Hindu Marriage Act, 1955
Act No. 25/1955
18 May 1955
धारा 1 – संक्षिप्त शीर्षक और विस्तार
(1) इस कानून का छोटा (संक्षिप्त) नाम हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 है।
(2) यह कानून इसका विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है,
यह उन हिन्दुओं पर भी लागू होता है—
- जो उन राज्यक्षेत्रों (Union Territories या राज्य) में रहते हैं जहाँ यह अधिनियम लागू है,
- और उन हिन्दुओं पर भी लागू होता है, जो उन राज्यक्षेत्रों के बाहर रहते हैं, लेकिन अधिनियम वाले क्षेत्रों से संबंध रखते हैं।
ध्यान दें:
अधिसूचना संख्या S.O. 3912(E), दिनांक 30 अक्टूबर, 2019 के अनुसार, अब यह अधिनियम केंद्र शासित प्रदेश जम्मू और कश्मीर और लद्दाख पर भी लागू होता है।
मुख्य बातें याद रखने के लिए:
- नाम: हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955
- पहले जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं था
- अब (2019 से) जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में भी लागू
- भारत के सभी हिन्दुओं पर लागू – चाहे वे अधिनियम वाले क्षेत्र में हों या बाहर
धारा 2 – अधिनियम का अनुप्रयोग
(1) यह अधिनियम किन पर लागू होता है:
(a) ऐसे व्यक्ति पर, जो किसी भी रूप या विकास में धर्म से हिन्दू हो। इसमें ये शामिल हैं:
वीरशैव
लिंगायत
ब्रह्मो समाज
प्रार्थना समाज
आर्य समाज के अनुयायी
(b) ऐसे व्यक्ति पर, जो धर्म से बौद्ध, जैन या सिख हो।
(c) उन राज्यक्षेत्रों (जिन पर यह अधिनियम लागू है) में रहने वाले किसी ऐसे व्यक्ति पर, जो धर्म से मुसलमान, ईसाई, पारसी या यहूदी नहीं है,
बशर्ते यह साबित न कर दिया जाए कि अगर यह अधिनियम न बना होता, तो ऐसा व्यक्ति हिन्दू विधि, या उस विधि के किसी रीति या प्रथा द्वारा, इस अधिनियम से जुड़ी किसी बात में शासित नहीं होता।
स्पष्टीकरण (Explanation):
नीचे दिए गए व्यक्ति, माने जाएँगे कि वे धर्म से हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिख हैं (जैसा मामला हो):
(a) कोई भी बच्चा (वैध या नाजायज), जिसके माता-पिता दोनों धर्म से हिन्दू/बौद्ध/जैन/सिख हों।
(b) कोई भी बच्चा (वैध या नाजायज), जिसके माता-पिता में से एक हिन्दू/बौद्ध/जैन/सिख है
और जिसका पालन-पोषण उसी समुदाय/परिवार/जनजाति में हुआ है, जिससे वो माता या पिता संबंधित था।
(c) कोई भी व्यक्ति जो हिन्दू, बौद्ध, जैन या सिख धर्म में परिवर्तित (convert) या पुनः परिवर्तित हुआ हो।
(2) विशेष प्रावधान:
हालाँकि उपधारा (1) में ऊपर बातें लिखी गई हैं,
बशर्ते कि यह अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 366(25) के अनुसार, अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribe) के सदस्य पर तब तक लागू नहीं होगा, जब तक कि केंद्र सरकार द्वारा राजपत्र में अधिसूचना के द्वारा कोई और आदेश न दिया जाए।
(3) “हिन्दू” शब्द का अर्थ:
इस अधिनियम में “हिन्दू” शब्द का मतलब ऐसा व्यक्ति भी होगा, जो भले ही धर्म से हिन्दू न हो,
लेकिन इस धारा में दिए गए उपबंधों (provisions) के अनुसार इस अधिनियम के तहत शासित होता हो।
परीक्षा के लिए मुख्य बिंदु याद रखें:
- यह अधिनियम हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख पर लागू होता है
- कुछ गैर-हिन्दू भी इसके तहत आ सकते हैं, अगर वे हिन्दू विधि के अनुसार शासित होते हैं
- अनुसूचित जनजाति पर तब तक लागू नहीं जब तक केंद्र सरकार अधिसूचना जारी न करे
- “हिन्दू” शब्द में परिवर्तित व्यक्ति और विशेष परिस्थितियों वाले बच्चे भी शामिल हैं
धारा 3 – परिभाषाएँ
इस अधिनियम में, जब तक कि संदर्भ से कुछ और मतलब न निकले:
(a) “प्रथा” (custom) और “रीति” (usages) से मतलब है ऐसा नियम —
जो किसी स्थानीय क्षेत्र, जनजाति, समुदाय, समूह या परिवार के हिन्दुओं में, लंबे समय से लगातार और एक जैसे तरीके से पालन किया गया हो, जिसकी वजह से उसे कानूनी ताकत (विधि का बल) मिल गया हो।
बशर्ते:
वह नियम स्पष्ट (definite) हो,
अनुचित (unreasonable) या सार्वजनिक नीति के खिलाफ (against public policy) न हो,
और अगर वह नियम केवल किसी परिवार पर लागू हो, तो वह परिवार उसका पालन बंद न कर चुका हो।
(b) “जिला न्यायालय” का मतलब है—
ऐसे क्षेत्र में, जहाँ नगर सिविल न्यायालय हो – वही न्यायालय,
अन्य क्षेत्रों में – जो प्रारंभिक अधिकारिता वाला प्रधान सिविल न्यायालय हो,
और वह कोई भी अन्य सिविल न्यायालय, जिसे राज्य सरकार ने राजपत्र अधिसूचना द्वारा,इस अधिनियम से जुड़े मामलों के लिए अधिकार दिया हो।
(c) “पूर्ण रक्त” (full blood) और “अर्ध रक्त (half blood)”:
दो लोग पूर्ण रक्त से तब माने जाते हैं, जब वे एक ही पूर्वज और एक ही पत्नी से पैदा हुए हों।
वे अर्ध रक्त से तब माने जाते हैं, जब वे एक ही पूर्वज लेकिन अलग-अलग पत्नियों से पैदा हुए हों।
(d) “गर्भाशय रक्त” (uterine blood):
जब दो व्यक्ति एक ही पूर्वजनी (माँ) से पैदा होते हैं, लेकिन उनके पिता अलग-अलग होते हैं, तो उन्हें गर्भाशय रक्त से संबंधित माना जाता है।
स्पष्टीकरण:
“पूर्वज” में पिता और “पूर्वजनी” में माता शामिल मानी जाती है।
(e) “विहित”(Prescribed):
इस अधिनियम के तहत जो नियम बनाए गए हैं, उनके अनुसार जो भी तय किया गया हो, वह “विहित” कहलाता है।
(f) “सपिंडा संबंध” (Sapinda Relationship):
(i) किसी व्यक्ति के लिए –
माँ की ओर से तीसरी पीढ़ी (सहित) तक,
पिता की ओर से पाँचवीं पीढ़ी (सहित) तक का
जो सीधा वंश (ascending line) है, वह सपिंड संबंध होता है।
हर मामले में गिनती स्वयं उस व्यक्ति से ऊपर की ओर शुरू होती है,
जिसे पहली पीढ़ी माना जाता है।
(ii) दो लोग एक-दूसरे के सपिंड तब माने जाते हैं,
यदि उनमें से कोई एक, दूसरे का सीधा पूर्वज हो,
या
यदि दोनों का कोई साझा पूर्वज हो, जो दोनों की सपिंड सीमा के अंदर आता हो।
(g) “निषिद्ध रिश्ते की डिग्री”(Degree of Prohibitated Relationship) :
दो व्यक्ति “निषिद्ध रिश्ते की डिग्री” में तब माने जाते हैं:
(i) अगर वे एक-दूसरे के पूर्वज या वंशज हैं,
(ii) या कोई एक, दूसरे के पूर्वज/वंशज की पत्नी/पति हो,
(iii) या कोई एक, दूसरे के भाई, पिता के भाई, माता के भाई, दादा के भाई की पत्नी हो,
(iv) या वे दोनों भाई-बहन, चाचा-भतीजी, चाची-भतीजे, भाई-भाई या बहन-बहन के बच्चे हों।
स्पष्टीकरण (खंड f और g के लिए):
इन रिश्तों में निम्न सब शामिल माने जाएँगे—
(i) पूर्ण रक्त, अर्ध रक्त और गर्भाशय रक्त के रिश्ते,
(ii) वैध (legal) और नाजायज (illegitimate) दोनों रिश्ते,
(iii) दत्तक (adopted) रिश्ते भी रक्त रिश्तों की तरह माने जाएँगे।
और इन संबंधों की हर शर्त को उसी हिसाब से समझा जाएगा।
स्मरण के लिए विशेष बिंदु:
- “प्रथा” = लंबी, निरंतर, एकसमान परंपरा, कानूनी ताकत मिले हो
- “सपिंड” = माँ से 3 पीढ़ी, पिता से 5 पीढ़ी
- “निषिद्ध रिश्ते” = भाई-बहन, चाचा-भतीजी, आदि
- रक्त और दत्तक रिश्ते दोनों मान्य हैं
- जिला न्यायालय की परिभाषा विस्तृत है
- पूर्वज = पिता, पूर्वजनी = माता
धारा 4 – अधिनियम का अध्यारोही प्रभाव (Overriding effect of Act)
इस अधिनियम में अगर कहीं कोई बात साफ तौर पर अलग न कही गई हो, तो:
(a) इस अधिनियम के लागू होने से पहले जो हिंदू विधि का मूल नियम, या उसका कोई व्याख्या (interpretation), या उस विधि के हिस्से के रूप में कोई प्रथा (custom) या रीति (usage) चल रही थी — अब वह उस विषय में लागू नहीं रहेगी, जिसके लिए इस अधिनियम में प्रावधान (provision) किया गया है।
(b) इस अधिनियम के लागू होने से पहले जो कोई अन्य कानून लागू था —
वह भी उतना ही हिस्सा लागू नहीं रहेगा, जितना कि वह इस अधिनियम के किसी प्रावधान से टकराता हो (असंगत हो)।
स्मरण के लिए मुख्य बातें:
- यदि कोई पुराना नियम, प्रथा या कानून इस अधिनियम से टकराता है, तो हिंदू विवाह अधिनियम का प्रावधान ही लागू होगा।
- यह अधिनियम पहले से मौजूद सभी पुराने नियमों पर भारी (override) होता है।
धारा 5 – हिन्दू विवाह के लिए शर्तें (Conditions for a Hindu Marriage)
किसी भी दो हिंदुओं के बीच विवाह तभी माना जाएगा जब ये सभी शर्तें पूरी हों:
(i) विवाह के समय किसी भी पक्ष (लड़का या लड़की) का कोई जीवनसाथी जीवित नहीं होना चाहिए।
(ii) विवाह के समय कोई भी पक्ष मानसिक रूप से ऐसा नहीं होना चाहिए कि वैध सहमति (valid consent) न दे सके। इसमें तीन स्थितियाँ आती हैं:-
- (a) अगर वह व्यक्ति मानसिक विकृति (unsoundness of mind) के कारण वैध सहमति नहीं दे सकता;
- (b) अगर वह सहमति तो दे सकता है, लेकिन ऐसा मानसिक विकार है जिससे वह विवाह और संतानोत्पत्ति (procreation) के लिए अयोग्य है;
- (c) यदि उसे बार-बार पागलपन (insanity) के दौरे पड़ते हैं।
(iii) विवाह के समय आयु :-
- वर (लड़का) की आयु कम से कम 21 वर्ष होनी चाहिए।
- वधू (लड़की) की आयु कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए।
(iv) पक्षकार निषिद्ध रिश्ते की डिग्री (degree of prohibited relationship) के अंतर्गत नहीं आने चाहिए,
जब तक कि उनके समाज या जाति की परंपरा (custom) ऐसे विवाह की अनुमति न देती हो।
(v) पक्षकार आपस में सपिण्ड (sapinda) नहीं होने चाहिए,
जब तक कि उनके समाज या जाति की परंपरा ऐसे विवाह को मान्यता न देती हो।
स्मरण के लिए मुख्य बातें (One-liners for revision):
- दोनों हिंदू होने चाहिए।
- किसी का और विवाह नहीं चल रहा होना चाहिए।
- मानसिक रूप से विवाह लायक होना चाहिए।
- लड़के की उम्र कम से कम 21, लड़की की 18 हो।
- न तो निषिद्ध रिश्ते में हों, न ही सपिण्ड, जब तक परंपरा इजाज़त न दे।
धारा 6 – निकाल दी गई (Section 6 – [Repealed])
यह धारा पहले “विवाह में संरक्षकता” (Guardianship in marriage) से संबंधित थी।
लेकिन इसे बाल विवाह प्रतिषेध (संशोधन) अधिनियम, 1978 (1978 का अधिनियम संख्या 2) की धारा 6 और अनुसूची द्वारा
दिनांक 1 अक्टूबर 1978 से हटा दिया गया (लोप कर दिया गया)।
स्मरण के लिए:
- धारा 6 अब हटा दी गई है।
- यह पहले विवाह में संरक्षक (guardian) की भूमिका से संबंधित थी।
- बाल विवाह के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने के तहत इसे हटाया गया।
धारा 7 – हिन्दू विवाह के समारोह (Section 7 – Ceremonies for a Hindu Marriage)
(1) हिंदू विवाह किसी भी पक्ष (लड़का या लड़की) के परंपरागत संस्कार (traditional rites) और विवाह समारोहों (ceremonies) के अनुसार संपन्न किया जा सकता है।
मतलब: विवाह के लिए किसी एक विशेष विधि की जरूरत नहीं है, हर व्यक्ति अपनी जाति/समाज की परंपरा के अनुसार विवाह कर सकता है।
(2) जहाँ विवाह में “सप्तपदी” होती है —
(यानी, वर और वधू पवित्र अग्नि (sacred fire) के सामने सात कदम साथ चलते हैं) —
तो सातवाँ कदम पूरा होते ही वह विवाह:
पूर्ण (complete) और
बाध्यकारी (binding) हो जाता है।
स्मरण के लिए मुख्य बिंदु:
- विवाह पद्धति = पक्षकार की परंपरा के अनुसार।
- अगर सप्तपदी की रस्म हो = सातवाँ कदम = विवाह पूरा और वैध।
धारा 8 – हिन्दू विवाहों का पंजीकरण (Section 8 – Registration of Hindu Marriages)
(1) हिन्दू विवाहों को सिद्ध (prove) करने में सुविधा के लिए, राज्य सरकार नियम बना सकती है, जिसमें यह प्रावधान होगा कि:
विवाह करने वाले पक्षकार (पति-पत्नी) अपने विवाह की जानकारी/विशेषताएँ (details) निर्धारित रीति (prescribed manner) और निर्धारित शर्तों के अधीन
हिन्दू विवाह रजिस्टर में दर्ज करा सकेंगे।
(2) उपरोक्त (1) के होते हुए भी, यदि राज्य सरकार को यह उचित लगे,
तो वह ये नियम बना सकती है कि:
विवाह की जानकारी दर्ज कराना अनिवार्य होगा —
राज्य में या उसके किसी हिस्से में,
सभी विवाहों के लिए या
सिर्फ कुछ निर्दिष्ट (specified) मामलों के लिए।
और यदि किसी व्यक्ति ने उस नियम का उल्लंघन किया, तो वह ₹25 तक के जुर्माने से दंडनीय होगा।
(3) इस धारा के अंतर्गत बनाए गए सभी नियम
राज्य विधान-मंडल के समक्ष रखे जाएंगे,
और ऐसा यथाशीघ्र (as soon as possible) किया जाएगा।
(4) हिन्दू विवाह रजिस्टर:
सभी उचित समयों पर निरीक्षण (inspection) के लिए खुला रहेगा।
इसमें दर्ज बयान साक्ष्य के रूप में मान्य (admissible as evidence) होंगे।
आवेदन करने और फीस देने पर रजिस्ट्रार द्वारा प्रमाणित नकल (certified copy) दी जाएगी।
(5) इस धारा में कुछ भी हो, अगर कोई विवाह रजिस्टर में दर्ज नहीं हुआ हो,
तो भी उस विवाह की वैधता (validity) पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
परीक्षा के लिए स्मरण बिंदु:
- पंजीकरण नियम बनाना राज्य सरकार की शक्ति।
- कुछ मामलों में इसे अनिवार्य भी किया जा सकता है।
- उल्लंघन पर ₹25 तक जुर्माना।
- रजिस्टर का विवरण प्रमाण के रूप में मान्य।
- रजिस्टर में प्रविष्ट न हो = विवाह फिर भी वैध रहेगा।
धारा 9 – वैवाहिक अधिकार की पुनर्स्थापना (Section 9 – Restitution of Conjugal Rights)
मुख्य प्रावधान:
जब पति या पत्नी में से कोई एक, बिना किसी उचित कारण के दूसरे जीवनसाथी से अलग हो गया हो,
तब दूसरा पक्ष (जो व्यथित यानी दुखी है)
जिला न्यायालय में याचिका (petition) दायर कर सकता है
दाम्पत्य अधिकारों की पुनः प्राप्ति के लिए।
अगर न्यायालय को संतोष हो जाए कि—
याचिका में कही गई बातें सत्य हैं, और
याचिका को स्वीकार न करने का कोई वैध कारण नहीं है,
तब न्यायालय दाम्पत्य अधिकारों की पुनर्स्थापना का आदेश दे सकता है।
स्पष्टीकरण:
यदि यह विवाद उत्पन्न होता है कि
“क्या अलग होने का कोई उचित कारण था?”,
तो उस व्यक्ति पर यह भार (burden of proof) होगा जिसने साथी को छोड़कर साथ छोड़ दिया है -कि वह यह सिद्ध करे कि उसका कारण उचित था।
परीक्षा के लिए स्मरण बिंदु:
- अलगाव बिना उचित कारण = दाम्पत्य अधिकार का उल्लंघन।
- पीड़ित पक्ष जिला न्यायालय में याचिका दायर कर सकता है।
- न्यायालय सत्यता और वैधता देखकर पुनर्स्थापना का आदेश देगा।
- उचित कारण साबित करने की जिम्मेदारी उस व्यक्ति पर है जो अलग हुआ।
धारा 10 – न्यायिक पृथक्करण (Section 10 – Judicial Separation)
(1) याचिका का अधिकार:
विवाह के किसी भी पक्षकार (पति या पत्नी) को चाहे विवाह इस अधिनियम के पहले हुआ हो या बाद में,
धारा 13 की उपधारा (1) में दिए गए किसी भी आधार पर,
और यदि वह पत्नी है, तो धारा 13(2) में दिए गए किसी भी अतिरिक्त आधार पर, न्यायिक पृथक्करण (Judicial Separation) के लिए याचिका दायर करने का अधिकार है। यह वे वही आधार हैं जिन पर तलाक की याचिका दी जा सकती है।
(2) न्यायिक पृथक्करण का प्रभाव:
जब न्यायालय द्वारा न्यायिक पृथक्करण (Judicial Separation) का आदेश पारित कर दिया जाता है, तब याचिकाकर्ता को अब प्रत्यर्थी (दूसरे पक्ष) के साथ सहवास करना अनिवार्य नहीं होता।अर्थात पति या पत्नी को अब एक-दूसरे के साथ रहने या दाम्पत्य संबंध निभाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
किन्तु,
यदि कोई भी पक्ष न्यायालय में याचिका देकर यह प्रार्थना करे कि आदेश रद्द किया जाए,और न्यायालय को इस याचिका की बातें सत्य प्रतीत हों, और न्यायालय को यह न्यायसंगत (just) तथा युक्तिसंगत (reasonable) लगे, तो न्यायालय उस न्यायिक पृथक्करण के आदेश को रद्द कर सकता है।
परीक्षा के लिए विशेष बिंदु:
- न्यायिक पृथक्करण = तलाक नहीं, केवल दाम्पत्य संबंधों से स्वतंत्रता।
- सहवास की बाध्यता समाप्त हो जाती है।
- उचित याचिका आने पर आदेश को न्यायालय रद्द भी कर सकता है।
- वही आधार जो तलाक के लिए हैं, न्यायिक पृथक्करण के लिए भी लागू हैं।
धारा 11 – अमान्य विवाह (Section 11 – Void Marriages)
यदि इस अधिनियम के प्रारंभ के बाद कोई विवाह किया गया है, और
वह विवाह धारा 5 में दी गई निम्नलिखित शर्तों में से किसी एक का उल्लंघन करता है, तो: ह विवाह कानून की दृष्टि में अकृत (अवैध) और शून्य (Null and Void) होगा, और किसी भी पक्ष (पति या पत्नी) द्वारा दूसरे पक्ष के विरुद्ध याचिका दाखिल करके, न्यायालय से “अमान्यता की डिक्री” (Decree of Nullity) प्राप्त की जा सकती है।
किन शर्तों का उल्लंघन हो तो विवाह शून्य माना जाएगा?
धारा 5 की ये तीन शर्तें यदि टूटी हों:
(i) विवाह के समय किसी भी पक्षकार का पहले से कोई जीवनसाथी जीवित है।
(iv) पति-पत्नी निषिद्ध रिश्ते की डिग्री में हैं, और ऐसी प्रथा नहीं है जो इसकी अनुमति देती हो।
(v) पति-पत्नी सपिण्ड संबंध में हैं, और ऐसी प्रथा नहीं है जो इसकी अनुमति देती हो।
परीक्षा के लिए खास बिंदु:
- यह विवाह स्वतः (automatically) शून्य (void ab initio) होता है।
- न्यायालय की डिक्री केवल घोषणा (declaration) होती है, वह विवाह को शून्य नहीं बनाती, बल्कि शून्यता की पुष्टि करती है।
- इसमें पति या पत्नी में से कोई भी पक्ष अदालत से nullity की डिक्री मांग सकता है।
- इसका तत्काल प्रभाव यह होता है कि ऐसा विवाह हुआ ही नहीं माना जाएगा।
धारा 12 – शून्यकरणीय विवाह (Section 12 – Voidable Marriages)
किसी विवाह को, यदि वह इस अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में हुआ हो, निम्नलिखित आधारों पर “अमान्यता (nullity)” की डिक्री द्वारा रद्द (शून्यकरणीय) किया जा सकता है:
(1) शून्यकरणीय विवाह के आधार :-
निम्नलिखित परिस्थितियों में विवाह रद्द किया जा सकता है:
(a) विवाह प्रत्यर्थी (opposite party) की अशक्तता (impotency) के कारण पूरा नहीं हुआ है।
(b) विवाह धारा 5(ii) में दी गई शर्तों का उल्लंघन करता है (यानी मानसिक विकार, सहमति देने में असमर्थता, पागलपन)।
(c) विवाह में याचिकाकर्ता की सहमति या संरक्षक की सहमति (यदि आवश्यक थी) बल या धोखाधड़ी से प्राप्त की गई थी। (धोखाधड़ी में समारोह की प्रकृति या प्रतिवादी से जुड़े महत्वपूर्ण तथ्य छिपाना शामिल है)
(d) विवाह के समय प्रतिवादी, याचिकाकर्ता के अलावा किसी और से गर्भवती थी।
(2) कुछ शर्तें जिनके तहत याचिका रद्द हो सकती है –
(a) यदि विवाह बल या धोखाधड़ी से हुआ हो (खंड “c”) –
तब याचिका तभी स्वीकार की जाएगी जब:
(i) याचिका बल खत्म होने या धोखाधड़ी का पता चलने के एक साल के भीतर दायर की गई हो।
(ii) याचिकाकर्ता ने धोखाधड़ी या बल जानने के बाद भी प्रतिवादी के साथ पति-पत्नी के रूप में रहना जारी न रखा हो।
(b) यदि प्रतिवादी किसी और से गर्भवती थी (खंड “d”) –
तब याचिका तभी स्वीकार की जाएगी जब:
(i) याचिकाकर्ता विवाह के समय गर्भावस्था की जानकारी से अनभिज्ञ था।
(ii) विवाह अगर अधिनियम लागू होने से पहले हुआ हो, तो याचिका एक वर्ष के भीतर दाखिल की जाए।
अगर अधिनियम लागू होने के बाद विवाह हुआ हो, तो विवाह की तारीख से एक साल के भीतर याचिका दाखिल की जाए।
(iii) याचिकाकर्ता ने गर्भावस्था की जानकारी मिलने के बाद संभोग नहीं किया हो।
याद रखने योग्य बातें:
- यह विवाह शून्य नहीं, बल्कि शून्यकरणीय है यानी अदालत की डिक्री के बाद रद्द होता है।
- जब तक डिक्री नहीं मिलती, यह विवाह वैध (valid) माना जाता है।
- याचिकाकर्ता को सावधानीपूर्वक समयसीमा का पालन करना होता है।
धारा 13. तलाक
(1) इस अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में हुआ कोई भी विवाह, पति या पत्नी में से कोई एक, याचिका द्वारा, तलाक की डिक्री मांग सकता है यदि दूसरा पक्ष—
(i) विवाह के बाद किसी और के साथ स्वेच्छा से शारीरिक संबंध करता है; या
(ii) विवाह के बाद याचिकाकर्ता के साथ क्रूरता करता है; या
(iii) याचिका दाखिल करने से पहले लगातार कम से कम दो वर्षों के लिए याचिकाकर्ता को छोड़ चुका है; या
(iv) किसी अन्य धर्म को अपना चुका है और अब हिन्दू नहीं है; या
(v) किसी असाध्य मानसिक रोग से पीड़ित है या लगातार या रुक-रुक कर ऐसे मानसिक विकार से ग्रस्त है कि याचिकाकर्ता से यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह उसके साथ रहे।
स्पष्टीकरण:
(a) “मानसिक विकार” में मानसिक बीमारी, मस्तिष्क का विकास रुकना, मनोरोगी विकार, या अन्य मानसिक असामान्यता आती है और इसमें सिज़ोफ्रेनिया भी शामिल है।
(b) “मनोविकृति विकार” का अर्थ है – ऐसा मानसिक दोष जिससे दूसरा पक्ष अत्यधिक आक्रामक या बहुत गैर-जिम्मेदार आचरण करता है।
(vi) संक्रामक यौन रोग से पीड़ित है; या
(vii) किसी धार्मिक पंथ में शामिल होकर सन्यास ले चुका है; या
(viii) यदि जीवित होता तो सामान्य रूप से जिन लोगों को उसकी जानकारी होनी चाहिए थी, उन्होंने कम से कम सात वर्षों तक उसकी कोई खबर नहीं सुनी होती।
स्पष्टीकरण:
“अभित्याग” (desetion) का अर्थ है – बिना उचित कारण के और याचिकाकर्ता की सहमति के बिना उसे छोड़ देना। इसमें जानबूझकर उपेक्षा (neglect) भी शामिल है।
(1A) विवाह का कोई भी पक्षकार याचिका दे सकता है:
- (i) यदि उनके बीच न्यायिक पृथक्करण की डिक्री दिए जाने के बाद एक साल या उससे ज्यादा समय तक दोनों फिर से साथ नहीं रहे हों; या
- (ii) यदि दाम्पत्य अधिकार पुनर्स्थापना की डिक्री के बाद एक साल से ज्यादा समय तक पति-पत्नी का पुनर्मिलन नहीं हुआ हो।
(2) पत्नी द्वारा तलाक की अतिरिक्त विशेष आधार पर याचिका:
- (i) यदि पति ने अधिनियम के लागू होने से पहले दूसरी शादी कर ली थी या उसकी दूसरी पत्नी उस समय जीवित थी जब याचिकाकर्ता से विवाह हुआ —
बशर्ते कि याचिका करते समय वह दूसरी पत्नी जीवित हो; - (ii) यदि पति विवाह के बाद बलात्कार, गुदामैथुन या पशुगमन (जानवरों के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध) का दोषी हो;
- (iii) यदि पति के खिलाफ न्यायालय ने भरण-पोषण (maintenance) देने का आदेश पारित किया हो और उस आदेश के बाद एक वर्ष या उससे अधिक समय तक पति-पत्नी साथ न रहे हों;
- (iv) यदि उसका विवाह उसकी 15 वर्ष की आयु से पहले हुआ था और उसने 18 वर्ष की आयु से पहले उस विवाह को त्याग दिया।
स्पष्टीकरण: यह उपखंड विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के पहले या बाद में हुए विवाहों पर भी लागू होगा।
धारा 13A. विवाह विच्छेद की कार्यवाही में वैकल्पिक अनुतोष।
- इस अधिनियम के अंतर्गत किसी कार्यवाही में,
- जिसमें विवाह विच्छेद (तलाक) की डिक्री के लिए याचिका दी गई हो,
- सिवाय उन मामलों के, जहां याचिका धारा 13 की उपधारा (1) के इन आधारों पर आधारित हो:
- (ii) – दूसरा पक्ष हिन्दू धर्म छोड़कर किसी अन्य धर्म में परिवर्तित हो गया हो।
- (vi) – दूसरा पक्ष किसी धार्मिक संप्रदाय में प्रवेश करके संसार का त्याग कर चुका हो।
- (vii) – दूसरा पक्ष सात वर्ष या अधिक समय से जीवित नहीं सुना गया हो।
- ऐसे मामलों को छोड़कर, यदि न्यायालय को लगता है कि मामला ऐसा है, तो वह तलाक की डिक्री की जगह, न्यायिक पृथक्करण (judicial separation) की डिक्री भी दे सकता है।
- यह वैकल्पिक राहत न्यायालय के विवेक (discretion) पर निर्भर करती है।
धारा 13B – आपसी सहमति से तलाक
(1) याचिका की पात्रता और शर्तें:
- इस अधिनियम के प्रावधानों के अधीन रहते हुए,
- विवाह के दोनों पक्षकार (पति-पत्नी) द्वारा,
- चाहे ऐसा विवाह विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के प्रारंभ से पहले या बाद में हुआ हो,
- तलाक की डिक्री द्वारा विवाह विच्छेद के लिए याचिका जिला न्यायालय में प्रस्तुत की जा सकती है –
इस आधार पर कि –- वे एक वर्ष या उससे अधिक समय से अलग-अलग रह रहे हैं।
- वे एक साथ नहीं रह पा रहे हैं।
- उन्होंने आपसी सहमति से यह व्यक्त किया है कि विवाह विच्छेद कर दिया जाना चाहिए।
(2) डिक्री पारित करने की प्रक्रिया:
- उपधारा (1) में याचिका दायर करने की तारीख से 6 महीने पहले नहीं और
- 18 महीने के बाद नहीं,
- यदि दोनों पक्षकार मिलकर आवेदन करते हैं,
- और इस बीच याचिका वापस नहीं ली गई है,
- तो न्यायालय:
- दोनों पक्षकारों को सुनने के बाद,
- और जांच करने के बाद (जैसी वह ठीक समझे),
- यदि न्यायालय को यह समाधान हो जाए कि –
✔ विवाह अनुष्ठापित (solemnized) हुआ था,
✔ और याचिका में किए गए कथन सत्य हैं,
- तब न्यायालय,
- विवाह को डिक्री की तारीख से विघटित घोषित करते हुए,
- तलाक की डिक्री पारित करेगा।
धारा 14 – विवाह के एक वर्ष के भीतर तलाक की याचिका नहीं
(1) याचिका पर विचार की समय सीमा:
- इस अधिनियम में कुछ भी होने पर भी,
- कोई भी न्यायालय तलाक की डिक्री से विवाह-विच्छेद के लिए याचिका पर तब तक विचार नहीं करेगा,
- जब तक कि याचिका प्रस्तुत करने की तारीख से विवाह की तारीख से एक वर्ष पूरा न हो गया हो।
बशर्ते (Proviso) :
- न्यायालय, यदि उसके समक्ष आवेदन किया जाए,
- और वह उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए नियमों के अनुसार हो,
- तो वह अनुमति दे सकता है कि एक वर्ष पूरा होने से पहले तलाक की याचिका प्रस्तुत की जाए, यदि न्यायालय को यह लगे कि:
- याचिकाकर्ता के लिए मामला असाधारण कठिनाई का है, या
- प्रत्यर्थी की ओर से असाधारण चरित्रहीनता (extreme moral depravity) हुई है।
परंतु ध्यान दें:
- यदि याचिका की सुनवाई के समय न्यायालय को प्रतीत हो कि –
- याचिकाकर्ता ने मामले की प्रकृति को मिथ्या रूप में प्रस्तुत किया, या
- सच्चाई छिपाकर अनुमति प्राप्त की,
- तब न्यायालय:
या तो डिक्री इस शर्त पर पारित कर सकता है कि वह विवाह की तारीख से एक वर्ष की समाप्ति के बाद ही प्रभावी होगी,
या, बिना किसी प्रतिकूल प्रभाव के, याचिका को खारिज कर सकता है –- भले ही बाद में उसी या समान तथ्यों पर याचिका लाई जाए एक वर्ष की समाप्ति के बाद।
(2) आवेदन का निपटारा करते समय न्यायालय का ध्यान:
यदि विवाह की तारीख से एक वर्ष पूरा होने से पहले तलाक की अनुमति मांगी जाती है, तो न्यायालय निम्न बातों का ध्यान रखेगा:
- विवाह से उत्पन्न संतान के हित।
- क्या पक्षकारों के बीच सुलह (reconciliation) की उचित संभावना है, विशेषकर एक वर्ष की अवधि पूरी होने से पहले।
धारा 15 – तलाकशुदा व्यक्ति कब पुनः विवाह कर सकते हैं
- जब विवाह तलाक की डिक्री द्वारा समाप्त हो गया हो, और या तो उस डिक्री के विरुद्ध अपील करने का कोई अधिकार न हो या यदि अपील करने का अधिकार हो, तो:
- अपील प्रस्तुत किए बिना ही अपील करने की समय-सीमा समाप्त हो गई हो।
- या फिर अपील प्रस्तुत की गई हो परंतु खारिज कर दी गई हो।
- तो, विवाह के किसी भी पक्षकार के लिए फिर से विवाह करना वैध (legal) होगा।
धारा 16 – शून्य और शून्यकरणीय विवाहों की संतानों की वैधता
(1) भले ही कोई विवाह धारा 11 के अधीन शून्य (null and void) और अकृत (not valid in law) हो, फिर भी उस विवाह से उत्पन्न कोई भी संतान, जो उस विवाह के वैध होने पर वैध मानी जाती, वैध मानी जाएगी, चाहे वह संतान विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 (1976 का 68) के लागू होने से पहले या बाद में पैदा हुई हो, और चाहे उस विवाह के संबंध में अकृतता (nullity) की डिक्री (court order) दी गई हो या नहीं, और चाहे वह विवाह इस अधिनियम के अंतर्गत याचिका के अलावा किसी अन्य आधार पर शून्य घोषित किया गया हो या नहीं।
(2) जब कोई विवाह जो धारा 12 के अधीन शून्यकरणीय (voidable) है, उसके बारे में अकृतता की डिक्री (nullity decree) दी जाती है, तब डिक्री के पहले उत्पन्न (begotten) या गर्भ में रही हुई संतान, यदि डिक्री की तारीख को वह विवाह बातिल (null) न होकर विघटित (dissolved) माना गया होता, तो वह संतान विवाह के पक्षकारों की वैध संतान मानी जाती, और इसलिए अकृतता की डिक्री के बावजूद भी वह वैध संतान मानी जाएगी।
(3) उपधारा (1) और (2) में जो भी कहा गया है, उसका यह मतलब नहीं माना जाएगा कि कोई भी ऐसी संतान जो—
(a) अकृत और शून्य विवाह से पैदा हुई हो, या
(b) जिसे धारा 12 के अधीन अकृतता की डिक्री के तहत अवैध घोषित किया गया हो—
वह माता-पिता से अलग किसी अन्य व्यक्ति की संपत्ति में या उसके खिलाफ कोई अधिकार प्राप्त कर सकती है। यानी, अगर यह अधिनियम बना ही न होता, और वह संतान अपने माता-पिता की वैध संतान न मानी जाती, तो वह ऐसे किसी अधिकार को न तो रख सकती थी और न अर्जित कर सकती थी।
याद रखने का सारांश (Mnemonic):
“भले विवाह शून्य हो, पर संतान वैध है — पर वैधता बस माता-पिता तक सीमित है, और किसी और की संपत्ति पर हक नहीं देती।”
धारा 17 – द्विविवाह का दण्ड (Bigamy)
इस अधिनियम के लागू होने के बाद, यदि दो हिन्दुओं के बीच कोई विवाह किया गया हो, तो वह विवाह शून्य (null and void) होगा यदि उस विवाह की तारीख पर दोनों पक्षों में से किसी एक का पति या पत्नी जीवित थे।
और इसलिए, ऐसी स्थिति में भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (1860 का 45) की धारा 494 (पति या पत्नी की जीवित अवस्था में पुनर्विवाह) और धारा 495 (पिछले विवाह को छिपाकर पुनर्विवाह) के प्रावधान (उपबंध) लागू होंगे।
याद रखने का आसान सारांश:
“एक पति या पत्नी के जीवित रहते दूसरा विवाह किया, तो वह शून्य होगा, और IPC की धारा 494 व 495 के अनुसार अपराध माना जाएगा।”
धारा 18 – हिन्दू विवाह के लिए कुछ अन्य शर्तों के उल्लंघन के लिए दण्ड
हर वह व्यक्ति, जो इस अधिनियम के अंतर्गत अपनी शादी ऐसी शर्तों के उल्लंघन में करता है जो धारा 5 के खंड (iii), (iv), और (v) में लिखी गई हैं, वह दंडनीय होगा।
अब इस दण्ड का विवरण इस प्रकार है:
(a) यदि धारा 5 के खंड (iii) — यानी न्यूनतम आयु की शर्त — का उल्लंघन किया गया हो, तो कठोर कारावास दिया जा सकता है — जो दो वर्ष तक का हो सकता है, या जुर्माना, जो एक लाख रुपए तक का हो सकता है, या दोनों।
(b) यदि धारा 5 के खंड (iv) — निषिद्ध रिश्तों में विवाह या
खंड (v) — सापिंडा रिश्तों में विवाह किया गया हो,
तो साधारण कारावास, जो एक माह तक का हो सकता है, या जुर्माना, जो एक हजार रुपए तक हो सकता है, या दोनों।
याद रखने का आसान तरीका (Revision Tip):
- उम्र की शर्त तोड़ी → सजा 2 साल या 1 लाख जुर्माना या दोनों।
- निषिद्ध रिश्तों में या सापिंडा रिश्तों में विवाह का प्रतिबंधन तोडा → सजा 1 महीना या ₹1000 जुर्माना या दोनों।
धारा 19 – वह न्यायालय जिसमें याचिका प्रस्तुत की जाएगी
इस अधिनियम के अंतर्गत हर याचिका उस जिला न्यायालय में प्रस्तुत की जाएगी,
जिसकी स्थानीय सीमाओं के भीतर मामूली (ordinary) आरंभिक सिविल अधिकारिता (original civil jurisdiction) हो:
(i) जहां विवाह सम्पन्न हुआ हो; या
(ii) जहां याचिका प्रस्तुत करने के समय प्रतिवादी (Respondent) निवास करता हो; या
(iii) जहां विवाह के पक्षकार अंतिम बार एक साथ रहते थे; या
(iii-a) यदि पत्नी याचिकाकर्ता (Petitioner) है, तो वह याचिका प्रस्तुत करने की तारीख को जहां निवास कर रही है; या
(iv) जहां याचिकाकर्ता याचिका की प्रस्तुति के समय निवास कर रहा हो,
ऐसे मामले में जहां –
- प्रत्यर्थी (Respondent) उस समय उन राज्यक्षेत्रों (territories) के बाहर निवास कर रहा हो जिन पर यह अधिनियम लागू होता है,
या - प्रत्यर्थी के जीवित होने के बारे में उन व्यक्तियों ने सात वर्ष या उससे अधिक समय से कुछ नहीं सुना हो, जिन्होंने स्वाभाविक रूप से सुना होता अगर वह जीवित होता।
Revision tip (स्मरण युक्ति):
- जहां शादी हुई
- जहां प्रतिवादी रह रहा है
- जहां दोनों साथ में आखिरी बार रहे
- जहां पत्नी रह रही है (यदि वह याचिकाकर्ता है)
- जहां याचिकाकर्ता रह रहा हो + प्रतिवादी बाहर है या 7 साल से लापता है
धारा 20 – याचिकाओं की विषय-वस्तु और सत्यापन
(1) इस अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तुत हर याचिका में, मामले की प्रकृति (nature of the case) के अनुसार, उन सभी तथ्यों का स्पष्ट रूप से उल्लेख (clearly state) किया जाएगा, जिन पर अनुतोष (relief) का दावा आधारित है।
और, धारा 11 के अधीन याचिका को छोड़कर, यह भी स्पष्ट रूप से लिखा जाएगा
कि याचिकाकर्ता (petitioner) और विवाह के दूसरे पक्षकार (other party) के बीच
कोई सांठगांठ (collusion / मिलीभगत) नहीं है।
(2) इस अधिनियम के अंतर्गत हर याचिका में जो भी कथन दिए गए हैं, वे याचिकाकर्ता द्वारा या किसी अन्य सक्षम व्यक्ति (competent person) द्वारा वादपत्रों (pleadings) के सत्यापन (verification) के लिए कानून द्वारा अपेक्षित विधि (as per law) से सत्यापित (verified) किए जाएंगे।
और,
वे कथन सुनवाई के समय साक्ष्य (evidence) के रूप में उपयोग किए जा सकेंगे।
Revision Tips (स्मरण युक्तियाँ):
- याचिका में तथ्यों का स्पष्ट विवरण होना चाहिए।
- धारा 11 छोड़कर, यह जरूर लिखा जाए कि सांठगांठ नहीं है।
- कानूनी रूप से सत्यापन अनिवार्य है।
- ये कथन सुनवाई में साक्ष्य की तरह प्रयोग हो सकते हैं।
धारा 21 – 1908 के अधिनियम 5 का अनुप्रयोग
इस अधिनियम में दिए गए अन्य उपबन्धों (other provisions) और उन नियमों (rules) के अधीन रहते हुए जो उच्च न्यायालय इस उद्देश्य (for this purpose) के लिए बनाए,
इस अधिनियम के अंतर्गत सभी कार्यवाहियाँ (all proceedings), जहाँ तक संभव हो सके (as far as possible), सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (Civil Procedure Code, 1908) द्वारा नियमित (regulated) की जाएँगी।
Revision Key Points (स्मरण के बिंदु):
- कार्यवाहियाँ होंगी CPC, 1908 के अनुसार।
- लेकिन उच्च न्यायालय के बनाए नियमों के अधीन।
- और अधिनियम में दिए अन्य उपबंधों के अधीन भी।
धारा 21A – कुछ मामलों में याचिकाओं को अन्तरित (ट्रान्सफर) करने की शक्ति
(1) जहाँ—
(a) इस अधिनियम के अधीन कोई याचिका विवाह के किसी एक पक्षकार द्वारा ऐसे जिला न्यायालय में प्रस्तुत की गई है जो सक्षम है, और जिसमें धारा 10 के तहत न्यायिक पृथक्करण या धारा 13 के तहत विवाह-विच्छेद (divorce) की डिक्री की प्रार्थना की गई हो, और
(b) इसके बाद विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा इस अधिनियम के तहत एक अन्य याचिका दी गई हो, जिसमें किसी भी आधार पर धारा 10 या धारा 13 के तहत डिक्री की प्रार्थना हो –
-
- चाहे वह उसी जिला न्यायालय में हो या
- किसी भिन्न जिला न्यायालय में हो,
- उसी राज्य में हो या
- किसी अन्य राज्य में हो,
तब याचिकाओं पर उपधारा (2) में बताए गए तरीके से कार्रवाई की जाएगी।
(2) ऐसे मामले में जहाँ उपधारा (1) लागू होती है:
(a) यदि याचिकाएँ एक ही जिला न्यायालय में प्रस्तुत की गई हैं, तो दोनों याचिकाओं पर एक साथ विचारण और सुनवाई उसी न्यायालय द्वारा की जाएगी।
(b) यदि याचिकाएँ विभिन्न जिला न्यायालयों में प्रस्तुत की गई हैं, तो बाद में प्रस्तुत याचिका, उस जिला न्यायालय को स्थानांतरित कर दी जाएगी,
जिसमें पहली याचिका प्रस्तुत की गई थी,
और दोनों याचिकाओं की सुनवाई और निपटान एक साथ उसी न्यायालय में होगा,
जहाँ पहली याचिका लंबित है।
(3) जहाँ उपधारा (2)(b) लागू होती है:
- वहाँ जो न्यायालय या सरकार CPC, 1908 (1908 का 5) के अधीन किसी वाद या कार्यवाही को एक जिला न्यायालय से दूसरे में स्थानांतरित करने के लिए सक्षम है,
वह ऐसे मामले में बाद की याचिका को स्थानांतरित करने के लिए अपनी शक्ति का प्रयोग इस प्रकार करेगी
मानो उसे सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन ऐसा करने का अधिकार हो।
Revision Key Points (स्मरण के लिए):
- दो पक्षकारों की याचिकाएं यदि एक ही विवाह पर हों तो एक जगह पर सुनवाई होनी चाहिए।
- बाद की याचिका पहली वाली याचिका वाले कोर्ट में भेज दी जाती है।
- स्थानांतरण की प्रक्रिया CPC की शक्तियों की तरह ही लागू होती है।
धारा 21B – अधिनियम के अंतर्गत याचिकाओं के परीक्षण और निपटान से संबंधित विशेष प्रावधान
(1) इस अधिनियम के तहत किसी याचिका का विचारण (hearing), जहाँ तक उस विचारण के संबंध में न्याय के हित में उचित हो,
उसे समाप्ति तक प्रतिदिन (day-to-day) जारी रखा जाएगा,
जब तक कि न्यायालय को कुछ लिखित कारणों (recorded reasons) से यह आवश्यक न लगे कि विचारण को अगले दिन से आगे स्थगित (adjourn) करना जरूरी है।
(2) इस अधिनियम के अधीन हर याचिका पर विचारण जितना जल्दी हो सके, उतनी जल्दी किया जाएगा,
और यह प्रयास किया जाएगा कि प्रतिवादी को नोटिस तामील (service of notice) की तारीख से छह माह के भीतर विचारण पूरा हो जाए।
(3) इस अधिनियम के अधीन हर अपील की सुनवाई जितनी जल्दी संभव हो, उतनी जल्दी की जाएगी,
और यह प्रयास होगा कि
अपील की सूचना प्रतिवादी को दिए जाने की तारीख से तीन माह के भीतर सुनवाई समाप्त कर दी जाए।
Revision Notes (याद करने के लिए मुख्य बिंदु):
- याचिकाओं का दिन-प्रतिदिन सुनवाई जब तक निपटा न दिया जाए।
- 6 महीने के भीतर याचिका का विचारण समाप्त करने का प्रयास।
- 3 महीने के भीतर अपील की सुनवाई समाप्त करने का प्रयास।
- कोई भी स्थगन (adjournment) तभी जब लिखित कारण हों।
धारा 21C – दस्तावेजी साक्ष्य
किसी भी अधिनियम में चाहे कोई भी विरोधी बात (contrary provision) क्यों न हो,
इस अधिनियम के तहत जब किसी याचिका की विचारण की कार्यवाही (proceedings) चल रही हो,
तब कोई भी दस्तावेज (document) इस आधार पर अस्वीकार (inadmissible) नहीं किया जाएगा कि वह उचित रूप से स्टाम्पित (properly stamped) नहीं है, या वह पंजीकृत (registered) नहीं है।
Revision Notes (याद करने के लिए):
- विवाह अधिनियम के केस में दस्तावेज साक्ष्य के रूप में मान्य रहेगा,
चाहे वह स्टाम्प या रजिस्ट्रेशन की दृष्टि से अपूर्ण क्यों न हो। - इस धारा का उद्देश्य है कि तकनीकी कारणों से दस्तावेज खारिज न हो।
धारा 22 – कार्यवाही बंद कमरे में होगी तथा मुद्रित (printed) या प्रकाशित नहीं की जा सकेगी
(1) इस अधिनियम के अंतर्गत जो भी कोई कार्यवाही (proceeding) होगी,
वह बंद कमरे (in camera) में की जाएगी।
किसी भी व्यक्ति को यह वैध (lawful) नहीं होगा कि वह
– उस कार्यवाही के संबंध में कोई भी बात
– मुद्रित (print) करे या
– प्रकाशित (publish) करे।
अपवाद (Exception):
सिर्फ उच्च न्यायालय (High Court) या उच्चतम न्यायालय (Supreme Court) के किसी निर्णय को न्यायालय की पूर्व अनुमति (prior permission) से मुद्रित या प्रकाशित किया जा सकता है।
(2) यदि कोई व्यक्ति उपधारा (1) में दिए गए नियमों का उल्लंघन (violation) करता है,
अर्थात कार्यवाही से जुड़ी सामग्री को मुद्रित या प्रकाशित करता है,
तो वह जुर्माने (fine) से दंडित किया जाएगा,
जो एक हजार रुपये तक हो सकता है।
Revision Tip (याद रखने के लिए ट्रिक):
- In-camera hearing अनिवार्य है।
- प्रकाशन केवल कोर्ट की पूर्व अनुमति से ही।
- उल्लंघन पर ₹1000 तक का जुर्माना।
धारा 23 – कार्यवाही में डिक्री
(1) इस अधिनियम के अंतर्गत किसी कार्यवाही में, चाहे प्रतिवाद (बचाव) किया गया हो या नहीं, यदि न्यायालय यह मान लेता है कि:
(a) राहत (relief) देने के लिए कोई आधार (ground) मौजूद है और याचिकाकर्ता, धारा 5 के खंड (ii) के उपखंड (a), (b), या (c) के आधारों को छोड़कर, किसी भी तरह से उस राहत को पाने के लिए अपनी गलती या अक्षमता का लाभ नहीं उठा रहा है, और
(b) यदि याचिका का आधार धारा 13 की उपधारा (1) के खंड (i) में दिया गया है, तो याचिकाकर्ता ने उस दोषपूर्ण कार्य में मदद नहीं की है, उसे समर्थन नहीं दिया है, और उसे माफ नहीं किया है, और यदि याचिका का आधार क्रूरता है, तो उसने उस क्रूरता को माफ नहीं किया है, और
(bb) जब तलाक आपसी सहमति से मांगा गया हो, तो वह सहमति जबरदस्ती, धोखे या अनुचित दबाव से प्राप्त नहीं की गई है, और
(c) याचिका (धारा 11 की याचिका को छोड़कर) प्रतिवादी के साथ साठगांठ या मिलीभगत से नहीं की गई है, और
(d) कार्यवाही को शुरू करने में कोई अनावश्यक या अनुचित देरी नहीं हुई है, और
(e) कोई अन्य कानूनी कारण मौजूद नहीं है कि क्यों राहत न दी जाए,
तो ऐसे में, यदि ऊपर की शर्तें पूरी होती हैं, न्यायालय उचित राहत देने का आदेश देगा।
(2) किसी भी राहत देने से पहले, और यदि मामला व परिस्थिति अनुकूल हो, न्यायालय का यह कर्तव्य होगा कि वह पक्षकारों के बीच मेल-मिलाप कराने का हरसंभव प्रयास करे।
बशर्ते यह उपधारा उन मामलों पर लागू नहीं होगी, जहां याचिका धारा 13(1) के खंड (ii), (iii), (iv), (v), (vi), या (vii) के आधार पर दायर की गई हो।
(3) यदि पक्षकार चाहें, या न्यायालय को उचित लगे, तो मेल-मिलाप कराने के लिए कार्यवाही को 15 दिन से अधिक नहीं के लिए स्थगित किया जा सकता है। मामला उन व्यक्तियों को भेजा जा सकता है जिन्हें पक्षकार खुद चुनें या जिन्हें न्यायालय चुने, यह देखने के लिए कि मेल-मिलाप हो सकता है या नहीं, और न्यायालय उस रिपोर्ट को ध्यान में रखेगा।
(4) प्रत्येक मामले में, जहां तलाक की डिक्री द्वारा विवाह समाप्त किया जाता है, तो डिक्री पारित करने वाला न्यायालय दोनों पक्षकारों को डिक्री की एक प्रति निःशुल्क देगा।
धारा 23A – तलाक और अन्य कार्यवाहियों में प्रतिवादी के लिए राहत।
यदि कोई कार्यवाही तलाक (विवाह-विच्छेद), न्यायिक पृथक्करण या वैवाहिक अधिकारों की पुनः स्थापना के लिए हो, तो —
- प्रतिवादी (Respondent) केवल यह नहीं कर सकता कि वह याचिकाकर्ता द्वारा लगाए गए व्यभिचार (adultery), क्रूरता (cruelty), या त्याग (desertion) के आधार पर राहत (relief) का विरोध करे,
- बल्कि वह स्वयं भी उन्हीं आधारों पर इस अधिनियम के अंतर्गत राहत की मांग का प्रतिदावा (counter-claim) कर सकता है।
और यदि प्रतिवादी यह साबित कर देता है कि याचिकाकर्ता ने व्यभिचार किया है, क्रूरता की है या त्याग किया है, तो: न्यायालय, प्रतिवादी को इस अधिनियम के अनुसार वही राहत दे सकता है, जो उसे तब मिलती जब उसने खुद उन आधारों पर याचिका दायर की होती।
मुख्य बात याद रखने के लिए:
अगर पत्नी या पति तलाक मांगता है, लेकिन खुद ही दोषी (जैसे कि व्यभिचार) पाया जाता है, तो दूसरा पक्ष सिर्फ बचाव नहीं करेगा, बल्कि कोर्ट से खुद के लिए भी राहत (जैसे तलाक) मांग सकता है।
धारा 24 – कार्यवाही के दौरान भरण-पोषण और व्यय (Maintenance and Expenses during proceedings)
यदि इस अधिनियम के अंतर्गत चल रही किसी भी कार्यवाही में न्यायालय को लगता है कि:
पत्नी या पति के पास स्वयं का खर्च चलाने (भरण-पोषण) और
उस कानूनी कार्यवाही से जुड़े ज़रूरी खर्चों (expenses) के लिए
पर्याप्त स्वतंत्र आय (sufficient independent income) नहीं है,
- तब न्यायालय,
पत्नी या पति के आवेदन (application) पर,
प्रत्यर्थी (respondent) को आदेश दे सकता है कि वह:
याचिकाकर्ता को
कार्यवाही के खर्चे, और
प्रति माह भरण-पोषण की राशि (monthly maintenance) दे,
📝 यह राशि न्यायालय दोनों पक्षों की आय को ध्यान में रखकर उचित (reasonable) मानेगा।
बशर्ते (Proviso) – यह भी प्रावधान है कि:
ऐसे आवेदन (maintenance + खर्च) का निपटारा,
जहाँ तक संभव हो,
पति या पत्नी को नोटिस दिए जाने की तारीख से 60 दिन के भीतर कर दिया जाएगा।
याद रखने योग्य मुख्य बातें:
- यह धारा पति या पत्नी दोनों पर लागू होती है।
- यदि कोई पक्ष आर्थिक रूप से निर्भर है, तो वह भरण-पोषण मांग सकता है।
- कोर्ट यह तय करेगा कि किसे कितना देना है — दोनों की income देखकर।
- आदेश मिल सकता है:
मासिक खर्चे के लिए
कार्यवाही का खर्चा (litigation expenses) देने के लिए
धारा 25 – स्थायी गुजारा भत्ता और भरण-पोषण (Permanent alimony and maintenance)
(1) इस अधिनियम के तहत अधिकार रखने वाला कोई भी न्यायालय, जब कोई डिक्री (जैसे तलाक, न्यायिक पृथक्करण आदि) पारित कर रहा हो या डिक्री के बाद किसी भी समय,
यदि पति या पत्नी ने इस विषय में आवेदन किया है, तो न्यायालय आदेश दे सकता है कि:
प्रत्यर्थी (respondent), आवेदक (applicant) को उसके भरण-पोषण और सहायता (maintenance and support) के लिए:
- एक मुश्त राशि (lump sum) दे, या
- एक मासिक या समय-समय पर दी जाने वाली राशि (monthly or periodical amount) दे,
- यह राशि आवेदक के जीवनकाल से अधिक नहीं हो सकती।
इस राशि का निर्धारण करते समय न्यायालय यह सब ध्यान में रखेगा:
- प्रत्यर्थी की आय और संपत्ति,
- आवेदक की आय और संपत्ति,
- दोनों पक्षकारों का आचरण (conduct),
- और मामले की अन्य परिस्थितियाँ।
यदि आवश्यक हो, तो यह भुगतान प्रत्यर्थी की अचल संपत्ति (immovable property) पर भार (charge) लगाकर सुरक्षित किया जा सकता है।
(2) अगर न्यायालय को यह लगता है कि: पहले दिए गए आदेश के बाद किसी भी पक्ष की परिस्थितियों में बदलाव हो गया है,
तो वह,
किसी भी पक्षकार के अनुरोध (application) पर उस आदेश को —
बदल सकता है (vary),
संशोधित कर सकता है (modify),
या समाप्त (terminate) कर सकता है,
जैसा उसे न्यायोचित (just and fair) लगे।
(3) अगर न्यायालय को यह लगे कि:
जिस व्यक्ति के पक्ष में यह आदेश दिया गया है उसने पुनः विवाह कर लिया है, या
अगर वह पत्नी है, तो वह पतिव्रता (chaste) नहीं रही है, या
अगर वह पति है, तो उसने किसी अन्य स्त्री से विवाह के बाहर शारीरिक संबंध (sexual intercourse) बनाए हैं,
तो दूसरे पक्षकार के अनुरोध पर, न्यायालय आदेश में परिवर्तन, संशोधन या समाप्ति कर सकता है, जैसा उसे न्यायसंगत लगे।
याद रखने योग्य प्रमुख बातें:
- यह स्थायी भरण-पोषण है — डिक्री के समय या बाद में दिया जा सकता है।
- केवल पत्नी नहीं, पति भी भरण-पोषण मांग सकता है
- न्यायालय सभी परिस्थितियों और दोनों पक्षों की संपत्ति/आचरण देखेगा।
- पुनर्विवाह या अनैतिक आचरण पर भत्ता समाप्त किया जा सकता है।
धारा 26 – बच्चों की अभिरक्षा (Custody of children)
इस अधिनियम के अधीन किसी कार्यवाही में,
- न्यायालय समय-समय पर अंतरिम आदेश (interim orders) पारित कर सकेगा और
- डिक्री (decree) में ऐसे उपबंध कर सकेगा, जिन्हें वह अवयस्क (minor) बालकों की:
- अभिरक्षा (custody),
- भरण-पोषण (maintenance), और
- शिक्षा (education) के संबंध में,
जहाँ कहीं संभव हो, उनकी इच्छा के अनुरूप, न्यायसंगत और उचित समझे।
डिक्री के पश्चात्,
- याचिका (petition) द्वारा आवेदन किए जाने पर,
- समय-समय पर न्यायालय:
- बालकों की अभिरक्षा, भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में आदेश और उपबंध (orders and provisions) कर सकेगा,
- जो ऐसे डिक्री या अंतरिम आदेश द्वारा किए जा सकते थे, जैसे यदि वह कार्यवाही अभी भी लंबित (pending) हो।
- न्यायालय समय-समय पर किसी भी ऐसे आदेश या पूर्व में किए गए उपबंधों को:
- रद्द (cancel),
- निलंबित (suspend), या
- परिवर्तित (modify) कर सकेगा।
बचाव (Provided) :
अवयस्क बालकों के भरण-पोषण और शिक्षा के संबंध में आवेदन, ऐसी डिक्री प्राप्त करने की कार्यवाही लंबित रहने तक,जहां तक संभव हो, प्रत्यर्थी पर नोटिस की तामील (service of notice) की तारीख से साठ दिन (60 days) के भीतर निपटाया जाएगा।
याद रखने योग्य प्रमुख बातें:
- बच्चों की अभिरक्षा (custody), भरण-पोषण (maintenance), और शिक्षा (education) के बारे में न्यायालय अंतरिम आदेश और डिक्री में उपबंध दे सकता है।
- बच्चों की इच्छा के आधार पर, न्यायालय निर्णय करेगा, यदि संभव हो।
- न्यायालय पारित आदेश को रद्द, निलंबित, या परिवर्तित भी कर सकता है।
- भरण-पोषण और शिक्षा संबंधी मामले 60 दिन में निपटाए जाएंगे, यदि मामला लंबित है।
धारा 27 – संपत्ति का निपटान (Settlement of property)
इस अधिनियम के अधीन किसी कार्यवाही में, न्यायालय डिक्री में ऐसे उपबंध कर सकेगा, जिन्हें वह विवाह के समय या उसके आसपास प्रस्तुत की गई किसी संपत्ति के संबंध में, न्यायसंगत और उचित समझे, जो पति और पत्नी दोनों की संयुक्त रूप से हो सकती है।
याद रखने योग्य प्रमुख बातें:
- न्यायालय संपत्ति के निपटान के संबंध में उपबंध (provisions) कर सकता है,
- यह उपबंध विवाह के समय या उसके आसपास प्रस्तुत की गई संपत्ति से संबंधित होंगे।
- संपत्ति पति और पत्नी दोनों की संयुक्त हो सकती है।
धारा 28 – डिक्री और आदेशों से अपील(Appeals from Decrees and Orders)
(1) इस अधिनियम के अधीन किसी कार्यवाही में न्यायालय द्वारा दी गई सभी डिग्रियां, उपधारा (3) के उपबंधों के अधीन रहते हुए,
- उस न्यायालय की डिग्रियों के समान अपील योग्य होंगी, जो उस न्यायालय की अपनी आरंभिक सिविल अधिकारिता के प्रयोग में दी गई हों,
- और प्रत्येक ऐसी अपील उस न्यायालय में होगी, जिसमें उस न्यायालय द्वारा अपनी आरंभिक सिविल अधिकारिता के प्रयोग में दिए गए विनिश्चयों के विरुद्ध सामान्यत: अपीलें होती हैं।
(2) इस अधिनियम के अधीन धारा 25 या धारा 26 के अधीन किसी कार्यवाही में न्यायालय द्वारा किए गए आदेश, उपधारा (3) के उपबंधों के अधीन रहते हुए, अपील योग्य होंगे यदि वे अंतरिम आदेश नहीं हैं,
- और प्रत्येक ऐसी अपील उस न्यायालय में होगी जिसमें उस न्यायालय द्वारा अपनी आरंभिक सिविल अधिकारिता के प्रयोग में दिए गए निर्णय के विरुद्ध सामान्यत: अपीलें होती हैं।
(3) इस धारा के अंतर्गत केवल लागत (cost) के विषय पर कोई अपील नहीं होगी।
(4) इस धारा के अंतर्गत प्रत्येक अपील डिक्री या आदेश की तारीख से नब्बे दिन की अवधि के भीतर प्रस्तुत की जाएगी।
याद रखने योग्य प्रमुख बातें:
- न्यायालय द्वारा दी गई डिग्रियां अपील योग्य होंगी, जैसे कि अन्य सिविल मामलों में होती हैं।
- यदि आदेश अंतरिम नहीं है, तो उसकी भी अपील की जा सकती है।
- लागत (cost) पर कोई अपील नहीं की जा सकती।
- अपील की समय सीमा 90 दिन है।
धारा 28ए – डिक्रियों और आदेशों का प्रवर्तन(Enforcement of Decrees and Orders)
इस अधिनियम के अधीन किसी कार्यवाही में न्यायालय द्वारा दी गई सभी डिक्रियों और आदेशों का उसी प्रकार प्रवर्तन किया जाएगा, जैसे न्यायालय द्वारा अपनी प्रारंभिक सिविल अधिकारिता के प्रयोग में दी गई डिक्रियों और आदेशों का, जो तत्समय प्रवृत्त हैं, प्रवर्तन किया जाता है।
याद रखने योग्य प्रमुख बातें:
इस धारा के तहत, डिक्रियों और आदेशों का प्रवर्तन उसी प्रकार किया जाएगा जैसे किसी अन्य सामान्य सिविल मामले में न्यायालय द्वारा दिए गए आदेशों का प्रवर्तन होता है।
धारा 29 – बचतें (Savings)
- इस अधिनियम के प्रारंभ से पूर्व हिन्दुओं के बीच सम्पन्न कोई विवाह, जो अन्यथा वैध है, केवल इस तथ्य के कारण अवैध या कभी अवैध नहीं समझा जाएगा कि उसके पक्षकार एक ही गोत्र या प्रवर के थे या विभिन्न धर्मों, जातियों या एक ही जाति के उप-विभागों के थे।
- इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट कोई बात किसी हिन्दू विवाह का विघटन प्राप्त करने के लिए प्रथा द्वारा मान्यता प्राप्त या किसी विशेष अधिनियम द्वारा प्रदत्त किसी अधिकार पर प्रभाव डालने वाली नहीं समझी जाएगी, चाहे वह इस अधिनियम के प्रारम्भ से पूर्व या पश्चात् अनुष्ठापित किया गया हो।
- इस अधिनियम में अंतर्विष्ट कोई बात किसी विवाह को अकृत और शून्य घोषित करने या किसी विवाह को बातिल (Null) या विघटित (Annulling) करने या इस अधिनियम के प्रारंभ पर लंबित न्यायिक पृथक्करण के लिए तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन किसी कार्यवाही पर प्रभाव नहीं डालेगी और ऐसी कोई कार्यवाही इस प्रकार जारी रखी जा सकेगी और अवधारित की जा सकेगी मानो यह अधिनियम पारित ही नहीं हुआ हो।
- इस अधिनियम में अंतर्विष्ट (Contained) कोई बात विशेष विवाह अधिनियम, 1954 (1954 का 43) में अंतर्विष्ट उपबंधों पर, उस अधिनियम के अधीन अनुष्ठापित हिन्दुओं के बीच विवाहों के संबंध में, चाहे वे इस अधिनियम के प्रारंभ से पूर्व या पश्चात् हुए हों, प्रभाव डालने वाली नहीं समझी जाएगी।
याद रखने योग्य प्रमुख बातें:
- इस धारा के तहत पुराने हिन्दू विवाहों को केवल गोत्र, प्रवर, धर्म या जाति के आधार पर अवैध नहीं माना जाएगा।
- कोई भी अधिकार जो प्रथा या विशेष अधिनियम से जुड़ा हो, उस पर इस अधिनियम का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
- किसी विवाह को शून्य घोषित करने या विघटित करने की प्रक्रिया में इस अधिनियम का प्रभाव नहीं होगा।
- विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत हुए विवाहों पर भी इस अधिनियम का प्रभाव नहीं पड़ेगा।
धारा 30 – निरसन(Repeal)
- यह धारा निरसन और संशोधन अधिनियम, 1960 (1960 का 58) की धारा 2 और प्रथम अनुसूची द्वारा निरसित की गई है। यह निरसन 26-12-1960 से प्रभावी हुआ।
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