
Indian Contract Act, 1872
President Assent: 25 अप्रैल, 1872
Effective: 1 सितंबर 1872
धारा 1 – संक्षिप्त नाम, क्षेत्राधिकार, प्रारंभ और बचाव (Section 1 – Short Title, Extent, Commencement, and Saving)
यह अधिनियम “भारतीय संविदा अधिनियम, 1872” कहलाता है।
यह पूरे भारत में लागू होता है। यह अधिनियम 1 सितंबर 1872 से प्रभाव में आया।
बचाव (Saving):
इस अधिनियम में दी गई कोई भी बात किसी ऐसे कानून (Statute), अधिनियम (Act) या विनियम (Regulation) को प्रभावित नहीं करेगी जिसे इस अधिनियम द्वारा स्पष्ट रूप से रद्द (repeal) नहीं किया गया है।
साथ ही, यह अधिनियम व्यापार के किसी प्रचलित रिवाज या परंपरा (usage or custom of trade), या किसी संविदा के ऐसे पहलू को प्रभावित नहीं करेगा जो इस अधिनियम के प्रावधानों से असंगत न हो।
सरल भाषा में समझें:
- इस कानून का नाम “भारतीय संविदा अधिनियम, 1872” है।
- यह भारत के सभी हिस्सों में लागू होता है और 1 सितंबर 1872 से लागू हुआ।
- यह कानून सिर्फ उन्हीं पुराने कानूनों को समाप्त करता है जिन्हें इसमें साफ़ तौर पर रद्द किया गया है।
- व्यापार की परंपराएं, रिवाज, और ऐसी बातों को जो इस कानून से टकराती नहीं हैं, उन्हें यह अधिनियम प्रभावित नहीं करता।
धारा 2 – परिभाषा खंड (Section 2 – Interpretation Clause)
इस अधिनियम में नीचे दिए गए शब्दों और अभिव्यक्तियों का अर्थ वही माना जाएगा, जब तक कि प्रसंग (context) से कोई अलग मंशा प्रकट न हो:
(a) प्रस्ताव (Proposal):
जब कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को कोई कार्य करने या न करने की अपनी इच्छा इस उद्देश्य से प्रकट करता है कि वह व्यक्ति उस कार्य या न करने की स्वीकृति दे, तो इसे “प्रस्ताव” (Proposal) कहा जाता है।
(b) स्वीकृति और वादा (Acceptance & Promise):
जब जिस व्यक्ति को प्रस्ताव दिया गया है, वह उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है, तो इसे उस प्रस्ताव की स्वीकृति (Acceptance) कहते हैं।
एक प्रस्ताव, जब स्वीकार कर लिया जाता है, तो वह वादा (Promise) बन जाता है।
(c) प्रतिज्ञाता और प्रतिज्ञाप्राप्तकर्ता (Promisor & Promisee):
जो व्यक्ति प्रस्ताव करता है, उसे “प्रतिज्ञाता” (Promisor) कहा जाता है, और जो व्यक्ति प्रस्ताव को स्वीकार करता है, उसे “प्रतिज्ञाप्राप्तकर्ता” (Promisee) कहा जाता है।
(d) प्रतिफल (Consideration):
जब प्रतिज्ञाता की इच्छा से प्रतिज्ञाप्राप्तकर्ता या कोई अन्य व्यक्ति —
(i) कोई कार्य कर चुका हो या,
(ii) कार्य करने से रुका हो या,
(iii) कार्य करने या न करने का वादा करता हो,
तो ऐसा कार्य, ऐसा न करना, या ऐसा वादा — वादे के लिए प्रतिफल (Consideration for the Promise) कहलाता है।
(e) अनुबंध (Agreement):
हर वादा और वे वादों के समूह जो एक-दूसरे के लिए प्रतिफल का कार्य करते हैं, मिलकर अनुबंध (Agreement) बनाते हैं।
(f) पारस्परिक वादे (Reciprocal Promises):
वे वादे जो एक-दूसरे के लिए प्रतिफल या प्रतिफल का हिस्सा होते हैं, पारस्परिक वादे कहलाते हैं।
(g) शून्य अनुबंध (Void Agreement):
कोई ऐसा अनुबंध जो कानून द्वारा लागू नहीं किया जा सकता, वह शून्य अनुबंध (Void Agreement) कहलाता है।
(h) संविदा (Contract):
कोई ऐसा अनुबंध जो कानून द्वारा लागू किया जा सके, वह संविदा (Contract) कहलाता है।
(i) अनुकरणीय संविदा (Voidable Contract):
ऐसा अनुबंध जिसे कानून द्वारा लागू किया जा सकता है, लेकिन केवल एक पक्ष (या कुछ पक्षों) की इच्छा से, जबकि दूसरे पक्ष की इच्छा से नहीं किया जा सकता, वह अनुकरणीय संविदा (Voidable Contract) कहलाता है।
(j) शून्य हो जाना (Becoming Void):
कोई संविदा जो पहले कानून द्वारा लागू की जा सकती थी, लेकिन अब लागू नहीं की जा सकती, तो वह शून्य हो जाती है (Void) जब उसका लागू होना समाप्त हो जाता है।
सरल समझ: इस धारा में संविदा से जुड़े मुख्य कानूनी शब्दों की परिभाषा दी गई है, जैसे प्रस्ताव, वादा, प्रतिफल, अनुबंध, संविदा, शून्य और अनुकरणीय संविदा। ये सभी शब्द आगे पूरे कानून की नींव हैं। इन्हें समझना जरूरी है क्योंकि आगे की धाराओं में इन्हीं का उपयोग होता है।
धारा 3 – प्रस्ताव, स्वीकृति और निरसन की सूचना (Section 3 – Communication, Acceptance and Revocation of Proposals)
अधिनियम की भाषा:
प्रस्तावों की सूचना, प्रस्तावों की स्वीकृति की सूचना, और प्रस्तावों एवं स्वीकृतियों के निरसन की सूचना — ये सभी मानी जाती हैं कि वे उस व्यक्ति के किसी कार्य या चूक द्वारा की गई हैं जो प्रस्ताव करता है, स्वीकार करता है या निरस्त करता है; यदि उस कार्य या चूक का उद्देश्य उस सूचना को देना है या उसका प्रभाव वास्तव में सूचना देना होता है।
सरल हिंदी में व्याख्या:
यह धारा बताती है कि —
- जब कोई व्यक्ति प्रस्ताव करता है,
- जब कोई व्यक्ति उस प्रस्ताव को स्वीकार करता है, या
- जब कोई व्यक्ति उस प्रस्ताव या स्वीकृति को वापस लेता (निरस्त करता) है,
तो इन सबकी सूचना (Communication) तब मानी जाती है कि उस व्यक्ति ने कोई ऐसा काम किया हो या कोई ऐसा काम न किया हो (चूक की हो), जिससे यह स्पष्ट हो कि उसका उद्देश्य उस सूचना को देना था, या उसका यह कार्य/चूक वास्तव में उस सूचना को दूसरे तक पहुंचा देता है।
उदाहरण:
- यदि कोई व्यक्ति पत्र द्वारा प्रस्ताव भेजता है, तो वह पत्र भेजना एक ऐसा कार्य है जिससे प्रस्ताव की सूचना दी जाती है।
- यदि किसी ने चुप रहकर कोई कार्य नहीं किया जबकि परिस्थिति में यह अपेक्षित था कि वह सूचना दे, और इससे दूसरा व्यक्ति जानकारी प्राप्त कर लेता है, तो वह चूक भी “सूचना देना” मानी जा सकती है।
मुख्य बिंदु याद रखने के लिए:
- सूचना (Communication) केवल बोलकर या लिखकर ही नहीं होती, बल्कि किसी भी कार्य या चूक से हो सकती है,
- जिसका उद्देश्य सूचना देना हो या
- जिसका प्रभाव यह हो कि सूचना दूसरे व्यक्ति तक पहुँच जाए।
धारा 4 – सूचना कब पूरी मानी जाती है (Section 4 – Communication When Complete)
- प्रस्ताव की सूचना (Communication of Proposal):
प्रस्ताव की सूचना तब पूरी मानी जाती है जब वह उस व्यक्ति के ज्ञान में आ जाती है जिसे वह प्रस्ताव किया गया है।
यानि, सामने वाले को जब प्रस्ताव की जानकारी मिल जाती है, तभी वह सूचना पूरी मानी जाएगी। - स्वीकृति की सूचना (Communication of Acceptance):
(i) प्रस्तावक (Proposer) के विरुद्ध:
स्वीकृति की सूचना उस समय पूरी मानी जाती है जब स्वीकारकर्ता ने उसे भेजने की प्रक्रिया में डाल दिया हो, यानी ऐसा कर दिया हो कि अब वह स्वीकारकर्ता के नियंत्रण से बाहर हो चुकी है।
(ii) स्वीकारकर्ता (Acceptor) के विरुद्ध:
स्वीकृति की सूचना उस समय पूरी मानी जाती है जब प्रस्तावक को उसकी जानकारी मिल जाती है।
- निरसन की सूचना (Communication of Revocation):
(i) निरसन करने वाले के विरुद्ध:
निरसन की सूचना उस समय पूरी मानी जाती है जब वह भेजने की प्रक्रिया में डाल दी जाती है, यानी भेज दी जाती है और अब निरसनकर्ता के नियंत्रण में नहीं रहती।
(ii) जिसे निरसन भेजा गया है, उसके विरुद्ध:
निरसन की सूचना तब पूरी मानी जाती है जब उसे वह सूचना मिल जाती है।
उदाहरण (Illustrations):
(a) A, B को पत्र लिखकर एक निश्चित मूल्य पर अपना मकान बेचने का प्रस्ताव देता है।
➡️ जब B को वह पत्र मिल जाता है, तभी प्रस्ताव की सूचना पूरी मानी जाएगी।
(b) B, A के प्रस्ताव को डाक द्वारा पत्र भेजकर स्वीकार करता है।
➡️ A के खिलाफ स्वीकृति की सूचना पूरी मानी जाएगी जब पत्र पोस्ट कर दिया जाए।
➡️ B के खिलाफ स्वीकृति की सूचना पूरी मानी जाएगी जब A को वह पत्र मिल जाए।
(c) A टेलीग्राम द्वारा अपना प्रस्ताव निरस्त करता है।
➡️ A के विरुद्ध निरसन की सूचना पूरी मानी जाएगी जब टेलीग्राम भेज दिया जाए।
➡️ B के विरुद्ध तब पूरी मानी जाएगी जब B को टेलीग्राम मिल जाए।
अब B भी टेलीग्राम से अपनी स्वीकृति को निरस्त करता है।
➡️ B के विरुद्ध निरसन की सूचना पूरी मानी जाएगी जब उसने टेलीग्राम भेज दिया।
➡️ A के विरुद्ध तब पूरी मानी जाएगी जब A को टेलीग्राम मिल गया।
मुख्य बात याद रखने के लिए:
- सूचना की पूर्णता इस बात पर निर्भर करती है कि वह किसके विरुद्ध देखी जा रही है — प्रस्तावक, स्वीकारकर्ता या निरसनकर्ता।
- भेजने और प्राप्त होने के समय का कानूनी महत्व अलग-अलग पक्षों के लिए अलग होता है।
धारा 5 – प्रस्ताव और स्वीकृति का निरसन (Section 5 – Revocation of Proposals and Acceptances)
मुख्य प्रावधान:
- प्रस्ताव का निरसन (Revocation of Proposal):
प्रस्ताव को किसी भी समय निरस्त किया जा सकता है —
जब तक कि प्रस्ताव की स्वीकृति की सूचना, प्रस्तावक के विरुद्ध पूर्ण न हो जाए।
लेकिन एक बार स्वीकृति की सूचना प्रस्तावक के विरुद्ध पूरी हो जाने के बाद, प्रस्ताव को निरस्त नहीं किया जा सकता।
👉 इसका मतलब है: जैसे ही स्वीकारकर्ता ने स्वीकृति को भेज दिया (जैसे पोस्ट कर दी), तब से प्रस्तावक के लिए उसे वापस लेना संभव नहीं होता।
- स्वीकृति का निरसन (Revocation of Acceptance):
स्वीकृति को भी किसी भी समय निरस्त किया जा सकता है —
जब तक कि स्वीकृति की सूचना, स्वीकारकर्ता के विरुद्ध पूरी न हो जाए।
लेकिन एक बार स्वीकृति प्रस्तावक तक पहुँच जाए, तब स्वीकृति को वापस नहीं लिया जा सकता।
👉 इसका मतलब है: जब तक प्रस्तावक को स्वीकृति नहीं मिली, तब तक स्वीकारकर्ता उसे वापस ले सकता है।
उदाहरण (Illustration):
A, B को डाक द्वारा पत्र भेजकर अपना मकान बेचने का प्रस्ताव देता है।
B, डाक द्वारा पत्र भेजकर उस प्रस्ताव को स्वीकार करता है।
- A, B के स्वीकृति पत्र को पोस्ट करने से पहले या उसी समय तक अपना प्रस्ताव वापस ले सकता है, लेकिन उसके बाद नहीं।
- B, उसका स्वीकृति पत्र A तक पहुँचने से पहले या उसी समय तक अपनी स्वीकृति वापस ले सकता है, लेकिन उसके बाद नहीं।
सरल भाषा में समझें:
- प्रस्तावक (Proposer) के पास प्रस्ताव वापस लेने का अधिकार है, लेकिन केवल तब तक जब तक स्वीकृति की सूचना उस पर प्रभावी नहीं हुई हो।
- स्वीकारकर्ता (Acceptor) भी अपनी स्वीकृति को वापस ले सकता है, लेकिन केवल तब तक जब तक प्रस्तावक को स्वीकृति मिल न गई हो।
धारा 6 – प्रस्ताव का निरसन कैसे होता है (Section 6 – Revocation How Made)
प्रस्ताव (Proposal) का निरसन निम्नलिखित तरीकों से हो सकता है:
(1) सूचना द्वारा (By Communication):
यदि प्रस्तावक (Proposer), प्रस्ताव के निरसन की सूचना दूसरे पक्ष (जिसे प्रस्ताव किया गया हो) को दे देता है, तो यह प्रस्ताव निरस्त (Revoke) माना जाता है।
👉 मतलब: जब प्रस्ताव वापस लेने की स्पष्ट सूचना दूसरे पक्ष को दी जाती है।
(2) समय की समाप्ति द्वारा (By Lapse of Time):
यदि प्रस्ताव में स्वीकृति के लिए कोई निश्चित समय दिया गया है, और उस समय के भीतर स्वीकृति नहीं दी जाती — तो प्रस्ताव स्वतः निरस्त हो जाता है।
यदि कोई समय निर्धारित नहीं किया गया है, तो “उचित समय” (Reasonable Time) के बीत जाने पर, बिना स्वीकृति के प्रस्ताव निरस्त हो जाता है।
👉 “उचित समय” परिस्थितियों पर निर्भर करता है — जैसे पत्र का पहुँचने का समय, दूरी, व्यवहारिक देरी आदि।
(3) शर्त पूरी न होने पर (Failure of Condition Precedent):
यदि प्रस्ताव में कोई शर्त पहले से तय की गई हो (Condition Precedent), और स्वीकारकर्ता उस शर्त को पूरा नहीं करता, तो प्रस्ताव स्वतः निरस्त हो जाता है।
👉 जैसे: “अगर तुम 3 दिन में 10,000 रुपये जमा कराओ, तो मैं मकान बेचूंगा” — अगर वह शर्त पूरी नहीं होती, तो प्रस्ताव निरस्त हो जाएगा।
(4) मृत्यु या पागलपन से (By Death or Insanity):
यदि प्रस्तावक की मृत्यु या मानसिक विकृति (Insanity) हो जाती है और
स्वीकारकर्ता को यह जानकारी प्रस्ताव की स्वीकृति से पहले मिल जाती है,
तो प्रस्ताव निरस्त हो जाता है।
👉 मतलब: अगर सामने वाले को पता चल जाए कि प्रस्ताव देने वाला मर चुका है या पागल हो गया है, तो वह प्रस्ताव मान्य नहीं रहता।
सरल शब्दों में सारांश:
प्रस्ताव को निरस्त करने के 4 कानूनी तरीके हैं:
- स्पष्ट सूचना द्वारा,
- समय समाप्त हो जाने से,
- पूर्व शर्त पूरी न होने पर,
- प्रस्तावक की मृत्यु या पागलपन की जानकारी स्वीकारकर्ता को पहले मिल जाने पर।
धारा 7 – स्वीकृति पूर्ण और बिना शर्त होनी चाहिए (Section 7 – Acceptance Must Be Absolute)
किसी प्रस्ताव को वादे (Promise) में बदलने के लिए, स्वीकृति को निम्नलिखित शर्तों को पूरा करना चाहिए:
(1) पूर्ण और बिना शर्त (Absolute and Unqualified):
स्वीकृति पूर्ण (Absolute) होनी चाहिए और उसमें कोई शर्त या बदलाव (Unqualified) नहीं होना चाहिए।
👉 उदाहरण:
यदि A ने B को कहा – “मैं तुम्हें ₹10,000 में अपनी बाइक बेचूंगा”,
और B कहे – “मैं ₹9,000 में लूंगा”,
तो यह स्वीकृति नहीं है, बल्कि नया प्रस्ताव (Counter Offer) है।
स्वीकृति तभी वैध मानी जाएगी जब B कहे – “मैं ₹10,000 में स्वीकार करता हूँ।”
(2) सामान्य और उचित तरीके से व्यक्त की जाए (Usual and Reasonable Manner):
स्वीकृति सामान्य और व्यवहारिक तरीके से व्यक्त की जानी चाहिए,
जब तक कि प्रस्ताव में कोई विशेष तरीका नहीं बताया गया हो।
यदि प्रस्ताव में कोई विशेष तरीका बताया गया है —
और स्वीकारकर्ता उस तरीके का पालन नहीं करता,
तो प्रस्तावक यह कह सकता है कि स्वीकृति बताए गए तरीके से होनी चाहिए थी।
लेकिन यह केवल तभी मान्य होगा, यदि प्रस्तावक “उचित समय” के भीतर यह आपत्ति जताए।
👉 यदि प्रस्तावक ऐसा नहीं करता है (उचित समय के अंदर आपत्ति नहीं करता),
तो यह माना जाएगा कि उसने स्वीकृति को स्वीकार कर लिया है, भले ही वह बताए गए तरीके से नहीं हुई हो।
सरल भाषा में समझें:
- प्रस्ताव की स्वीकृति सीधी, स्पष्ट और बिना किसी बदलाव के होनी चाहिए।
- अगर कोई तरीका प्रस्ताव में बताया गया है, तो उसी तरीके से स्वीकार करना चाहिए।
अगर नहीं किया, तो प्रस्तावक को समय पर आपत्ति करनी होगी,
वरना उसे वह स्वीकृति माननी होगी।
धारा 8 – प्रस्ताव में दी गई शर्तों का पालन करने या प्रतिफल स्वीकार करने से स्वीकृति (Section 8 – Acceptance by Performing Conditions, or Receiving Consideration)
अधिनियम की भाषा:
यदि कोई व्यक्ति प्रस्ताव में दी गई शर्तों को पूरा करता है,
या
उस प्रस्ताव के साथ दिए गए प्रतिफल (Consideration) को स्वीकार करता है,
तो यह माना जाएगा कि उसने उस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है।
सरल हिंदी में व्याख्या:
अगर किसी प्रस्ताव में कुछ शर्तें रखी गई हैं,
और जिसे प्रस्ताव दिया गया है वह उन शर्तों को पूरा कर देता है,
या
उस प्रस्ताव के साथ दिया गया कोई लाभ (Consideration) स्वीकार कर लेता है,
तो यह मान लिया जाएगा कि उसने उस प्रस्ताव को मौन रूप से स्वीकार कर लिया है।
उदाहरण:
उदाहरण 1:
A ने सार्वजनिक रूप से घोषणा की कि जो कोई उसका खोया हुआ कुत्ता वापस लाएगा, उसे ₹1,000 इनाम मिलेगा।
B को यह प्रस्ताव पता है और वह कुत्ते को खोजकर A को लौटा देता है।
➡️ यहाँ B ने कोई मौखिक स्वीकृति नहीं दी, लेकिन प्रस्ताव की शर्त (कुत्ता वापस करना) पूरी कर दी,
इसलिए यह माना जाएगा कि B ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
उदाहरण 2:
A, B से कहता है – “अगर तुम मेरा सामान मेरे घर तक पहुँचा दो, तो मैं तुम्हें ₹500 दूँगा”।
B सामान पहुँचा देता है।
➡️ B ने प्रस्ताव की शर्त पूरी की — इसलिए यह स्वीकृति मानी जाएगी।
मुख्य बात:
- स्वीकृति हमेशा मौखिक या लिखित नहीं होती।
- यदि कोई व्यक्ति प्रस्ताव की शर्त पूरी करता है, या
- उस प्रस्ताव के साथ दिया गया प्रतिफल ले लेता है,
तो वह कानूनी रूप से प्रस्ताव की स्वीकृति मानी जाती है।
धारा 9 – स्पष्ट वादे और निहित वादे (Section 9 – Express and Implied Promises)
जब किसी वादे (Promise) का प्रस्ताव या स्वीकृति शब्दों (मौखिक या लिखित) में की जाती है, तो वह वादा “स्पष्ट वादा (Express Promise)” कहलाता है। इसके विपरीत, जब ऐसे प्रस्ताव या स्वीकृति शब्दों के अलावा किसी अन्य माध्यम—जैसे किसी कार्य, आचरण या व्यवहार—से प्रकट होती है, तो वह वादा “निहित वादा (Implied Promise)” कहलाता है। इस प्रकार, वादे दो प्रकार के होते हैं: (1) स्पष्ट—जहाँ बातें खुलकर कही जाती हैं, और (2) निहित—जहाँ व्यक्ति का व्यवहार स्वयं स्वीकृति या प्रस्ताव को दर्शाता है।
धारा 10 – कौन-से अनुबंध संविदा होते हैं (Section 10 – What Agreements Are Contracts)
मुख्य नियम:
हर वह अनुबंध (Agreement), संविदा (Contract) होता है जो निम्नलिखित शर्तों को पूरा करता है:
- पक्षों की स्वतंत्र सहमति (Free Consent):
दोनों पक्षों ने अपनी मर्जी से सहमति दी हो — बिना किसी दबाव, धोखा, जबरदस्ती या भ्रम के। - संविदा करने की क्षमता (Competent to Contract):
दोनों पक्ष कानून के अनुसार संविदा करने के योग्य हों —
अर्थात वे बैलिग (बालिग), समझदार और किसी कानूनी रोक के अधीन न हों। - वैध प्रतिफल (Lawful Consideration):
उस अनुबंध में कुछ वैध मूल्य का आदान-प्रदान हो — जैसे पैसा, सेवा, वस्तु आदि। - वैध उद्देश्य (Lawful Object):
अनुबंध का उद्देश्य कानूनन वैध हो — यानी वह अपराध, धोखा, या सार्वजनिक नीति के विरुद्ध न हो। - यह अधिनियम जिसे स्पष्ट रूप से शून्य घोषित नहीं करता (Not Declared Void):
ऐसा अनुबंध जो इस अधिनियम द्वारा स्पष्ट रूप से शून्य (Void) घोषित न किया गया हो।
दूसरा भाग (स्पष्टीकरण):
इस धारा में कही गई कोई भी बात, भारत में लागू उस कानून को प्रभावित नहीं करती:
- जो किसी संविदा के लिए लिखित रूप (In Writing) में होने की अनिवार्यता तय करता है,
- या जो कहता है कि संविदा गवाहों की उपस्थिति में होनी चाहिए,
- या जो दस्तावेजों के पंजीकरण (Registration of Documents) से संबंधित है।
सरल भाषा में समझें:
कोई भी समझौता (Agreement) तभी संविदा (Contract) बनता है जब:
- वह स्वतंत्र सहमति से किया गया हो,
- करने वाले व्यक्ति कानूनी रूप से सक्षम हों,
- उसमें कुछ वैध लाभ या मूल्य (प्रतिफल) शामिल हो,
- उसका उद्देश्य कानून के विरुद्ध न हो, और
- वह समझौता ऐसा न हो जिसे कानून शून्य घोषित करता है।
लेकिन यदि किसी कानून में कहा गया है कि कोई संविदा लिखित में होनी चाहिए, या गवाहों के सामने होनी चाहिए, या पंजीकृत होनी चाहिए, तो वह नियम अभी भी लागू रहेगा — यह धारा उसे नहीं हटाती।
धारा 11 – कौन संविदा करने के लिए सक्षम है (Section 11 – Who Are Competent to Contract)
मुख्य प्रावधान:
हर वह व्यक्ति संविदा करने के लिए सक्षम (Competent) होता है, जो निम्नलिखित तीन शर्तों को पूरा करता है:
- अधिपत्र के अनुसार बालिग हो (Age of Majority):
वह व्यक्ति उस कानून के अनुसार बालिग हो जिसे वह मानता है।
👉 भारत में बालिग होने की आयु सामान्यतः 18 वर्ष है (कुछ मामलों में 21 वर्ष)। - समझदार हो (Of Sound Mind):
वह व्यक्ति मानसिक रूप से समझदार (Sound Mind) हो —
यानी वह संविदा के समय यह समझने में सक्षम हो कि वह क्या कर रहा है और उसके क्या प्रभाव होंगे। - कानून द्वारा अयोग्य न ठहराया गया हो (Not Disqualified by Law):
उस व्यक्ति को किसी भी लागू कानून द्वारा संविदा करने से वंचित न किया गया हो।
👉 जैसे: कोई विदेशी दुश्मन, दिवालिया घोषित व्यक्ति, या किसी विशेष कानून से अयोग्य व्यक्ति।
सरल भाषा में समझें:
कोई व्यक्ति तभी संविदा (Contract) करने के योग्य होता है जब वह:
- बालिग हो (18 वर्ष या कानून के अनुसार),
- समझदार हो (पागल, नशे में या मानसिक रोगी न हो), और
- किसी कानून द्वारा संविदा करने से रोका न गया हो।
धारा 12 – संविदा के लिए “समझदार मस्तिष्क” किसे कहा जाता है (Section 12 – What Is a Sound Mind for the Purposes of Contracting)
मुख्य प्रावधान:
✅ “समझदार मस्तिष्क” (Sound Mind) का मतलब:
किसी व्यक्ति को तब समझदार मस्तिष्क वाला माना जाता है,
जब वह संविदा करते समय:
- संविदा को समझने में सक्षम हो, और
- यह समझने में सक्षम हो कि उसका प्रभाव उसकी हितों पर क्या पड़ेगा।
विशेष स्थिति में नियम:
- 👉 जो व्यक्ति सामान्यतः पागल होता है, लेकिन कभी-कभी ठीक रहता है,
वह उन समयों पर संविदा कर सकता है जब वह ठीक (Sound Mind) हो। - 👉 जो व्यक्ति सामान्यतः समझदार होता है, लेकिन कभी-कभी पागल या बेहोशी की स्थिति में होता है,
वह उन समयों पर संविदा नहीं कर सकता जब वह असामान्य स्थिति में हो।
उदाहरण (Illustrations):
(a) कोई व्यक्ति पागलों के अस्पताल में भर्ती है, लेकिन कभी-कभी उसकी मानसिक स्थिति सामान्य हो जाती है।
➡️ जब वह सामान्य अवस्था में होता है, तब वह संविदा कर सकता है।
(b) एक समझदार व्यक्ति को बुखार के कारण भ्रम (delirium) हो गया हो, या वह इतना नशे में हो कि
वह न तो संविदा की शर्तें समझ सके और न ही यह समझ सके कि इसका प्रभाव उसकी भलाई पर क्या होगा —
➡️ तो वह उस समय संविदा नहीं कर सकता।
सरल भाषा में समझें:
- संविदा करते समय व्यक्ति का मस्तिष्क पूरी तरह सक्षम होना चाहिए —
यानी वह समझ सके कि वह क्या कर रहा है और उसका उस पर क्या असर होगा। - मानसिक रोगी या नशे में व्यक्ति तभी संविदा कर सकता है जब वह पूरी तरह होश में और समझदार हो।
धारा 13 – “सहमति” की परिभाषा (Section 13 – “Consent” Defined)
अधिनियम की भाषा: जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक ही बात पर, एक ही अर्थ में सहमत होते हैं,
तो कहा जाता है कि उन्होंने सहमति (Consent) दी है।
सरल हिंदी में व्याख्या:
“सहमति” का अर्थ है — एक जैसी समझ के साथ एक जैसी बात पर हाँ कहना।
मतलब यह नहीं कि केवल हाँ कह दिया, बल्कि जो बात प्रस्तावक ने कही, वही बात स्वीकारकर्ता ने भी उसी अर्थ में समझकर मानी हो।
👉 इसे कहा जाता है: “Meeting of Minds” यानी मस्तिष्कों का मेल।
उदाहरण:
उदाहरण 1:
A, B को अपनी घड़ी बेचता है। A सोचे कि वह “सोने की घड़ी” बेच रहा है, और B समझे कि वह “चांदी की घड़ी” खरीद रहा है।
➡️ यहाँ पर सहमति नहीं हुई, क्योंकि दोनों अलग-अलग अर्थ में बात समझ रहे हैं।
यह वैध सहमति नहीं मानी जाएगी।
उदाहरण 2:
A कहता है कि वह ₹10,000 में अपनी बाइक बेचना चाहता है, और B वही बाइक ₹10,000 में खरीदना चाहता है, और दोनों का आशय भी वही है।
➡️ यह वास्तविक और कानूनी सहमति मानी जाएगी।
मुख्य बात:
- केवल “हाँ” कहना पर्याप्त नहीं है —
“हाँ” उसी बात पर और उसी अर्थ में होनी चाहिए। - अगर दो पक्ष भिन्न-भिन्न अर्थ में किसी बात को समझते हैं, तो सहमति नहीं मानी जाएगी।
धारा 14 – “स्वतंत्र सहमति” की परिभाषा (Section 14 – “Free Consent” Defined)
मुख्य प्रावधान:
सहमति को “स्वतंत्र” (Free Consent) तब कहा जाता है, जब वह निम्नलिखित कारणों से प्रभावित न हो:
- दबाव (Coercion) – जिसकी परिभाषा धारा 15 में दी गई है।
- अवांछनीय प्रभाव (Undue Influence) – जिसकी परिभाषा धारा 16 में दी गई है।
- धोखा (Fraud) – जिसकी परिभाषा धारा 17 में दी गई है।
- झूठा प्रस्तुतीकरण (Misrepresentation) – जिसकी परिभाषा धारा 18 में दी गई है।
- भ्रम या भूल (Mistake) – जिसकी स्थिति धारा 20, 21 और 22 में दी गई है।
कैसे तय होता है कि सहमति प्रभावित हुई है:
अगर यह साबित होता है कि अगर वह दबाव, धोखा, प्रभाव आदि न होता,
तो व्यक्ति सहमति नहीं देता,
तो यह माना जाएगा कि उसकी सहमति स्वतंत्र नहीं थी।
सरल भाषा में समझें:
“स्वतंत्र सहमति” का मतलब है — किसी व्यक्ति ने अपनी इच्छा से, बिना किसी डर, दबाव, धोखा या भ्रम के, समझदारी से हाँ कहा।
यदि कोई व्यक्ति डर, भावनात्मक दबाव, धोखे, गलत जानकारी या भ्रम में आकर सहमति देता है, तो वह सहमति स्वतंत्र नहीं मानी जाती, और ऐसा अनुबंध कानूनी रूप से चुनौती योग्य (Voidable) हो सकता है।
उदाहरण:
- A ने B को जान से मारने की धमकी देकर जमीन बेचने का समझौता कराया।
➝ यह Coercion है → सहमति स्वतंत्र नहीं है। - किसी गुरु ने अपने शिष्य से भावनात्मक दबाव डालकर संपत्ति लिखवा ली।
➝ यह Undue Influence है → सहमति स्वतंत्र नहीं है। - अगर C ने D से झूठ बोलकर संविदा करवा ली (जैसे संपत्ति पर गलत जानकारी देना)
➝ यह Fraud या Misrepresentation हो सकता है। - अगर दोनों पक्ष किसी बात को लेकर भ्रमित थे (Mistake),
➝ तो सहमति मान्य नहीं होगी।
धारा 15 – “दबाव (Coercion)” की परिभाषा (Section 15 – “Coercion” Defined)
मुख्य परिभाषा:
“दबाव (Coercion)” का अर्थ है:
- भारतीय दंड संहिता, 1860 (Indian Penal Code – IPC) द्वारा वर्जित (निषिद्ध) किसी भी कार्य को करना,
या ऐसा कार्य करने की धमकी देना, - या किसी संपत्ति को अवैध रूप से रोकना (Unlawful Detention),
या रोकने की धमकी देना, - इन सबका उद्देश्य यह हो कि कोई व्यक्ति अनुबंध करने पर मजबूर हो जाए।
स्पष्टीकरण:
यह बात महत्त्वहीन है कि IPC उस स्थान पर लागू है या नहीं,
जहाँ दबाव डाला गया हो।
मतलब, IPC भले ही उस क्षेत्र में लागू न हो, लेकिन अगर जो कार्य किया गया है वह IPC के अनुसार अपराध है, तो वह दबाव माना जाएगा।
उदाहरण (Illustration):
- A और B समुद्र में एक अंग्रेजी जहाज़ पर हैं।
A, B को एक ऐसा काम करने की धमकी देता है जो भारतीय दंड संहिता के अनुसार “आपराधिक डराना” (Criminal Intimidation) माना जाता है।
परिणामस्वरूप, B अनुबंध करने के लिए मजबूर हो जाता है।
➝ बाद में A, B के खिलाफ कलकत्ता में अनुबंध उल्लंघन का मुकदमा करता है।
➝ भले ही वह कार्य अंग्रेजी कानून के तहत अपराध न हो, और
भले ही IPC की धारा 506 (आपराधिक डराना) उस स्थान और समय पर लागू न रही हो,
फिर भी यह “दबाव (Coercion)” माना जाएगा, क्योंकि कार्य IPC के तहत निषिद्ध है।
सरल शब्दों में समझें:
दबाव (Coercion) का मतलब है:
- किसी पर डर, धमकी, ज़बरदस्ती, या संपत्ति रोकने के जरिए
- उसे ऐसा अनुबंध करने पर मजबूर करना,
- जो वह सामान्यतः अपनी मर्जी से न करता।
और यह जरूरी नहीं है कि दबाव डालने वाला कार्य उस जगह पर कानून के तहत अपराध हो — सिर्फ इतना जरूरी है कि वह कार्य भारतीय दंड संहिता में मना किया गया हो।
धारा 16 – “अवांछनीय प्रभाव” की परिभाषा (Section 16 – Undue Influence Defined)
(1) परिभाषा (Definition):
जब किसी संविदा (Contract) को इस प्रकार प्रभाव में लाया गया हो कि
दोनों पक्षों के बीच ऐसा संबंध हो जिसमें एक पक्ष दूसरे की इच्छा पर नियंत्रण (Dominate the will) रखता हो,
और वह पक्ष इस स्थिति का लाभ उठाकर अनुचित फायदा (Unfair Advantage) प्राप्त करे,
तो ऐसी स्थिति को “अवांछनीय प्रभाव (Undue Influence)” कहा जाता है।
(2) किन स्थितियों में माना जाएगा कि कोई व्यक्ति दूसरे की इच्छा पर प्रभाव रखता है:
विशेष रूप से निम्नलिखित दो परिस्थितियों में:
(a) जब एक व्यक्ति के पास दूसरे पर वास्तविक या स्पष्ट अधिकार (Real or Apparent Authority) हो,
या जब वे विश्वासपूर्ण संबंध (Fiduciary Relation) में हों।
👉 जैसे: माता-पिता और बच्चे, गुरु और शिष्य, डॉक्टर और मरीज, वकील और मुवक्किल आदि।
(b) जब कोई व्यक्ति ऐसे व्यक्ति के साथ संविदा करता है जिसकी मानसिक स्थिति आयु, बीमारी या मानसिक/शारीरिक कष्ट के कारण प्रभावित हो।
👉 यानी सामने वाला व्यक्ति कमजोर या असहाय हो।
(3) अनुचित संविदा की स्थिति में प्रमाण का भार (Burden of Proof):
यदि कोई ऐसा व्यक्ति जो दूसरे की इच्छा पर नियंत्रण रखता है,
ऐसे व्यक्ति के साथ अनुबंध करता है और वह अनुबंध असंगत (Unconscionable) लगता है —
तो यह उस प्रभावशाली व्यक्ति की जिम्मेदारी होगी यह साबित करने की कि अनुबंध अवांछनीय प्रभाव से प्रेरित नहीं था।
⚖️ इसका अर्थ: कानून ऐसे मामलों में कमजोर पक्ष को संरक्षण देता है, और प्रभावशाली व्यक्ति को ही यह सिद्ध करना होता है कि उसने अपनी स्थिति का गलत उपयोग नहीं किया।
📝 नोट: यह उपधारा भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 111 को प्रभावित नहीं करती, जो विश्वास के संबंधों से जुड़ी है।
उदाहरण (Illustrations):
(a) A ने अपने बेटे B को नाबालिग अवस्था में पैसे उधार दिए।
जब B बालिग हुआ, तब A ने अपने माता-पिता के प्रभाव का दुरुपयोग कर उससे उधारी से अधिक रकम का बॉन्ड लिखवा लिया।
➡️ यह अवांछनीय प्रभाव है।
(b) A, एक बुजुर्ग या बीमार व्यक्ति है। उसका डॉक्टर B, अपनी स्थिति का फायदा उठाकर A से अपनी सेवाओं के लिए बहुत ज्यादा पैसा वसूलने वाला अनुबंध करवा लेता है।
➡️ यह भी अवांछनीय प्रभाव है।
(c) A, B नाम के साहूकार का कर्जदार है। वह B से एक नया कर्ज लेता है, जिसकी शर्तें बहुत कठोर और अन्यायपूर्ण हैं।
➡️ अब यह B की जिम्मेदारी है कि वह साबित करे कि उसने अवांछनीय प्रभाव नहीं डाला।
(d) A एक बैंक से कर्ज माँगता है जब बाजार में धन की कमी है। बैंक केवल बहुत ऊँचे ब्याज दर पर ऋण देने को तैयार है, और A मान जाता है।
➡️ यह सामान्य व्यापारिक व्यवहार (Ordinary Business) है —
यह अवांछनीय प्रभाव नहीं माना जाएगा।
सरल शब्दों में निष्कर्ष:
- जब कोई व्यक्ति अपनी शक्तिशाली स्थिति का गलत इस्तेमाल कर किसी कमजोर व्यक्ति से अनुबंध करवा लेता है,
तो वह अनुबंध अवांछनीय प्रभाव से प्रेरित माना जाएगा। - ऐसे मामलों में, प्रभावशाली व्यक्ति को ही यह सिद्ध करना होता है कि अनुबंध न्यायपूर्ण और स्वेच्छा से किया गया था।
धारा 17 – “धोखा” की परिभाषा (Section 17 – “Fraud” Defined)
मुख्य परिभाषा:
“धोखा (Fraud)” का अर्थ है कोई ऐसा कार्य,
जो संविदा करने वाले पक्ष (या उसके एजेंट/सहयोग से) द्वारा
जानबूझकर दूसरे पक्ष को धोखा देने या उसे अनुबंध करने के लिए उकसाने (Induce) के उद्देश्य से किया जाए।
ऐसे धोखे में निम्नलिखित कार्य शामिल हैं:
(1) झूठ को सच बताना (False Suggestion of Fact):
किसी बात को सच बताकर प्रस्तुत करना जबकि वह झूठ हो,
और वह कहने वाला खुद जानता हो कि वह बात झूठी है।
(2) किसी तथ्य को जानबूझकर छिपाना (Active Concealment of Fact):
जब कोई व्यक्ति किसी महत्त्वपूर्ण बात को जानबूझकर छुपा लेता है,
हालाँकि उसे उस बात का ज्ञान है।
(3) बिना निभाने की मंशा से किया गया वादा (False Promise Without Intention to Perform):
कोई वादा करना, जबकि शुरू से ही उसे निभाने की कोई मंशा न हो।
(4) अन्य कोई कार्य जो धोखा देने के लिए उपयुक्त हो (Any Act Fitted to Deceive):
ऐसा कोई भी कार्य जो स्वभाव से धोखा देने के लिए किया गया हो।
(5) वह कार्य या चूक जिसे क़ानून विशेष रूप से “धोखाधड़ी” घोषित करता है (Legally Declared Fraud):
ऐसा कोई कार्य या चुप रहना, जिसे क़ानून स्वयं “धोखा” मानता हो।
व्याख्या (Explanation):
केवल चुप रहना (Mere Silence) — जो किसी व्यक्ति की इच्छा को अनुबंध करने में प्रभावित कर सकता है —
धोखा नहीं माना जाएगा, जब तक कि:
- परिस्थितियाँ ऐसी न हों कि चुप रहने वाले व्यक्ति का बोलना कर्तव्य हो, या
- उसकी चुप्पी खुद में एक तरह की “बात” के बराबर मानी जाए।
उदाहरण (Illustrations):
(a) A नीलामी में B को ऐसा घोड़ा बेचता है जिसके बारे में A जानता है कि वह ठीक नहीं है, लेकिन वह B को नहीं बताता।
➡️ यह धोखा नहीं है, क्योंकि केवल चुप रहना ही धोखा नहीं है।
(b) B, A की बेटी है और अभी बालिग हुई है।
यहाँ, उनके रिश्ते के कारण, A का यह कर्तव्य बनता है कि वह घोड़े की खराबी के बारे में बताए।
➡️ यदि वह नहीं बताता, तो यह धोखा होगा।
(c) B कहता है: “अगर तुम कुछ नहीं बोलोगे, तो मैं मान लूंगा कि घोड़ा ठीक है।”
A फिर भी कुछ नहीं कहता।
➡️ यहाँ A की चुप्पी का मतलब हाँ माना जाएगा,
इसलिए यह धोखा है।
(d) A और B दोनों व्यापारी हैं। A के पास कीमतों में बदलाव की निजी जानकारी है, जो B की इच्छा को प्रभावित कर सकती है, फिर भी वह नहीं बताता।
➡️ A की कोई कानूनी बाध्यता नहीं है कि वह B को वह जानकारी दे।
➡️ इसलिए यह धोखा नहीं है।
सरल निष्कर्ष:
- जानबूझकर झूठ बोलना,
- सच को छुपाना,
- फर्जी वादा करना,
- या किसी और को धोखे से अनुबंध में फँसाना —
➡️ ये सभी “धोखा” (Fraud) कहलाते हैं। - लेकिन सिर्फ चुप रहना धोखा नहीं है —
जब तक वह चुप्पी गलत तरीके से उपयोग न की गई हो या उससे भ्रम न फैलाया गया हो।
धारा 18 – “कपटपूर्ण प्रस्तुतीकरण (Misrepresentation)” की परिभाषा
(Section 18 – “Misrepresentation” Defined)
मुख्य परिभाषा:
“Misrepresentation” (कपटपूर्ण प्रस्तुतीकरण) का अर्थ है — ऐसा कथन या आचरण जिससे किसी अनुबंध के पक्ष को बिना जानबूझे धोखा देने की मंशा के,
गलत जानकारी के आधार पर अनुबंध करने पर विवश कर दिया जाए।
इसमें निम्नलिखित तीन स्थितियाँ आती हैं:
(1) गलत तथ्यों की सकारात्मक पुष्टि (Positive Assertion of a False Fact):
जब कोई व्यक्ति किसी बात को सच मानकर, पूरी निश्चयता से उस बात को सही बताता है,
जबकि उसके पास उसकी जानकारी का कोई ठोस आधार नहीं होता,
और वास्तव में वह बात गलत होती है।
➡️ यानी वह झूठ नहीं बोल रहा है जानबूझकर, लेकिन जो कह रहा है वह गलत है, और उसे सच मान रहा है, जबकि ऐसी पुष्टि करने का उसे अधिकार नहीं।
(2) कर्तव्य का उल्लंघन, बिना धोखे की मंशा के (Breach of Duty Without Intent to Deceive):
जब कोई व्यक्ति किसी कानूनी या नैतिक कर्तव्य का पालन नहीं करता,
और उसका यह उल्लंघन किसी दूसरे पक्ष को नुकसान और खुद को या अपने पक्ष को लाभ पहुँचा देता है,
भले ही उसका उद्देश्य धोखा देना न हो,
तो यह भी Misrepresentation माना जाता है।
(3) विषय-वस्तु की प्रकृति में मासूम भ्रम पैदा करना (Innocently Causing a Mistake as to the Subject-Matter):
अगर कोई व्यक्ति बिना जानबूझे,
किसी दूसरे पक्ष को उस विषय के बारे में भ्रमित कर देता है,
जो अनुबंध का मुख्य विषय है,
तो यह भी Misrepresentation माना जाएगा।
सरल भाषा में समझें:
Misrepresentation यानी:
- आपने कुछ गलत कहा, लेकिन जानबूझकर नहीं कहा।
- आपने ऐसा कुछ कहा जिससे दूसरे पक्ष को ग़लतफ़हमी हो गई, और उसने अनुबंध कर लिया।
- आपका उद्देश्य धोखा देना नहीं था, लेकिन वास्तविकता छिप गई या ग़लत जानकारी मिल गई।
उदाहरण:
(1) A, एक ज़मीन को बेचते समय कहता है कि वह ज़मीन “Commercial Use” के लिए अधिकृत है।
उसे ऐसा विश्वास है, लेकिन वास्तव में वैसी अनुमति नहीं है।
➡️ यह Misrepresentation है — क्योंकि उसने गलत बात कही बिना धोखे की मंशा के।
(2) B, जो एक वकील है, अपने क्लाइंट को बिना पूरी जानकारी दिए ऐसा दस्तावेज़ साइन करवा देता है जिससे उसे खुद फायदा हो जाए।
➡️ यह कर्तव्य का उल्लंघन (Breach of Duty) है और Misrepresentation मानी जाएगी।
(3) C, एक मूर्ति को “खास पत्थर” की मानकर बेचता है, लेकिन असल में वह साधारण पत्थर की होती है।
दोनों पक्षों को इसकी जानकारी नहीं होती, लेकिन खरीदार को नुकसान हो जाता है।
➡️ यह भी Misrepresentation है।
निष्कर्ष (Conclusion):
- Misrepresentation तब होता है जब कोई व्यक्ति जानबूझकर धोखा नहीं देता,
लेकिन उसकी जानकारी, बयान या चुप्पी से दूसरे पक्ष को अनुबंध करने में भ्रम हो जाता है। - यह धोखे (Fraud) से अलग है, क्योंकि इसमें धोखा देने की मंशा नहीं होती,
फिर भी यह संविदा को निरस्त करने योग्य (Voidable) बना सकता है।
धारा 19 – स्वतंत्र सहमति के बिना किए गए अनुबंध की निरस्तता (Section 19 – Voidability of Agreements Without Free Consent)
🔷 मुख्य प्रावधान:
अगर किसी अनुबंध में किसी पक्ष की सहमति निम्नलिखित कारणों से प्राप्त की गई हो:
- दबाव (Coercion)
- धोखा (Fraud)
- कपटपूर्ण प्रस्तुतीकरण (Misrepresentation)
➡️ तो ऐसा अनुबंध उस पक्ष के लिए “निरस्त करने योग्य (Voidable)” होगा
जिसकी सहमति इन कारणों से प्राप्त की गई थी।
🔷 कपट या गलत जानकारी के मामले में विकल्प:
यदि किसी व्यक्ति की सहमति धोखा या Misrepresentation से प्राप्त की गई है,
तो वह व्यक्ति चाहें तो यह मांग कर सकता है कि:
✅ अनुबंध को पूरा किया जाए
✅ और उसे ऐसी स्थिति में लाया जाए जैसे कि जो बातें कही गई थीं, वह सच होतीं।
⚠️ अपवाद (Exception):
यदि सहमति केवल Misrepresentation या धोखापूर्ण चुप्पी (जो धारा 17 के अंतर्गत Fraud मानी जाती है) से प्राप्त हुई हो,
तो भी अनुबंध निरस्त नहीं किया जा सकता,
अगर उस पक्ष के पास साधारण समझदारी और सतर्कता (ordinary diligence) से सच्चाई पता लगाने का अवसर मौजूद था।
🔎 व्याख्या (Explanation):
अगर धोखा या गलत जानकारी ने अनुबंध करने की सहमति को प्रभावित नहीं किया,
तो वह अनुबंध निरस्त करने योग्य नहीं होगा।
📘 उदाहरण (Illustrations):
(a) A, B को धोखा देने की नीयत से झूठ कहता है कि उसकी फैक्ट्री में हर साल 500 मण नील बनती है।
B उस पर भरोसा करके फैक्ट्री खरीद लेता है।
➡️ यह अनुबंध B के विकल्प पर निरस्त करने योग्य है।
(b) A, B को गलत जानकारी देता है कि फैक्ट्री में हर साल 500 मण नील बनती है।
B खुद फैक्ट्री के खाते जांचता है, जिनसे पता चलता है कि केवल 400 मण बनती है, फिर भी वह खरीद लेता है।
➡️ अनुबंध निरस्त नहीं होगा, क्योंकि B को सच्चाई जानने का मौका मिला था।
(c) A धोखे से B को बताता है कि उसकी ज़मीन पर कोई बंधक (mortgage) नहीं है।
B ज़मीन खरीद लेता है, लेकिन उस पर बंधक होता है।
➡️ B चाहें तो अनुबंध रद्द कर सकते हैं, या मांग कर सकते हैं कि A बंधक का कर्ज चुकाकर ज़मीन दे।
(d) B, A की ज़मीन पर खनिज होने का पता लगाता है और उसे A से छुपाता है।
इस छुपाव के कारण वह ज़मीन कम कीमत पर खरीद लेता है।
➡️ यह अनुबंध A के विकल्प पर निरस्त करने योग्य है।
(e) A को B की मृत्यु के बाद संपत्ति का अधिकार मिलने वाला था।
C को B की मृत्यु की जानकारी पहले मिल जाती है और वह A को यह खबर नहीं मिलने देता, जिससे A अपनी हिस्सेदारी C को बेच देता है।
➡️ यह बिक्री A के विकल्प पर निरस्त की जा सकती है।
✅ सारांश (Conclusion):
- अगर सहमति दबाव, धोखा या झूठी जानकारी से प्राप्त हो, तो अनुबंध निरस्त करने योग्य होता है।
- लेकिन अगर व्यक्ति को सच्चाई जानने का अवसर मिला था और उसने खुद जांच नहीं की, तो वह अनुबंध निरस्त नहीं किया जा सकता।
- अनुचित तरीके से सहमति प्राप्त करने पर व्यक्ति को या तो अनुबंध रद्द करने का, या उचित रूप से पूरा करवाने का अधिकार होता है।
धारा 19A – अवांछनीय प्रभाव से प्रेरित अनुबंध को निरस्त करने की शक्ति
(Section 19A – Power to Set Aside Contract Induced by Undue Influence)
🔷 मुख्य प्रावधान:
जब किसी अनुबंध में किसी पक्ष की सहमति “अवांछनीय प्रभाव” (Undue Influence) द्वारा प्राप्त की जाती है,
तो ऐसा अनुबंध उस पक्ष के लिए निरस्त करने योग्य (Voidable) होता है जिसकी सहमति इस प्रकार प्राप्त की गई।
➡️ अर्थात्: प्रभावित व्यक्ति चाहे तो उस अनुबंध को पूर्ण रूप से रद्द (Set Aside Absolutely) कर सकता है।
➡️ परंतु यदि उस व्यक्ति को अनुबंध से कोई लाभ मिला है,
तो अदालत अनुबंध को रद्द करते समय उचित शर्तें और नियम तय कर सकती है,
ताकि किसी पक्ष के साथ अन्याय न हो।
📘 उदाहरण (Illustrations):
(a) A का बेटा B के नाम से जाली प्रोमिसरी नोट (Promissory Note) बना देता है।
B, A के बेटे के खिलाफ केस करने की धमकी देकर, A से एक बॉन्ड साइन करवा लेता है।
➡️ यदि B इस बॉन्ड के आधार पर मुकदमा करता है, तो अदालत इस बॉन्ड को रद्द कर सकती है, क्योंकि यह अवांछनीय प्रभाव से प्रेरित है।
(b) A एक साहूकार है। वह B (एक कृषक) को ₹100 उधार देता है,
लेकिन अवांछनीय प्रभाव डालकर ₹200 के लिए 6% मासिक ब्याज दर पर एक बॉन्ड साइन करवा लेता है।
➡️ अदालत यह बॉन्ड रद्द कर सकती है, लेकिन आदेश दे सकती है कि
B ₹100 और उचित ब्याज दर के साथ A को वापस लौटाए।
✅ सारांश (Conclusion):
- यदि कोई अनुबंध अवांछनीय प्रभाव से प्राप्त सहमति पर आधारित है,
तो प्रभावित पक्ष उसे रद्द कर सकता है। - अदालत अनुबंध को रद्द करते समय यह भी देखेगी कि
क्या प्रभावित व्यक्ति को कोई लाभ मिला है —
यदि हाँ, तो वह अनुबंध को न्यायोचित शर्तों के साथ ही रद्द करेगी।
धारा 20 – तथ्य के संबंध में दोनों पक्षों की भूल होने पर अनुबंध शून्य होता है
(Section 20 – Agreement Void Where Both Parties Are Under Mistake As to Matter of Fact)
🔷 मुख्य प्रावधान:
जब किसी अनुबंध के दोनों पक्ष एक ऐसे तथ्य के संबंध में भ्रमित हों जो अनुबंध के लिए आवश्यक (Essential) हो,
तो ऐसा अनुबंध शून्य (Void) होता है —
यानी उसकी कोई वैधानिक वैधता (Legal Enforceability) नहीं होती।
⚠️ स्पष्टीकरण (Explanation):
अगर अनुबंध के विषय की केवल मूल्य या कीमत के बारे में गलत धारणा (Erroneous Opinion as to Value) है,
तो उसे “तथ्य के संबंध में भूल” नहीं माना जाएगा।
➡️ अर्थात्: केवल कीमत का गलत अनुमान होने से अनुबंध शून्य नहीं होगा।
📘 उदाहरण (Illustrations):
(a) A सहमत होता है B को एक खास माल बेचने के लिए,
जो इंग्लैंड से बॉम्बे आते समय जहाज में लदा हुआ माना जाता है।
लेकिन वास्तविकता में उस सौदे से पहले ही जहाज डूब चुका था और माल नष्ट हो चुका था,
और दोनों पक्षों को यह जानकारी नहीं थी।
➡️ यह अनुबंध शून्य (Void) है।
(b) A, B से एक खास घोड़ा खरीदने की सहमति देता है।
लेकिन वह घोड़ा सौदे के समय ही मर चुका था,
और दोनों पक्ष इस बात से अनजान थे।
➡️ यह अनुबंध भी शून्य होगा।
(c) A, B के जीवनकाल तक किसी संपत्ति का हकदार होता है,
और वह यह संपत्ति C को बेचने की सहमति देता है।
लेकिन अनुबंध के समय B की मृत्यु हो चुकी थी, और A व C दोनों को इसका ज्ञान नहीं था।
➡️ यह अनुबंध भी शून्य (Void) होगा।
✅ सारांश (Conclusion):
- जब दोनों पक्षों की सहमति किसी जरूरी तथ्य की गलतफहमी पर आधारित हो,
तो ऐसा अनुबंध वैधानिक रूप से शून्य (Void) होता है। - लेकिन अगर भूल केवल मूल्यांकन या कीमत की है,
तो वह अनुबंध शून्य नहीं माना जाएगा।
धारा 21 – क़ानून के बारे में भूल का प्रभाव
(Section 21 – Effect of Mistakes as to Law)
🔷 मुख्य प्रावधान:
यदि कोई अनुबंध भारत में लागू किसी क़ानून (Law in force in India) के बारे में भूल के कारण किया गया हो,
तो वह अनुबंध निरस्त (voidable) नहीं होता।
➡️ मतलब:
अगर दोनों पक्षों ने भारत के किसी लागू क़ानून के बारे में गलतफहमी के कारण अनुबंध किया है,
तो वे यह कहकर अनुबंध से पीछा नहीं छुड़ा सकते कि उन्हें क़ानून की सही जानकारी नहीं थी।
❌ भारत के क़ानून को न जानना — कोई वैध कारण नहीं है।
⚠️ लेकिन:
यदि भूल ऐसे क़ानून के संबंध में हो जो भारत में लागू नहीं है
(जैसे विदेशी क़ानून),
तो उसे तथ्य की भूल (Mistake of Fact) के समान माना जाएगा,
और फिर वह अनुबंध शून्य हो सकता है, अगर अन्य शर्तें पूरी होती हैं।
📘 उदाहरण (Illustration):
A और B यह सोचकर अनुबंध करते हैं कि एक विशेष कर्ज भारतीय “Limitation Act” के तहत समय सीमा से बाहर हो चुका है,
जबकि वह वास्तव में अब भी वैध है।
➡️ इस गलतफहमी के बावजूद, अनुबंध निरस्त नहीं होगा, क्योंकि यह भारतीय क़ानून के बारे में भूल थी।
✅ सारांश (Conclusion):
- भारतीय क़ानून के बारे में गलतफहमी से किया गया अनुबंध निरस्त नहीं होता।
- लेकिन अगर विदेशी क़ानून के बारे में गलतफहमी है, तो उसे तथ्य की भूल की तरह देखा जाएगा,
और अनुबंध शून्य हो सकता है। - यह धारा पक्षकारों से अपेक्षा करती है कि वे भारतीय क़ानून की जानकारी रखें।
धारा 22 – किसी एक पक्ष की तथ्य के संबंध में भूल से बना अनुबंध
(Section 22 – Contract Caused by Mistake of One Party as to Matter of Fact)
🔷 मुख्य प्रावधान:
यदि किसी अनुबंध में केवल एक पक्ष को किसी तथ्य (Fact) को लेकर भूल हुई हो,
तो ऐसा अनुबंध केवल इस कारण से निरस्त (Voidable) नहीं होता।
➡️ यानी:
अगर केवल एक पार्टी को कोई गलतफहमी हो, और दूसरी पार्टी को नहीं —
तो वह व्यक्ति यह कहकर अनुबंध को रद्द नहीं कर सकता कि उसे गलतफहमी थी।
✅ सारांश (Conclusion):
- अगर अनुबंध के समय दोनों पक्षों को कोई आवश्यक तथ्य नहीं पता था,
तो वह अनुबंध धारा 20 के तहत शून्य (Void) हो सकता है। - लेकिन अगर केवल एक पक्ष को तथ्य की भूल थी,
तो वह अनुबंध धारा 22 के तहत निरस्त करने योग्य नहीं होता।
❗ इसलिए अनुबंध करते समय सावधानी, जांच और सतर्कता बहुत जरूरी है।
धारा 23 – कौन-से प्रतिफल (Consideration) और उद्देश्य (Object) वैध हैं और कौन-से नहीं
(Section 23 – What Considerations and Objects Are Lawful, and What Not)
🔷 मुख्य प्रावधान:
किसी अनुबंध का प्रतिफल (Consideration) या उद्देश्य (Object) वैध (Lawful) होता है,
जब तक कि वह निम्नलिखित में से किसी भी एक कारण से अवैध (Unlawful) न हो:
✅ प्रतिफल/उद्देश्य वैध होता है, जब तक वह:
- क़ानून द्वारा निषिद्ध (Forbidden by law) न हो
- ऐसा न हो कि अगर अनुमति दी जाए तो वह किसी क़ानून के उद्देश्य को निष्फल कर दे (Defeat the provisions of law)
- धोखाधड़ी (Fraudulent) न हो
- किसी व्यक्ति या संपत्ति को हानि पहुँचाने वाला (Injury) न हो
- ऐसा न हो जिसे अदालत अनैतिक (Immoral) या लोकनीति (Public Policy) के विरुद्ध माने
➡️ यदि कोई प्रतिफल या उद्देश्य इन पाँचों में से किसी भी एक में आता है,
तो वह अनुबंध अवैध (Unlawful) माना जाएगा
और ऐसा कोई भी अनुबंध शून्य (Void) होगा।
📘 उदाहरण (Illustrations):
(a) A ₹10,000 में B को अपना घर बेचने की सहमति देता है।
दोनों का उद्देश्य वैध है और प्रतिफल भी वैध है।
➡️ अनुबंध वैध है।
(b) A यह वादा करता है कि अगर C (जो B को ₹1,000 देना है) चूक करता है,
तो वह चुकाएगा। B, C को समय देने के लिए सहमत हो जाता है।
➡️ वैध प्रतिफल और वैध अनुबंध।
(c) A, B से पैसे लेकर यह वादा करता है कि यदि B का जहाज़ डूब जाए तो वह उसका नुकसान भरेगा।
➡️ बीमा जैसी स्थिति है — वैध अनुबंध।
(d) A, B के बच्चे की देखभाल के लिए वादा करता है, और B हर साल ₹1,000 देने का वादा करता है।
➡️ दोनों का प्रतिफल वैध — अनुबंध वैध है।
❌ अब अवैध उद्देश्य वाले उदाहरण:
(e) A, B और C धोखाधड़ी से पैसे कमाने के लिए लाभ का बंटवारा करने का समझौता करते हैं।
➡️ धोखाधड़ी है — अनुबंध शून्य।
(f) A, B के लिए सरकारी नौकरी लगवाने का वादा करता है, और B ₹1,000 देता है।
➡️ सरकारी सेवा में रिश्वत का इरादा — अनुबंध शून्य।
(g) A, जो किसी ज़मीन के मालिक का एजेंट है, छुपकर B को पैसे लेकर ज़मीन दिलाने का वादा करता है।
➡️ अपने मालिक के साथ धोखा — अनुबंध शून्य।
(h) A, B के खिलाफ चल रहे डकैती के मुकदमे को वापस लेने का वादा करता है, और B चोरी का सामान लौटाने का वादा करता है।
➡️ न्याय व्यवस्था में हस्तक्षेप — अनुबंध शून्य।
(i) A की ज़मीन राजस्व बकाया के कारण नीलाम होती है। कानून कहता है कि A खुद नहीं खरीद सकता।
B दिखावे के लिए खरीदी करता है और A से सौदा कर लेता है।
➡️ कानून को धोखा देना — अनुबंध शून्य।
(j) A, B का वकील (मुख्तार) है और C से ₹1,000 लेकर B को प्रभावित करने का वादा करता है।
➡️ अनैतिक व्यवहार — अनुबंध शून्य।
(k) A, अपनी बेटी को B के साथ रखैल के रूप में रखने की सहमति देती है।
➡️ गंभीर अनैतिकता, भले ही कानूनन अपराध न हो — अनुबंध शून्य।
✅ सारांश (Conclusion):
- अगर किसी अनुबंध का उद्देश्य या प्रतिफल अवैध, अनैतिक, धोखाधड़ीपूर्ण, हानिकारक या कानून के विरुद्ध है,
तो ऐसा अनुबंध शुरू से ही शून्य (Void ab initio) माना जाएगा। - अनुबंध की वैधता केवल उसमें लिखे शब्दों पर नहीं, बल्कि उसके पीछे के उद्देश्य पर भी निर्भर करती है।
धारा 24 – यदि प्रतिफल या उद्देश्य का कोई भाग अवैध हो तो अनुबंध शून्य होता है
(Section 24 – Agreement Void, If Considerations and Objects Unlawful in Part)
🔷 मुख्य प्रावधान:
यदि किसी अनुबंध में—
- किसी एक ही प्रतिफल (Consideration) का कोई भाग एक या अधिक उद्देश्यों (Objects) के लिए हो,
और उस प्रतिफल का कोई भाग अवैध हो,
या - कई प्रतिफलों में से किसी एक प्रतिफल का कोई भाग अवैध हो,
जो एक ही उद्देश्य के लिए हो,
तो पूरा अनुबंध शून्य (Void) हो जाएगा।
➡️ मतलब: यदि किसी अनुबंध का कोई भी हिस्सा अवैध हो —
चाहे वह उद्देश्य का हो या प्रतिफल का,
तो पूरा अनुबंध ही अमान्य (Void) माना जाएगा।
📘 उदाहरण (Illustration):
A, B की ओर से वैध रूप से नील (इंडिगो) बनाने के उद्योग की निगरानी करने का वादा करता है,
लेकिन साथ ही वह अवैध रूप से अन्य वस्तुओं के व्यापार में भी मदद करने का वादा करता है।
B, A को ₹10,000 सालाना वेतन देने का वादा करता है।
➡️ यहां, A के वादे का उद्देश्य आंशिक रूप से अवैध है (अवैध व्यापार)।
इसलिए B का वेतन देने का वादा भी अवैध प्रतिफल का हिस्सा बन जाता है।
पूरा अनुबंध शून्य है।
✅ सारांश (Conclusion):
- अगर अनुबंध का कोई भी भाग —
चाहे वह उद्देश्य हो या प्रतिफल, अवैध हो,
तो पूरा अनुबंध शून्य (Void) हो जाता है। - भारतीय अनुबंध अधिनियम किसी भी ऐसे अनुबंध को मान्यता नहीं देता
जो कानून, नैतिकता या सार्वजनिक नीति के विरुद्ध हो — भले ही उसका केवल एक हिस्सा ही क्यों न हो।
धारा 25 – बिना प्रतिफल (Consideration) के अनुबंध शून्य होता है, जब तक कि कुछ विशेष अपवाद लागू न हों
(Section 25 – Agreement Without Consideration Void, Unless It Is in Writing and Registered, or Is a Promise to Compensate, or Is a Promise to Pay a Debt Barred by Limitation Law)
🔷 मुख्य सिद्धांत:
कोई भी अनुबंध यदि बिना प्रतिफल (Consideration) किया गया है,
तो वह सामान्यतः शून्य (Void) होता है।
लेकिन तीन विशेष परिस्थितियों में ऐसा बिना प्रतिफल वाला अनुबंध वैध (Valid Contract) माना जाता है:
✅ तीन अपवाद जिनमें बिना प्रतिफल भी अनुबंध वैध होता है:
(1) प्राकृतिक स्नेह और प्रेम के आधार पर:
- अनुबंध लिखित (in writing) हो,
- पंजीकृत (registered) हो, और
- अनुबंध करने वाले पक्षों के बीच निकट संबंध (near relation) हो,
- और यह प्राकृतिक प्रेम और स्नेह (natural love and affection) पर आधारित हो।
➡️ तब यह अनुबंध वैध होगा।
(2) पहले से की गई सेवा के लिए प्रतिपूर्ति (Compensation) का वादा:
- अगर कोई व्यक्ति स्वेच्छा से (voluntarily)
किसी अन्य के लिए कोई कार्य पहले कर चुका हो,
और बाद में वह व्यक्ति उसे पूर्ण या आंशिक रूप से मुआवज़ा देने का वादा करता है,
➡️ तो यह अनुबंध वैध होगा।
(3) सीमा अधिनियम (Limitation Law) द्वारा रोके गए पुराने ऋण का भुगतान:
- यदि कोई ऋण, जो पहले विधिक रूप से वसूल किया जा सकता था,
लेकिन अब Limitation Act के अंतर्गत वसूल नहीं किया जा सकता,
और फिर भी देनदार लिखित रूप में उसका आंशिक या पूर्ण भुगतान करने का वादा करता है,
➡️ तो यह वादा वैध अनुबंध माना जाएगा।
⚖️ स्पष्टीकरण (Explanations):
Explanation 1:
इस धारा का कोई प्रभाव डोनर (देने वाले) और डोनी (लेने वाले) के बीच पहले से किया गया कोई उपहार (Gift) पर नहीं पड़ेगा।
👉 यानि वास्तविक रूप से दिया गया कोई Gift इस धारा से अप्रभावित रहेगा।
Explanation 2:
यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अनुबंध करता है,
तो केवल यह कारण कि प्रतिफल अपर्याप्त (Inadequate) है,
अनुबंध को शून्य नहीं बनाता।
हालांकि, अगर विवाद हो कि सहमति स्वेच्छा से दी गई या नहीं,
तो अपर्याप्त प्रतिफल को एक संकेत (Indicator) के रूप में अदालत द्वारा देखा जा सकता है।
📘 उदाहरण (Illustrations):
(a) A बिना किसी प्रतिफल के B को ₹1,000 देने का वादा करता है।
➡️ शून्य अनुबंध।
(b) A अपने बेटे B को प्राकृतिक प्रेम और स्नेह के कारण ₹1,000 देने का लिखित व पंजीकृत वादा करता है।
➡️ वैध अनुबंध।
(c) A को B का पर्स मिल जाता है और वह लौटा देता है।
B ₹50 देने का वादा करता है।
➡️ वैध अनुबंध (पूर्व सेवा के लिए प्रतिपूर्ति का वादा)।
(d) A, B के छोटे बेटे की देखरेख करता है।
B, A को खर्चा देने का वादा करता है।
➡️ वैध अनुबंध।
(e) A को B से ₹1,000 देना है, लेकिन वह ऋण Limitation Act की मियाद से बाहर है।
A लिखित रूप में ₹500 देने का वादा करता है।
➡️ वैध अनुबंध।
(f) A ₹1,000 के घोड़े को ₹10 में बेचने को सहमत होता है,
और उसने स्वेच्छा से सहमति दी।
➡️ अनुबंध वैध है, भले ही प्रतिफल बहुत कम हो।
(g) वही घोड़ा ₹10 में बेचने की सहमति A देता है,
लेकिन बाद में कहता है कि सहमति स्वेच्छा से नहीं थी।
➡️ अदालत अपर्याप्त प्रतिफल को ध्यान में रखेगी यह तय करने में कि सहमति स्वेच्छा से दी गई या नहीं।
✅ सारांश (Conclusion):
- बिना प्रतिफल वाला अनुबंध सामान्यतः शून्य होता है।
- लेकिन यदि अनुबंध —
- प्राकृतिक स्नेह के साथ, लिखित व पंजीकृत हो,
- पहले से किए गए कार्य के लिए प्रतिपूर्ति का वादा हो,
- पुराने ऋण को भुगतान करने का लिखित वादा हो (जो Limitation के कारण वसूल नहीं हो सकता),
➡️ तब वह अनुबंध वैध होता है।
धारा 26 – विवाह पर प्रतिबंध लगाने वाला अनुबंध शून्य होता है
(Section 26 – Agreement in Restraint of Marriage, Void)
🔷 मुख्य प्रावधान:
यदि कोई अनुबंध किसी व्यक्ति (जो नाबालिग नहीं है) के विवाह करने के अधिकार को सीमित (Restrict) करता है,
तो ऐसा हर अनुबंध शून्य (Void) माना जाएगा।
➡️ यानी, कोई भी व्यक्ति, जो अव्यस्क (Minor) नहीं है,
उसके विवाह करने की स्वतंत्रता पर कोई भी रोक या शर्त लगाने वाला अनुबंध मान्य नहीं है।
✅ मुख्य बिंदु:
- यह धारा केवल बालिग व्यक्तियों (major persons) पर लागू होती है।
- यदि कोई अनुबंध यह कहता है कि किसी व्यक्ति को:
- किसी विशेष समय तक विवाह नहीं करना है, या
- किसी विशेष व्यक्ति से विवाह नहीं करना है, या
- विवाह न करने पर कोई लाभ मिलेगा या विवाह करने पर कोई हानि होगी,
➡️ तो ऐसा अनुबंध अमान्य (Void) है।
⚖️ कानूनी उद्देश्य:
इस प्रावधान का उद्देश्य यह है कि विवाह करना एक मौलिक स्वतंत्रता है,
और कोई भी निजी अनुबंध इस पर रोक नहीं लगा सकता।
सिवाय इसके कि वह व्यक्ति नाबालिग हो — तब उस पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
📌 नोट:
- नाबालिगों (Minors) के विवाह पर रोक लगाने वाले अनुबंध मान्य हो सकते हैं,
क्योंकि कानून स्वयं नाबालिगों के विवाह को वैध नहीं मानता। - लेकिन यदि कोई अनुबंध बालिग व्यक्ति को विवाह से रोकता है,
➤ तो ऐसा अनुबंध अपने आप ही शून्य होता है — भले ही पक्षकारों ने सहमति दी हो।
📝 संक्षेप में निष्कर्ष:
“बालिग व्यक्ति के विवाह की स्वतंत्रता पर रोक लगाने वाला कोई भी अनुबंध भारतीय कानून में शून्य (Void) होता है।”
धारा 27 – व्यापार पर प्रतिबंध लगाने वाला अनुबंध शून्य होता है
(Section 27 – Agreement in Restraint of Trade, Void)
🔷 मुख्य प्रावधान:
हर ऐसा अनुबंध, जिसमें कोई व्यक्ति को कानूनी रूप से कोई व्यवसाय (Profession), व्यापार (Trade) या धंधा (Business) करने से रोकने (Restrain) की कोशिश की गई हो,
उस सीमा तक शून्य (Void) होता है।
➡️ मतलब:
किसी भी व्यक्ति को वैध रूप से रोज़गार, व्यापार या व्यवसाय करने से रोकने वाला अनुबंध भारतीय कानून में मान्य नहीं होता।
✅ अपवाद (Exception):
🟩 व्यवसाय की प्रतिष्ठा (Goodwill) बेचने का मामला – वैध प्रतिबंध:
यदि कोई व्यक्ति अपने व्यवसाय की Goodwill (प्रतिष्ठा या नाम) को बेचता है,
तो वह खरीदार से यह वादा कर सकता है कि वह निर्धारित सीमाओं (Local Limits) के अंदर
उसी प्रकार का व्यापार दोबारा नहीं करेगा, जब तक:
- खरीदार या उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति वही व्यापार करता है, और
- प्रतिबंधित क्षेत्र उचित (Reasonable) माना जाए।
➡️ ऐसा अनुबंध वैध (Valid) होगा,
यदि प्रतिबंध सीमित और व्यवसाय की प्रकृति के अनुसार न्यायोचित हो।
📘 उदाहरण (Illustration):
- अमान्य (Void):
A और B एक व्यापार में प्रतियोगी हैं। A, B से कहता है कि “तुम अब यह व्यापार नहीं करोगे” और इसके लिए अनुबंध करते हैं।
➤ यह अनुबंध शून्य है। - मान्य (Valid):
A अपना मिठाई का व्यवसाय और उसकी Goodwill, B को बेच देता है। A यह अनुबंध करता है कि वह अगले 5 वर्षों तक उसी शहर में मिठाई का व्यवसाय नहीं करेगा।
➤ यदि यह सीमा उचित मानी जाए, तो यह अनुबंध वैध होगा।
⚖️ कानूनी उद्देश्य:
- यह धारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आजीविका के अधिकार की रक्षा करती है।
- कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र रूप से व्यापार या व्यवसाय करने के लिए स्वतंत्र है,
और उसे अनुबंध के माध्यम से रोका नहीं जा सकता।
📝 सारांश:
- व्यापार या व्यवसाय पर कोई भी प्रतिबंध लगाने वाला अनुबंध शून्य होता है,
सिवाय इसके कि वह Goodwill बेचने से संबंधित न्यायसंगत प्रतिबंध हो।
धारा 28 – वैधानिक कार्यवाही पर प्रतिबंध लगाने वाले अनुबंध शून्य होते हैं
(Section 28 – Agreements in Restraint of Legal Proceedings, Void)
🔷 मुख्य प्रावधान:
प्रत्येक ऐसा अनुबंध शून्य (Void) होता है, जिसमें —
(a) किसी पक्ष को पूरी तरह से यह रोक दिया गया हो कि वह अपने किसी अनुबंध से संबंधित अधिकार को
न्यायालय (Court) या विधिक प्रक्रिया द्वारा लागू न कर सके,
या उसे निश्चित समय सीमा में ही लागू करने के लिए बाध्य किया गया हो;
(b) कोई ऐसा अनुबंध जो किसी पक्ष के अधिकारों को समाप्त कर देता है या किसी पक्ष को
अनुबंध की देनदारी (Liability) से इस प्रकार मुक्त करता है कि वह अपने अधिकार को लागू न कर सके,
तो ऐसा अनुबंध उसी हद तक शून्य माना जाएगा।
✅ अपवाद (Exceptions):
🟩 अपवाद 1: मध्यस्थता (Arbitration) के लिए अनुबंध – भविष्य के विवादों के लिए
यदि दो या अधिक पक्ष यह अनुबंध करते हैं कि उनके बीच भविष्य में उत्पन्न होने वाला कोई विवाद
मध्यस्थता (Arbitration) में सुलझाया जाएगा और मात्र मध्यस्थ द्वारा दिया गया निर्णय ही मान्य होगा,
तो यह अनुबंध वैध (Valid) है।
👉 इस अपवाद से स्पष्ट होता है कि मध्यस्थता को मान्यता दी गई है, बशर्ते पक्षकारों की सहमति हो।
🟩 अपवाद 2: पूर्व में उत्पन्न हुए विवादों को मध्यस्थता में भेजने का अनुबंध
यदि कोई लिखित अनुबंध यह कहता है कि पहले से चले आ रहे विवाद को मध्यस्थता के द्वारा सुलझाया जाएगा,
तो यह अनुबंध भी वैध (Valid) माना जाएगा।
यह किसी भी ऐसे कानून को प्रभावित नहीं करता जो मध्यस्थता की अनुमति देता हो।
🟩 अपवाद 3: बैंक या वित्तीय संस्थानों द्वारा दी गई गारंटी
यदि कोई बैंक या वित्तीय संस्था किसी गारंटी अनुबंध में यह शर्त शामिल करती है कि
किसी निश्चित घटना घटने या न घटने की तारीख से कम से कम एक वर्ष के भीतर
अगर दावा न किया जाए, तो उस गारंटी की देनदारी समाप्त हो जाएगी,
तो ऐसा अनुबंध भी वैध (Valid) होगा।
👉 इसका उद्देश्य है:
बैंकिंग और वित्तीय संस्थानों को सीमित देनदारी में सुरक्षा देना।
📘 स्पष्टीकरण (Explanation):
- “Bank” शब्द में निम्नलिखित शामिल हैं:
- बैंकिंग कंपनियाँ,
- भारतीय स्टेट बैंक,
- क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक,
- सहकारी बैंक,
- बहु-राज्य सहकारी बैंक आदि।
- “Financial Institution” में वे सभी सार्वजनिक वित्तीय संस्थान आते हैं जिन्हें कंपनियों अधिनियम, 1956 की धारा 4A में परिभाषित किया गया है।
⚖️ कानूनी उद्देश्य:
- कोई भी व्यक्ति अपने कानूनी अधिकारों का त्याग नहीं कर सकता,
और उसे न्यायालय तक पहुंच का अधिकार होना चाहिए। - कानून यह सुनिश्चित करता है कि अनुबंध में ऐसी कोई शर्त न हो
जो किसी पक्ष को कानूनी कार्यवाही से वंचित कर दे।
📝 सारांश:
- यदि कोई अनुबंध किसी व्यक्ति को अपने अधिकार लागू करने से रोकता है,
या एक निश्चित समय के बाद अधिकार समाप्त कर देता है,
तो ऐसा अनुबंध शून्य होता है,
सिवाय कुछ अपवादों (जैसे कि मध्यस्थता या बैंक गारंटी) के।
धारा 29 – अस्पष्ट (अनिश्चित) समझौतों का शून्य होना
(Section 29 – Agreements Void for Uncertainty)
🔷 मुख्य प्रावधान:
ऐसे सभी समझौते (Agreements), जिनका अर्थ स्पष्ट नहीं है,
या जिनका अर्थ स्पष्ट बनाया नहीं जा सकता, वे शून्य (Void) होते हैं।
👉 मतलब: अगर कोई अनुबंध ऐसा है कि उसके शब्दों से यह समझ नहीं आ रहा कि उसका तात्पर्य क्या है, और उसे स्पष्ट करना भी संभव नहीं है, तो ऐसा अनुबंध वैध नहीं होगा।
📘 उदाहरण (Illustrations):
(a) A, B को बेचने के लिए “100 टन तेल” की बात करता है, लेकिन यह नहीं बताया गया कि किस प्रकार का तेल।
➡️ यह अनुबंध शून्य है, क्योंकि यह अस्पष्ट (Uncertain) है।
(b) A, B को एक विशेष प्रकार के तेल (“specified description”) के 100 टन बेचने की बात करता है, जो बाज़ार में एक मान्य वस्तु है।
➡️ यहाँ कोई अस्पष्टता नहीं है, इसलिए अनुबंध वैध है।
(c) A केवल नारियल के तेल का व्यापारी है और वह B को “100 टन तेल” बेचने का अनुबंध करता है।
➡️ A के व्यापार की प्रकृति से समझ आता है कि “तेल” का मतलब नारियल तेल है, इसलिए अनुबंध वैध है।
(d) A, B को “मेरे रामनगर के गोदाम में रखे हुए सारा अनाज” बेचने की बात करता है।
➡️ यह स्पष्ट है कि किस अनाज की बात हो रही है, इसलिए अनुबंध वैध है।
(e) A, B को “1000 मन चावल” बेचने का अनुबंध करता है, जिसकी कीमत C द्वारा तय की जाएगी।
➡️ चूंकि कीमत निश्चित की जा सकती है, अनुबंध वैध है।
(f) A, B को “मेरा सफेद घोड़ा ₹500 या ₹1000 में बेचने” की बात करता है, पर यह नहीं बताया कि कौन सी कीमत तय है।
➡️ चूंकि कीमत स्पष्ट नहीं है और स्पष्ट करना भी संभव नहीं, यह अनुबंध शून्य है।
⚖️ कानूनी उद्देश्य:
- अनुबंध तभी वैध हो सकता है जब उसके सभी आवश्यक तत्व, जैसे — वस्तु, मूल्य, शर्तें आदि स्पष्ट (Certain) हों।
- अनिश्चित और भ्रमित करने वाले अनुबंध, जो न्यायालय द्वारा लागू नहीं किए जा सकते, शून्य (Void) होते हैं।
📝 सारांश:
- यदि किसी अनुबंध की भाषा या शर्तें इतनी अस्पष्ट हों कि उनका सही अर्थ समझना या तय करना संभव न हो,
तो वह अनुबंध भारतीय अनुबंध अधिनियम के तहत शून्य (Void) माना जाएगा। - परन्तु यदि स्थिति या संदर्भ से अस्पष्टता दूर की जा सकती है, तो अनुबंध वैध (Valid) रहेगा।
धारा 30 – सट्टे (Wager) से संबंधित अनुबंध शून्य होते हैं
(Section 30 – Agreements by Way of Wager, Void)
🔷 मुख्य प्रावधान:
सट्टे के रूप में किए गए सभी अनुबंध शून्य (Void) होते हैं।
👉 इसका अर्थ है कि:
- यदि कोई व्यक्ति किसी अनिश्चित घटना (जैसे खेल, प्रतियोगिता, या भविष्य की कोई संभावना) पर शर्त लगाता है और कोई अनुबंध करता है,
तो ऐसा अनुबंध कानूनन अमान्य है। - कोई भी वाद (Suit) इस बात पर नहीं लाया जा सकता कि:
- सट्टे में जीती गई कोई रकम मिलनी चाहिए, या
- किसी व्यक्ति को सट्टे के परिणाम पर भरोसा करके दी गई कोई चीज़ वापस चाहिए।
✅ अपवाद (Exception):
🏇 घुड़दौड़ (Horse-Racing) के लिए विशेष छूट:
- यदि कोई व्यक्ति किसी घुड़दौड़ प्रतियोगिता के लिए ₹500 या उससे अधिक की राशि के पुरस्कार (Prize) हेतु
दान (Contribution), सदस्यता (Subscription) या ऐसा अनुबंध करता है,
तो यह शून्य नहीं माना जाएगा।
👉 यानी, घुड़दौड़ में पुरस्कार के लिए दिया गया पैसा सट्टा नहीं माना जाएगा,
बशर्ते कि वह ₹500 या अधिक की रकम के लिए हो।
📘 भारतीय दंड संहिता की धारा 294A पर प्रभाव नहीं:
- यह धारा IPC की धारा 294A को प्रभावित नहीं करती।
👉 इसका मतलब है कि यदि कोई घुड़दौड़ या सट्टा ऐसा है जो धारा 294A के अंतर्गत अवैध लॉटरी या सट्टा योजना के रूप में आता है,
तो वह अभी भी अपराध बना रहेगा, भले ही उसे घुड़दौड़ की आड़ में किया गया हो।
📝 सारांश:
- सट्टे से संबंधित अनुबंध (Wagering Agreements) पूरी तरह से शून्य (Void) हैं —
उन्हें ना अदालत में लागू किया जा सकता है, और ना ही उनकी वसूली की जा सकती है। - केवल घुड़दौड़ प्रतियोगिता में ₹500 या उससे अधिक के वैध पुरस्कार हेतु की गई सदस्यता/दान/अनुबंध को
इससे छूट दी गई है। - लेकिन धारा 294A IPC के तहत प्रतिबंधित सट्टे/लॉटरी गतिविधियाँ इस छूट के दायरे में नहीं आतीं।
धारा 31 – “अनिश्चित (Contingent) अनुबंध” की परिभाषा
(Section 31 – “Contingent Contract” Defined)
🔷 मुख्य परिभाषा:
“अनिश्चित अनुबंध” (Contingent Contract) वह अनुबंध होता है जिसमें:
👉 किसी कार्य को करना या न करना किसी ऐसी घटना के घटित या न घटित होने पर निर्भर करता है,
जो कि उस अनुबंध से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित (Collateral) नहीं होती, लेकिन उस पर अनुबंध की पूर्ति निर्भर करती है।
📘 उदाहरण:
🔹 A, B से यह अनुबंध करता है कि
“यदि B का घर जलकर नष्ट हो जाता है तो वह उसे ₹10,000 देगा।”
➡️ यह एक अनिश्चित अनुबंध (Contingent Contract) है,
क्योंकि भुगतान की शर्त B के घर के जलने पर निर्भर है –
और यह घटना अनुबंध के उद्देश्य से अप्रत्यक्ष (Collateral) रूप से जुड़ी है।
✅ सरल भाषा में समझें:
- जब कोई अनुबंध किसी भविष्य की अनिश्चित घटना पर आधारित होता है,
और वह घटना घटेगी या नहीं घटेगी, यह तय नहीं होता,
तब तक अनुबंध लागू नहीं होता – उसे ही Contingent Contract कहते हैं। - ऐसा अनुबंध तभी प्रभावी (Enforceable) होगा जब वह शर्त/घटना वास्तव में घटे या न घटे — जैसा अनुबंध में तय किया गया हो।
धारा 32 – किसी घटना के घटने पर आधारित अनुबंधों को लागू करने का प्रावधान
(Section 32 – Enforcement of Contracts Contingent on an Event Happening)
🔷 मुख्य प्रावधान:
यदि कोई अनुबंध इस शर्त पर आधारित है कि कोई अनिश्चित भविष्य की घटना घटेगी, तो:
- ऐसा अनुबंध तभी लागू (enforce) किया जा सकता है, जब वह घटना वास्तव में घट जाती है।
- यदि वह घटना घटित होना असंभव (impossible) हो जाए, तो अनुबंध शून्य (void) हो जाता है।
📘 उदाहरण (Illustrations):
(a) A, B से यह अनुबंध करता है कि “अगर A, C से पहले जीवित रहा तो वह B का घोड़ा खरीदेगा।”
➡️ यह अनुबंध तब तक लागू नहीं होगा जब तक C की मृत्यु A के जीवनकाल में नहीं हो जाती।
(b) A, B से यह अनुबंध करता है कि “अगर C, जिसे घोड़ा पहले ऑफर किया गया है, उसे खरीदने से मना कर दे, तो A घोड़े को B को बेचेगा।”
➡️ यह अनुबंध तब तक लागू नहीं होगा जब तक C घोड़ा खरीदने से मना न कर दे।
(c) A, B से यह अनुबंध करता है कि वह उसे तब एक निश्चित राशि देगा जब B, C से विवाह करेगा।
लेकिन C की मृत्यु हो जाती है बिना विवाह के।
➡️ अब यह अनुबंध शून्य (Void) हो जाएगा, क्योंकि घटना घटित होना असंभव हो गया।
✅ सारांश:
- जब किसी अनुबंध की पूर्ति किसी अनिश्चित घटना के घटने पर निर्भर होती है,
तो वह अनुबंध तब तक लागू नहीं होता जब तक वह घटना वास्तव में घट न जाए। - यदि वह घटना घटित ही नहीं हो सकती, तो अनुबंध स्वतः शून्य हो जाता है।
धारा 33 – किसी घटना के न घटने पर आधारित अनुबंधों को लागू करने का प्रावधान
(Section 33 – Enforcement of Contracts Contingent on an Event Not Happening)
🔷 मुख्य प्रावधान:
यदि कोई अनुबंध इस शर्त पर आधारित है कि कोई अनिश्चित भविष्य की घटना नहीं घटेगी, तो:
- ऐसा अनुबंध तभी लागू किया जा सकता है, जब यह निश्चित हो जाए कि वह घटना अब घट ही नहीं सकती (अर्थात असंभव हो गई हो)।
- उससे पहले उस अनुबंध को लागू नहीं किया जा सकता।
📘 उदाहरण (Illustration):
🔹 A, B से यह अनुबंध करता है कि “यदि एक विशेष जहाज वापस नहीं लौटेगा तो वह B को एक निश्चित राशि देगा।”
➡️ बाद में वह जहाज समुद्र में डूब जाता है।
✅ अब यह स्पष्ट हो जाता है कि जहाज लौट ही नहीं सकता,
इस लिए अब A और B के बीच किया गया अनुबंध लागू किया जा सकता है।
✅ सरल शब्दों में सारांश:
- अगर अनुबंध किसी घटना के “न घटने” पर आधारित है,
तो उसे तब तक लागू नहीं किया जा सकता, जब तक यह पूरी तरह निश्चित न हो जाए कि वह घटना अब नहीं घट सकती। - जैसे ही वह घटना असंभव हो जाती है, उस क्षण से अनुबंध वैध और लागू हो जाता है।
धारा 34 – जब अनुबंध किसी जीवित व्यक्ति के भविष्य के आचरण पर आधारित हो, तब घटना को असंभव कब माना जाएगा
(Section 34 – When Event on Which Contract is Contingent to be Deemed Impossible, if it is the Future Conduct of a Living Person)
🔷 मुख्य प्रावधान:
यदि कोई अनुबंध इस पर निर्भर करता है कि भविष्य में कोई व्यक्ति किसी विशेष प्रकार से आचरण करेगा,
और वह व्यक्ति ऐसा कोई कार्य कर देता है जिससे यह असंभव हो जाता है कि वह उस प्रकार से निश्चित समय के भीतर या बिना किसी और शर्त के आचरण कर सके,
तो ऐसी स्थिति में वह घटना असंभव मानी जाएगी।
📘 उदाहरण (Illustration):
🔹 A, B को एक निश्चित राशि देने का अनुबंध करता है यदि B, C से विवाह करता है।
लेकिन C, D से विवाह कर लेती है।
➡️ अब B और C का विवाह होना असंभव माना जाएगा,
भले ही यह संभावित हो कि भविष्य में D की मृत्यु हो जाए और फिर C, B से विवाह कर ले।
➡️ इस परिस्थिति में C का D से विवाह कर लेना ही ऐसा कार्य है जिससे B और C के विवाह की घटना निश्चित समय में होना असंभव हो गया।
✅ सरल शब्दों में सारांश:
- अगर अनुबंध किसी व्यक्ति के भविष्य के आचरण (जैसे विवाह करना, काम करना आदि) पर आधारित है,
- और वह व्यक्ति ऐसा कोई कार्य कर देता है जिससे वह वांछित आचरण अब निश्चित समय के भीतर नहीं कर सकता,
तो उस पर आधारित अनुबंध असंभव और शून्य माना जाएगा।
धारा 35 – निश्चित समय के भीतर किसी अनिश्चित घटना पर आधारित अनुबंधों के शून्य (void) होने और लागू किए जाने की स्थिति
(Section 35 – When Contracts Become Void Which Are Contingent on Happening of Specified Event Within Fixed Time; When Contracts May Be Enforced Which Are Contingent on Specified Event Not Happening Within Fixed Time)
🔷 मुख्य प्रावधान (दो हिस्सों में):
(1) यदि कोई अनुबंध इस पर निर्भर करता है कि कोई अनिश्चित घटना निश्चित समय के भीतर घटे,
तो ऐसा अनुबंध इन दोनों स्थितियों में शून्य (void) हो जाएगा:
- यदि निर्धारित समय समाप्त हो जाए और वह घटना न घटी हो;
- या यदि समय समाप्त होने से पहले ही यह निश्चित हो जाए कि वह घटना अब नहीं घट सकती।
(2) यदि कोई अनुबंध इस पर आधारित है कि कोई अनिश्चित घटना निश्चित समय के भीतर न घटे,
तो ऐसा अनुबंध इन दोनों स्थितियों में वैध रूप से लागू किया जा सकता है:
- जब समय समाप्त हो जाए और वह घटना न घटी हो;
- या समय समाप्त होने से पहले ही यह निश्चित हो जाए कि वह घटना अब घटेगी नहीं।
📘 उदाहरण (Illustrations):
🔹 (a) A, B को यह कहकर पैसा देने का वादा करता है कि “अगर एक जहाज एक साल के भीतर वापस लौटेगा”।
➡️ यदि जहाज एक साल में लौट आए – अनुबंध लागू किया जा सकता है।
➡️ अगर वह जहाज एक साल के भीतर जल जाए – तो अनुबंध शून्य हो जाएगा।
🔹 (b) A, B को यह कहकर पैसा देने का वादा करता है कि “अगर एक जहाज एक साल के भीतर वापस नहीं लौटेगा”।
➡️ अगर जहाज एक साल में वापस न लौटे या एक साल के भीतर जल जाए – अनुबंध लागू किया जा सकता है।
✅ सरल सारांश:
- अगर किसी घटना के घटने पर अनुबंध निर्भर है, और वह घटना निश्चित समय में न हो, तो अनुबंध शून्य हो जाएगा।
- अगर किसी घटना के न घटने पर अनुबंध निर्भर है, और वह घटना निश्चित समय में न घटे, तो अनुबंध लागू हो सकता है।
धारा 36 – असंभव घटनाओं पर आधारित अनुबंध शून्य होते हैं
(Section 36 – Agreement Contingent on Impossible Events Void)
🔷 मुख्य प्रावधान:
अगर कोई अनुबंध किसी असंभव घटना के घटित होने पर आधारित है — चाहे उस असंभवता के बारे में पक्षों को पता हो या न हो,
तो ऐसा अनुबंध शून्य (void) होता है।
इसका मतलब है कि:
- अगर कोई व्यक्ति किसी और से ऐसा अनुबंध करता है जो किसी असंभव परिस्थिति पर निर्भर करता है,
- तो वह अनुबंध कानून द्वारा अमान्य (invalid) माना जाएगा।
📘 उदाहरण (Illustrations):
🔹 (a) A, B को 1,000 रुपये देने का वादा करता है यदि दो सीधी रेखाएं किसी क्षेत्र को घेर सकें।
➡️ यह गणितीय रूप से असंभव है, इसलिए अनुबंध शून्य है।
🔹 (b) A, B को 1,000 रुपये देने का वादा करता है यदि B, A की बेटी C से विवाह करेगा, लेकिन C की मृत्यु अनुबंध के समय हो चुकी थी।
➡️ C की मृत्यु के कारण विवाह असंभव है, इसलिए अनुबंध शून्य है।
✅ सरल सारांश:
जो अनुबंध किसी असंभव घटना के होने पर आधारित होते हैं, वे शून्य (Void) होते हैं, भले ही पक्षों को उस असंभवता का ज्ञान हो या नहीं।
यह न्यायिक सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि कानून केवल वास्तविक और संभव परिस्थितियों में आधारित अनुबंधों को ही मान्यता दे।
धारा 37 – अनुबंधों में पक्षकारों का दायित्व
(Section 37 – Obligation of Parties to Contracts)
🔷 मुख्य प्रावधान:
जो पक्ष (Parties) किसी अनुबंध (Contract) में शामिल होते हैं, उन्हें या तो:
- अपने-अपने वादों (promises) को पूरा करना होता है,
- या फिर प्रदर्शन का प्रस्ताव (offer to perform) देना होता है,
जब तक कि:
- उस प्रदर्शन (performance) को माफ (dispensed) या छूट (excused) न दी गई हो इस अधिनियम या किसी अन्य कानून के तहत।
➡️ इसका अर्थ है कि प्रत्येक पक्ष को अपने अनुबंध के अनुसार कार्य करना ही होगा, जब तक कि कोई कानूनी अपवाद लागू न हो।
🔸 प्रणेताओं (Promisors) की मृत्यु पर प्रभाव:
यदि वादा करने वाला (promisor) प्रदर्शन से पहले मर जाता है, तो:
- उसका वादा उसके प्रतिनिधियों (legal representatives) पर बाध्यकारी होता है,
- जब तक अनुबंध में इसके विपरीत कोई स्पष्ट मंशा न हो।
📘 उदाहरण (Illustrations):
🔹 (a) A वादा करता है कि वह एक निश्चित दिन पर B को माल (goods) पहुंचाएगा, और बदले में B को ₹1,000 देने होंगे।
➡️ A उस दिन से पहले मर जाता है।
➡️ A के प्रतिनिधियों को B को माल देना होगा, और B को ₹1,000 A के प्रतिनिधियों को देना होगा।
🔹 (b) A वादा करता है कि वह एक चित्र (painting) B के लिए एक निश्चित दिन तक एक तय मूल्य पर बनाएगा।
➡️ A की मृत्यु उस दिन से पहले हो जाती है।
➡️ यह कार्य व्यक्तिगत कला कौशल (personal skill) पर आधारित है, इसलिए यह न A के प्रतिनिधि पूरा कर सकते हैं, न B इसे लागू करा सकता है।
➡️ यह अनुबंध अमान्य (unenforceable) हो जाता है।
✅ सरल सारांश:
हर पक्ष अपने वादे को पूरा करने या उसका प्रस्ताव देने के लिए बाध्य होता है, जब तक कानून उसे छूट न दे।
मृत्यु की स्थिति में, सामान्य वादे उत्तराधिकारियों द्वारा निभाए जाते हैं, लेकिन व्यक्तिगत कौशल से जुड़ी सेवाओं को नहीं निभाया जा सकता।
धारा 38 – प्रदर्शन के प्रस्ताव को अस्वीकार करने का प्रभाव
(Section 38 – Effect of Refusal to Accept Offer of Performance)
🔷 मुख्य सिद्धांत:
जब वादा करने वाला (Promisor) अपने वादे का प्रदर्शन करने का प्रस्ताव (Offer of Performance) करता है लेकिन वादा पाने वाला (Promisee) उसे स्वीकार नहीं करता, तो:
- वादा करने वाला अनुपालन (non-performance) के लिए दायी नहीं होगा,
- और वह अनुबंध के अंतर्गत अपने अधिकार (rights) नहीं खोएगा।
👉 इसका अर्थ: यदि कोई व्यक्ति अपनी ओर से वादा पूरा करने को तैयार है और प्रस्ताव देता है, पर दूसरा पक्ष उसे स्वीकार नहीं करता, तो उसकी कोई कानूनी ज़िम्मेदारी नहीं बनती।
🔸 ऐसे प्रस्ताव (Offer) के लिए शर्तें:
प्रस्ताव तभी प्रभावी माना जाएगा जब ये शर्तें पूरी हों:
- बिना किसी शर्त (Unconditional) होना चाहिए।
- उचित समय और स्थान पर किया जाना चाहिए, और ऐसी परिस्थितियों में कि वादा पाने वाला यह सुनिश्चित कर सके कि वादा करने वाला उस समय और स्थान पर पूरे वादे को पूरा करने में सक्षम और इच्छुक है।
- यदि प्रस्ताव में कोई वस्तु दी जानी हो, तो वादा पाने वाले को यह जांचने का उचित अवसर मिलना चाहिए कि दी जा रही वस्तु वही है जिसकी वादा किया गया था।
🔹 संयुक्त वादाग्राही (Joint Promisees):
अगर एक से अधिक वादाग्राही हैं और प्रदर्शन का प्रस्ताव सिर्फ किसी एक को दिया जाता है, तब भी उसका वही कानूनी प्रभाव होगा जैसे कि सभी को दिया गया हो।
📘 उदाहरण (Illustration):
A एक अनुबंध करता है कि वह 1 मार्च 1873 को B के गोदाम पर एक विशेष गुणवत्ता के 100 गाठें (bales) कपास की देगा।
➡️ इस धारा के तहत प्रदर्शन का वैध प्रस्ताव करने के लिए:
- A को 1 मार्च को B के गोदाम पर कपास लानी होगी,
- इस तरह कि B को यह सुनिश्चित करने का अवसर मिले कि:
- कपास वही है जिसकी गुणवत्ता अनुबंध में तय की गई थी,
- और गाठों की संख्या पूरी 100 है।
👉 यदि B इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं करता, तब A की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती, और उसका अनुबंध से संबंधित कोई अधिकार समाप्त नहीं होता।
✅ सरल सारांश:
अगर कोई व्यक्ति वादा निभाने को तैयार है और प्रस्ताव देता है, पर दूसरा पक्ष उसे नकार देता है, तो पहले व्यक्ति की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है — पर उसके अनुबंधिक अधिकार बने रहते हैं।
धारा 39 – जब कोई पक्ष अपना वादा पूरी तरह निभाने से मना कर दे, उसका प्रभाव
(Section 39 – Effect of refusal of party to perform promise wholly)
🔷 मुख्य प्रावधान:
यदि अनुबंध में शामिल कोई पक्ष:
- अपने पूरा वादा निभाने से मना कर देता है, या
- अपने आप को उस वादे को निभाने में अक्षम बना देता है,
तो दूसरा पक्ष (जिसे वादा पूरा किया जाना था – Promisee) को अनुबंध समाप्त करने का अधिकार है।
➡ लेकिन, अगर वादा पाने वाले ने शब्दों या व्यवहार से यह स्पष्ट कर दिया हो कि वह अनुबंध को जारी रखना चाहता है, तो वह अनुबंध समाप्त नहीं कर सकता।
📘 उदाहरण (Illustrations):
(a) A एक गायिका है और वह B, जो एक थिएटर का मैनेजर है, से अनुबंध करती है कि वह अगले दो महीनों तक हर हफ्ते दो रात B के थिएटर में गाएगी। बदले में B हर रात के लिए A को ₹100 देगा।
🔸 छठी रात, A जानबूझकर थिएटर नहीं जाती।
👉 इस स्थिति में B को अनुबंध समाप्त करने की स्वतंत्रता है।
(b) वही स्थिति, लेकिन छठी रात के बाद A सातवीं रात को फिर से B की अनुमति से गाती है।
🔸 इसका मतलब है कि B ने अनुबंध को जारी रखने पर सहमति जताई है।
👉 अब B अनुबंध समाप्त नहीं कर सकता, लेकिन वह छठी रात A के न गाने से हुए नुकसान की भरपाई मांग सकता है।
✅ सरल सारांश:
अगर कोई पक्ष पूरा वादा निभाने से मना कर दे या खुद को अयोग्य बना दे, तो दूसरा पक्ष अनुबंध को समाप्त कर सकता है।
➡ लेकिन अगर दूसरा पक्ष अनुबंध को आगे जारी रखता है (या ऐसा संकेत देता है), तो वह फिर अनुबंध को समाप्त नहीं कर सकता — पर हर्जाना मांग सकता है।
धारा 40 – वचन किसके द्वारा पूरा किया जाएगा
(Section 40 – Person by whom promise is to be performed)
🔷 मुख्य प्रावधान:
अगर अनुबंध की प्रकृति से यह प्रतीत होता है कि:
➡ वादा केवल वादा करने वाले (Promisor) द्वारा ही निभाया जाना चाहिए,
तो उस वादे को Promisor स्वयं ही निभाएगा।
➡ लेकिन अगर ऐसा कोई स्पष्ट उद्देश्य नहीं है, तो Promisor या उसके प्रतिनिधि (जैसे उत्तराधिकारी) किसी योग्य व्यक्ति को उस वादे को पूरा करने के लिए रख सकते हैं।
📘 उदाहरण (Illustrations):
(a) A वादा करता है कि वह B को एक निश्चित राशि देगा।
👉 A यह रकम खुद भी दे सकता है या किसी और के माध्यम से भी दिलवा सकता है।
➡ अगर A की मृत्यु हो जाती है, तो उसके प्रतिनिधियों को यह वादा पूरा करना होगा, या किसी अन्य उचित व्यक्ति के माध्यम से करवाना होगा।
(b) A वादा करता है कि वह B के लिए एक चित्र बनाएगा।
👉 यह ऐसा वादा है जिसे केवल A स्वयं को ही पूरा करना होगा, क्योंकि यह विशेष व्यक्तिगत कौशल से जुड़ा है।
➡ इस वादे को A किसी और से नहीं करवा सकता।
✅ सरल सारांश:
कुछ वादे ऐसे होते हैं जिन्हें केवल वादा करने वाला ही पूरा कर सकता है, जैसे कोई कला-कार्य (चित्र बनाना)।
अन्य मामलों में, कोई और योग्य व्यक्ति या प्रतिनिधि भी वह वादा पूरा कर सकता है।
धारा 41 – किसी तीसरे व्यक्ति द्वारा वचन की पूर्ति को स्वीकार करने का प्रभाव
(Section 41 – Effect of accepting performance from third person)
🔷 मुख्य प्रावधान:
जब प्राप्तकर्ता (Promisee),
किसी तीसरे व्यक्ति द्वारा वचन की पूर्ति (performance) स्वीकार कर लेता है,
तो वह फिर मूल वचनकर्ता (Promisor) के खिलाफ उस वचन को बलपूर्वक लागू नहीं कर सकता।
✅ सरल शब्दों में समझें:
अगर वचन निभाने की जिम्मेदारी Promisor पर थी, लेकिन Promisee ने खुद अपनी मर्ज़ी से उस वचन को किसी तीसरे व्यक्ति से पूरा करवा लिया,
तो Promisee अब Promisor से यह नहीं कह सकता कि “अब तुम भी यह वचन निभाओ।”
📘 एक उदाहरण:
A ने B से वादा किया कि वह B को ₹10,000 देगा।
C (तीसरा व्यक्ति) वह ₹10,000 B को दे देता है और B उसे स्वीकार कर लेता है।
➡ अब B, A से फिर से ₹10,000 की मांग नहीं कर सकता।
⚖️ न्यायिक उद्देश्य:
इस धारा का उद्देश्य यह है कि जब Promisee को उसकी अपेक्षित पूर्ति मिल गई, भले ही वह किसी और से मिली हो,
तो उसे फिर से वही चीज़ मांगने की इजाजत नहीं होनी चाहिए — नहीं तो यह अनुचित लाभ की स्थिति बन जाएगी।
धारा 42 – संयुक्त दायित्वों का उत्तराधिकार
(Section 42 – Devolution of Joint Liabilities)
🔷 मुख्य प्रावधान:
जब दो या दो से अधिक व्यक्तियों ने संयुक्त रूप से कोई वादा (joint promise) किया हो,
तो, यदि अनुबंध में कोई विपरीत मंशा व्यक्त न की गई हो,
तो उस वादे को पूरा करने की ज़िम्मेदारी निम्नलिखित क्रम में होती है:
- उन सभी व्यक्तियों को जीवित रहते हुए वादा मिलकर पूरा करना होगा।
- यदि उनमें से कोई एक मर जाता है, तो उसके प्रतिनिधि शेष बचे साझेदारों (survivors) के साथ मिलकर वादा पूरा करेंगे।
- जब अंतिम जीवित व्यक्ति भी मर जाता है, तो सभी मृत व्यक्तियों के प्रतिनिधि मिलकर उस वादे को पूरा करने के लिए ज़िम्मेदार होंगे।
📘 सरल उदाहरण:
A, B और C ने मिलकर D को ₹90,000 देने का वादा किया।
- जब तीनों (A, B, C) जीवित हैं — उन्हें मिलकर ₹90,000 देने होंगे।
- अगर A की मृत्यु हो जाती है — तो अब B, C और A का प्रतिनिधि मिलकर देंगे।
- अगर बाद में B और C भी मर जाते हैं — तो अब A, B और C के तीनों के प्रतिनिधि मिलकर ₹90,000 देने के लिए ज़िम्मेदार होंगे।
धारा 43 – किसी भी एक संयुक्त प्रतिज्ञाता को वचन पूरा करने के लिए बाध्य किया जा सकता है
(Section 43 – Any One of Joint Promisors May Be Compelled to Perform)
🔷 मुख्य प्रावधान:
जब दो या दो से अधिक व्यक्ति संयुक्त रूप से कोई वादा (joint promise) करते हैं, तो:
- यदि अनुबंध में कोई विपरीत व्यवस्था नहीं है, तो वादाकार (Promisee) वचन पूरा कराने के लिए उन सभी में से किसी एक या एक से अधिक से पूरी राशि या कर्तव्य की मांग कर सकता है।
➤ इसका अर्थ है कि वादा करने वाले सभी व्यक्ति सामूहिक रूप से (jointly) और व्यक्तिगत रूप से (severally) जिम्मेदार होते हैं। - योगदान (Contribution) का अधिकार:
अगर एक व्यक्ति पूरे वचन को निभाता है, तो उसे यह अधिकार है कि वह शेष प्रतिज्ञाताओं से उनके बराबर हिस्से का योगदान वसूल कर सके, जब तक कि अनुबंध में कुछ और न कहा गया हो। - डिफ़ॉल्ट की स्थिति में नुकसान का बंटवारा:
यदि कोई एक प्रतिज्ञाता अपना हिस्सा चुकाने में असफल रहता है, तो शेष प्रतिज्ञाता उस नुकसान को समान रूप से साझा करेंगे। - स्पष्टीकरण:
इस धारा से जमानती (Surety) को उसके प्रमुख देनदार (Principal Debtor) से भुगतान वसूलने के अधिकार पर कोई असर नहीं पड़ता, और प्रमुख देनदार जमानती से कोई वसूली नहीं कर सकता।
📘 उदाहरणों के माध्यम से समझें:
(a) A, B और C ने D को ₹3,000 देने का वादा किया।
👉 D A, B या C में से किसी एक से पूरी राशि मांग सकता है।
(b) C ने ₹3,000 पूरे D को दे दिए। A दिवालिया है और उसके पास आधी देनदारी चुकाने लायक संपत्ति है।
👉 C A की संपत्ति से ₹500 वसूल सकता है और B से ₹1,250।
(c) C कुछ भी नहीं दे सकता। A ने पूरा ₹3,000 चुका दिया।
👉 A B से ₹1,500 वसूल सकता है।
(d) A और B केवल जमानती (Sureties) हैं, और C मुख्य देनदार (Principal Debtor) है। C भुगतान में विफल रहता है।
👉 A और B ने मिलकर भुगतान कर दिया, वे C से पूरी राशि वसूल कर सकते हैं।
⚖️ उद्देश्य:
यह धारा सुनिश्चित करती है कि वादाकार को पूरा हक मिले — और साथ ही प्रतिज्ञाताओं के बीच आपसी निष्पक्षता बनी रहे।
धारा 44 – एक संयुक्त प्रतिज्ञाता को मुक्त करने का प्रभाव
(Section 44 – Effect of Release of One Joint Promisor)
🔷 मुख्य प्रावधान:
जब दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी संयुक्त वचन (joint promise) में बंधे होते हैं, और वादाकार (promisee) उनमें से किसी एक प्रतिज्ञाता को मुक्त कर देता है, तो:
- अन्य संयुक्त प्रतिज्ञाताओं की जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती —
अर्थात यदि A, B और C ने मिलकर D को कुछ देने का वादा किया, और D ने A को मुक्त कर दिया, तब भी B और C की जिम्मेदारी पूर्ववत बनी रहेगी। - मुक्त किया गया प्रतिज्ञाता (Released Joint Promisor) अभी भी अपने अन्य साथी प्रतिज्ञाताओं (B और C) के प्रति जिम्मेदार बना रहता है —
इसका मतलब है कि अगर B और C को A की हिस्सेदारी चुकानी पड़ी, तो वे A से वसूली कर सकते हैं, भले ही D ने A को मुक्त कर दिया हो।
📘 सरल उदाहरण:
👉 A, B और C ने मिलकर D को ₹3,000 देने का वादा किया।
👉 D ने A को इस अनुबंध से माफ (release) कर दिया।
- परिणाम:
D अब B और C से पूरी राशि मांग सकता है।
यदि B और C ₹3,000 चुका देते हैं, तो वे A से उसके हिस्से का योगदान (contribution) मांग सकते हैं।
⚖️ इस धारा का उद्देश्य:
- वादाकार (Promisee) को यह छूट देना कि वह किसी एक प्रतिज्ञाता को माफ कर सकता है बिना बाकी की देनदारी छोड़े।
- अन्य प्रतिज्ञाताओं के साथ न्याय करना ताकि वे उस प्रतिज्ञाता से वसूली कर सकें जिसे वादाकार ने मुक्त किया हो।
धारा 45 – संयुक्त अधिकारों का हस्तांतरण
(भारतीय संविदा अधिनियम, 1872)
सरल हिन्दी में व्याख्या:
जब कोई व्यक्ति दो या दो से अधिक व्यक्तियों को मिलकर (संयुक्त रूप से) कोई वचन देता है (जैसे – कर्ज चुकाने का, कोई सेवा देने का), तो सामान्य नियम के अनुसार — जब तक अनुबंध में कोई अलग बात न कही गई हो, उस वचन को लागू करवाने (पालन का दावा करने) का अधिकार इस प्रकार चलता है:
🔹 उन सभी को संयुक्त रूप से जब वे सभी जीवित हों।
🔹 अगर उनमें से कोई मर जाए, तो उसका उत्तराधिकारी (legal representative) और बाकी बचे लोग मिलकर वचन लागू कर सकते हैं।
🔹 और जब सभी मूल व्यक्ति मर जाएं, तो फिर उन सभी के कानूनी प्रतिनिधि (representatives) उस वचन को लागू कर सकते हैं – लेकिन संयुक्त रूप से, न कि अलग-अलग।
📌 मुख्य कानूनी बिंदु:
- संयुक्त अधिकार होने पर दावा व्यक्तिगत रूप से नहीं किया जा सकता, जब तक कि अनुबंध में स्पष्ट रूप से ऐसा अधिकार न दिया गया हो।
- उत्तरजीविता का सिद्धांत (Doctrine of Survivorship) यहाँ लागू होता है।
📘 उदाहरण (चित्रण):
A ने B और C से ₹5,000 उधार लिए और यह वचन दिया कि वह यह रकम दोनों को मिलकर (संयुक्त रूप से) निर्दिष्ट तिथि पर ब्याज सहित लौटाएगा।
- फिर B की मृत्यु हो जाती है।
➤ अब यह राशि वापस पाने का अधिकार C और B के कानूनी प्रतिनिधि दोनों के पास संयुक्त रूप से होगा। - यदि बाद में C भी मर जाता है,
➤ तब यह अधिकार B और C दोनों के प्रतिनिधियों के पास संयुक्त रूप से रहेगा।
नोट:
यह धारा मुख्यतः इस सिद्धांत को स्पष्ट करती है कि संयुक्त वचन के पालन का अधिकार व्यक्तिगत नहीं होता, जब तक कि अनुबंध में कोई अलग प्रावधान न हो। इस प्रकार, कोई एक व्यक्ति अकेले उस वचन को लागू करवाने के लिए मुकदमा नहीं कर सकता।
धारा 46 – प्रतिज्ञा को पूरा करने का समय, जब वचनपालन के लिए कोई आवेदन नहीं करना है और कोई समय निश्चित नहीं किया गया है
🔷 मुख्य प्रावधान:
यदि किसी अनुबंध (contract) में यह तय हो कि:
- प्रतिज्ञाता (promisor) को अपना वचन बिना वादीकर्ता (promisee) के आवेदन के पूरा करना है, और
- प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए कोई निश्चित समय तय नहीं किया गया है,
तो ऐसी स्थिति में वचन को “उचित समय” (reasonable time) के भीतर पूरा करना अनिवार्य है।
📘 स्पष्टीकरण (Explanation):
- “उचित समय क्या है” यह एक तथ्यात्मक प्रश्न (question of fact) है, जो हर केस के हालात पर निर्भर करेगा।
जैसे – व्यापार की प्रकृति, सामान की नाजुकता, दूरी, परिस्थितियाँ आदि को देखकर तय होगा कि कौन-सा समय “उचित” था।
✅ उदाहरण:
मान लीजिए A ने B को कुछ माल बेचा, पर डिलीवरी की कोई तारीख तय नहीं की, और B को माल देने के लिए A को B से कोई निवेदन नहीं चाहिए।
तो A को वह माल उचित समय के भीतर भेजना होगा। अगर A महीनों तक डिलीवरी नहीं करता, तो B अनुबंध का उल्लंघन मान सकता है।
यह धारा व्यापारिक और व्यक्तिगत अनुबंधों में बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें यह सुनिश्चित किया गया है कि वचन को लटकाया न जाए, भले ही कोई तारीख न लिखी हो।
यदि आप चाहें तो अगली धारा 47 भी समझाई जा सकती है।
धारा 47 – प्रतिज्ञा को पूरा करने का समय और स्थान
🔷 मुख्य प्रावधान:
जब कोई प्रतिज्ञा किसी निश्चित दिन को पूरी की जानी हो, और प्रतिज्ञाता (promisor) ने यह जिम्मेदारी ली हो कि वह इसे वादी (promisee) द्वारा मांगे बिना ही पूरा करेगा, तब—
- प्रतिज्ञाता उस निश्चित दिन पर,
- सामान्य व्यापारिक घंटों (usual hours of business) के दौरान,
- उस स्थान पर, जहाँ प्रतिज्ञा को पूरा किया जाना चाहिए,
वचन का पालन कर सकता है।
📘 उदाहरण:
A ने वादा किया कि वह 1 जनवरी को B के गोदाम (warehouse) में माल पहुँचाएगा।
A 1 जनवरी को माल तो लाता है, लेकिन गोदाम बंद होने के बाद, यानी सामान्य व्यापारिक समय के बाहर।
👉 ऐसी स्थिति में, A ने अपना वादा पूरा नहीं किया माना जाएगा, क्योंकि उसने माल उस समय नहीं लाया जब B सामान्य रूप से माल प्राप्त कर सकता था।
✅ सारांश:
इस धारा का उद्देश्य यह है कि प्रतिज्ञा को समय पर और उचित स्थान पर ही पूरा किया जाना चाहिए, अन्यथा वह वचनपालन नहीं माना जाएगा।
इससे वादी को यह अधिकार मिलता है कि अगर प्रतिज्ञा गलत समय या गलत स्थान पर पूरी की गई हो, तो वह उसे अस्वीकार कर सकता है।
धारा 48 – निश्चित दिन पर प्रदर्शन के लिए आवेदन का उचित समय और स्थान (Section 48 – Application for Performance on Certain Day to be at Proper Time and Place)
यदि किसी वादे को किसी निश्चित दिन पर पूरा किया जाना हो और वादा करने वाले (Promisor) ने यह नहीं ठाना कि वादी (Promisee) बिना अनुरोध के ही वादा पूरा करेगा, तो वादी का कर्तव्य है कि वह उस दिन उचित स्थान पर सामान्य व्यापारिक घंटों में प्रदर्शन के लिए आवेदन करे। क्या उचित समय व स्थान है, यह प्रत्येक मामले में परिस्थितियों के आधार पर तय होता है।
धारा 49 – आवेदन न करना और स्थान न निर्धारित होने पर वचन पूरा करने का स्थान
(Section 49 – Place for Performance of Promise, Where No Application to Be Made and No Place Fixed for Performance)
जब कोई वादा वादी (Promisee) द्वारा आवेदन किए बिना पूरा किया जाना हो, और किसी भी स्थान को वचनपालन के लिए निश्चित नहीं किया गया हो, तो:
- यह प्रतिज्ञाता (Promisor) का कर्तव्य है कि वह वादी से अनुरोध करे कि वह वचनपालन के लिए कोई उचित स्थान निर्धारित करे,
- और उसके बाद उक्त निर्धारित स्थान पर ही वादा पूरा करे।
उदाहरण (Illustration):
A ने B को एक निश्चित दिन पर 1,000 मन जूट आपूर्ति करने का वादा किया।
चूंकि B ने स्थान तय नहीं किया और A को भी बिना आवेदन वचन पुरा करना था,
A को यह ज़रूरी होगा कि वह B से कहे –
“कृपया मुझे बताएं कि जूट लेने के लिए कहाँ उचित स्थान होगा?”
फिर A को उसी नियत किए गए स्थान पर जाकर जूट पहुंचाना होगा।
मुख्य बिंदु संक्षेप में:
- जब वादे को पूरा करने के लिए वादी का आवेदन नहीं चाहिए, लेकिन कोई स्थान तय नहीं है,
- तो प्रतिज्ञाता को ही वादी से उचित स्थान तय करने का अनुरोध करना होगा,
- और फिर वही स्थान वचनपालन के लिए बाध्यकारी होता है।
धारा 50 – प्रतिज्ञा के अनुसार विधि या समय में पूर्णता (Section 50 – Performance in Manner or at Time Prescribed or Sanctioned by Promise)
जब कोई वादा वादी (Promisee) द्वारा निर्धारित तरीके या समय में पूरा करने का निर्देश या स्वीकृति दी जाए, तो उस वादे का पालन उसी तरीके या उसी समय किया जा सकता है।
उदाहरण के माध्यम से देखें तो—
- यदि A अपनी बैंकिंग खाता में ₹2,000 जमा करने के बजाय C बैंक के माध्यम से स्थानांतरण करना चाहे, और B उसी बैंक में खाता धारक हो, तो B A के खाते में फंड ट्रांसफर कर सकता है; अगर ट्रांसफर के बाद C बैंक दिवालिया भी हो जाए, तब भी B का भुगतान वैध माना जाएगा।
- जब दो पक्ष आपस में ऋण माफ़ी के लिए बिलों की सेट-ऑफ करते हैं और शेष राशि चुकाते हैं, तो यह भी बिलों के बराबर समायोजन द्वारा भुगतान माना जाएगा।
- यदि B, जो A का ₹2,000 का कर्ज़दार है, वस्तुओं के रूप में कुछ माल देकर कर्ज़ घटा दे, तो वह आंशिक भुगतान मानी जाएगी।
- और यदि A B से कहे कि वह उसे ₹100 का नोट डाक से भेज दे, तो जैसे ही B वह नोट डाक द्वारा भेज देता है, कर्ज़ स्वतः समाप्त हो जाता है।
धारा 51 – प्रतिज्ञाता तब तक बँधा नहीं जब तक पारस्परिक वादाकर्ता प्रदर्शन के लिए तैयार और इच्छुक न हो
(Section 51 – Promisor Not Bound to Perform, Unless Reciprocal Promisee Ready and Willing to Perform)
अगर किसी अनुबंध में दो पक्षों के पारस्परिक वादे होते हैं जिन्हें एक साथ पूरा करना होता है, तो कोई भी पक्ष अपना वादा पूरा नहीं करेगा, जब तक दूसरा पक्ष अपना वादा निर्धारित समय पर, पूरी क्षमता से और इच्छुक और तैयार न होकर प्रदर्शन के लिए उपस्थित हो। उदाहरण के लिए, यदि A को माल देना है और B को उसी समय भुगतान करना है, तो A तब तक माल नहीं देगा जब तक B भुगतान करने को तैयार और इच्छुक न हो, और B तब तक भुगतान नहीं करेगा जब तक A माल देने को तैयार और इच्छुक न हो।
धारा 52 – पारस्परिक वादों का पूर्तिकरण क्रम (Section 52 – Order of Performance of Reciprocal Promises)
यह धारा निर्धारित करती है कि जब किसी अनुबंध में दो पक्षों के पारस्परिक वादे दिए गए हों, तो उन्हें उसी क्रम में पूरा करना होगा जिसे अनुबंध में पक्षों ने स्पष्ट रूप से तय किया हो, और जहाँ अनुबंध में कोई स्पष्ट क्रम न हो, वहाँ व्यवहार की प्रकृति के आधार पर उचित क्रम अपनाना होगा। उदाहरण के लिए, यदि A ने घर बनाकर देने का वादा किया है और B को उसी के बाद भुगतान करना है, तो पहले निर्माण करना और फिर भुगतान लेना होगा; इसी तरह, यदि A को पहले गारंटी (security) देनी हो और उसके बाद B को माल सौंपना हो, तो पहले सुरक्षा देना और फिर स्टॉक-इन-ट्रेड प्रदान करना होगा।
धारा 53 – संविदा की प्रभावशील घटना को रोकने वाले पक्ष की ज़िम्मेदारी (Section 53 – Liability of Party Preventing Event on Which the Contract Is to Take Effect)
जब किसी संविदा में पारस्परिक वादे होते हैं और एक पक्ष दूसरे की वादापूर्ति को रोकता है, तो वह संविदा निरस्त करने योग्य (voidable) हो जाती है—या तो उस पक्ष के विकल्प पर जिसकी वादा रोकी गई—और उसे विरोधी पक्ष से अपनी हानी की भरपाई (compensation) वसूलने का अधिकार होता है। उदाहरण के लिए, यदि B किसी काम को पूरा करने के लिए तैयार और इच्छुक है, लेकिन A उसे करने से रोकता है, तो B इस संविदा को रद्द कर सकता है और A से उस रोक के कारण हुई सभी हानियों का मुआवज़ा मांग सकता है।
धारा 53 – संविदा की प्रभावशील घटना को रोकने वाले पक्ष की ज़िम्मेदारी
(Section 53 – Liability of Party Preventing Event on Which the Contract Is to Take Effect)
जब किसी संविदा में पारस्परिक वादे होते हैं और एक पक्ष दूसरे की वादापूर्ति को रोकता है, तो वह संविदा निरस्त करने योग्य (voidable) हो जाती है—उस पक्ष के विकल्प पर जिसकी वादा रोकी गई—और उसे विरोधी पक्ष से अपनी हानी की भरपाई (compensation) वसूलने का अधिकार होता है।
उदाहरण: यदि B किसी काम को पूरा करने के लिए तैयार और इच्छुक है, लेकिन A उसे करने से रोकता है, तो B इस संविदा को रद्द कर सकता है और A से उस रोक के कारण हुई सभी हानियों का मुआवज़ा मांग सकता है।
धारा 54 – पारस्परिक वचनों वाली संविदा में उस वचन की पूर्ति में चूक का प्रभाव, जिसे पहले निभाया जाना चाहिए
(Section 54 – Effect of Default as to that Promise Which Should Be First Performed, in Contract Consisting of Reciprocal Promises)
जब कोई संविदा इस प्रकार की पारस्परिक वचनों से बनी हो कि उनमें से एक वचन की पूर्ति तब तक नहीं हो सकती या उसकी मांग नहीं की जा सकती जब तक दूसरा वचन पूरा न हो जाए, और दूसरा वचन देने वाला व्यक्ति अपनी पूर्ति में असफल रहता है, तो वह व्यक्ति न तो पहले वचन की पूर्ति की मांग कर सकता है और न ही उसे संविदा के दूसरे पक्ष को हुए हानि का मुआवज़ा देने से बचाया जा सकता है।
उदाहरण:
(a) A, B के जहाज को कोलकाता से मॉरीशस तक माल ढुलाई के लिए किराए पर लेता है, जहाँ माल A को देना था और बदले में B को मालभाड़ा मिलना था। A माल नहीं देता। A, B से जहाज चलाने की मांग नहीं कर सकता और B को हुए नुकसान का मुआवज़ा देना होगा।
(b) A, B के लिए एक निर्माण कार्य तय मूल्य पर करता है, पर B आवश्यक बांस व लकड़ी नहीं देता। A कार्य करने के लिए बाध्य नहीं है और B को हानि का मुआवज़ा देना होगा।
(c) A, B को कुछ माल एक जहाज पर देने का वचन देता है, जो एक महीने बाद आएगा। B, एक सप्ताह में भुगतान करने का वचन देता है, पर भुगतान नहीं करता। A को माल देने की आवश्यकता नहीं है और B को हानि का मुआवज़ा देना होगा।
(d) A, B को अगले दिन 100 गाठ माल देने का वादा करता है और B एक महीने में भुगतान का। A माल नहीं देता, तो B को भुगतान नहीं करना होगा और A को हानि का मुआवज़ा देना होगा।
धारा 55 – उस निश्चित समय पर कार्य न करने का प्रभाव, जब संविदा में समय अनिवार्य हो
(Section 55 – Effect of Failure to Perform at Fixed Time, in Contract in Which Time is Essential)
जब संविदा में किसी पक्ष ने कोई कार्य किसी निर्धारित समय पर या उससे पहले करने का वचन दिया हो और वह उस कार्य को उस समय तक पूरा नहीं करता, तो अगर यह स्पष्ट हो कि संविदा में समय का महत्व था (Time is of the essence), तो वादा करने वाला पक्ष उस संविदा को, या उसकी पूरी न हुई भाग को, निरस्त (voidable) कर सकता है।
यदि समय संविदा का अनिवार्य तत्व नहीं है, तो उस निर्धारित समय तक कार्य न किए जाने से संविदा निरस्त नहीं होती, परन्तु वादा निभाने में हुई देरी से अगर वादाकार (promisee) को कोई हानि होती है, तो उसे हानि के मुआवज़े का अधिकार है।
यदि वादा करने वाला व्यक्ति तय समय के बाद कार्य करता है और वादाकार उसे स्वीकार कर लेता है, तो वादाकार उस देरी से हुई हानि का मुआवज़ा नहीं मांग सकता, जब तक कि उस कार्य को स्वीकार करते समय वह ऐसा करने के अपने इरादे की सूचना वादा करने वाले को न दे।
निष्कर्ष:
- अगर समय अनिवार्य था: संविदा निरस्त की जा सकती है।
- अगर समय अनिवार्य नहीं था: संविदा निरस्त नहीं होगी, लेकिन हानि का मुआवज़ा मिल सकता है।
- यदि कार्य देर से स्वीकार कर लिया गया, तो मुआवज़ा नहीं मिलेगा जब तक वादाकार ने स्पष्ट सूचना नहीं दी हो।
धारा 56 – असंभव कार्य करने का करार (Agreement to do Impossible Act)
- जो समझौता स्वयं में असंभव कार्य को करने का होता है, वह शून्य (Void) होता है।
यानी अगर कोई ऐसा करार किया जाए जिसे करना स्वभावतः या व्यावहारिक रूप से असंभव है, तो वह आरंभ से ही अमान्य माना जाएगा। - जो संविदा बनने के बाद असंभव या अवैध हो जाए, वह उस समय से शून्य हो जाती है जब वह कार्य असंभव या अवैध बना हो।
यदि संविदा के समय कार्य संभव था लेकिन बाद में किसी अप्रत्याशित घटना के कारण असंभव या कानून द्वारा निषिद्ध हो गया हो, और वह घटना वचनकर्ता (promisor) के वश से बाहर थी, तो वह संविदा उस समय से अमान्य हो जाती है। - यदि वचनकर्ता को कार्य के असंभव या अवैध होने की जानकारी थी (या साधारण प्रयास से हो सकती थी), लेकिन वचन-प्राप्तकर्ता (promisee) को उसकी जानकारी नहीं थी, तो वचनकर्ता को हुए नुकसान का मुआवज़ा देना होगा।
उदाहरण:
- (a) A और B के बीच खज़ाना जादू से ढूंढने का समझौता: यह करार असंभव कार्य से संबंधित है, इसलिए शून्य है।
- (b) A और B शादी करने का समझौता करते हैं, लेकिन शादी से पहले A पागल हो जाता है — समझौता असंभव हो जाने के कारण शून्य हो जाता है।
- (c) A पहले से शादीशुदा होते हुए B से शादी का वादा करता है, जबकि कानून उसे दूसरी शादी की अनुमति नहीं देता — A को B को हानि का मुआवज़ा देना होगा।
- (d) A, B के लिए किसी विदेशी बंदरगाह पर माल लेने का करार करता है, पर सरकार उस देश से युद्ध घोषित कर देती है — समझौता युद्ध की घोषणा के साथ शून्य हो जाता है।
- (e) A छह महीने तक एक थिएटर में अभिनय करने का करार करता है, पर कुछ अवसरों पर A बीमार होने के कारण अभिनय नहीं कर पाता — उन अवसरों पर संविदा अमान्य हो जाती है।
निष्कर्ष:
- असंभव कार्यों पर आधारित संविदा शुरू से ही शून्य होती है।
- संविदा बाद में असंभव या अवैध होने पर उस समय से शून्य हो जाती है।
- यदि वचनकर्ता को कार्य की असंभवता ज्ञात थी और वचन-प्राप्तकर्ता को नहीं, तो हानि का मुआवज़ा देना पड़ता है।
धारा 57 – पारस्परिक वचन जिसमें कुछ कार्य वैध और कुछ अवैध हों
जब दो पक्ष आपस में यह वचन देते हैं कि—
- पहले वे कुछ वैध (legal) कार्य करेंगे, और
- विशेष परिस्थितियों में कुछ अवैध (illegal) कार्य भी करेंगे,
तो पहली श्रेणी के वैध वचन एक वैध संविदा (contract) होते हैं, जबकि दूसरी श्रेणी के अवैध वचन एक शून्य (void) समझौता माने जाते हैं।
उदाहरण:
A और B यह समझौता करते हैं कि—
- A, B को 10,000 रुपये में एक मकान बेचेगा,
- लेकिन अगर B उस मकान को जुआघर (gambling house) के रूप में उपयोग करता है, तो उसे A को 50,000 रुपये देने होंगे।
इसमें:
- मकान बेचना और 10,000 रुपये देना वैध कार्य है, इसलिए यह एक वैध संविदा है।
- मकान को जुआघर की तरह इस्तेमाल करना और उस पर अतिरिक्त रकम देना अवैध उद्देश्य से जुड़ा है, इसलिए यह शून्य समझौता है।
निष्कर्ष:
यदि किसी समझौते में वैध और अवैध दोनों प्रकार के वचन शामिल हैं, तो केवल वैध हिस्से को ही लागू किया जा सकता है, जबकि अवैध भाग अमान्य (void) माना जाएगा।
धारा 58 – वैकल्पिक वचन, जिनमें एक भाग अवैध हो
यदि कोई वचन इस प्रकार किया गया है कि उसमें दो विकल्प (alternatives) हों —
- जिनमें से एक वैध (legal) है और
- दूसरा अवैध (illegal) है,
तो केवल वैध विकल्प को ही कानूनन लागू किया जा सकता है, जबकि अवैध विकल्प को नहीं।
उदाहरण:
A और B यह समझौता करते हैं कि A, B को 1,000 रुपये देगा, जिसके बदले में B, A को बाद में या तो चावल देगा या तस्करी का अफीम (smuggled opium)।
- यह समझौता चावल देने के संबंध में वैध संविदा है।
- लेकिन अफीम देने के संबंध में अवैध व अवैध उद्देश्य वाला समझौता (void agreement) है।
निष्कर्ष:
यदि किसी वैकल्पिक वचन का एक भाग कानून के विरुद्ध हो, तो सिर्फ वैध भाग को ही लागू किया जाएगा, जबकि अवैध भाग निरस्त (void) रहेगा।
धारा 59 – भुगतान की उपयोगिता, जहाँ चुकाई जाने वाली ऋणराशि स्पष्ट हो
जब कोई ऋणी (debtor), एक ही व्यक्ति को अलग-अलग ऋणों के लिए देनदार हो और वह उसे कोई भुगतान करता है, और—
- या तो स्पष्ट रूप से बताता है,
- या ऐसे परिस्थितियाँ होती हैं जिससे यह संकेत मिलता है कि वह भुगतान किसी विशेष ऋण की अदायगी के लिए है,
तो अगर लेनदार (creditor) उस भुगतान को स्वीकार करता है, तो उसे उसी विशेष ऋण के निपटान में लगाना होगा।
उदाहरण:
(क) A, B का कई ऋणों के लिए देनदार है, जिनमें एक प्रॉमिसरी नोट पर 1,000 रुपये का ऋण है, जो 1 जून को देय होता है। A को B का और कोई ऋण उस राशि का नहीं है। A, 1 जून को B को 1,000 रुपये देता है। यह भुगतान उसी प्रॉमिसरी नोट की अदायगी में माना जाएगा।
(ख) A, B का कई ऋणों के लिए देनदार है, जिनमें एक ऋण 567 रुपये का है। B, A को पत्र लिखकर इस ऋण की मांग करता है। A, B को 567 रुपये भेजता है। यह भुगतान उसी ऋण की अदायगी के रूप में माना जाएगा जिसकी मांग B ने की थी।
निष्कर्ष:
यदि ऋणी यह स्पष्ट करता है या इशारा करता है कि वह कोई भुगतान किस विशेष ऋण के लिए कर रहा है, और लेनदार उसे स्वीकार कर ले, तो वह भुगतान उसी ऋण में समायोजित किया जाएगा।
धारा 60 – जब ऋण स्पष्ट नहीं है कि किसे चुकाना है, उस स्थिति में भुगतान का उपयोग
जब ऋणी (debtor) भुगतान करते समय यह नहीं बताता कि वह भुगतान किस ऋण की अदायगी के लिए है, और ऐसी कोई परिस्थिति नहीं है जिससे यह संकेत मिले कि वह किस ऋण को चुकाना चाहता है,
तो उस स्थिति में लेनदार (creditor) को अधिकार है कि वह उस भुगतान को अपने विवेक से किसी भी वैध ऋण में समायोजित कर सकता है—
चाहे उस ऋण की वसूली सीमा कानून के अंतर्गत समय-सीमा से बाधित क्यों न हो गई हो।
निष्कर्ष:
यदि ऋणी यह स्पष्ट नहीं करता कि भुगतान किस ऋण के लिए है और कोई संकेत या परिस्थिति भी नहीं है जिससे यह पता चले, तो लेनदार अपनी मर्जी से उस राशि को किसी भी वैध देय ऋण में समायोजित कर सकता है—भले ही वह ऋण लिमिटेशन एक्ट के अनुसार बारred (समाप्त अवधी) हो गया हो।
धारा 61 – जब न तो ऋणी और न ही लेनदार भुगतान को किसी विशेष ऋण में समर्पित करता है, तब भुगतान का उपयोग
जब न तो ऋणी (debtor) और न ही लेनदार (creditor) यह तय करता है कि किया गया भुगतान किस ऋण में समर्पित किया जाएगा,
तो उस स्थिति में, किया गया भुगतान इस प्रकार लागू किया जाएगा:
- समय क्रम (order of time) के अनुसार पुराने ऋणों से शुरू करके ऋणों को चुकाने में भुगतान का उपयोग किया जाएगा,
चाहे वे ऋण लिमिटेशन कानून के तहत बाधित (barred) क्यों न हो गए हों। - यदि सभी ऋण समान स्तर (equal standing) के हों, यानी एक ही समय के हों,
तो भुगतान को समान अनुपात (proportionally) में सभी ऋणों में समर्पित किया जाएगा।
उदाहरण:
अगर किसी व्यक्ति ने किसी को समय-समय पर कई उधार दिए, और बाद में उसे बिना किसी निर्देश के कुछ राशि वापस मिलती है,
तो यह राशि पहले वाले ऋणों से शुरू करके चुकाई जाएगी।
यदि सभी ऋण एक ही तारीख के हैं, तो सभी को बराबर अनुपात में समायोजित किया जाएगा।
धारा 62 – अनुबंध का नव-निर्माण (Novation), निरसन (Rescission) या परिवर्तन (Alteration) होने का प्रभाव
यदि किसी अनुबंध की दोनों पक्ष (पार्टीज़) इस बात पर सहमत हो जाएं कि –
- पुराने अनुबंध के स्थान पर एक नया अनुबंध बना लिया जाए, या
- अनुबंध को रद्द (rescind) कर दिया जाए, या
- अनुबंध को संशोधित (alter) कर दिया जाए,
तो ऐसा करने के बाद, मूल अनुबंध को निभाना आवश्यक नहीं रह जाता।
उदाहरण:
(a) A को B को एक अनुबंध के तहत पैसा देना है। A, B और C आपसी सहमति से तय करते हैं कि अब B, A के स्थान पर C को अपना ऋणी मान लेगा।
→ अब A का B के प्रति पुराना कर्ज समाप्त हो गया, और C का B के प्रति नया कर्ज शुरू हो गया।
(b) A, B का ₹10,000 का ऋणी है। A, B के साथ एक नई व्यवस्था करता है, जिसमें वह ₹5,000 के बदले अपनी संपत्ति की बंधक (mortgage) देता है।
→ यह एक नया अनुबंध है जो पुराने ₹10,000 के ऋण को समाप्त कर देता है।
(c) A, B को ₹1,000 देना है, और B, C को ₹1,000 देना है। B, A को आदेश देता है कि वह अपने बही-खाते में यह ₹1,000 C को क्रेडिट कर दे। लेकिन C इस व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता।
→ इसका अर्थ है कि C के साथ कोई नया अनुबंध नहीं बना, और B अभी भी C का ₹1,000 ऋणी है।
निष्कर्ष: यदि अनुबंध को किसी भी प्रकार से बदल दिया जाए, रद्द किया जाए या किसी नए अनुबंध से प्रतिस्थापित किया जाए, तो पुराना अनुबंध निष्प्रभावी हो जाता है और उसका पालन जरूरी नहीं रहता।
धारा 63 – वचन के पालन से छूट या रियायत देना
हर वचन-स्वीकारी (Promisee) को यह अधिकार होता है कि वह:
- वचन का पालन पूरी तरह या आंशिक रूप से माफ कर दे (dispense with or remit),
- वचन के पालन के लिए समय बढ़ा दे,
- या उसकी जगह कोई और संतोषजनक चीज़ स्वीकार कर ले (any satisfaction which he thinks fit)।
उदाहरण:
(a) A, B के लिए एक चित्र बनाकर देने का वादा करता है। बाद में B उसे ऐसा करने से मना कर देता है।
→ अब A पर यह वादा निभाने का कोई दायित्व नहीं रहा।
(b) A, B को ₹5,000 देना है। वह तय समय और स्थान पर ₹2,000 देता है, जिसे B पूरे कर्ज की संतुष्टि के रूप में स्वीकार कर लेता है।
→ पूरा ऋण समाप्त हो गया।
(c) A, B को ₹5,000 देना है। C, B को ₹1,000 देता है और B उसे A के ऋण की पूरी संतुष्टि के रूप में स्वीकार करता है।
→ यह भुगतान A के पूरे ऋण की रिहाई (discharge) बन जाती है।
(d) A को B को एक अज्ञात राशि देनी है। बिना राशि तय किए, A ₹2,000 देता है जिसे B पूर्ण संतोष के रूप में स्वीकार कर लेता है।
→ पूरी देनदारी समाप्त हो जाती है, चाहे असल राशि कुछ भी रही हो।
(e) A पर B समेत कई ऋणदाता बकाया हैं। वे सब इस शर्त पर सहमत होते हैं कि उन्हें उनकी मांग के बदले आठ आने प्रति रुपये के हिसाब से भुगतान किया जाए। A, B को ₹1,000 देता है।
→ यह भुगतान B की पूरी मांग की रिहाई मानी जाएगी।
निष्कर्ष: वचन-स्वीकारी (Promisee) को यह अधिकार होता है कि वह वचन का पालन करवाने की अपनी मांग को पूरी तरह या आंशिक रूप से छोड़ सकता है, समय बढ़ा सकता है, या किसी अन्य रूप में संतुष्टि स्वीकार कर सकता है।
धारा 64 – अनुकरणीय (Voidable) अनुबंध को रद्द करने के परिणाम
जब कोई ऐसा व्यक्ति, जिसकी इच्छा पर कोई अनुबंध अनुकरणीय (voidable) है, उसे रद्द (rescind) कर देता है, तो:
- उस अनुबंध में दूसरी पार्टी (जो promisor है) को अब कोई वचन निभाने की ज़रूरत नहीं होती।
- लेकिन, जो पार्टी अनुबंध को रद्द कर रही है, यदि उसने अनुबंध के तहत दूसरी पार्टी से कोई लाभ प्राप्त किया है, तो उसे वह लाभ, जहाँ तक संभव हो सके, वापस करना होगा।
उदाहरण:
यदि A ने B से कोई वस्तु ली थी, और बाद में अनुबंध को रद्द कर दिया, तो A को वह वस्तु या उसका मूल्य B को लौटाना होगा, यदि संभव हो।
निष्कर्ष:
जो व्यक्ति अनुकरणीय अनुबंध को रद्द करता है, उसे यदि उससे कोई लाभ मिला हो तो उसे वह लाभ वापस करना होगा, और रद्द करने के बाद वचनबद्ध पक्ष को उस अनुबंध को पूरा करने का कोई दायित्व नहीं रहेगा।
धारा 65 – शून्य समझौते या शून्य हो गए अनुबंध के तहत लाभ प्राप्त करने वाले व्यक्ति का दायित्व
जब कोई समझौता शून्य (void) पाया जाता है या कोई अनुबंध बाद में शून्य हो जाता है, तो जिस व्यक्ति ने ऐसे समझौते या अनुबंध के तहत कोई लाभ प्राप्त किया हो, वह उस लाभ को वापस करने या उसके लिए क्षतिपूर्ति (compensation) देने के लिए बाध्य होता है, जिससे उसने वह लाभ प्राप्त किया था।
उदाहरण:
(a) A ने B को ₹1,000 दिए, इस शर्त पर कि B, A की बेटी C से विवाह करेगा। लेकिन C की मृत्यु उस वचन के समय ही हो चुकी थी। यह समझौता शून्य है, पर B को A को ₹1,000 लौटाने होंगे।
(b) A ने B को 1 मई से पहले 250 मन चावल देने का अनुबंध किया। उसने केवल 130 मन चावल दिए और B ने उन्हें रख लिया। B को A को उन 130 मन चावल का भुगतान करना होगा।
(c) A, एक गायिका, B से अनुबंध करती है कि वह दो महीने तक हर सप्ताह दो रात थिएटर में गाएगी, और B उसे हर प्रदर्शन के लिए ₹100 देगा। छठी रात A जान-बूझकर नहीं आती और B अनुबंध रद्द कर देता है। B को A को पहले पाँच प्रदर्शन के ₹500 देने होंगे।
(d) A ने एक संगीत कार्यक्रम में B के लिए ₹1,000 अग्रिम लेकर गाने का अनुबंध किया, पर वह बीमार हो गई। A को B को केवल ₹1,000 वापस करने होंगे, न कि B को हुए लाभ के नुकसान की भरपाई करनी होगी।
निष्कर्ष:
यदि कोई व्यक्ति शून्य समझौते या बाद में शून्य हुए अनुबंध के कारण लाभ उठाता है, तो वह उस लाभ को वापस लौटाने या उसकी क्षतिपूर्ति करने के लिए कानूनी रूप से जिम्मेदार है।
धारा 66 – विलेखनीय (voidable) अनुबंध के निरसन (rescission) को सूचित या निरस्त करने की विधि
जो अनुबंध विलेखनीय (voidable) होता है, उसका निरसन (rescission) — अर्थात् उसे रद्द करना — उसी प्रकार से सूचित (communicate) या निरस्त (revoke) किया जा सकता है, जैसे कि किसी प्रस्ताव (proposal) के सूचना या निरसन के लिए नियम लागू होते हैं।
स्पष्टीकरण:
इसका अर्थ है कि जब कोई पक्ष किसी विलेखनीय अनुबंध को समाप्त करना चाहता है, तो उसे यह सूचित करने और उसे वापस लेने की प्रक्रिया ठीक उसी नियमों के अधीन करनी होगी, जैसे वह प्रस्ताव भेजते समय या उसे वापस लेते समय अपनाता है, जैसा कि भारतीय अनुबंध अधिनियम की प्रारंभिक धाराओं में बताया गया है।
उदाहरण:
यदि कोई व्यक्ति अनुबंध को रद्द करने की सूचना डाक से देता है, तो यह उसी समय प्रभावी होगा जब वह सूचना प्राप्तकर्ता के पास पहुँचेगी, जैसे कि प्रस्ताव और उसकी स्वीकृति के नियमों में होता है।
निष्कर्ष:
विलेखनीय अनुबंध को समाप्त करने (rescission) या उसे वापस लेने की प्रक्रिया वही होती है जो प्रस्तावों की सूचना या निरसन की होती है।
धारा 67 – जब वादकर्ता (Promisee) प्रतिज्ञाता (Promisor) को प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए उचित सुविधाएँ नहीं देता, तब उसका प्रभाव
यदि कोई वादकर्ता (Promisee) प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए प्रतिज्ञाता (Promisor) को उचित सुविधाएँ देने में लापरवाही करता है या मना करता है, और इसी कारण प्रतिज्ञा पूरी नहीं हो पाती, तो ऐसी लापरवाही या इनकार के कारण जो भी प्रतिपालन नहीं हो पाता है, उसके लिए प्रतिज्ञाता जिम्मेदार नहीं होगा।
उदाहरण:
A ने B के घर की मरम्मत करने का अनुबंध किया। लेकिन B यह बताने में लापरवाही करता है या मना कर देता है कि उसके घर में मरम्मत कहाँ-कहाँ करनी है।
तो ऐसी स्थिति में अगर A मरम्मत नहीं कर पाता है, तो उसे इसके लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि B की लापरवाही ने A को प्रतिज्ञा पूरी करने से रोका।
निष्कर्ष:
अगर वादकर्ता द्वारा उचित सहयोग या जानकारी नहीं दी जाती है, और इसी वजह से प्रतिज्ञा पूरी नहीं हो पाती, तो प्रतिज्ञाता उस असफलता के लिए मुक्त (excused) माना जाएगा।
धारा 68 – अनुबंध करने में अक्षम व्यक्ति या उसके लिए आवश्यक वस्तुएँ देने पर दावा
यदि कोई व्यक्ति जो क़ानूनी रूप से अनुबंध करने में अक्षम है, या कोई ऐसा व्यक्ति जिसे वह क़ानूनन पालने का दायित्व रखता है, को किसी अन्य व्यक्ति द्वारा उसके जीवन की स्थिति के अनुरूप आवश्यक वस्तुएँ (necessaries) प्रदान की जाती हैं, तो वह व्यक्ति जिसने ये आवश्यक वस्तुएँ दी हैं, उस अक्षम व्यक्ति की संपत्ति से उनकी भरपाई (reimbursement) पाने का अधिकारी होता है।
उदाहरण:
(a) A, B को जो एक मानसिक रूप से असमर्थ (पागल) व्यक्ति है, उसके जीवन स्तर के अनुरूप आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करता है। A, B की संपत्ति से इसकी भरपाई पाने का अधिकारी है।
(b) A, B की पत्नी और बच्चों को, जबकि B एक पागल व्यक्ति है, उनके जीवन स्तर के अनुरूप आवश्यक वस्तुएँ प्रदान करता है। A, B की संपत्ति से इसकी भरपाई पाने का अधिकारी है।
निष्कर्ष:
अगर कोई व्यक्ति किसी अक्षम व्यक्ति या उसके आश्रितों को उनकी जरूरत के मुताबिक आवश्यक चीजें देता है, तो वह उस व्यक्ति की संपत्ति से भुगतान पाने का हकदार है, भले ही अक्षम व्यक्ति खुद वैध अनुबंध न कर सकता हो।
धारा 69 – किसी अन्य व्यक्ति द्वारा देय धनराशि को, स्वहित में भुगतान करने वाले व्यक्ति की प्रतिपूर्ति (Reimbursement) का अधिकार
यदि कोई व्यक्ति उस धनराशि के भुगतान में रुचि (interest) रखता है, जो कानून द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को देनी होती है, और वह व्यक्ति उस राशि का भुगतान कर देता है, तो वह उस अन्य व्यक्ति से अपनी भुगतान की गई राशि की प्रतिपूर्ति पाने का अधिकारी होता है।
उदाहरण:
B, A नामक जमींदार से पट्टे पर बंगाल में जमीन रखता है। A द्वारा सरकार को देय लगान (revenue) बकाया रह जाता है, जिससे सरकार A की जमीन की नीलामी कर देती है। राजस्व कानून के अनुसार, ऐसी नीलामी से B का पट्टा रद्द हो जाएगा। B, अपनी लीज रद्द होने से बचाने के लिए, A की ओर से बकाया राशि सरकार को चुका देता है। ऐसी स्थिति में A, B को वह राशि लौटाने के लिए बाध्य होता है।
निष्कर्ष:
यदि कोई व्यक्ति अपने हित की रक्षा के लिए किसी अन्य के कानूनी दायित्व को पूरा करता है (जैसे किसी अन्य की ओर से कोई देनदारी चुकाना), तो वह उस व्यक्ति से वापसी (reimbursement) का कानूनी हकदार होता है।
धारा 70 – नि:शुल्क न होने वाले कार्य के लाभ का उपभोग करने वाले व्यक्ति का दायित्व
यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य के लिए कोई कार्य वैध रूप से करता है या उसे कोई वस्तु देता है, बिना इसे नि:शुल्क (gratuitously) करने का इरादा रखे, और वह अन्य व्यक्ति उस कार्य या वस्तु से लाभ उठाता है, तो वह व्यक्ति या तो उस कार्य/वस्तु के लिए क्षतिपूर्ति (compensation) देने हेतु बाध्य है, या उस वस्तु को वापस लौटाने के लिए बाध्य है।
उदाहरण:
(a) A, एक व्यापारी, गलती से अपने माल को B के घर पर छोड़ देता है। B उस माल को अपने उपयोग में ले लेता है। ऐसी स्थिति में B को A को भुगतान करना होगा, क्योंकि उसने माल का लाभ उठाया।
(b) A, B की संपत्ति को आग से बचा लेता है। लेकिन यदि परिस्थितियाँ यह दर्शाती हैं कि A ने यह कार्य सहायता के भाव से नि:शुल्क किया था, तो A को B से कोई मुआवज़ा नहीं मिलेगा।
निष्कर्ष:
यदि कोई व्यक्ति किसी के लिए कुछ करता है या देता है, नि:शुल्क नहीं, बल्कि उचित प्रतिफल की अपेक्षा में, और सामने वाला व्यक्ति उस सेवा या वस्तु का लाभ लेता है, तो उसे या तो उसका मूल्य चुकाना होगा या वस्तु लौटानी होगी।
धारा 71 – वस्तु के प्राप्तकर्ता (Finder of Goods) की उत्तरदायित्व
कोई व्यक्ति यदि किसी अन्य की वस्तु पाता है और उसे अपनी अभिरक्षा (custody) में ले लेता है, तो वह व्यक्ति उसी प्रकार उत्तरदायी होता है जैसे कि एक गहनकारी (Bailee) होता है।
मतलब:
यदि कोई वस्तु आपको रास्ते में या किसी स्थान पर गिरी हुई मिलती है और आप उसे उठाकर अपने पास रखते हैं, तो आप उस वस्तु की रक्षा और सुरक्षा के लिए ठीक उसी प्रकार जिम्मेदार हैं, जैसे कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे की वस्तु को उसके कहने पर सुरक्षित रखने के लिए रखता है (Bailee की तरह)।
Bailee की मुख्य जिम्मेदारियाँ होती हैं:
- वस्तु की यथासंभव रक्षा करना,
- उसका दुरुपयोग न करना,
- मालिक को वस्तु लौटाना,
- अगर वस्तु का नुकसान आपकी लापरवाही से हुआ हो तो उसकी भरपाई करना।
निष्कर्ष:
जो व्यक्ति किसी और की वस्तु पाता है और अपने पास रखता है, वह उसके साथ जिम्मेदारीपूर्वक व्यवहार करने का कानूनी दायित्व रखता है, जैसे कि वह एक Bailee हो।
धारा 72 – गलती या दबाव (coercion) के तहत दिए गए धन या वस्तु की वापसी की जिम्मेदारी
यदि किसी व्यक्ति को गलती से या दबाव (coercion) के कारण कोई धनराशि दी गई हो या कोई वस्तु सौंपी गई हो, तो उसे वह धन या वस्तु लौटानी होगी।
स्पष्टीकरण:
इस धारा के अनुसार, यदि किसी को:
- गलती से (mistake), या
- दबाव डालकर (coercion)
कोई पैसा दिया गया हो या कोई वस्तु सौंपी गई हो, तो वह व्यक्ति कानूनी रूप से बाध्य है कि वह उस धन या वस्तु को वापस करे।
उदाहरण:
(a) A और B ने मिलकर C को 100 रुपये देने हैं। A ने अकेले यह रकम C को दे दी, लेकिन B को यह जानकारी नहीं है और वह भी C को 100 रुपये दे देता है। ऐसे में C को B को वह 100 रुपये वापस करने होंगे, क्योंकि उसे गलती से दो बार भुगतान मिल गया।
(b) रेलवे कंपनी एक ग्राहक से अवैध रूप से अधिक किराया वसूलती है और कहती है कि जब तक यह अतिरिक्त पैसा नहीं दिया जाएगा, माल नहीं मिलेगा। ग्राहक मजबूरी में भुगतान करता है। इस स्थिति में, ग्राहक को वह अतिरिक्त अवैध वसूली की गई राशि वापस पाने का अधिकार है।
निष्कर्ष:
अगर कोई व्यक्ति गलती से या दबाव में कुछ प्राप्त करता है तो वह उसे वापस करने का कानूनी दायित्व रखता है।
धारा 73 – अनुबंध के उल्लंघन के कारण हानि या क्षति पर क्षतिपूर्ति का प्रावधान
जब किसी अनुबंध का उल्लंघन होता है, तब वह पक्ष जिसे इस उल्लंघन के कारण हानि या क्षति हुई है, उस पक्ष से क्षतिपूर्ति पाने का हकदार होता है जिसने अनुबंध तोड़ा है। यह क्षतिपूर्ति उसे उस हानि के लिए मिलेगी जो सामान्य रूप से इस प्रकार के उल्लंघन से होती है, या जिसे अनुबंध करते समय दोनों पक्षों ने संभावित परिणाम के रूप में समझा हो।
हालांकि, ऐसी हानि या क्षति जो बहुत दूरस्थ (remote) या अप्रत्यक्ष (indirect) हो, उसके लिए क्षतिपूर्ति नहीं दी जाएगी।
अनुबंध-जैसी स्थिति में दायित्व (quasi-contractual obligations)
जहां अनुबंध जैसा कोई दायित्व उत्पन्न होता है और पूरा नहीं किया जाता, वहां प्रभावित व्यक्ति को उसी प्रकार की क्षतिपूर्ति मिलती है जैसे कि यह एक वैध अनुबंध होता।
स्पष्टीकरण:
अनुबंध के उल्लंघन से उत्पन्न हानि की गणना करते समय यह देखा जाएगा कि उस असुविधा को दूर करने के कौन-कौन से उपाय उपलब्ध थे।
प्रमुख बिंदु:
- सीधी और स्वाभाविक हानि के लिए क्षतिपूर्ति मिलती है।
- दूरस्थ और अप्रत्याशित हानि के लिए नहीं।
- अनुबंध के समय ज्ञात विशेष परिस्थितियाँ होने पर विशेष हानि के लिए भी क्षतिपूर्ति मिल सकती है।
- समानता के आधार पर उत्पन्न दायित्व (जैसे बिना अनुबंध किसी का काम करना और दूसरा लाभ उठाए) पर भी क्षतिपूर्ति दी जा सकती है।
उदाहरणों के माध्यम से समझाया गया:
- माल तय समय पर न पहुंचने पर हानि की भरपाई (उदाहरण a, e, o)
- पूर्व भुगतान के बावजूद सेवा न देने पर नुकसान की भरपाई (उदाहरण k, l)
- किसी वस्तु की गुणवत्ता सही न होने पर हर्जाना (उदाहरण m)
- जहाज या माल की समय पर आपूर्ति न होने से व्यापारिक नुकसान की सीमा (उदाहरण p, q)
- विलंब से यात्रा होने पर सामान्य खर्च की भरपाई, लेकिन व्यापार के अवसर का नुकसान नहीं (उदाहरण r)
निष्कर्ष:
धारा 73 यह सुनिश्चित करती है कि अनुबंध के उल्लंघन से पीड़ित पक्ष को उसकी स्वाभाविक हानि की क्षतिपूर्ति मिल सके, लेकिन अनुचित या अप्रत्याशित क्षतियों के लिए जिम्मेदारी तय न हो।
धारा 74 – अनुबंध के उल्लंघन पर क्षतिपूर्ति जब दंड (Penalty) का प्रावधान हो
जब किसी अनुबंध का उल्लंघन होता है और उस अनुबंध में उल्लंघन की स्थिति में एक निश्चित राशि देय रखने का प्रावधान होता है, या कोई दंडात्मक शर्त होती है, तब क्षतिपूर्ति पाने वाला पक्ष — भले ही उसे वास्तविक हानि या नुकसान सिद्ध न करना पड़े — अनुबंध तोड़ने वाले पक्ष से यथोचित क्षतिपूर्ति पाने का हकदार होता है, परंतु यह क्षतिपूर्ति उस तय की गई राशि या दंड की राशि से अधिक नहीं हो सकती।
स्पष्टीकरण: यदि अनुबंध में यह शर्त हो कि डिफॉल्ट (default) की तारीख से ब्याज की दर बढ़ जाएगी, तो यह भी दंड (penalty) का एक रूप माना जा सकता है।
अपवाद (Exception):
यदि कोई व्यक्ति जमानती बॉन्ड (bail-bond), मान्यता-पत्र (recognizance) या इसी प्रकार के अन्य दस्तावेज़ पर, या किसी कानून के अंतर्गत या केंद्र/राज्य सरकार के आदेशानुसार, किसी सार्वजनिक कर्तव्य के निर्वहन के लिए कोई बॉन्ड देता है, तो उस कर्तव्य के उल्लंघन की स्थिति में उसे उस बॉन्ड में उल्लिखित पूरी राशि देनी होगी।
स्पष्टीकरण: केवल सरकार के साथ अनुबंध करने मात्र से यह नहीं मान लिया जाएगा कि व्यक्ति ने कोई सार्वजनिक कर्तव्य स्वीकार कर लिया है।
उदाहरणों से स्पष्टता:
- (a) A अनुबंध करता है कि यदि वह एक तय दिन B को ₹500 नहीं देता, तो ₹1,000 देगा। A ₹500 नहीं देता। B अधिकतम ₹1,000 तक न्यायालय द्वारा उचित समझी गई क्षतिपूर्ति पाने का हकदार है।
- (b) A अनुबंध करता है कि यदि वह कलकत्ता में सर्जन का अभ्यास करता है, तो B को ₹5,000 देगा। वह अभ्यास करता है, B को न्यायालय द्वारा तय की गई उपयुक्त क्षतिपूर्ति मिलेगी (₹5,000 से अधिक नहीं)।
- (c) A ₹500 की मान्यता देता है कि वह एक निश्चित दिन अदालत में उपस्थित होगा, लेकिन वह अनुपस्थित रहता है। वह पूरी ₹500 राशि चुकाने के लिए बाध्य होगा (यह सार्वजनिक हित से जुड़ा मामला है)।
- (d) A ₹1,000 का कर्ज लेता है और 6 माह में 12% ब्याज सहित लौटाने का बॉन्ड देता है, जिसमें डिफॉल्ट होने पर 75% ब्याज का प्रावधान है। यह दंडात्मक शर्त है; B को केवल न्यायालय द्वारा उचित मानी गई क्षतिपूर्ति ही मिलेगी।
- (e) A 10 मन अनाज एक निश्चित तिथि को B को देने की शर्त पर उधार लेता है, और यह भी तय होता है कि यदि वह समय पर अनाज नहीं देता तो उसे 20 मन देना होगा। यह दंडात्मक शर्त है — B को केवल उचित क्षतिपूर्ति ही मिलेगी।
- (f) A ₹1,000 का ऋण B से लेता है, जिसे वह पाँच बराबर किश्तों में लौटाएगा। शर्त यह है कि यदि एक भी किश्त में चूक होती है तो पूरा बकाया तत्काल देय होगा। यह दंड नहीं है — इस प्रकार का अनुबंध लागू किया जा सकता है।
- (g) A ₹100 उधार लेता है और ₹200 का बॉन्ड देता है, जिसमें पाँच वार्षिक किश्तों में ₹40 देने की बात होती है, और चूक पर पूरा ₹200 देय माना गया है। यह दंडात्मक शर्त है — न्यायालय केवल यथोचित क्षतिपूर्ति की अनुमति देगा।
निष्कर्ष:
धारा 74 का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अनुबंध में उल्लंघन की स्थिति में पूर्व-निर्धारित राशि को दंड न माना जाए, बल्कि न्यायालय यह देखे कि वह राशि उचित क्षतिपूर्ति के रूप में वैध है या नहीं। इसका मूल सिद्धांत है — न्यायसंगत मुआवजा, न कि अनुचित दंड।
धारा 75 – अनुबंध को विधिसम्मत रूप से रद्द करने वाले पक्ष को क्षतिपूर्ति पाने का अधिकार
यदि कोई व्यक्ति किसी अनुबंध को विधिसम्मत रूप से (rightfully) रद्द करता है, तो वह उस क्षति (damage) के लिए क्षतिपूर्ति पाने का हकदार होता है, जो उसे अनुबंध की पूर्ति न होने के कारण हुई हो।
उदाहरण:
A, एक गायिका, B के थिएटर में अगले दो महीनों तक हर सप्ताह दो रात गाने का अनुबंध करती है। B हर प्रदर्शन के लिए उसे ₹100 देने का वादा करता है। छठी रात को A जानबूझकर थिएटर नहीं आती, जिससे B अनुबंध को रद्द कर देता है। B इस अनुबंध की पूर्ति न होने से जो नुकसान उसे हुआ है, उसकी क्षतिपूर्ति पाने का हकदार है।
निष्कर्ष:
धारा 75 यह स्पष्ट करती है कि जब कोई पक्ष वैध आधार पर अनुबंध को समाप्त करता है (जैसे दूसरे पक्ष की गलती या उल्लंघन के कारण), तो उसे हुए वास्तविक नुकसान के लिए न्यायालय से क्षतिपूर्ति पाने का अधिकार है।
धारा 124 – “क्षतिपूर्ति के अनुबंध” की परिभाषा
एक ऐसा अनुबंध, जिसमें एक पक्ष (promisor) यह वादा करता है कि वह दूसरे पक्ष (promisee) को उस नुकसान से बचाएगा जो खुद उस वादाकार (promisor) के कार्यों या किसी अन्य व्यक्ति के कार्यों के कारण हुआ है, उसे “क्षतिपूर्ति का अनुबंध” (Contract of Indemnity) कहा जाता है।
उदाहरण:
A, B से यह वादा करता है कि यदि C, B के विरुद्ध ₹200 की कोई कार्यवाही करता है, तो A उसकी सारी जिम्मेदारी लेगा और नुकसान की भरपाई करेगा। यह एक क्षतिपूर्ति का अनुबंध है।
निष्कर्ष:
धारा 124 यह स्पष्ट करती है कि यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य को यह वादा करता है कि वह उसे किसी विशेष नुकसान से बचाएगा (भले ही वह नुकसान खुद उसके कार्यों से हो या किसी तीसरे व्यक्ति के), तो यह अनुबंध कानूनन “Contract of Indemnity” कहलाता है और उस पर विधिक उत्तरदायित्व लागू होता है।
धारा 125 – मुकदमा होने पर क्षतिपूर्ति प्राप्त करने वाले व्यक्ति के अधिकार
जब किसी “Indemnity Contract” (क्षतिपूर्ति अनुबंध) के तहत वचनबद्ध व्यक्ति (Promisee) पर मुकदमा होता है, और वह अपनी जिम्मेदारियों के दायरे में कार्य करता है, तो उसे वचन देने वाले व्यक्ति (Promisor) से निम्नलिखित राशि वसूलने का अधिकार होता है—
(1) वह सभी हर्जाना (damages) जो उसे किसी ऐसे मामले में देना पड़ा हो, जो उस क्षतिपूर्ति अनुबंध के अंतर्गत आता हो।
(2) वह सभी कानूनी खर्चे (costs) जो उसे उस मुकदमे में देने पड़े हों, यदि—
- उसने वाद दायर करने या बचाव करने में वचनदाता (Promisor) के आदेशों का उल्लंघन नहीं किया हो, और
- उसने उसी तरह से व्यवहार किया हो जैसा कोई समझदार व्यक्ति बिना किसी क्षतिपूर्ति अनुबंध के करता, या
- यदि वचनदाता ने उसे मुकदमा करने या उसका बचाव करने के लिए अधिकृत किया हो।
(3) वह सभी धनराशि जो उसने उस मुकदमे के समझौते के तहत दी हो, यदि—
- वह समझौता वचनदाता के आदेशों के विरुद्ध नहीं था, और
- वह ऐसा समझौता था जैसा कोई समझदार व्यक्ति करता यदि कोई क्षतिपूर्ति अनुबंध नहीं होता, या
- वचनदाता ने उसे समझौता करने की अनुमति दी थी।
धारा 126 – “गारंटी अनुबंध”, “जामिन”, “प्रधान ऋणी” और “लेनदार” की परिभाषाएँ
“गारंटी का अनुबंध” (Contract of Guarantee) वह अनुबंध होता है, जिसमें एक पक्ष (Surety) किसी तीसरे व्यक्ति (Principal Debtor) के द्वारा अनुबंध पूरा न करने या भुगतान में चूक हो जाने पर उस वादे को पूरा करने या देय राशि चुकाने का वचन देता है।
इसमें तीन पक्ष होते हैं:
- “जामिन” (Surety): वह व्यक्ति जो गारंटी देता है।
- “प्रधान ऋणी” (Principal Debtor): वह व्यक्ति जिसकी जिम्मेदारी की गारंटी दी गई है।
- “लेनदार” (Creditor): वह व्यक्ति जिसे गारंटी दी गई है।
गारंटी मौखिक (oral) या लिखित (written) दोनों रूपों में दी जा सकती है।
निष्कर्ष:
धारा 125 व 126 के तहत, अगर किसी व्यक्ति ने दूसरे की जिम्मेदारी उठाने का वादा किया है और उसे मुकदमे या भुगतान की स्थिति का सामना करना पड़े, तो वह वादा करने वाले से क्षतिपूर्ति पाने का हकदार है, बशर्ते उसने अनुबंध की सीमाओं के भीतर कार्य किया हो। वहीं, गारंटी अनुबंध तीन पक्षों के बीच होता है— जामिन, प्रधान ऋणी और लेनदार— और यह कानूनन वैध होता है चाहे वह मौखिक हो या लिखित।
धारा 127 – गारंटी के लिए प्रतिफल (Consideration for Guarantee)
किसी गारंटी अनुबंध में, यदि प्रधान ऋणी (Principal Debtor) के हित के लिए कोई कार्य किया गया हो या कोई वादा किया गया हो, तो वही कार्य या वादा जामिन (Surety) के लिए पर्याप्त प्रतिफल (consideration) माना जाएगा।
उदाहरण:
(a) B, A से उधार पर वस्तुएँ खरीदने का अनुरोध करता है। A इस शर्त पर सहमत होता है कि यदि C भुगतान की गारंटी देगा, तो वह सामान देगा। C, A द्वारा सामान देने के वादे के बदले में भुगतान की गारंटी देने का वादा करता है। यह C के वादे के लिए पर्याप्त प्रतिफल है।
(b) A ने B को सामान बेचकर दे दिया। बाद में C, A से एक वर्ष तक B के विरुद्ध मुकदमा न करने का अनुरोध करता है और वादा करता है कि यदि B भुगतान नहीं करेगा तो वह (C) भुगतान करेगा। A, C के अनुरोध पर मुकदमा न करने के लिए सहमत हो जाता है। यह C के वादे के लिए पर्याप्त प्रतिफल है।
(c) A, B को सामान बेचकर दे चुका है। इसके बाद C बिना किसी प्रतिफल के, B की चूक पर भुगतान करने का वादा करता है। यह समझौता वैध नहीं है, क्योंकि यह बिना प्रतिफल के है और इसीलिए अमान्य (void) है।
निष्कर्ष:
गारंटी के लिए जरूरी नहीं है कि प्रतिफल सीधे जामिन को मिले। यदि कोई कार्य या लाभ प्रधान ऋणी के हित में किया गया हो, तो वही गारंटी देने वाले के लिए पर्याप्त प्रतिफल होता है। लेकिन यदि गारंटी बिना किसी प्रतिफल के दी जाए, तो वह गारंटी अमान्य मानी जाएगी।
धारा 128 – जामिन की देयता (Surety’s Liability)
जामिन की देयता (liability) प्रधान ऋणी (principal debtor) की देयता के समान (co-extensive) होती है, जब तक कि अनुबंध में कुछ और न कहा गया हो।
उदाहरण:
A, B को यह गारंटी देता है कि C, जो बिल ऑफ एक्सचेंज (Bill of Exchange) को स्वीकार करता है, उसका भुगतान करेगा। जब C बिल का भुगतान नहीं करता (dishonour कर देता है), तो A जिम्मेदार होता है — न केवल बिल की रकम के लिए, बल्कि उस पर लगे ब्याज और अन्य खर्चों के लिए भी।
निष्कर्ष:
जामिन की जिम्मेदारी वही होती है जो प्रधान ऋणी की होती है। यदि ऋणी मूल राशि, ब्याज और खर्चों का भुगतान करने के लिए जिम्मेदार है, तो जामिन भी इन्हीं सभी बातों के लिए जिम्मेदार होगा — जब तक कि अनुबंध में विशेष रूप से कोई सीमा न लगाई गई हो।
यह सिद्धांत जामिन की जिम्मेदारी को बहुत गंभीर बनाता है, और इसीलिए गारंटी देने से पहले सावधानी बरतनी आवश्यक होती है।
धारा 130 – सतत गारंटी का अभिरोधन (Revocation of Continuing Guarantee)
सतत गारंटी (Continuing Guarantee) को जामिन (Surety) द्वारा भविष्य की लेन-देन (future transactions) के लिए कभी भी सूचना देकर अभिरोधित (revoke) किया जा सकता है।
उदाहरण:
(a) A, B से यह वादा करता है कि वह C के लिए B द्वारा डिस्काउंट किए गए बिलों की समय पर अदायगी की गारंटी देगा, अधिकतम ₹5,000 तक, और यह गारंटी 12 महीने के लिए है। B, C के लिए ₹2,000 के बिल डिस्काउंट करता है। तीन महीने बाद A गारंटी वापस ले लेता है।
➡ अब A की भविष्य के किसी भी बिल के लिए कोई देयता नहीं रहेगी।
➡ लेकिन पहले के ₹2,000 के बिलों के लिए A अब भी जिम्मेदार रहेगा यदि C भुगतान नहीं करता।
(b) A, B को ₹10,000 तक की गारंटी देता है कि C, B द्वारा उस पर खींचे गए सभी बिलों का भुगतान करेगा। B एक बिल C पर खींचता है और C उसे स्वीकार कर लेता है। इसके बाद A गारंटी को रद्द कर देता है। परंतु, जब बिल पर समय आने पर C भुगतान नहीं करता, A उस बिल के लिए उत्तरदायी रहेगा, क्योंकि वह लेन-देन गारंटी रद्द करने से पहले हो चुका था।
निष्कर्ष:
जामिन गारंटी को समाप्त करने का अधिकार रखता है, लेकिन वह केवल भविष्य की लेन-देन के लिए ही प्रभावी होती है। जो लेन-देन पहले हो चुकी हैं, उन पर जामिन की देयता बनी रहती है।
धारा 129 – “सतत गारंटी” (Continuing Guarantee)
जब कोई गारंटी एक से अधिक लेन-देन (transactions) पर लागू होती है, अर्थात एक पूरी श्रृंखला (series) की लेन-देन पर, तो उसे “सतत गारंटी” कहा जाता है।
उदाहरण:
(a) A, यह वादा करता है कि यदि B, C को अपने ज़मींदारी का किराया इकट्ठा करने के लिए नियुक्त करता है, तो वह C द्वारा ठीक से किराया इकट्ठा करने और भुगतान करने की ₹5,000 तक गारंटी देगा।
➡ यह सतत गारंटी है क्योंकि यह C के लगातार कार्यों (series of collections) को कवर करती है।
(b) A, B (एक चाय विक्रेता) को यह गारंटी देता है कि वह C को जब-जब चाय बेचेगा, तब वह ₹100 तक भुगतान की गारंटी देगा।
B पहले C को ₹100 से अधिक की चाय बेचता है और C उसका भुगतान कर देता है। फिर B दोबारा C को ₹200 की चाय बेचता है, जिसका C भुगतान नहीं करता।
➡ यह सतत गारंटी है, इसलिए A ₹100 तक के लिए उत्तरदायी है।
(c) A, B को गारंटी देता है कि वह C को पाँच बोरे आटे की बिक्री के मूल्य का भुगतान करेगा, जो एक महीने में किया जाएगा। B पाँच बोरे देता है और C उनका भुगतान कर देता है। बाद में B चार और बोरे देता है, जिनका भुगतान C नहीं करता।
➡ यह गारंटी केवल एक निश्चित लेन-देन (पाँच बोरे) तक सीमित थी। यह सतत गारंटी नहीं है, इसलिए A अतिरिक्त चार बोरे के लिए जिम्मेदार नहीं है।
निष्कर्ष:
यदि गारंटी केवल एक विशेष लेन-देन तक सीमित है, तो वह सतत गारंटी नहीं मानी जाती। लेकिन यदि गारंटी कई लेन-देन या जारी रहने वाले व्यवहारों पर लागू होती है, तो वह सतत गारंटी होती है, और जामिन (surety) उस सीमा तक उत्तरदायी होता है जितना उसने वादा किया है।
धारा 130 – सतत गारंटी का निरसन (Revocation of Continuing Guarantee)
जब कोई व्यक्ति किसी सतत गारंटी (Continuing Guarantee) के अंतर्गत गारंटी देता है, तो वह किसी भी समय, उस गारंटी को भविष्य के लेन-देन (future transactions) के संबंध में नोटिस देकर निरस्त (revoke) कर सकता है।
यानि, जो लेन-देन पहले से हो चुके हैं, उनके लिए वह ज़िम्मेदार रहेगा, लेकिन नोटिस के बाद जो लेन-देन होंगे, उनके लिए वह उत्तरदायी नहीं रहेगा।
उदाहरण:
(a) A ने B से अनुरोध करके यह गारंटी दी कि B, C के लिए 12 महीने तक बिलों को छूट देगा और A इन बिलों के भुगतान की ₹5,000 तक गारंटी देगा।
B ने C के लिए ₹2,000 तक के बिल छूट दिए। तीन महीने बाद A ने गारंटी निरस्त कर दी।
➡ इसका परिणाम यह हुआ कि A अब भविष्य के छूटे बिलों के लिए जिम्मेदार नहीं है। लेकिन यदि C ₹2,000 नहीं चुका पाता, तो A इस रकम के लिए जिम्मेदार रहेगा।
(b) A ने B को ₹10,000 तक की गारंटी दी कि C, B द्वारा उस पर खींचे गए सारे बिलों का भुगतान करेगा।
B ने C पर एक बिल खींचा और C ने उसे स्वीकार कर लिया। फिर A ने गारंटी निरस्त कर दी। बाद में C ने बिल का भुगतान नहीं किया।
➡ चूंकि यह बिल A द्वारा गारंटी निरस्त करने से पहले स्वीकृत (accepted) हो गया था, इसलिए A इस बिल के लिए जिम्मेदार रहेगा।
निष्कर्ष:
सतत गारंटी को भविष्य के लिए समाप्त किया जा सकता है, लेकिन पूर्ववर्ती लेन-देन के लिए गारंटी देने वाला व्यक्ति उत्तरदायी रहता है। गारंटी की समाप्ति के लिए स्पष्ट सूचना (notice) देना आवश्यक है।
धारा 131 – जमानती की मृत्यु से सतत गारंटी का निरसन (Revocation of Continuing Guarantee by Surety’s Death)
यदि कोई व्यक्ति सतत गारंटी (Continuing Guarantee) देता है और उसकी मृत्यु हो जाती है, तो, यदि कोई भिन्न अनुबंध नहीं किया गया है, तो उसकी मृत्यु से वह गारंटी भविष्य के लेन-देन (future transactions) के संबंध में स्वतः निरस्त (automatically revoked) मानी जाती है।
मुख्य बिंदु:
- मृत्यु से पहले किए गए लेन-देन के लिए मृतक जमानती की देनदारी बनी रहती है।
- परंतु मृत्यु के बाद के लेन-देन, यदि कोई विशेष अनुबंध न हो, तो उस गारंटी के अंतर्गत नहीं आते।
- अगर अनुबंध में ऐसा प्रावधान हो कि मृत्यु के पश्चात भी गारंटी जारी रहेगी, तो वह प्रभावी रहेगा।
निष्कर्ष:
अगर जमानत देने वाला व्यक्ति मर जाता है, और अनुबंध में इसके विपरीत कुछ नहीं लिखा है, तो उसकी मृत्यु से उसकी सतत गारंटी समाप्त मानी जाएगी — लेकिन केवल भविष्य के लेन-देन के लिए।
धारा 132 – दो व्यक्तियों की मुख्य देनदारी पर उनके बीच हुए आपसी अनुबंध का तीसरे पक्ष पर कोई प्रभाव नहीं
जब दो व्यक्ति किसी तीसरे व्यक्ति के साथ मिलकर एक उत्तरदायित्व (liability) स्वीकार करते हैं, और फिर आपस में यह अनुबंध करते हैं कि उनमें से एक व्यक्ति केवल तभी उत्तरदायी होगा जब दूसरा विफल रहेगा, परंतु वह तीसरा व्यक्ति उस आपसी अनुबंध का पक्षकार नहीं है, तो:
तीसरे व्यक्ति के प्रति दोनों व्यक्तियों की देनदारी पहले अनुबंध के अनुसार यथावत रहती है, भले ही तीसरे व्यक्ति को इस आपसी समझौते की जानकारी हो।
उदाहरण:
A और B ने मिलकर C के पक्ष में एक संयुक्त और पृथक प्रोमिसरी नोट (joint and several promissory note) पर हस्ताक्षर किए। असल में, A यह नोट B के लिए जमानती (surety) के रूप में बनाता है, और C को यह बात ज्ञात है।
➡️ फिर भी, C यदि A के खिलाफ वसूली का दावा करता है, तो A यह नहीं कह सकता कि वह तो सिर्फ जमानतदार था, इसलिए देनदार नहीं है।
निष्कर्ष:
यदि दो व्यक्ति मिलकर किसी तीसरे के प्रति दायित्व लेते हैं, तो उनके बीच यह समझौता कि उनमें से एक केवल तभी उत्तरदायी होगा जब दूसरा विफल रहेगा — इससे तीसरे व्यक्ति की मांगों पर कोई असर नहीं पड़ेगा, भले ही तीसरे को इसकी जानकारी हो।
धारा 133 – अनुबंध की शर्तों में परिवर्तन से जमानतदार (Surety) की विमुक्ति
यदि मुख्य देनदार (Principal Debtor) और लेनदार (Creditor) के बीच किए गए अनुबंध की शर्तों में जमानतदार (Surety) की स्वीकृति के बिना कोई परिवर्तन किया जाता है, तो ऐसा परिवर्तन जमानतदार को उस परिवर्तन के बाद के लेनदारी लेनदेन से मुक्त कर देता है।
उदाहरण:
(a) A ने B की बैंक मैनेजर के रूप में ईमानदारी की गारंटी C को दी। बाद में B और C के बीच A की अनुमति के बिना यह तय हुआ कि B का वेतन बढ़ेगा और वह ओवरड्राफ्ट से हुए नुकसान का एक चौथाई जिम्मेदार होगा। B के कारण नुकसान हुआ। A इस बदलाव के कारण जमानत से मुक्त है।
(b) A ने B की गारंटी दी, जिसे एक कार्यालय में नियुक्त किया गया, जिसकी जिम्मेदारियाँ कानून द्वारा निर्धारित थीं। बाद में कानून बदला गया और कार्यालय के कार्यों में महत्वपूर्ण बदलाव हुए। उसके बाद B ने कदाचार किया। A नए कानून के प्रभाव के बाद की गारंटी से मुक्त है, भले ही B का कदाचार पुराने कर्तव्यों से जुड़ा था।
(c) C, B को वेतन पर सेल्स क्लर्क नियुक्त करता है, बशर्ते A उसकी जमानत दे। बाद में A की जानकारी और सहमति के बिना B को कमीशन पर नियुक्त किया जाता है। B द्वारा की गई किसी भी अनियमितता के लिए A उत्तरदायी नहीं है।
(d) A ने C को B को उधारी पर तेल देने के लिए ₹3,000 तक की निरंतर गारंटी दी। बाद में, B की आर्थिक स्थिति खराब हो जाती है और B व C तय करते हैं कि अब तेल केवल नकद में दिया जाएगा और भुगतान पुरानी उधारी में समायोजित होंगे। A अब नई व्यवस्था के तहत दी गई उधारी के लिए जिम्मेदार नहीं है।
(e) C, B को ₹5,000 उधार 1 मार्च को देने का वादा करता है, और A उसकी चुकौती की गारंटी देता है। पर C, B को यह राशि 1 जनवरी को ही दे देता है। यह अनुबंध की शर्तों में बदलाव है, जिससे A जमानत की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाता है।
निष्कर्ष:
अगर लेनदार और मुख्य देनदार अनुबंध की शर्तों में कोई भी ऐसा बदलाव करते हैं, जो जमानतदार की सहमति के बिना हो, तो जमानतदार उस बदलाव के बाद की देनदारियों से स्वतः मुक्त हो जाता है।
धारा 135 – लेनदार द्वारा मुख्य देनदार से समझौता करने, समय देने या मुकदमा न करने पर जमानतदार की विमुक्ति
यदि लेनदार (Creditor) और मुख्य देनदार (Principal Debtor) के बीच ऐसा कोई अनुबंध किया जाता है जिसमें—
- लेनदार, मुख्य देनदार के साथ समझौता करता है (composition करता है),
- या मुख्य देनदार को समय देता है ऋण चुकाने के लिए,
- या मुख्य देनदार पर मुकदमा न करने का वादा करता है,
तो जमानतदार (Surety) उस दायित्व से मुक्त हो जाता है जब तक कि वह ऐसे अनुबंध के लिए सहमत न हो।
मुख्य बिंदु:
- यह प्रावधान जमानतदार को संरक्षण देता है, ताकि लेनदार और मुख्य देनदार के बीच के निजी समझौते से उसकी जिम्मेदारी न बढ़ जाए।
- यदि जमानतदार ने स्पष्ट रूप से ऐसी छूट या समझौते के लिए स्वीकृति नहीं दी है, तो वह अपने कर्तव्यों से स्वतः मुक्त हो जाएगा।
उदाहरण (काल्पनिक):
अगर A ने B की जमानत दी है और C (लेनदार) बाद में B से एक गुप्त समझौता कर लेता है कि वह B से कुछ राशि में समझौता करेगा या उसे 6 महीने का समय देगा या उस पर मुकदमा नहीं करेगा — और A ने इस बात की अनुमति नहीं दी — तो A जमानत से विमुक्त हो जाएगा।
निष्कर्ष:
जब लेनदार मुख्य देनदार को समय देता है, मुकदमा नहीं करता, या उससे कोई समझौता करता है और जमानतदार की सहमति नहीं होती, तो जमानतदार ऐसे अनुबंध से उत्पन्न जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाता है।
धारा 136 – जब मुख्य देनदार को समय देने का अनुबंध किसी तीसरे व्यक्ति से किया गया हो, तो जमानतदार विमुक्त नहीं होता
यदि लेनदार (Creditor) और किसी तीसरे व्यक्ति (Third Person) के बीच ऐसा अनुबंध होता है, जिसमें वे मुख्य देनदार (Principal Debtor) को ऋण चुकाने के लिए समय देने पर सहमत होते हैं, और यह अनुबंध मुख्य देनदार के साथ नहीं किया गया होता, तो जमानतदार (Surety) अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं होता।
स्पष्टीकरण:
- धारा 135 में कहा गया था कि यदि लेनदार और मुख्य देनदार के बीच समय देने या मुकदमा न करने का अनुबंध हो तो जमानतदार विमुक्त हो जाता है।
- लेकिन धारा 136 में यह स्पष्ट किया गया है कि अगर ऐसा अनुबंध किसी तीसरे व्यक्ति के साथ किया गया हो, मुख्य देनदार के साथ नहीं, तो इससे जमानतदार की जिम्मेदारी पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
उदाहरण:
C के पास एक बिल ऑफ एक्सचेंज है जो B (मुख्य देनदार) ने स्वीकार किया है और A ने जमानत दी थी। यह बिल भुगतान की समय-सीमा पार कर चुका है। अब C, किसी तीसरे व्यक्ति M के साथ यह समझौता करता है कि वह B को भुगतान के लिए और समय देगा।
➡️ चूंकि यह समझौता B (मुख्य देनदार) के साथ नहीं हुआ है, बल्कि किसी तीसरे व्यक्ति M के साथ हुआ है, इसलिए A (जमानतदार) अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं होगा।
निष्कर्ष:
यदि मुख्य देनदार को समय देने का अनुबंध सीधे उससे न होकर किसी तीसरे व्यक्ति से किया गया हो, तो जमानतदार की जिम्मेदारी बनी रहती है।
धारा 137 – लेनदार द्वारा मुख्य देनदार पर मुकदमा न करने से जमानतदार मुक्त नहीं होता
यदि कोई लेनदार केवल मुख्य देनदार (Principal Debtor) के खिलाफ मुकदमा करने से परहेज़ करता है या कोई अन्य कानूनी उपाय लागू नहीं करता, तो मात्र इस वजह से (जब तक गारंटी में कोई अलग प्रावधान न हो), जमानतदार (Surety) अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं होता।
उदाहरण:
B, C का देनदार है और यह ऋण A द्वारा गारंटीशुदा (guaranteed by A) है। ऋण भुगतान योग्य हो जाता है, लेकिन C एक वर्ष तक B पर मुकदमा नहीं करता।
➡️ इस स्थिति में A (जमानतदार) केवल इस कारण से मुक्त नहीं होगा कि C ने समय पर B के विरुद्ध मुकदमा नहीं किया।
मुख्य बिंदु:
- मात्र मुकदमा न करने या कार्रवाई न करने से जमानतदार की जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती, जब तक कि गारंटी अनुबंध में इसके विपरीत कोई बात न लिखी हो।
- यह प्रावधान लेनदार को न्यायसंगत विलंब का अधिकार देता है, बिना यह जोखिम लिए कि जमानतदार स्वतः मुक्त हो जाएगा।
निष्कर्ष:
अगर लेनदार ने मुख्य देनदार पर मुकदमा करने में देर की हो या फिलहाल कोई कदम न उठाया हो, तो सिर्फ इस कारण से जमानतदार अपनी कानूनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं होता।
धारा 138 – एक सह-जमानतदार की मुक्ति से अन्य जमानतदार मुक्त नहीं होते
जब किसी ऋण या दायित्व के लिए एक से अधिक जमानतदार (Co-sureties) होते हैं और लेनदार (Creditor) उनमें से किसी एक जमानतदार को मुक्त कर देता है, तो:
- अन्य सह-जमानतदारों की जिम्मेदारी समाप्त नहीं होती।
- मुक्त किया गया जमानतदार भी अन्य जमानतदारों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं होता, अर्थात वह अब भी सह-जमानतदारों को उनके हिस्से की भरपाई के लिए उत्तरदायी हो सकता है।
🔹 उदाहरण:
A, B और C — तीनों ने D के ऋण के लिए जमानत दी है (तीनों सह-जमानतदार हैं)। अगर लेनदार B को उसकी जिम्मेदारी से मुक्त कर देता है, तो:
- A और C अभी भी लेनदार के प्रति पूरी तरह उत्तरदायी रहेंगे।
- B, जो मुक्त किया गया है, A और C के प्रति अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं है। यदि A और C ने पूरा भुगतान किया, तो वे B से उसका हिस्सा वसूल सकते हैं।
🔹 मुख्य बिंदु:
- सह-जमानतदारों की जिम्मेदारी संयुक्त होती है, और एक की मुक्ति स्वतः अन्य की मुक्ति नहीं बनती।
- यह नियम लेनदार के अधिकार की सुरक्षा करता है और सह-जमानतदारों के आपसी अधिकारों को भी सुरक्षित करता है।
निष्कर्ष:
यदि लेनदार एक सह-जमानतदार को छोड़ भी दे, तो बाकी सह-जमानतदारों की जिम्मेदारी बनी रहती है, और छोड़े गए जमानतदार की जिम्मेदारी भी अन्य जमानतदारों के प्रति बनी रहती है।
धारा 140 – भुगतान या कार्य के संपादन के बाद जमानतदार के अधिकार
जब किसी ऋण की गारंटी दी गई हो और:
- वह ऋण देय हो गया हो, या
- मुख्य देनदार (Principal Debtor) ने अपने गारंटीकृत दायित्व को निभाने में विफलता की हो, और
- जमानतदार (Surety) ने उस ऋण या दायित्व का भुगतान कर दिया हो या उसे स्वयं पूरा कर दिया हो,
तो ऐसी स्थिति में जमानतदार को वे सभी अधिकार प्राप्त हो जाते हैं जो लेनदार (Creditor) को मुख्य देनदार के विरुद्ध प्राप्त थे।
🔹 सरल शब्दों में समझिए:
अगर जमानतदार ने उस रकम का भुगतान कर दिया, जिसकी गारंटी उसने दी थी, तो वह अब लेनदार की जगह ले लेता है और मुख्य देनदार से उस रकम की वसूली कर सकता है।
🔹 उदाहरण:
A ने B के ऋण के लिए C को जमानत दी। B ने समय पर ऋण नहीं चुकाया, और C ने A से वसूली की।
अब A, जिसने C को भुगतान कर दिया है, वह B के खिलाफ C जितने अधिकार रखता था, उतने अधिकार A को भी मिल जाते हैं, जैसे—B से वसूली करना, या उस पर कानूनी कार्यवाही करना।
🔹 निष्कर्ष:
जमानतदार, जब ऋण या जिम्मेदारी का भुगतान कर देता है, तो उसे भी वही कानूनी अधिकार मिलते हैं जो लेनदार को मिलते थे। इससे जमानतदार की सुरक्षा होती है और उसे नुकसान से उबरने का रास्ता मिलता है।
धारा 141 – जमानतदार को लेनदार की सुरक्षा का लाभ प्राप्त करने का अधिकार
जब कोई व्यक्ति किसी ऋण या दायित्व के लिए जमानत देता है, तो उस जमानतदार (Surety) को यह अधिकार होता है कि वह हर उस सुरक्षा (security) का लाभ ले सके जो उस समय लेनदार (Creditor) के पास मुख्य देनदार (Principal Debtor) के विरुद्ध उपलब्ध थी, चाहे जमानतदार को उस सुरक्षा की जानकारी हो या न हो।
👉 यदि लेनदार—
- ऐसी सुरक्षा को खो देता है, या
- जमानतदार की अनुमति के बिना उस सुरक्षा को छोड़ देता है या समाप्त कर देता है,
तो जमानतदार उस सीमा तक मुक्त (discharged) हो जाएगा, जितनी उस सुरक्षा की कीमत थी।
🔹 उदाहरणों से समझिए:
(a) C ने B (अपने किरायेदार) को ₹2,000 उधार दिए, जिसकी गारंटी A ने दी। C के पास B के फर्नीचर पर बंधक (mortgage) के रूप में अतिरिक्त सुरक्षा थी। C ने वह बंधक रद्द कर दिया। बाद में B दिवालिया हो गया और C ने A से पैसे मांगे।
➡ A उतनी राशि की गारंटी से मुक्त हो गया, जितनी उस फर्नीचर की कीमत थी।
(b) C ने B को कर्ज दिया और वह एक डिक्री से सुरक्षित था। C को A की भी गारंटी मिली थी। C ने B की संपत्ति पर अमल किया (execution) और बाद में बिना A को बताए अमल वापस ले लिया।
➡ A जमानत से मुक्त हो गया।
(c) A ने B के लिए C से ऋण लेने हेतु एक बंधपत्र (bond) पर हस्ताक्षर किया। बाद में C को B से अतिरिक्त सुरक्षा मिलती है, जिसे वह छोड़ देता है।
➡ A इस स्थिति में मुक्त नहीं होता, क्योंकि वह सुरक्षा बाद में प्राप्त हुई थी, न कि गारंटी अनुबंध के समय।
🔹 निष्कर्ष:
जमानतदार को उस समय मौजूद हर सुरक्षा का लाभ मिलने का अधिकार है जब उसने गारंटी दी थी। यदि लेनदार उस सुरक्षा को नष्ट करता है या त्याग देता है, तो जमानतदार उतनी राशि के लिए जिम्मेदार नहीं रहेगा। यह प्रावधान जमानतदार को अनुचित जोखिम से बचाने के लिए है।
धारा 142 – कपटपूर्ण प्रस्तुति (Misrepresentation) द्वारा प्राप्त गारंटी अमान्य होती है
यदि किसी गारंटी (Guarantee) को प्राप्त करने के लिए लेनदार (Creditor) द्वारा, या उसकी जानकारी और सहमति से, लेनदेन के किसी महत्वपूर्ण हिस्से के बारे में कपटपूर्ण प्रस्तुति (misrepresentation) की गई हो, तो ऐसी गारंटी अमान्य (Invalid) मानी जाएगी।
🔹 सरल शब्दों में समझें:
यदि किसी व्यक्ति को गारंटी देने के लिए इस आधार पर राज़ी किया जाता है कि उसे कोई गलत या अधूरी जानकारी दी गई हो, और वह जानकारी लेनदेन के किसी जरूरी पहलू से जुड़ी हो, तो ऐसी गारंटी का कोई वैधानिक मूल्य नहीं होता। इसे न्यायालय में लागू नहीं किया जा सकता।
🔹 मुख्य बिंदु:
- Misrepresentation = धोखे से या भ्रामक जानकारी देना।
- यदि यह लेनदार द्वारा किया गया है या उसकी जानकारी और सहमति से हुआ है, तो गारंटी रद्द हो जाती है।
- यह नियम जमानतदार (Surety) को ऐसे अनुचित दबाव या धोखे से बचाने के लिए है, जिससे वह किसी ऐसे अनुबंध में बंध जाए जिसे वह सही जानकारी मिलने पर स्वीकार न करता।
🔹 निष्कर्ष:
कोई भी गारंटी जो धोखाधड़ी या भ्रामक जानकारी पर आधारित है, वैध नहीं होती। लेनदार को यह सुनिश्चित करना होता है कि वह जमानतदार को सभी महत्वपूर्ण तथ्यों की सच्ची जानकारी दे रहा है।
धारा 143 – तथ्य छिपाकर (Concealment) प्राप्त की गई गारंटी अमान्य होती है
यदि कोई लेनदार (Creditor) किसी महत्वपूर्ण परिस्थिति (material circumstance) को जानबूझकर छुपाकर (i.e. मौन रहकर) किसी व्यक्ति से गारंटी प्राप्त करता है, तो ऐसी गारंटी अमान्य (invalid) मानी जाएगी।
🔹 सरल शब्दों में समझें:
जब लेनदार को कुछ ऐसे महत्वपूर्ण तथ्य पता हों जो जमानतदार (Surety) को जानने चाहिए थे — और लेनदार जानबूझकर उन्हें छुपा ले, तो जो गारंटी दी जाती है वह वैध नहीं मानी जाएगी। इसका कारण यह है कि जमानतदार ने वह गारंटी बिना पूरी जानकारी के दी होती है, और वह अपने निर्णय में धोखे का शिकार हुआ होता है।
🔹 उदाहरणों से समझें:
(a) A ने B को पैसों की वसूली के लिए क्लर्क नियुक्त किया। B ने पहले कुछ पैसे चुराए, लेकिन A ने यह बात C को नहीं बताई, और C से B की गारंटी ले ली। बाद में B फिर से गड़बड़ी करता है। → गारंटी अमान्य होगी, क्योंकि A ने C से B की पिछली चोरी छुपाई थी।
(b) A ने B के लिए C से 2,000 टन लोहे की कीमत की गारंटी दी। लेकिन B और C ने आपस में तय किया कि B बाजार भाव से ₹5 अधिक देगा ताकि उसका पुराना कर्ज चुकाया जा सके। यह बात A को नहीं बताई गई। → A की गारंटी अमान्य होगी, क्योंकि एक महत्वपूर्ण समझौता उससे छिपाया गया।
🔹 निष्कर्ष:
यदि जमानतदार को कोई महत्वपूर्ण जानकारी छुपाकर गारंटी ली गई हो, तो वह गारंटी वैधानिक रूप से अमान्य होती है। लेनदार पर यह कर्तव्य होता है कि वह जमानतदार को उन तथ्यों से अवगत कराए जो उसके निर्णय को प्रभावित कर सकते हैं।
धारा 144 – ऐसी गारंटी जो इस शर्त पर दी गई हो कि सह-जमानतदार (Co-surety) के जुड़ने तक लेनदार उस पर कार्यवाही न करे
यदि कोई व्यक्ति यह शर्त रखते हुए गारंटी देता है कि जब तक कोई दूसरा व्यक्ति सह-जमानतदार के रूप में उस गारंटी में शामिल न हो, तब तक लेनदार उस गारंटी पर कार्यवाही नहीं करेगा, तो यदि वह दूसरा व्यक्ति शामिल नहीं होता है, तो ऐसी गारंटी अमान्य (invalid) मानी जाती है।
🔹 सरल शब्दों में समझें:
अगर जमानत देने वाला (surety) साफ़-साफ़ यह शर्त रखता है कि उसकी गारंटी तभी प्रभाव में मानी जाएगी जब कोई और व्यक्ति भी सह-जमानतदार बने, तो लेनदार तब तक उस गारंटी का लाभ नहीं उठा सकता जब तक वह सह-जमानतदार शामिल न हो जाए। अगर वह सह-जमानतदार कभी शामिल ही नहीं होता, तो गांरटी वैधानिक रूप से प्रभावी नहीं होगी।
🔹 न्याय का सिद्धांत:
यह धारा विश्वास और निष्पक्षता की रक्षा करती है। जमानत देने वाला व्यक्ति खुद को अकेला जिम्मेदार नहीं मानता, बल्कि वह साझा ज़िम्मेदारी के आधार पर गारंटी देता है। यदि सह-जमानतदार नहीं जुड़ता, तो जमानत का आधार ही समाप्त हो जाता है।
🔹 निष्कर्ष:
यदि किसी गारंटी की वैधता सह-जमानतदार के शामिल होने पर आधारित हो, और वह सह-जमानतदार शामिल न हो, तो ऐसी गारंटी कानूनन अमान्य होगी।
धारा 146 – सह-जमानतदारों की समान अंश में देनदारी (Co-sureties liable to contribute equally)
जब दो या अधिक व्यक्ति किसी एक ही ऋण या कर्तव्य के लिए, एक साथ या अलग-अलग, सह-जमानतदार (Co-sureties) बनते हैं — चाहे वे एक ही अनुबंध के अंतर्गत हों या अलग-अलग अनुबंधों के, और चाहे उन्हें एक-दूसरे की जानकारी हो या न हो — तब, यदि कोई भिन्न अनुबंध न हो, तो उन सह-जमानतदारों के बीच आपस में यह जिम्मेदारी होती है कि वे बकाया राशि को समान भागों में चुकाएं।
🔹 उदाहरण:
(a) A, B और C – तीनों D के लिए E को दिए गए ₹3,000 के ऋण के सह-जमानतदार हैं। यदि E भुगतान करने में चूक करता है, तो A, B और C को आपस में ₹1,000-₹1,000 का भुगतान करना होगा।
(b) A, B और C – D के लिए E को दिए गए ₹1,000 के ऋण के सह-जमानतदार हैं। लेकिन उनके बीच एक अनुबंध यह है कि –
- A ₹250 (एक-चौथाई),
- B ₹250 (एक-चौथाई), और
- C ₹500 (आधा)
देने के लिए उत्तरदायी होगा। अगर E डिफॉल्ट करता है, तो सह-जमानतदारों को आपस में इन्हीं तय हिस्सों के अनुसार भुगतान करना होगा।
🔹 मुख्य बिंदु:
- यह धारा सह-जमानतदारों के आपसी अधिकारों और कर्तव्यों को स्पष्ट करती है।
- सह-जमानतदारों को आपस में बराबर या पूर्व निर्धारित हिस्से में योगदान करना पड़ता है, जब तक कोई अन्य विशेष अनुबंध न हो।
- लेनदार (Creditor) से सभी जमानतदार पूरी राशि के लिए संयुक्त रूप से उत्तरदायी हो सकते हैं, लेकिन आपस में उन्हें बराबर हिस्सा उठाना होता है।
🔹 निष्कर्ष:
सह-जमानतदार आपस में, सामान्यतः समान भागों में ऋण का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होते हैं, जब तक कि उनके बीच कोई विशेष व्यवस्था न की गई हो।
धारा 145 – जमानतदार को मुआवज़ा देने का निहित वचन (Implied promise to indemnify surety)
हर गारंटी अनुबंध (Contract of Guarantee) में यह एक निहित वचन (Implied Promise) होता है कि मुख्य देनदार (Principal Debtor), जमानतदार (Surety) को उस राशि की भरपाई (Indemnify) करेगा जो उसने गारंटी के तहत सही रूप से चुकाई हो। परंतु, यदि जमानतदार ने कोई राशि गलत रूप से अदा की हो, तो उसकी भरपाई उसे नहीं मिलेगी।
🔹 मुख्य बातें:
- जब जमानतदार, गारंटी के अनुसार भुगतान करता है, तो वह उस राशि को मुख्य देनदार से वसूलने का हकदार होता है।
- लेकिन यदि उसने कोई ऐसा भुगतान किया है जो अनुचित या गलत था, तो उसकी भरपाई नहीं मिलती।
🔹 उदाहरण:
(a) B ने C से उधार लिया है। A उसकी गारंटी देता है। C, A से पैसा मांगता है और A के इंकार पर उस पर मुकदमा करता है। A के पास मुकदमे का बचाव करने के उचित कारण थे, पर उसे भुगतान करना पड़ता है, साथ ही मुकदमे का खर्च भी।
➡ A, B से मूल ऋण और खर्च दोनों की वसूली कर सकता है।
(b) C ने B को उधार दिया। B के कहने पर A ने एक बिल ऑफ एक्सचेंज स्वीकार किया। C ने भुगतान मांगा, A ने इनकार किया और मुकदमा हार गया। लेकिन A के पास मुकदमा लड़ने का कोई उचित कारण नहीं था, फिर भी उसने लागत सहित राशि चुकाई।
➡ A केवल मूल राशि B से वसूल सकता है, मुकदमे का खर्च नहीं।
(c) A ने C को गारंटी दी कि वह B द्वारा लिए गए चावल के मूल्य में ₹2,000 तक का भुगतान करेगा। C ने B को इससे कम मूल्य का चावल दिया, लेकिन A से ₹2,000 वसूल लिए।
➡ A, B से केवल वास्तविक चावल की कीमत ही वसूल सकता है, पूरा ₹2,000 नहीं।
🔹 निष्कर्ष:
जमानतदार को गारंटी के तहत दिए गए उचित और वैध भुगतान की भरपाई करने का दायित्व मुख्य देनदार पर होता है। गलत या अत्यधिक भुगतान की भरपाई का कोई अधिकार नहीं होता।
धारा 147 – विभिन्न राशियों में बंधे सह-जमानतदारों की देनदारी (Liability of co-sureties bound in different sums)
यदि एक से अधिक व्यक्ति किसी एक ही देनदारी (Debt या Duty) के लिए सह-जमानतदार (Co-sureties) हैं, लेकिन उन्होंने अलग-अलग राशियों की सीमा तक स्वयं को बाध्य किया है, तो वे सभी उस हद तक समान रूप से उत्तरदायी होंगे जितना उनकी-अपनी अधिकतम सीमा (Limit) अनुमति देती है।
🔹 मुख्य सिद्धांत:
हर सह-जमानतदार, अपने द्वारा ली गई अधिकतम जिम्मेदारी तक ही उत्तरदायी होता है। लेकिन जहां तक संभव हो, देय राशि को बराबर-बराबर बांटने का प्रयास किया जाता है।
🔹 उदाहरण:
(a)
A, B और C, D के लिए सह-जमानतदार हैं। उन्होंने अलग-अलग बॉन्ड पर हस्ताक्षर किए –
- A ने ₹10,000 तक की जिम्मेदारी ली,
- B ने ₹20,000 की,
- C ने ₹40,000 की।
D ₹30,000 की चूक करता है।
➡ A, B और C तीनों ₹10,000-₹10,000 भरने के लिए जिम्मेदार हैं।
(b)
उसी तरह के बॉन्ड और सीमा, लेकिन D ने ₹40,000 की चूक की:
➡ A ₹10,000,
➡ B ₹15,000,
➡ C ₹15,000 देगा।
(इसलिए बचे ₹30,000 को B और C के बीच बराबर बांटा गया)
(c)
अब D की चूक ₹70,000 की है (जो कुल सीमा ₹70,000 के बराबर है)।
➡ A, B, और C सभी को अपने-अपने बॉन्ड की पूरी सीमा तक भुगतान करना पड़ेगा –
- A ₹10,000,
- B ₹20,000,
- C ₹40,000।
🔹 निष्कर्ष:
जब सह-जमानतदार अलग-अलग राशि में बंधे हों, तो वे उतनी ही राशि के लिए जिम्मेदार हैं जितनी उन्होंने गारंटी दी है, लेकिन देयता को यथासंभव समान रूप से बांटा जाता है, बशर्ते कि उनकी सीमा की अनुमति हो।
धारा 148 – “बेलमेंट”, “बेलर” और “बेइली” की परिभाषा
(Section 148 – “Bailment”, “Bailor” and “Bailee” defined)
“बेलमेंट (Bailment)” का अर्थ है, एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को कुछ उद्देश्य (purpose) के लिए माल (goods) सौंपना, इस समझौते के साथ कि जब वह उद्देश्य पूरा हो जाए, तो माल को या तो लौटा दिया जाएगा, या फिर उसे उस व्यक्ति के निर्देशानुसार निपटाया जाएगा जिसने वह माल दिया था।
जिस व्यक्ति ने सामान दिया होता है, उसे “बेलर (Bailor)” कहते हैं, और जिसे वह सामान सौंपा गया होता है, उसे “बेइली (Bailee)” कहते हैं।
🔹 स्पष्टीकरण (Explanation):
अगर कोई व्यक्ति पहले से ही किसी अन्य व्यक्ति का सामान अपने कब्जे में रखे हुए है, और वह एक अनुबंध करता है कि वह उसे बेलमेंट के रूप में रखेगा, तो वह व्यक्ति बेइली बन जाता है, और सामान का मालिक बेलर बन जाता है, भले ही वह सामान बेलमेंट के रूप में औपचारिक रूप से न दिया गया हो।
🔹 मुख्य बिंदु:
- बेलमेंट का आधार अनुबंध (contract) होता है।
- सामान का उद्देश्य स्पष्ट होना चाहिए।
- उद्देश्य पूर्ण होने पर सामान लौटाया जाना चाहिए या बेलर के निर्देशानुसार उपयोग होना चाहिए।
- कब्जा (possession) स्थानांतरित होता है, स्वामित्व (ownership) नहीं।
- बेलमेंट बिना हस्तांतरण के भी बन सकती है, यदि कोई व्यक्ति किसी के माल को बेलमेंट की शर्तों के साथ रखने की सहमति देता है।
उदाहरण:
- A अपने कपड़े धोने के लिए लॉन्ड्री में देता है। A बेलर है, लॉन्ड्री वाला बेइली।
- यदि B के पास पहले से C की घड़ी मरम्मत के लिए रखी है, और B यह स्वीकार करता है कि वह उसे “बेइली” की तरह रखेगा, तो B बेइली बन गया और C बेलर।
धारा 149 – बेइली को सुपुर्दगी कैसे की जाती है
(Section 149 – Delivery to bailee how made)
बेइली को सामान की सुपुर्दगी (delivery) इस प्रकार की जा सकती है कि जिससे वह सामान बेइली या उसके द्वारा अधिकृत किसी व्यक्ति के कब्जे (possession) में आ जाए।
🔹 मुख्य बिंदु:
- सुपुर्दगी का अर्थ है वस्तु को कब्जे में देना, न कि स्वामित्व देना।
- सुपुर्दगी प्रत्यक्ष (actual) या परोक्ष (constructive) रूप से हो सकती है।
- यदि माल किसी अन्य व्यक्ति के पास रखा गया हो, लेकिन उसे बेइली के कहने पर और उसकी ओर से रखा गया हो, तब भी यह वैध सुपुर्दगी मानी जाएगी।
उदाहरण:
- A, B को एक बक्सा देता है और वह बक्सा B के गोदाम में रखवाता है। भले ही A ने उसे हाथ से न दिया हो, फिर भी वह बेइली की सुपुर्दगी मानी जाएगी।
- अगर A किसी ट्रांसपोर्ट कंपनी से कहता है कि वह B के लिए सामान ले जाए और B को अधिकार देता है कि वह गोदाम से सामान ले ले, तो यह भी वैध सुपुर्दगी होगी।
धारा 150 – बेली किए गए वस्तुओं में दोषों का खुलासा करने की दाता (बेलर) की जिम्मेदारी
(Section 150 – Bailor’s duty to disclose faults in goods bailed)
इस धारा के अनुसार, जब कोई व्यक्ति (बेलर) किसी वस्तु को कुछ समय के लिए किसी अन्य व्यक्ति (बेइली) को किसी विशेष उद्देश्य से सौंपता है, तो:
🔹 (1) अगर बेलर को उस वस्तु में किसी ऐसे दोष (fault) की जानकारी है जो –
- वस्तु के प्रयोग में महत्वपूर्ण रूप से बाधा पहुँचाता है, या
- बेइली को असाधारण जोखिम में डालता है,
तो बेलर का यह कर्तव्य है कि वह बेइली को ऐसे दोष के बारे में सूचित करे। यदि वह ऐसा नहीं करता और बेइली को उससे कोई हानि होती है, तो बेलर उस नुकसान के लिए जिम्मेदार होगा।
🔹 (2) यदि वस्तु का बेलीकरण किराए पर (for hire) किया गया है, तो बेलर तब भी जिम्मेदार होगा, यदि उसे उस दोष की जानकारी नहीं थी, जिससे नुकसान हुआ।
स्पष्टीकरण के लिए उदाहरण:
- (a) A जानबूझकर एक ऐसा घोड़ा B को उधार देता है जो हिंसक (vicious) है, लेकिन A यह बात B को नहीं बताता। घोड़ा बेकाबू होकर भाग जाता है, B गिरकर घायल हो जाता है। 👉 A, B को हुई चोट के लिए जिम्मेदार होगा।
- (b) A, B से एक गाड़ी किराए पर लेता है। गाड़ी में कोई छुपा हुआ यांत्रिक दोष था जो B को भी नहीं पता था, और A को चोट लगती है। 👉 B, A को हुई हानि के लिए जिम्मेदार होगा क्योंकि यह किराए का बेलीकरण था।
🔸 निष्कर्ष:
- निःशुल्क बेलीकरण में बेलर तभी जिम्मेदार होता है जब उसे दोष पता था और उसने बताया नहीं।
- किराए के बेलीकरण में बेलर को दोष पता हो या न हो, फिर भी वह जिम्मेदार होता है अगर उससे नुकसान हुआ हो।
धारा 151 – बेली द्वारा वस्तुओं की देखभाल
(Section 151 – Care to be taken by bailee)
इस धारा के अनुसार, किसी भी प्रकार के बेलीकरण (bailment) में, बेली (bailee) का यह कर्तव्य होता है कि वह बेली की गई वस्तुओं की उतनी ही सावधानी से देखभाल करे, जितनी कोई सामान्य बुद्धिमान व्यक्ति उन्हीं परिस्थितियों में अपने स्वयं के समान आकार, गुणवत्ता और मूल्य की वस्तुओं की करता।
🔸 सरल शब्दों में कहें तो:
बेली को वस्तु चाहे निःशुल्क दी गई हो या किराए पर, उसका कर्तव्य है कि वह उतनी ही सावधानी बरते, जितनी वह अपने खुद की वैसी ही वस्तु के लिए करता — न बहुत अधिक, न बहुत कम।
🔸 उदाहरण:
अगर किसी व्यक्ति को एक महंगी घड़ी बेली के रूप में दी गई है, तो वह उससे वैसी ही सावधानी से रखेगा जैसी वह अपनी उतनी ही महंगी घड़ी की रखता।
🔸 निष्कर्ष:
“साधारण समझ-बूझ वाले व्यक्ति” की कसौटी (standard of ordinary prudence) इस धारा की मुख्य कसौटी है। अगर बेली इस स्तर की सावधानी नहीं बरतता और वस्तु को नुकसान होता है, तो वह कानूनी रूप से जिम्मेदार होगा।
धारा 152 – जब बेली वस्तु की हानि आदि के लिए उत्तरदायी नहीं होता
(Section 152 – Bailee when not liable for loss, etc., of thing bailed)
इस धारा के अनुसार, यदि बेली ने वस्तु की देखभाल में वैसी ही सावधानी बरती है जैसी कि धारा 151 में वर्णित है — अर्थात् एक साधारण समझ-बूझ वाला व्यक्ति अपने स्वयं के ऐसे ही सामान के साथ जैसी सावधानी बरतता — तो किसी विशेष अनुबंध के अभाव में, वह बेली की गई वस्तु की हानि, नष्ट होने या गुणवत्ता में गिरावट के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।
🔸 सरल शब्दों में कहें तो:
अगर बेली ने वस्तु की ठीक से देखभाल की है, और फिर भी वह वस्तु खो गई, खराब हो गई या नष्ट हो गई, और ऐसा कोई विशेष अनुबंध (special contract) नहीं था जो इसके लिए उसे जिम्मेदार बनाता — तो बेली को कानूनी रूप से दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
🔸 उदाहरण:
A ने B को एक पेंटिंग दी उसकी मरम्मत के लिए। B ने उसे सुरक्षित स्थान पर रखा और उसकी ठीक तरह से निगरानी की। फिर भी पेंटिंग को अचानक आग लगने से नुकसान हो गया, जिसमें B की कोई लापरवाही नहीं थी। चूंकि B ने वैसी ही देखभाल की जैसी वह अपनी पेंटिंग के लिए करता, और कोई विशेष अनुबंध नहीं था, तो B उत्तरदायी नहीं होगा।
🔸 निष्कर्ष:
अगर बेली ने उचित देखभाल की है, तो वह वस्तु के नुकसान का उत्तरदायी नहीं है, जब तक कि कोई विशेष अनुबंध ऐसा न कहे।
धारा 153 – बेली द्वारा शर्तों के विपरीत कार्य करने पर बेलीमेंट की समाप्ति
(Section 153 – Termination of bailment by bailee’s act inconsistent with conditions)
इस धारा के अनुसार, यदि बेली उस वस्तु के संबंध में कोई ऐसा कार्य करता है जो बेलीमेंट (संपारण) की शर्तों के विपरीत है, तो बेलीमेंट का अनुबंध बेलर (संपारक) की इच्छा से रद्द किया जा सकता है।
🔸 सरल शब्दों में:
अगर बेली वस्तु का अनुचित उपयोग करता है या वह काम करता है जो अनुबंध में तय शर्तों के खिलाफ है, तो बेलर यह अनुबंध समाप्त करने का अधिकार रखता है।
🔸 उदाहरण:
A ने B को एक घोड़ा किराए पर दिया, यह शर्त रखते हुए कि B उसे केवल अपनी सवारी के लिए उपयोग करेगा। लेकिन B उस घोड़े को अपनी गाड़ी में जोड़कर चलाता है, जो अनुबंध की शर्तों के विपरीत है। ऐसी स्थिति में A चाहे तो यह बेलीमेंट समाप्त कर सकता है।
🔸 निष्कर्ष:
यदि बेली, वस्तु का उपयोग ऐसे तरीके से करता है जो अनुबंध की शर्तों के असंगत (inconsistent) है, तो बेलर को बेलीमेंट रद्द करने का वैधानिक अधिकार होता है।
धारा 154 – संपारित वस्तुओं के अनधिकृत उपयोग पर बेली की दायित्वता
(Section 154 – Liability of bailee making unauthorized use of goods bailed)
इस धारा के अनुसार, यदि कोई बेली बेलीमेंट (संपारण) की शर्तों के अनुसार न चलकर वस्तुओं का अनधिकृत उपयोग करता है, तो उसे उस उपयोग के कारण या उस दौरान वस्तुओं को होने वाले किसी भी नुकसान की भरपाई करनी होगी।
🔸 सरल भाषा में समझें:
अगर बेली वस्तु का वैसा उपयोग करता है जैसा कि अनुबंध में स्वीकृत नहीं था, तो यदि उस उपयोग के कारण वस्तु को कोई नुकसान होता है, तो बेली को उसकी पूरी क्षतिपूर्ति करनी होगी, चाहे उसने वह उपयोग सावधानी से ही क्यों न किया हो।
🔸 उदाहरण:
(a) A ने B को घोड़ा केवल स्वयं की सवारी के लिए दिया। लेकिन B ने अपने परिवार के सदस्य C को सवारी करने दिया। C ने सावधानीपूर्वक सवारी की, फिर भी घोड़ा गिर गया और चोटिल हो गया। इस स्थिति में B को A को क्षतिपूर्ति करनी होगी।
(b) A ने B से घोड़ा केवल कलकत्ता से बनारस तक यात्रा के लिए किराए पर लिया। लेकिन A ने बनारस न जाकर कट्टक की यात्रा की, और यात्रा के दौरान घोड़ा गिरकर घायल हो गया। तब A को B को घोड़े के नुकसान की भरपाई करनी होगी, भले ही उसने यात्रा सावधानीपूर्वक की हो।
🔸 निष्कर्ष:
बेली को बेलीमेंट की शर्तों के अनुसार ही वस्तुओं का उपयोग करना चाहिए। यदि वह इन शर्तों का उल्लंघन करता है और वस्तु को नुकसान होता है, तो पूरी जिम्मेदारी बेली की होती है, और उसे नुकसान की भरपाई करनी होती है।
धारा 155 – बैलर की सहमति से वस्तुओं के मिश्रण का प्रभाव
(Section 155 – Effect of mixture, with bailor’s consent, of his goods with bailee’s)
इस धारा के अनुसार, यदि बेली (Bailee), बैलर (Bailor) की सहमति से बैलर की वस्तुओं को अपनी वस्तुओं के साथ मिला देता है, तो उस मिश्रण में दोनों – बैलर और बेली – का उनकी-उनकी हिस्सेदारी के अनुपात में अधिकार होगा।
🔸 सरल भाषा में समझें:
अगर बैलर की अनुमति लेकर बेली दोनों की वस्तुओं को आपस में मिला देता है (मिश्रण करता है), तो जो वस्तु बनी है या जो मिला हुआ माल है, उसमें दोनों का हिस्सा रहेगा, जितना उनके-उनके द्वारा मिलाया गया।
🔸 उदाहरण:
मान लीजिए बैलर ने 10 किलो गेहूं और बेली ने 20 किलो गेहूं मिलाकर 30 किलो गेहूं तैयार किया बैलर की सहमति से, तो उस मिले हुए 30 किलो में बैलर का 1/3 (10/30) और बेली का 2/3 (20/30) हिस्सा माना जाएगा।
🔸 निष्कर्ष:
जब बेली बैलर की सहमति से वस्तुएं मिलाता है, तो किसी एक का पूरा स्वामित्व नहीं होता, बल्कि दोनों का उस मिश्रण में साझा अधिकार होता है, और यह अधिकार उनकी व्यक्तिगत वस्तु की मात्रा के अनुपात में तय किया जाता है।
धारा 155 – बैलर की सहमति से वस्तुओं के मिश्रण का प्रभाव
यदि बेली (जिसके पास वस्तुएं रखी गई हैं) बैलर (जिसने वस्तुएं सौंपी हैं) की सहमति से उसकी वस्तुओं को अपनी वस्तुओं के साथ मिला देता है, तो उस मिश्रण में बैलर और बेली दोनों का अधिकार होता है, और यह अधिकार उनके-उनके हिस्से के अनुपात में होता है।
🔹 इसका मतलब यह है कि यदि दोनों की वस्तुएं आपसी सहमति से मिलाई जाती हैं, तो जो मिला-जुला माल तैयार होता है, उस पर दोनों का हिस्सा उतना ही होता है जितनी मात्रा उन्होंने उसमें डाली थी।
📌 महत्वपूर्ण कानूनी बिंदु:
- मिश्रण बैलर की अनुमति से होना चाहिए।
- मिश्रण के बाद जो वस्तु बनती है, उसमें दोनों का संयुक्त स्वामित्व होगा।
- अनुपात का आधार दोनों द्वारा मिलाई गई वस्तु की मात्रा होगी।
- इसमें कोई विवाद नहीं होता क्योंकि बैलर की पूर्व सहमति मौजूद होती है।
🔸 न्यायसंगत सिद्धांत: यह प्रावधान यह सुनिश्चित करता है कि यदि बैलर अपनी मर्जी से बेली को वस्तुएं मिलाने की अनुमति देता है, तो वह अपने हिस्से के अधिकार से वंचित न हो। इसलिए कानून दोनों को संयुक्त स्वामी मानता है।
समझ गया। अब मैं Indian Contract Act, 1872 की सभी धाराओं को इसी फॉर्मेट में — सरल हिंदी में, बिना किसी महत्वपूर्ण कानूनी बिंदु को छोड़े, और स्पष्ट तरीके से (📌, 🔹, 🔸 आदि चिन्हों के साथ) — प्रस्तुत करूंगा।
यदि आप चाहें तो मैं पिछली धाराओं को भी इसी फॉर्मेट में दोबारा प्रदान कर सकता हूँ। कृपया बताएं।
धारा 157 – बिना बAILOR की सहमति के वस्तुओं का ऐसा मिश्रण, जिसे अलग करना संभव न हो, का प्रभाव
यदि bailee (संपत्ति रखने वाला व्यक्ति), bailor (संपत्ति देने वाला व्यक्ति) की सहमति के बिना उसकी वस्तुओं को अपनी वस्तुओं के साथ इस प्रकार मिला देता है कि उन्हें अलग करना संभव नहीं होता, और इसलिए वस्तुएं वापस नहीं दी जा सकतीं, तो bailor को हुए नुकसान की भरपाई bailee को करनी होगी।
📌 महत्वपूर्ण कानूनी बिंदु:
- यदि मिलाई गई वस्तुएं इस तरह मिक्स हो गई हों कि उन्हें अलग नहीं किया जा सकता, तो bailee को पूरे नुकसान की पूरी क्षतिपूर्ति (compensation) देनी होगी।
- यह नियम तब लागू होता है जब bailor की सहमति नहीं ली गई हो।
🔹 उदाहरण:
A ने B को Cape फ्लोर (आटा) का एक बैरल दिया जिसकी कीमत ₹45 है। B, A की अनुमति के बिना, इस आटे को अपने खुद के देशी आटे (जिसकी कीमत ₹25 प्रति बैरल है) में मिला देता है। अब यह मिश्रण अलग नहीं किया जा सकता।
➡️ B को A को उसके आटे के नुकसान के लिए पूरा मुआवज़ा देना होगा।
निष्कर्ष:
अगर कोई व्यक्ति आपके सामान को आपकी मर्जी के बिना अपनी चीजों में इस तरह मिला दे कि उसे वापस नहीं किया जा सके, तो वह आपके नुकसान का ज़िम्मेदार होगा।
धारा 158 – आवश्यक खर्चों की प्रतिपूर्ति (बैलर द्वारा)
जब किसी बंधक (bailment) की शर्तों के अनुसार, bailee (जिसे वस्तुएं दी गई हों) को bailor (जिसने वस्तुएं दी हैं) के लिए वस्तुएं संभालनी हों, कहीं ले जानी हों, या उन पर कोई कार्य करना हो, और इसके बदले में bailee को कोई पारिश्रमिक (payment) न मिलना तय हो, तब bailor को वह सभी आवश्यक खर्चे चुकाने होंगे, जो bailee ने इस कार्य को पूरा करने में किए हों।
📌 मुख्य कानूनी बिंदु:
- यदि bailee को कोई भुगतान नहीं मिलना हो, तब भी अगर उसने वस्तुओं की देखभाल, परिवहन या कार्य पर कोई जरूरी खर्च किया है, तो bailor को वह खर्च वापस करना अनिवार्य है।
🔹 उदाहरण नहीं दिया गया है, पर इसे ऐसे समझा जा सकता है:
यदि A, B को बिना किसी भुगतान के कहता है कि वह उसके कपड़े धो कर दे, और B उन कपड़ों को धोने के लिए कुछ खर्च करता है (जैसे – पानी, साबुन, परिवहन), तो A को वह खर्च B को चुकाना होगा।
निष्कर्ष:
जब वस्तुओं को बिना पारिश्रमिक लिए bailee द्वारा संभाला जाता है या उन पर कार्य किया जाता है, तब bailor पर यह कानूनी जिम्मेदारी होती है कि वह सभी जरूरी खर्चों की प्रतिपूर्ति करे।
धारा 159 – नि:शुल्क उधार दी गई वस्तु की वापसी
यदि किसी वस्तु को बिना कोई पारिश्रमिक लिए (gratuitous loan) उपयोग हेतु उधार दिया गया है, तो उधार देने वाला व्यक्ति (lender) कभी भी उस वस्तु को वापस मांग सकता है, भले ही वह वस्तु किसी निश्चित समय या उद्देश्य के लिए दी गई हो।
📌 लेकिन, यदि उधार लेने वाले व्यक्ति (borrower) ने इस विश्वास पर कि वस्तु उसे निश्चित समय/उद्देश्य के लिए दी गई है, ऐसा कोई कार्य कर लिया है जिससे यदि वस्तु को समय से पहले लौटाया गया तो उसे लाभ से अधिक हानि हो, तो:
🔹 उधार देने वाले को उस अतिरिक्त हानि की भरपाई करनी होगी, जो उस वस्तु से प्राप्त लाभ से अधिक हो।
🔸 सरल शब्दों में:
- अगर आपने किसी को कोई वस्तु मुफ्त में किसी कार्य के लिए दी है, तो आप कभी भी उसे वापस मांग सकते हैं।
- पर यदि सामने वाले ने उस वस्तु पर भरोसा कर कुछ ऐसा किया है कि समय से पहले वापसी से उसे नुकसान हो जाए, तो आपको उसका मुआवज़ा देना होगा (अगर आपने वापसी पर ज़ोर दिया)।
📍 उदाहरण:
A ने B को बिना किराया लिए 3 महीने के लिए एक मशीन इस्तेमाल के लिए दी। B ने उस मशीन को उपयोग में लाने के लिए ₹10,000 खर्च कर दिए। अगर A एक महीने में ही मशीन वापस मांगता है, और B को ₹2,000 ही लाभ हुआ है, तो A को B को ₹8,000 की क्षतिपूर्ति देनी होगी (क्योंकि B को कुल ₹10,000 खर्च हुए और सिर्फ ₹2,000 लाभ हुआ)।
निष्कर्ष:
नि:शुल्क उधार दी गई वस्तु को वापिस लिया जा सकता है, पर यदि समय से पहले वापसी से उधार लेने वाले को वास्तविक हानि होती है, तो उधार देने वाले को वह नुकसान भरपाई करनी पड़ेगी।
धारा 160 – नियत समय समाप्त होने या उद्देश्य पूरा हो जाने पर वस्तु लौटाने का दायित्व
जब किसी वस्तु को किसी निश्चित समय के लिए या किसी विशिष्ट उद्देश्य से बैलमेंट (उधारी) पर दिया गया हो, तो:
🔸 बैले (Bailee) का यह कर्तव्य है कि —
- जैसे ही वह समय समाप्त हो जाए, या
- जिस उद्देश्य के लिए वस्तु दी गई थी वह पूरा हो जाए,
📌 वह वस्तु को बैलर (Bailor) को बिना मांगे लौटा दे, या
📌 बैलर के निर्देशानुसार उसे सुपुर्द कर दे।
🔹 यह दायित्व स्वतः लागू होता है – बैलर को मांग करने की आवश्यकता नहीं होती।
उदाहरण:
A ने B को एक मशीन 10 दिन के लिए मरम्मत कार्य हेतु दी। जैसे ही 10 दिन पूरे हो जाते हैं, या मरम्मत का कार्य पूरा हो जाता है (जो पहले हो), B को वह मशीन A को बिना माँग के लौटा देनी चाहिए।
📍 निष्कर्ष:
बैले का यह वैधानिक कर्तव्य है कि समय की समाप्ति या कार्य की पूर्ति पर वस्तु को बिना मांग के लौटा दे।
धारा 161 – वस्तुओं को समय पर न लौटाने पर बैली की जिम्मेदारी
यदि बैली (Bailee) की लापरवाही या चूक (default) के कारण:
🔸 वस्तुओं को उचित समय पर
🔹 न लौटाया जाए,
🔹 न सुपुर्द किया जाए, या
🔹 न प्रस्तावित किया जाए (tendered),
तो उस समय के बाद से —
📌 बैली उस वस्तु में होने वाले किसी भी नुकसान,
📌 नाश (destruction) या
📌 गुणवत्ता में कमी (deterioration)
के लिए पूरी तरह उत्तरदायी होगा।
मुख्य बिंदु:
🔹 यह जिम्मेदारी वस्तु की देखभाल करने के दायित्व से अलग और अतिरिक्त है।
🔹 यह केवल तभी लागू होती है जब वस्तु समय पर न लौटाई जाए और कारण बैली की गलती या लापरवाही हो।
उदाहरण:
A ने B को एक कैमरा एक सप्ताह के लिए दिया। B की गलती से कैमरा 10 दिन बाद लौटाया गया और तब तक वह पानी में भीग कर खराब हो गया। ऐसे में B उस नुकसान के लिए उत्तरदायी होगा।
📍 निष्कर्ष:
अगर बैली वस्तु को उचित समय पर न लौटाए, तो उस समय के बाद वस्तु को होने वाले किसी भी नुकसान के लिए बैली जिम्मेदार होता है, चाहे वह नुकसान कैसे भी हुआ हो।
धारा 161 – बैली द्वारा वस्तुएँ यथासमय न लौटाने पर उत्तरदायित्व
यदि बैली की गलती से वस्तुएँ उचित समय पर न लौटाई जाएँ, न सुपुर्द की जाएँ या न प्रस्तावित की जाएँ, तो वह उस समय के बाद होने वाले किसी भी नुकसान, नाश या ह्रास के लिए उत्तरदायी होगा।
धारा 162 – उधार (नि:शुल्क) सुपुर्दगी का मृत्यु से समाप्त होना
यदि कोई सुपुर्दगी नि:शुल्क (gratuitous bailment) हो, तो वह बैलर या बैली, दोनों में से किसी की भी मृत्यु होने पर समाप्त हो जाती है।
धारा 162 – नि:शुल्क सुपुर्दगी (Gratuitous Bailment) मृत्यु से समाप्त हो जाती है
अगर किसी वस्तु को बिना किसी शुल्क के (नि:शुल्क) केवल उपयोग के लिए एक व्यक्ति (बैलर) द्वारा दूसरे व्यक्ति (बैली) को दिया गया है, तो यह प्रकार की सुपुर्दगी बैलर या बैली – इनमें से किसी एक की मृत्यु होते ही समाप्त मानी जाती है।
📌 सरल शब्दों में:
यदि कोई व्यक्ति बिना पैसे लिए अपनी चीज़ किसी को उपयोग के लिए देता है और बाद में वह व्यक्ति या जिसे दी गई है, उसकी मृत्यु हो जाती है, तो यह उधारी संबंध खत्म हो जाता है।
धारा 163 – सुपुर्द की गई वस्तुओं से उत्पन्न लाभ या बढ़ोत्तरी पर बैलर का अधिकार
यदि कोई विशेष अनुबंध न किया गया हो, तो बैली (Bailee) इस बात के लिए बाध्य होता है कि वह बैलर (Bailor) को, या उसके निर्देशानुसार, उस वस्तु से प्राप्त हुआ कोई भी लाभ या वृद्धि (increase or profit) उसे लौटा दे।
🔹 उदाहरण:
A अपनी एक गाय की देखभाल के लिए B को देता है। उस दौरान गाय एक बछड़ा देती है। ऐसी स्थिति में B को गाय के साथ-साथ बछड़ा भी A को लौटाना होगा, क्योंकि बछड़ा गाय से प्राप्त वृद्धि है।
📌 मुख्य बात:
बैलर को वस्तु के साथ-साथ उससे हुआ लाभ भी मिलना चाहिए, जब तक कि कोई अलग अनुबंध न हो।
धारा 164 – बैलर की बैली के प्रति जिम्मेदारी
अगर बैलर वह वस्तु देने का हकदार नहीं है, या वह वस्तु वापस प्राप्त करने का हकदार नहीं है, या वह वस्तु के बारे में निर्देश देने का हकदार नहीं है, तो बैलर बैली को हुए किसी भी नुकसान के लिए जिम्मेदार होगा, जो बैलर की गलतियों के कारण हुआ हो।
📌 मुख्य बात:
अगर बैलर ने वस्तु देने या उसे वापस लेने का अधिकार नहीं रखा, तो उससे बैली को हुई किसी भी हानि के लिए बैलर जिम्मेदार होगा।
धारा 165 – कई संयुक्त मालिकों द्वारा बैलमेंट
अगर कई संयुक्त मालिक किसी वस्तु को बैल करें, तो बैली उन्हें एक संयुक्त मालिक को या उसकी निर्देशों के अनुसार वस्तु वापस कर सकता है, जब तक कि इसके लिए कोई विशेष समझौता न किया गया हो।
📌 मुख्य बात:
संयुक्त मालिकों द्वारा बैलमेंट की स्थिति में, बैली को सिर्फ एक मालिक से वस्तु वापस करने का अधिकार होता है, जब तक इसके विपरीत कोई समझौता न हो।
धारा 166 – बिना अधिकार के बैलर को पुनः वस्तु सौंपने पर बैली की जिम्मेदारी नहीं
अगर बैलर के पास वस्तु का अधिकार नहीं है, और बैली सच्चे विश्वास में वस्तु को बैलर को या उसकी निर्देशों के अनुसार वापस करता है, तो बैली मालिक के प्रति ऐसी डिलीवरी के लिए जिम्मेदार नहीं होगा।
📌 मुख्य बात:
अगर बैलर के पास वस्तु का वैध अधिकार नहीं है और बैली उसे बैलर को सही विश्वास में सौंप देता है, तो बैली मालिक के लिए जिम्मेदार नहीं होगा।
धारा 167 – तीसरे व्यक्ति का बेली गई वस्तु पर दावा करने का अधिकार
अगर कोई व्यक्ति, जो बैलर नहीं है, बेली गई वस्तु पर दावा करता है, तो वह कोर्ट से यह आवेदन कर सकता है कि वस्तु को बैलर को सौंपने से रोका जाए और वस्तु के स्वामित्व पर निर्णय लिया जाए।
📌 मुख्य बात:
तीसरा व्यक्ति, जो बैलर नहीं है, अगर वस्तु पर दावा करता है, तो वह कोर्ट से वस्तु की डिलीवरी पर रोक लगाने और स्वामित्व का निर्णय करवाने का अधिकार रखता है।
धारा 168 – वस्तु के प्राप्तकर्ता का अधिकार
वस्तु का प्राप्तकर्ता (जिसने खोई हुई वस्तु पाई हो) मालिक से उस वस्तु को सुरक्षित रखने और मालिक को ढूंढने के लिए स्वयं द्वारा उठाए गए खर्च और मेहनत के लिए मुआवजा का दावा नहीं कर सकता। लेकिन, वह वस्तु को मालिक से मुआवजा प्राप्त करने तक अपने पास रख सकता है; और अगर मालिक ने खोई हुई वस्तु वापस करने के लिए विशेष इनाम की पेशकश की है, तो प्राप्तकर्ता उस इनाम के लिए दावा कर सकता है और तब तक वस्तु को अपने पास रख सकता है जब तक उसे वह इनाम न मिल जाए।
📌 मुख्य बिंदु:
- किसी खर्च या मेहनत का मुआवजा प्राप्तकर्ता मालिक से नहीं मांग सकता।
- विशेष इनाम की पेशकश पर, प्राप्तकर्ता इनाम का दावा कर सकता है और वस्तु को तब तक रख सकता है।
धारा 169 – जब वस्तु के प्राप्तकर्ता को वस्तु बेचने का अधिकार होता है
यदि कोई वस्तु जो सामान्यतः बिक्री के लिए होती है, खो जाती है, और यदि मालिक को उचित प्रयासों से नहीं ढूंढा जा सकता है, या वह प्राप्तकर्ता से उसकी वैध शुल्क का भुगतान करने से इंकार करता है, तो प्राप्तकर्ता उस वस्तु को बेच सकता है—
- जब वह वस्तु नष्ट होने या अपनी अधिकांश कीमत खोने के खतरे में हो, या,
- जब प्राप्तकर्ता द्वारा वस्तु पर किए गए वैध शुल्क उस वस्तु की कीमत का दो-तिहाई हो।
📌 मुख्य बिंदु:
- खोई हुई वस्तु यदि नष्ट होने के कगार पर हो या उसका मूल्य घटने का खतरा हो, तो प्राप्तकर्ता उसे बेच सकता है।
- यदि वस्तु पर खर्च किए गए वैध शुल्क का एक बड़ा हिस्सा हो, तो भी उसे बेचा जा सकता है।
धारा 170 – बैली का विशेष अधिकार (लियन)
जब बैली ने बाइलमेंट के उद्देश्य के अनुसार किसी वस्तु पर श्रम या कौशल का प्रयोग करके कोई सेवा प्रदान की हो, तो यदि इसके विपरीत कोई समझौता नहीं किया गया हो, तो बैली के पास यह अधिकार होता है कि वह उस वस्तु को तब तक अपने पास रखे जब तक उसे अपनी सेवाओं के लिए उचित भुगतान नहीं मिल जाता।
📌 मुख्य बिंदु:
- बैली के पास उस वस्तु को तब तक रखने का अधिकार होता है जब तक उसे उसके द्वारा की गई सेवाओं के लिए उचित मुआवजा नहीं मिल जाता।
- यदि सेवा श्रम या कौशल का प्रयोग करके दी गई हो, तो बैली को वस्तु को वापस न करने का अधिकार है जब तक वह भुगतान न हो।
उदाहरण:
- (a) A, एक कच्चे हीरे को B, एक ज्वेलर को देता है, ताकि उसे काटकर और चमकाया जाए। B को यह अधिकार है कि वह उस हीरे को तब तक अपने पास रखे जब तक उसे अपनी सेवाओं का भुगतान नहीं मिल जाता।
- (b) A, B को कपड़ा देता है, ताकि वह उसे कोट में बदल दे। B, A को तीन महीने की क्रेडिट देता है और कोट की कीमत का भुगतान बाद में करने का वादा करता है। इस मामले में, B को कोट को तब तक रखने का अधिकार नहीं है।
धारा 171 – बैंकरों, फैक्टर्स, वॉर्फिंगर्स, वकीलों और पॉलिसी-ब्रोकरों का सामान्य लियन
बैंकर, फैक्टर्स, वॉर्फिंगर्स, उच्च न्यायालय के वकील और पॉलिसी-ब्रोकर, यदि कोई विशेष समझौता न हो, तो किसी भी वस्तु को, जो उन्हें बाइल की गई हो, सामान्य खाता संतुलन के लिए सुरक्षा के रूप में रख सकते हैं; लेकिन अन्य कोई व्यक्ति इस प्रकार के खाता संतुलन के लिए बाइल की गई वस्तु को सुरक्षा के रूप में नहीं रख सकता, जब तक कि इस संबंध में कोई विशेष समझौता न हो।
📌 मुख्य बिंदु:
- बैंकर, फैक्टर्स, वॉर्फिंगर्स, उच्च न्यायालय के वकील और पॉलिसी-ब्रोकर को बाइल की गई वस्तुओं को सुरक्षा के रूप में रखने का अधिकार होता है यदि उनका खाता संतुलन बाकी हो।
- अन्य कोई व्यक्ति इस अधिकार का दावा नहीं कर सकता, जब तक कि इसके लिए कोई विशेष समझौता न किया गया हो।
धारा 172 – “प्लेज”, “पॉनर” और “पॉनी” की परिभाषा
जो वस्तुएं किसी ऋण के भुगतान या वचन को निभाने के लिए सुरक्षा के रूप में दी जाती हैं, उसे “प्लेज” कहा जाता है। इस स्थिति में बाइल देने वाले व्यक्ति को “पॉनर” और बाइल को रखने वाले व्यक्ति को “पॉनी” कहा जाता है।
📌 मुख्य बिंदु:
- प्लेज: वस्तु को ऋण के भुगतान या वचन के पालन के लिए सुरक्षा के रूप में देना।
- पॉनर: वह व्यक्ति जो वस्तु को सुरक्षा के रूप में देता है।
- पॉनी: वह व्यक्ति जो वस्तु को सुरक्षा के रूप में रखता है।
धारा 173 – पॉनी का रखे गए सामान को रखने का अधिकार
पॉनी, पॉनर से प्राप्त वस्तु को न केवल ऋण के भुगतान या वचन के पालन के लिए रख सकता है, बल्कि ऋण के ब्याज और उन सभी आवश्यक खर्चों के लिए भी रख सकता है, जो उसने वस्तु के अधिग्रहण या उसकी रक्षा के लिए किए हैं।
📌 मुख्य बिंदु:
- पॉनी का अधिकार: वह वस्तु को न केवल ऋण और वचन के लिए, बल्कि ब्याज और वस्तु की रक्षा में खर्च किए गए पैसे के लिए भी रख सकता है।
धारा 174 – पॉननी का अन्य ऋण या वचन के लिए पवित्र वस्तु को न रखना
जब तक इसके विपरीत कोई अनुबंध न हो, पॉननी को पॉन की गई वस्तु को किसी अन्य ऋण या वचन के लिए नहीं रखना चाहिए, सिवाय उस ऋण या वचन के लिए जिसके लिए वस्तु पॉन की गई है। हालांकि, इस प्रकार का अनुबंध, जब तक इसके विपरीत कुछ न हो, बाद में किए गए अग्रिमों के संबंध में माना जाएगा।
📌 मुख्य बिंदु:
- पॉनी का सीमित अधिकार: वह पॉन की गई वस्तु को केवल उसी ऋण या वचन के लिए रख सकता है, जिसके लिए वह पॉन की गई है।
- अग्रिमों के लिए अनुबंध: बाद में किए गए अग्रिमों के लिए पॉननी को वस्तु रखने का अधिकार माना जा सकता है।
धारा 175 – पॉननी का असाधारण खर्चों के संबंध में अधिकार
पॉननी को पॉनर से उन असाधारण खर्चों की प्राप्ति का अधिकार होता है, जो उसने पॉन की गई वस्तु के संरक्षण के लिए किए हैं।
📌 मुख्य बिंदु:
- असाधारण खर्चों की वसूली: पॉननी को पॉनर से पॉन की गई वस्तु के संरक्षण में किए गए असाधारण खर्चों की वसूली का अधिकार है।
- प्राकृतिक अधिकार: यह अधिकार पॉननी को अपनी लागत को पूरा करने के लिए दिया गया है, जो वस्तु की सुरक्षा से जुड़ा हुआ है।
धारा 176 – पॉनर द्वारा चुकता न करने पर पॉननी का अधिकार
यदि पॉनर समय पर कर्ज चुकाने या वादा निभाने में विफल रहता है, जिसके लिए वस्तु पॉन की गई थी, तो पॉननी पॉनर के खिलाफ कर्ज या वादे पर मुकदमा कर सकता है और पॉन की गई वस्तु को एक अतिरिक्त सुरक्षा के रूप में रख सकता है; या वह वस्तु को बेच सकता है, बशर्ते वह पॉनर को बिक्री की उचित सूचना दे।
📌 मुख्य बिंदु:
- मुकदमा दायर करना: पॉननी, पॉनर के खिलाफ कर्ज या वादे पर मुकदमा दायर कर सकता है और पॉन की गई वस्तु को सुरक्षा के रूप में रख सकता है।
- वस्तु की बिक्री: पॉननी वस्तु को बेच सकता है, बशर्ते पॉनर को पहले उचित सूचना दी जाए।
- अधिकार और शेष राशि: यदि बिक्री से प्राप्त राशि कर्ज या वादे की राशि से कम है, तो पॉनर को शेष राशि का भुगतान करना होगा। यदि प्राप्त राशि अधिक है, तो पॉननी को अतिरिक्त राशि पॉनर को लौटानी होगी।
धारा 177 – पॉनर का भुगतान में चूक होने पर पुनः प्राप्ति का अधिकार
यदि कर्ज चुकाने या वादे को निभाने के लिए समय निर्धारित किया गया हो, और पॉनर उस निर्धारित समय पर कर्ज चुकाने या वादा निभाने में विफल रहता है, तो वह वस्तु को किसी भी समय पुनः प्राप्त कर सकता है, बशर्ते वस्तु की वास्तविक बिक्री से पहले वह पुनः प्राप्ति का प्रयास करे; लेकिन इस स्थिति में, उसे अपनी चूक से उत्पन्न हुए किसी भी खर्च का भुगतान भी करना होगा।
📌 मुख्य बिंदु:
- पुनः प्राप्ति का अधिकार: यदि पॉनर समय पर चुकता नहीं करता, तो वह वस्तु को पुनः प्राप्त कर सकता है, बशर्ते वस्तु बेची न गई हो।
- अतिरिक्त खर्च: पुनः प्राप्ति के लिए पॉनर को अपनी चूक के कारण हुए खर्चों का भी भुगतान करना होगा।
धारा 178 – व्यापारी एजेंट द्वारा पॉनज
- जहाँ एक व्यापारी एजेंट, मालिक की सहमति से, वस्तुओं या वस्तु के शीर्षक दस्तावेज़ के कब्जे में होता है, वहाँ उस एजेंट द्वारा की गई कोई भी पॉनज, जब वह व्यापारी एजेंट के सामान्य व्यापारिक कार्यों में कार्य कर रहा हो, उतनी ही वैध होगी जैसे कि उसे वस्तु के मालिक द्वारा स्पष्ट रूप से पॉनज करने के लिए अधिकृत किया गया हो; यह शर्त है कि पॉनवाला अच्छे विश्वास में हो और पॉनज के समय उसे यह सूचना न हो कि पॉनर के पास पॉनज करने का अधिकार नहीं है।
📌 मुख्य बिंदु:
- व्यापारी एजेंट का अधिकार: यदि व्यापारी एजेंट वस्तुओं या उनके दस्तावेजों का कब्जा रखने के लिए मालिक से अनुमति प्राप्त करता है, तो वह वस्तु को पॉनज करने का अधिकार रखता है, बशर्ते वह व्यापारिक कार्यों में हो।
- ईमानदारी की शर्त: पॉनवाला ईमानदारी से कार्य कर रहा हो और उसे इस समय कोई जानकारी न हो कि पॉनर को पॉनज करने का अधिकार नहीं है।
धारा 178A – अवैध अनुबंध के तहत कब्जे में वस्तु द्वारा पॉनज
जब पॉनर ने किसी ऐसे अनुबंध के तहत वस्तु का कब्जा प्राप्त किया हो जो धारा 19 या धारा 19A के तहत रद्द किया जा सकता हो, लेकिन पॉनज के समय तक वह अनुबंध रद्द नहीं हुआ है, तो पॉनवाला वस्तु पर एक अच्छा अधिकार प्राप्त करता है, बशर्ते कि वह अच्छे विश्वास में हो और पॉनर के अधिकार में कोई दोष होने की जानकारी न हो।
📌 मुख्य बिंदु:
- रद्द किए जाने योग्य अनुबंध: यदि पॉनर ने किसी ऐसे अनुबंध के तहत वस्तु का कब्जा लिया है जो रद्द किया जा सकता है, लेकिन अभी तक रद्द नहीं हुआ है, तो पॉनवाला उस वस्तु का वैध मालिक बन सकता है।
- ईमानदारी और जानकारी का अभाव: पॉनवाला अच्छे विश्वास में कार्य कर रहा हो और उसे पॉनर के अधिकार में कोई कमी होने की जानकारी न हो।
धारा 179 – सीमित अधिकार वाले पॉनर द्वारा पॉनज
जब कोई व्यक्ति ऐसी वस्तु को पॉनज करता है जिसमें उसके पास केवल सीमित अधिकार होता है, तो पॉनज उसी अधिकार तक वैध होता है।
📌 मुख्य बिंदु:
- सीमित अधिकार: पॉनर के पास यदि वस्तु पर केवल सीमित अधिकार है, तो पॉनज केवल उसी सीमित अधिकार के तहत ही वैध होगा।
धारा 180 – बाइलोर या बैली का तीसरे व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा
यदि कोई तीसरा व्यक्ति बैली को बाइल की गई वस्तु के उपयोग या कब्जे से गलत तरीके से वंचित करता है, या उसे कोई हानि पहुँचाता है, तो बैली को वही उपाय करने का अधिकार होता है जो मालिक को बिना बाइलमेंट के उस स्थिति में करने का अधिकार होता। और बाइलोर या बैली में से कोई भी तीसरे व्यक्ति के खिलाफ ऐसे वंचन या हानि के लिए मुकदमा दायर कर सकता है।
📌 मुख्य बिंदु:
- बैला की हानि या वंचन: यदि तीसरे व्यक्ति के कारण बैली को वस्तु का उपयोग या कब्जा नहीं मिल पाता है या उसे नुकसान होता है, तो बैली को मालिक के समान उपाय करने का अधिकार होता है।
- मुकदमा: बाइलोर या बैली, दोनों में से कोई भी तीसरे व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा दायर कर सकता है।
धारा 181 – ऐसे मुकदमे में प्राप्त राहत या मुआवजे का वितरण
जो भी राहत या मुआवजा किसी ऐसे मुकदमे में प्राप्त होता है, उसे बाइलोर और बैली के बीच उनके संबंधित हितों के अनुसार बांटा जाएगा।
📌 मुख्य बिंदु:
- राहत या मुआवजे का वितरण: यदि किसी मुकदमे में राहत या मुआवजा प्राप्त होता है, तो उसे बाइलोर और बैली के बीच उनके हिस्से के अनुसार विभाजित किया जाएगा।
धारा 182 – ‘एजेंट’ और ‘प्रधान’ की परिभाषा
- एजेंट वह व्यक्ति है जिसे किसी अन्य के लिए कोई कार्य करने या तीसरे व्यक्ति के साथ लेन-देन में दूसरे का प्रतिनिधित्व करने के लिए नियुक्त किया गया है।
- प्रधान वह व्यक्ति है जिसके लिए यह कार्य किया जाता है या जो इस प्रकार प्रतिनिधित्व किया जाता है।
धारा 183 – कौन एजेंट नियुक्त कर सकता है
- कोई भी व्यक्ति जो कानून के अनुसार अपनी आयु में परिपक्व है और मानसिक रूप से स्वस्थ है, वह एक एजेंट नियुक्त कर सकता है।
धारा 184 – कौन एजेंट बन सकता है
- प्रधान और तीसरे व्यक्ति के बीच कोई भी व्यक्ति एजेंट बन सकता है, लेकिन ऐसा व्यक्ति जो न तो परिपक्व हो और न ही मानसिक रूप से स्वस्थ हो, वह एजेंट नहीं बन सकता है, ताकि उसे प्रधान के प्रति जिम्मेदार ठहराया जा सके।
धारा 185 – विचार आवश्यक नहीं
- एजेंसी बनाने के लिए कोई विचार (कानूनी मूल्य) आवश्यक नहीं है।
धारा 186 – एजेंट की प्राधिकृति व्यक्त या अनुमानित हो सकती है
- एजेंट की प्राधिकृति व्यक्त या अनुमानित हो सकती है।
धारा 187 – व्यक्त और अनुमानित प्राधिकृति की परिभाषा
- व्यक्त प्राधिकृति: वह प्राधिकृति होती है जो शब्दों द्वारा व्यक्त की जाती है, चाहे वे बोले गए हों या लिखित।
- अनुमानित प्राधिकृति: वह प्राधिकृति होती है जिसे मामले की परिस्थितियों से समझा जा सकता है; इसमें बोले गए या लिखित शब्द, या सामान्य व्यापारिक प्रक्रिया को भी शामिल किया जा सकता है।
उदाहरण
- A का एक दुकान है, लेकिन वह खुद कलकत्ता में रहता है और कभी-कभी दुकान पर जाता है। B दुकान का प्रबंध करता है और A के नाम पर C से माल मंगवाने और A के धन से भुगतान करने का काम करता है। B को A से माल मंगवाने की अनुमानित प्राधिकृति है।
धारा 188 – एजेंट की प्राधिकृति की सीमा
- एक एजेंट के पास यदि किसी कार्य को करने की प्राधिकृति है, तो उसे उस कार्य को करने के लिए आवश्यक सभी वैध कार्य करने की प्राधिकृति होती है।
- यदि एजेंट को किसी व्यवसाय को चलाने की प्राधिकृति दी गई है, तो उसे उस उद्देश्य के लिए आवश्यक सभी वैध कार्य करने की प्राधिकृति होती है, या जो सामान्य रूप से उस व्यवसाय को चलाने में किया जाता है।
उदाहरण
- (a) A को B द्वारा Bombay में B के लिए एक कर्ज़ वसूल करने के लिए नियुक्त किया गया है। A वैध प्रक्रिया का पालन कर कर्ज़ वसूल करने के लिए कार्य कर सकता है और B के लिए वैध डिस्चार्ज दे सकता है।
- (b) A ने B को अपने शिप-बिल्डिंग व्यवसाय को चलाने के लिए एजेंट नियुक्त किया। B लकड़ी और अन्य सामग्री खरीद सकता है, और काम करने के लिए श्रमिक हायर कर सकता है।
धारा 189 – आपातकाल में एजेंट की प्राधिकृति
- एक एजेंट को आपातकाल में, अपने प्रधान को नुकसान से बचाने के लिए वे सभी कार्य करने की प्राधिकृति होती है जो सामान्य परिस्थितियों में कोई सामान्य समझदार व्यक्ति स्वयं करता।
उदाहरण
- (a) एक एजेंट जो माल बेचने का कार्य करता है, अगर आवश्यक हो तो वह माल की मरम्मत कर सकता है।
- (b) A ने B को provisions भेजे और Cuttack में C को भेजने का निर्देश दिया। यदि वह माल Cuttack भेजने से पहले खराब होने वाला हो, तो B उसे Calcutta में ही बेच सकता है।
धारा 182 — ‘एजेंट’ और ‘प्रधान’ की परिभाषा
जिस व्यक्ति को किसी दूसरे के लिए कोई कार्य करने या तीसरे व्यक्ति से लेन-देन में प्रतिनिधित्व करने के लिए नियुक्त किया जाता है, वह एजेंट कहलाता है।
जिस व्यक्ति के लिए यह कार्य किया जाता है या जिसका प्रतिनिधित्व किया जाता है, वह प्रधान (Principal) कहलाता है।
धारा 183 — एजेंट नियुक्त करने की योग्यता
कोई भी व्यक्ति जो:
- कानून के अनुसार प्राप्तवय (Major) है, और
- समझ-बूझ की स्थिति (Sound Mind) में है,
वह एजेंट नियुक्त कर सकता है।
धारा 184 — कौन एजेंट बन सकता है
प्रधान और तीसरे व्यक्ति के बीच कोई भी व्यक्ति एजेंट बन सकता है,
लेकिन कोई ऐसा व्यक्ति जो नाबालिग या मानसिक रूप से अस्वस्थ है, वह अपने प्रधान के प्रति जिम्मेदार एजेंट नहीं बन सकता।
धारा 185 — एजेंसी बनाने के लिए विचार (Consideration) आवश्यक नहीं
एजेंसी (Agency) बनाने के लिए कोई विचार (Consideration) आवश्यक नहीं होता।
धारा 186 — एजेंट की प्राधिकृति व्यक्त (Express) या अनुमानित (Implied) हो सकती है
एजेंट की प्राधिकृति या तो:
- व्यक्त रूप में दी जाती है (जैसे बोले गए या लिखित शब्दों में), या
- अनुमानित रूप में होती है, जो परिस्थितियों से समझी जाती है।
धारा 187 — व्यक्त और अनुमानित प्राधिकृति की परिभाषा
- व्यक्त प्राधिकृति (Express Authority): जब प्राधिकृति बोले या लिखे शब्दों में दी जाती है।
- अनुमानित प्राधिकृति (Implied Authority): जब प्राधिकृति केस की परिस्थितियों से अनुमानित होती है, जैसे बोले या लिखे शब्द, या लेन-देन का सामान्य तरीका।
📌 उदाहरण:
A सेरामपुर में दुकान का मालिक है, लेकिन वह खुद कलकत्ता में रहता है। B उसकी दुकान चलाता है और C से A के नाम पर सामान मंगवाता है तथा भुगतान A के पैसे से करता है। A को इसकी जानकारी है।
➡️ B को C से सामान मंगवाने की अनुमानित प्राधिकृति है।
धारा 188 — एजेंट की प्राधिकृति की सीमा
- अगर एजेंट को कोई कार्य करने की प्राधिकृति दी गई है, तो उसे उस कार्य को पूरा करने के लिए सभी वैध और आवश्यक कार्य करने का अधिकार होता है।
- अगर एजेंट को कोई व्यापार चलाने की प्राधिकृति है, तो वह व्यापार को चलाने के लिए हर वैध और सामान्य रूप से किया जाने वाला कार्य कर सकता है।
📌 उदाहरण:
(a) A को B द्वारा बॉम्बे में कर्ज़ वसूल करने के लिए नियुक्त किया गया है। A कोई भी कानूनी प्रक्रिया अपना सकता है और वैध भुगतान स्वीकार कर सकता है।
(b) A ने B को शिप-बिल्डिंग का व्यापार चलाने के लिए एजेंट बनाया है। B लकड़ी खरीद सकता है, सामग्री ले सकता है और श्रमिक हायर कर सकता है।
धारा 189 — आपातकाल में एजेंट की प्राधिकृति
एजेंट को आपातकाल में अपने प्रधान को हानि से बचाने के लिए ऐसे सभी कार्य करने की प्राधिकृति होती है, जो एक सामान्य समझदार व्यक्ति अपने लिए ऐसी परिस्थिति में करता।
📌 उदाहरण:
(a) कोई एजेंट जो बिक्री करता है, माल की मरम्मत करवा सकता है यदि जरूरी हो।
(b) A ने B को खाने का सामान कलकत्ता भेजा और निर्देश दिया कि वह सामान तुरंत Cuttack भेजा जाए। यदि वह खराब हो सकता हो, तो B उसे कलकत्ता में ही बेच सकता है।
यदि आप आगे की धाराएँ (धारा 190 से आगे) भी ऐसे ही हिन्दी में सरल भाषा में समझना चाहते हैं, तो बताइए — मैं उसी शैली में आगे बढ़ाऊँगा।
धारा 190 — जब एजेंट कार्य को किसी और को नहीं सौंप सकता
जब कोई एजेंट किसी कार्य को स्वयं करने का स्पष्ट या अनुमानित वचन देता है, तो वह उसे किसी और को नहीं सौंप सकता।
लेकिन, यदि व्यापार की सामान्य प्रथा हो या एजेंसी की प्रकृति ही ऐसी हो कि सहायक एजेंट (sub-agent) की आवश्यकता हो, तो एजेंट ऐसा कर सकता है।
धारा 191 — ‘सहायक एजेंट’ (Sub-agent) की परिभाषा
सहायक एजेंट वह व्यक्ति होता है जिसे मूल एजेंट द्वारा एजेंसी के काम में सहायक के रूप में और उसके नियंत्रण में नियुक्त किया गया हो।
धारा 192 — सही ढंग से नियुक्त सहायक एजेंट द्वारा प्रधान का प्रतिनिधित्व
यदि सहायक एजेंट को ठीक प्रकार से नियुक्त किया गया हो:
- तो वह तीसरे पक्ष के लिए ऐसे ही माना जाएगा जैसे कि उसे खुद प्रधान ने नियुक्त किया हो।
- प्रधान उसकी क्रियाओं के लिए उत्तरदायी होगा।
- मूल एजेंट, सहायक एजेंट के कार्यों के लिए अपने प्रधान के प्रति उत्तरदायी रहेगा।
- सहायक एजेंट, अपने कार्यों के लिए केवल एजेंट को जवाबदेह होगा, प्रधान को नहीं — जब तक कि धोखाधड़ी या जानबूझकर गलती न हो।
धारा 193 — बिना अधिकार सहायक एजेंट नियुक्त करने पर एजेंट की जिम्मेदारी
यदि कोई एजेंट बिना अधिकार के किसी को सहायक एजेंट नियुक्त करता है:
- तो वह व्यक्ति एजेंट का एजेंट माना जाएगा, न कि प्रधान का।
- ऐसी स्थिति में एजेंट खुद उस व्यक्ति के कार्यों के लिए प्रधान और तीसरे पक्ष दोनों के प्रति उत्तरदायी होगा।
- प्रधान उस व्यक्ति की क्रियाओं के लिए जिम्मेदार नहीं होगा।
धारा 194 — जब एजेंट को किसी अन्य को नियुक्त करने का अधिकार होता है
यदि एजेंट को स्पष्ट या अनुमानित रूप से यह अधिकार है कि वह प्रधान के लिए किसी अन्य व्यक्ति को एजेंसी के काम में नियुक्त करे —
तो ऐसा व्यक्ति सहायक एजेंट नहीं, बल्कि सीधे प्रधान का एजेंट माना जाएगा, उस विशिष्ट कार्य के लिए।
📌 उदाहरण:
- (a) A अपने वकील B को संपत्ति नीलाम करने को कहता है और एक नीलामीकर्ता नियुक्त करने की अनुमति देता है। B, C को नीलामी के लिए नियुक्त करता है। C, A का एजेंट माना जाएगा।
- (b) A, B को अपने लिए पैसे वसूलने की शक्ति देता है। B, वसूली के लिए D वकील को नियुक्त करता है। D, A का एजेंट होगा, सहायक एजेंट नहीं।
धारा 195 — ऐसे व्यक्ति को चुनते समय एजेंट का कर्तव्य
जब एजेंट अपने प्रधान के लिए किसी और को नियुक्त करता है, तो उसे एक समझदार व्यक्ति की तरह विवेक से काम लेना चाहिए।
यदि एजेंट ऐसा करता है, तो वह उस व्यक्ति की लापरवाही या गलतियों के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।
📌 उदाहरण:
- (a) B, एक नामी जहाज निरीक्षक को नियुक्त करता है, लेकिन वह निरीक्षण में लापरवाही करता है और जहाज डूब जाता है। B उत्तरदायी नहीं होगा।
- (b) B एक नामी नीलामीकर्ता से A का सामान बिकवाता है, लेकिन वह रकम लेकर दिवालिया हो जाता है। B उत्तरदायी नहीं होगा।
Ratification (पुष्टि)
धारा 196 — बिना अनुमति किए गए कार्य की पुष्टि का प्रभाव
यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे की ओर से बिना उसकी जानकारी या अनुमति के कोई कार्य करता है,
तो वह दूसरा व्यक्ति चाहे तो उस कार्य को स्वीकृति (Ratify) दे सकता है या अस्वीकार कर सकता है।
यदि वह पुष्टि करता है, तो वह ऐसा माना जाएगा जैसे वह कार्य उसकी अनुमति से हुआ हो।
धारा 197 — पुष्टि व्यक्त या अनुमानित हो सकती है
पुष्टि:
- या तो स्पष्ट रूप से (बोले या लिखे शब्दों में) हो सकती है,
- या फिर व्यवहार से अनुमानित की जा सकती है।
📌 उदाहरण:
- (a) A, B की अनुमति के बिना उसके लिए माल खरीदता है। B आगे जाकर माल को C को बेच देता है — यह पुष्टि मानी जाएगी।
- (b) A, B की अनुमति के बिना उसका पैसा C को उधार देता है। B, C से ब्याज ले लेता है — यह भी पुष्टि मानी जाएगी।
धारा 198 — पुष्टि के लिए तथ्य का ज्ञान आवश्यक
कोई भी वैध पुष्टि तभी संभव है जब पुष्टि करने वाले को उस कार्य से संबंधित सभी आवश्यक तथ्यों का यथोचित ज्ञान हो।
धारा 199 — अवैध कार्य की आंशिक पुष्टि नहीं
यदि कोई व्यक्ति किसी एक अवैध कार्य की पुष्टि करता है, जो किसी पूरे लेन-देन का हिस्सा है,
तो वह पूरे लेन-देन की पुष्टि मानी जाएगी, केवल उस हिस्से की नहीं।
धारा 200 — पुष्टि द्वारा तीसरे पक्ष को क्षति नहीं पहुँचाई जा सकती
कोई ऐसा कार्य जो बिना अधिकार किसी ने किसी दूसरे की ओर से किया हो और जो किसी तीसरे व्यक्ति को क्षति पहुँचाता हो —
उसे पुष्टि के द्वारा वैध नहीं बनाया जा सकता, ताकि वह तीसरे व्यक्ति के अधिकार को समाप्त कर दे।
📌 उदाहरण:
- (a) A, बिना B के अधिकार के, C से B की वस्तु मांगता है। B बाद में उसकी पुष्टि नहीं कर सकता कि C को क्षति हो।
- (b) C, बिना अनुमति के, A को पट्टे की समाप्ति की सूचना देता है, जबकि B को ऐसा करने का अधिकार था। B उस सूचना की पुष्टि नहीं कर सकता ताकि वह A पर बाध्यकारी हो जाए।
अगर आप चाहें, तो मैं आगे की धाराओं को भी इसी शैली में हिंदी में सरलता से समझा सकता हूँ। बताइए, क्या मैं धारा 201 से आगे जारी रखूँ?
धारा 201 — अभिकरण (एजेंसी) की समाप्ति
एजेंसी (Agency) निम्नलिखित स्थितियों में समाप्त हो जाती है:
🔹 जब प्रधान (Principal) एजेंट की अधिकारिता को रद्द कर देता है।
🔹 जब एजेंट (Agent) एजेंसी के कार्य से स्वयं हट जाता है।
🔹 जब एजेंसी का कार्य पूरा हो जाता है।
🔹 जब प्रधान या एजेंट की मृत्यु हो जाती है, या वे मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाते हैं।
🔹 जब प्रधान को किसी लागू विधि के अंतर्गत दिवालिया घोषित कर दिया जाता है, जो दिवालिया ऋणकर्ताओं को राहत देने से संबंधित हो।
📌 नोट: उपरोक्त किसी भी स्थिति में एजेंसी स्वतः समाप्त मानी जाएगी, जब तक कि अन्यथा न कहा गया हो।
धारा 202 — जब एजेंट का विषय-वस्तु में हित हो, तब एजेंसी की समाप्ति नहीं होती
यदि एजेंट का स्वयं उस संपत्ति (विषय-वस्तु) में हित (interest) हो, जो एजेंसी का विषय है,
तो जब तक कोई स्पष्ट अनुबंध न हो, एजेंसी को इस प्रकार समाप्त नहीं किया जा सकता जिससे एजेंट के उस हित को नुकसान पहुँचे।
📌 उदाहरण:
(a) A, B को अपनी ज़मीन बेचने का अधिकार देता है और कहता है कि बिक्री की राशि से B अपने A से प्राप्त देयकों को वसूल कर ले।
👉 A इस एजेंसी को न तो रद्द कर सकता है, और न ही यह A की मृत्यु या मानसिक असंतुलन से समाप्त होगी।
(b) A, B को 1,000 गांठ कपास भेजता है, जिस पर B ने पहले से अग्रिम राशि दी है। B को कहा गया कि वह कपास बेचे और अग्रिम की राशि बिक्री से वसूल कर ले।
👉 A इस एजेंसी को वापस नहीं ले सकता और यह A की मृत्यु या पागलपन से समाप्त नहीं होती।
धारा 203 — कब प्रधान एजेंट की शक्ति को रद्द कर सकता है
🔹 प्रधान (Principal), धारा 202 को छोड़कर, किसी भी समय एजेंट (Agent) को दी गई अधिकारिता (Authority) को रद्द कर सकता है,
बशर्ते कि उस अधिकारिता का उपयोग ऐसा न किया गया हो जिससे प्रधान बाध्य हो चुका हो।
धारा 204 — जब अधिकारिता का आंशिक रूप से प्रयोग हो चुका हो, तब रद्द नहीं की जा सकती
🔸 यदि एजेंट ने अधिकारिता का आंशिक रूप से प्रयोग कर लिया है,
तो प्रधान उस अधिकारिता को उन कार्यों और दायित्वों के संबंध में रद्द नहीं कर सकता,
जो एजेंसी के अंतर्गत पहले ही किए जा चुके कार्यों से उत्पन्न हुए हैं।
📌 उदाहरण:
- (a) A, B को 1,000 गांठ कपास A के लिए खरीदने और B के पास रखे A के पैसे से भुगतान करने का अधिकार देता है।
B, अपने नाम पर कपास खरीदता है और खुद को भुगतान के लिए उत्तरदायी बनाता है।
👉 A अब B की अधिकारिता को भुगतान के संबंध में रद्द नहीं कर सकता। - (b) यदि B कपास A के नाम से खरीदे और खुद जिम्मेदार न बने,
👉 तो A, B की भुगतान की अधिकारिता को रद्द कर सकता है।
धारा 205 — एजेंसी को बिना कारण रद्द करने या त्यागने पर मुआवज़ा देना
यदि कोई स्पष्ट या निहित अनुबंध है कि एजेंसी किसी निश्चित अवधि तक चलेगी,
तो उस अवधि से पहले प्रधान द्वारा एजेंसी को रद्द करने, या
एजेंट द्वारा एजेंसी को त्यागने पर,
जिस पक्ष ने एजेंसी समाप्त की है, उसे बिना उचित कारण के,
दूसरे पक्ष को क्षतिपूर्ति (compensation) देनी होगी।
धारा 206 — रद्द करने या त्यागने की सूचना देना आवश्यक है
एजेंसी को रद्द करने या त्यागने से पहले उचित सूचना (reasonable notice) देना अनिवार्य है।
यदि सूचना नहीं दी जाती और इससे नुकसान होता है,
तो नुकसान की भरपाई उस पक्ष को करनी होगी जिसने बिना सूचना के एजेंसी समाप्त की।
धारा 207 — रद्द करना या त्याग करना प्रकट या निहित रूप में हो सकता है
🔹 एजेंसी की रद्दीकरण (Revocation) या त्याग (Renunciation)
या तो स्पष्ट रूप से की जा सकती है (जैसे पत्र द्वारा),
या व्यवहार से अनुमानित (Implied) मानी जा सकती है।
📌 उदाहरण:
A, B को अपना मकान किराए पर देने का अधिकार देता है,
लेकिन बाद में खुद मकान किराए पर दे देता है —
👉 यह B की अधिकारिता का निहित रद्दीकरण (implied revocation) है।
धारा 208 — एजेंट व तृतीय पक्षों के लिए अधिकारिता की समाप्ति कब प्रभावी मानी जाएगी
🔸 एजेंट के लिए, एजेंसी की समाप्ति तभी प्रभावी मानी जाएगी जब उसे इसकी जानकारी हो जाए।
🔸 तृतीय पक्षों के लिए, यह समाप्ति तभी प्रभावी होगी जब उन्हें भी इसकी जानकारी हो।
📌 उदाहरण:
- (a) A, B को माल बेचने और उस पर 5% कमीशन देने का अधिकार देता है।
A बाद में पत्र द्वारा B की अधिकारिता रद्द करता है।
B, पत्र मिलने से पहले माल बेच देता है।
👉 बिक्री वैध है और B कमीशन का हकदार है। - (b) A, मद्रास से B को बॉम्बे में कपास बेचने को कहता है।
बाद में दूसरा पत्र भेजकर बिक्री रोकने और कपास वापस भेजने को कहता है।
B, दूसरा पत्र मिलने के बाद भी, C को कपास बेच देता है जो पहले पत्र के बारे में जानता है पर दूसरे के बारे में नहीं।
👉 C का भुगतान वैध माना जाएगा। - (c) A, B को कुछ पैसे C को देने को कहता है।
A की मृत्यु के बाद, लेकिन मृत्यु की जानकारी से पहले, B पैसे C को दे देता है।
👉 भुगतान वैध माना जाएगा।
धारा 209 — जब एजेंसी प्रधान की मृत्यु या मानसिक विकार से समाप्त हो, तब एजेंट का कर्तव्य
🔹 यदि एजेंसी प्रधान की मृत्यु या पागलपन से समाप्त हो जाए,
तो एजेंट का यह कर्तव्य है कि वह प्रधान के उत्तराधिकारियों (legal representatives) के लिए
उसकी संपत्ति और हितों की रक्षा के लिए सभी उचित कदम उठाए।
धारा 210 – उप-एजेंट की अधिकारिता की समाप्ति
🔹 जब एजेंट की अधिकारिता समाप्त होती है,
तो उसके द्वारा नियुक्त सभी उप-एजेंटों (Sub-agents) की अधिकारिता भी स्वतः समाप्त हो जाती है,
बशर्ते कि एजेंट की अधिकारिता की समाप्ति से संबंधित प्रावधानों का पालन किया गया हो।
🧑💼 एजेंट के कर्तव्य (Agent’s Duties) — प्रधान के प्रति
धारा 211 – प्रधान के व्यापार के संचालन में एजेंट का कर्तव्य
🔸 एजेंट का यह कर्तव्य है कि वह प्रधान द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसार व्यापार करे।
यदि कोई निर्देश नहीं दिए गए हैं,
तो उसे उस स्थान पर उस प्रकार के व्यापार में प्रचलित रीति-रिवाजों (custom) के अनुसार कार्य करना चाहिए।
📌 यदि एजेंट इससे अलग तरीके से कार्य करता है और प्रधान को नुकसान होता है,
तो एजेंट को उसकी भरपाई करनी होगी।
अगर लाभ होता है, तो वह लाभ भी एजेंट को प्रधान को देना होगा।
📎 उदाहरण:
- (a) B के लिए व्यापार चला रहा A, पैसे निवेश करने की सामान्य प्रथा का पालन नहीं करता।
👉 A को ब्याज की हानि की भरपाई करनी होगी। - (b) B, A का दलाल है, जहाँ उधार पर बेचना प्रथा नहीं है।
फिर भी B, C को उधार पर सामान बेच देता है और C दिवालिया हो जाता है।
👉 B को A को नुकसान की भरपाई करनी होगी।
धारा 212 – एजेंट से अपेक्षित कौशल और परिश्रम
🔹 एजेंट को वही कौशल (Skill) और परिश्रम (Diligence) दिखाना चाहिए,
जैसा उस प्रकार के व्यापार में सामान्यतः अपेक्षित होता है,
जब तक कि प्रधान को उसके कौशल की कमी की जानकारी न हो।
🔸 एजेंट को अपने स्वाभाविक कौशल का उपयोग करना चाहिए, और अगर उसने लापरवाही, अकुशलता या गलत आचरण किया है,
तो उसे उसके सीधे परिणामों (direct consequences) के लिए प्रधान को क्षतिपूर्ति करनी होगी।
📎 उदाहरण:
- (a) B को A के पैसे मिलते हैं लेकिन वह उन्हें समय पर नहीं भेजता।
👉 B को ब्याज और विनिमय दर में हुए नुकसान की भरपाई करनी होगी। - (b) B, बिना जानकारी लिए, एक दिवालिया ग्राहक को उधार पर बेच देता है।
👉 B को नुकसान की भरपाई करनी होगी। - (c) बीमा दलाल, पॉलिसी में जरूरी शर्तें जोड़ना भूल जाता है, जहाज डूब जाता है।
👉 एजेंट (A) को नुकसान की भरपाई करनी होगी। - (d) A, इंग्लैंड में व्यापारी है, B को भारत से 100 गांठ कपास भेजने को कहता है।
B जानबूझकर कपास नहीं भेजता और बाद में कपास के दाम बढ़ जाते हैं।
👉 B को वो लाभ चुकाना होगा जो उस समय A को मिल सकता था, जब जहाज इंग्लैंड पहुंचा।
धारा 213 – एजेंट द्वारा लेखा देना
🔸 एजेंट को, प्रधान के कहने पर,
सही-सही लेखा (accounts) प्रस्तुत करना अनिवार्य है।
धारा 214 – कठिनाई में प्रधान से संपर्क करने का कर्तव्य
🔸 जब एजेंट को कोई संदेह या कठिनाई हो,
तो उसका कर्तव्य है कि वह सभी उचित परिश्रम करके प्रधान से संपर्क करे,
और उसके निर्देश प्राप्त करने का प्रयास करे।
धारा 215 – जब एजेंट, प्रधान की सहमति के बिना, एजेंसी के व्यापार में स्वयं लेन-देन करता है, तब प्रधान का अधिकार
📌 यदि कोई एजेंट, एजेंसी के व्यापार में प्रधान की पूर्व सहमति लिए बिना और उससे सभी महत्वपूर्ण तथ्यों की जानकारी दिए बिना, अपने निजी लाभ के लिए स्वयं लेन-देन करता है,
तो प्रधान उस लेन-देन को अस्वीकार (repudiate) कर सकता है,
यदि निम्न में से कोई स्थिति हो:
🔹 एजेंट ने कोई महत्वपूर्ण तथ्य जानबूझकर छुपाया हो, या
🔹 एजेंट द्वारा किया गया लेन-देन प्रधान के लिए नुकसानदायक रहा हो।
📎 उदाहरण:
🔸 (a) A, B को अपना एस्टेट बेचने का निर्देश देता है।
B, यह एस्टेट C के नाम पर स्वयं खरीद लेता है।
A जब यह जान जाता है कि B ने यह एस्टेट अपने लिए खरीदा है,
तो वह यह साबित कर के कि B ने कोई महत्वपूर्ण बात छुपाई थी या यह सौदा उसके लिए नुकसानदायक था,
इस बिक्री को रद्द कर सकता है।
🔸 (b) A, B को अपनी संपत्ति बेचने को कहता है।
B संपत्ति का निरीक्षण करते हुए एक खनिज (mine) खोजता है, जो A को ज्ञात नहीं था।
B, A को यह नहीं बताता कि खनिज मिला है, लेकिन यह बताता है कि वह स्वयं वह संपत्ति खरीदना चाहता है।
A, खनिज की जानकारी के बिना, उसे बेचने की अनुमति दे देता है।
बाद में जब A को पता चलता है कि B को खनिज की जानकारी थी,
तो A को यह अधिकार है कि वह उस बिक्री को या तो रद्द कर दे या स्वीकार कर ले — यह A के विवेक पर निर्भर है।
धारा 222 – एजेंट को वैध कार्यों के परिणामों से क्षतिपूर्ति का अधिकार
अगर कोई एजेंट अपने अधिकार के अनुसार कोई वैध कार्य करता है,
तो प्रधान (employer) को उसके सभी परिणामों की क्षतिपूर्ति एजेंट को देनी होगी।
📌 उदाहरण:
🔸 (a) B, सिंगापुर में, A (कलकत्ता) के निर्देश पर C के साथ कुछ माल पहुँचाने का अनुबंध करता है।
A माल नहीं भेजता और C, B पर मुकदमा करता है।
A, B को मुकदमा लड़ने की अनुमति देता है।
B को हर्जाना, लागत और अन्य खर्च देने पड़ते हैं।
➡ A, B को इन सबकी क्षतिपूर्ति देने का कानूनी रूप से जिम्मेदार है।
🔸 (b) B, एक दलाल है, A के आदेश पर C से 10 तेल की कास्क खरीदता है।
बाद में A तेल लेने से मना कर देता है और C, B पर मुकदमा करता है।
➡ A, B को हर्जाना, कोर्ट खर्च और अन्य खर्च की भरपाई करने के लिए बाध्य है।
धारा 223 – जब एजेंट ने सद्भावना में कार्य किया हो तो भी क्षतिपूर्ति
अगर एजेंट ने सच्ची नीयत (good faith) में कोई कार्य किया है,
तो भले ही उससे किसी तीसरे पक्ष का नुकसान हुआ हो,
नियोजक (employer) को एजेंट को उस नुकसान की भरपाई करनी होगी।
📌 उदाहरण:
🔸 (a) A, एक डिक्री होल्डर है और कोर्ट अधिकारी को B की वस्तुओं को ज़ब्त करने के लिए कहता है,
पर अधिकारी गलती से C की वस्तुएँ ज़ब्त कर लेता है।
C मुकदमा करता है और कोर्ट अधिकारी को भुगतान करना पड़ता है।
➡ A, उस भुगतान की भरपाई करने का जिम्मेदार होगा।
🔸 (b) B, A के कहने पर उसके कब्जे में रखे गए माल को बेचता है,
बिना यह जाने कि A को उसे बेचने का अधिकार नहीं था।
बाद में असली मालिक C, B पर मुकदमा करता है और हर्जाना वसूलता है।
➡ A, B को वह हर्जाना और खर्च देने के लिए जिम्मेदार है।
धारा 224 – आपराधिक कार्य के लिए क्षतिपूर्ति नहीं
अगर कोई व्यक्ति किसी एजेंट को कोई अपराध करने के लिए कहता है,
तो वह व्यक्ति एजेंट को उस अपराध के परिणामों की क्षतिपूर्ति नहीं दे सकता,
चाहे उसने ऐसा वादा किया हो।
📌 उदाहरण:
🔸 (a) A, B से C को पीटने को कहता है और वादा करता है कि वह उसके परिणामों की भरपाई करेगा।
➡ बाद में C मुकदमा करता है और B को हर्जाना देना पड़ता है,
A जिम्मेदार नहीं होगा।
🔸 (b) A, B से एक मानहानि (libel) लेख छपवाता है और कहता है कि वह उसके परिणामों की भरपाई करेगा।
➡ C मुकदमा करता है और B को भुगतान करना पड़ता है।
A जिम्मेदार नहीं होगा।
धारा 225 – प्रधान द्वारा लापरवाही से एजेंट को चोट पहुँचे तो क्षतिपूर्ति
अगर एजेंट को प्रधान की लापरवाही या कौशल की कमी के कारण चोट या नुकसान होता है,
तो प्रधान को उसकी क्षतिपूर्ति करनी होगी।
📌 उदाहरण:
🔸 A, B को एक मकान में ईंट लगाने का कार्य देता है और खुद मचान (scaffolding) लगाता है।
मचान गलत तरीके से लगाया जाता है और B को चोट लगती है।
➡ A को B को क्षतिपूर्ति देनी होगी।
धारा 226 – एजेंट द्वारा किए गए अनुबंधों का प्रवर्तन और परिणाम
अगर कोई एजेंट किसी अनुबंध को करता है या कोई कार्य करता है,
तो वह अनुबंध या कार्य ऐसे ही प्रभावी और वैध माना जाएगा,
जैसे कि वह खुद प्रधान (Principal) ने किया हो।
📌 मतलब:
एजेंट के द्वारा किए गए अनुबंधों और कार्यों को उसी तरह लागू किया जा सकता है जैसे कि वह स्वयं उस व्यक्ति (Principal) ने किए हों जिसने उसे एजेंट नियुक्त किया।
📚 उदाहरण:
🔸 (a) A, B से माल खरीदता है, यह जानते हुए कि B किसी और (Principal) का एजेंट है,
लेकिन यह नहीं जानता कि असली मालिक कौन है।
➡ B का Principal ही वह व्यक्ति होगा जो A से माल का मूल्य वसूलने का अधिकार रखेगा।
और A, उस Principal के मुकदमे में यह बहाना नहीं बना सकता कि B से उसे कोई पैसा लेना है।
🔸 (b) A, B का एजेंट है और B की ओर से पैसे लेने का अधिकार रखता है।
C, B को जो पैसे देने थे, वे A को दे देता है।
➡ अब C की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है। उसे B को दोबारा वह पैसा देने की जरूरत नहीं है।
🔹 धारा 227 – जब एजेंट अपने अधिकार से अधिक कार्य करता है, तो प्रधान (Principal) किस हद तक बंधा है
जब एजेंट ऐसा कोई कार्य करता है जो उसके अधिकार के दायरे से बाहर है,
और उस कार्य का वह भाग जो उसके अधिकार के भीतर है,
उससे अलग किया जा सकता है,
तो केवल वही हिस्सा जो उसके अधिकार में आता है,
Principal के लिए बाध्यकारी होता है।
📌 उदाहरण:
A अपने जहाज और माल के मालिक हैं। वे B को केवल जहाज पर ₹4,000 का बीमा कराने का अधिकार देते हैं।
B ₹4,000 का जहाज पर और ₹4,000 का माल पर बीमा करवा देता है।
➡ A केवल जहाज के बीमे का प्रीमियम देने के लिए बाध्य होगा, माल के बीमे के लिए नहीं।
🔹 धारा 228 – जब एजेंट का अतिरिक्त कार्य अलग नहीं किया जा सकता
अगर एजेंट ने अपने अधिकार से ज्यादा कुछ किया है
और जो किया गया है, उसे अलग-अलग नहीं किया जा सकता कि क्या अधिकार के भीतर था और क्या बाहर,
तो Principal उस पूरे लेन-देन के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।
📌 उदाहरण:
A, B को 500 भेड़ खरीदने का आदेश देता है।
B ₹6,000 में 500 भेड़ और 200 मेमने खरीद लेता है।
➡ A पूरी खरीद को अस्वीकार (Repudiate) कर सकता है।
🔹 धारा 229 – एजेंट को दी गई सूचना का परिणाम
अगर कोई सूचना या नोटिस एजेंट को दिया जाता है या एजेंट को प्राप्त होती है,
और वह सूचना एजेंसी के काम के दौरान मिली है,
तो उसे ऐसा माना जाएगा जैसे कि वह स्वयं Principal को दी गई या मिली हो।
📌 उदाहरण (a):
A को B ने C से माल खरीदने के लिए रखा है। C दिखावे में मालिक है, लेकिन A को पता चलता है कि असली मालिक D है।
➡ B को यह तथ्य नहीं पता, लेकिन A को पता है, तो B C से कोई वसूली या सेटलमेंट नहीं कर सकता।
📌 उदाहरण (b):
अगर A पहले से C का नौकर था और D की मिल्कियत की बात उसे पहले ही मालूम थी, लेकिन B को नहीं,
तो B को फिर भी C से वसूली का हक रहेगा क्योंकि B को जानकारी नहीं थी।
धारा 230 – एजेंट निजी रूप से अनुबंध को लागू नहीं कर सकता, ना ही बंधा होता है
यदि अलग से कोई अनुबंध न हो, तो
एजेंट अपने द्वारा Principal के लिए किए गए अनुबंध को ना तो निजी रूप से लागू कर सकता है,
और ना ही उसके लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार होता है।
📌 लेकिन इन स्थितियों में एजेंट को निजी रूप से जिम्मेदार माना जाएगा:
- जब एजेंट ने किसी विदेशी व्यापारी के लिए माल की बिक्री या खरीद का अनुबंध किया हो।
- जब एजेंट ने अपने Principal का नाम प्रकट नहीं किया।
- जब Principal का नाम तो बताया गया, लेकिन उसे मुकदमे में नहीं घसीटा जा सकता।
धारा 231 – जब एजेंट ने Principal का नाम उजागर नहीं किया हो
अगर एजेंट ऐसा अनुबंध करता है
जिसमें सामने वाले पक्ष को यह पता नहीं होता कि वह एजेंट है,
तो उस परिस्थिति में Principal, उस अनुबंध को पूरा करवाने की मांग कर सकता है।
लेकिन उस दूसरे पक्ष को Principal के विरुद्ध वही अधिकार मिलेंगे,
जो उसे एजेंट के विरुद्ध मिलते यदि एजेंट खुद Principal होता।
📌 अगर Principal ने अनुबंध पूरा होने से पहले खुद को उजागर कर दिया,
तो दूसरा पक्ष यह सिद्ध करके अनुबंध को रद्द कर सकता है
कि अगर उसे पता होता कि एजेंट Principal नहीं है,
तो वह अनुबंध नहीं करता।
धारा 232 – जब एजेंट को प्रमुख (Principal) न समझकर अनुबंध किया गया हो
यदि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से अनुबंध करता है, यह सोचकर कि वह स्वयं लेन-देन कर रहा है, न कि किसी का एजेंट है,
और उसे इस बात का कोई अंदेशा भी नहीं है,
तो वास्तविक Principal अगर उस अनुबंध को पूरा करवाना चाहता है,
तो वह केवल उन्हीं शर्तों पर करवा सकता है, जैसी स्थिति एजेंट और उस तीसरे पक्ष के बीच है।
📌 उदाहरण:
A, B का ₹500 का देनदार है। A, B को ₹1,000 का चावल बेचता है, लेकिन वास्तव में वह C का एजेंट है।
➡ लेकिन B को इसका कोई पता नहीं।
तो C, B को चावल लेने को मजबूर नहीं कर सकता जब तक वह B को A का बकाया काटने की इजाजत नहीं देता।
धारा 233 – जब एजेंट व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी हो
यदि किसी अनुबंध में एजेंट स्वयं व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होता है,
तो जिस व्यक्ति ने एजेंट से अनुबंध किया है, वह एजेंट, Principal या दोनों को उत्तरदायी ठहरा सकता है।
📌 उदाहरण:
A ने B से 100 गांठ कपास बेचने का अनुबंध किया। बाद में पता चला कि B, C का एजेंट था।
➡ A, चाहे तो B से, C से, या दोनों से कीमत की मांग कर सकता है।
धारा 234 – जब व्यक्ति ने खुद भरोसा दिलाया हो कि एजेंट या Principal ही उत्तरदायी होगा
अगर कोई व्यक्ति एजेंट को यह भरोसा दिलाकर काम करवाता है कि Principal ही जिम्मेदार होगा,
या Principal को विश्वास दिलाता है कि केवल एजेंट ही जिम्मेदार होगा,
तो वह बाद में अपने कहे के विपरीत, दूसरे व्यक्ति को उत्तरदायी नहीं ठहरा सकता।
धारा 235 – नकली एजेंट की जिम्मेदारी
अगर कोई व्यक्ति झूठा दावा करता है कि वह किसी का एजेंट है,
और किसी तीसरे व्यक्ति को धोखे में डालकर लेन-देन करता है,
और वास्तविक मालिक उस लेन-देन को मंज़ूरी नहीं देता,
तो ऐसा झूठा एजेंट उस तीसरे व्यक्ति को हुए नुकसान की भरपाई करने के लिए जिम्मेदार होता है।
धारा 236 – झूठे एजेंट को अनुबंध लागू करवाने का अधिकार नहीं
अगर कोई व्यक्ति एजेंट बनकर अनुबंध करता है, लेकिन वास्तव में वह खुद के लिए काम कर रहा हो,
तो उसे वह अनुबंध लागू करवाने का अधिकार नहीं मिलेगा।
धारा 237 – जब Principal ने ऐसा दिखाया कि एजेंट को अधिकार है, भले ही नहीं था
अगर एजेंट ने बिना अधिकार के कोई कार्य किया,
लेकिन Principal के आचरण या शब्दों से तीसरे पक्ष को यह विश्वास हो गया कि एजेंट को अधिकार है,
तो Principal उस कार्य के लिए उत्तरदायी होगा।
📌 उदाहरण (a):
A ने B को निर्देश दिए कि माल एक निश्चित न्यूनतम मूल्य से कम पर न बेचे।
C को यह जानकारी नहीं थी और उसने कम मूल्य पर माल खरीद लिया।
➡ A इस बिक्री से बंधा रहेगा।
📌 उदाहरण (b):
A ने B को हस्ताक्षरित चेक दिए, जिनका दुरुपयोग हुआ।
➡ बिक्री फिर भी वैध मानी जाएगी।
धारा 238 – एजेंट द्वारा की गई धोखाधड़ी या गलत जानकारी का प्रभाव
एजेंट अगर अपनी Principal की ओर से, अधिकार के भीतर रहते हुए धोखा देता है या गलत जानकारी देता है,
तो यह वैसा ही प्रभाव डालेगा जैसे खुद Principal ने धोखा किया हो।
लेकिन अगर एजेंट ने यह सब अपने अधिकार से बाहर जाकर किया,
तो Principal उत्तरदायी नहीं होगा।
📌 उदाहरण (a):
B का एजेंट A, C को धोखा देकर माल बेचता है, जबकि B ने ऐसा करने को नहीं कहा था।
➡ C को अनुबंध को रद्द करने का अधिकार होगा।
📌 उदाहरण (b):
B का जहाज-नायक A झूठे बिल ऑफ लाडिंग (bill of lading) पर हस्ताक्षर करता है बिना माल लादे।
➡ बिल अमान्य माने जाएंगे।