादी को वादी के रूप में परिवर्तित करने की अनुमति
• यदि वादी वाद छोड़ देता है और कोई प्रतिवादी Order I Rule 10 के तहत स्वयं को वादी बनाना चाहता है, तो
→ न्यायालय यह देखेगा कि क्या उसके पास वास्तविक विवाद का प्रश्न है अन्य प्रतिवादियों के विरुद्ध।
Rule 2 – Limitation Law Not Affected by First Suit – पहले वाद से सीमा क़ानून पर प्रभाव नहीं
• यदि अनुमति लेकर नया वाद दायर किया जाए तो भी, सीमा कानून उसी तरह लागू होगा, जैसे कि पहला वाद कभी दायर ही नहीं किया गया हो।
Rule 3 – Compromise of Suit – वाद का समझौता
• यदि न्यायालय को यह प्रमाणित हो कि वाद:
o (a) कानूनी समझौते या लिखित और हस्ताक्षरित समझौते द्वारा पूरा या आंशिक रूप से सुलझा लिया गया है, या
o (b) प्रतिवादी ने वादी की संतुष्टि कर दी है,
→ तो न्यायालय:
ऐसे समझौते को अभिलेखित करेगा, और
उस अनुसार डिक्री पारित करेगा, चाहे समझौते का विषय वाद से मेल खाता हो या नहीं।
• बशर्ते, यदि एक पक्ष कहता है कि समझौता हुआ है और दूसरा मना करता है,
→ तो न्यायालय इस पर निर्णय देगा, पर स्थगन (adjournment) केवल विशेष कारणों से ही दिया जाएगा।
• व्याख्या: जो समझौता भारतीय संविदा अधिनियम के तहत शून्य या शून्यता योग्य है, वह इस नियम के अंतर्गत वैध नहीं माना जाएगा।
Rule 3A – Bar to Suit – वाद निषेध
• किसी डिक्री को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि उसका आधार बना समझौता वैध नहीं था।
Rule 3B – No Compromise in Representative Suit without Court’s Leave – प्रतिनिधिक वाद में बिना अनुमति समझौता निषिद्ध
• प्रतिनिधिक वाद में न्यायालय की स्पष्ट अनुमति के बिना कोई समझौता वैध नहीं होगा।
• अनुमति देने से पहले, न्यायालय सभी संबंधित व्यक्तियों को सूचना देगा।
• “प्रतिनिधिक वाद” में शामिल हैं:
o (a) धारा 91 या 92 के अंतर्गत वाद,
o (b) Order I Rule 8 के अंतर्गत वाद,
o (c) अविभाजित हिंदू परिवार में प्रबंधक द्वारा प्रतिनिधित्व में वाद,
o (d) अन्य वाद जो किसी गैर-पक्ष को बाध्य कर सकते हैं।
Rule 4 – Execution Proceedings Not Affected – डिक्री निष्पादन की कार्यवाही पर प्रभाव नहीं
• इस आदेश का कोई भी प्रावधान डिक्री के निष्पादन की कार्यवाही पर लागू नहीं होगा।
ORDER 24 – Payment into Court – न्यायालय में राशि जमा करना
1. Deposit by defendant of amount in satisfaction of claim -प्रतिवादी द्वारा दावा संतोष के रूप में राशि जमा करना
प्रतिवादी (Defendant) किसी ऋण या हर्जाना (damages) के वाद में मुकदमे के किसी भी चरण में न्यायालय में वह राशि जमा कर सकता है जिसे वह दावे की पूर्ण संतुष्टि मानता हो।
2. Notice of deposit – जमा राशि की सूचना
प्रतिवादी को यह सूचना न्यायालय के माध्यम से वादी (Plaintiff) को देनी होगी। और जब तक न्यायालय अन्यथा न कहे, वादी के आवेदन पर वह राशि उसे दी जाएगी।
3. Interest on deposit not allowed to plaintiff after notice – सूचना के बाद वादी को ब्याज नहीं मिलेगा
जिस दिन वादी को सूचना मिली, उस दिन से जमा राशि पर कोई ब्याज (Interest) वादी को नहीं मिलेगा, चाहे जमा राशि पूरी हो या आंशिक।
4. Procedure where plaintiff accepts deposit – जब वादी राशि को स्वीकार करता है तब की प्रक्रिया
(1) आंशिक स्वीकार्यता पर:
अगर वादी राशि को आंशिक संतुष्टि मानता है, तो वह शेष राशि के लिए मुकदमा जारी रख सकता है।
अगर न्यायालय ने यह पाया कि प्रतिवादी की जमा राशि पूरी संतुष्टि थी, तो वादी को—
• जमा के बाद हुए मुकदमे के खर्च, और
• पहले के ऐसे खर्च जो अतिरिक्त दावा करने के कारण हुए, देने होंगे।
(2) पूर्ण स्वीकार्यता पर:
यदि वादी राशि को पूर्ण संतोष के रूप में स्वीकार करता है, तो उसे न्यायालय में एक बयान देना होगा।
न्यायालय उस बयान के अनुसार निर्णय देगा और खर्च (costs) तय करते समय यह देखेगा कि मुकदमे के लिए किस पक्ष की अधिक गलती थी।
Illustrations | उदाहरण:-
(a) बिना मांग के B, A से ₹100 मांगता है और मुकदमा करता है। A तुरंत राशि जमा करता है, B पूरी राशि स्वीकार करता है।
B को कोई खर्च नहीं मिलेगा क्योंकि मुकदमा निराधार था।
(b) B मुकदमा करता है, A पहले दावे का विरोध करता है, फिर राशि जमा करता है। B पूरी राशि स्वीकार करता है।
B को खर्च मिलेगा क्योंकि A के व्यवहार से मुकदमा आवश्यक हुआ।
(c) A ₹100 देने को तैयार था, B ₹150 का दावा करता है। A ₹100 जमा करता है, B इसे पूरी संतुष्टि मानता है।
B को A का खर्च देना होगा क्योंकि B ने अनावश्यक रूप से अधिक दावा किया।
ORDER 25 – Security for Costs | खर्चों के लिए सुरक्षा राशि
Rule 1 – When security for costs may be required from plaintiff – वादी से खर्चों के लिए सुरक्षा राशि कब ली जा सकती है
(1) मुकदमे के किसी भी चरण पर, न्यायालय स्वयं या प्रतिवादी के आवेदन पर, वादी को यह आदेश दे सकता है कि वह एक निश्चित समय में उन सभी खर्चों के भुगतान के लिए सुरक्षा राशि जमा करे जो प्रतिवादी ने किए हैं या कर सकता है; बशर्ते कि—
यदि कोई एकल वादी भारत से बाहर रहता है या यदि एक से अधिक वादी हैं और सभी भारत से बाहर रहते हैं, और उनके पास भारत में मुकदमे की संपत्ति के अलावा कोई पर्याप्त अचल संपत्ति नहीं है, तो न्यायालय आवश्यक रूप से ऐसा आदेश देगा।
(2) जो व्यक्ति भारत को ऐसे हालात में छोड़ देता है कि यह संभावना हो कि वह खर्च भरने के समय उपलब्ध नहीं होगा, उसे इस नियम की proviso के तहत “भारत के बाहर निवास करने वाला” माना जाएगा।
Rule 2 – Effect of failure to furnish security – सुरक्षा राशि न देने का प्रभाव
(1) यदि वादी नियत समय में सुरक्षा राशि नहीं देता, तो न्यायालय मुकदमा खारिज कर देगा, जब तक वादी को मुकदमे से नाम वापस लेने की अनुमति न दी जाए।
(2) यदि मुकदमा खारिज कर दिया गया हो, तो वादी अर्जी दे सकता है कि खारिजी रद्द की जाए, और यदि यह सिद्ध हो जाए कि वह उचित कारण से राशि नहीं दे सका, तो न्यायालय उचित शर्तों (जैसे सुरक्षा, खर्च आदि) पर खारिजी को रद्द कर सकता है और मुकदमे को आगे बढ़ाने की तिथि तय करेगा।
(3) खारिजी रद्द तभी की जाएगी जब उस अर्जी की सूचना प्रतिवादी को दी गई हो।
आदेश 26 – आयोग (Commissions)
गवाहों की जाँच के लिए आयोग
नियम 1 – वे मामले जिनमें न्यायालय गवाह की जाँच के लिए आयोग जारी कर सकता है –
कोई भी न्यायालय, किसी भी वाद में, ऐसे किसी व्यक्ति की जाँच के लिए आयोग जारी कर सकता है जो:
• उस न्यायालय की क्षेत्रीय सीमा में रहता हो; और
• जो इस संहिता के तहत न्यायालय में उपस्थित होने से छूट प्राप्त हो,
या
• जो बीमारी या दुर्बलता (कमजोरी) के कारण न्यायालय में उपस्थित नहीं हो सकता हो।
बशर्ते कि पूछताछ (interrogatories) के आधार पर जाँच के लिए आयोग तब तक जारी नहीं किया जाएगा, जब तक न्यायालय ऐसा करना आवश्यक न समझे और इसके कारण लिखित रूप में न दे।
स्पष्टीकरण : – न्यायालय, बीमारी या दुर्बलता को प्रमाणित करने के लिए पंजीकृत चिकित्सक द्वारा हस्ताक्षरित प्रमाणपत्र को स्वीकार कर सकता है, बिना चिकित्सक को गवाह के रूप में बुलाए।
नियम 2 – आयोग जारी करने का आदेश –
गवाह की जाँच के लिए आयोग जारी करने का आदेश:
• न्यायालय स्वयं दे सकता है, या
• वाद के किसी पक्ष या स्वयं गवाह के आवेदन पर (हलफ़नामे या अन्य रूप में) दे सकता है।
नियम 3 – जब गवाह न्यायालय की क्षेत्राधिकार में रहता हो –
यदि गवाह उसी न्यायालय की क्षेत्रीय सीमा में रहता है, तो आयोग किसी ऐसे व्यक्ति को दिया जा सकता है जिसे न्यायालय उपयुक्त समझे।
नियम 4 – किन व्यक्तियों की जाँच के लिए आयोग जारी किया जा सकता है –
(1) न्यायालय किसी भी वाद में निम्नलिखित व्यक्तियों की जाँच के लिए आयोग जारी कर सकता है:
(a) जो व्यक्ति न्यायालय की क्षेत्रीय सीमा से बाहर रहता हो;
(b) जो व्यक्ति निर्धारित तारीख से पहले उस क्षेत्र से बाहर जाने वाला हो;
(c) कोई ऐसा सरकारी कर्मचारी, जो न्यायालय की राय में, लोक सेवा को हानि पहुँचाए बिना उपस्थित नहीं हो सकता।
बशर्ते कि यदि Order 16 के नियम 19 के अनुसार कोई व्यक्ति न्यायालय में व्यक्तिगत रूप से बुलाया नहीं जा सकता, और यदि उसका साक्ष्य न्याय के हित में आवश्यक हो, तो उसके लिए आयोग जारी किया जाएगा।
बशर्ते और कि पूछताछ (interrogatories) के आधार पर आयोग तभी जारी किया जाएगा जब न्यायालय इसे आवश्यक समझे और कारण लिखित रूप में दे।
(2) यह आयोग उस क्षेत्र की किसी निचली अदालत को, या किसी वकील अथवा अन्य व्यक्ति को दिया जा सकता है, जिसे न्यायालय उपयुक्त माने।
(3) आयोग जारी करते समय न्यायालय निर्देश देगा कि वह आयोग स्वयं उसे लौटाया जाए या किसी अधीनस्थ न्यायालय को।
नियम 4A – यदि गवाह उसी क्षेत्र में रहता हो तब भी आयोग –
न्यायालय, न्याय के हित में, या मुकदमे के शीघ्र निपटान के लिए, या किसी अन्य कारण से, किसी भी व्यक्ति की पूछताछ या अन्यथा जाँच के लिए आयोग जारी कर सकता है, भले ही वह व्यक्ति उसी क्षेत्र में रहता हो। ऐसा साक्ष्य मुकदमे में पढ़ा जाएगा।
नियम 5 – जब गवाह भारत के बाहर हो –
यदि कोई व्यक्ति भारत से बाहर रहता है और उसका साक्ष्य आवश्यक हो, तो न्यायालय उसकी जाँच के लिए आयोग या अनुरोध-पत्र (letter of request) जारी कर सकता है।
नियम 6 – न्यायालय द्वारा आयोग के अनुसार गवाह की जाँच –
जिस न्यायालय को आयोग प्राप्त हो, वह उस व्यक्ति की जाँच करेगा या कराएगा।
नियम 7 – आयोग की वापसी और साक्ष्य –
जब आयोग का सही तरीके से निष्पादन हो जाए, तो वह और उसमें लिए गए साक्ष्य न्यायालय को लौटाए जाएंगे, जिससे वह जारी किया गया था। यह सब वाद के रिकॉर्ड का हिस्सा बनेगा, बशर्ते नियम 8 में अन्यथा न कहा गया हो।
नियम 8 – कब साक्ष्य पढ़ा जा सकता है –
आयोग द्वारा लिया गया साक्ष्य उस पक्ष की सहमति के बिना नहीं पढ़ा जाएगा, जिसके खिलाफ वह पेश किया जा रहा है, जब तक कि :-
(a) गवाह क्षेत्र के बाहर हो, मर चुका हो, बीमारी या दुर्बलता के कारण उपस्थित न हो सकता हो, न्यायालय में आने से छूट प्राप्त हो, या सरकारी सेवा में हो और न्यायालय की राय में उसकी उपस्थिति लोक सेवा को हानि पहुँचाएगी,
या
(b) न्यायालय, अपने विवेक से, उपरोक्त कारणों को सिद्ध करने की आवश्यकता को माफ कर दे और साक्ष्य को पढ़ने की अनुमति दे दे, भले ही वह कारण अब मौजूद न हो।
स्थानीय जांच के लिए आयोग
Commission for Local Invenstigaiton
नियम 9 – स्थानीय जांच के लिए आयोग –
यदि किसी वाद में:
• किसी विवादित तथ्य को स्पष्ट करने,
• किसी संपत्ति का बाजार मूल्य तय करने,
• किसी मुआवजे, अंतरिम लाभ (mesne profits) या वार्षिक लाभ को जानने के लिए
स्थानीय जांच आवश्यक हो, तो न्यायालय आयोग जारी कर सकता है।
बशर्ते कि यदि राज्य सरकार ने यह नियम बना रखे हैं कि किसे आयोग देना है, तो न्यायालय उन्हीं नियमों का पालन करेगा।
नियम 10 – आयुक्त की प्रक्रिया –
(1) आयुक्त आवश्यक स्थानीय निरीक्षण करेगा और गवाहों के साक्ष्य को लिखेगा और अपनी रिपोर्ट न्यायालय को देगा।
(2) रिपोर्ट और साक्ष्य मुकदमे में प्रमाण होंगे। न्यायालय या पक्ष, आयुक्त को न्यायालय में बुलाकर पूछताछ कर सकता है।
(3) यदि न्यायालय आयुक्त की कार्यवाही से संतुष्ट न हो, तो और जांच का आदेश दे सकता है।
वैज्ञानिक जांच, लघु कार्य और चल संपत्ति की बिक्री हेतु आयोग
नियम 10A – वैज्ञानिक जांच के लिए आयोग : –
यदि किसी वाद में कोई वैज्ञानिक जांच आवश्यक हो जो न्यायालय में संभव न हो, तो न्यायालय ऐसा आयोग किसी योग्य व्यक्ति को दे सकता है।
नियम 10 की प्रक्रिया यहां भी लागू होगी।
नियम 10B – लघु (ministerial) कार्य के लिए आयोग –
यदि कोई ऐसा कार्य है जो न्यायालय में नहीं हो सकता, और न्यायालय उसे आवश्यक समझे (कारण लिखित हों), तो किसी व्यक्ति को आयोग दे सकता है।
नियम 10 लागू होगा।
नियम 10C – चल संपत्ति की बिक्री हेतु आयोग –
यदि किसी वाद में न्यायालय की कस्टडी में कोई चल संपत्ति है, जो सुरक्षित नहीं रखी जा सकती, तो न्यायालय किसी व्यक्ति को आयोग दे सकता है कि वह उसकी बिक्री करे और रिपोर्ट दे। नियम 10 लागू होगा।
बिक्री प्रक्रिया डिक्री की क्रियान्वयन की बिक्री के समान होगी।
खाते की जांच हेतु आयोग
नियम 11 – खातों की जांच/समायोजन हेतु आयोग –
अगर वाद में खाता देखना या समायोजन करना ज़रूरी हो, तो न्यायालय ऐसा आयोग जारी कर सकता है।
नियम 12 – आयोग को निर्देश देना –
(1) न्यायालय आयुक्त को आवश्यक दस्तावेज़ और निर्देश देगा। ये स्पष्ट करेंगे कि वह केवल कार्यवाही भेजेगा या राय भी देगा
(2) कार्यवाही और रिपोर्ट साक्ष्य मानी जाएगी, लेकिन अगर न्यायालय संतुष्ट नहीं हो, तो और जांच का आदेश दे सकता है।
विभाजन के लिए आयोग
नियम 13 – अचल संपत्ति के विभाजन हेतु आयोग –
यदि किसी वाद में प्रारंभिक विभाजन डिक्री हो चुकी हो, तो न्यायालय किसी व्यक्ति को विभाजन करने के लिए आयोग दे सकता है।
नियम 14 – आयुक्त की प्रक्रिया –
(1) आयुक्त, आवश्यक जांच के बाद, संपत्ति को हिस्सों में बाँटेगा और पार्टियों को आवंटित करेगा। यदि आवश्यक हो, तो समानता के लिए राशि का आदेश भी दे सकता है।
(2) वह रिपोर्ट तैयार करेगा और न्यायालय को सौंपेगा। अगर एक से अधिक आयुक्त हों और वे सहमत न हों, तो वे अलग-अलग रिपोर्ट देंगे।
15. रिपोर्ट का निष्पादन (Execution of Commission’s Report)
जब आयुक्त द्वारा तैयार रिपोर्ट पर आपत्तियाँ (objections) ना हों, और न्यायालय उसे स्वीकार कर ले, तब –
(1) रिपोर्ट को डिक्री का हिस्सा माना जाएगा, और
(2) उसके अनुसार आगे की कार्यवाही होगी जैसे कि विभाजन की स्थिति में संपत्ति का कब्जा दिलाना या मूल्य की अदायगी करवाना।
विदेश में गवाहों की जाँच हेतु अनुरोध पत्र (Letter of Request)
16. विदेश में गवाही हेतु अनुरोध पत्र –
यदि कोई गवाह भारत के बाहर है और उसकी गवाही जरूरी है, तो न्यायालय ऐसा अनुरोध पत्र (letter of request) जारी कर सकता है –
(a) संबंधित देश के किसी न्यायालय को; या
(b) किसी उपयुक्त व्यक्ति को जिसे वह उपयुक्त माने।
स्पष्टीकरण – इसमें डॉक्टरों, वैज्ञानिकों, तकनीकी विशेषज्ञों से जाँच करवाना भी शामिल है।
विदेश में जाँच की प्रक्रिया और वैधता
17. विदेश में लिया गया साक्ष्य मान्य होगा –
विदेश में किसी न्यायालय या नियुक्त व्यक्ति द्वारा ली गई गवाही मान्य मानी जाएगी यदि –
(a) उसे सीलबंद लिफाफे में भेजा गया हो;
(b) संबंधित न्यायालय या व्यक्ति ने सत्यापन किया हो;
(c) यह साबित न किया जाए कि वह रिपोर्ट पक्षपातपूर्ण या गलत है।
18. भारत में उपस्थित गवाह से पूछताछ –
यदि विदेश में आयुक्त द्वारा गवाही ली जा चुकी हो, फिर भी भारत में वह गवाह उपस्थित हो, तो न्यायालय उसे बुलाकर पूछताछ कर सकता है।
आयुक्तों के लिए सामान्य नियम
19. न्यायालय की शक्तियाँ आयोग कार्य हेतु आयुक्त को –
आयुक्त के पास कार्यवाही करते समय वो सभी शक्तियाँ होंगी जो न्यायालय के पास होती हैं, जैसे –
(a) गवाहों को शपथ दिलाना;
(b) दस्तावेज़ बुलवाना;
(c) जाँच करवाना।
20. आयोग के खर्चों की वसूली –
आयोग से संबंधित खर्चों की जिम्मेदारी न्यायालय तय करेगा कि कौन पक्ष देगा और कितना। अगर किसी पक्ष ने खर्च पहले जमा नहीं किया हो, तो न्यायालय आयोग जारी करने से मना कर सकता है।
21. आयुक्त को हटाने की शक्ति (Power to remove Commissioner)
यदि कोई आयुक्त –
(a) न्यायालय के आदेशों का पालन नहीं करता है, या
(b) अपने कार्य में लापरवाही करता है, या
(c) पक्षपात करता है,
तो न्यायालय उसे हटा सकता है और उसके स्थान पर नया आयुक्त नियुक्त कर सकता है।
22. असहयोग करने वाले व्यक्ति को दंड (Penalty for default)
यदि कोई व्यक्ति –
(a) आयुक्त के सामने उपस्थित होने से मना करता है, या
(b) दस्तावेज़ देने से मना करता है, या
(c) पूछे गए सवालों का उत्तर नहीं देता है,
तो न्यायालय उसे ऐसे ही दंड दे सकता है जैसे वह व्यक्ति न्यायालय में ऐसा करता।
Order 27 – सरकारी या लोक अधिकारी के विरुद्ध या उनकी ओर से वाद
1. सरकार द्वारा या सरकार के विरुद्ध वाद
यदि वाद सरकार की ओर से या सरकार के विरुद्ध दायर किया गया है, तो प्रार्थनापत्र (plaint) या लिखित उत्तर (written statement) उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षरित और सत्यापित किया जाएगा जिसे सरकार ने आम या विशेष आदेश द्वारा नियुक्त किया है और जो केस की जानकारी रखता हो।
2. सरकार की ओर से कार्य करने के लिए अधिकृत व्यक्ति
जो व्यक्ति न्यायिक कार्यवाही में सरकार की ओर से कार्य करने के लिए अधिकृत हैं (ex officio या अन्यथा), उन्हें इस आदेश के तहत सरकार के मान्यता प्राप्त अभिकर्ता (recognized agent) माना जाएगा।
3. सरकार से संबंधित वादों में वादी या प्रतिवादी का नाम
ऐसे मामलों में, वादी या प्रतिवादी के नाम और पते की जगह पर केवल Section 79 CPC में दिए गए उचित नाम का उल्लेख पर्याप्त होगा।
4. सरकार की ओर से प्रक्रिया प्राप्त करने वाला अभिकर्ता
किसी भी न्यायालय में सरकारी वकील (Government Pleader) उस न्यायालय द्वारा सरकार के खिलाफ जारी प्रक्रिया (process) को प्राप्त करने के लिए सरकार का अभिकर्ता माना जाएगा।
5. सरकार के उत्तर देने के लिए दिन तय करना
न्यायालय सरकार को उत्तर देने के लिए उचित समय देगा, ताकि सरकार से संपर्क किया जा सके और सरकारी वकील को निर्देश दिए जा सकें। कुल समय 2 महीने से अधिक नहीं हो सकता।
5A. लोक अधिकारी के विरुद्ध वाद में सरकार को पक्ष बनाना अनिवार्य
अगर किसी लोक अधिकारी के विरुद्ध उसकी आधिकारिक क्षमता में किए गए कार्यों के लिए वाद है, तो सरकार को उस वाद में पक्षकार बनाना जरूरी है।
5B. सरकार या लोक अधिकारी के विरुद्ध वादों में समझौते के प्रयास
• न्यायालय का कर्तव्य है कि वह पहले प्रयास करे कि समझौता हो सके।
• अगर किसी भी चरण में समझौते की संभावना दिखे, तो कार्यवाही स्थगित की जा सकती है।
• यह शक्ति अन्य स्थगन शक्तियों के अतिरिक्त है।
6. सरकार की ओर से प्रश्नों का उत्तर देने योग्य व्यक्ति की उपस्थिति
यदि सरकारी वकील के साथ कोई ऐसा व्यक्ति उपस्थित नहीं है जो महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर दे सके, तो न्यायालय ऐसे व्यक्ति को उपस्थित होने का निर्देश दे सकता है।
7. लोक अधिकारी को सरकार से परामर्श हेतु समय देना
o यदि कोई लोक अधिकारी वाद का उत्तर देने से पहले सरकार से परामर्श करना चाहता है, तो वह न्यायालय से समय बढ़ाने का अनुरोध कर सकता है।
o न्यायालय आवश्यकतानुसार समय बढ़ा सकता है।
8. लोक अधिकारी के विरुद्ध वाद की प्रक्रिया
o यदि सरकार बचाव (defence) लेती है, तो सरकारी वकील प्राधिकृत होकर प्रार्थना करेगा और उसका नाम सिविल रजिस्टर में दर्ज किया जाएगा।
o यदि ऐसा नहीं किया गया, तो मामला निजी पक्षों के बीच के वाद की तरह चलेगा।
प्रावधान : लोक अधिकारी को गिरफ्तारी या उसकी संपत्ति की कुर्की केवल डिक्री (निर्णय) की प्रक्रिया में ही की जा सकती है।
8A. सरकार या लोक अधिकारी से सुरक्षा राशि नहीं मांगी जाएगी
Order XLI Rule 5 और 6 के तहत मांगी जाने वाली सुरक्षा राशि सरकार या उसके द्वारा बचाव लिए लोक अधिकारी से नहीं मांगी जाएगी।
8B. “Government” और “Government Pleader” की परिभाषा
• Central Government के मामलों में: केंद्र सरकार और उसके द्वारा नियुक्त सरकारी वकील।
• State Government के मामलों में: राज्य सरकार और उसका सरकारी वकील (Section 2(7) CPC के अनुसार)।
Order 27-A : संविधान की व्याख्या या विधिक साधन की वैधता से संबंधित वाद
Rule 1 – अटॉर्नी जनरल या एडवोकेट जनरल को सूचना देना अनिवार्य
यदि किसी वाद में न्यायालय को ऐसा प्रतीत हो कि संविधान के अनुच्छेद 132(1) के साथ अनुच्छेद 147 के अंतर्गत कोई महत्वपूर्ण कानून संबंधी प्रश्न उत्पन्न हो रहा है, तो –
• अगर प्रश्न केंद्र सरकार से संबंधित है, तो भारत के अटॉर्नी जनरल को सूचना देना अनिवार्य है।
• अगर प्रश्न राज्य सरकार से संबंधित है, तो राज्य के एडवोकेट जनरल को सूचना देना अनिवार्य है।
• जब तक यह सूचना नहीं दी जाती, न्यायालय उस प्रश्न का निवारण नहीं करेगा।
Rule 1A – किसी विधिक साधन (Statutory Instrument) की वैधता पर प्रश्न
यदि वाद में ऐसा कोई प्रश्न उठता है जो किसी विधिक साधन की वैधता (validity) से जुड़ा है, और वह Rule 1 के अंतर्गत नहीं आता, तो –
• यदि वह प्रश्न सरकार से संबंधित है, तो सरकारी वकील (Government Pleader) को सूचना दी जाएगी।
• यदि वह प्रश्न किसी अन्य प्राधिकरण से संबंधित है जिसने वह साधन (जैसे नियम, अधिसूचना) जारी किया है, तो उस प्राधिकरण को सूचना दी जाएगी।
• सूचना देने के बाद ही न्यायालय उस प्रश्न पर निर्णय देगा।
Rule 2 – सरकार को वादी/प्रतिवादी के रूप में जोड़ना
अगर ऐसा महत्वपूर्ण कानून संबंधी प्रश्न (जैसा कि Rule 1 में बताया गया है) उठ रहा है, तो –
• भारत का अटॉर्नी जनरल या राज्य का एडवोकेट जनरल, सूचना मिलने के बाद या अन्यथा, कोर्ट से अनुरोध कर सकता है कि सरकार को प्रतिवादी (defendant) के रूप में जोड़ा जाए।
• यदि न्यायालय संतुष्ट हो कि उचित निर्णय के लिए सरकार को पक्षकार बनाना आवश्यक या उचित है, तो वह ऐसा आदेश दे सकता है।
Rule 2A – विधिक साधन की वैधता से जुड़े मामलों में सरकार या प्राधिकरण को जोड़ना
यदि Rule 1A के तहत कोई प्रश्न उठ रहा है, तो –
• सरकारी वकील या संबंधित प्राधिकरण का वकील, सरकार या उस प्राधिकरण को वाद में प्रतिवादी के रूप में जोड़ने का अनुरोध कर सकता है।
• यदि न्यायालय संतुष्ट हो कि प्रश्न के न्यायोचित निवारण के लिए ऐसा करना आवश्यक है, तो वह जोड़ सकता है।
Rule 3 – लागत (Costs)
यदि Rule 2 या 2A के तहत सरकार या अन्य प्राधिकरण को प्रतिवादी के रूप में जोड़ा जाता है, तो –
• सामान्यतः सरकार, अटॉर्नी जनरल, एडवोकेट जनरल, सरकारी वकील या प्राधिकरण को उस न्यायालय में मुकदमे की लागत (costs) का कोई अधिकार या दायित्व नहीं होगा।
• बशर्ते, न्यायालय विशेष परिस्थितियों में कोई अन्य आदेश दे।
Rule 4 – अपीलों में आदेश का लागू होना
• इस आदेश को अपीलों में लागू करते समय –
“Defendant” का अर्थ “Respondent” माना जाएगा और
“Suit” का अर्थ “Appeal” माना जाएगा।
Explanation (स्पष्टीकरण)
“Statutory Instrument” का अर्थ है:
किसी विधि के अंतर्गत बनाए गए नियम (rules), अधिसूचना (notification), उपविधि (bye-law), आदेश (order), योजना (scheme) या प्रपत्र (form)।
Order 28 – Suits by or against Military or Naval Men or Airmen – सैन्य, नौसेना या वायुसेना कर्मियों द्वारा या उनके विरुद्ध वाद
Rule 1 – Authorization to sue or defend by personnel without leave – अवकाश न मिल पाने पर वाद करने या बचाव करने हेतु प्राधिकरण
महत्वपूर्ण बिंदु:
• कोई भी अधिकारी, सैनिक, नाविक या वायुसैनिक, जो सरकार की सेवा में कार्यरत है और अवकाश नहीं ले सकता, वह किसी व्यक्ति को वाद करने या बचाव करने हेतु अधिकृत कर सकता है।
• यह अधिकार-पत्र लिखित होगा, और संबंधित अधिकारी/सैनिक/नाविक/वायुसैनिक द्वारा, निम्न में से किसी एक की उपस्थिति में हस्ताक्षरित होगा:
o उसका कमांडिंग ऑफिसर या (यदि वह स्वयं कमांडिंग ऑफिसर है) उसका अधीनस्थ अधिकारी,
o या यदि वह स्टाफ पोस्ट पर है, तो संबंधित कार्यालय का प्रमुख अधिकारी।
• यह अधिकार-पत्र कोर्ट में प्रस्तुत किया जाएगा और काउंटर-सिग्नेचर (प्रत्यायन) प्रमाण होगा कि:
o उसे अवकाश नहीं मिल सका,
o और अधिकार-पत्र विधिवत रूप से दिया गया।
स्पष्टीकरण: “Commanding officer” का अर्थ है – वह अधिकारी जो उस समय उस रेजिमेंट, कॉर्प्स, जहाज़, डिटैचमेंट या डिपो का वास्तविक प्रभारी हो, जिससे संबंधित अधिकारी/सैनिक/नाविक/ वायुसैनिक जुड़ा हो।
Rule 2 – Authorised person may appear or appoint pleader – प्राधिकृत व्यक्ति स्वयं वाद करे या वकील नियुक्त करे
महत्वपूर्ण बिंदु:
• वह व्यक्ति जिसे अधिकारी/सैनिक/नाविक/वायुसैनिक ने वाद करने या बचाव करने हेतु अधिकृत किया है, वह:
o स्वयं अदालत में उपस्थित होकर वाद कर सकता है, जैसे वह अधिकारी स्वयं करता,
o या वह एक वकील नियुक्त कर सकता है, जो उस अधिकारी की ओर से वाद करे या बचाव करे।
Rule 3 – Service on authorised person or pleader is valid – प्राधिकृत व्यक्ति या उसके वकील को नोटिस देना वैध सेवा मानी जाएगी
महत्वपूर्ण बिंदु:
• यदि कोई नोटिस या प्रक्रिया उस व्यक्ति को दी जाती है जिसे अधिकारी/सैनिक/नाविक/वायुसैनिक ने अधिकृत किया है, या उसके द्वारा नियुक्त वकील को दी जाती है, तो वह उसी प्रकार मान्य होगी जैसे वह स्वयं पार्टी को दी गई हो।
Order 29 – Suits by or against Corporations कंपनियों (Corporations) द्वारा या उनके विरुद्ध वाद
Rule 1 – Subscription and verification of pleading – याचिका पर हस्ताक्षर और सत्यापन
• कंपनी की ओर से वाद में कोई भी याचिका (pleading) निम्न द्वारा हस्ताक्षरित और सत्यापित (verify) की जा सकती है:
o सेक्रेटरी (सचिव),
o कोई निदेशक (director), या
o अन्य प्रमुख अधिकारी (principal officer), जो मामले के तथ्यों को शपथपूर्वक कहने (depose) में सक्षम हो।
Rule 2 – Service on corporation – कंपनी को समन की सेवा
महत्वपूर्ण बिंदु:
• यदि कंपनी के विरुद्ध वाद है, तो समन निम्न में से किसी भी प्रकार से भेजा जा सकता है:
o (a) सेक्रेटरी, निदेशक या प्रमुख अधिकारी को व्यक्तिगत रूप से,
o (b) कंपनी के पंजीकृत कार्यालय (registered office) पर छोड़कर या डाक द्वारा भेजकर, और यदि ऐसा कार्यालय नहीं है, तो जहाँ कंपनी व्यवसाय करती है, वहाँ भेजा जा सकता है।
Rule 3 – Power to require personal attendance of officer of corporation – कंपनी के अधिकारी की व्यक्तिगत उपस्थिति की शक्ति
महत्वपूर्ण बिंदु:
• न्यायालय किसी भी चरण पर, यह आदेश दे सकता है कि:
o कंपनी का सेक्रेटरी, निदेशक या अन्य प्रमुख अधिकारी, जो वाद से संबंधित महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम हो, व्यक्तिगत रूप से उपस्थित हो।
Order 30 – फर्मों व अन्य नामों से व्यवसाय करने वाले व्यक्तियों से संबंधित वाद
1. फर्म के नाम से वाद करना या किया जाना:
दो या दो से अधिक व्यक्ति जो भागीदार हैं, वे फर्म के नाम से वाद कर सकते हैं या उनके विरुद्ध वाद किया जा सकता है। कोर्ट नाम व पते पूछ सकता है कि वाद कारण उत्पन्न होने के समय कौन-कौन भागीदार थे।
2. भागीदारों के नामों का खुलासा:
अगर फर्म के नाम से वाद किया गया है, तो प्रतिवादी के लिखित माँग पर वादी को भागीदारों के नाम और उनके पते बताने होंगे। यदि वादी ऐसा नहीं करता, तो कार्यवाही स्थगित की जा सकती है।
बशर्ते: कार्यवाही फर्म के नाम से ही जारी रहेगी, लेकिन निर्णय में भागीदारों के नाम दर्ज होंगे।
3. समन की सेवा:
फर्म के विरुद्ध समन निम्न में से किसी प्रकार से सेवा किया जा सकता है –
(a) किसी एक या अधिक भागीदार पर, या
(b) फर्म के मुख्य स्थान पर ऐसे व्यक्ति पर जो उस समय व्यापार का संचालन करता हो।
बशर्ते: यदि फर्म भंग हो चुकी हो, तो सभी उत्तरदायी व्यक्तियों को समन देना अनिवार्य है।
4. भागीदार की मृत्यु पर अधिकार:
अगर वाद के पहले या बीच में कोई भागीदार मर जाए, तो मृत भागीदार के कानूनी उत्तराधिकारी को पक्षकार बनाना आवश्यक नहीं है।
बशर्ते: मृतक का उत्तराधिकारी स्वयं पक्षकार बनने या दावा करने का अधिकार रखता है।
5. सेवा किस हैसियत में हुई – सूचना देना जरूरी:
समन देते समय यह लिखित सूचना देना जरूरी है कि व्यक्ति को भागीदार के रूप में, व्यापार संचालक के रूप में, या दोनों रूप में समन दिया गया है। यदि सूचना न दी जाए, तो उसे भागीदार ही माना जाएगा।
6. भागीदारों की व्यक्तिगत उपस्थिति:
वाद फर्म के नाम से हो सकता है, लेकिन प्रतिवादी भागीदारों को व्यक्तिगत रूप से अपने नाम से उपस्थिति देनी होगी। आगे की कार्यवाही फर्म के नाम से चलती रहेगी।
7. गैर-भागीदार की उपस्थिति जरूरी नहीं:
यदि समन व्यापार संचालक को दिया गया है और वह भागीदार नहीं है, तो उसे उपस्थिति देने की आवश्यकता नहीं।
8. आपत्ति के साथ उपस्थिति (Appearance under Protest):
कोई व्यक्ति जिसे भागीदार मानकर समन दिया गया है, वह उपस्थिति देकर यह आपत्ति कर सकता है कि वह भागीदार नहीं है।
• कोर्ट यह तय करेगा कि वह वास्तव में भागीदार था या नहीं।
• अगर कोर्ट उसे भागीदार मानता है, तो वह फर्म की देयता से इनकार कर सकता है।
• अगर वह भागीदार नहीं निकला, तो वादी फर्म पर समन देकर फिर से वाद चला सकता है, लेकिन उस व्यक्ति को भागीदार मानकर निर्णय लागू नहीं कर सकेगा।
9. सह-भागीदारों के बीच वाद:
यह आदेश ऐसे वादों पर भी लागू होगा जो किसी भागीदार और फर्म या दो फर्मों (जिनमें कोई साझेदार समान हो) के बीच हों।
बशर्ते: निर्णय लागू करने के लिए कोर्ट से अनुमति लेनी होगी।
10. अन्य नाम से व्यापार करने वाले व्यक्ति:
जो व्यक्ति अपने नाम के अलावा किसी और नाम या शैली से व्यापार करता है (जैसे HUF), उसके विरुद्ध भी ऐसे नाम में वाद चलाया जा सकता है जैसे वह फर्म हो। इस आदेश के नियम उस पर भी लागू होंगे।
Order 31 – ट्रस्टी, निष्पादक (executor) और प्रशासक (administrator) द्वारा या उनके विरुद्ध वाद
1. लाभार्थियों का प्रतिनिधित्व – ट्रस्टी आदि द्वारा
जहाँ वाद ऐसे संपत्ति से संबंधित हो जो किसी ट्रस्टी, निष्पादक या प्रशासक के अधीन हो, और विवाद संपत्ति में लाभ लेने वाले व्यक्ति (beneficiaries) तथा किसी तीसरे व्यक्ति के बीच हो
तो उस वाद में ट्रस्टी, निष्पादक या प्रशासक लाभार्थियों का प्रतिनिधित्व करेगा।
➤ आमतौर पर उन लाभार्थियों को पक्षकार बनाना आवश्यक नहीं है।
बशर्ते: यदि कोर्ट उपयुक्त समझे, तो वह उन व्यक्तियों को पक्षकार बनाने का आदेश दे सकता है।
2. एक से अधिक ट्रस्टी, निष्पादक या प्रशासक होने पर
जहाँ दो या अधिक ट्रस्टी, निष्पादक या प्रशासक हों, वहाँ वाद में सभी को पक्षकार बनाना आवश्यक होगा, भले ही वाद केवल किसी एक या कुछ के विरुद्ध ही हो।
बशर्ते:
• ऐसे निष्पादक जिन्होंने वसीयत सिद्ध (prove) नहीं की हो, और
• भारत के बाहर स्थित ट्रस्टी, निष्पादक या प्रशासक —
उन्हें पक्षकार बनाना आवश्यक नहीं है।
3. विवाहित महिला ट्रस्टी आदि के पति को पक्षकार नहीं बनाया जाएगा
जब तक कोर्ट कुछ और न कहे —
यदि कोई वाद किसी विवाहित महिला ट्रस्टी, निष्पादिका या प्रशासिका से संबंधित है, तो उसके पति को सिर्फ उसके पति होने के नाते वाद में पक्षकार नहीं बनाया जाएगा।
Order 32– नाबालिगों और विक्षिप्त व्यक्ति द्वारा या उनके विरुद्ध वाद
Rule 1 – नाबालिग द्वारा अगला मित्र (Next Friend) के माध्यम से वाद दायर किया जाएगा।
हर वह वाद जो किसी नाबालिग द्वारा दायर किया जाए, वह उसके नाम में एक ऐसे व्यक्ति द्वारा दायर किया जाएगा जिसे उस वाद में “अगला मित्र” कहा जाएगा।
स्पष्टीकरण – इस आदेश में “नाबालिग” का अर्थ उस व्यक्ति से है जिसने भारतीय बहुसंख्यक (Majority) अधिनियम, 1875 की धारा 3 के अनुसार अपनी बहुसंख्यकता (majority) प्राप्त नहीं की है, जब वाद उस अधिनियम की धारा 2 की (a) और (b) धाराओं से संबंधित हो या किसी अन्य विषय से संबंधित हो।
Rule 2 – बिना अगला मित्र (next Friend) के दायर वाद को खारिज किया जाएगा।
(1) यदि कोई वाद नाबालिग द्वारा या उसकी ओर से बिना अगला मित्र के दायर किया गया हो, तो प्रतिवादी याचिका देकर वाद पत्र को रिकॉर्ड से हटवाने की मांग कर सकता है, और ऐसा करने वाले वकील या व्यक्ति से लागत दिलवाई जा सकती है।
(2) ऐसी याचिका की सूचना (Notice) उस व्यक्ति को दी जाएगी, और न्यायालय उसकी आपत्तियाँ सुनकर उचित आदेश पारित कर सकता है।
Rule 2A – अगला मित्र से सुरक्षा देने का आदेश न्यायालय दे सकता है।
(1) यदि वाद अगला मित्र द्वारा दायर किया गया है, तो न्यायालय किसी भी चरण पर, अपने आप या प्रतिवादी के आवेदन पर, कारण दर्ज करते हुए, अगला मित्र से प्रतिवादी की लागत के लिए सुरक्षा देने का आदेश दे सकता है।
(2) यदि वाद गरीब व्यक्ति द्वारा दायर किया गया है, तो सुरक्षा में सरकार को देय न्याय शुल्क भी शामिल होगा।
(3) Order XXV, Rule 2 के प्रावधान, जहाँ तक संभव हो, इस पर लागू होंगे।
Rule 3 – नाबालिग प्रतिवादी के लिए न्यायालय द्वारा अभिभावक नियुक्त किया जाएगा।
(1) जब प्रतिवादी नाबालिग हो, तो न्यायालय उसकी अल्पायुता से संतुष्ट होने पर उपयुक्त व्यक्ति को अभिभावक नियुक्त करेगा।
(2) नियुक्ति की याचिका नाबालिग की ओर से या वादी द्वारा दी जा सकती है।
(3) याचिका एक शपथपत्र से समर्थित होगी जिसमें बताया जाएगा कि प्रस्तावित अभिभावक का कोई विरोधी हित नहीं है।
(4) यह आदेश बिना सूचना दिए पारित नहीं किया जाएगा — यदि कोई विधि रूप से नियुक्त अभिभावक हो तो उसे, अन्यथा पिता को, पिता न हो तो माता को, यदि दोनों न हों तो अन्य प्राकृतिक अभिभावक को सूचना दी जाएगी।
(4A) न्यायालय चाहे तो नाबालिग को भी सूचना दे सकता है।
(5) एक बार नियुक्त अभिभावक, जब तक पद छोड़ न दे, हटाया न जाए या मर न जाए, तब तक अपील, पुनरीक्षण और डिक्री निष्पादन तक बना रहेगा।
Rule 3A – नाबालिग के खिलाफ डिक्री तभी रद्द होगी जब वास्तविक नुकसान हुआ हो।
(1) यदि अगला मित्र या अभिभावक का हित नाबालिग के विपरीत था, केवल इस आधार पर डिक्री रद्द नहीं होगी, जब तक यह सिद्ध न हो कि इससे नाबालिग के हित को क्षति पहुंची है।
(2) यदि अगला मित्र या अभिभावक की लापरवाही या दुर्व्यवहार से हानि हुई हो, तो अन्य कानूनों के तहत राहत मिल सकती है।
Rule 4 – अगला मित्र या अभिभावक कौन बन सकता है।
(1) कोई भी सक्षम वयस्क व्यक्ति अगला मित्र या अभिभावक बन सकता है, बशर्ते उसका हित नाबालिग के विरुद्ध न हो, और वह वादी या प्रतिवादी न हो (जैसा कि हो)।
(2) यदि पहले से कोई विधिक अभिभावक है, तो वही अगला मित्र या अभिभावक बनेगा बशर्ते न्यायालय किसी और को उपयुक्त न माने।
(3) किसी व्यक्ति को उसकी लिखित सहमति के बिना अभिभावक नहीं बनाया जा सकता।
(4) यदि कोई उपयुक्त व्यक्ति न हो, तो न्यायालय अपने किसी अधिकारी को अभिभावक नियुक्त कर सकता है और उसके खर्च का भुगतान संबंधित पक्षों या नाबालिग की संपत्ति से करवा सकता है।
Rule 5 – अगला मित्र या अभिभावक द्वारा ही आवेदन प्रस्तुत होगा।
(1) नाबालिग की ओर से कोई भी आवेदन (Rule 10(2) को छोड़कर) उसका अगला मित्र या अभिभावक ही करेगा।
(2) यदि किसी आदेश में नाबालिग बिना प्रतिनिधित्व के शामिल हुआ हो, तो वह आदेश निरस्त किया जा सकता है, और यदि याचिकाकर्ता वकील को नाबालिग होने की जानकारी थी, तो लागत भी वकील से ली जा सकती है।
Rule 6 – डिक्री के अंतर्गत धन प्राप्त करने हेतु न्यायालय की अनुमति आवश्यक।
(1) अगला मित्र या अभिभावक बिना न्यायालय की अनुमति के नाबालिग की ओर से कोई धन या चल संपत्ति नहीं ले सकता, चाहे समझौते से हो या डिक्री से।
(2) यदि उसे संपत्ति लेने का विधिक अधिकार न हो या वह अक्षम हो, तो न्यायालय अनुमति देते समय सुरक्षा की व्यवस्था करेगा,
बशर्ते यदि अगला मित्र (a) हिन्दू संयुक्त परिवार का प्रबंधक हो और डिक्री उस परिवार की संपत्ति से संबंधित हो या (b) नाबालिग का माता-पिता हो — तो सुरक्षा से छूट दी जा सकती है।
Rule 7 – अगला मित्र या अभिभावक बिना अनुमति समझौता नहीं कर सकता।
(1) नाबालिग के पक्ष में कोई समझौता या अनुबंध न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना नहीं किया जा सकता।
(1A) इस अनुमति के लिए आवेदन के साथ अगला मित्र का शपथपत्र और यदि कोई वकील हो तो उसका प्रमाणपत्र भी लगेगा कि यह समझौता नाबालिग के हित में है, बशर्ते न्यायालय स्वयं भी जांच कर सकता है कि यह समझौता उचित है या नहीं।
(2) बिना अनुमति किया गया समझौता अन्य पक्षों के लिए वैध रहेगा, पर नाबालिग के लिए शून्यकरणीय (voidable) होगा।
Rule 8 – अगला मित्र का त्याग।
(1) अगला मित्र न्यायालय की अनुमति के बिना पद नहीं छोड़ सकता जब तक कोई उपयुक्त व्यक्ति नियुक्त न कर लिया जाए और पहले से हुए खर्च की सुरक्षा न दे दी जाए।
(2) नए व्यक्ति की उपयुक्तता और उसका कोई विरोधी हित न होने का प्रमाण शपथपत्र से देना होगा।
Rule 9 – अगला मित्र को हटाना।
(1) यदि अगला मित्र का हित नाबालिग के विरुद्ध हो या वह प्रतिवादी से इस प्रकार जुड़ा हो कि नाबालिग की रक्षा उचित रूप से न हो सके, या वह अपने कर्तव्यों का पालन न कर रहा हो, या भारत से बाहर चला गया हो, या अन्य कोई कारण हो, तो नाबालिग या प्रतिवादी की ओर से याचिका देकर उसे हटवाया जा सकता है।
(2) यदि वह विधिक रूप से नियुक्त अभिभावक न हो, और कोई विधिक अभिभावक स्वयं नियुक्त होना चाहे, तो न्यायालय ऐसा आदेश दे सकता है।
Rule 10 – Stay of proceeding on removal, etc., of next friend- जब अभिभावक (next friend) को हटाया जाए, या वह मर जाए या अयोग्य हो जाए, तो कार्यवाही को स्थगित किया जाएगा –
(1) यदि किसी वाद में नाबालिग के next friend की मृत्यु हो जाती है, या वह दिवालिया घोषित हो जाता है, या वह ऐसा कार्य करता है जो उसे next friend बने रहने के लिए अयोग्य बनाता है, या वह हटाया जाता है, तो,
(2) न्यायालय वाद की कार्यवाही को तब तक स्थगित (रोक) कर सकता है जब तक कोई नया next friend नियुक्त न कर लिया जाए।
Rule 11 – Retirement, removal or death of guardian for the suit – वाद के लिए नियुक्त संरक्षक (guardian) का पदत्याग, हटाया जाना या मृत्यु –
(1) यदि कोई संरक्षक वाद से हटता है, हटाया जाता है, या उसकी मृत्यु हो जाती है,
(2) तो न्यायालय कोई नया संरक्षक नियुक्त करेगा।
Rule 12 – Application of rules to persons of unsound mind – ये नियम मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्तियों पर भी लागू होंगे –
(1) ये सभी नियम, जहाँ कहीं भी “नाबालिग” शब्द प्रयुक्त हुआ है, वहाँ पर,
(2) उसे ऐसा माना जाएगा जैसे वह मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति हो और उसका कोई next friend या guardian हो।
Rule 13 – When lunatic or person of unsound mind sues – जब कोई पागल या विक्षिप्त व्यक्ति वाद करता है –
(1) यदि कोई मानसिक रूप से विक्षिप्त व्यक्ति (जो न्यायालय द्वारा ऐसा घोषित नहीं है) वाद करना चाहता है,
(2) तो उसे अपने नाम से कोई ऐसा व्यक्ति वाद में next friend बनाकर वाद दायर करना होगा,
(3) जिसे न्यायालय उचित समझे।
Rule 14 – When defendant is a lunatic – जब प्रतिवादी मानसिक रूप से विक्षिप्त हो –
(1) यदि प्रतिवादी मानसिक रूप से विक्षिप्त है, और यह तथ्य न्यायालय को संतोषजनक रूप से ज्ञात हो जाता है,
(2) तो न्यायालय वाद के लिए उसका संरक्षक नियुक्त करेगा,
(3) और वह नियम लागू होंगे जो नाबालिग प्रतिवादी के लिए होते हैं।
Rule 15 – Rules 1 to 14 (so far as may be) to apply to persons adjudged to be of unsound mind and to persons who though not so adjudged are found by court to be of unsound mind – नियम 1 से 14 (जितना लागू हो सके) उन व्यक्तियों पर भी लागू होंगे –
(1) जिन्हें विधि अनुसार मानसिक रूप से विक्षिप्त घोषित किया गया हो,
(2) या जो भले ही विधि अनुसार घोषित न हों, परंतु न्यायालय द्वारा विक्षिप्त पाए गए हों।
Rule 16 – Saving of power of Court to order separate representation for interested minor – न्यायालय की शक्ति सुरक्षित है कि वह किसी ऐसे नाबालिग के लिए पृथक प्रतिनिधित्व का आदेश दे : –
(1) जहाँ एक से अधिक नाबालिग एक ही next friend या guardian द्वारा प्रतिनिधित्व किए जा रहे हों,
(2) और न्यायालय को यह प्रतीत हो कि उनके हित आपस में टकराते हैं,
(3) तो न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि उनमें से किसी एक या अधिक के लिए कोई पृथक next friend या guardian नियुक्त किया जाए।
आदेश 32-A – परिवार से संबंधित विषयों के वाद
Rule 1 – Application of the Order – इस आदेश की प्रयोज्यता : –
यह आदेश उन वादों पर लागू होगा जो निम्नलिखित विषयों से संबंधित हों –
(a) पति-पत्नी के बीच विवाह का वैध होना (validity of marriage),
(b) पति-पत्नी के बीच आपसी अधिकार और दायित्व,
(c) माता-पिता और बच्चों के बीच अधिकार और दायित्व,
(d) किसी परिवार के सदस्य की भरण-पोषण (maintenance),
(e) किसी नाबालिग की संरक्षा (guardianship) या उसकी देखभाल और संरक्षण।
Rule 2 – Proceedings to be held in camera – कार्यवाही का कैमरा (बंद कमरे) में किया जाना –
(1) जब कोई वाद परिवार से संबंधित हो,
(2) तो न्यायालय, जब तक कोई विशेष कारण न हो,
(3) उस वाद की सुनवाई बंद कमरे में (in camera) करेगा।
बशर्ते कि कोई भी पक्ष यह मांग कर सकता है कि कार्यवाही सार्वजनिक रूप से हो।
(4) न्यायालय इसे स्वीकृति या अस्वीकृति दे सकता है।
Rule 3 – Duty of court to make efforts for settlement
3. न्यायालय का कर्तव्य कि वह समझौते का प्रयास करे –
(1) जब कोई परिवार से संबंधित वाद हो,
(2) तो न्यायालय को यह प्रयास करना चाहिए कि दोनों पक्षों में आपसी सुलह (settlement) हो जाए।
(3) इसके लिए वह लोक अदालत या मध्यस्थ (mediator) की मदद ले सकता है।
बशर्ते कि यह प्रयास इस शर्त पर होगा कि कोई पक्ष इससे सहमत हो।
Rule 4 – Assistance of welfare expert – कल्याण विशेषज्ञ (welfare expert) की सहायता –
न्यायालय किसी परिवार विवाद के मामले में,
(1) किसी उपयुक्त व्यक्ति जैसे कल्याण विशेषज्ञ या सामाजिक कार्यकर्ता की सहायता ले सकता है,
(2) ताकि पक्षों के बीच समझौते या न्यायसंगत समाधान में मदद मिल सके।
Rule 5 – Duty to inquire into facts – तथ्यों की जांच करने का कर्तव्य –
(1) न्यायालय को परिवार से जुड़े वाद में यह देखना होगा कि –
(2) पक्षों के बीच विवाद का सही कारण क्या है,
(3) और क्या किसी पक्ष को किसी प्रकार की सहायता (जैसे भरण-पोषण या संरक्षण) की आवश्यकता है।
Rule 6 – “Family” का अर्थ (Meaning of “Family”) – ‘परिवार’ का अर्थ –
इस आदेश में,
“परिवार” में निम्नलिखित शामिल हैं –
(a) पति और पत्नी,
(b) उनका बेटा, बेटी, पोता, पोती (चाहे वे विवाहित हों या नहीं),
(c) किसी भी व्यक्ति पर आश्रित कोई अन्य व्यक्ति,
जिसे वह व्यक्ति सामान्य रूप से एक पारिवारिक सदस्य के रूप में मानता हो।
स्पष्टीकरण –
इस नियम में “परिवार” का अर्थ ऐसा समूह है जो सामान्य रूप से एक ही छत के नीचे साथ में रहता है और एक-दूसरे की देखभाल करता है।
आदेश-33 – Suits by Indigent Persons -गरीब व्यक्ति द्वारा मुकदमे
1. गरीब व्यक्ति द्वारा मुकदमा दायर किया जा सकता है। —
निम्नलिखित प्रावधानों के अधीन, कोई भी मुकदमा गरीब व्यक्ति द्वारा दायर किया जा सकता है।
व्याख्या 1: कोई व्यक्ति गरीब व्यक्ति होगा—
(a) यदि उसके पास पर्याप्त साधन (प्रॉपर्टी जो डिक्री की कार्यवाही में जब्त नहीं हो सकती और मुकदमे के विषय वस्तु को छोड़कर) नहीं है, जिससे वह मुकदमे के लिए कानून द्वारा निर्धारित शुल्क चुका सके, या
(b) यदि ऐसा कोई शुल्क निर्धारित नहीं है, तो यदि उसके पास एक हजार रुपये मूल्य की संपत्ति (जब्त से मुक्त) नहीं है, और मुकदमे के विषय वस्तु को छोड़कर।
व्याख्या 2: कोई भी संपत्ति जो आवेदन प्रस्तुत करने के बाद और आवेदन के निर्णय से पहले प्राप्त की जाती है, उसे गरीब होने के निर्णय में ध्यान में लिया जाएगा।
व्याख्या 3: यदि वादी प्रतिनिधि के रूप में मुकदमा करता है, तो गरीब होने का निर्णय उस स्थिति में वादी के पास उपलब्ध साधनों के आधार पर किया जाएगा।
1A. गरीब व्यक्ति की साधनों की जांच
गरीब व्यक्ति होने के सवाल की जांच सबसे पहले कोर्ट के मुख्य मंत्रालयिक अधिकारी द्वारा की जाएगी, जब तक कि कोर्ट अलग निर्देश न दे। कोर्ट उस अधिकारी की रिपोर्ट को अपना निर्णय मान सकता है या खुद भी जांच कर सकता है।
2. आवेदन की सामग्री
गरीब व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति के लिए हर आवेदन में उस मुकदमे के लिए आवश्यक विवरण होंगे। आवेदन के साथ आवेदक की चल या अचल संपत्ति की सूची और उसका अनुमानित मूल्य भी संलग्न होगा। यह आवेदन उस तरीके से हस्ताक्षरित और सत्यापित होगा, जैसा कि याचिका के लिए निर्धारित है।
3. आवेदन प्रस्तुत करना
आवेदन आवेदक द्वारा स्वयं ही कोर्ट में प्रस्तुत किया जाएगा, सिवाय इसके कि उसे कोर्ट में आने से छूट हो, तब उसका अधिकृत एजेंट आवेदन प्रस्तुत कर सकता है जो आवश्यक प्रश्नों के उत्तर दे सके।
बशर्ते, यदि एक से अधिक वादी हों तो आवेदन में से किसी एक द्वारा प्रस्तुत किया जाना पर्याप्त होगा।
4. आवेदक की जांच
(1) यदि आवेदन उचित रूप में है, तो कोर्ट आवश्यक समझे तो आवेदक या उसके एजेंट से उसके दावे और संपत्ति के बारे में पूछताछ कर सकता है।
(2) यदि आवेदन एजेंट द्वारा प्रस्तुत किया गया है, तो कोर्ट आदेश दे सकता है कि आवेदक का आयोग द्वारा पूछताछ की जाए।
5. आवेदन का अस्वीकृत होना
कोर्ट आवेदन को अस्वीकार करेगा यदि—
(a) आवेदन नियम 2 और 3 के अनुसार नहीं है, या
(b) आवेदक गरीब व्यक्ति नहीं है, या
(c) उसने पिछले दो महीनों में अपनी संपत्ति धोखाधड़ी से या अनुमति पाने के लिए बेची हो, बशर्ते यदि बेची गई संपत्ति के मूल्य के बावजूद वह गरीब व्यक्ति होने का हकदार न हो, तो आवेदन नहीं रोका जाएगा, या
(d) उसके दावे में कोई कारण-कार्यवाही (cause of action) न हो, या
(e) उसने मुकदमे के विषय के संबंध में किसी दूसरे व्यक्ति को अधिकार दे दिया हो, या
(f) आवेदन में ऐसा कोई तथ्य हो जिससे मुकदमा किसी कानून के तहत प्रतिबंधित हो, या
(g) किसी दूसरे व्यक्ति ने मुकदमे के खर्चों के लिए उसके साथ कोई समझौता किया हो।
6. आवेदन की सुनवाई के लिए सूचना
यदि आवेदन अस्वीकृत करने के कारण न हो तो कोर्ट सुनवाई के लिए दिन तय करेगा, और विपक्षी पक्ष और सरकारी याचिकाकर्ता को कम से कम दस दिन पहले सूचना देगा। उस दिन आवेदक अपने गरीब होने का प्रमाण देगा और विपक्षी इसके विरुद्ध साक्ष्य पेश कर सकता है।
7. सुनवाई की कार्यवाही
(1) निर्धारित दिन पर कोर्ट दोनों पक्षों के गवाहों को पूछेगा, आवेदक या उसके एजेंट से पूछताछ कर सकता है और उनके साक्ष्य का पूरा रिकॉर्ड रखेगा।
(1A) गवाहों से पूछताछ केवल नियम 5 के उप-धारा (b), (c) और (e) के विषयों पर सीमित होगी, लेकिन आवेदक या उसके एजेंट से नियम 5 के सभी विषयों पर पूछताछ हो सकती है।
(2) कोर्ट दोनों पक्षों के तर्क सुनेगा कि आवेदन और साक्ष्यों के आधार पर क्या आवेदक नियम 5 के तहत निषेधित है या नहीं।
(3) कोर्ट आवेदन को स्वीकार या अस्वीकार करेगा।
8. आवेदन स्वीकार होने पर
यदि आवेदन स्वीकार हो जाता है तो इसे पंजीकृत किया जाएगा और इसे मुकदमे का याचिका माना जाएगा। मुकदमा सामान्य तरीके से चलेगा पर वादी को कोई कोर्ट फीस या सेवा शुल्क नहीं देना होगा।
9. गरीब व्यक्ति के रूप में अनुमति वापसी
विपक्षी या सरकारी याचिकाकर्ता की सात दिन पहले सूचना पर कोर्ट अनुमति वापस ले सकता है यदि—
(a) वादी ने मुकदमे में गलत व्यवहार किया हो;
(b) वादी के साधन इतने हों कि वह गरीब नहीं माना जाए;
(c) वादी ने मुकदमे के विषय में किसी अन्य व्यक्ति को अधिकार दिया हो।
9A. गरीब व्यक्ति को अधिवक्ता नियुक्त करना
(1) यदि गरीब व्यक्ति का कोई अधिवक्ता नहीं है तो कोर्ट उसे मामला अनुसार अधिवक्ता नियुक्त कर सकता है।
(2) उच्च न्यायालय राज्य सरकार की मंजूरी से नियम बना सकता है जिसमें अधिवक्ताओं के चयन, सुविधा आदि का प्रावधान होगा।
10. गरीब व्यक्ति सफल होने पर खर्च वसूलना
यदि वादी सफल होता है तो कोर्ट तय करेगा कि यदि वह गरीब न होता तो कितना कोर्ट फीस देना पड़ता। यह राशि राज्य सरकार द्वारा मुकदमे के निर्णय के अनुसार दूसरे पक्ष से वसूली जाएगी।
11. गरीब व्यक्ति असफल होने पर
यदि वादी मुकदमा हारता है, अनुमति वापस ले ली जाती है, या मुकदमा वापस लिया या खारिज किया जाता है—
(a) यदि डिफेंडेंट को समन सेवा नहीं हो पाई क्योंकि वादी ने कोर्ट फीस या डाक खर्च नहीं दिया, या याचिका की प्रतियां प्रस्तुत नहीं कीं, या
(b) वादी सुनवाई पर उपस्थित नहीं होता,
तो कोर्ट वादी या सहवादी से वह कोर्ट फीस वसूल करेगा जो उसे गरीब न होने पर देनी पड़ती।
11A. गरीब व्यक्ति के मृत्यु से मुकदमे के खत्म होने पर
यदि मुकदमा वादी या सहवादी की मृत्यु के कारण खत्म होता है, तो राज्य सरकार मुकदमे के विषय की संपत्ति से वह कोर्ट फीस वसूल सकता है जो वादी को देना होता।
12. राज्य सरकार कोर्ट फीस के भुगतान के लिए आवेदन कर सकती है
राज्य सरकार कभी भी कोर्ट से उस फीस के भुगतान के लिए आदेश देने का आवेदन कर सकती है जो नियम 10, 11 या 11A के तहत देय हो।
13. राज्य सरकार पक्ष माना जाएगा
नियम 10, 11, 11A या 12 से उत्पन्न विवाद राज्य सरकार और मुकदमे के पक्षकारों के बीच के विवाद के रूप में माना जाएगा।
14. कोर्ट फीस की वसूली
नियम 10, 11 या 11A के तहत किए गए आदेश की प्रति तुरन्त कलेक्टर को भेजी जाएगी, जो बिना किसी अन्य तरीके से बाधित हुए, उसे भूमि कर के रूप में वसूल सकता है।
15. गरीब व्यक्ति के रूप में अनुमति अस्वीकार होने पर
यदि किसी आवेदक को गरीब व्यक्ति के रूप में अनुमति नहीं दी जाती तो वह उसी विषय पर पुनः ऐसा आवेदन नहीं कर सकता, पर वह सामान्य तरीके से मुकदमा दायर कर सकता है।
बशर्ते, यदि वह मुकदमा दायर करता है और कोर्ट उसे अनुमति देने से मना कर चुका हो, तो उसे राज्य सरकार और विपक्षी के खर्च भी चुकाने होंगे।
16. खर्च (Costs) –
एक गरीब व्यक्ति (indigent person) के रूप में मुकदमा करने की अनुमति के लिए की गई आवेदन की लागत और गरीबी की जांच की लागत मुकदमे के खर्च में शामिल होगी।
17. गरीब व्यक्ति द्वारा बचाव (Defence by an indigent person) –
कोई भी प्रतिवादी, जो सेट-ऑफ (set-off) या काउंटर-क्लेम (counter-claim) दायर करना चाहता हो, उसे गरीब व्यक्ति के रूप में ऐसा दावा करने की अनुमति दी जा सकती है। इस आदेश के नियम, जहाँ तक संभव हो, उस पर लागू होंगे जैसे कि वह एक वादी (plaintiff) हो और उसकी लिखित प्रतिक्रिया (written statement) याचिका (plaint) हो।
18. गरीब व्यक्तियों को मुफ्त कानूनी सेवाएँ प्रदान करने के लिए सरकार की शक्ति (Power of Government to provide for free legal services to indigent persons) –
(1) इस आदेश के प्रावधानों के अधीन, केंद्र या राज्य सरकार उन लोगों को मुफ्त कानूनी सेवाएँ प्रदान करने के लिए आवश्यक अतिरिक्त प्रावधान कर सकती है जिन्हें गरीब व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति मिली हो।
(2) उच्च न्यायालय राज्य सरकार की पूर्व मंजूरी से उन अतिरिक्त प्रावधानों को लागू करने के लिए नियम बना सकता है, जो केंद्र या राज्य सरकार द्वारा गरीब व्यक्तियों को मुफ्त कानूनी सेवाएँ प्रदान करने के लिए बनाए गए हों। ऐसे नियमों में कानूनी सेवाओं का प्रकार और सीमा, जिन शर्तों पर वे उपलब्ध कराई जाएँ, किन मामलों के लिए और किन एजेंसियों द्वारा ये सेवाएँ प्रदान की जाएँ, शामिल हो सकते है
ORDER 34 – अचल संपत्ति की बंधक (mortgage) से संबंधित वादों के लिए
1. बंधक के मुकदमों में पक्षकार
बंधक सुरक्षा या मोचन (redemption) के अधिकार में जिनका हित हो, वे सभी मुकदमे में पक्षकार होंगे।
ध्यान दें: बाद के बंधक धारक (puisne mortgagee) बिना पहले के बंधक धारक को जोड़े, मुकदमा कर सकता है।
2. बंधक के मुकदमों में प्रारंभिक आदेश (Preliminary Decree)
o यदि वादी सफल होता है, तो न्यायालय एक प्रारंभिक आदेश देगा, जिसमें बंधक की मूल राशि, ब्याज, मुकदमे के खर्च और अन्य उचित खर्चों का हिसाब होगा।
o यदि प्रतिवादी तय समय (अधिकतम 6 महीने) में यह राशि न्यायालय में जमा करता है, तो वादी दस्तावेज़ सौंपेगा, संपत्ति पुनः हस्तांतरित करेगा और प्रतिवादी को कब्जा देगा।
o यदि भुगतान नहीं होता, तो वादी अंतिम आदेश के लिए आवेदन कर सकता है, जिससे प्रतिवादी का मोचन अधिकार समाप्त हो जाएगा।
o न्यायालय उचित कारण दिखाने पर भुगतान की समय सीमा बढ़ा सकता है।
o जब कई बंधक धारक मुकदमे में हों, तो प्रारंभिक आदेश उनके अधिकारों और दायित्वों को निर्धारित करेगा।
3. बंधक के मुकदमों में अंतिम आदेश (Final Decree)
o अगर प्रतिवादी भुगतान करता है, तो अंतिम आदेश जारी होगा जिसमें दस्तावेज़ सौंपने, संपत्ति पुनः हस्तांतरित करने और कब्जा देने का आदेश होगा।
o यदि भुगतान नहीं होता, तो अंतिम आदेश में मोचन अधिकार समाप्त घोषित होंगे और वादी को कब्जा दिलाने का आदेश होगा।
o अंतिम आदेश के बाद, प्रतिवादी के सभी बंधक संबंधी दायित्व समाप्त माने जाएंगे।
4. विक्रय के लिए मुकदमा (Suit for Sale) में प्रारंभिक आदेश
o वादी सफल होने पर न्यायालय प्रारंभिक आदेश जारी करेगा, जिसमें बंधक की राशि का हिसाब होगा।
o यदि प्रतिवादी समय पर भुगतान न करे, तो वादी अंतिम आदेश के लिए आवेदन कर सकता है जिसमें संपत्ति की बिक्री का आदेश होगा।
o बिक्री के बाद, बिक्री की रकम खर्च काटकर बंधक राशि चुकाने में लगाई जाएगी और बचा हुआ पैसा प्रतिवादी को दिया जाएगा।
o न्यायालय समय-समय पर भुगतान की समय सीमा बढ़ा सकता है।
o अनोखे (anomalous) बंधक में, बिक्री का आदेश भी दिया जा सकता है।
5. विक्रय के लिए मुकदमे में अंतिम आदेश
o यदि बिक्री के दिन या उससे पहले प्रतिवादी पूरा भुगतान करता है, तो अंतिम आदेश में दस्तावेज़ सौंपने, संपत्ति पुनः हस्तांतरित करने और कब्जा देने का आदेश होगा।
o यदि बिक्री हो चुकी है, तो प्रतिवादी को खरीददार को भुगतान के लिए 5% अतिरिक्त राशि न्यायालय में जमा करनी होगी।
o यदि भुगतान नहीं होता, तो न्यायालय संपत्ति की बिक्री का आदेश देगा और बिक्री राशि के अनुसार भुगतान का प्रबंध करेगा।
6. ऋणपत्र (मॉरटगेज) की बिक्री के मामले में शेष बकाया वसूली-
यदि नियम 5 के तहत हुई बिक्री से प्राप्त शुद्ध राशि याचिकाकर्ता को देय राशि पूरी करने के लिए अपर्याप्त हो, तो याचिकाकर्ता के आवेदन पर न्यायालय, यदि शेष राशि प्रतिवादी से बिक्री संपत्ति के बाहर कानूनी रूप से वसूल की जा सकती हो, तो उस शेष राशि के लिए निर्णय पारित कर सकता है।
7. रिडेम्प्शन सूट में प्रारंभिक निर्णय-
(1) जब रिडेम्प्शन सूट में याचिकाकर्ता सफल हो, तो न्यायालय निम्नलिखित प्रारंभिक निर्णय देगा-
(a) आदेश देगा कि निम्नलिखित का लेखा-जोखा तैयार किया जाए-
(i) ऋणपत्र की मूल राशि और ब्याज,
(ii) प्रतिवादी को दिए गए मुकदमे के व्यय,
(iii) अन्य उचित खर्चे और व्यय, जो ऋणपत्र सुरक्षा के संबंध में किए गए हों, साथ ही उन पर ब्याज;
(b) उस तिथि तक देय राशि घोषित करेगा;
(c) निर्देश देगा-
(i) कि यदि याचिकाकर्ता उस राशि को जो लेखा-जोखा या घोषणा के अनुसार तय होगी, छह माह के भीतर न्यायालय में जमा कर देता है, तथा बाद में नियम 10 और 11 के अनुसार बाद के व्यय, खर्च और ब्याज भी जमा करता है, तो प्रतिवादी याचिकाकर्ता को संबंधित दस्तावेज़ सौंपेगा और यदि आवश्यक हो, तो संपत्ति याचिकाकर्ता के खर्चे पर पुनः हस्तांतरित करेगा और याचिकाकर्ता को संपत्ति का कब्जा देगा;
(ii) यदि उक्त राशि नियत समय पर जमा नहीं की गई या याचिकाकर्ता बाद के व्यय भी समय पर नहीं चुकाता, तो प्रतिवादी अंतिम निर्णय के लिए आवेदन कर सकता है-
(a) यदि सामान्य मॉरटगेज हो, तो संपत्ति बिक्री का आदेश दिया जाए;
(b) यदि शर्तों पर आधारित मॉरटगेज हो तो याचिकाकर्ता को रिडीम करने का अधिकार वंचित किया जाए।
(2) न्यायालय उचित कारण दिखाने पर अंतिम निर्णय से पहले भुगतान की अवधि बढ़ा सकता है।
8. रिडेम्प्शन सूट में अंतिम निर्णय-
(1) यदि अंतिम निर्णय या बिक्री के पुष्टि से पहले याचिकाकर्ता नियम 7 के अनुसार सारी देय राशि जमा कर देता है, तो न्यायालय याचिकाकर्ता के आवेदन पर अंतिम निर्णय या आदेश पारित करेगा, जिसमें-
(a) दस्तावेज़ सौंपने का आदेश,
(b) यदि आवश्यक हो, संपत्ति पुनः हस्तांतरित करने का आदेश,
(c) यदि आवश्यक हो, संपत्ति का कब्जा देने का आदेश शामिल होगा।
(2) यदि संपत्ति की बिक्री हो चुकी है, तो याचिकाकर्ता को कोर्ट में खरीदार को भुगतान के लिए खरीद राशि का 5% अतिरिक्त जमा करना होगा, तभी आदेश पारित होगा। खरीदार को खरीद राशि के साथ 5% वापस मिलेगा।
(3) यदि नियम 7 के अनुसार भुगतान नहीं हुआ, तो प्रतिवादी आवेदन कर सकता है-
(a) शर्तों पर आधारित मॉरटगेज में याचिकाकर्ता को रिडीम करने से वंचित करने का अंतिम निर्णय, तथा आवश्यक होने पर कब्जा देने का आदेश;
(b) अन्य मॉरटगेज में संपत्ति की बिक्री और प्राप्त राशि से देय राशि का भुगतान करने का अंतिम निर्णय।
8A. रिडेम्प्शन सूट में बिक्री के बाद शेष बकाया वसूली-
यदि नियम 8 के अंतर्गत हुई बिक्री से प्राप्त शुद्ध राशि प्रतिवादी को देय राशि के लिए अपर्याप्त हो, तो प्रतिवादी के आवेदन पर न्यायालय, यदि शेष राशि याचिकाकर्ता से बिक्री संपत्ति के बाहर कानूनी रूप से वसूली जा सकती हो, तो उस शेष राशि के लिए निर्णय पारित करेगा।
9. जब देय राशि न हो या अधिशेष भुगतान हो-
यदि नियम 7 के लेखा-जोखा से पता चले कि प्रतिवादी को कुछ भी देय नहीं है या वह अधिक भुगतान पा चुका है, तो न्यायालय आदेश देगा कि प्रतिवादी संपत्ति पुनः हस्तांतरित करे और याचिकाकर्ता को जो राशि देय हो वह चुकाए। याचिकाकर्ता को कब्जा भी दिया जाएगा यदि आवश्यक हो।
10. अंतिम निर्णय के बाद के खर्चे-
फोरक्लोज़र, बिक्री या रिडेम्प्शन में अंतिम भुगतान करते समय, यदि मोरटगेजधारी का व्यवहार न्यायालय के अनुसार खर्चे के हक़दार होने योग्य हो, तो न्यायालय उस राशि में मुकदमे के उचित खर्चे और अन्य खर्चे जोड़ देगा जो प्रारंभिक निर्णय के बाद से भुगतान तक हुए हों।
बशर्ते कि यदि ऋणदाता ने मुकदमा शुरू होने से पहले या उसी समय देय राशि जमा कर दी हो या न्यायालय की राय में राशि पर्याप्त हो, तो उसे मुकदमे के खर्चे नहीं देने होंगे और ऋणदाता अपने खर्चे वसूल सकता है, जब तक न्यायालय विशेष कारण न बताए।
10A. मोरटगेजधारी को मेश्ने प्रॉफिट्स (मध्यवर्ती लाभ) का भुगतान करने का न्यायालय का अधिकार-
यदि मोरटगेजधारी ने मुकदमा शुरू होने से पहले या उसी समय देय राशि जमा की है या पर्याप्त राशि जमा की है, तो न्यायालय मोरटगेजधारी को आदेश देगा कि वह ऋणदाता को मुकदमा शुरू होने से उस समय तक के मध्यवर्ती लाभ (मेश्ने प्रॉफिट्स) का भुगतान करे।
Rule 11 – ब्याज का भुगतान
डिक्री में, जहाँ ब्याज कानूनी रूप से वसूलने योग्य हो:
(a) प्रारंभिक डिक्री की देय तिथि तक—
• (i) मुख्य राशि पर — तय दर या न्यायालय द्वारा उचित दर।
• (iii) लागत, शुल्क व खर्चों पर — पक्षों की दर या अधिकतम 6% प्रतिवर्ष न्यायालय द्वारा उचित दर।
(b) उसके बाद — उपरोक्त राशि पर भुगतान/वसूली की तारीख तक, न्यायालय द्वारा उचित दर से ब्याज।
Rule 12 – पूर्ववर्ती बंधक वाली संपत्ति की बिक्री
संपत्ति यदि पूर्व बंधक के अधीन हो, तो बंधकधारी की सहमति से:
• संपत्ति मुक्त कर बेची जा सकती है।
• पूर्व बंधकधारी को विक्रय आय में समान हित मिलेगा।
Rule 13 – बिक्री की आय का प्रयोग
प्राप्त राशि का प्रयोग क्रमशः:
1. बिक्री से संबंधित व्यय।
2. पूर्व बंधकधारी को भुगतान।
3. संबंधित बंधक के ब्याज व वाद व्यय।
4. मुख्य बंधक राशि।
5. शेष राशि – हितधारकों को अनुपात में।
(Section 57, TPA पर कोई प्रभाव नहीं।)
Rule 14 – संपत्ति की बिक्री हेतु वाद आवश्यक
• केवल धन वसूली की डिक्री से बंधक संपत्ति नहीं बेची जा सकती।
• बंधक प्रवर्तन हेतु अलग वाद जरूरी।
• Order II Rule 2 बाधक नहीं।
• लागू केवल TPA लागू क्षेत्रों में।
Rule 15 – टाइटल डीड से बने बंधक व प्रभार
(1) साधारण बंधक पर लागू नियम टाइटल डीड बंधक व प्रभार पर भी लागू होंगे।
(2) यदि डिक्री में संपत्ति पर प्रभार हो और भुगतान न हो, तो वह राशि संपत्ति बेचकर वसूली जा सकती है।
ऑर्डर 35 – इंटरप्लीडर (Interpleader)
Rule 1. इंटरप्लीडर वाद में वादपत्र
हर इंटरप्लीडर वाद में वादपत्र में यह स्पष्ट लिखा होना चाहिए–
(a) वादी का विषय-वस्तु में कोई स्वार्थ नहीं है, सिवाय खर्च या शुल्क के।
(b) प्रतिवादियों द्वारा अलग-अलग दावे किए गए हैं।
(c) वादी और किसी प्रतिवादी के बीच कोई मिलीभगत (collusion) नहीं है।
Rule 2. दावा की गई वस्तु को न्यायालय में जमा करना
अगर दावा की गई वस्तु न्यायालय में जमा या उसकी हिरासत में दी जा सकती है, तो वादी को ऐसा करने का निर्देश दिया जा सकता है, तभी उसे कोई आदेश प्राप्त होगा।
Rule 3. जब कोई प्रतिवादी वादी पर वाद कर रहा हो
अगर कोई प्रतिवादी उसी विषय पर वादी के विरुद्ध अलग से वाद कर रहा हो, तो इंटरप्लीडर वाद की सूचना मिलने पर वह वाद स्थगित (stay) किया जाएगा। उस वाद में हुए खर्च, यदि उस वाद में नहीं मिलते, तो इंटरप्लीडर वाद में जोड़े जा सकते हैं।
Rule 4. प्रथम सुनवाई की प्रक्रिया
(1) प्रथम सुनवाई पर न्यायालय कर सकता है–
(a) वादी को दायित्व से मुक्त कर, उसका खर्च देकर, उसे वाद से मुक्त कर दे; या
(b) यदि उचित समझे तो सभी पक्षों को अंतिम निर्णय तक बनाए रखे।
(2) यदि पक्षकारों की स्वीकारोक्ति या साक्ष्य से संभव हो तो न्यायालय दावे पर निर्णय कर सकता है।
(3) यदि ऐसा संभव न हो तो–
(a) मुद्दे तय कर सुनवाई का निर्देश दे सकता है;
(b) किसी दावेदार को मूल वादी के स्थान पर या उसके साथ वादी बनाया जा सकता है।
Rule 5. अभिकर्ता और किरायेदार इंटरप्लीडर वाद नहीं कर सकते
यह आदेश किसी अभिकर्ता को अपने मुख्य व्यक्ति (principal) के विरुद्ध या किरायेदार को मकान-मालिक के विरुद्ध इंटरप्लीडर वाद करने की अनुमति नहीं देता, सिवाय उन मामलों के जब दावा उन्हीं के माध्यम से किया गया हो।
उदाहरण
(a) A ने B को अपने आभूषण दिए। C ने दावा किया कि A ने वे उससे गलत तरीके से लिए थे। B इंटरप्लीडर वाद नहीं कर सकता।
(b) A ने B को आभूषण दिए और C को उन्हें गिरवी रखने को कहा। बाद में A कहता है कि ऋण चुका दिया, C कहता है नहीं। दोनों दावे करते हैं – B इंटरप्लीडर वाद कर सकता है।
Rule 6. वादी के खर्च हेतु प्रभार (charge)
अगर वाद सही तरीके से किया गया है तो न्यायालय वादी के खर्च के लिए वस्तु पर प्रभार (charge) दे सकता है या अन्य प्रभावी तरीका अपना सकता है।
आदेश 36 – विशेष वाद (Special Case)
1. न्यायालय की राय के लिए विशेष वाद प्रस्तुत करने की शक्ति
(1) कोई प्रश्न (वास्तविक या विधिक) तय करवाने के लिए पक्षकार लिखित समझौता कर सकते हैं जिसमें लिखा होगा कि–
(a) न्यायालय का निर्णय आने पर एक पक्ष दूसरे को एक निश्चित राशि देगा, या
(b) कोई संपत्ति (चल या अचल) एक पक्ष दूसरे को देगा, या
(c) कोई पक्ष विशेष कार्य करेगा या किसी कार्य से रुकेगा।
(2) ऐसा विशेष वाद क्रमांकित अनुच्छेदों में होगा, और संक्षेप में तथ्य व आवश्यक दस्तावेज बताएगा।
2. विषयवस्तु का मूल्य बताया जाना अनिवार्य
अगर समझौता किसी संपत्ति की सुपुर्दगी या किसी कार्य को करने/न करने से जुड़ा हो, तो उस संपत्ति का अनुमानित मूल्य समझौते में लिखा जाएगा।
3. समझौते को न्यायालय में आवेदन के साथ दाखिल करना और वाद के रूप में पंजीकरण
(1) यदि समझौता उपयुक्त रूप में बना है, तो उसे उस न्यायालय में आवेदन सहित दाखिल किया जा सकता है जो उस विषयवस्तु की राशि/मूल्य के अनुसार वाद सुन सकता है।
(2) ऐसा आवेदन वाद के रूप में पंजीकृत किया जाएगा, जिसमें एक या अधिक पक्ष वादी और अन्य प्रतिवादी होंगे। सभी पक्षों को नोटिस भेजा जाएगा (जो आवेदन प्रस्तुतकर्ता नहीं हैं)।
4. न्यायालय के अधिकाराधीन होना
एक बार समझौता दाखिल हो जाए, तो सभी पक्ष न्यायालय के अधिकाराधीन होंगे और समझौते की बातों से बंधे होंगे।
5. सुनवाई और निर्णय
(1) यह वाद सामान्य वाद की तरह सुना जाएगा और संहिता के प्रावधान लागू होंगे।
(2) यदि न्यायालय संतुष्ट हो जाए कि–
(a) समझौता विधिवत हुआ है,
(b) पक्षकारों की उस प्रश्न में सच्ची रुचि है,
(c) प्रश्न निर्णय योग्य है,
तो न्यायालय सामान्य वाद की तरह निर्णय देगा और उसके आधार पर डिक्री बनेगी।
6. अपील वर्जित
नियम 5 के तहत पारित डिक्री के विरुद्ध अपील नहीं की जा सकती।
आदेश 37 – संक्षिप्त प्रक्रिया (Summary Procedure)
1. किन न्यायालयों और किस प्रकार के वादों पर लागू होगा –
(1) यह आदेश निम्नलिखित न्यायालयों पर लागू होगा –
(a) उच्च न्यायालय, सिटी सिविल कोर्ट, स्मॉल कॉज़ कोर्ट।
(b) अन्य न्यायालय – बशर्ते संबंधित उच्च न्यायालय राजपत्र में अधिसूचना द्वारा उपयुक्त वादों की श्रेणियों पर इसकी सीमा निर्धारित कर सकता है।
(2) यह आदेश निम्न वादों पर लागू होगा –
(a) बिल ऑफ एक्सचेंज, हुंडी और प्रोमिसरी नोट के आधार पर वाद।
(b) केवल ऋण या निश्चित धनराशि (ब्याज सहित या बिना ब्याज) की वसूली हेतु वाद जो निम्नलिखित से उत्पन्न हो –
(i) लिखित अनुबंध से,
(ii) अधिनियम से (जहां राशि निश्चित हो और दंड न हो),
(iii) गारंटी से (जहां मूल ऋण निश्चित हो)।
2. संक्षिप्त वाद कैसे दायर करें –
(1) वादी चाहे तो इस आदेश के अंतर्गत वाद दायर कर सकता है, शर्तें –
(a) स्पष्ट रूप से लिखा हो कि वाद Order 37 के अंतर्गत है,
(b) कोई अन्य राहत नहीं मांगी गई हो,
(c) शीर्षक में लिखा हो: “(Under Order XXXVII of the Code of Civil Procedure, 1908)”
(2) समन निर्धारित फॉर्म में होगा।
(3) प्रतिवादी बिना appearance (पेशी) दिए वाद का बचाव नहीं कर सकता। यदि पेश नहीं होता, तो वादी को डिक्री मिल जाएगी।
3. प्रतिवादी की पेशी की प्रक्रिया –
(1) वादी को समन के साथ प्रतिवादी को वाद की प्रतिलिपि भी देनी होगी। प्रतिवादी को 10 दिन के भीतर पेश होना होगा।
(2) सभी न्यायिक पत्राचार प्रतिवादी द्वारा दिए पते पर भेजा जाएगा।
(3) प्रतिवादी को अपनी पेशी की सूचना वादी को देनी होगी।
(4) यदि प्रतिवादी पेश होता है, तो वादी को “समन फॉर जजमेंट” देना होगा, जो कि शपथपत्र के साथ होगा कि दावा सही है और कोई बचाव नहीं है।
(5) प्रतिवादी 10 दिन में शपथपत्र या अन्य तरीके से तथ्य पेश कर “Leave to defend” (बचाव की अनुमति) मांग सकता है। यह अनुमति बिना शर्त या शर्तों के साथ दी जा सकती है।
बशर्ते –
• यदि कोई ठोस बचाव नहीं है, तो अनुमति नहीं मिलेगी।
• यदि कुछ राशि प्रतिवादी ने स्वीकार की है, तो वह राशि पहले जमा करनी होगी।
(6) सुनवाई पर –
(a) यदि Leave to defend नहीं मांगी या खारिज हो गई, तो वादी को तुरंत निर्णय मिलेगा।
(b) यदि Leave मिल गई, तो प्रतिवादी को सुरक्षा राशि देने का निर्देश मिल सकता है।
(7) अदालत पर्याप्त कारण होने पर देरी को माफ कर सकती है।
4. डिक्री रद्द करने की शक्ति –
अदालत विशेष परिस्थितियों में डिक्री और निष्पादन (execution) को स्थगित या रद्द कर सकती है, और प्रतिवादी को पेश होकर बचाव की अनुमति दे सकती है।
5. बिल, हुंडी या नोट को कोर्ट अधिकारी के पास जमा कराने का आदेश –
अदालत वादी से दस्तावेज तुरंत कोर्ट में जमा कराने का आदेश दे सकती है और आगे की कार्यवाही को तब तक रोक सकती है जब तक वादी खर्चों की सुरक्षा नहीं देता।
6. बिल या नोट अस्वीकार होने पर खर्च की वसूली –
यदि बिल या नोट dishonour (अस्वीकृत) होता है, तो उसके नोटिंग के खर्च की वसूली उसी तरह की जाएगी जैसे मूल राशि की वसूली होती है।
7. सामान्य प्रक्रिया : –
जहाँ तक इस आदेश में विशेष प्रावधान नहीं है, सामान्य दीवानी वाद की प्रक्रिया ही लागू होगी।
Order 38 – न्यायपूर्व गिरफ्तारी और कुर्की (Arrest and Attachment before Judgment)
1. न्यायपूर्व गिरफ्तारी के लिए सुरक्षा देने का आदेश कब दिया जा सकता है
• यदि प्रतिवादी:
o वादी को विलंबित करने की नीयत से
o या न्यायालय की प्रक्रिया से बचने की नीयत से
o या डिक्री के क्रियान्वयन को बाधित करने की नीयत से:
(i) भाग गया है या क्षेत्र छोड़ चुका है
(ii) भागने वाला है
(iii) अपनी संपत्ति छिपा या हटा रहा है
• या भारत छोड़ने वाला है जिससे डिक्री के पालन में बाधा हो सकती है,
तो न्यायालय उसे गिरफ़्तार कर पेश करने हेतु वारंट जारी कर सकता है।
★ बशर्ते: यदि प्रतिवादी वारंट में उल्लेखित राशि अदा कर दे, तो गिरफ्तारी नहीं होगी।
2. सुरक्षा (Security)
• प्रतिवादी कारण नहीं दिखाता तो:
o कोर्ट उसे पर्याप्त राशि जमा करने या सुरक्षा देने को कहेगा।
o जमानती को आदेश होगा कि यदि प्रतिवादी पेश न हो तो वह राशि भरे।
3. जमानती द्वारा मुक्ति के लिए आवेदन
• जमानती कोर्ट में आवेदन कर सकता है।
• कोर्ट प्रतिवादी को बुलाएगा या वारंट जारी करेगा।
• प्रतिवादी के आने पर जमानती मुक्त होगा और नया जमानत देना पड़ेगा।
4. सुरक्षा न देने पर प्रक्रिया
• यदि प्रतिवादी सुरक्षा न दे तो उसे दीवानी जेल में भेजा जा सकता है।
★ बशर्ते:
o अधिकतम 6 माह या
o यदि दावा ₹50 से कम हो तो अधिकतम 6 सप्ताह ही कारावास होगा।
o यदि प्रतिवादी आदेश मान ले तो जेल नहीं भेजा जाएगा।
न्यायपूर्व कुर्की (Attachment before Judgment)
5. संपत्ति के लिए सुरक्षा का आदेश कब
• यदि कोर्ट को विश्वास हो कि प्रतिवादी:
o (a) अपनी संपत्ति बेचने वाला है
o (b) अपनी संपत्ति हटा रहा है
• तो उसे सुरक्षा देने या कारण बताने का आदेश दिया जा सकता है।
• वादी को संपत्ति का विवरण और अनुमानित मूल्य देना होगा।
• कोर्ट अस्थायी कुर्की का आदेश भी दे सकता है।
★ यदि नियम 5(1) का पालन न हो तो कुर्की अमान्य होगी।
6. कारण न दिखाने या सुरक्षा न देने पर कुर्की
• प्रतिवादी असफल हो तो आदेशित संपत्ति कुर्क की जा सकती है।
• यदि सुरक्षा दी जाती है या कारण दिखाया जाता है, तो कुर्की हटाई जाएगी।
7. कुर्की की प्रक्रिया
• कुर्की उसी प्रकार होगी जैसे डिक्री के निष्पादन में होती है।
8. संपत्ति पर दावे का निर्णय
• यदि कुर्क संपत्ति पर कोई दावा किया जाए, तो उसका निपटारा डिक्री की कुर्की जैसे होगा।
9. कुर्की हटाना
• जब प्रतिवादी आवश्यक सुरक्षा व कुर्की लागत की सुरक्षा देता है, या वाद खारिज होता है, तब कुर्की हटेगी।
10. कुर्की का प्रभाव
• कुर्की से वाद से बाहर अन्य व्यक्तियों के अधिकार प्रभावित नहीं होंगे।
• अन्य डिक्रीधारी कुर्क संपत्ति की बिक्री हेतु आवेदन कर सकते हैं।
11. पुनः कुर्की की आवश्यकता नहीं
• यदि कुर्की पहले से है और वादी के पक्ष में डिक्री हो जाती है, तो पुनः कुर्की का आवेदन आवश्यक नहीं।
11A. डिक्री के बाद कुर्की पर लागू नियम
• डिक्री के बाद जारी रहने वाली कुर्की पर निष्पादन की कुर्की से संबंधित नियम लागू होंगे।
• यदि वाद खारिज होने के बाद बहाल हो, तो कुर्की स्वतः बहाल नहीं होगी।
12. कृषि उत्पाद कुर्क नहीं किए जा सकते
• कृषक के पास के कृषि उत्पाद न्यायपूर्व कुर्क नहीं किए जा सकते।
13. लघु वाद न्यायालय अचल संपत्ति कुर्क नहीं कर सकते
Order 39 – अस्थायी निषेधाज्ञाएँ और मध्यवर्ती आदेश
Rule 1 – जिन मामलों में अस्थायी निषेधाज्ञा दी जा सकती है
अगर किसी वाद (suit) में शपथपत्र (affidavit) या अन्य तरीके से यह साबित हो जाए –
(a) कि वाद में विवादित संपत्ति बर्बाद होने, क्षतिग्रस्त होने, बेची जाने या वादी के विरुद्ध डिक्री के अधीन गलत तरीके से नीलाम होने की आशंका है, या
(b) कि प्रतिवादी (defendant) अपनी संपत्ति को हटाने या बेचने की धमकी दे रहा है, जिससे अपने देनदारों को धोखा देना (defraud) चाहता है, या
(c) कि प्रतिवादी वादी को कब्जे से बेदखल करने या अन्य किसी प्रकार की हानि पहुंचाने की धमकी दे रहा है,
तो न्यायालय एक आदेश देकर अस्थायी निषेधाज्ञा दे सकता है, जिससे ऐसा कार्य रोका जा सके, या न्यायालय जिस तरह उचित समझे, ऐसा अन्य आदेश दे सकता है, ताकि वाद तय होने तक संपत्ति की बर्बादी, क्षति, बिक्री, हटाना, बेदखली या हानि को रोका जा सके।
Rule 2 – उल्लंघन की पुनरावृत्ति रोकने हेतु निषेधाज्ञा
(1) अगर वादी एक ऐसा वाद लाता है जिसमें अनुबंध के उल्लंघन या किसी प्रकार की क्षति को रोकने की बात हो, चाहे क्षतिपूर्ति मांगी गई हो या नहीं, तो वादी वाद शुरू होने के बाद कभी भी – निर्णय से पहले या बाद में – न्यायालय से अस्थायी निषेधाज्ञा माँग सकता है कि प्रतिवादी को ऐसा उल्लंघन करने से रोका जाए।
(2) न्यायालय ऐसा आदेश दे सकता है और उसकी अवधि, लेखा रखने, सुरक्षा देने या अन्य बातों के बारे में उचित शर्तें तय कर सकता है।
Rule 2A – आदेश का उल्लंघन या भंग करने पर परिणाम
(1) अगर किसी ने Rule 1 या 2 के तहत दी गई निषेधाज्ञा या आदेश का उल्लंघन किया या जिन शर्तों पर आदेश मिला था, उनका उल्लंघन किया, तो न्यायालय उस व्यक्ति की संपत्ति जब्त करने का आदेश दे सकता है, और उसे अधिकतम तीन महीने तक दीवानी (Civil) जेल में भेज सकता है।
(2) ऐसी जब्ती एक साल से अधिक नहीं रह सकती। अगर एक साल बाद भी उल्लंघन जारी है, तो संपत्ति बेची जा सकती है और उससे पीड़ित पक्ष को मुआवज़ा दिया जा सकता है, और बची राशि सही व्यक्ति को दी जाएगी।
Rule 3 – निषेधाज्ञा देने से पहले विपक्षी को नोटिस देना
हर मामले में, जब तक यह न लगे कि विलंब से निषेधाज्ञा का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा, न्यायालय को पहले विपक्षी पक्ष को नोटिस देना होगा।
बशर्ते कि अगर बिना नोटिस निषेधाज्ञा दी जाती है, तो न्यायालय को यह कारण रिकॉर्ड करना होगा कि क्यों नोटिस से उद्देश्य विफल हो सकता था, और आदेश के तुरंत बाद वादी को ये चीजें विपक्षी को देना या भेजना होगा –
(a) निषेधाज्ञा के लिए आवेदन की प्रति,
(b) समर्थन में दाखिल हलफनामे की प्रति,
(c) वादपत्र (plaint),
(d) सभी आवश्यक दस्तावेजों की प्रतियाँ।
साथ ही, वादी को अगले दिन या उसी दिन हलफनामा देना होगा कि ये प्रतियाँ दी या भेज दी गई हैं।
Rule 3A – बिना नोटिस दी गई निषेधाज्ञा का 30 दिनों में निर्णय
जहां निषेधाज्ञा बिना नोटिस दी गई हो, वहाँ न्यायालय को प्रयास करना चाहिए कि वह
30 दिनों के अंदर निषेधाज्ञा की अर्जी का अंतिम निपटारा कर दे। अगर ऐसा न कर पाए, तो कारण दर्ज करेगा।
Rule 4 – निषेधाज्ञा को हटाया या बदला जा सकता है
कोई भी पक्ष जिसे निषेधाज्ञा से आपत्ति हो, वह आवेदन देकर उस निषेधाज्ञा को हटवाने, बदलवाने या निरस्त करवाने की मांग कर सकता है।
बशर्ते कि अगर वादी ने आवेदन या हलफनामे में जानबूझकर कोई झूठी या भ्रामक बात कहीं और निषेधाज्ञा बिना नोटिस दी गई, तो न्यायालय को वह निषेधाज्ञा निरस्त करनी चाहिए – जब तक कि न्याय के हित में ऐसा न करना जरूरी हो।
दूसरी बशर्ते – अगर निषेधाज्ञा विपक्षी को सुनकर दी गई थी, तो वही पक्ष उस निषेधाज्ञा को हटवाने की अर्जी तभी दे सकता है जब परिस्थितियों में बदलाव हो या उसे विशेष कठिनाई हुई हो।
Rule 5 – निगम (corporation) पर निषेधाज्ञा
अगर निषेधाज्ञा किसी निगम को दी जाती है, तो वह सिर्फ निगम पर ही नहीं, बल्कि उसके उन सभी अधिकारियों और सदस्यों पर भी लागू होती है जिनके व्यक्तिगत कार्यों को रोका जा रहा हो।
Interlocutory Orders – मध्यवर्ती आदेश
Rule 6 – अस्थायी बिक्री का आदेश
अगर वाद में कोई ऐसी चल संपत्ति है जो जल्दी खराब हो सकती है या जिसके तत्काल बेचने में लाभ है, तो न्यायालय किसी भी पक्ष के आवेदन पर उसे बेचने का आदेश दे सकता है।
Rule 7 – संपत्ति का निरीक्षण, संरक्षण आदि
(1) न्यायालय किसी भी पक्ष के आवेदन पर ये आदेश दे सकता है –
(a) वाद में विवादित संपत्ति का संरक्षण, निरीक्षण या हिरासत;
(b) किसी व्यक्ति को किसी जमीन या भवन में प्रवेश करने की अनुमति;
(c) नमूने लेना, अवलोकन करना या प्रयोग करना, ताकि पूरी जानकारी या साक्ष्य मिल सके।
(2) इसमें वही प्रक्रिया लागू होगी जो सामान्यतः कार्यवाही में लागू होती है।
Rule 8 – ऐसे आदेश देने से पहले नोटिस देना
(1) वादी Rule 6 या 7 के तहत आदेश के लिए वाद दाखिल होने के बाद कभी भी आवेदन कर सकता है।
(2) प्रतिवादी ऐसा आवेदन उपस्थिति के बाद कभी भी कर सकता है।
(3) लेकिन, जब तक यह न लगे कि विलंब से उद्देश्य विफल हो जाएगा, तब तक आदेश देने से पहले विपक्षी पक्ष को नोटिस देना होगा।
Rule 9 – भूमि का तत्काल कब्जा दिया जाना
अगर वाद में कोई जमीन या पट्टा जो सरकारी राजस्व देता है, उसका मालिक सरकारी बकाया नहीं भरता और उसे बेचने का आदेश हो जाता है, तो कोई अन्य पक्ष जो उस जमीन में हित रखता हो, राजस्व चुकाकर (सुरक्षा के साथ या बिना), उस जमीन का तत्काल कब्जा पा सकता है।
फिर डिक्री में उस राशि की वसूली या समायोजन का आदेश भी दिया जा सकता है।
Rule 10 – पैसे या अन्य वस्तु का न्यायालय में जमा
अगर वाद में कोई पैसा या अन्य चीज़ है और एक पक्ष मानता है कि वह वस्तु/राशि किसी दूसरे पक्ष की है या वह उसका ट्रस्टी है, तो न्यायालय उस वस्तु को न्यायालय में जमा करने या संबंधित पक्ष को सौंपने का आदेश दे सकता है।
Order 40 – रिसीवर की नियुक्ति (Receivers)
Rule 1 – रिसीवर की नियुक्ति:
(1) जब न्यायालय को उचित और सुविधाजनक लगे, तो वह आदेश द्वारा –
(a) किसी संपत्ति के लिए डिक्री से पहले या बाद में रिसीवर नियुक्त कर सकता है।
(b) किसी व्यक्ति को संपत्ति के कब्जे या संरक्षा से हटा सकता है।
(c) संपत्ति रिसीवर को सौंप सकता है।
(d) रिसीवर को वही शक्तियाँ दे सकता है जो मालिक के पास होती हैं – जैसे मुकदमे दायर करना/लड़ना, संपत्ति की वसूली, प्रबंधन, सुरक्षा, सुधार, किराया/लाभ की वसूली और उनका उपयोग व निपटान।
(2) न्यायालय ऐसा व्यक्ति नहीं हटा सकता जिसे हटाने का किसी पक्ष को वर्तमान में अधिकार न हो।
Rule 2 – पारिश्रमिक:
न्यायालय सामान्य या विशेष आदेश द्वारा रिसीवर का पारिश्रमिक तय कर सकता है।
Rule 3 – कर्तव्य:
हर नियुक्त रिसीवर को –
(a) न्यायालय द्वारा निर्धारित सुरक्षा (Security) जमा करनी होगी।
(b) न्यायालय के निर्देश अनुसार समय-समय पर हिसाब देना होगा।
(c) बकाया राशि न्यायालय के निर्देश अनुसार जमा करनी होगी।
(d) यदि जान-बूझकर या गंभीर लापरवाही से संपत्ति को नुकसान पहुँचे, तो वह उत्तरदायी होगा।
Rule 4 – कर्तव्यों का प्रवर्तन:
यदि रिसीवर –
(a) समय पर हिसाब नहीं देता,
(b) बकाया राशि नहीं देता,
(c) जानबूझकर या गंभीर लापरवाही से नुकसान करता है,
तो न्यायालय उसके स्वत्व (property) को कुर्क कर उसे बेच सकता है और
उससे प्राप्त राशि से बकाया राशि या नुकसान की भरपाई कर सकता है।
शेष राशि (यदि कोई हो) रिसीवर को दी जाएगी।
Rule 5 – कलेक्टर की नियुक्ति:
अगर संपत्ति राजस्व वाली भूमि है और न्यायालय को लगे कि कलेक्टर के प्रबंधन से हित साधन होगा, तो कलेक्टर की सहमति से, उसे रिसीवर नियुक्त किया जा सकता है।
Order 41 – मूल डिक्री से अपीलें
Rule 1: अपील का रूप और साथ क्या लगेगा
(1) हर अपील एक ज्ञापन (memorandum) के रूप में हो, जो अपीलकर्ता या उसके वकील द्वारा हस्ताक्षरित हो और न्यायालय में प्रस्तुत की जाए। साथ में निर्णय (judgment) की प्रति होनी चाहिए।
बशर्ते यदि एक ही निर्णय में एक से अधिक वाद तय हुए हैं और उन पर एक से अधिक अपीलें दायर हैं, तो अपीलीय न्यायालय एक ही निर्णय की एक प्रति से संतोष कर सकता है।
(2) ज्ञापन में संक्षेप में, अलग-अलग बिंदुओं में, आपत्ति के आधार लिखे जाएँ, बिना तर्क या कथा के।
(3) यदि अपील धनराशि की डिक्री के विरुद्ध है, तो अपीलकर्ता को अपीलीय न्यायालय द्वारा निर्धारित समय में वह राशि जमा करनी होगी या उपयुक्त जमानत देनी होगी।
Rule 2: कौन से आधार लिए जा सकते हैं
ज्ञापन में जो आधार लिखे गए हैं, केवल उन्हीं पर अपीलकर्ता बहस कर सकता है, बशर्ते न्यायालय की अनुमति से कोई नया आधार लिया जाए।
बशर्ते निर्णय किसी ऐसे आधार पर न हो जिस पर विरोधी पक्ष को अपनी बात रखने का अवसर न मिला हो।
Rule 3: ज्ञापन की अस्वीकृति या संशोधन
(1) यदि ज्ञापन सही रूप में नहीं है, तो न्यायालय उसे अस्वीकार कर सकता है या संशोधन हेतु लौटा सकता है।
(2) अस्वीकृति के कारण लिखे जाएँगे।
(3) संशोधन पर न्यायाधीश या अधिकारी हस्ताक्षर करेगा।
Rule 3A: विलंब क्षमा याचिका (Condonation of delay)
(1) अपील विलंब से दायर हो तो विलंब क्षमा याचिका और शपथपत्र साथ देना होगा।
(2) यदि कोर्ट बिना नोटिस अस्वीकार नहीं करना चाहता तो प्रतिवादी को नोटिस देगा।
(3) जब तक याचिका तय न हो, तब तक डिक्री पर स्थगन आदेश नहीं दिया जाएगा।
Rule 4: समान आधार पर पूरी डिक्री उलटी जा सकती है
यदि सभी वादकारियों (plaintiffs/defendants) पर समान आधार लागू हो, तो कोई एक व्यक्ति पूरी डिक्री के विरुद्ध अपील कर सकता है और निर्णय सभी के पक्ष में हो सकता है।
कार्यवाही और निष्पादन पर स्थगन
(Stay of Proceedings and of Execution)
Rule 5: अपीलीय न्यायालय द्वारा स्थगन
(1) अपील करने मात्र से डिक्री पर कार्यवाही नहीं रुकती, लेकिन न्यायालय कारण होने पर स्थगन दे सकता है।
स्पष्टीकरण: यदि अपीलीय न्यायालय का स्थगन आदेश प्रथम न्यायालय को बताया गया है या अपीलकर्ता ने व्यक्तिगत शपथपत्र दिया है, तो उसे माना जाएगा।
(2) डिक्री पारित करने वाला न्यायालय, अपील की समय-सीमा के भीतर स्थगन याचिका पर आदेश दे सकता है।
(3) स्थगन के लिए तीन शर्तें:
(a) महत्वपूर्ण हानि होने की संभावना।
(b) याचिका बिना अनुचित देरी के हो।
(c) यथोचित जमानत दी जाए।
(4) न्यायालय प्रारंभिक सुनवाई तक एकतरफा स्थगन आदेश दे सकता है।
(5) यदि Rule 1(3) की जमा या जमानत नहीं हुई, तो स्थगन आदेश नहीं होगा।
Rule 6: निष्पादन के आदेश में जमानत
(1) यदि डिक्री निष्पादन का आदेश है और अपील लंबित है, तो संपत्ति की वापसी के लिए जमानत ली जा सकती है।
(2) यदि अचल संपत्ति की बिक्री का आदेश है और अपील लंबित है, तो बिक्री रोकी जा सकती है।
Rule 7: सरकार या लोक अधिकारी से जमानत की आवश्यकता नहीं — (हटाया गया)
Rule 8: निष्पादन आदेश के विरुद्ध अपील पर नियम 5 और 6 लागू होंगे।
अपील की स्वीकृति पर प्रक्रिया – Procedure on Admision of Appeal
Rule 9: अपील ज्ञापन का पंजीकरण
(1) अपील ज्ञापन पर तारीख लिखी जाएगी और उसे अपील रजिस्टर में दर्ज किया जाएगा।
(2) रजिस्टर को “अपील रजिस्टर” कहा जाएगा।
Rule 10: खर्च की जमानत
(1) न्यायालय अपीलकर्ता से अपील या मूल वाद के खर्च हेतु जमानत मांग सकता है।
बशर्ते यदि अपीलकर्ता भारत के बाहर रहता है और भारत में उसकी कोई अचल संपत्ति नहीं है, तो जमानत लेना अनिवार्य है।
(2) समय पर जमानत न देने पर अपील खारिज की जाएगी।
Rule 11: नोटिस के बिना अपील खारिज करने की शक्ति
(1) अपीलकर्ता की उपस्थिति में, दिन तय कर अपील खारिज की जा सकती है।
(2) यदि अपीलकर्ता नहीं आता तो अपील खारिज की जा सकती है।
(3) खारिजी की सूचना मूल न्यायालय को दी जाएगी।
(4) उच्च न्यायालय के अलावा अन्य अपीलीय न्यायालय को संक्षेप में कारण लिखकर निर्णय देना होगा।
Rule 11A: अपील की प्रारंभिक सुनवाई 60 दिन में पूरी करने का प्रयास होना चाहिए।
Rule 12 – अपील की सुनवाई के लिए दिन तय करना
(1) अगर अपीलीय न्यायालय Rule 11 के तहत अपील को खारिज नहीं करता, तो वह अपील की सुनवाई के लिए एक दिन तय करेगा।
(2) यह दिन न्यायालय के वर्तमान कार्यभार (current business) को देखते हुए तय किया जाएगा।
Rule 13 – [अपीलीय न्यायालय द्वारा मूल न्यायालय को सूचना देना] – हटाया गया।
Rule 14 – सुनवाई की तारीख की सूचना का प्रकाशन और सेवा
(1) Rule 12 के तहत तय दिन की सूचना अपीलीय न्यायालय में चस्पा की जाएगी, और उसी तरह की सूचना उस न्यायालय को भी भेजी जाएगी, जिससे अपील की गई है। यह सूचना उत्तरवादी (respondent) या उसके वकील को summons की तरह दी जाएगी। summons की सेवा के नियम इस सूचना पर भी लागू होंगे।
(2) अपीलीय न्यायालय चाहे तो खुद भी उत्तरवादी को यह सूचना भेज सकता है।
(3) उत्तरवादी को दी जाने वाली सूचना के साथ अपील का प्रतिवेदन (memorandum of appeal) भी देना होगा।
(4) अपील से संबंधित किसी भी प्रक्रिया की सूचना ऐसे उत्तरवादी को देना जरूरी नहीं है, जिसे अपीलीय न्यायालय में पहली बार पक्षकार बनाया गया हो, जब तक उसने निचली अदालत में उपस्थिति दर्ज कर पता नहीं दिया हो या अपील में उपस्थित न हुआ हो।
(5) लेकिन, उपरोक्त बात ऐसे उत्तरवादी को अपील का विरोध करने से नहीं रोकती।
Rule 15 – [सूचना की सामग्री] – हटाया गया।
सुनवाई की प्रक्रिया
Rule 16 – पहले बोलने का अधिकार
(1) तय तारीख या स्थगित तिथि पर, पहले अपीलकर्ता (appellant) को अपील के समर्थन में सुना जाएगा।
(2) अगर अपील तुरंत खारिज नहीं की जाती, तो उत्तरवादी को सुना जाएगा और फिर अपीलकर्ता को उत्तर देने का मौका मिलेगा।
Rule 17 – अपीलकर्ता की अनुपस्थिति में अपील का खारिज होना
(1) अगर तय दिन या स्थगित दिन पर अपीलकर्ता उपस्थित नहीं होता, तो न्यायालय अपील खारिज कर सकता है।
व्याख्या – इस नियम से न्यायालय को यह अधिकार नहीं मिलता कि वह मेरिट (गुण-दोष) के आधार पर अपील खारिज करे।
(2) अगर अपीलकर्ता उपस्थित है और उत्तरवादी नहीं है, तो अपील एकतरफा (ex parte) सुनी जाएगी।
Rule 18 – [अपीलकर्ता द्वारा लागत न जमा करने के कारण सूचना न दिए जाने पर अपील खारिज] – हटाया गया।
Rule 19 – डिफॉल्ट से खारिज अपील को फिर से स्वीकार करना
अगर अपील Rule 11(2) या Rule 17 के तहत खारिज हो गई हो, तो अपीलकर्ता न्यायालय से दोबारा सुनवाई की प्रार्थना कर सकता है। अगर यह सिद्ध हो जाए कि वह पर्याप्त कारण से अनुपस्थित था, तो न्यायालय उपयुक्त शर्तों पर अपील को फिर से स्वीकार करेगा।
Rule 20 – सुनवाई स्थगित कर नए पक्षकार जोड़ना
(1) अगर सुनवाई के समय न्यायालय को लगे कि कोई व्यक्ति जो मूल वाद में पक्षकार था पर अपील में नहीं जोड़ा गया है और वह परिणाम में रुचि रखता है, तो न्यायालय सुनवाई स्थगित कर सकता है और उस व्यक्ति को उत्तरवादी बनाने का निर्देश दे सकता है।
(2) अगर अपील की समयसीमा समाप्त हो चुकी हो, तो न्यायालय कारण दर्ज कर और उचित शर्तों पर उसे उत्तरवादी बना सकता है।
Rule 21 – एकतरफा डिक्री के खिलाफ उत्तरवादी की पुनः सुनवाई की याचिका
अगर अपील एकतरफा सुनी गई हो और उत्तरवादी के खिलाफ निर्णय हुआ हो, तो वह पुनः सुनवाई की प्रार्थना कर सकता है। यदि वह यह सिद्ध कर दे कि उसे सूचना नहीं मिली थी या वह पर्याप्त कारण से उपस्थित नहीं हो पाया, तो न्यायालय उपयुक्त शर्तों पर दोबारा सुनवाई करेगा।
Rule 22 – उत्तरवादी का अपील के बिना भी आपत्ति करना
(1) उत्तरवादी, भले ही उसने अपील न की हो, निर्णय का समर्थन कर सकता है या निचली अदालत के किसी मुद्दे पर अपने पक्ष में निर्णय होना चाहिए था – यह कह सकता है। वह क्रॉस-ऑब्जेक्शन (आपत्ति) भी दर्ज कर सकता है, बशर्ते यह एक महीने के भीतर की जाए जब उसे सुनवाई की तारीख की सूचना मिली हो।
व्याख्या – अगर डिक्री एक या अधिक findings (निष्कर्षों) पर आधारित है, तो उत्तरवादी उन निष्कर्षों के विरुद्ध क्रॉस-ऑब्जेक्शन दायर कर सकता है।
(2) यह आपत्ति memorandum के रूप में होगी, और memorandum of appeal के नियम उस पर भी लागू होंगे।
(4) अगर मूल अपील वापस ले ली गई या डिफॉल्ट से खारिज हो गई, फिर भी आपत्ति को सुना और तय किया जा सकता है।
(5) गरीब व्यक्ति द्वारा की गई आपत्ति पर अपील से जुड़े नियम लागू होंगे।
Rule 23 – प्राथमिक मुद्दे पर वाद समाप्त होने पर मामला पुनः निचली अदालत भेजना (Remand)
अगर मूल अदालत ने सिर्फ प्रारंभिक मुद्दे (preliminary point) पर मामला समाप्त किया और अपील में डिक्री उलट दी जाती है, तो अपीलीय न्यायालय मामला वापस भेज सकता है और निर्देश दे सकता है कि कौनसे मुद्दे पुनः तय किए जाएं।
Rule 23A – अन्य मामलों में भी रिमांड
अगर मामला प्राथमिक मुद्दे पर नहीं निपटाया गया और अपील में डिक्री उलटी जाती है, और नए ट्रायल की आवश्यकता लगे, तो अपीलीय न्यायालय को वही अधिकार होंगे जो Rule 23 में दिए गए हैं।
Rule 24 – साक्ष्य पर्याप्त हो तो अपीलीय न्यायालय अंतिम निर्णय दे सकता है
अगर रिकॉर्ड पर मौजूद साक्ष्य पर्याप्त हो, तो अपीलीय न्यायालय स्वयं मुद्दों को पुनः तय कर अंतिम निर्णय दे सकता है, भले ही निचली अदालत ने अन्य आधार पर फैसला दिया हो।
Rule 25 – मुद्दे तय कर निचली अदालत को भेजना
अगर निचली अदालत ने कोई महत्वपूर्ण मुद्दा तय नहीं किया हो, तो अपीलीय न्यायालय खुद मुद्दे तय कर उन्हें निचली अदालत को भेज सकता है और साक्ष्य लेने के निर्देश दे सकता है। फिर निचली अदालत उन पर साक्ष्य लेकर अपनी राय और कारण अपीलीय न्यायालय को भेजेगी।
Rule 26 – साक्ष्य और निष्कर्ष रिकॉर्ड में शामिल होंगे; आपत्ति का अधिकार
(1) वह साक्ष्य और निष्कर्ष वाद के रिकॉर्ड का हिस्सा बनेंगे। दोनों पक्ष तय समय में निष्कर्षों पर आपत्ति कर सकते हैं।
(2) फिर अपीलीय न्यायालय अपील का निर्णय देगा।
Rule 26A – रिमांड आदेश में अगली तारीख जरूर लिखी जाए
जब अपीलीय न्यायालय Rule 23, 23A या 25 के तहत मामला रिमांड करता है, तो वह यह भी तय करेगा कि पक्षकार निचली अदालत में कब पेश हों।
27. Production of additional evidence in Appellate Court – अपीलीय न्यायालय में अतिरिक्त साक्ष्य प्रस्तुत करना
(1) सामान्यतः अपीलीय न्यायालय में कोई भी पक्ष ऐसा साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सकता जो न तो निचली अदालत में पेश किया गया हो और न ही वहां उपलब्ध था। लेकिन अपीलीय न्यायालय निम्नलिखित स्थिति में अतिरिक्त साक्ष्य लेने की अनुमति दे सकता है –
(a) यदि अपीलीय न्यायालय यह माने कि निचली अदालत में कोई साक्ष्य उचित रूप से नहीं लिया गया था;
(b) यदि यह साबित हो कि यह साक्ष्य उस पक्ष के पास तब नहीं था जब वह निचली अदालत में मामला चला रहा था और उचित प्रयास के बावजूद वह साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर सका;
(c) यदि अपीलीय न्यायालय यह आवश्यक माने कि न्याय के हित में यह साक्ष्य लिया जाना चाहिए।
(2) जब भी अतिरिक्त साक्ष्य की अनुमति दी जाती है, न्यायालय को लिखित कारण बताने होंगे कि क्यों वह यह साक्ष्य ले रहा है।
28. Mode of taking additional evidence – अतिरिक्त साक्ष्य लेने की प्रक्रिया
जब अपीलीय न्यायालय अतिरिक्त साक्ष्य लेने का आदेश देता है, तो वह या तो स्वयं साक्ष्य दर्ज कर सकता है या उस अदालत को निर्देश दे सकता है जिससे अपील की गई है कि वह साक्ष्य दर्ज करे और रिकॉर्ड के साथ उसे लौटाए।
29. Points to be defined and recorded – मुद्दों को परिभाषित करना और दर्ज करना
जब अपीलीय न्यायालय निचली अदालत को कोई मुद्दा परीक्षण हेतु भेजता है, तो वह यह स्पष्ट रूप से लिखकर बताएगा कि कौन-से मुद्दों का परीक्षण किया जाना है, और निचली अदालत को केवल उन्हीं मुद्दों पर साक्ष्य लेना होगा।
30. Judgment when and where pronounced – निर्णय कब और कहाँ सुनाया जाए
अपील का निर्णय अपीलीय न्यायालय के खुली अदालत में सुनाया जाएगा, उसी तारीख को या किसी अन्य तारीख को जो निर्धारित की गई हो।
31. Contents, date and signature of judgment – निर्णय की सामग्री, तिथि और हस्ताक्षर
अपील पर निर्णय में निम्नलिखित बातें होंगी –
(a) निर्णय संक्षिप्त होगा लेकिन तथ्यों और कानून के मुद्दों का उल्लेख करेगा;
(b) उसमें यह स्पष्ट रूप से लिखा होगा कि निचली अदालत का डिक्री (निर्णय) रद्द किया जा रहा है या कायम रखा जा रहा है;
(c) निर्णय पर अपीलीय न्यायाधीश द्वारा हस्ताक्षर किया जाएगा और उस तिथि को लिखा जाएगा जिस दिन उसे सुनाया गया।
32. What judgment may direct – निर्णय क्या निर्देश दे सकता है
अपील का निर्णय यह निर्देश दे सकता है कि –
• डिक्री को पूरी तरह से या आंशिक रूप से बदला जाए,
• या डिक्री को पूरी तरह से या आंशिक रूप से रद्द किया जाए,
• या मामला फिर से निचली अदालत को भेजा जाए।
33. Power of Court of Appeal – अपीलीय न्यायालय की शक्ति
अपील का निर्णय करते समय अपीलीय न्यायालय के पास यह शक्ति होगी कि –
• वह ऐसे किसी पक्ष को राहत दे सकता है जो अपीलकर्ता न हो;
• वह डिक्री को उस व्यक्ति के पक्ष में भी संशोधित कर सकता है जिसने अपील नहीं की हो,
बशर्ते ऐसा करना न्यायहित में उचित हो।
34. Dissent to be recorded – असहमति को दर्ज करना
यदि अपीलीय न्यायालय में एक से अधिक न्यायाधीश हैं और वे सहमत नहीं हैं, तो प्रत्येक न्यायाधीश अपना अलग निर्णय देगा और उसे रिकॉर्ड में दर्ज किया जाएगा।
Decree in Appeal
35. Date and contents of decree – डिक्री की तिथि और सामग्री
अपील का निर्णय जिस दिन सुनाया गया, डिक्री उसी तारीख की मानी जाएगी। डिक्री में वही आदेश, निर्णय और निष्कर्ष होंगे जो निर्णय में दिए गए हैं।
36. Copies of judgment and decree to be sent to Court whose decree appealed from – निर्णय और डिक्री की प्रतियां निचली अदालत को भेजना
जब अपीलीय न्यायालय अपील का निपटारा कर लेता है, तो वह निर्णय और डिक्री की प्रमाणित प्रतियां उस अदालत को भेजेगा जिससे अपील की गई थी।
37. Application for copies of judgment and decree – निर्णय और डिक्री की प्रतियों के लिए आवेदन
निर्णय या डिक्री की प्रति पाने के लिए कोई भी पक्ष न्यायालय में आवेदन कर सकता है, और उसे नियमानुसार प्रमाणित प्रति दी जाएगी।
ORDER 42 – Appeals from Appellate Decrees
आदेश 42 – अपीलीय निर्णयों से अपीलें
1. Procedure | प्रक्रिया
आदेश 41 के नियम, जहाँ तक लागू हो सकते हैं, अपील निर्णयों से की गई अपीलों पर भी लागू होंगे।
2. Court का अधिकार – अपने द्वारा तय किए गए प्रश्नों पर अपील सुनने का निर्देश देने का
जब न्यायालय आदेश 41 के नियम 11 के तहत दूसरी अपील सुनने का आदेश देता है, तो धारा 100 के अनुसार कोई महत्वपूर्ण विधिक प्रश्न (substantial question of law) तय करेगा।
➤ न्यायालय यह निर्देश दे सकता है कि दूसरी अपील केवल उसी प्रश्न पर सुनी जाए।
➤ अपीलकर्ता को कोई अन्य आधार उठाने की अनुमति नहीं होगी, जब तक कि न्यायालय धारा 100 के अनुसार अनुमति न दे।
3. आदेश 41 के नियम 14 का प्रयोग | Application of rule 14 of Order XLI
➤ आदेश 41 के नियम 14 की उप-नियम (4) में “प्रथम श्रेणी की न्यायालय (The court of first instance)” का अर्थ, अपील निर्णय से की गई अपील के मामलों में, उस न्यायालय से होगा जहाँ से मूल निर्णय के विरुद्ध पहली अपील की गई थी।
ORDER XLIII – APPEALS FROM ORDERS
आदेश 43 – आदेशों से अपील
1. Appeal from orders – आदेशों से अपील:
निम्नलिखित आदेशों के विरुद्ध, धारा 104 के अंतर्गत अपील की जा सकती है:
(a) आदेश 7 नियम 10 के अंतर्गत याचिका को उपयुक्त न्यायालय में प्रस्तुत करने के लिए लौटाया जाना (यदि नियम 10A का पालन न किया गया हो)।
(c) आदेश 9 नियम 9 के तहत वाद की बर्खास्तगी को हटाने हेतु आवेदन को अस्वीकार करना (जहाँ अपील की जा सकती है)।
(d) आदेश 9 नियम 13 के तहत एकतरफा डिक्री को हटाने हेतु आवेदन को अस्वीकार करना (जहाँ अपील की जा सकती है)।
(f) आदेश 11 नियम 21 के अंतर्गत दिया गया आदेश।
(i) आदेश 21 नियम 34 के अंतर्गत दस्तावेज़ या समर्थन (endorsement) के मसौदे पर आपत्ति पर दिया गया आदेश।
(j) आदेश 21 नियम 72 या 92 के अंतर्गत विक्रय को निरस्त करने या न करने का आदेश।
(ja) आदेश 21 नियम 106(1) के अंतर्गत आवेदन को अस्वीकार करने का आदेश (यदि मूल आवेदन अपील योग्य हो)।
(k) आदेश 22 नियम 9 के तहत वाद की समाप्ति या बर्खास्तगी को हटाने से इंकार का आदेश।
(l) आदेश 22 नियम 10 के तहत अनुमति देने या न देने का आदेश।
(n) आदेश 25 नियम 2 के तहत वाद की बर्खास्तगी हटाने के आवेदन को अस्वीकार करने का आदेश (जहाँ अपील की जा सकती है)।
(na) आदेश 33 नियम 5 या 7 के अंतर्गत निर्धन व्यक्ति के रूप में वाद दायर करने की अनुमति को अस्वीकार करने का आदेश।
(p) आदेश 35 नियम 3, 4 या 6 के अंतर्गत अंतर-विवादी वादों (interpleader suits) में आदेश।
(q) आदेश 38 नियम 2, 3 या 6 के अंतर्गत आदेश।
(r) आदेश 39 नियम 1, 2A, 4 या 10 के अंतर्गत आदेश।
(s) आदेश 40 नियम 1 या 4 के अंतर्गत आदेश।
(t) आदेश 41 नियम 19 या 21 के अंतर्गत पुनः प्रवेश या पुनः सुनवाई से इंकार का आदेश।
(u) आदेश 41 नियम 23 या 23A के अंतर्गत पुनः विचारार्थ मामला वापस भेजने का आदेश (जहाँ अपीलीय न्यायालय के डिक्री पर अपील संभव हो)।
(w) आदेश 47 नियम 4 के तहत पुनर्विचार का आवेदन स्वीकार करने का आदेश।
1A. Right to challenge non-appealable orders in appeal against decrees – डिक्री के विरुद्ध अपील में गैर-अपीलीय आदेश को चुनौती देने का अधिकार:
(1) यदि किसी आदेश के पश्चात उस पक्ष के विरुद्ध निर्णय और डिक्री दी जाती है, तो वह पक्ष डिक्री के विरुद्ध अपील में यह कह सकता है कि वह आदेश नहीं दिया जाना चाहिए था।
(2) यदि समझौते को रिकॉर्ड करने या न करने के संबंध में डिक्री दी गई है, तो अपील में यह कहा जा सकता है कि समझौता रिकॉर्ड किया जाना चाहिए था या नहीं किया जाना चाहिए था।
2. Procedure – प्रक्रिया:
जितना संभव हो, आदेशों से अपील में आदेश 41 के नियम लागू होंगे।
ORDER 44 – APPEALS BY INDIGENT PERSONS
आदेश 44 – निर्धन व्यक्ति द्वारा अपील
1. निर्धन व्यक्ति द्वारा अपील करने का अधिकार : –
कोई भी व्यक्ति जो अपील करने का अधिकारी है और अपील ज्ञापन (memorandum of appeal) पर आवश्यक न्यायालय शुल्क (court fee) देने में असमर्थ है, वह एक आवेदन पत्र के साथ अपील ज्ञापन प्रस्तुत कर सकता है और निर्धन व्यक्ति के रूप में अपील करने की अनुमति प्राप्त कर सकता है, निर्धन व्यक्ति द्वारा वाद दाख़िल करने से संबंधित नियमों के अधीन।
2. न्यायालय शुल्क जमा करने के लिए समय देना –
यदि नियम 1 के तहत आवेदन खारिज किया जाता है, तो न्यायालय आवेदक को निर्धारित समय में न्यायालय शुल्क जमा करने की अनुमति दे सकता है। यदि शुल्क जमा कर दिया जाए, तो ऐसा माना जाएगा कि अपील ज्ञापन प्रारंभ से ही शुल्क सहित दाख़िल हुआ था।
3. निर्धन होने की जांच –
(1) यदि अपीलकर्ता पहले की न्यायालय में निर्धन व्यक्ति के रूप में वाद या अपील कर चुका है, और उसने यह हलफ़नामा दिया है कि वह अब भी निर्धन है, तो सामान्यतः पुनः जांच नहीं होगी। लेकिन यदि सरकारी वकील या प्रतिवादी उसके हलफ़नामे को चुनौती देता है, तो जांच अपीलीय न्यायालय द्वारा या उसके आदेश से उसके अधिकारी द्वारा की जाएगी।
(2) यदि यह दावा किया जाए कि अपीलकर्ता डिक्री के बाद निर्धन हो गया है, तो निर्धनता की जांच अपीलीय न्यायालय द्वारा या उसके आदेश पर उसके किसी अधिकारी द्वारा की जाएगी, जब तक कि अपीलीय न्यायालय यह आवश्यक न माने कि जांच मूल न्यायालय द्वारा की जाए।
Order 45 – सुप्रीम कोर्ट में अपीलें
Rule 1 – “डिक्री” की परिभाषा
इस आदेश में, जब तक संदर्भ या विषयवस्तु में कोई विरोधाभास न हो, “डिक्री” में अंतिम आदेश (final order) भी शामिल होगा।
Rule 2 – उस न्यायालय में आवेदन देना जिसकी डिक्री के विरुद्ध अपील की जा रही है
(1) जो कोई सुप्रीम कोर्ट में अपील करना चाहता है, उसे उस न्यायालय में याचिका द्वारा आवेदन देना होगा जिसकी डिक्री के विरुद्ध अपील की जा रही है।
(2) ऐसी हर याचिका को यथाशीघ्र सुना जाएगा और यथासंभव प्रयास किया जाएगा कि याचिका के प्रस्तुत करने की तारीख से साठ दिनों के अंदर उसका निस्तारण कर दिया जाए।
Rule 3 – मूल्य या उपयुक्तता संबंधी प्रमाणपत्र
(1) हर याचिका में अपील के आधार बताए जाएँगे और यह प्रार्थना की जाएगी कि प्रमाणपत्र दिया जाए–
(i) कि मामला सामान्य महत्त्व के किसी महत्वपूर्ण कानूनी प्रश्न से संबंधित है, और
(ii) कि न्यायालय की राय में उस प्रश्न का निर्णय सुप्रीम कोर्ट द्वारा किया जाना आवश्यक है।
(2) ऐसी याचिका मिलने पर न्यायालय विपक्षी पक्ष को नोटिस देगा कि क्यों यह प्रमाणपत्र न दिया जाए।
Rule 4 और 5 – निरस्त कर दिए गए (Repealed)
Rule 6 – जब प्रमाणपत्र अस्वीकृत हो
यदि ऐसा प्रमाणपत्र देने से इनकार किया जाता है, तो याचिका खारिज कर दी जाएगी।
Rule 7 – प्रमाणपत्र मिलने पर सुरक्षा और जमा
(1) यदि प्रमाणपत्र दे दिया गया है, तो अपीलकर्ता को डिक्री की तारीख से 90 दिन के भीतर (या कारण दिखाकर न्यायालय द्वारा अधिकतम 60 दिन की अतिरिक्त अवधि में), या प्रमाणपत्र दिए जाने की तारीख से 6 सप्ताह के भीतर (जो भी तारीख बाद की हो):
(a) प्रत्युत्तरकर्ता (respondent) के खर्चों के लिए नकद या सरकारी प्रतिभूतियों में सुरक्षा राशि देनी होगी; और
(b) निम्नलिखित को छोड़कर वाद-विवाद के पूरे रिकॉर्ड की एक सही प्रति का अनुवाद, टंकण, अनुक्रमणिका बनाना, मुद्रण और सुप्रीम कोर्ट को भेजने के खर्च हेतु राशि जमा करनी होगी:
(i) औपचारिक दस्तावेज जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के नियमों के अनुसार छोड़ दिया गया है;
(ii) वे कागजात जिन्हें दोनों पक्ष छोड़ने पर सहमत हैं;
(iii) वे लेखे या उनके भाग जो न्यायालय का अधिकारी अनावश्यक समझता है और जिन्हें पक्षकार विशेष रूप से सम्मिलित करने की माँग नहीं करते;
(iv) अन्य कोई दस्तावेज जिन्हें उच्च न्यायालय हटाने का निर्देश दे।
बशर्ते कि विशेष कठिनाई के आधार पर न्यायालय कोई अन्य प्रकार की सुरक्षा लेने का आदेश दे सकता है; बशर्ते और भी, कि विरोधी पक्ष को सुरक्षा की प्रकृति पर आपत्ति करने हेतु स्थगन (adjournment) नहीं दिया जाएगा।
Rule 8 – अपील की स्वीकृति और उसकी प्रक्रिया
जब सुरक्षा और जमा न्यायालय की संतुष्टि अनुसार कर दिए जाएँ, तो न्यायालय:
(a) अपील को स्वीकृत घोषित करेगा,
(b) प्रत्युत्तरकर्ता को इसकी सूचना देगा,
(c) रिकॉर्ड की सही प्रति सील सहित सुप्रीम कोर्ट को भेजेगा (जैसा ऊपर कहा गया है),
(d) किसी भी पक्ष को प्रमाणित प्रतियाँ उपलब्ध कराएगा यदि वह खर्च वहन करता है।
Rule 9 – सुरक्षा की स्वीकृति को रद्द करने की शक्ति
अपील स्वीकृत किए जाने से पहले, न्यायालय किसी कारण को देखते हुए दी गई सुरक्षा की स्वीकृति रद्द कर सकता है और नए निर्देश दे सकता है।
Rule 9A – मृत पक्षकार के उत्तराधिकारी को सूचना देने से छूट
जहाँ मृत पक्षकार या प्रत्युत्तरकर्ता अपील की गई डिक्री वाले न्यायालय या उसके बाद की किसी कार्यवाही में उपस्थित नहीं था, वहां उसके विधिक प्रतिनिधि को सूचना देना आवश्यक नहीं होगा।
बशर्ते कि Rule 3(2) और Rule 8 के नोटिस न्यायालय भवन के किसी प्रमुख स्थान पर चिपकाए जाएँ और किसी समाचार पत्र में प्रकाशित किए जाएँ जैसा न्यायालय निर्देश दे।
Rule 10 – अतिरिक्त सुरक्षा या भुगतान का आदेश देने की शक्ति
अगर अपील स्वीकार हो चुकी हो लेकिन रिकॉर्ड सुप्रीम कोर्ट को भेजे जाने से पहले यह लगे कि सुरक्षा अपर्याप्त है या और धन की आवश्यकता है, तो न्यायालय उचित समय देकर अतिरिक्त सुरक्षा या भुगतान का आदेश दे सकता है।
Rule 11 – आदेश की अवहेलना का प्रभाव
अगर अपीलकर्ता ऐसा आदेश नहीं मानता, तो कार्यवाही स्थगित कर दी जाएगी, और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बिना अपील आगे नहीं बढ़ेगी; इस बीच डिक्री का निष्पादन भी रुकेगा नहीं।
Rule 12 – जमा राशि की शेष वापसी
जब रिकॉर्ड की प्रति सुप्रीम कोर्ट को भेज दी जाती है, तब अपीलकर्ता अपनी जमा की गई राशि का बचा हुआ हिस्सा (यदि कोई हो) वापस ले सकता है।
Rule 13 – अपील लंबित रहते न्यायालय की शक्तियाँ
(1) भले ही प्रमाणपत्र दे दिया गया हो, डिक्री का बिना शर्त निष्पादन होगा, जब तक न्यायालय अन्यथा आदेश न दे।
(2) न्यायालय विशेष कारण दिखाए जाने पर या अपने आप –
(a) किसी भी विवादित चल संपत्ति को जब्त कर सकता है,
(b) डिक्री का निष्पादन अनुमत कर सकता है और प्रत्युत्तरकर्ता से सुरक्षा ले सकता है,
(c) डिक्री का निष्पादन रोक सकता है और अपीलकर्ता से सुरक्षा ले सकता है,
(d) अपील के विषय के संबंध में किसी भी पक्ष पर शर्त लगा सकता है या कोई और निर्देश दे सकता है (जैसे receiver की नियुक्ति आदि)।
Rule 14 – अपर्याप्त सुरक्षा बढ़ाने का आदेश
(1) अपील के लंबित रहते, यदि किसी पक्ष द्वारा दी गई सुरक्षा अपर्याप्त लगे, तो दूसरा पक्ष न्यायालय से अधिक सुरक्षा की माँग कर सकता है।
(2) यदि वह अतिरिक्त सुरक्षा नहीं दी जाती, तो:
(a) यदि मूल सुरक्षा अपीलकर्ता ने दी थी – प्रत्युत्तरकर्ता अपील की गई डिक्री का निष्पादन करा सकता है, मानो कोई सुरक्षा दी ही न गई हो।
(b) यदि मूल सुरक्षा प्रत्युत्तरकर्ता ने दी थी – न्यायालय डिक्री के आगे निष्पादन को रोक सकता है और दोनों पक्षों को उस स्थिति में बहाल कर सकता है जैसी सुरक्षा देते समय थी।
Rule 15 – सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का निष्पादन
(1) जो कोई सुप्रीम कोर्ट की डिक्री या आदेश का निष्पादन चाहता है, वह याचिका देकर उस न्यायालय में आवेदन करेगा जहाँ से सुप्रीम कोर्ट में अपील की गई थी।
(2) वह न्यायालय सुप्रीम कोर्ट की डिक्री या आदेश को मूल डिक्री देने वाले न्यायालय को भेजेगा और निष्पादन हेतु आवश्यक आदेश देगा। वह न्यायालय उस डिक्री का निष्पादन उसी प्रकार करेगा जैसे अपनी डिक्री का करता है।
(4) बशर्ते, यदि कोई मृत पक्षकार कार्यवाही में उपस्थित नहीं था, तो उसकी विधिक प्रतिनिधि को सूचना दिए बिना भी सुप्रीम कोर्ट का आदेश वैध और प्रभावी माना जाएगा।
Rule 16 – निष्पादन से संबंधित आदेशों की अपील
सुप्रीम कोर्ट की डिक्री या आदेश का निष्पादन करने वाले न्यायालय द्वारा दिए गए निष्पादन से संबंधित आदेश, उसी प्रकार अपील योग्य होंगे जैसे कि उस न्यायालय की अपनी डिक्री के निष्पादन से जुड़े आदेश।
ORDER – 46 – संदर्भ (Reference)
Rule 1 – प्रश्न को उच्च न्यायालय में भेजना
अगर किसी वाद या अपील की सुनवाई में (जिसकी डिक्री अपील योग्य नहीं है), या ऐसी डिक्री के निष्पादन में कोई ऐसा विधिक प्रश्न या प्रचलन (usage) उत्पन्न होता है जिस पर न्यायालय को संदेह हो, तो न्यायालय स्वयं या पक्षकार के आवेदन पर मामले के तथ्य और संदेह का विषय लिखकर उसे अपनी राय सहित उच्च न्यायालय को संदर्भित कर सकता है।
महत्वपूर्ण: जब विधिक प्रश्न पर न्यायालय को उचित संदेह हो।
Rule 2 – उच्च न्यायालय के निर्णय पर निर्भर डिक्री पारित करना
न्यायालय संदर्भ लंबित होने पर कार्यवाही स्थगित कर सकता है या जारी रख सकता है, और ऐसा डिक्री या आदेश पारित कर सकता है जो उच्च न्यायालय के निर्णय पर निर्भर हो।
परंतु, जब तक उच्च न्यायालय का निर्णय प्राप्त न हो, डिक्री या आदेश निष्पादित नहीं किया जाएगा।
Rule 3 – उच्च न्यायालय का निर्णय लागू करना
उच्च न्यायालय निर्णय देकर उसकी प्रति रजिस्ट्रार के हस्ताक्षर सहित भेजेगा। संबंधित न्यायालय निर्णय के अनुसार मामले का निपटारा करेगा।
Rule 4 – उच्च न्यायालय को संदर्भ की लागत
संदर्भ से उत्पन्न लागत (अगर कोई हो) मुकदमे की लागत मानी जाएगी।
Rule 4A – धारा 113 की proviso के अंतर्गत संदर्भ
Rule 2, 3 और 4 के नियम धारा 113 की proviso के अंतर्गत किए गए संदर्भों पर भी लागू होंगे।
Rule 5 – डिक्री में संशोधन का अधिकार
जहाँ संदर्भ Rule 1 या धारा 113 की proviso के तहत किया गया हो, उच्च न्यायालय मामला वापस भेज सकता है, डिक्री या आदेश को संशोधित, निरस्त या रद्द कर सकता है और उपयुक्त आदेश दे सकता है।
Rule 6 – छोटे वादों में क्षेत्राधिकार संबंधी प्रश्न का संदर्भ
(1) यदि किसी न्यायालय को यह संदेह हो कि वाद Small Causes Court में विचारणीय है या नहीं, तो वह कारण सहित रिकॉर्ड उच्च न्यायालय को भेज सकता है।
(2) उच्च न्यायालय आदेश दे सकता है कि वाद को वही न्यायालय सुने या वाद पत्र को अन्य उपयुक्त न्यायालय में प्रस्तुत किया जाए।
Rule 7 – छोटे वादों में क्षेत्राधिकार की भूल पर पुनरीक्षण हेतु जिला न्यायालय द्वारा संदर्भ
(1) अगर किसी अधीनस्थ न्यायालय ने गलत रूप से किसी वाद को Small Causes में विचारणीय मानते हुए अधिकार का दुरुपयोग या प्रयोग नहीं किया हो, तो जिला न्यायालय (या पक्षकार के कहने पर) रिकॉर्ड और कारण सहित मामला उच्च न्यायालय को भेज सकता है।
(2) उच्च न्यायालय उपयुक्त आदेश पारित कर सकता है।
(3) डिक्री के बाद की कार्यवाही में भी उच्च न्यायालय उपयुक्त आदेश दे सकता है।
(4) अधीनस्थ न्यायालय, जिला न्यायालय द्वारा माँगी गई जानकारी या रिकॉर्ड उपलब्ध कराएगा।
ORDER XLVII – पुनर्विचार/ समीक्षा (Review)
Rule 1 – पुनर्विचार हेतु आवेदन
कोई भी व्यक्ति जिसकी हानि हुई हो:
(a) ऐसे डिक्री/आदेश से जिस पर अपील की जा सकती है, पर की नहीं गई हो,
(b) ऐसे डिक्री/आदेश से जिस पर अपील की अनुमति नहीं है,
(c) Small Causes Court के संदर्भ पर निर्णय से,
और जो –
(i) नए और महत्त्वपूर्ण तथ्यों या साक्ष्य की खोज (जो उचित परिश्रम के बाद भी पहले उपलब्ध नहीं थे),
(ii) रिकॉर्ड पर स्पष्ट गलती,
(iii) या अन्य उचित कारणों के आधार पर,
पुनर्विचार चाहता हो, वह उसी न्यायालय में पुनर्विचार के लिए आवेदन कर सकता है जिसने डिक्री पारित की या आदेश दिया।
Explanation: केवल इसलिए पुनर्विचार नहीं होगा कि किसी कानून के प्रश्न पर लिया गया निर्णय बाद में किसी उच्चतर न्यायालय द्वारा बदल दिया गया हो।
Rule 2 – (हटा दिया गया)
Rule 3 – आवेदन का स्वरूप
पुनर्विचार के आवेदन का स्वरूप अपीलों के जैसे ही होगा।
Rule 4 – आवेदन अस्वीकार/स्वीकृत होने की दशा
(1) यदि न्यायालय को पर्याप्त आधार न लगे, तो आवेदन अस्वीकार करेगा।
(2) यदि न्यायालय को उचित लगे, तो आवेदन स्वीकृत करेगा,
बशर्ते –
(a) विपक्षी पक्ष को पूर्व सूचना दी जाए।
(b) नए साक्ष्य के आधार पर आवेदन तभी स्वीकार होगा जब उसका प्रमाण स्पष्ट रूप से दिया गया हो।
Rule 5 – दो या अधिक न्यायाधीशों वाले न्यायालय में
यदि निर्णय देने वाले न्यायाधीश (या उनमें से कोई) अभी भी न्यायालय में पदस्थ हैं और अनुपस्थित नहीं हैं, तो वही न्यायाधीश पुनर्विचार आवेदन की सुनवाई करेंगे।
Rule 6 – मतभेद की स्थिति में
(1) यदि न्यायाधीशों की राय बराबर हो, तो आवेदन अस्वीकार किया जाएगा।
(2) बहुमत के अनुसार निर्णय किया जाएगा।
Rule 7 – अस्वीकृति आदेश पर अपील नहीं, स्वीकृति पर आपत्ति संभव
(1) पुनर्विचार आवेदन की अस्वीकृति पर अपील नहीं होगी।
परंतु स्वीकृति पर –
तत्काल अपील की जा सकती है, या
अंतिम डिक्री/आदेश में अपील करते समय आपत्ति ली जा सकती है।
(2) यदि आवेदन अनुपस्थित रहने के कारण अस्वीकार हुआ हो, और पर्याप्त कारण सिद्ध हो, तो न्यायालय उसे पुनः सूचीबद्ध कर सकता है।
(3) उप-नियम (2) के अंतर्गत आदेश देने से पहले विपक्षी को सूचना देना आवश्यक है।
Rule 8 – स्वीकृत आवेदन का पंजीकरण व पुनः सुनवाई
जब पुनर्विचार आवेदन स्वीकृत हो, तो उसकी प्रविष्टि रजिस्टर में की जाएगी, और न्यायालय तुरंत पुनः सुनवाई कर सकता है या अन्य उपयुक्त आदेश दे सकता है।
Rule 9 – द्वितीय पुनर्विचार पर रोक
किसी पुनर्विचार पर दिए गए आदेश या डिक्री के पुनः पुनर्विचार का आवेदन स्वीकार नहीं किया जाएगा।
ORDER – 48 – विविध प्रावधान (Miscellaneous)
Rule 1 – प्रक्रिया का खर्च पक्षकार द्वारा वहन
(1) इस संहिता के तहत जारी की गई हर प्रक्रिया का खर्च उस पक्ष द्वारा वहन किया जाएगा जिसके पक्ष में वह जारी की गई है,
बशर्ते न्यायालय कुछ और निर्देश न दे।
(2) सेवा की लागत – सेवा के लिए देय कोर्ट-फीस, प्रक्रिया जारी होने से पहले, न्यायालय द्वारा तय समय में जमा करनी होगी।
Rule 2 – आदेश और सूचना की सेवा
इस संहिता के अंतर्गत किसी व्यक्ति को दिए जाने वाले सभी आदेश, सूचनाएँ और दस्तावेज उसी प्रकार दिए जाएँगे/सेवा किए जाएँगे जैसे समन की सेवा की जाती है।
Rule 3 – परिशिष्ट में दिए गए प्रपत्रों का उपयोग
प्रपत्रों परिशिष्टों में दिए गए का उपयोग संबंधित उद्देश्यों के लिए किया जाएगा,
और आवश्यकता अनुसार परिस्थिति के अनुसार उनमें परिवर्तन किया जा सकता है।
ORDER 49 – चार्टर्ड उच्च न्यायालय (Chartered High Courts)
Rule 1 – हाई कोर्ट की प्रक्रिया कौन सेवा कर सकता है
मूल सिविल अधिकारिता, वैवाहिक, वसीयत संबंधी और अनुवंशिक अधिकारिता के तहत High Court द्वारा जारी –
• दस्तावेज़ प्रस्तुत करने का नोटिस,
• गवाहों को समन,
• अन्य न्यायिक प्रक्रियाएँ (❌ ) परंतु प्रतिवादी को समन, निष्पादन रिट और उत्तरदाता को नोटिस नहीं),
वकीलों या उनके द्वारा नियुक्त व्यक्तियों या High Court द्वारा नियत किसी अन्य व्यक्ति द्वारा सेवा की जा सकती हैं।
Rule 2 – चार्टर्ड उच्च न्यायालयों के नियमों की सुरक्षा
इस अनुसूची में कुछ भी ऐसा नहीं होगा जो संहिता लागू होने के समय चार्टर्ड उच्च न्यायालय में साक्ष्य लेने, निर्णय या आदेश रिकॉर्ड करने से संबंधित पहले से लागू नियमों को सीमित करे या प्रभावित करे।
Rule 3 – कुछ नियम चार्टर्ड हाई कोर्ट पर लागू नहीं होंगे
निम्नलिखित नियम चार्टर्ड हाई कोर्ट की सामान्य या असाधारण मूल सिविल अधिकारिता पर लागू नहीं होंगे:
1. Order VII – Rule 10 और Rule 11 के क्लॉज़ (b) व (c)
2. Order X – Rule 3
3. Order XVI – Rule 2
4. Order XVIII – Rule 5, 6, 8, 9, 10, 11, 13, 14, 15 और 16 (जहाँ तक साक्ष्य लेने की विधि का संबंध है)
5. Order XX – Rule 1 से 8
6. Order XXXIII – Rule 7 (जहाँ तक मेमोरेंडम बनाने से संबंधित है)
7. Order XLI – Rule 35 (अपील क्षेत्राधिकार में)
ORDER 50 – प्रांतीय लघु वाद न्यायालय (Provincial Small Cause Courts)
निम्नलिखित प्रावधान Provincial Small Cause Courts Act, 1887, Berar Small Cause Courts Law, 1905 या भारत के ऐसे किसी भी भाग में लागू न्यायालयों पर, जो लघु वाद न्यायालय (Small Cause Court) की समकक्ष अधिकारिता का प्रयोग करते हैं, लागू नहीं होंगे:
(a) अनुसूची के वे भाग जो संबंधित हैं:
(i) उन वादों से जो Small Cause Courts की अधिकारिता से बाहर हैं, या ऐसे वादों में डिक्री के निष्पादन से।
(ii) अचल संपत्ति (Immovable Property) या साझेदारी संपत्ति में साझेदार की हिस्सेदारी पर डिक्री के निष्पादन से।
(iii) मुद्दों (Issues) के निर्धारण से।
(b) निम्नलिखित आदेश और नियम लागू नहीं होंगे:
• Order II, Rule 1 – वाद का प्रारूप (Frame of Suit)
• Order X, Rule 3 – पक्षकारों की परीक्षा का अभिलेखन
• Order XV – (Rule 4 का वह भाग छोड़कर जो तुरंत निर्णय सुनाने की बात करता है)
• Order XVIII, Rules 5 to 12 – साक्ष्य (Evidence)
• Order XLI to XLV – अपील (Appeals)
• Order XLVII, Rules 2, 3, 5, 6, 7 – पुनर्विचार (Review)
• Order LI
मुख्य बिंदु याद रखने के लिए:
Small Cause Courts पर कुछ विशेष नियम और आदेश लागू नहीं होते, विशेषकर Execution, Issues, Appeals, Evidence और Review से संबंधित।
ORDER 51 – प्रेसिडेंसी लघु वाद न्यायालय (Presidency Small Cause Courts)
जब तक विशेष रूप से निम्नलिखित में कुछ और न कहा गया हो:
• Order V – Rule 22 और 23,
• Order XXI – Rule 4 और 7,
• Order XXVI – Rule 4,
• तथा Presidency Small Cause Courts Act, 1882 के तहत,
तब तक यह अनुसूची (Schedule) कोलकाता, मद्रास और बॉम्बे में स्थापित Presidency Small Cause Courts में किसी भी वाद या कार्यवाही पर लागू नहीं होगी।
मुख्य बात याद रखने के लिए:
Presidency Small Cause Courts (कोलकाता, मद्रास, बॉम्बे) पर CPC की यह अनुसूची केवल कुछ विशेष नियमों को छोड़कर लागू नहीं होती।